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प्रोग्रेस इसी प्रकार का प्रसिद्ध प्लेगरी काव्य है।
१वीं शताब्दी के बाद गुजराती भाषा में भी इस प्रकार के कुछ काव्य मिल जाते हैं। जीवराम पट्ट कृत जीवराज बैठ नी मुसाफरी और प्रेमानन्द कृत विवेक बणजारा आदि ग्रन्थ उदाहरणार्थ लिये जा सकते है। वस्तुतः ड्रेस प्रकार के छोटे छोटे रूपक काव्य आदिकालीन हिन्दी साहित्य में मिलते हैं।
रूपक काव्यों की शिल्पगत विशेषताएं
संक्षेप में रूपक काव्य की मुख्य प्रवृत्तियों व विशेषताओं का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है:
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रूपक ग्रन्थ मनुष्य के गुण स्वभाव माचार विचार आदि अदृश्य और निराकार माव सजीव भारोपण करके उनका देहधारी पात्रों की भाँति वर्णन होता है
उसमें उनका वर्णन लक्षण कार्य आदि वैसे ही सजीव होते हैं।
इस प्रकार आद्योपान्त रूपकों की इस श्रृंखला को उपक ग्रंथी कहा जा सकता है रूपक को बलाबद्ध करने में कदि का काव्य कौशल दर्शन ज्ञान और वाग्वैदगुथ सभी का परिचय मिल जाता है।
इन काव्यों में कवि का व अवलोकन और बारीक तथा परिमाणात्मक दृष्टि की अपेक्षा है। बायोपान्त पूरे रूमक का शिल्प निमाना बड़ा कठिन कार्य है।
स्मक काव्य में रस की निष्पत्ति भी सफलता से होती है। श्री मजबूदार लिखते हैं कि गमे देवा स्पाला पत्र निर्जीव मुडदा करता कांइक बदशक्ल पण मारो ने भी भरपूर को बेहरो वधारे मनोहर लगे के तेमज भा महा में पन है जो मरस रूपी जीव नथी तो तत्व ज्ञान आपला erstreet केवल fagaा ने स्टालो उपजावनारी है। इस प्रकार उपक काव्य में विविध विल्यम बाहों का ध्यान रखना पड़ता है। त्रिभुवन दीपक में कवि ने इन सभी बातों को लगभग सुरक्षित रक्खा है। sos area में अमूर्त भाव मूर्त रूप में चित्रित किए जाते है। हृदयस्थ मनोवेगों