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श्री तारणस्वामी विरचितश्री तारणतरण श्रावकाचार।
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अनुवादकश्रीमान जैनधर्मभूषण धर्मदिवाकर ब्र० सीतलप्रसादजी।
जिसकोश्री तारणतरण समाजके जैन चैत्यालय सागरकी ओरसे प्रबन्धकर्ता
श्रीयुत मथुराप्रसाद बजाज, बड़ा बाजार-सागर
सर्व श्रावकोंके कल्याणार्थ प्रकाशित किया। प्रथमावृत्ति ] . वीर सम्बत् २४५९ [प्रति १००० "जैनविजय" प्रिन्टिग प्रेस-मूरतमें मूलचंद कितनदास कापड़ियाने मुद्रित किया ।
। मूल्य -रु. ३-०-०
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मंगलाचरण संसार शरीर भोगका स्वरूप मिथ्यात्वका स्वरूप कषायोंका स्वरूप तीन मृढ़ताओंका स्वरूप सम्यक्तके १५ दोष मिथ्यात्वके त्यागका उपाय सम्यग्दर्शनका स्वरूप आत्माके तीन भेद सुदेव कुदवका स्वरूप सुगुरु कुगुरुका स्वरूप कुधर्मका स्वरूप चार विकथाका स्वरूप सात व्यसनाका स्वरूप जल छाननेकी विधि कंदमूल शाक संमूर्छन ब्रस जंतु भोज्य पदार्थ मर्यादा विदल व पूर्णफल संधाना दोष आठ मदका स्वरूप चार कषायका स्वरूप धर्मका स्वरूप . पिंडस्थादि धर्मध्यानका स्वरूप
विषयसूची।
सम्यग्दर्शन महात्म्य सम्यग्दृष्टीका आचरण वेपन क्रियाएँ आठ मूल गुण रत्नत्रय स्वरूप दानका स्वरूप, पात्रापात्र विचार ५८ लाख योनिमें सम्यक्ती न जावे रात्रि भोजन स्पाग पानी छानना श्रावकके नित्य छः कर्म, अशुद्ध व शुद्ध भेद मिथ्या सामायिक शुद्ध षट्कर्म विचार
पांच परमेष्ठीका स्वरूप २०९ | ११ अंगोंकी मापादि
शास्त्र व शास्त्र भक्ति सम्यक्तीके ७५ गुण सुगुरू भक्ति स्वाध्यायका स्वरूप संयमका पालन शुद्ध षट् कर्म संक्षेप
ग्यारह प्रतिमा स्वरूप १८१ | साधुका चारित्र
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शुद्ध
नयका
अथ लोपित १ सागरसे
४ शासन ५२ १९ अव्यवहार
शुद्धिपत्र।
भशुद्ध कुलभद्र
९७ १७ सत्य भयका
११४ १० वीजे अर्थ लोपितं
११५ अंतिम मुक्त सागसे ११८ ११ भावे शमन
१९॥ १ सबको व्यवहार १२४ १६ पहचानता तन
१२६ अंतिम, रोषु
१. ४ लोभनल स्वाभाविक
, २० रोगके तीन
१६ भाव कषाय केवलज्ञानका सा- १७१ ४ यस्यते । धक है अवधि
१७७ ९ कार्य भी मन:पर्यय
१९१ १४ सोलह व्रतो व्यक रूपेण
२०१ १२ दोष सर्व निकंदनं २०४ १२ सम्पत्त रहते हैं, माया | " १५ निर्मलता मिथ्या सहित न | २४२ ९ बहुत लोभ बत
| २४३ १७ अमुकको
७२
२ सामायिक १२ तीन १७ केवलज्ञानके
सत् बीते भुक्तं भाषे वस्तुको न पहचानता नन्येषु लोभानल रागके मान कषाय पस्यते काय भी . सोलह पत्तों शेष सब सम्मत्त निर्बलता बहुत लाभ अमुकको न
७५ अंतिम, त्यक्तरूपेण ७६ १२ निकंदवं ७७ अंतिम, न व्रत
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॥४॥
॥४
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• ला• अशुद्ध २४४ २ दृढ़ न २४७ १६ लाभ , २० आत्मानुभव
२२ निधन
२ द्रविधश्चैव ३०८ २० अशुद्धको ३१८ १७ किरण
६ १४ भय रखना * १५८ १३ श्रूवते
लोभ आत्मानुभव न लाभ दुविधश्चैव अशुद्धतपको फिरण भय न रखना
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४. का. शुद्ध
मशुद्ध | ३७० १४ च रक्षितुं न रक्षितुं
" १ शब्द प्रयोग शस्त्र प्रयोग ३८४ १५ चिरता थिरता ३९६ ११ कमी करनी कथा करनी ३९७ अंतिम, सरदा मुरदा ४०० १८ तीसरे दिन भुक्त तीसरेदिन एकभुक्त ४१४ अंतिम शास्त्र विक्रय शस्त्र विक्रय | ४१७ १७ धार्मिक अंतरंग धार्मिक प्रारम्भ | ४२५ १२ अमृत अमृत
श्रूयते
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भूमिका
भूमिका
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भूमिका।
यह श्रावकाचार अन्य किसी विशेष भाषामें नहीं है। इसमें संस्कृत भारत देश माषाके मिश्रित शब्द हैं। किसी खास व्याकरणके माधार पर रचित नहीं है। इसकी भाषा टीका लिखते समय हमारे पास चार प्रतियें थीं-तीन सागरकी व एक ककितपुरको । सागरकी एक प्रति प्राचीन लिखो मन्य दोकी अपेक्षा शुद्ध है । ललितपुरकी प्रति सबसे शुद्ध है। श्रावकाचार ग्रन्थ इस प्रतिमें संबत १६५४ कार्तिक मुंदी १३ का लिखा हुमा प्राचीन है। यथाशक्ति शब्द शुद्ध करके अर्थको समझकर भाव लिखा गया है । इस ग्रन्थमें यद्यपि पुनरुक्ति कथन बहुत है तथापि सम्यग्दर्शन तथा शुद्धात्मानुभवकी दृढ़ता स्थान स्थान पर बताई है। कोई कथन श्री कुन्दकुन्दाचार्य व श्री उमास्वामी के दिगम्बर जैन सिद्धांतके प्रतिकूल नहीं है। प्राचीन दिगम्बर जैन शास्त्राधारसे ही ग्रंथ संकलित किया गया है। हमने भावोंको समझकर भाव दिखाने का प्रयत्न किया है । शब्द शुद्धिका विचार यथासंभव किया गया है। अबतक जो दिगम्बर जैनसमाजमें श्रावकाचार प्रचलित हैं उनमें मात्र व्यवहारनयका ही कथन अधिक है परन्तु इस ग्रन्थ में निश्चयनयकी प्रधानतासे व्यवहारका कथन है । पढ़नेसे पदपद पर अध्यात्मरसका स्वाद माता है । इसके कर्ता अध्यात्म शास्त्र व व्यवहार शास्त्र के अच्छे मर्मी थे । यह बात ग्रंथको आद्योपांत पढ़नेसे विदित होजायगी। वे सिद्धांतके ज्ञाता थे इसके प्रमाण में कुछ श्लोक नीचे दिये जाते हैं
त्रिविधि पात्रं च दानं च, भावना चिन्त्यते बुधैः। शुद्ध दृष्टि रतो जीवः, अट्ठावन लक्ष त्यक्तयं ॥ २६७।। नीच इतर अप तेज च, वायु पृथ्वी वनस्पती। विकलत्रयं च योनी च, अहावन लक्ष त्यक्तयं ॥२६॥
भावार्थ-नो सम्यग्दृष्टी तीन पात्रोंको दानकी भावना करे व शुद्धात्मामें रत हो वह ८४ लाख योनियोंसे ५८ लाख योनियों में कभी पैदा नहीं होगा । नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इनमें प्रत्येकमें सात सात लाख । तथा र प्रत्येक वनस्पतिके १० लाख, विकलत्रयके ६ लाख-कुल ४२+१+६=१८ लाख-योनियोंमें सम्यग्दृष्टी नर तिर्यच नरक मायु बांधनेपर भी कभी नहीं जायगा। मात्र पंचेन्द्रिय उत्पन्न होगा। यह बड़ी विद्वत्ताका नमुना है। साधुका स्वरूप लिखा है
