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से साथ साथ चलते स्वाभाविक रूप से बातें करते सीताराम प्रबन्ध को कथा रूप में कहना प्रारम्भ किया पहले १० बार मनुष्य इकट्ठे हुए धीरे धीरे और अधिक हुए। मध्य रात्रि में सुखासन में स्थित मंत्री आदि भी सुनते थे। यहां से उठकर श्रोताओं की ज्ञात न हो ऐसा प्रयास करता हुआ वह सावरमती नदी के किनारे गया। फिर विशेष गान हा ठंड से आक्रान्त मनुष्यों ने उसे कहा कि आप सबके सुख के लिए नगर मैं चलिए। फिर उसने पुनः उत्तर रामचरित का गान प्रारम्भ किया। फिर सर्व रस में निमग्न श्रोताओं को लेकर चौक में आया। फिर लोगों ने अंगूठी कर्णकूल आदि के दान से ३ लक्ष ७० दिया । २
उक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि गुजरात में काव्य में कथा प्रबन्ध कहने वाले, चार रास्ते जहां मिलें ऐसे बौरास्ते या चौक में बैठकर जनता के मन का अनुरंजन करते थे उनको दुव्य मिलता था और संस्कृतकि की उन्नति में पर्याप्त सहायता करते थे। अतः इससे चर्चरीयाक और वर्वरी शब्द के महत्व पर प्रकाश पड़ता है। सं० ०४८० में विरक्ति जयमागर विरचित जिनकुशल सूरि चतुष्पदिका में निजी की दीक्षा समय के वर्णन में चर्चरी का उल्लेख आता है
नारि दिवह तव चाचरी प, गुरु गरुमा डिग दहा दिसि संवरी प सरल मiter sfta fरप फिर कुंठिर्हि कोइल अवतरीर
अतः इसका सम्बन्ध किसी राम विवेक से स्पष्ट होता है।
उक्त वर्णन त्या प्रसंगों द्वारा री के विविध प्रसंगों में विविध अर्थ की सूचना मिलती है।वास्तव में चचरी क्या थी यह इन्हीं उद्धरणों के आधार पर जाना जा सकता है। निष्कर्षयः यह कहा जा सकता है कि बर्बरी छोटी जाँत की टोली का एक मासन्तिक मान विशेष था जो प्राचीनकाल से बीहट्ट आदि आदि पर गाया जाता था। यह चर्चरी स्त्री और पुरुष दोनों गाते थे।
इन यों के आधार पर चर्चरी के शिल्प सम्बन्धी निष्कर्षो या आवश्यक
तथ्यों पर इस प्रकार विचार किया जा सकता है:
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१- देखिए पुरान प्रबंध : मुनि निजी ० ७६ और वस्तुपाल प्रबंध ०१६९ २. वडी, ५०७८, वही पृ० १७६ ।