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३- उक्त संग्रह
श्रीतिलक इन तीन रचनाओं में प्रथम दो बहुत ही महत्वपूर्ण है शेष तीसरी रमा साधारण सी है साथ ही उसके लेखक के विषय में भी कुछ सामग्री तथा सूचना उपलब्ध नहीं होती। यो रकना भी बहुत मौलिक नहीं है व्याकरण सम्बन्धी जितनी उक्तियों का इसमें संग्रह है सब प्रथम दो ग्रन्थों के आधार पर ही है तथा पर्याप्प में मिला जुलता भी है।
मौक्तिक संजक इन रचनाओं का शिल्प कारण पता ही है। रक्षा भी व्याकरम के कपों पर ही प्रकाश डालती है।इमनी भाषा मी राजस्थानी प्रधानहै। शब्द छोटे और व्याख्या विस्तृत तथा सरल है। अगधाववोध बीक्विक
इस कृति के लेखक श्री कुलमंडन मूरि है। सूरि जी की यह बहुत ही महत्वपूर्ण कृति है जो प्रकाशित भी हो चुकी है। औक्तिक सजक रचनाएं यो सामान्य अर्थ में व्याकरणमूलक ही होती है और प्रस्तुत इति में भी राजस्थानी के द्वारा संस्कृत व्याकरण को सरल करने के लिएविस्तार में ज्याख्या की गई है। कुछ उदाहरण भापा जैली की सरलता लेखमा की सरसता मामाकरण गत कठिनाई को सरलता सथा वैज्ञानिकता से समझाने भादि बातों को जदयंगम करने को पर्याप्त होगी। इन उदाहरणों से गद्य के तत्कालीम सयों को समझा बापा ने अति * विपत्तियों पर विचार किया है तथा साथ साधन्त मेद, विमेव गादि पर भी विस्तृत प्रकाश डाला है।कृति अनुवाद रुप में :" कीड, लीना, दीपा, पडीह, गुणी, इत्यादि मोलिवइ
यति मा करी तिमाहि बस्नु कता ज्यापीय कर्म । विही विढीया कटारा, करह इसी लिया रप करइ छ ।
RESTINE प्रथम किस करइ, क्ट कीजात कम। जि विदीया चित्रावट करोति।पर्व क्षेत्र : काष्ठं दहनि माममाति।
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चीन बराती गइय धर्म पृ० १७२-७४