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से ऐसा लगता है कि अब के दो म उस समय प्रालित रहे होगें एक स्वाभाविक और दूसरा कृत्रिम। साथ ही साथ इन पदों में सरलता आने का आग्रह है।
उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि वी ताब्दी में अपयश अपने अवसान पर धीमीर उसमें उत्तरोत्तर पुरानी हिन्दी के स्वरम का ढाचा निर्मित हो रहा था। अइयाविधि अन्य विभाषाओं में सत्यपुरीय महावीर उत्साह के अतिरिक्त तत्कालीन को प्रति नहीं मिलती बनः पुरानी हिन्दी के प्रारम्भिक स्यों की बीज रूप में इस कृति में देखा जा सकता है। निष्कर्ष:
इन नयों पर विचार करते हुए सेवक इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि इस कृति की भाषा अमांड के परवर्ती मों से प्रभावित प्राचीन राजस्थानी राजस्थानी साहित्य के एक प्रसिद्ध विद्वान श्री नरोत्तमदास जी भी इसको प्राचीन राजस्थानी की ही स्वीकार करते है।
इस प्रकार पापा, काव्य सौन्दर शिल्प तथा अन्य उपाबानों का अध्ययन कर हम इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते है कि यह सर्व प्रथम रचना है जो आदिकालीन रचनाओं को ही स्थान पर पहुंचा देती है, या इसी में में परवर्ती अपव के मा पुरानी हिन्दी र म पुरवित है। मपाल की ५ माधानों का यह छोटा सा सोत्र साहित्यिक, रानैतिक, ऐतिहासिक, सास्कृतिक आदि भी इन्टियों अपना विषिष्टमहत्व सबीस त्यानबह स्पष्ट हो गया कि ययापि विद्वानों ने सपाल की इस रचना को अपग की मानी है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है।इस रचना को किसी भी प्रकार विजय अपांव की रचना मी मा पा समास स्पष्ट है कि रमामों की ध्वनियों व प्वनि मूलक रियो प्रभाव परत यह भी स्पष्ट है कि रचना का ज्यालयमा ब मबों का । लोक भाषा का और किए पीपा प्राचाई मायामा कठिन है, और इसके लिए कोई निश्चित
-लामारा वोडा-स्वावना काम.. (समास्वरयास्वामी नरोत्तमदास।