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________________ इस दिश में रितु वर्णन और रितु सम्धी साहित्य लिया जा सकता है, जिसकी अभिव्यक्ति आनन्द और उल्लास के साथ संगीत में डूबी हुई है। रितुकाव्य भी संस्कृत में अधिक नहीं मिलते। संस्कृत के पश्चात अपरंश के रास युग में फागु की परम्परा का प्रारम्भ माना जा सकता है। सामान्यतः रास और फागु दो शब्द साथ साथ प्रयुक्त किए जाते हैं पर वास्तव में इन दोनों के अर्थ और कार्य व्यापार मैक्दाचित कुछ अन्तर है। एक अन्य सब्द रासक भी मिलता है। सम्भवतः यह फागु रासक की ही क्रिया व्यापार के अधिक निक्ट हो। काग का तात्पर्य उल्लखित वा आह्लादकारी गान है। फागु संज्ञक रचना श्री सिरि थलिमद फाग १४वीं वताब्दी के उत्तरार्दध की रचना है। डा. भौगीलाल पाडेसरा ने इससे पुरानी पक और फागु कृति का उल्लेख अपने ग्रन्ध- प्राचीन फागु संग्रह- में किया है जो उन्हें श्री अगर चन्द जी हाहटा से उपलब्ध हुई थी और वह फागु श्री जिनचन्द सूरि काम है। नाहटा जी को इस फाय की प्रति जैसलमेर के प्राचीन जैन भंडार से उपलब्ध हुई थी। इस कृति में यद्यपि • से २० तक की कड़ियां मिलती नहीं है। परन्तु उपलब्ध पाठ (६.२१) कड़ी तक) के वर्णनों में सबसे अन्दर एवं काव्यात्मक वसन्त वर्णन है।' अव: स्पस्ट हुआ कि फागु काव्यों का सम्बन्ध वसन्त वर्णन से है। इस प्रकार भाविकालीन हिन्दी साहित्य की उपयुध से प्राचीन वह दूसरी शिरि लिगद काय के साथ साथ डा. साडेसरा ने अपने गन्ध में अनेक कामों का काम किया है। श्री नाटावी माह मी अनेक प्राचीन फागु रचनाएं विद्यमान है। नवरा मावी वादी के बाद श्री १८वीं वादी कडो मो की संख्या का काय मिलते है ।मत: यह रचना फागु परम्परा की १० शिप्राचीन कामु संग्रह, डा. योगीलाल साडेसरा, पु.॥ २- बही अन्ध, वही पृष्ठ। 1- बहीब .10-२३१॥ ४- प्राचीन मु संग्रह, डा. भोगीलाल साडेसरा y.--
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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