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पवाड़ा काव्य
पवाड़ों की परम्परा का इतिहास पर्याप्त प्राचीन लगता है। प्राचीन रचनाओं में जिस प्रकार रास फागु, चौपई मंधि पबन्ध संजक रचनाएं मिलती है, उनमें पवाड़ी भी वैसा ही एक काव्य प्रकार है। यो पवाडो चरितमूलक काव्यो लिए ही प्रयुक्त होता है परन्तु आगे चलकर इसमें प्रशस्तियों, प्रबन्ध काव्यों, वीरों के पराम तथा कौशल सूचक विषयों का भी समावेश हो गया। पवाड़ो की परम्परा का उद्भव आदिकाल ही है।यों संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में चरितभूलक काव्य तो अनेक मिलते है परन्तु पवाड़ा नाम से स्वतंत्र रूप में कोई रचना नहीं मिलती। पवाड़ा संशक एक सबसे प्राचीन रचना सं० १४२७ की एक जैनतर कवि असाइत की मानी गई है। इसी प्रकार की एक रचना सदय बत्स चरित मिलती है जो पवाड़ो तो नहीं है परन्तु चरितमूलक रचना है पर इस रचना का भी पवाड़ी की परम्परा में विशेषयोग नही। वस्तुतः इन दोनों कृतियों के काल ही गैक से निर्धारित नहीं हो पाये है। ऐसी स्थिति में सं० १४८५ में रचित जैन कवि हीरानंदसूर इवारा विरचित रचना विद्या विलास पवाडो ही इस परम्परा की प्रारम्भिक रचना कही जा सकती है योस० १४५३ में विरचित हरिचन्द पुराणक्या के प्रारम्भ में दो बार पवडो वृद्ध का उल्लेख मिलता है। परन्तु यही सब कार्य प्रकट भी होता है या ऐसे ही कोईऔर नई मी विमा पा सकता है। पयडो सद पवाडो के एक दम निकट नहीं लगता है। इसी प्रकार का दे प्रध, वसी का राब, अपनी मंगल आदि में भी पवाडो अब मिलता है परन्तु इनसे पंवाडो मक रचनाओं की परम्परा के विकास में कोई योग महीं मिलता।
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-बापमा क्यिोः श्री का शास्त्री २.कल्पनाबस्त अक्बर १९५. .. 1 (अधिकिार कर मार
(4) सद्ध हरबंद बवडो संसार।