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की इसकी सम असंगतियां दरक मेतीं। इस काल पर आधारित सामग्री को ही दिववेदी जी इस काल की नहीं बतलाते और अपने तर्क की पुष्टि के लिए शुक्ल जी का यह उद्धरण देते है कि : "दूसरी बात इस आदिकाल के सम्बन्ध में ध्यान देने की यह है कि इस काल की जो साहित्यिक सामग्री प्राप्त है उसमें कुछ तो असंदिग्ध है और कुछ संदिग्ध । असे दिाध सामग्री जो कुछ प्राप्त है उसकी भाषा अपार या प्राणवाभास हिन्दी है।"
इस तरह आचार्य दिववेदी का अपग को पुरानी हिन्दी कहने का विचार पूर्ण भाषा-शास्त्रीय तथा वैज्ञानिक नहीं बचता। अपशको हिन्दी मानने का विरोध वे करते है कि- • अपच को पुरानी हिन्दी क्सने का विचार मा स्त्रीय और वैज्ञानिक नहीं है। भाषा शास्त्र के अर्थ में जिसे हम हिन्दी कहते है वह इस साहित्यिक अब सीधे विकषित नहीं हुई है। बप को अब कोई भी पुरानी हिन्दी नहीं कहता।'
दूसरी ओर भावार्य द्विवेदी जैन इनियों एवं सिधों के अपांच साहित्य के मआधार पर हिन्दी के मादिकाल का भय निर्माण करना चाहते है और वे इस बात की सामग्री को दो वर्गों विभाजित करते है।
१. एक बा, यो साहित्यिक अप में लिक्षित है। १- इसरी बा, यो लोक भाषा या मरो मामे की हुई भाग
पर दुसरे वर्ग की रमानों मूल रूप मा परिवति और वियो गर है। इन मधि ग्रन्थ का । इस प्रकार दो रास्ते सामने बात.. (0 गांव को प्राचीन हिन्दी मानकर मार रममावों बाधार परमाविकात मावि मनाए । (" बाबा मालिक हो या साहित्यिक से दी पिम्म घोषित करने की रमाप्रापार पर हिन्दी भाविकास को बनाए रखने ग विवार । म पाली राज स्वीकार हो गयी 'स्वीकार करखा मा बो भी सादी १० वी वाइवीाि गया है। राधी