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________________ ९४ साहित्य की यही परम्परा प्रान क्या अपने पल रही है। अपर गल भी साहित्यिक दृष्टि से या सम्पन्न रसा। स्वयंभू, धनपाल. पुष्पदास, हेमचन्द्र, भोज, मुंज, कुमारपाल, सरहपा, विद्यापति आदि महान साहिताकारों को नहीं भुलाया जा सकता। वस्तुत: आदिकालीन हिन्दी जैन माहित्य को परम्परा और पृष्ठभूमि के रूप में प्राप्त तत्कालीन अपश के बहान साहित्यकारों और उनके रवि साहित्य का बल प्राप्त है। ज्यों ज्यों मोल चाल की भाषा व्याकरण के नियमों में पती गई त्यो त्यों उसमें साहित्य प्रजन बढ़ता गया और जन साधारण की भाषा उनका स्थान ग्रहण करती थी। अपच का वह साहित्यिक प्रबाह विभिन्न प्रकार की साहित्यिक धारागों परिलक्षित होता है। अत: यह सारी माहितिक स्थिति भाविकालीन है। विध नावों का बाहित्य, अपर वियों का साहित्य या तत्कालीन चन कवियों का साहित्य व प्रगति पर था। इन को इसका निकालीन समय में पुरानी हिन्दी के इस गाहित्य का स्थान निधारव न्त महत्वपूर्ण प्रश्न है। वास्तव में अथक की यह निधि पुरानी हिन्दी को वरीयत के रूप में मिली है। इस पर पर्याप्त प्रकार प्रस्तुत बन्ध के अपक्ष साहित्य सम्बन्धी परिचय व्या विश्लेषण करने वाले अध्याय में डाला जा चुका है। यही पृष्ठभूमि में तत्कालीन प्राप्त साहित्य का विच विवरण दिया जा रहा है। वाथ वैन प्रथा प्राय प्रचार आन्दोलनों का विकास गरिसष्टिविी बसी माती के मध्यात्म पर अदि बिार कि बायो मेशियों पर गायों की म तियाँ मिनी मध्यस बार पुरानी कायों की माली मजदेवा भवपाशा या tanी इसका भी पता नहीं मकवापरबारयि हो धी पा उसमें भी देर पावागावी सादी कनेक विन माप गिर गयोन परि स्वयम्, धनपाल, मि, वा पुज्य विदयापारिक प्रतिगारो ।
SR No.010028
Book TitleAadikal ka Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Sharma
PublisherHarishankar Sharma
Publication Year
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size84 MB
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