________________
११२
हस्तलिक्षित प्रतिगों केरुय में भी इस समय उपलब्ध है।
गों हिन्दी भाषा में गदग काय की परम्परा प्राचीन नहीं प्रतीत होती है। हिन्दी में वैसे गद्य की रचना ही विद्वानों ने १७वीं शताब्दी के मैं मानी है। गोरदनाथ की बुहा रवनाओं का गद्य में होना मिलता है तथा उसका काल ३वीं से .५वीं शताब्दी तक बताया गया है पर गोरखनाथ की कृतियों की हस्तलिखित य ८वीं शती के पहले के उपलब्ध नहीं है।मत: यह स्थिति असं दिगध नहीं कही जा सकती। अतः शोष की प्राप्त सामग्री के आधार पर अल्लम सम्प्रदाय के ब्रजभाका प्राधों को ही हिन्दी का प्राचीन गड्य ग्रन्थ माना जाता रहा है परन्तु इस ब्यूब का परिहार भी इस अध्याय में पूर्व वर्णित आदिकालीन हिन्दी जैन गद्य की प्राचीन रचनाओं के द्वारा हो जाता है।ये रचनाएं ४ी
जबादी से ही मिलने लगीत यो यदि बम्बई के उस शिला लेस की काम्या -त्मक गड्ब को इसका मूल उदभव कहा जाय तो हिन्दी में मइब की परम्परा
०पी शताब्दी से ही मानी जा सकती है। हिन्दी साहित्यमें 10वीं वादी में लिखी इदीम आत (सं० १९३३) गड्य काव्य की रचना उल्लेखनीय है जो बीकानेर की अनूभ स्कृत लाइझेरी मैसुरक्षित है।
म हिन्दी की प्रादेशिक बिमाको प्राचीन राजस्थानी मी शुवरावी की हिन्दी जैन रचनाओं में भय काय के कान में महत्वपूर्ण योग दिया हैतानी प्रति से उपलब्ध . 0 का बालशिवा अन्य है। इसका स संस्कृत में है जिसकी रेस में प्रस्थानी मा में टीका की इस रवना पर म शामिल के प्रारम्भिक काल में इसी अन्याय के पूर्व पृष्ठों में विचार किए जा चुका है। राजस्थानी मईय का जिन्य दो सप में उपलबूत होता है:
-
-
नाबाबददाय
पोर-देखिए कनिमल बुवारा विरचित
रघुनाथ उपक गीदारो। रिपना-चार्य, ५-pe am