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होस्ट और शोच होने पर गाथा मूलक अनेक कथा प्रधान गेय रचनाएं उथलबुथ हो ।
रेल्या /
teer क जो रचना उपलब्ध होती है उनके आधार पर वह कहा जा सकता है कि परम्परा की दृष्टि से रेवा बन्द बहुत प्राचीन नहीं लगता। अप मैं मी वास्त्रीय दृष्टि से रेवा के नाम पर कुछ भी नहीं मिलता है । परन्तु इस जैनकृतियों में रेवा नाम से अभिहित कईरचनाएं उपलब्ध होती है। वस्तुतः रेलआ शब्द का अर्थ रतिया या है।वह बैल जिससे मन को आनन्द प्राप्या हो, मन की रुचि हो । मनरली, रलियामा मादि द कहीं कहीं प्रयुक्त होते मिलते है इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि मन की कवि से परिपूर्ण को जो उल्लास प्रधान होता है रेलमा कहते हैं। एक दूसरी प्रमुख बात यह है कि राजस्थान के लोक area का अध्ययन करने पर रेलमा शब्द लोक गीत के लिए उद्धव हुआ मिलता है। अतः यह लोकमी का एक प्रकार था ।धीरे धीरे यह रेजाइना अधिक व किली कवियों का गाया काव्यकारों ने इसे काव्य में प्रयुक्त करना प्रारम्भ कर दिया। लोक साहित्य की वह बैठी धीरे धीरे इतनी अधिक प्रति हुई कि कालान्तर में हर रेकुमा एक प्रकार का
विशेष ही का वारेना पर इससे अधिक जानकारी उपयुध नहीं हो सकी। सम्भव सके।
है कि इसमें बोध होने पर रेवा के
नये
विकी दृष्टि से अध्ययन करने पर रेवा लक रचना भी महा
के तिगान की होती है जिनमें उसके चरित्र की बाकर्षक
या सर्व परिलक्षित मीठो गीतों की पर लिये जाते थे, जिनको उल्कार में आकर का बाता रहा होगा। वे रमार्थ मे या लोकतत्व को लिए होती है।
रेतुना करनारे मिलती है उनमें
अधिक तो नहीं मिलती पर जो है उनमें भी काव्य की दृष्टि से साधारण या की उपलब्ध होता है। लोक