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सीतल वाउ लोहामणु रे, प्रियविण ताप करवि बासी डाहिम आपणीरे, रंजी मुफ मन मोर छयल पंबई छानउ रहुरे, हीवडा करी कठोर एका दीडन जाणीया रे, मिरगुण जाणी कंस हिव शिण बाळ बरसमा रे, बाद मुझ विलवंत जह करवत सिर बाहर रे, वीज चिरणहार
वर कोच्या पाजण रे,सल उजाणत पार (११५- विवाह का प्रासादिक वर्णन कवि ने विवाहला ढाल में किया है। संगीत की दृष्टि से भी प्रस्तुत काव्य बड़ा महत्वपूर्ण है। विवाह का उल्लास, नारियों का श्रृंगार और मंगलगान आदि सबकी राजस्थानी परम्पराओं के वर्णन तथा तत्कालीन स्थानीय रंगो (लोकल कलक) का स्पर्म करते है। अब की आवृति उसे रागमय बनाती है:
(हिव वीवाडला नउदास) सुंदर लगन गणवीउंए, मणि माती रणि बधावीउ ए, बल्लह सज्जन बेहावीर ए, बरमंडप तिहा मंडावीर ए काडम बानि बढ़ाकिर, परिवा दोरण बाकि र बाढी नि नि नारी ए, बर पीबी बेडरवारीइए परिनि गजबड काली र, मोठी मवरंभ छाटी र कर अखि झी बलकती पगिरि मोकन राबडी बी ए हाडी सावि घोडामणी ए, सी योजह मंगल कापिणी प हाथ कामदाबाद र, बर राहवारी वेवरी
गरि मन बरतीमा ए, बर बस की बात दिवा ए
वैश्वानर शबई की र, इन परिषी जिन गुण मैदरी ए रचना वीर समापी परिवार देखने को मिलता है। विद्या विलास का राजा बनने के बाद अपने पिता के नगर के राषा पर शाम्मल करमा, नागों का पिना, वस्त्रों की कार, सवारों, वो घोड़ों, गथियों क्या तलवारों