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भी इस तथ्य का समर्थन करते हैं। १
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परन्तु स्वयं विवेदजी ने अपने उक्त विचारों का परिहार अपने नए प्रवचन में कर दिया है। अतः इस तथ्य में अब अधिक असंगति की गुंजा स नहीं रह जाती। फिर भी डा० हजारी प्रसाद द्विववेदी जी ने आदिकाल नामकरण से अपभ्रंश और हिन्दी के प्राचीनतम साहित्य की संभाव्य स्थिति का समावेश किया है और प्रारम्भिक साहित्य को आदिकाल में स्थानदेकर उसकी गुत्थियों को बहुत कुछ सुलभा दिया है। उन्होंने इसका नाम आदिकाल के अलावा भक्ति युग तक मध्यकाल भी दिया है। जिसमें वे से० १३०० से ० १७०० तक के साहित्य का समाहार कर लेते हैं।
वास्तव में आदिकाल की सामग्री मरक्षित क्यों रह गई उसकी कहानी बतलाते हुए डा० हजारीप्रसाद जी बिवेदी ने विस्तार से लिखा है कि चौदहवीं शताब्दी से पूर्व जितनी भीप्रामाणिक रचनाएं मिलती है, वे सब साहितिक अपभ्रंश की है। लोक भाषा या हिन्दी भाषी प्रदेश में इस युग की एक भी रचना क्यों नहीं उपलब्ध होती? इसके उत्तर में द्विवेदी जी ने किला है कि "प्राकृत प्रसंग यह है कि गाडबार राजा कुरु में अपने को इस प्रदेश की जनता से भिन्न और विशिष्ट बने रहने की प्रवृत्ति के कारण देवी माया और उसके साहित्य को नहीं दे सके और यही कारण है कि जहां तक उनका राज्यया वही तक कोई देशी भाषा का साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका ।-- दामोदर भट्ट के उक्ति व्यक्ति प्रकरण की वर्षा प्रथम व्याख्यान में की जा चुकी है। ये प्रविव माहवार राजा गोविन्द के बा पंडित थे। ऐसा अनुमान किया गया है कियह पुस्तक राजकुमारों को काशी- काम्यकुज की भाषा सिखाने के उद्देश्य से किसी गई थी। यही से इस वंड में देवी भाषा की जर ने की प्रवृत्ति आई थी। आदिकालीन हिन्दी साहित्य के अरवित रह जाये की यही कहानी है।
परन्तु डा० हजारी प्रसाद जी ने गोविन्द्र को देशी भाषाओं का
दाता बताया है क्योंकि इसके सभी पंडित दामोदर भट्ट ने राजकुमारों को देवी
१- हिन्दी काव्य है मार परम्परा और महाकवि बिहारीः डा० ि (a) परिविष्ट, प्रथम ।
१- देवि-हिन्दी शायार्यमिवेदी वितीय प्रथम ।