________________
७०६
पञ्च गुरु इपण लहु कुरु ममणा एत्थ सहि चन्दपुहि वीस लहु मालणा
कम्बबर सप्प पण छन्द गिसिपालमा _(काव्य काल-प्राकृत पिंगल सूत्राणि) इसके अनुसार विक्षिपाल छद में हरपक चरण में २० मात्रा तथा ५ पाच मात्राओं के ४ गण होते है। पहले गण में स्थिति - और अंतिम में . . होती है। सन्धि का छन्द देखिए:
इस अभो । यभित । सार तमे । पाइयो
आमि गो। लेखक । मेडिनु । छाओ (१) .-पता- 1 यह द प्रत्येक कड़बक की अन्तिम कड़ी में है। स्तुति और काव्यारम्भ इसी छंद से हुआ है। इसके लक्षण इस प्रकार है
पिंगल कइ बिछड छ रक्दिन परत मल्व बारादि कर का मत्व बत्त मण मेवि पाज म तिमि तिषि बरि पदम दस वीसामो बीए बताई अछाई
तीए तेरह विरई पत्ता मत्ताई बासहित इस मद में दो चरम है पर के दोनों छंदों में चार चरण होते है अतः पत्ता दिवपदी का प्रकार है। सर के अन्य लपवी प्रकार । एक बरण में ४ मात्रामों के मन लामामा मैं। इस बाधार पर Reी कौर पूरी कड़ी में १२ मावार्य होगी शादी बीन गति भी। रबारम देखिए:
पनि गुमाया विशावर जीपकरबीबा पद ममि * ॥
अध्न पडियोमा मोड निरोगोर भव्य पार विस (1) इस प्रकार की दृष्टि से इसकी का महत्व स्पष्ट है। जी तक पाषा का प्रश्न आलोकों में से एक वा अपांव की कति ठहराया है। परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीच बों का बाहुल्य बस्यापि मिलता है परन्तु फिर भी गईमवीन दयों का समावेश होना पी प्रारम्प हो जाता हैातिकालीन रचना होने से अपच का प्रमावअधिक है। कृति काव्य व साहित्य की दृष्टि सेसाधारण