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आदिकालीन हिन्दी चैन साहित्य में प्रयुक्त छेद
आदिकालीन हिन्दी जैन रचनाओं में अनेक प्रकार के छेद भी पाए जाते है जिनमें अधिकतर मानिक और वर्णिक ही है। अधिक व प्राकृत एवं जपतंय साहित्य ज्यों के त्यों वर्जित हुए है परन्तु फिर भी कई ऐसे है जो मौतिक तथा जैन कवियों की अपनी नुतन देन है। इन नवीन छंदों की परम्परा और उनके परिचय करने से पूर्व इन रचनाओं में प्रयुक्त प्रमुख मात्रिक और वार्षिक छंदों को जान लेना आवश्यक है। वर्णिक छंदों में वर्षों की गणना होती है ये छंद अक्षरों की गिनती इमारा और मात्रिक मात्राओं की गणना द्वारा जाने जाते हैं। वैदिक दों से लेकर प्राकृत छंदों तक वर्ग और मात्रा गणना की यह परंपरा noured वही जा रही है। वर्ष वृत्तों का संस्कृत में पर्याप्त प्रयोग हुजा है। संस्कृत की इसपरम्परा को हमारे मालोक्य काल के कवियों ने खूब निवाडा है साथ ही मात्र वृत्त में यत्ति और ठाठ का सम्यक निर्वाह करके इनरचनाओं वारा संगीत में भी योग दिया है।मात्रिक वृत्त वार्षिक वृत्तों की अपेक्षा अधिक मुक्त तथा संगीत प्रधान होते है। संगीत प्रधान छंदों में ढाल का मूल्य नहीं मुलाया जासकता। भाविद बाल प्रधान है और वामामा मा होटी है। किसी भी छेद की वाल का निर्धारण क्यों द्वारा हो सकना कठिन है। वस्तुतः वाल प्रधान इन दों को ववृत्त भी कहा जासकता है। प्राकृत और के छंदों पर विचार करते हुए प्रो० स्व०डी० वेलणकर मे बाल और वर्ष इव
I find it rather difficult to define Tale', but I may make an attempt and define it as the regulation with the help of time-element of the recurring rest in a metrical line by means of a stress. This rest regulating stress is Indieated by means of vocal accentuation, but in addition to it ales by the stroke of the Pala or a similar movement of any other part of the body or by the strokes of the timekeeping musical instrument like the hand drum or a pair of cymbals. The waste which is produced by this rest regulating stress is the male which under lies all the "Tala Vrttaa" and is the chief source of delight in them,
देखिए भारत कौनदी, पृ० १०६ प्रो० एच०डी० मेलमकर एम० ए०डी० लिट०, का " मीटर पर