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( कड़ी ७,२७,४४,५०), त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध (४, ८,४७, १०४, १५१, २२६, २७, २०७१ १ विद्याविलासवाड़ी (१४९) आदि अनेक कृतियों में प्रयुक्त हुआ है। इसके अन्य नाम वक्त या वधु भी मिलता है। यह संयुक्त वृत्त है तथा रोला और उल्लाला के संयोग से बना है इसके प्रत्येक पद में २४ मात्राएं होती है। यह द अपभ्रंश में भी खूब प्रयुक्त हुआ है। इसको संदेश रासक में काव्य या वय (वस्तुम) भी कहा गया है । एक उदाहरण देखिए:
४
राउ पराप सुनिषि दूत
मरह बैठ भूमि सरह राउ अम्ह सहोदर
सवा कोडि कुमारिहिं सहीय सुरकुमर देहि अवर नर
पंत्रिमहाचर मंडलिय र परिवार
कहि न सकुशल विचार
सामग्रह ग्राम इस छेद में पांच चरण होता है और नीचे के दो
चरणों की मात्रा तो दाहे की
और १५ मात्राएँ वितीय एवं
ही २४ होती है। प्रथम चरण के अन्त में तृतीय चरण में १३ १५ २८ मात्राएं तथा चतुर्थ और पंचम चरण में २२ म होती है। कुल मात्राओं की संख्या ११९ होती है। प्रथम चरण की सात मात्राओं की प्रायः वावृत्ति कर दी जाती है। श्री नरोत्तमदास लागी इसका दूसरा
नाम रढडा भी बतलाते है। डा० मावाणी में इसकी गण गणना इसप्रकार दी है:
२ गण
१०
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3
* गय
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*
वस्तुतः छेद प्राचीन राजस्थानी साहित्य में विवेक्तः जैन साहित्य में दून प्रयुक्त हुआ है।
(३) मोटक या टटक
यह भी
परों का संद होता है मरतेश्वर बाइकी रास (१४४-१५२)
१ त्रिभुवन दीपक
श्री जयेशेवर सर
१-४६
२- सर्जरी
८८-१००
३- वेदवायी और उनका काव्य डा०विपिन बिहारी त्रिवेदी ०२५२-२५५
* देशका मागामी ०५८
५- देवि राजस्थान भारती बैंक भाग ४ परिशिष्ट १ पृ० ५५ तथा हिन्दी अनुशीलन वर्ष ११३०३८ (६) संदेश रासक भूमिका मा सम्पादक डा० मायाणी पृ०५८। का चार मैदाचित ही, तजि बैर प्रमोद भरे हितही
(कु०प्र०३०)