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अतिरिक्त इस प्रकार का कोई काव्य रूप मी परवर्ती रचनाओं में परिलवित नहीं होता। पूर्ववर्ती साहित्य में अर्थ संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य मैं गीति प्रधान रचनाएं तो पर्याप्त मिल जाती है, परन्तु उत्साह वंज्ञा विशेष से किसी काव्य रूप का बोध कराने वाली कोई अन्य रखना नहीं मिलती। वस्तुतः अप से इतर पुरानी हिन्दी में सर्व प्रथम यही रचना उपलध होती है जिसका कई दृष्टियों से महत्व है।
प्रस्तुत कृति का नाम "उत्साह है। उत्साह वीर रस का स्थायी पाव है अतः इसकी निष्पत्ति किसी उल्लास या आल्हादक महोत्सव अथवा न्य किसी घटना विशेष के कारण ही हो सकता है। यह भी सम्भावना हो सकती है कि feat चमत्कारिक दैवीय पटना के काल पक्ति का चरम आनन्द या उद्वेग डोने पर ही कवि के ये योमार फूट निकले हो । यो परम्परा का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्यत्रित जितने भी कवि होते हैं, वे राजा की स्तुति या प्रति स्वजन स्वस्म गीत रवा करते थे। तथा राजा की विजय या पराभव के पश्चात पुनः राज्यप्राप्ति के अवसर पर हर्षोल्लास और असीमित वानन्द में लिध स्तुति मूलक रक्ताओं का निर्माण किकाकरते थे। वस्तुतः उत्साह नाम इसीलिए सार्थक परिचित होता है। सुट है कि aare करनामों का वस्तु चिप किसी काव्य म विशेष के लिए नहीं है। तोति मूलक मीति रचना है जो कवि के बाद विशेष और उत्साह की सूचना प्रस्तुत करती है। यों सरलता के लिए उसे वीर रस प्रधान स्तवन या गीत कहा जा सकता है, परन्तु फिर भी संख्या में केवल एक होने से यह परिवादा नहीं कही जा सकी। जो भी हो, यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार की रचनाओं में एक लाभाविक था आधार उत्पाद का उन्नयन
होता है।
विशिष्ट प्रकार की कोई भी आल्हादक स्तुति "साह"
नाव से पुकारी जा सकती है।