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मंगलाचरण कर कक्क पद्धति व अपने नाम का कवि प्रारम्भ में ही परिचय
देता है:
मलि मंजषु कम्मा रिबल वीरनाडु पणमेव
use es कक्करकरिण लालिपद गुम केइ
क का, खखा, ग, गा, घर आदि इसी नवीन कक्क पद्धति को इस प्रकार
देखा जा सकता है:
terrea वीरिथ पवर जे जाग पुरि समहान aroge reet es सो संजम सोताण गारव वज्जिउ विन्नव काइउ मग माइ as मौलs a प्रतलियां तुम्हह पाय पसाई चमकुंकुम चंदण र सिण तु तपु वासि उवच्छ are etes किम सहिषि भूमि गंगाजल बच्छ
चानक पीलिया पंच सई संदम सूरिहि सीस
साडु माइ दुस्सह सहई परिस धर्म्म जगीस
रचना के माता पुत्र संवाद के सरस भाव पूर्व उपदेश तथा वैराग्य पूर्ण विचार तथा इस संसार की नश्वरता सम्बन्धी एवं संयम के महत्व का प्रतिपादन करने वाले कुछ स्थलों का परिचय दृष्टव्य है। जिसमें काव्य की उत्तर प्रत्युत्तर संवाद बैली का स्पष्ट प्रयोग मिलता है।पूरी रखमा दोहा दों में लिखी है। वर्णन आलंकारिक
श्री स्पृहणीय है। उक्ति का अनूठापन कृति को सरस बनाने में पूर्णयोग देता है।
बार समुद्रes भागल, माइति संस
संजम वहम ही त किम् न मइ पास (5)
मी कहती है । मनिवारी वर्ष की भांति यम गण भी प्राण हर लेती है प्राप्ति बड़ी कठिन है।
विरिवि मुले व बहुमुल्लु
या रिक्षा प्राणचर संजय भर स तुल्ल (४४)
का इतर इष्टव्य :- हे मी ऐसे है कि करवट बेसिर कटवाले और कथीर की प्राप्ति हो :
संसार के इस बड़े नारकीय है। ये सुख