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साहेली ए नगरि देउरि सुरतक, सुगुरुवर श्री जिनकुशल पूरे साली ए मिहिं प्रणमइ त भय भविवजन भगति उगति सूरे साली पवीत जावहि दोहन द्वरिय वालद इह सयल दूरे साडेली ए वी मंदिर विलसर संपति स वर भरि पूरे ।।२४)
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पट्टावली की ही भांति स्वावली रचनाएं की मिलती है जिनमें जैसलमेर भंडार की गुरावली गाथा ६, गुरावली गाथा २८ आदि रचनाएँ प्रस्तुत है। ये रचनाएं भी गुरु की परंपरा तथा क्रम पर प्रकाश डालती है। काव्य की दृष्टि से गुर्वावली संज्ञक रचनाएं साधारण है।
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गुप वर्णन (जिन वल्लभ सूरि गुरु गुण वर्णन)
श्वी शताब्दी की रचनाओं में श्री नेमिचन्द्र भंडारी द्वारा विरचित एक रचना श्री जिनवल्लभसूरि गुरु गुणवन मिलती है। गुरुगों का गुणगान करने की परम्परा बहुधा जैन और अजैन सभी प्रकार के साहित्य में मिल जाती है। रचनाकार मे दौडादों में भाषा में विसरि का यह मान किया है। पूरी रचना का उद्देश्य गुरु का युग वर्म है और कवि ने इरा का नामकरण भी तुम इसी के वर्णन की परम्परा
का देश प्रतीत होता है।
और
की बीमारी है। विका माता का जुन मान मिल जाता है। पवन के विश्व और परम्परा को
के बैनेवर विधवाहित्य में भी बुक की अतः नेमिचन्द्र भंडारी में प्रस्तुत रचना में इस रचना हमारा जाने बढ़ाया है रचना काम भाषा की दृष्टि है इसके
का है
की बात है। कु मी विपूर्ण दोडे केसों से छुटकारा विकाने वाले केवल
संसार के
परमिर है।
भाग
है। काल का मल बड़ा बूम है जो सबको वा जाता है। माया मोड़ से दूर रहकर मनुष्य यदि गुरु की शरण में चला जाय तो संसार उसका जीवन