________________
१७८
उन्हीदों के नाम पर करने लगे। अनेक कृतियों का तो नामकरण ही इन दो के आधार पर किया गया है। यों की ढालें आज भी राजE Tन में अनेक रूप से गाई जाती है। पल शब्द का अर्थ ही संगीत की विभिन्न वर्षों से लिया जाता है। यह राजस्थान का संगीत की विभिन्न रामों और उनके सिल्प से लिया जा सकता है। अतः विभिन्न खेदों में कवियों ने विपिम्म रागों में ये लोक प्रचलित बातें प्रस्तुत की है। ये दालें यही विभिन्न प्रकार से गाई जाती है। अंगीत तत्व का सम्मिश्रण होने से ये देशी बन्द लोक प्रचलित हो गप है - सबजनाय है। मंदों की इन देशी बालों का स्वरूप राजस्थान के विभिन्न रासों और फागों मैदेखा जा सकता है। गुजरात में प्रचलित गरबा गीत रूपक है। राजस्थानमें प्रचलित इफ के गीतों में भी ये डालें अपना समत्कार दिखाती है। वस्तुतः इन देशी दो की पक लोकमचालित परम्परा रही है यि ढाडे मुक्त होती है या इनमें किसी शास्त्रीय शिल्प का बंधन नहीं होता। परन्तु फिर भी इसका अपना निबंधन विवेक है जिसके आधार पर अनेक वर्षी मे ये लोक गीतों की प्राति प्रापवान और जन प्रचलित है।
देशी दो की परम्परा हमें संस्कृत से ही मिलने लगती है। इन देशी बंधों का उद्गम रहा है, यह सही नही बढाना वो कठिन है परन्तु संस्कृत में इमका मल कालिदास के विनोदी में मिला है। इन बी बों उहगम केलिए राम को नहीं लाया जा सकता। वास्तव की घरात अनुस्यूत था। भरत ने नाटयशास्त्र में एक के अनेक प्रकार दिए है। कालिदास में विक्रमोशी में कई प्रकारके मागास दिए है। किमोशी में गर्मित अथव के बों में अनेक माना मिल बानि हालका गा सकता है इनमें वोडा, बौपाई और प्ल बों का प्रयोग मा है। बो उदाहरण देखिए:
र एकोपि भावत्यो अबिरल पारा चारविधा मुकाबलो मी पुढविपक्को मह पिन बिपि