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दोनों इसको अपभ्रंप की ही ठहराते है। पर श्री अगरबन्द नाइटा इसे उध जप की न मान, प्राचीन राजस्थानी से प्रभावित उत्तर अपत्र की ही मानते हैं तथा उन्होंने इसे वीरगाथा काल के भाषा काव्यों के अन्त ही रहा है। कई गुजराती विद्रवान इसे जूनी गुजराती की कृति समझते है स्वयं मुनिजी ने गुजराती समाज में जैन साहित्य की गुजराती की सबसे प्राचीन रचना ही मानकर इसका प्रकाशन किया है।
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यद्यपि विवानों ने इस की मादा को अवथ विवादग्रस्त बना दिया ना है, पर रचना की मात्रा का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि रचना प्राचीन राजस्थानी की है जिस पर अपभ्रंश के परवर्ती रूपों का प्रभाव है। साथ ही तत्कालीन प्रचलित कुछ विदेशी भी आ गए है। कुछ शब्दों की व्युत्पत्ति पर विचार करने पर इसमें पुरानी राजस्थानी और उत्तरा का स्पष्ट परिलक्षित होता है तथा कई शब्द तो एक दम संस्कृत के ही
अपक रूप है यथा:
पसरंत
(सं०) प्रसरंत
रक्ि
(सं०) रक्षि
सानि (सं०) स्वामिन्
पसाउ
कोह
पचाउरि
१
१- जैन सा०० ०२४१-२४४
पसाड़ सं प्रसाद
(सं०) क्रोध
(अपच) साबोर
(प्रा०) सव
विहोरडि (०) विस्फोटय
उत्तर अपप्रेस के स्वस्य प्रस्तुत करने वाले
शब्द देखिए:
अप:- (१) इयरनर, मनुमरु, विज्ञान, जगडन, मवण, सिपत्थर, पन्छेवर, नयरि, माइ, गहनगड, दिवा, जनावर, मल्कि, वियलोय.. आदि
(संज्ञा)
(सं०) सायपुर
(क्रिया)(२) विजय, डिम्ब, भ, मिलिज, उम्वसिया, पुच्छ्रत्थडवि feeves, vees, विज आदि। *
४६ बैंक श्री नाटा का लेख ।