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तिरियहि साहस गो हो, तिरिय चरित जिण कुलह कोइ (२५६)
गाथा
का भी कहीं कहीं प्रयोग मिलता है:दधति गुमा विचलं. बलहा सज्जनाहि वर्ड ति
विवसाय माथि सिधी परि सम्स परंमुहादिम्वहा (२६८) एक स्थान पर मरबर का प्रयोग भी मिलता है:केदपु पय नयर मझरि भयण किरग रवि लोषिक बढि अवास वरंगिणी नारि तिनका मनु अविल सिबर धन रुपिणी मन धरित रहाइ नारायण घर अवतरित सुरनर अवर जयजयकार जिहि आगे कलयर मयउ घर घर तोरण उमेवार सम्पन को डि उच्च प्रयउ (५४)
मलकार का स्वाभाविक वर्णन रचना की भाषा को और अधिक सबक बना देता है उपमा, रुपक, उत्प्रेदा, मक इस्टान्त, वह, अान्तरन्यास अपन्हुति अतिशयोक्ति या स्वामावोक्ति आदि अनेक अलकार बर्षित हुए है। कवि में सबसे अधिक उत्प्रेवाओं का ही प्रयोग किया है जो बहुत अनूठी ..
" टि सून भइ दडी बन कुषि मरहट पपड़ी ( चौड़ा पुरला उध्वी रोड, गनु पाहि भावी किम मेह " बिना मगर वीसह समरंत, जागो दावानलवर लह) 'निमय
रही खेह होपी हसि पाइ अतिश्योक्ति) कीब परिश विटोही नारि, की दम्बदाली वह ममा रि
की लाल, पूत संवा स्व गुण परा (४) स्मरन कर
र माग पहाडार, पण सह दीपड वारि या मारिने रे, दिसा निम्पल पाणी भरे और विक सब दीया, बावला हो पियरे पगार उक्त बी बीयो आवड मास पीक (१५८)