ज्ञानचारित्र सम्पूर्ण, क्रिया त्रेपण संयुतं । पंचव्रत पंच समिति, गुप्ति त्रयप्रतिपाळनं ॥ ४४६ ॥ . सम्यग्दर्शनं ज्ञानं, चारित्रं शुद्ध संयमं । जिनरूपं शुद्ध द्रव्याथ, साधो साधु उच्यते ॥ ४४८ ॥
भावार्थ-जो ज्ञान चारित्रसे पूर्ण हों, श्रावककी १३ क्रियासे संयुक्त हों, पांच महाव्रत पांच समिति व तीन गुप्तिके ॥
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भूमिका
भूमिका ॥२॥
पालक हों व जो शुद्ध संयमको व रत्नत्रय धर्मको व मरहंतके स्वरूपको व शुद्ध द्रव्यको साधते हों वह साधु हैं। यह साधुका बहुत बढ़िया स्वरूप है। भोजन शुद्धिपर लिखा है
स्वाद विचलितं येन, सन्मूर्छन तस्य उच्यते । जे नरा तस्य भुक्तं च, तियचं नर संति ते ॥११॥
फलस्य संपूर्ण भुक्त, सम्मूर्छन त्रस विभ्रमः । जीवस्य उत्पादनं दृष्ट, हिंसाबंदी मांस दूषनं ॥११२॥
भावार्थ-जिसका स्वाद चलायमान होजावे उसमें सन्मूर्छन बस पैदा होते हैं। जो मानव भक्षण करते हैं वे पशु समान हैं। किसी फल को पूरा विना देखे तोड़े न खाना चाहिये, उसमें सन्मूर्छन त्रसोंकि उपननेकी शंका है। जो बिना तोड़े खाते हैं वे * हिंसानंदी हैं व मांसके दोषको पाते हैं।
मविरत शुद्ध सम्यक्ती ५१ क्रियाओंमेंसे मठारह पालता है। शेष ३५ की भावना करता है। ऐसा बड़ा ही मार्मिक व चारित्रकी वृद्धिकारक कथन तारण स्वामीने किया है। वे श्लोक हैं
जघन्यं अव्रतं नाम, जिनउक्तं जिनागमं । साधै ज्ञानमयं शुद्धं, क्रिया दस अष्ट संजुतं ॥ १९८ ॥ सम्यक्तं शुद्ध धर्मस्य, मूलं गुणं च उच्यते । दानं चत्वारि पात्रं च, साध ज्ञानमयं ध्रुवं ।। १९९ ॥ दर्शन ज्ञानचारित्रै, विशेषितं गुण पूजयं । अनस्त्रमितं शुद्ध मावस्य, फासूमल जिनागर्म ॥२०॥ एतत्तु क्रिया संजुत्ते, शुद सम्यग्दर्शनं । प्रतिमावततपश्चैव, भावना कृत सार्धयं ॥ १.१॥
भावार्थ-जधन्य अविरत सम्यग्दृष्टी ५३ क्रियाओंमेंसे १८ पाळता है। पाठ मूळगुण +चार दान +सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रकी भावना +रात्रि भोजन त्याग +पानी छानकर पीना +समताके लिये जिनागम पठन=१८ क्रियाएं हैं तथा १२ व्रत+१२ तप +११ प्रतिमा ३५ क्रियाओंकी भावना रखता है।
अध्यात्मज्ञान व नयोंद्वारा शास्त्रज्ञानका नमूना यह है__ शुद्ध धर्म च प्रोक्तं च, चेतनालक्षणो सदा। शुद्ध द्रव्याथिक नयेन, धर्म कर्म विमुक्तयं ॥ १९८॥ भावार्य-शुद्ध द्रव्यार्थिक नबसे शुद्ध धर्म चेतनाका गुण है तथा कर्मरहित आत्माका स्वभाव है।
इस अन्यके कर्ता श्री तारणतरण स्वामी थे। यह दिगम्बर जैन मुनि थे ऐसा किनहीका कहना है, किनहीके विचारसे यह ब्रह्मचारी थे । इसमें संदेह नहीं कि यह एक धर्मके अता मात्मरमी महात्मा थे । इनके व्यनसे प्रगट है कि यह श्री कुन्दकुन्दाचार्य शास्त्रोंके ज्ञाता थे। इनका जोवनचरित्र को कुछ मिका बहुत संक्षेपसे यहां दिया जाता है
जनहितैषी अंक वीर सं० २१३९ को देखकर व सागरके भाइयोंसे मालूम कर लिखा जाता है। इसमें जो ऐतिहासिक
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॥२॥
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भूमिका
भूमिका
अनुमान व हमाग निजका विचार दिखलाया गया है उसके लिये हम स्वयं जिम्मेदार हैं। तारणतरण समाजके भाई उसके लिये जिम्मेदार नहीं हैं। . .
पुष्पावती नगरमें इनके पिता गढ़ासाहु रहते थे। यह परवार सेठ थे, तथा दिहली के बादशाहके यहां किसी कामपर नियत थे । पुष्पावती नगरी पेशावरको कहते हैं, पेशावरको पुष्कलावती या पुष्पावती पहले कहते थे । मालूम होता है कि गढ़ासाहके नाधीन कोई महान् काम बादशाहकी तरफसे पेशावरमें होगा । गढ़ासाहुनीकी धर्मपत्नी वीरश्री थी। ग्रंथकर्ता होनहार पुत्र वि. संवत १५.५ (वसन् १९१८)बगहन सुदी ७ को जन्मे थे। अब दिहलीमे सन् १९४८ में भकाउद्दीन सय्यद राज्य करते थे फिर मुस्तान बहलोल कोधी सन् १९५० में बादशाह हुए जब यह पांच वर्षके थे। इसके पिताके ऊपर कोई कर्मके उदयसे मापत्ति पाई तब यह अपना सब सामान लेकर मारुवा देशमें आये । और गडौका (जिला सागर खुरई तहसीक खिमलासेके पास) में जाकर डेरा किया।
वहां एक श्रुतमुनि बिराजमान थे । उनका दर्शन करके साहुनी व सेठानी व यह पुत्र बड़े भानंदित हुए। मुनि महारानने पुत्र को देखकर भाशीर्वाद दिया व उनके पिताको शिक्षा दी कि यह एक महात्मा है, इसको शास्त्रज्ञान व विद्या भळेप्रकार पढ़ाई जावे । वहांसे चलकर टोंक राज्यके सेमरखेड़ी (वासौदा स्टेशनसे सिरोंज होकर ) स्थानके पास ग्राममें बसे । वहां एक बनान्य जैन सेठकी सहायतासे व्यापार करने लगे और पुत्रको विद्या पढ़ाने कगे। यह बड़े चतुर थे । यथायोग्य विधा लेते हुए जैन शास्त्रोंका स्वाध्याय करने कगे । इनको छोटी वयसे ही वैराग्य होगया । ऐसा मालूम होता है कि इन्होंने विवाह नहीं कराया, बहुत काल तक घरमें हो श्रावक व्रत पाळते रहे और सेमरखेड़ी में (जहां अब जंगल है व नशियां बनी है) एकांतमें बैठ ध्यान लगाते रहे। कुछ काल पीछे इन्होंने घर त्याग दिया तब या तो ब्रह्मचारी रहे या मुनि होगये । तथा मल्हारगढ़ (ग्वालियर स्टेट मुंगावली स्टेशनसे तीनकोस ) में ठहरकर अधिक ध्यानका अभ्यास करने लगे। और उन्होंने यत्रतत्र विहारकर अपने मध्यात्म गर्भित उपदेशसे जैनधर्मका प्रचार किया। ऐसा कहते हैं कि उनके उपदेशसे ५५३३१९ जनोंने जैनधर्म ग्रहण किया । ये हरएकको जैनी बनाते थे।
इनके शिष्य कई प्रसिद्ध हैं लक्ष्मण पांडे, चिदानन्द चौधरी, परमानन्द विलासी, सुस्पसाह तेली, लुकमानशाह मुसलमान । इन्होंने मल्हारगढ़से वि. सं. १५७२ ज्येष्ठ वदी ६ शुक्रवारको समाधिमरण करके सुगति घाम प्राप्त किया। उस समय सन् १५१५ था, दिहकीमें सिकन्दर लोधीका राज्य था जो १४८९ पर गद्दीपर बैठे थे। सुलतान वहलोल लोधीसे गढ़ासाहकी नहीं बनी होगी ऐसा झळकता इनके उपदेशके अनुयायी तारणतरण समाज कहलाते हैं। वर्तमान में इस समान
