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STO हीरालाल जैन, श्री भगरचन्द माहटा, श्री मोतीलाल मेनारिया, तथा स्वामी नरोत्तमदास आदि ने अध्ययन कर कहा है कि इस काल का वीरधाथाकाल नामकरण एकदम निरर्थक प्रतीत होता है। अपने इस निरर्थक नामकरण का अंत्रिक आभास बहुत सम्भव है कि उस समय शुक्ल जी को भी हो गया हो।
इस नामकरण के में एक विचारणीय बात यह है कि शुक्ल जी मैं इन वीरवाथात्मक रचनाओं में सर्व प्रथम इमान राम्रो को माना है तथा इसका रचनाकाल सं० १९८० से १२०५ तक माना है, जब यह इस काल का सर्व प्रथम ग्रन्थ है तब इस काल का प्रारम्भ हुमान राम्रों से ही मानना चाहिए। क्ल जी ने वीरगाथा काल का प्रारम्भ सं० २०५० से माना है, अतः १५० वर्ष इस काल की होड़ में घसीट कर लाये जाते हैं वे निरर्थक ही कहे जायेंगे। परन्तु इसके सम्बन्ध में कहकर तो किया जा सकता है कि ब्रिविष्ट प्रवृत्तियों की रचनाओं के ममान में किसी काल को विशिष्ट काल मान लेना ठीक नहीं है अतः सम्भवः शुक्ल जी ने सं० २०५० से लेकर इमान राम्रों तक की रचना के समय को कोई अन्य नाम न देकर उसे वीरगाथा काल के ही अंत कर दिया है।
इसी प्रकार का एक प्रश्न विद्यापति के लिए भी विचार है कि उसका रमाकाल = १४६० के लगभग माना गया है और इधर उक्त जी इस काल की समाप्ति सं० १३०५ वि० तक ही कर देते है पैसी स्थिति में विद्यापति को वीरगाथा कालीन afa मानना क्या उचित है? परन्तु सम्भवतः इक् जी की वह मान्यता रही होगी कि विद्यापति मामा के अन्तिम कवि थे। और जी अप की परम्परा की समाप्ति वीरगाथा काल में ही कर देना वाढते रहे होगें। इसके अतिरिक्त यह
भी कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य में भक्ति और शृंगार की चारा के प्रवर्तक हो गए हैं कि ती मीति विकास भक्ति काल और रीतिकाल में हुआ अतः यह भी सम्भव है कि जी ने हिन्दी साहित्य की भक्तिमूलक या गार जन्य चारार्थों का मूल स्त्रोत वीरगाथा काल में विज्ञाने के लिए ही विद्यापति को arenter orata मान लिया हो। जो भी हो, स्थिति इस सम्बन्ध में बहुत स्पष्ट नहीं प्रतीत होती ।