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सुनत आर्षद उल्लसह मस्तक पाणतिलकु
मुक्टुमणि सिर सोडवई मार्गदा सा गुरु पाला जागु
समरस भाव रंगिया गप्पा देव सोई
अप्पा जागत परहणइ मानंदा कर निरालंब होई ।
वस्तुतः उगत रचना में जो आनंदा शब्द बार बार बाला है उसके लिए यह
भी कहा जा सकता है कि आनंदा शहद के बार बार प्रयोग के लिए यह मीसम्भव
हो कि कवि ने उसे मन या जीवन का प्रतीक माना हो
आनन्द के कामी- मन अर्थात् है आनंदा)
था है आनंद के प्रतीक - मन)
या है साकार आनंद
इस प्रकार रचना में आनंदा शब्द के बार बार सम्बोधन के लिए ये अर्थ
भी लगाये जा सकते हैं।
तीर्थों में कवि की श्रद्धा नहीं। तीर्थ करके व्यर्थ समय नष्ट करने सेपूर्व तो कवि मनुष्य को अपने घट की शोध करने को कहता है उसे कुदेवों पर भी विश्वास नहीं:
म सकि तीरथ परि मई मूढा गर भ अध्यबिंदु व जाड
दारे घट म देव
देवों की पहचान नहीं करा सकतr
te: घट में निवास करने वाले
वह तो दर्शनों में ही इष्ट है उसकी दृष्टि ही मिया हैसुमराह मिडर कलमल, मस्तक उपवसूल
अाज बहाव वह हि पर, आनंदा मिच्छा विट्ठी जो
कवि का काव्य प्रवाद माधात्म के महानन्द जैसे तत्वों की व्याख्या करने में स्वष्ट होता है और रचनाकार स्वयं इस विषय में डूब कर उसका प्रतिपादन करता है। जिन कौन है विन्द्रानन्द की उपासना महाजानन्द की पूजा किला नहीं हो सकती चाहे कोई शरीर का कुंचन घोक्न, जाप, जप, कितनी ही तितिक्षा क्यों न दे, बटा क्यों न बढ़ाए, वर्षा, वर्दी, गर्मी, योग,
आदि द्वारा