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(1) राज्याशित रहितः जनता का साहित्य:
इस प्रबन्ध में लेखक ने जिन रचनामों का अध्ययन प्रस्तुत किया है ये राज्याश्रय से परे जनता के आचल और मन्तराल में हुबकर लिखा गया स्वाभाविक साहित्य है अतः इस इष्टि से इस ग्रन्ध की मौलिकता में वैशिष्ट्य परिलक्षित होता है। (२४) प्रस्तुत ग्रन्ध की समाज और साहित्य को देन:
आदिकाल का हिन्दी जैन साहित्य अन्ध में उन प्रसिद्ध अप्रसिद्ध कृतियों का विवेचन है जिनका मानवता के निर्माण में गहरा हाथ है। मानव जीवन के स्तर का सहभावनामों की ओर उन्नयन (serimadan र अहिंसा शान्ति आदि के संदेश द्वारा मानव की नैतिक निष्ठावो की जाति और विजयिनी मानवता की विश्व संवेदना इन कृतियों में है अत: प्रस्तुत प्रबन्ध का महत्व एवं समाज और साहित्य को गोग दान और अधिक बढ़ जाता है। (२५) साहित्यिक आलोचना:
प्राप्त सामग्री तथा तथ्याख्यान और तथ्य निरूपण (मत्य) को एक तरफ रखने के बाद लेखक ने कृतियों की साहित्यिक आलोचना प्रस्तुत की है। जिससे शक्षियों के भाव प और कला की सुषमा का अध्ययन हो सके। निरपेक्ष दृष्टि के इन रचनामों का अध्ययन से यह बात हो जाता है कि इनमें से अनेक कृतिया इध साहित्यिक कल्य की दृष्टि से लिपी गई।
इन्हीं वरमों के बाधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत प्रबन्ध अपने बाप में मीकि त्या अनेक प्रमों का निराकरण करने वाला है ही वह आदिकाल के अध्ययन सम्बन्धित एक बाब प्रभाव की पूर्ण करने का प्रयास करता है।
प्रस्तुत प्रकाश लेखक ने पापा का अध्ययन नहीं किया है। क्योंकि यहलेखक के लिए विनावर विश्व था। मामा विज्ञान के लिए येतिया पर्याप्त बोध गै अपेक्षा सही है। विविध काम मो का अध्ययन करते समय अमात्य पूर्व कृतियों के पदों का विकर उनका वर्गी, परिका, मावि का सामान्य वन कर दिया है। पापि यह नियम रखामी बाबीं पाला गया है।