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कवि की यह रचना विवाहले के अन्तर्गत आती है। विवाहले शीर्षक से हिन्दी जैन साहित्य में आदिकालीन अनेक स्थाएं मिलती है। कवि ने यह रास रमण और क्रीडा के लिए लिखा है। रेवतगिरि रास की भाति अन्त में सोममूर्ति ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया है।
एह विवाहला ले पढहि दियहि खेलाबेलिय रंग परि
ताह जिणेसर सूरि सुपसन्न इम पगइ मावि गघि सोममुनी इस प्रकार जिनेश्वर सूरि का परित वर्णन इस कृति में रास रूप में वर्णित किया गया है। खना छोटी और सरस है और प्रवृत्तियों की दृष्टि से अपने ही प्रकार की है।
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