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तत्सम स्वरूपों की ओर तेजी से बढ़ने की क्रिया सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। यथा- सकाम, श्रावण, समी, हिम-रासि, निधरि, प्रिय, अधिक, सहित, प्रवाह,
कमा, सिदिध, तक, चैत्र, कोयल, प्रभु मावि इसके साथ कई बबूद तो मचिनूतन आ गए है तथा जिनके सभी नये नये हैयथा- सवि, परिया, हय, लेड, नीर भाउ, विष, बोल्ड, कलादिङ,
मिलिया, सकलड़ी, रोड, बरिसर आदि
उक्त उदाहरणों यह निम्का मरकता निकाला जा सकता है कि अपक्ष माग की प्रथमा विपक्ति के एक बचन का जो उकार प्रधान लक्षण था वह धीरे धीरे इस कृति कृप्त होता दिखाई पड़ता है। प्राचीन रावस्थानी या प्राचीन गजराबी -
अनेक राजस्थानी शब्द कृति की प्रादेशिक भाषा की सूचना है उनमें है उदाहरण स्वरूप देखे जासकते है यथा- धम, बारमास, कुमरु,पेड़, भगड, चंद बंदण, सीर, पंडि, डियदा, धीय, बाण, माडी, इणि, सुमि,टहका, तु, मंड,आदि। कुछ दियाएं देखिए- सुमरवि, भणड, काइ घरइ, उग्रगड, रोजइ, भरिया, सिंचिय,
होड, मिम्बा, दहड, गइ, धादि। प्रस्तुत अन्य अपांड के उत्तरकालीन स्वम भी दिखाई पड़ते है पर बस मा अपार धीरे धीरे कम होती गई और हिन्दी का स्वरूप निखरता गया है फिर भी उत्तर अपशब्दों के बाहर बहा दिए जाते है:उत्तर अपार - का, मामल-म सि , अप्प, ram, हिल्ली,
Tre , मामि, परिणTB सिावे. लिम्बई, भिन्नति, टमविनि, , जुका, कुट्टि
पिस्सिा, बलि, पवि मादि आदि आदि।
- उसपी गो ग्वारक-मेमिनाथ चतुष्पषिका से दिए गए है विन्तत विवेचन देवर भावापी संस्करण चतुष्पं विका का पाठ.. ॥