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गोटाले के अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगा । १७वीं शताब्दी के उत्तराध में तथा १८वीं शताब्दी में कुछ विनोदात्मक रचनाएं उंदर रासो, माकड रासो, आदि राखों की रचना हुई है।' डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है कि "रासक वस्तुतः एक विशेष प्रकार का मनोरंजन है। रास में वही भाव है। आज का रास विषयों की सीमा के बन्धन में नहीं है जनता अपने सुख दुख को प्रेम धर्मोपदेश, श्रृंगार, कथा आदि सभी रूपों में प्रस्तुत कर इस व्यस्त जीवन में सुख अनुभव करती है।
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जो भी हो, उक्त विवेचन में रास की परम्परा, उद्देश्य, परिभाषा, शिल्प आदि के तत्वों का पूरा पूरा मूल्यांकन प्रस्तुत करने का प्रयास लेखक ने किया है। अब अपर काल अथवा प्राचीन हिन्दी में जो आदिकाल की विभिन्न शताब्दियों मैं जो विशाल संख्या मेंरास रचनाएं प्राप्त होती है उनके काव्य का अध्ययन करना ठीक होगा। उक्त विवेचन सेआदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में प्रत्येक शताब्दी मैं मिलने वाले हिन्दी जैन रासों की मुख्य प्रवृत्तियों, शिल्पगत तत्वों तथा काव्य रूपों का अध्ययन "रास विवेचन में किया गया है अतः कहा जा सकता है कि आदिकालीन हिन्दी जैन रासों को समझने में इससे बहुत सरलता हो सकेगी।
१- देवि-नागरी प्रचारिणी पत्रिका ० २०९९ बैंक ४ पृ० ४२० पर श्री आर चन्द नाहटा का प्राचीन भाषा काव्यों की विविध संमा-लेख।
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हिन्दी साहित्य का कालः आचार्य हजारी प्रसाद द्विववेदी १० १००1