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________________ ९७९ हउपई पुलिपि अल्बाहि गमवक ललि अपहाराणामि तस्वक इरविणिज्जि अस सहकान्ति विट्ठ पिच पई संभुड कधी मेर देशीबों के रूप में खूब प्रचलित हुए। हेमचन्द्र के दानुशासन में भी ये व मिलते है। हेमचन्द्र के पश्चात् जयदेव ने गीत गोविन्द में इन दो का खुलकर प्रयोग किला है। उनका गीत गोविन्द देवी हदों में लिखी रचना है हिमचन्द्र में दोहा और प्लवंग का प्रयोग नहीं किया। जयदेव मे सबैया और चौपाई का मिति स्वरूप प्रस्तुत किया ना हरिगीतिका और धूलणा के विविध प्रयोग किए। उनके गीत गोविंद में मूलपा छंद । मात्राओं तथा (२०, १७, ७ ) भात्राओं का भी भूनपा उपलब्ध होता है। साथ ही उसने हरिगीतिका की ही भाति चौपाई मी प्रस्तुत की है। उनके विभिन्न प्रबन्धों में इन देशी छंदों का मानन्द लिया जा सकता है। उदाहरणार्थ भूया को ही लीजिए- उसमें २४, २० और १७ मात्राओं के मिल जाते है। संवैगा की ही मावि उन्होंने चौपाई को भी विविध रूपों में प्रस्तुत किया है। ला बथा सवैवा की ही मातिचीबाई के कुछ प्रसिद्ध उधरव देखिए: बासि यदि किंविपि बन्द गरि कौवी जति बरतिमिर गाडि स्फुरदयर बीच अब बन चन्द्रमा रोचवलोकन क्योरम प्रिय बाशीत, मुंबनवि भान भनिदानम् । रसद में मामानों का ना है। मामानों का मानसिपः मंजुर वसलकति सदन, विकसरी परिक्ष बने प्रविन राणे भाव स्पीकि..
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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