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(स्वर)- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, रि (m) री (O) लि, (क), ली (१)
__ ए, ऐ, ओ, औ, अ, । (व्यजन)- क.स.ग.घ,ड०, ब..ज,फ, 1 . ट,०,5,6,ष, वथ,द.च,न, प,क,
इस प्रकार बावनी में कुल ५१ अबरों का समावेश होता है १३. इन रचनाओं की शैली. अक्षरानाम से ही प्रारम्भ होती है अतः इस प्रकार
कीरचनाओं का एक निश्चित काव्य स्म हो गया है जिनमें विविध छन्दो का समावेश हो सकता है। ___ इन नियमों में वस्तुत: कुछ अपवादों की मुष्टि भी हुई है।परवर्ती काव्यों में ५१ अक्षरों के स्थान पर ५६,५७ पद भी मिलते है तथा साथ ही कक्क मातुका के स्थान पर बावनी और इसके बाद बारह बड़ी' संज्ञक रचनाएं मिलती है। इसी प्रकार परवर्ती हिन्दी साहित्य में अपराक्ट' या करालक रमाएं मिलती है। गायत्री और कबीरमे भी इस प्रकार की रचनाओं का पूजन यिा परवर्ती रचनाओं में कई अक्षरों में भिन्नता भी मिलती है जिने तर रचनाओं में ॐ मन सिघं (* नमो सिद्धा) अवरों से प्रारम्भ होती है। बावनियों में ड. ज के स्थान पर न, के स्थान पर भय और बाके स्थान पर ज और ब (रचना में कठिनका कारण प्रयुक्त किए गए है। अनेक रचनाएं ऐसी भी है चिनो स्वर प्रयुक्त नहीं होर व्यंजन अवर ही शुक्र यो प्रादेशिक भावानों में बामिल माटक और महाराष्प में भी मंगलावरम और प्रारम्भ ममः सिद्धम् की है। परवी कृत्रियों में धीरे धीरे लेलगू में नमस्कार ज्ञक नमः शिवाय: विदयाय नमः मादि अब दिया और स्किन में सिविध रस्तु क्या महाराम श्री महाय नमः। ॐ नमः दिया जादि पद इस कार मंगळावरण में प्रयुक्त हुए है।
इस प्रकार का माइका बावनी, बारड़ी और कनहरो सम्बन्धी १-मामरीवालपत्रिका बर्ष ८ ४ .२०११ पृ. ४३० २- मक्षिकपदबावड़ी दुवारा रचित अबरावट। कबीर का बीजककहरा *महीमकर वर्ष ११-१.४९४ में श्री अमरबन्दमाटाका
कि-दीपापानबावनी साहित्यशीर्षक लेख।
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