________________
८१३७
१५वीं बताब्दी में इस प्रकार के अनेक स्तोत्र मिलते है। जिनका विस्तार भय से परिचय दिया जाना सम्भव नहीं है।
स्तवन
स्तवन संज्ञक रचनाओं में मेरनन्वन और जयसागर में अनेक रचनाएं लिपी भी ठीक वैसा ही है जैसा स्तोत्र संज्ञक रचनाओं का । स्तवन एक ही काव्य प्रकार के पर्याय है इस सम्बन्ध में
है। इन स्वनाओं का
वास्तव में स्तोत्र और
कुछ स्तनों का परिचा अप्रति है:
श्री चतुर्विति जिन स्तवन
atra
as की १४वीं शताब्दी की स्तवन संज्ञक रचना श्री चतुर्व
जिन स्तवन है। इसमें भी २४ निन्द्रों का प्रशस्ति गान किया गया है माया पर अपभ्रंश प्रभाव परिलक्षित होता है। तीर्थकरों की स्तुति बड़े उत्साह से कवि में प्रस्तुत की है:
--
" मोड महा मढ मय महन, रिसह विसर देव after for a ममिति तुम्ह ममसेव भूवन विमूवण मजिय विन, विजया देववि मल्हार निवर्तत मह रानि वियन सार
सेवर सुग संवर वरिम, संकर कि मिहावु
दिप
मने,
विहा
यसरि पड, हवी नंदन देव क्यान दिन, सुरविरइय सेव
हिरि करि बलि विमल जिन निज्जिय मोह गद
णुन पण पाया वियण नयनावंद