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भूमिका
भूमिका
वालों पर मिरमापुर, बांदा, मध्यप्रांत, मध्य भारतमें फैले हुए करीब २... होंगे व १.... मानव होंगे। ये चैत्यालयके
नामसे सरस्वती भवन बनाते हैं, वेदीपर शास्त्र विराजमान करते हैं, शासकी भक्ति करते हैं, शास्त्रके सामने जिनेन्द्रदेवकी भी ॐ भक्ति करते हैं । दिगम्बर जैन शास्त्रोंको पढ़ते हैं व बिराजमान करते हैं । जिनेन्द्र प्रतिमाके रखनेका व पूजने का रिवाज नहीं है
तथापि ये लोग तीर्थयात्रा करते हैं। मंदिरोंमें यत्रतत्र प्रतिमाओंके दर्शन करते हैं। तारणतरण स्वामी रचित जो शास्त्र हैं उनमें भी प्रतिमाका खण्डन नहीं है।
मालूम होता है उन्होंने उस समयकी परिस्थितिको देखते हुए प्रतिमा स्थापनको गौण कर दिया था। वह मुसलमानी समय था, मूर्ति खण्डनका जगह २ उपदेश होता था। कोगोंको मुसलमानी धर्ममें जानेसे बचानेके किये उप्त समय ऐसा किया होगा।
उस समय महमदाबादमें श्वेतांबर जैनियोंके भीतर एक लोकाशाह हुए थे जिन्होंने भी वि० सं० १५०८ में हूँढ़ियापंथको स्थापना की थी। ये भी मूर्तिको नहीं पूजते हैं । सिखधर्मके स्थापक नानक पंजाबमें सन् १४६९ से १५३• तक हुए व कबीर ४ शाह भी इसी समय सन् १४४६ से १५०८ में हुए हैं। इन सबोंने मूर्ति पूजाको गौण किया था । तारणस्वामीका स्वर्गवास सन् १५१५ में हुमा था।
पाठकगण देखेंगे कि लोकाशाह, कबीर, नानक, तारणस्वामी करीब २ समकालीन हुए हैं। भारतकी दशा उस समय मच्छी नहीं थी। मुसलमानी धर्म जोर जुलमसे फैलाया जाता था। जब ये धर्मप्रचारक हुए तब सिकन्दर लोधीका राज्य था। इसके सम्बन्ध विसेन्ट स्मिथ इतिहासकार लिखते हैं कि
"He enterely ruined the shrines of Mathura, converting the buildings to Muslim use & y generally was extremely hostile to Hindism."
. इसने मथुराके मंदिरोंका विध्वंस किया । मकानोंको मुसलमानी बना लिया । यह हिंदूधर्मका कट्टर शत्रु था । मूर्ति पूनाका घोर विरोध किया जाता था। हिंदुओंको कोभसे या भयसे मुसलमान बनाया जाता था। ऐसे समयमें ही गढ़ासाह भागकर मालवाकी तरफ माए। संभव है अपने धर्मकी रक्षार्थ ही भाए होंगे। उनके विचारशीक पुत्रको यह बात खटकी होगी तब तारणतरणने दिगम्बर जैनधर्मकी रक्षार्थ वही काम किया जो लोकाशाहने श्वेतांवर धर्मकी व नानक व कबीरशाहने हिंदु धर्मकी रक्षार्थ किया । अवसर पाकर मूर्तिपूमाको गौण कर शास्त्रपूजा व गुरुपूनाको मुख्यता की। इससे साफ झलकता है कि तारणतरण स्वामी बड़े ही प्रभावशाली बक्का व अपने समयके अध्यात्म रसिक अन महात्मा होंगे, जिन्होंने मुसलमान होनेवाले जैनियों को रक्षित किया तथा स्वयं मुसकमानों तकको जैनधर्ममें दीक्षित किया । इनकी ग्रंथ रचनामें मात्मानुभवकी स्थानर पर प्रेरणा है।
वारणतरणस्वामी रचित १४ ग्रंथ प्रसिद्ध । उनका विवरण नीचे प्रकार है
॥४॥
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भूमिका
॥५॥
१- श्रावकाचार — ठोक ४६२ ! ३- पंडित पूजा " ३१ । ४- कमलबत्तीसी— श्लोक ३२ । इसमें भी अध्यात्मीक उपदेश है, पांच ज्ञानका स्वरूप है, रत्नत्रयका स्वरूप है ।
२- माळारोहण - श्लोक १२ ।
९ - उपदेश शुद्ध सार - श्लोक ५८८ ।
६- ज्ञान समुच्चयसार - ९०८ ।
इसमें छः द्रव्य, सात तत्त्व, १४ गुणस्थान, पांच महाव्रत, सम्यग्दर्शन व्यादिका मच्छा निरूपण है । उसीमें दिगम्बर मुनिका स्वरूप है
ये पंच चेल उक्तं त्यक्तं, मन वचन काय सद्भावं । विज्ञान ज्ञान शुद्धं, चेळ त्यक्तंति निव्वुए जंति ॥ ४०० ॥ दिगम्बर नयन उत्तं, दसदिशा अंबरेण सद्भावं । अम्बरं चेल विमुक्तं, दिगम्बरं ज्ञान सहकारं ॥ ४०२ ॥
भावार्थ — जो पांच प्रकार आच्छादन अर्थात् रोमके, चमड़ेके, बल्कळके, रुईके व रेशमके इनसे रहित हो, विज्ञान व ज्ञानमें शुद्ध हो। ऐसे वस्त्र रहित अचेलक ही निर्वाण जाते हैं । दिगम्बर शब्द बताता है जिनको १० दिशा जैसे आकाश वस्त्र रहित है । यह दिगम्बरपना ज्ञानका सहकारी है ।
कपड़ा हो।
७-ममळ पाहुड़ या अमल पाहुड़ – ३२१३ श्लोक, इसमें ३२, ११, १६, १९ नादि श्लोकोंके छोटे २ खण्ड रूपसे मध्यात्मीक भजन हैं । एक अध्याय ३४ अतिशयका है, जिनको निश्वयनय प्रधानसे बताया है । गगन गमनपर लिखा हैगगन सुनन्तानन्त जिनय जिन, गम्य अगम्य परिणाम ध्रुवं ।
नन्त रमन सुहज्ञान गगन जिन, गम्य अगम्य अइसय ममलं ॥ १८ ॥
भावार्थ- आकाश अनंतानंत है उसको जीतनेवाले जिन हैं अर्थात् लोकालोकके ज्ञाता हैं। गम्य-कथन योग्य, अगम्य-न ज्ञाता हैं, अनंतज्ञान में रमन करनेवाले श्रुतज्ञानके प्रकाशक नाकाशके अगम्यके ज्ञाता हैं। आकाश गमन अर्थात् निर्मल माकाश समान जनं
कथन योग्य जो परिणमन सदा हुआ करता है उस सबके समान निर्मक जिन हैं । यही निर्मक अतिशय है जो गम्य aria ज्ञानमें मनागमन है परिणमन है सो आकाश गमन अतिशयके धारी है। बड़ा ही सुन्दर विवेचन है ।
तेरा प्रकार चारित्रको कथन करते हुए १६ श्लोक हैं। इनमें भी निश्श्रयनयका प्रधान कथन है। जैसे आदान निक्षेपण समितिको इस तरह कहा है जिसका अर्थ व्यवहारमें है कि हरएक वस्तुको देखकर उठाना रखना
आद सहावेन ज्ञान रय रमनं, निक्षिपिय कम्म जिनरंज सुयं ।
ज्ञान विज्ञान सु अमळ रमन जिनु, भय शल्य शंक विलयंतु सूयं ॥ ५४ ॥
भूमिक
॥५॥
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मुमिका
भूमिका
(०
भावार्य अपने पास्माके स्वभावके द्वारा ज्ञानमे रमन करमा सो कावासोका क्षय करना सो निक्षेपण है। इस १ तरह मिनेन्द्र में रखायमान होनेवाका श्रुत है जिसका आवम्बम करनेसे ज्ञान विज्ञान निर्मभावमें रमन होता है। लिप्त भावश्रुतमें
