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गय का परिस्कार परिलक्षित होता है। शब्द चयन और पदच्छेदों में भी वैज्ञानिकता और arara का प्रयोग मिलने लगता है। गदय में अभूतपूर्व उत्कर्ष के दर्शन होते है। रैली में विभिन्न रूपों का विकास पाया जाता है अतः १४०० से सं० १५०० तक के इस काल को मय साहित्य का उवर्ष काल विकासकाल या अम्युक्ा काल की संज्ञा दी जा सकती है।
इस काल में अनेक कृतियाँ उपलब्ध होती है। हिन्दी साहित्य में उकाल की रक्नाएं अपनी उत्कृष्टता और गम क्षेत्र में अपनी मौलिक प्रवृतियों का श्रीगणेश करती है।
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इस काल में गय के प्रारम्भिक काल की कमियों में बहुत सुधार हुआ। भाषा व शब्द चयन में अपूर्व प्रयाह जाया गय के रूपों की अस्थिरता दूर हुई उनमें अपेक्षाकृत स्थिरता आ गई। जैन विद्वानों की लेखनी में भी परिवर्त साहित्य के इस उत्कर्ष काल में मिलने वाले लगभग सभी ग्रन्थ धार्मिक ही हैं, पर धार्मिक साहित्य की प्रधानता होते हुए भी स्फुट रूप में लिखा गया य भी मिलता है कहीं कहीं स्मृति लेखों के रूप में भी मिलता है। जैनियों साथ बालों ने भी दूय लिया। दोनों इलियों में से एक को हम चारमी डेली व दूसरी को जैन शैली कह सकते है जैनियों ने ऐतिहासिक मध्य की भी रचना की अनुवाद ग्रन्थ भी लिये गए। इतना कुछ होते भी इस काल में पेक्षा
र म भी लिया गया जिसमें कला का एक निवार स्पष्ट पtिofee होता है। यही नहीं, इस काल में लिखे गए इस कलात्मक गडब ने हिन्दी साहित्य में गम में एक चारा विशेष या की विशेष में एक नया अध्याय भी जोड़ा है। मन के इन परियों ने उसके विषयों को भी बवाल डाला। जैन व वर
मी, टीका, मादि
शैलियों
दोनों धारा में वयनिका, दवानेव वाला व मोच टबुबा, मुत्क्क, अनुप्रास, में कलात्मक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक साहित्य लिब गया। इस काल में जो विभिन्न प्रकार की कृति मिलती है में इस प्रकार हैं:
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