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उपलब्ध सब निर्वेदात कृतियों में अपवाद है।
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विराट पर्व जन भाषा काव्य है। इष्टानुतौ अर्थान्तरन्यासों, उदाहरण, अनुप्रासों और सुन्दर रूपकों के द्वारा कवि नै कति को उत्कृष्ट बनाया है। छंदों के रूप में इसकी देन असाधारण व अनूठी है। जन भाषा काव्य होने से कृति के उदाहरण अनेक तत्कालीन लेखकों ने उद्वत किए है और कई पंक्तियों में इसकी हाया
है- कुछ उदाहरण दृष्टव्य है
(१) माणिक्य चंद्र ने अपनी झुकराज कथा में इस उद्धरण को दिया है:
इससे विराट पर्व को मिलाइए:
देव दानव राउत राम देव ममलि न को सबराणउ
डब नइ धरि जल वहि हरिचन्द भीलडी भरण लाघुमुकुन्दइ
विराट पर्व :
पाच पाण्डव रम्या इम द्रूपदी रही थाईय दासी
देव दानव न राय न राग देव आगलि नकोइ सपराणउ
राम लक्ष्मण महि पाडया, पाच पांडव विदेसि भमाडया ers घरिजल afsd हरचदिई, मालडि मरण लाच मुकुंदई १५वीं शताब्दी के श्रृंगार शतक में देखिए:
श्रृंगारशतक!
कमलने दलि सीतल साथरउ, कवि कोमल पत्रम पाथरज म करि सुकडि मूकडि, दूकडी, दवितु पेलि न डेलिन बापडी विराट पर्वः सथम सूकडि सहरि सीची पवण पूरिहिं बीजणी वीजीइ कमलने दलि साधर पाथरउ, मरड़ कीचक मम्मथ आफरत
१- भारतीय विद्वयाः वर्ष ३ अंक १, पृ० २१०-२२३ तथा जी०ओ०ए०सी० १८४० ४ २. रूप सुंदर कथा: डा० पोमीलाल जी साडेसरा: भूमिका भाग पृ० ७ की पादटिप्पणी ।