रमन करते हुए भय, शल्य व शंका सब विला जाती है। अर्थात् बामस्वभावमै छीनता ही मादाननिक्षेपण समिति है। बहुत ४ ही बढ़िया तत्त्व विचार है।
-चौबीस ठाण-गध पय सहित पत्रे १०, इसमें निश्चयनयको लेकर गोमट्टसारकी चर्चा कुछ भाग है। एक स्थानमें ६६३१६ क्षुद्र भवोंका विवरण यथार्थ गोमट्टसारके अनुसार है। जैसे
एकेंद्रियके-६६१३२ भव अन्तर्मुहूर्तमे इन्द्रियकेतेन्द्रियकेचौन्द्रियके- १. " पंचेन्द्रियके- २४
" कुल ६६३३६ एक अन्तर्मुहूर्तमें जिनकी मायु श्वासके मठारहवें भाग होती है। ९-त्रिभंगीसार-श्लोक ७१ इसमें तीनर के समूह बहुतसी बातें हैं। जैसे-- १-देव गुरु शास्त्र
५-आशा स्नेह लोभ २-दर्शन ज्ञान चारित्र
६-माया मोह ममता ३–क्षायिक शुद्ध ध्रुव
७-रूपातीत स्वधर्म नाकाश १–कृतकारित अनुमत
८-नंद मानंद सहजानंद इसमें भी बुद्धिमानी व विद्वत्ता झळकती है। १.-खातिका विशेष-१ पत्रे गय व्यवहारपल्य, भवसर्पिणी, उत्सर्पिणी कालप्रमाण कुछ निश्चयनय प्रधान कथन भी है। ११-सिद्ध स्वभाव-१ पत्रा निश्चय प्रधान गद्यमें कुछ कथन है। १२-शून्य स्वभाव
२ पत्रे गध। १५-नाममाला
९पत्रे गवा १४-छद्मस्थ वानी
९ पत्रे गध।
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भूमिका
भूमिका
इन १४ ग्रन्थोंमें श्रावकाचार, पंडितपूजा, मालारोहणका उल्था मेरे द्वारा हुमा है। कमलबत्तीसीका उल्था बाबू जगरूप४सहाय बी० ए०, एल० एल बी• वकील एटा ( यू• पो• ) द्वारा हुआ है।
इनमें से प्रथम उपदेश शुद्ध सार तथा ज्ञान समुच्चयसारका उल्था होना योग्य है। ये दोनों बहुत उपयोगी उपदेशी ग्रन्थ हैं। ममक पाहुड ग्रन्थ उच्च श्रेणीके बाध्यात्मरसिक महात्माओंके ही आनंदकी वस्तु है। इसकी टीका बुद्धिमानोंके लिये मात्मविचारमें उपयोगी होगी। चौवीस ठाणको विचार करके गोम्मटसारसे मिलाकर शुद्ध करके व और विषय जोडकर प्रकाश योग्य है। त्रिभंगीसार भी उपयोगी है, बुद्धिमत्ताके साथ अर्थ करना योग्य है। खातिका स्वभाव, सिद्ध स्वभाव, शून्य स्वभावमें विषय बहुत अल्प है। माध्यात्मीक भावसे विचारने योग्य है । नाममाला और छद्मस्थ वाणो स्वयं वारणतरण स्वामी रचित नहीं मालूम होती हैं, पीछेसे रचित हैं। कुछ कथन ऐसा भी है जो प्राचीन दि० भेन सिद्धांतसे नहीं मिलता है।
श्री तारणतरण स्वामीका समाधिस्थान मल्हारगढ़ वेतवा नदी के तटपर बहुत ही रमणीक व ध्यानयोग्य है। यहां मकान भी मुन्दर बने हुए हैं।
फुटनोट-हमने स्वयं इस स्थानका दर्शन दो दफे किया है। अन्तम ता. १५ मार्च १९३१ को किया है, वेतवानवीसे। * मील किलेके समान बृहत भवन कोट सहित है, मध्यमें जिनवाणी चैत्वालय है, चारों बोर यात्रियों के ठहरनेका स्थान है, चारों ओर
जंगल है। वेतवा नदीके तटपर तारण स्वामीका एक सामायिक करने का पक्का दालान पाषाणका बना हुआ है। नदीके मध्यमें तीन चबूतरे हैं, एक वह है जिसपर बैठकर तारणस्वामी ध्यान करते थे । भवनके पीछे कोकमान शाहके रहनेका झोपड़ा व ध्यानका चबूतरा है। इस स्थानसे १ मील मल्हारगढ़ ग्राम है, किला है व सरोवर है। ग्राममें कुछ परवार जनों घर हैं, दि. जैन मंदिर है उसमें पार्श्वनाथकी प्राचीन दो प्रतिमाएं दर्शनीय हैं। ध्यानके मम्याप्त करनेवालोंके लिये मल्हारगढका तारणस्वामी महाराजका स्थान बहुत ही उपयुक्त है। नदीके मध्यमें व तटपर भी ध्यानका साधन होसक्ता है।
दुसरा तपस्थान सेमरखेड़ी है। इन दोनों स्थानोंपर वर्ष एक दफे तास्पसमाज प्रायः एकत्र भी होती है। जिन ग्रन्थों की भाषा टीका होजावें उन्हें हरएक जेनीको पढ़ना चाहिये । तत्वज्ञान होनेमें सहायता मिलेगी। तथा दूसरे दिगम्बर जैन आचार्योंके ४ रचित नीचे लिखे ग्रंथों को भी पढ़ना चाहिये भितसे धर्मका बोध होकर आत्माका कल्याण हो
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भूमिका
॥ ८ ॥
(१) रत्नकरण्ड श्रावकाचार - समंतभद्राचार्य कृ । (२) श्रावकाचार — अमितगति कृत । (३) पद्मनंदी पंचविंशतिका पद्मनंदि कृत ।
(8) अर्थप्रकाशिका - पं० सदासुखजी कृत । (५) सर्वार्थसिद्धि — पूज्यपाद आचार्य कृत ।
(६) गोमटसार जीवकांड कर्मकांड - नेमिचन्द्र सि• चक्रवर्तीकृत (७) परमात्माप्रकाश —– योगेन्द्राचार्य कृत ।
(८) ज्ञानार्णव - शुभचन्द्राचार्य कृत ।
(९) पंचास्तिकाय - कुंदकुंदाचार्य कृत ।
(१०) प्रवचनसार - कुन्दकुन्दाचार्य कृत ।
(११) समयसार (१२) नियमसार
सागर आश्विन सुदी १०
वीर सं० २४५८ ता. ९-१०-१९३२
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(१३) मूळाचार —ट्टकेर स्वामी कृत ।
(१४) स्वामी कार्तिकेयानुपेक्षा — मुनि कार्तिकेय कृ | (११) राजवार्तिक— कलंकदेव याचार्य कृत ।
(१६) समाधिशतक — पूज्यपाद नाचार्य कृत । (१७) इष्टोपदेश
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धर्मका वास्तविक स्वरूप रत्नत्रय धर्म है । निश्वय रत्नत्रय अपने ही शुद्धात्माका सम्यक् श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान व सम्यकू माचरण या आत्मानुभव है। इसीका साधक परम्परा निमित्त व्यवहार रत्नत्रय है। जिसमें जीवादि सात तत्वोंका ज्ञान प्रदान जरूरी है । व्यवहार चारित्र मुनि व श्रावकका उभय रूप है, पांच महाव्रत मुनिका चारित्र है, पांच मणुव्रत श्रावकका धर्म है। श्रावकों को देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, दान इन छः कर्मोका साधन श्रद्धापूर्वक करना चाहिये व मिथ्यात्व से बचना चाहिये । सम्यक्तके १९ दोष बचाने चाहिये, सात व्यसन द्यूत रमनादिसे बचना चाहिये, शुद्ध भोजन करना चाहिये, पानी छानकर पीना चाहिये, रात्रिको भोजन यथाशक्ति बचाना चाहिये, मुख्यता से मात्मध्यानका अभ्यास करना चाहिये । श्रावककी ग्यारह प्रतिमा हैं उनके द्वारा बाह्य अभ्यंतर चारित्रको उन्नति करनी चाहिये । इस श्रावकाचार में इन ही बातोंका विशेष वर्णन है। इस ग्रंथका प्रचार हर जगह होना चाहिये । पाठकों को विशेष लाभ होगा ।
- ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद ।
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भूमिस्त
॥८॥
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श्री १००८ तीर्थक्षेत्र श्री निसहनी-मल्हारगढ़, ग्वालियर स्टेट (श्री तारणतरणस्वामीका समाधिस्थान)।
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मारणतरण
श्रावकाचार
रणतरण श्रावकाचार।
मंगलाचरण । ऋषभदेवसे वीर लों, चौवीसों जिनराय । मन वच काय नमायके, वंदहु वर वृषदाय ॥ स्याबाद वाणी नमो, सत्य अर्थ भंडार । परम तत्व आरूढ़ कर, करत भवोदधि पार ॥ ग्रंथ रहित आतम रमी, वैरागी व्रत पूर्ण । परम साधु गुरु वदऊँ, होत विघ्न सब चूर्ण ॥ तारण स्वामी रचित जो, ग्रंथ श्रावकाचार ।
हिन्दी भाषामें लिखू, उल्था जन उपकार ॥ अब श्री तारणतरण रचित श्रावकाचारका भाव हिन्दी भाषामें लिखा जाता है
मंगलाचरण। श्लोक-देव देवं नमस्कृतं, लोकालोकप्रकाशकं ।
त्रिलोकं अर्थ ज्योतिः, ऊंवंकारं च वंदते ॥१॥ अन्वयार्थ-( देव देवं ) चार प्रकार देवोंके देव अर्थात् इन्द्रादि द्वारा (नमस्कृतं ) नमस्कार करने ॐ योग्य ( लोकालोकप्रकाशकं ) लोक और अलोकके प्रकाशक ( त्रिलोकं ) तीन लोकके ( अर्थ ) पदार्थों के लिये ४(ज्योतिः) ज्योति रूप ऐसे (ऊवंकारं ) ॐ को (च वंदते ) ही वन्दना करता है।
॥१
॥
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श्रा
तारणतरण ४
॥२॥
विशेष-तारण स्वामी रचित ग्रंथ उस समयकी उनकी ही भाषामें हैं, उनमें न तो मात्र संस्कृत हैन प्राकृत न ठेठ हिंदी है। स्वामी जिस भाषामें कहते थे वही रचना लिखित मिलती है। दीर्घ कालके लेख प्रतिलेख होनेसे अक्षरोंका व्यतिक्रम होना संभव है। यहां मात्र भाव ग्रहण कर पाठकोंके लाभार्थ दिखलाया जाता है। ॐ शब्दको ॐकार या ऊंवंकार कहनेका रिवाज था ऐसा मालूम होता है। ॐ शब्दमें जैनियों द्वारा मान्य पांच परमेष्ठी गर्भित हैं। हरएक प्रथम अक्षरको लेकर यह शब्द बना है। जैसे
अरहंतका-अ सिद्ध या अशरीरका-अ आचार्यका-आ उपाध्यायका
साधु या मुनिका-म् इस तरह अ+अ+आ+उ+म्-ओम् या ॐ बन जाता है। इन पांचोंमें अरहंत जीवन्मुक्त परमात्मा शरीर सहितको व सिद्ध शरीर रहित शुद्ध परमात्माको कहते हैं। दोनों सर्वज्ञ तथा वीतराग हैं। आचार्य, उपाध्याय, साधु तीन प्रकार परमगुरु सम्यग्दृष्टी अंतरात्मा हैं, जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिगृह त्याग ऐसे पांच महाव्रतोंको व ईा, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, प्रतिष्ठापना ऐसी पांच समितियोंको व मन वचन काय गुप्ति ऐसी तीन गुप्तियोंको इस तरह तरह प्रकार चारित्रको पालते हैं। निश्चयसे शुद्धात्म रमण रूप चारित्रमें आरूढ़ होते हैं। जो साधु दिक्षा शिक्षा दाता हैं वे आचार्य हैं। जो विशेषज्ञ शास्त्र पाठ देते हैं वे उपाध्याय हैं।जो मात्र साधन करते हैं वे साधु हैं। चार हाथ प्राशुक भूमि देखकर दिनमें चलना ई- समिति है, शुद्ध प्यारी भाषा कहना भाषा समिति है, शुद्ध भाजन भिक्षासे अपने उद्देश्यसेन बनाया हुआ लेना एषणा समिति है। पीछी कमंडल शास्त्र व अपने शरीरको देखकर रखना उठाना आदाननिक्षेपण समिति है। निर्जंतु भूमिपर मल मूत्र करना प्रतिष्ठापना समिति है।
जगतमें ये पांच पद ही श्रेष्ठ हैं। क्योंकि ये संसारको पीठ देकर मोक्ष रूप या मोक्षमार्गी हैं
॥२॥
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तारणतरण
आत्मीक आनन्दके विलासी हैं ? इंद्रिय सुखसे अत्यन्त वैरागी हैं। निश्चयसे पांचों ही आत्माएं हैं। श्रावकाश इसलिये लोकालोक प्रकाशक हैं व तीन लोकमें भरे हुए जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन छ: द्रव्योंको व उनके गुणोंको व उनकी पर्यायोंको दीपकके प्रकाशकी तरह झलकानेवाले हैं। लोकमें १०० इन्द्र प्रसिद्ध हैं। भवनवासी देवोंके ४० इन्द्र, ब्यंतर देवोंके ३२ इन्द्र, स्वर्गवासी देवोंके २४ इंद्र, ज्योतिषी देवोंके २ इंद्र, चन्द्रमा और सूर्य, मनुष्यों में चक्रवर्ती, पशुओंमें अष्टापद ये सब अपने मन वचन कायसे इन पांच पदवी धारकोंको नमस्कार करते हैं। व्यवहार नयसे लोकालोक प्रकाशकपना अरहंत व सिडाके हैं। आचार्य उपाध्याय साधुको भेदविज्ञान है। श्रुतज्ञानके द्वारा लोकालोकके प्रकाशक हैं। केवलज्ञानके सन्मुख हैं । भावी नैगमनयसे ये तीनों भी परमात्मा कहे जासक्ते हैं। ग्रंथकी आदिमें इनको भावपूर्वक नमन करनेसे भक्तका भाव निर्मल होजाता है। उसके भावोंसे सांसारिक विकार निकल जाता है, परिणामोंकी विशुद्धि होती है, जिससे पापोंका क्षय होता है। पुण्यका लाभ होता है। इसी कारण सज्जन पुरुष किसी भी कार्यकी आदिमें इष्टदेवका स्मरण रूप मंगलाचरण करते हैं। जिससे कायमें विघ्नकारक कारण शमन होसकें।। भावार्थ-यहां इन्द्रादिसे पूज्य, सर्वज्ञमई परमात्माको नमस्कार किया गया है जो ॐ शब्दमें गर्भित है।
श्लोक-ऊं वं ह्रियं श्रियं चिंते, शुद्धसद्भावपूरितं ।
संपूर्ण सुयं रूपं, रूपातीत विंदसंयुतं ॥ २॥ ___ अन्वयार्थ—(शुद्धसद्भावपूरितं ) शुख सत्तामई भावसे भरे हुए ( संपूर्ण सुयं रूपं ) संपूर्ण श्रुत रूप (रूपातीत) अमूर्तीक ऐसे (बिंदुसंयुतं) बिंदु सहित (ऊं वं हियं श्रियं) ॐ, हीं, श्रींको (चिंते) चितवन करता हूँ।
विशेष-ॐ ह्रीं श्रीं ये तीन मंत्र पद हैं-ॐ में ऊपर लिखे प्रमाण पाच परमेष्ठी गर्भित हैं। हमें चौवीस तीर्थकर गर्भित हैं। ह से चार तथा र से दोका बोध होता है, बाएंसे लिखनेसे २४ का ज्ञान होता है। श्री लक्ष्मीको कहते हैं। आत्माके ज्ञान दशन सुख वीर्य आदि स्वभावको ही आत्माकी ४ लक्ष्मी कहते हैं । इस लक्ष्मीके धारी परमात्माको भी श्री कहते हैं।
