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पालरबी तरीय रथ गयंदावरि अंबरी अपन निहाली रे
सा पणा अलंबसी किरिबा परधर सघरपान हिव वाली रे और अन्त में कवि काव्य को निवेद प्रधान पर समाप्त करदेता है।राजुल की विरह दा नेमिनाथ के चले जाने पर अत्यन्त कारुणिक हो जाती है। सारा श्रृंगार फीका पड़ जाता है फूलकुल हो जाते है। सारा श्रृंगार, वैभव और सजा उसके लिए सुख का कटक इकन बन जाता है। निरन्तर विरहिणी नैमि मेमि की रट लगती हुई उस पर अपना सारा जीवन ही उत्सर्ग कर देती है।नारी का यह सात्विक विरह
वीजणे करइ सचीन वीजन राज्यति उपरि ताप निकंदन चंदन रसि विवि चन पापिय राजति काजति ऋषित दृष्टि बिलपति विरह वाहती पाड़ती भाग वृष्टि पीठई काई नापीया प्रीगडा विरह-विका दि प्राण हरे ई मोरठा (भोरडा) मधुर निनादि
रडई व पडई लोटई ए मोरह पर कार बबई महिमि मेरर र करिहार राति विराई पूणि पूरिक अगर मार
म निरंतर अपरविर पति मुगवार बान वर देश्य इस यग पार,
मेमिका पनि विदेश विदेश विकार इस प्रकार कपि शक्य रनों का लाषिक बत्वों का हर वर्णन कर कृति का नाम कमति का नाम नवरस का या रंगसागर का पूर्व उपक अपनी मति की रंगीनियों में काव्य को वारा अपने विधि इष्टिको इवारा नया नया रंग भरा है। बाकारिक टा मसा वा दरका की प्रत्येक पंक्ति में बार यमक व लेख भापोपाल देश पाता है।