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दृष्टि से भी यह रचना तत्कालीन उपलब्ध रचनाओं में प्रमाणिक सिद्ध होती 1
पूरे काव्य में हमारे
होने वाले दुर्दान्त युद्ध का वर्णन है। कान्हड़दे ऐसा नायक था जिसने अनुपम आत्मोत्सर्ग किया। कान्हड़दे की कीर्ति को प्रकाश में लाने वाला उसका वंशज स्वराज सोनगरा था। अतः कान्हड़दे प्रबन्ध में पूर्व देश के पाल राज्य मध्यदेश के गाइडवाल, दिल्ली लाहौर के सोमर, अजमेर के चौहान, अवंती के परमार और देवगिरि के यादव आदि राजवंशों के शासक कुछ ही दिनों में किस प्रकार नष्ट हो गए। हजारो वर्षो की गुगनचुंबी और बाल कंद एवं देवमन्दिर और पाताल कंपी राज प्रसाद धराशायी हो गए। ऐसे समय में राजस्थान के वीर वीरांगनाओं
काव्य कहा गया है तो उसका कारण है कि जिस समय यह काव्य रचना गया उस समय आधुनिक राजस्थान और भाषा विषयक कोई बास भिन्नता थी ही नहीं थोड़ी बहुत जो भिन्नता थी वह केवल राजकीय सीमाओं के सम्बन्ध की दृष्टि से थी। बाकी सास्कृतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक इष्टि से इन दोनों प्रदेशों के बीच कोई सीमा भेद नहीं था। वे परस्पर एक रूप थे। चालुक्यों की राजधानी अणहिलपुर में बसने वाले लोग जैसी भाषा बोलते थे प्राय: ऐसी ही माका बाढमानों की राजधानी अजमेर में बहने
वाले लोग बोलते थे। चाहे उनके स्थानिक उच्चार और बाग व्यवहार में कुछ थोड़ी बहुत भिन्नता भले ही रहती हो, परन्तु उनकी साहित्यिक भाषा Tofed भाषा एक सी भी। भस इस ऐतिहासिक वय को लक्ष्य कर हम इसे गुजराती महाकाव्य भी उसने ही मंत्र में कह सकते हैं जितने मंत्र में इसे राजस्थानी कहना चाहते है। कवि तो स्वयं इसे प्राकृत बन्ध कहता है जो उस तुम
प्रान्तीय देश माना के कवियों की एक सामान्य कहि बली या रही थी।-मावा के कवियों मे से नहीं करके ने इस लोक भाका कल करे, प्राचीन प्राकृत और तद्भव भय पोषों भेदों के जो कुछ नाम निर्दिष्ट किए हैं उनमें एक बार अपने भी नाम मिलता है. इस दृष्टि है हम इस प्रबन्ध की माया को मीर भी हो उसमें कोई गति नहीं दी। इस प्रकार प्रस्तुत प्रबन्ध की भाषा भी प्राचीन राजस्थानी, अथवा प्राचीन मराठी बाबा तो जर बाड़े जिस भाषा की रचना कही बाब या पानी बाव इसमें बाद विवाद का कोई कारण करें नहीं लगता । वास्तव में यह रचना समूचे पश्चिमी भारत की मूल भारत आर्य भाषा कुरु की एक प्रतिनिधि और मनात वाकृति है।
देविष का
प्रस्ताविक गम्य पृ० ४.५
विनिविवयः प्रकाशक राजस्थान पुरात वमंदिर, जयपुर