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और बारात चढ़ चली, लोगों ने आध्यात्मिक संयमदेवी को श्रृंगारा। गीत और दधरावे होने लगे। भाषा की सरलता प्रवाह अब्द चयन और अनुप्रासात्मक छटा के कतिपय उदाहरण स्मृतव्य है:(1) आवहि आवहि रंगमारि पंच महव्वय राय,
गायहि गायहि महुस्सर अठ्ठय पवयव माय। (२)
कुमर चल्लित कुमर चल्लिड गस्य विडि। (३) कुसलिहि महि जान उत्त पडुतिउ खेउ मन्मरि। (४) अह सयल नाप समद्ध अवगाइए वीर प्रमु गणि (निय) गुरु पसाये (५) नाण चरण दसण जुबइ केलि विलासु पहा
___ साउ राउ सोबन्तियइ जिनेश्वरसूरि जगि मात्र
इस प्रकार नायक निर्वेद का उपभोक्ता बन जाता है। रमा दोहा, चौपाई वस्तु, और मूलना दो में लिखी गई है।वस्तु हद तो पूर्व परिचित छद है पर भूलगा जैन साहित्य में कभी कभी ही प्रयुक्त होता है। मूलगा के प्रत्येक चरण में ३७ मात्राएं होती है तथा २०, १७ पर यति होती है। वस्तु छंद रास रचनाओं में अधिकतर इससे पूर्व भी प्रयुक्त हुआ है। क्या का विभाजन धत्ता में हुआ है। अलंकारों की दृष्टि से एक नई बात इसरचना में यह है कि संमपदान में प्रत्यानुप्रसा नहीं है इसका प्रयोग सम्भवतः आगे जाकर ही हुआ है।
रास की भाषा सरल, काव्यमयता तथा जन भाषा के गुणों से युक्त है। सुनिजिनविजयणी लिखते है कि इस धार्मिक विवाह की मनोहर कृति की रका चरित नायक सूरि के शिष्य श्री सोममूर्ति गाणि ने उनके निर्माण के पश्चात की है। यह १४वीं शताब्दी के प्रारम्भ की भाषा का सम्पूर्ण चित्र उपस्थित करती है।
भरतश्वर बाबाली रामाशाति
सम्पादित संस्करण श्री लालचंद बगबानी युक्त छन्दा १० देखिशासक वैन पूर्वर काम संचयः मुनि जिनविजय- पृ० ११५॥