ग्रंथकारका लक्ष्य एक शुद्ध आत्माकी ओर भक्तिपूर्ण है। इसलिये उसने शुद्ध आस्माको ही
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तारणतरण
श्रावकाचार चितवन किया है। आलम्बनके लिये ॐ ह्रीं श्रीं तीन मंत्र पद कहे हैं। शुद्ध आत्मामें सदा ही स्वभा.स *वोंकी सत्ता रहती है। जैसे मिश्री मिष्ठतासे, नीम कटुकतासे, खटाई आम्लपनेसे, लवण खारपनेसे . परिपूर्ण भरा है वैसे ही आत्मा अपने ज्ञानादि स्वभावोंसे परिपूर्ण भरा ह । यही शुद्ध आत्मा संपूर्ण श्रतज्ञान रूप इसी लिये कहा गया है कि सम्पूर्ण श्रुतज्ञानका सार आत्माका ज्ञान है । अथवा ज्ञान जानी आत्मासे अलग नहीं है। जो श्रुतज्ञानको जानता है वह आत्माको जानता है। जो आत्माको जानता है वह सर्व श्रतज्ञानको जानता है। ऐसा ही कथन परम अध्यात्म समुद्र के पारगामी श्री कुंदकुंद महाराजने श्री समयसारजीमें किया है
जो हि सुदेणभिगच्छदि, अप्पाणमिणंतु केवकं सुद्धं । तं सुद केवलिमिसिणो, भणंति लोगप्पदीवयरा ॥९॥ जो सुदणाणं सव्वं, जाणदि सुदकेवली तमाहु मिणा । सुदणाण माद सव्वं, मम्हा सुदकेवली तम्हा ॥१॥
भावार्थ-जो कोई निश्चयसे भावश्रुतके द्वारा इस आत्माकों असहाय और शुद्ध जानता ह उसको लोक स्वरूपके प्रकाशक परम ऋषि श्रुतकेवली कहते हैं। जो कोई सर्व द्वादशांग श्रुतज्ञानको
जानता है उसको जिनेन्द्रदेव (व्यवहार नयसे) श्रुतकेवली कहते हैं। क्योंकि सर्व ही श्रुतज्ञान ॐ आत्मामें है व आत्मारूप है। इसी लिये आत्मज्ञानी ही श्रुतकेवली हैं या श्रुतकेवली आत्मज्ञानी हैं।
शुद्ध आत्मामें पौद्गलिक कोई विकार व कोई संयोग नहीं है इसलिये वह रूपातीत अर्थात् अमूर्तीक है । ग्रंथकारने भायोंकी शुद्धिके लिये ही इस श्लोक में भी अपने ही आत्माके शुद्ध स्वभावका स्मरण किया है।
श्लोक-नमामि सततं भक्त्या, अनादि सादि शुद्धये ।
प्रतिपूर्ण अथ शुद्धं, पंचदीप्ति नमाम्यहं ॥३॥ अन्नयार्थ-(अहं) मैं ( सततं) निरन्तर (भक्त्या) भक्तिपूर्वक (प्रतिपूर्ण) पूर्ण और (शुद्ध) शुद्ध (अर्थ) पदार्थको (पंचदीप्ति) जो पांच परमेष्ठी पदोंमें प्रकाशमान होरहा है। अनादि सादि शुद्धये) प्रवाहकी अपेक्षा अनादि, बंधने छूटनेकी अपेक्षा सादि ऐसे कमासे शुद्ध होनेके लिये ( नमामि नमामि) पार चार नमन करता हूं।
विशेष-यहां भी अरहंत आदि पांचों पदोंके भीतर निश्चय नयसे जो एक रूप ही शुरआत्मा ४
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तारणतरण ॥५॥
है उसीको नमस्कार किया गया है। वह परिपूर्ण है । अपने सम्पूर्ण गुण व पर्यायोंको लिये हुए पूर्ण कुंभकी तरह भरा हुआ है । उसमें कोई अपूर्णता के कारक कर्मोंके विकार नहीं हैं । वह रागद्वेषादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म व शरीरादि नोकर्मसे रहित है । इसीसे वह शुद्ध है । वह अभावरूप नहीं है, किंतु सद्भाव रूप है । स्वानुभवसे निश्चय किया जाता है इसीसे वह अर्थ है । गुणों में तल्लीनतःरूप भावरूप भक्ति है । वचनरूप व काय नमनरूप द्रव्यभक्ति है। दोनोंसे मैं वारवार नमन करता हूँ । ऐसा कहकर ग्रंथकारने अपनी गाढ़ श्रद्धा परमात्मा के तत्व में झलकाई है । कोई भी कार्य हो किसी भी हेतुसे किया जाता है । ग्रंथकारने बताया है कि मैंने जो शुद्धात्माका स्मरण किया है व उसके स्वरूपमें अपने उपयोगको जोड़ा है वह इसी प्रयोजनसे है कि मेरे आत्माके साथ बंधरूप कर्मोका नाश होजावें । उनसे मैं शुद्ध होजाऊं । कर्म सूक्ष्म पुद्गल स्कंध हैं । संसारी जीवोंके साथ प्रवाहकी या संतानकी अपेक्षा अनादि सम्बन्ध है । कभी आत्मा कर्म रहित संसारमें न था । तथापि कर्मका संयोग एक तरहका नहीं चला आरहा | कमका संयोग या बंध कुछ कालके लिये होता है । आठ कमोंमें मोहनीय कर्मकी स्थिति सबसे अधिक है। मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ७० सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी है । मोहनीय कर्मके स्कंध बंधनके पीछे इतने कालके भीतर सब अवश्य झड़ जायगे । इस अपेक्षा विचार किया जावे तो कमका सम्बन्ध आदि सहित भी है।
ग्रन्थकारने जैन सिद्धांतका यथार्थ भाव अनादि व सादि शब्दोंको देकर बता दिया है। यदि एकांतसे अनादि सम्बन्ध माना जाय तो वह कभी छूट नहीं सक्ता। यदि एकांतसे सादि सम्बन्ध माना जावे तो यह मानना पड़ जायगा कि कभी आत्मा शुद्ध था फिर यह अशुद्ध हुआ। दोनों दोषोंका निराकरण इन दो शब्दों के द्वारा होजाता है। यही वस्तुका स्वरूप भी है। अनादि जगतमें अनादिसे ही बीज वृक्षकी तरह जीव और कर्मका सम्बन्ध है जैसे- किसी बीजसे वृक्ष होता है । उस वृक्षसे फिर बीज होता है फिर बीजसे वृक्ष होता है । यद्यपि नवीन नवीन बीज व वृक्ष होता है। तथापि यह कार्य बराबर सदा से चला आता है । यदि हम कहें कि पहले वृक्ष ही था या पहले बीज ही था तौ बाधा आती है कि बीज विना वृक्ष कैसे या वृक्ष विना बीज कैसे । बीज वृक्षका सम्बन्ध अनादि भी है सादि भी है । इसी तरह जीवोंके अशुद्ध भावोंसे कर्मका संयोग होता है । कर्मसंयोगसे अशुद्ध
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श्रवि
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सारणतरण
श्रावकाचार
भाव होते हैं यह कार्य सदासे होरहा है इसलिये अनादि सम्बन्ध है। परन्तु पुराना कर्म झड़ता है नया आता है इसलिये सादि सम्बन्ध है। इसीसे शुद्धता भी होसक्ती है। जब नवीन कर्मबन्धके
कारण रागद्वेष मोहको न किया जावे तब नया बन्ध न होगा व पुराना बंध वीतरागताके प्रभावसे ७ नष्ट होजायगा फिर आत्मा शुद्ध होजायगा । तत्वार्थसारमें अमृतचन्द्र आचार्य कहते हैं:
