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विश्लेषण प्रस्तुत ग्रन्थ के फागु नक रचनामों के अध्याय में किया गया है। (२३)- अपप्रे साहित्य:
डा. हरिवंश कौर ने प्रस्तुत शोध प्रबंध को भारतीय साहित्य मन्दिर फबारा दिल्ली से सन् १९५६ में प्रकाशित किया है। प्रस्तुत कति में STO कौर ने अपमंत्र भाषा का विकास, अपश और हिन्दी भाषा, तथा अपश साहित्य की पृष्ठभूमि, अपश साहिल का हिन्दी पर प्रभाव आदिकालीम हिन्दी जैन साहित्य के सम्बन्ध में अवश्य ही सहायता मिलती है। रचना अपभ्रंश साहित्य पर प्रकार डालती
विवेना.
१) प्रस्तुत ग्रन्ध में डा. कौए वारा कूतियों सम्बन्धी वर्गीकरण ठीक नहीं हो सका है। वास्तव में विषय की दृष्टि से इन रचनाओं का वर्गीकरण नहीं होकर यदि काव्य रूपों की दृष्टि से होता तो अधिक संगत हो सकता।
(२)सरी असंगति यह है कि डा. कौड़ मे डारों की अधिक रोष या सभ्य बोध नहीं होने से कई पुरानी हिन्दी की कृतियों को शुद्ध अपच की कहकर स्थान दिया है, जो समीचीन नहीं है वि डा. कोड़ इनकी भाषा को ठीक से अध्यन करते हो बाब सम्भव है अनेक प्राचीन साजस्थानी की कृतियों को अपनी नहीं लिखते। (१४)- प्राकृत अपश-साहित्य और उसका जिदी साहित्य पर प्रभाव
प्रस्तुत डा. रामसिंह डोमर का शोष प्रबन्ध है। तोमर जी की कृति अपने में पूर्व या आदिकाल पर गेध करने वाले स्नासको हिप परम उपयोगी तथा पृष्ठभूमि के लिए पामा महत्वपूर्ण है। मोमाजी ने अपनी शेष हिन्दी के प्रतीक काल की कामयारा और पुण्य प्रहरियों पर प्राकृत अषय की काम्य पारामों, गुरु प्रवृत्तियों या वैशिष्ट्य पादों का प्रभाव बसलाकर गिदी साहित्य के विविध माँ का शालिक अध्ययन प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत प्रबन्ध अपने में पूर्व का वाम शामिलो प्राय भी धक का प्रगति गोने पर इस रचना
mमामला उठा की।