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18 अप का जैन साहित्य ||
अपभ्रंक का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। इस साहित्य का विशाल अंश जैन भंडारों में सुरक्षित है।अब जैन भन्डारों की पर्याप्त शोध हो रही है। अतः इस साहित्य की मृत्यु उत्तरोत्तर अधिक होती जा रही है। शोध के अभाव में एक बार प्रसिद्ध जर्मन विद्वान चिश्तु को को कहना पड़ा था कि "अपार का विपुल साहित्य हो गया है। वास्तव में उस समय सम्यक शोध की कठिनाइयां चरम पर थीं। साथ ही जैनी लोग भी अपने भंडारों को दिखाना अपना अपमान समझते थे।
ras अब ऐसी बात नहीं है। गुजरात, दिल्ली, जयपुर, नागौर, बीकानेर, जैसलमेर के मंडारों से अपप्रेत्र की अनेकों कविया मिली, और मिलती जा रही है। कारंजा के जैन भंडार से उपलब्ध रचनाओं के आधार पर अप भाषा में विरचित जैन साहित्य की सम्पन्नता निर्मान्तविध हो जाती है।
अप भाषा के साहित्य का समय यद्यपि विद्वानों ने चौथी पाचवी शादी से १००० ई० तक निर्धारित किया है परन्तु वास्तव में इस साहित्य का एक सिंहावलोकन करने पर उद्भव काल में उपलब्ध रचनाएँ बहुत पुष्ट नहीं प्रतीत होती । के परिशीलन के लिए इसके इतिहास को दी काल में विभक्त कUT
जा सकता है:
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१- प्रारम्भिक काल (५०० ई० १. स्वर्गका
१- प्रारम्भिक का
८०० ई० तक)
(८०० ई० -१५०० ई० तक)
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भाषा का उदय
हो ठीक से नहीं कहा जा सकता
पर सर्व प्रथम महर्षि परिचित पापिनी टीका के पत्र का उल्लेख मिलता है।'
१: पूर्वायोश्वयाः कनीयः इसुवा इति। एकैकस्य हि इदस्य महतोका सा teree se गावी गौवी गोठा गोवोकेत्यादी महाः
देवि
पाषिनी भाष्य निर्णयसागर संस्करण ० ३०-३१