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( विवाइलोकाव्य)
रास, फागु और अन्य काव्य रूपों की भाति विवाहलो शक रचनाएं भी मिलती है। विवाहलो या विवाहला, वैलि तथा मंगल शब्द विवाह सूचक रचनाओं के लिए सामान्यतः प्रयुक्त हुए मिलते है। विवाह जीवन का उल्लासपूर्ण पर्व है। जब कि मनुष्य अपनी समस्त प्रसन्नता को, आनन्दोको साकार भय में एक ही साथ संजोकर एक अभूतपूर्व भानन्द का अनुभव करता है।संस्कृतिक रूप में पी यह पर्वबड़े ही आनन्द और मंगल का प्रतीक है। अपनी मांगलिकता के फल स्वस्य ही इस महान संस्कार को वर्गीय विषय बनाने वाली कृतियां मंगल नाम से अभिहित की गई है। सामान्यतः विवाह एक उत्कृष्य सामाजिक प्रथा है जिसमें वर और वा अपने विशेष ब्रह्मचर्य जीवन को समाप्त कर गार्हस्थ में प्रवेश करते है। दोनो के नये सम्बन्ध होते है, नई आत्मीयता और नया साज भार जीवन का एक नया पहलू लेकर सामने आ जाते है। विवाह के लिए वर और बधू दोनों पक्षों की ओर से हुई तैयारियां, साज सज्जा और नारियों के मागलिक मान, धवल मंगल गीत स्था अन्य अनेक प्रसंग इस संस्कार की पवित्रता और उल्लास या मानन्द के द्योतक है।
इस पवित्र प्रसग को लेकर इसे अपना वर्य विषय बनाने वाली जोड़ियां मिलती है उनके 'विवाहला, विवाहलो, धवल, मंगल आदि अनेक नाम मिलते है। इनमें धवल और मंगल काव्यों की परंपरा तो बहुत बाद की (१७वी तादी) की मिलती है परन्तु विवाहला संक्षक रचनाओं की परंपरा पर्याप्त प्राचीन है। विवाह का प्रारम्प ती मानव जीवन के आदि काल से ही निश्चित ईपरन्तु इस नाम से लिखी जाने वाली कृतियों की परम्परा अपभ्रश से ही मिलने लगती है।
भाविकात में उपलब्ध विवाहला संज्ञक रचनाओं के शिल्प, वस्तु तथा अन्य प्रवृत्तियों का मिलती है उनकी मुख्य संवेदना में एक वैचित्र्य है जो बीवन को अनुपम संदेश देता है। बाधा यों प्रकारान्तर से विवाह के वर्षन हो भगम कपी गरिह बायोबा या गव्यों में मिल ही जाते है। साथ ही चरित