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संज्ञक रचनाओं के शिल्प में बहुत अधिक साम्य है परन्तु केवल नाम में अन्तर है बहुत सम्भव है कि कवियों ने विविधता प्रस्तुत करने के लिएजथवा इन आध्यात्मिक विवाहों को रास का रूप देने या गीत का रूप देने और अधिक व्यापक बनाने केउद्देश्य से भी अन्य काव्य रूपों की संज्ञा से अभिहित किया हो। जो भी हो, इस सम्बन्ध में स्थिति संदिग्ध नहीं है।
विवाहलो संशक रचनाओं के नाम से अभिहित की जाने वाली कृतियों में जिनोदयसूरि विवाहला एक महत्वपूर्ण रचना है। कृति का रचनाकाल सं० १४३२ है और रचनाकार मेरुनन्दन । रचना जिनोदय सूरि के दीक्षा-विवाह जन्य-साधना को लेकर लिखी गई है। जैसा कि उसके नाम से ही स्पष्ट है। यह रचना प्रकाशित है। जिनोदय सूरि का पूर्व नाम सोमप्रथ था । पालनपुर में जिनकुल सूरि जैसे जैनाचार्य के आगमन पर बालक सोमप्रभ या समरा ने अपनी मां की गोद में बैठे मुनि जी से दीक्षा कुमारी से विवाह करने की प्रार्थना की। मी ने बहुत समझाया, संयम पालन की दुष्करता और उसकी लध्यावस्था बताई, पर बालक न माना और अन्त में उसका आध्यात्मिक विवाह रवा दिया गया। उत्सव हुए लोगों ने जय जयकार किया। याचक लोग मंगलगान करने लगे, वजिम बजने लगे अनेक सुन्दर ररास हुए दुभाषिणी जिनीबय सूरि का दीक्षा कुमारी के संक्षेप में स्का की यही कथा वस्तु है।
विवाहलों के प्रारम्भ में ही कवि अपने रचना उद्देश्य का परिचय देता है
सयल मण वंछिय काम कुम्भोवनं पास पय कमलु पणमेव मत्ति ।
गुरू दियर करिए बीवाल सहिय उमाइल मुज्य चित्ति ॥ afa बालक सोमनभ के शैशव का वर्णन बड़ी कुशलता से करता है। भाषा शैली
कुलगनाओं ने मंगल गीत गाए और इस प्रकार साथ पाणिग्रहण उत्सव विधिवत् सम्पन्न हुआ।
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१- देखिए ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ० ३९०
२- वही, पृ० ३९० ।