__दग्धेबीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीने तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ॥ ॥
भावार्थ-बीज तथा वृक्षके अनादि सम्बन्ध चले आनेपर भी यदि बीजको जला दिया जावे तो फिर उससे वृक्षका पैदा होना बंद होजायगा इसी तरह कर्मों के बीजोंको जला देने पर फिर संसारका कारणभूत रागद्वेष मोहरूपी अंकुर नहीं पैदा होगा। _ ग्रंथकारने दिखलाया है कि शुद्धात्माकी भक्ति, किसी विषय व कषायकी पुष्टिके लिये या लौकिक धन पुत्रादिके लिये नहीं करनी चाहिये। मात्र कर्मबंध काटनेके लिये व स्वयं शुद्ध होनेके लिये ही करनी चाहिये । जैसा कि तत्वार्थसूत्रकी आदिमें मंगलाचरण है
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृतां । ज्ञातारं विश्वतत्त्वाना, वंदे तदगुणलब्धये ॥ भावार्थ-मैं मोक्षमार्गके नेता, कर्म पर्वतोंके चूर्ण कर्ता व सर्व तत्वोंके ज्ञाता परमात्माको उन ही गुणोंकी प्राप्तिके लिये अर्थात् कर्म क्षय करके शुद्ध होनेके लिये नमन करता हूं।
श्लोक-परमेष्टी परं ज्योति, आचनंतचतुष्टयं ।
ज्ञानं पंचमयं शुद्धं, देवदेवं नमाम्यहं ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ- अहं) मैं (परमेष्टी ) परम पद में रहनेवाले ( परं ज्योति ) परम ज्योति स्वरूप ( आचनंतचतुष्टयं ) अनंत चतुष्टयमें आचरण करनेवाले (पंचमयं ज्ञानं ) पंचम केवलज्ञानमई (शुद्ध) शुद्ध वीतराग (देवदेव) देवोंके देव परमात्माको (नमामि) नमस्कार करता हूँ।
विशेषार्थ-यहां भी परमात्माको ही नमस्कार किया गया है। जो उत्कृष्ट पद मोक्षमें विराज* मान हैं, अपने स्वपर प्रकाशक ज्ञानसे जो दीपककी ज्योतिकी तरह चमक रहे हैं जो केवलज्ञानमई
हैं । मति, श्रुत, अवधि, मनापर्यय ये चार ज्ञान क्षयोपशम रूप विभाव ज्ञान है जब कि केवलज्ञान
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तारणतरण
शुद्ध स्वभावरूप ज्ञान है। रागद्वेषादि व ज्ञानावरणादि काँसे रहित शुद्ध हैं। तथा जो अनन्त दर्शन,
*श्रावकाचार ४ अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य इन चार मुख्य गुणोंमें सदा परिणमन कर रहे हैं । इसमें अरहंत तथा सिद्ध दोनोंको स्मरण किया गया है।
श्लोक-अनंत दर्शनं ज्ञानं, वीर्जनंत अमूर्तयं ।
विश्वलोकं सुयं रूपं, नमाम्यहं ध्रुवशाश्वतं ॥५॥ अन्वयार्थ (अहं) मैं (अनंत दर्शन) अनंत दर्शनमई (ज्ञानं ) अनंत ज्ञानमई (अमृतयं) अमूतीक (विश्वलोकं) सर्वको देखने वाले (सुयं रूपं) श्रुतज्ञान मई अर्थात् श्रुतज्ञानके कर्ता अथवा श्रुतज्ञान द्वारा अनु. भव करने योग्य (ध्रुव) अविनाशी (शास्वतं) अनंतकाल रहनेवाले परमात्माको (नमामि) नमस्कार करताहूं।
विशेष-यहां भी परमात्माको नमस्कार करके व उनके गुणोंको स्मरण करके यह बताया है ४ कि वे ध्रुव हैं, कभी उनका क्षय नहीं होगा तथा शास्वत हैं अनंत काल तक एक रूप रहेंगे, उनमें १.
कोई स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जो पुद्गलके गुण हैं वे नहीं हैं इसीसे वे अमूर्तीक हैं। वे अनंत दर्शन व अनंत ज्ञानके धारी हैं। एक ही कालमें ही सामान्य विशेष रूप सर्व पदार्थों के ज्ञाता दृष्टा हैं स्व पर प्रकाश करते हुए व आत्मीक आनन्दका विलास करते हुए कभी भी उनको निर्बलता नहीं होती है। इसीसे वे अनंत वीर्य स्वरूप है। हम अल्पज्ञानी श्रुतज्ञानके द्वारा उनको पहचान करके व भेदज्ञान द्वारा परसे भिन्न अपने ही आत्माको शुद्ध द्रव्यरूप देख करके उनका अनुभव कर सक्ते हैं इसलिये वे श्रुतरूप हैं अथवा सम्पूर्ण श्रुतके कर्ता वे ही अरहंत भगवान हैं इसलिये श्रुतरूप हैं। वास्तवमें जो अपने आत्माको पहचानता है वही अरहंत तथा सिद्ध परमात्माको जान सक्ता है। जैसे कर्दमसे मिले हुए जल में भी जलका स्वभाव यदि देखा जाये तो निर्मल ही झलकता है उसी तरह शरीर व ४ कर्म मलके भीतर रहे हुए भी अपने आत्माको यदि आत्मारूप शुद्ध दृष्टिसे देखा जाये तो यही शुद्ध आत्मा या परमात्मा झलकता है। __ श्लोक-नमस्कृत्वा महावीरं, केवलं दृष्टि दृष्टितं । व्यक्तरूपं अरूपं च, शुद्धं सिद्धं नमाम्यहं ॥ ६ ॥
। ॥७॥
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तारणतरण
॥ ८ ॥
अन्वयार्थ - (अहं) मैं (महावीरं) चौवीसवें तीर्थंकर श्री महावीर भगवानको (नमस्कृत्वा) नमस्कार करके श्रावकाचार (केवलं दृष्टि दृष्टितं) केवलज्ञान रूपी नेत्रों के द्वारा प्रत्यक्ष देखे हुए (व्यक्तरूपं प्रकट प्रकाशमान आत्मस्वरूप धारी (च अरूपं और अमूर्तक (शुद्ध) व शुद्ध रागादि रहित सिद्धं) सिद्ध भगवानको (नमामि ) नमस्कार करता हूँ ।
विशेष—इस श्लोक में प्रथम तारणस्वामीने उस समय जिनका शासन वर्त रहा था ऐसे श्री महावीर भगवानको नमस्कार किया है। श्री महावीर स्वामीने अपनी दिव्यध्वनिसे मोक्षका यथार्थ स्वरुप व मोक्षका यथार्थ मार्ग झलकाया है जिसको श्रुतज्ञान द्वारा भव्य जीव जानकर व अपने आत्माका अनुभव करके परम आनन्द पाते हैं। उनका उपकार कभी भुलाने योग्य नहीं है । वे महावीर इसी लिये है कि राजकुमार होते हुए भी राज्य के प्रपंच में न फंसे । दीक्षा लेकर धर्मध्यान और शुक्लध्यानकी खड़गसे उन्होंने मोहरूपी वैरीको संहार किया फिर ज्ञानावरणादि तीन घातीय कमका नाश किया तथा कर्मविजयी हो अपना महावरिपना साक्षात् प्रगट किया ।
