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उक्त विवेवन से इस काल में बौध धर्म के कालु की सच्चो कहानी स्पष्ट होती है। आठवीं शताब्दी में बंगाल में पाल रा. इस धर्म को पालते रहे और कई वर्षों तक हिार,गाल, डीसा में बौद्ध बिहार, मारण, उचाटन, मोहन तथा वशीकरम की विद्या के केन्द्र बने रहे। इधर ब्राह्मण धर्म ने इस धर्म की रही सही प्रतिमा को भी धूल में पिला दिया। अतः बौद्ध धर्म का अपकर्ष ही इस आदिकाल की पृष्ठभूमि * स्पस्ट होता है।
ही अपने पराभव काल में साहित्यिक क्षेत्र में बौधों का वो योगदान रहा, वह पर्याप्त महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। गरे और नष्टप्राय वर्ग के होने पर भी बौद्ध कवि साहित्य साधना द्वारा ही अपने गम और पतन का मानो बहिष्कारण करना चाहते हो। उस काल में रवित बौदयों का साहित्य आदिकाल के पूर्वाध की सम्पत्ति है जिस परवर्ती रचनाओं में प्रेरणा के रूप में देखा जा सकता है। पाक की दृष्टि से बौध आदोलन का
का महत्व है। पौधों ने जन साधारण की भाषा अपनाई। अत: संस्कृत के स्थान पर पाली प्राव में उममि रचनाएं की। सरहप्पा और नुहमा ने तो अपने साहित्य पूजन किया। उनका दोहा कोक अत्यन्त प्रसिद्ध है। लोक भाग बौद्धयों की सम्पति बन गई। परन्तु सेब उनकी कवितानों का बहुत का हमारे पास बा । उमझी की छोटी गेटी धार्मिक अस्वी वीं सदी की पास अनुवादों मौजूद है मगर से भी अधिक या उन पुस्तकों की सी होगी यो उदध सांसारिक अष्ट
म य का मारा बाहर नहीं ले पाई गई और गौरी गट गई।
वालों गाहित्यबाज यदि रह पाना तो अपांच और मध्यदेश की विभागानो या पुरानी हिन्दी की बल्य निधि हो ।