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रचनाओं की परम्परा १९वीं और २०वीं शताब्दी तक सुरक्षित मिलती है। जैन में अंजैन लेखकों की हिन्दी राजस्थानी और गुजराती लेखकों की लगभग ५० बावनियां और कई बारसाड़ियां तथा बत्तीसिया आदि संग्रहीत है। जिस पर विवरण प्रकाशित हो चुका है।
अतः यह कहा जा सकता है कि अपांच में जो इस स्म में रचनाएं मिलती है उनमें मक्क मातृका के नाशिक बत्न भी नहीं मिल पाते। अतः यह कहने में कोई आपत्ति परिलक्षित नहीं होती किक मातृका संशक रमावों की परम्परा के उद्भव का श्रेय आदिकालीन इनरचनाओं को ही है। अपर में यों स्पष्ट व्य में इस आशय की कोई कृति उपलब्ध नहीं होती ली नाहटा जी ने इसका प्रारम्भ करने वाली बर्णनमला शक रचना प्रथ्वीन्द्र रचित (सं० १३०० के लगभग) मातृका प्रथमावर देहक को ही कहा है में इस रचना को अपच गब्दी की बहुलता से अषय की ही मानते है परन्तु वास्तव में यह प्राचीन राजस्थानी की की। स भाषाओं में बहुत कम ही अन्तर है। इसलिए अद्यावधि उपलब्ध रचनाओं के आधार पर यह कह देने में आपत्ति नहीं है कि कक्क मातृका और बावनी साहित्य का श्री गणेश करने वाली रचनाएं प्राचीम राजस्थानी या जूनी गुजराती की यही मातृका प्रथमावर दोहक रचना है।इसा की महत्वपूर्ण कृत्रियों का विश्लेषण यही किया जा रहा है:
माका प्रथमावर दोहा
प्रब रकमा सतीय श्री प्रवीन बारा विरचित हैवीड अभयहि मिती रमा को कवि नरस विलास का विविध बदारनों बटान्दों इवारा कवि मे रख, बार, नर, मारी, कलियुग, काम और वानन्द मादिमिर पर कारों में सदर बाहरण दिध है। दोहा
में होने का रस और प्रयास है। बड्यापि रखना अपांच सदों के - दिन
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