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नहीं है। अपने कधन की प्रामाणिकता में वे लिखते है कि-नेमिनाथ के चरित पर जो इसरा अपश प्राप्त है वह है विनयचंद मूरि (१२०० ई.) की नेमिनाथ उपई। पर वास्तव में ऐसा नहीं है। ऐसी रचनाओं को घोर अपच नहीं कहा वा माता। उनकी भाषा का रूप परिवर्तन तो स्वयं उन्हीं में स्पष्ट रूम में विद्यमान है।यह रचना पुरानी हिन्दी या प्राचीन राजस्थानी है क्या आदिकाल के हिन्दी जैन साहित्य की एक अत्यन्त प्रसिद्ध ज्या महत्वपूर्ण कृति है। क्योंकि पाका के रूप स्था अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर यह सरलता से निर्णय किया जा सकता है कि यह आदिकाल की हिन्दी न राजस्थानी कृति है जो पती पूर्वाद्ध की है। गुजराती साहित्य के प्रसिद्ध विदवान श्री केशवराम कादीराम शास्त्री का मत है कि -पूर्व रचित बारहमासी काव्य नहीं मिलने से नेमिनाथ चतुष्पदिका को ही सर्वप्रथम बारहमासा माना ग सकता है। परन्तु उक्त रचना जो श्री नाटा जी ने प्रकाशित की है बारहमासा की परम्परा को पूर्णतया स्पष्ट क्या गत लगभग समस्त प्रमों को निर्मूल सिद्ध कर दिया है। अत: अब इस तभूय में कोई विड गा का करने की गुंजायश नहीं रह जाती।
प्रस्तुत बारहमासा एक विरह काव्य है जिसमें राजुल या राजमती नायिका के चरित्र की परम निळा सिद्ध होती है। राजुक संतप्त होती है विरा उसे अनेक
मों में पुराना है और नारी अपने मन की बात को अनेक प्रकार करने का प्रयत्न करसी पर बही उसे विविध मार्म की बा नारी का कल्प बमरण को माना है और वह पुनः उसी प्रकार विकल हो जाती , पर उसकी इस
- देसिक चिन्दी विकास में अपांव का योग-नामवरसिंह १९ नवीन १. विष ने क्लिाय पविका-काई गुजराती प्रथमाला ६१ ST० भायापी ..देसि भाषा वियोश्री सवराम काशीराम शास्त्री . । ४- देखिए हिन्दी अनुशीलन- कश्री नाहटा जी का लेखyon