ग्रंथकर्ताका लक्ष्य पारवार शुद्ध आत्मा की तरफ जाता है इसलिये उन्होंने आठ कर्म रहित श्री सिद्ध भगवानको नमन किया है। जो सर्व परद्रव्योंसे व परद्रव्यके निमित्त से होनेवाले रागादि विकारोंसे व सर्व भेदोंसे रहित अभेद एक रूप शुद्ध हैं। यद्यपि वे पुगलकी तरह स्पर्श, रस, गंध, वर्ण घारी नहीं है इसलिये इन्द्रियोंके द्वारा देखने योग्य नहीं है । तथापि वे अनुभव करने वाले सम्यग्दृष्टी महात्माओंके अनुभवमें व्यक्तरूप हैं । श्रुतज्ञानके बलसे स्वसंवेदनमें आजाते हैं अथवा उनके आत्माका स्वरूप सर्व कर्मोंके आवरणोंसे रहित प्रकाशमान है। तथा उन सिद्ध भगवानका प्रत्यक्ष दर्शन केवलज्ञानरूपी नेत्रके ही द्वारा होता । पांच ज्ञानोंमें मतिश्रुत सो आत्मा आदि अमूर्तीक पदार्थोंको परोक्ष रूपसे जान सक्ते हैं अवधि व मनःपर्यय ज्ञान अमूर्तक शुद्ध पदार्थको जान नहीं सक्ते, मात्र केवलज्ञान में हो ऐसी शक्ति है जो आत्माको शुद्ध जैसाका तैसा प्रत्यक्ष देख सके । भावार्थ यह है कि जिस शुद्ध आत्माको केवलज्ञानी प्रत्यक्ष देखते हैं उसी शुद्ध आत्माको अल्पज्ञानी श्रुतज्ञानसे प्राप्त भेद विज्ञान रूपी नेत्र द्वारा देखें, जाने और उसका अनुभव पाकर स्वात्मानंद भोगें । शुद्धात्माका ध्यान, मनन, चितवन ही वीतरागताको बढ़ानेवाला है व रागद्वेष विभाव भावोंको मिटानेवाला है।
में
॥ ८ ॥
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वारणतरण
श्लोक-केवलीनंत रूपी च, सिद्धचक्रगणं नमः।
श्रावकाचार वोच्छामि त्रिविधं पात्रं, केवलि दृष्ट जिनागमं ॥७॥ साधओ साधुलोकेन, ग्रंथ चेल विमुक्त यं ।
रत्नत्रयं मयं शुद्धं, लोकालोक विलोकितं ॥८॥ अन्वयार्थ-( केवलीनंत रूपी च ) और अनंत केवर ज्ञानादि गुण स्वभावके धारी (सिद्धचक्रगणं) सिद्ध चक्रोंके समहको (नमः) नमस्कार हो। (त्रिविधं) तीन तरहके (पात्रं) धर्मके पात्र हैं उनका स्वरूप (वोच्छामि ) करुंगा। तीन हैं (केवलि) प्रथम तो केवली भगवान अरहंत सिद्ध, (दृष्ट मिनागमं) दूसरे केवली भगवान करके देखा हुआ व कहा हुआ जिन आगम, (साधुलोकेन) तीसरे साधु महाराज जिन्होंने ( ग्रंथ चेल विमुक्त यं) परिग्रह और वस्त्र रहित हो, (लोकालोक विलोकितं) लोक और अलोकको देखनेवाले (शुद्ध) शड वीतराग (रत्नत्रयं मयं) रत्नत्रयमई धर्मको (साधओ) साधन किया है।
विशेषार्थ-यहां फिर भी ग्रंथकारने भकिसे भरपूर हो अनत ज्ञान सुख वीर्यादि पवित्र गुणधारी अनंत सिद्धाको नमस्कार किया है । जैन विद्धांतका यह भाव है कि जो कोई आत्मा कर्म बंधनोंको काटकर व सर्व विकारोंसे छूटकर शुद्ध आत्मा होजाता है-पुद्गल के बंधसे रहित हो केवल आत्मद्रव्य मात्र रह जाता है । मल रहित सुवर्णके समान स्वच्छ होजाता है वही परमात्मा आराधन करने योग्य होता है। अनत जगतमें ऐसे अनंत जीव सिद्ध परमात्मा होचुके हैं। वे सब गुणों में समान होनेपर भी सत्ताकी अपेक्षा व अपने अपने पृथक् २ आत्मप्रदेशों की अपेक्षा भिन्न हैं। मुक्त होनेपर वे एक दूसरे में समाकर अपनी सत्ता नहीं खो बैठते हैं । इसतरह अनंत सत्ताधारी सिद्धाको यहां नमन किया गया है। फिर ग्रंथकार यह प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं पहले तीन तरहके धर्मधारी पात्रीका स्वरूप कहूंगा । पात्र वरतनको कहते हैं । देव धर्मके पात्र हैं। शास्त्र धर्म का पात्र है क्योंकि उसमें धर्मका वर्णन है। गुरु धर्मके पात्र हैं क्योंकि वे धर्मका साधन करते हैं। केवलज्ञानी अरहंत व १ सिद्ध देव धर्म पात्र हैं। अरहतका कहा हुआ जिन आगम शास्त्र धर्म पात्र है। सर्व परिग्रह रहित वेव रहित अचेल काया निग्रंथ साधु जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रमई धर्मका साधन
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तारणतरण
करते हैं वे गुरु धर्म पात्र हैं। यह धर्म व्यवहार नयसे तीन रूप है, निश्चय नए से शुद्ध अभेद एकआपकी ॥१०॥ निज आत्माकी परिणति है। वह परिणति लोकालोकके छः द्रव्योंको परोक्ष रूपसे जानने वाली है।
क्योंकि भूतज्ञान में सर्व पदार्थों का स्वरूप है । उस श्रुतको जाननेवाला साधुका आत्मा है। इसलिये ४ रत्नत्रय मई आत्मा ज्ञानसे भरपूर पूर्ण संतुष्ट है । इस शुद्ध आत्मीक भावको मोक्ष साधक जानके
साधन करनेवाले साधु होते हैं यही गुरु हैं। प्रयोजन यह है कि श्रावक धर्मका लाभ करना चाहें Vउनको प्रथम ही सच्चे देव शास्त्र गुरुपर श्रद्धा लानी चाहिये ।
श्लोक-सु सम्यक्तं ध्रुवं दृष्टं, शुद्ध तत्त्व प्रकाशकं ।
ध्यानं च धर्म शुक्लं च, ज्ञानेन ज्ञानलंकृतं ॥९॥ आर्जरौद्र परित्याज्यं, मिथ्यात्त्रय न दृष्टते ।
शुद्ध धर्ममयं भृत्वा, गुरुं त्रैलोक्यवंदितं ॥१०॥ अन्वयार्थ—(शुद्ध तत्त्व प्रकाशकं ) शुद्ध आत्म तत्वको प्रगट करनेवाला (ध्रुवं) अविनाशी (सु सम्यक्त) निर्मल सम्यकदर्शन (च) और (ज्ञानेन) आत्मज्ञानके द्वारा (ज्ञानलंकृतं ) ज्ञानकी शोभा बढ़ानेवाला १(धर्म शुक्वं च ध्यानं ) धर्म तथा शुक्लध्यान (दृष्टं ) जिनके द्वारा अनुभव किया गया। (आर्त रौद्र परित्याज्यं) /
आर्त तथा रौद्र ध्यान छोड़ दिया गया। (मिथ्यात्त्रय) तीन प्रकार मिथ्यादर्शन अर्थात मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व तथा सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व (न दृष्टते) जिनमें नहीं दिखलाई पड़ता है। (शुद्ध
धर्ममयं भूत्त्वा ) जो शुद्ध आत्मधर्म स्वरूपमयी होगये हैं (त्रैलोक्यवदित) ऐसे तीन लोकसे वंदना योग्य ४ (गुरु) गुरु होते हैं। म विशेषार्थ-यहां साधु महाराजकी विशेष महिमा बताई है। उनमें निश्चय सम्यग्दर्शन होता
है जो शुद्ध आत्माके तत्वको सर्व परद्रव्योंसे भिन्न प्रकाशित करता है। सम्यक्तके विना बाहरी चारित्र पालनेपर भी साधुपना नहीं होसक्ता है। फिर वे धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानका आराधन करते हैं, ये दोनों ध्यान मोक्षके साधक हैं। साधुओंके सात गुणस्थान होते हैं। छठे तथा सात गुणस्थानमें तो धर्मध्यान होता है। फिर आठवेंसे बारहवें तक शुक्लध्यान होता है। आत्मज्ञानमें थिर
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ताको ही ध्यान कहते हैं। जहां आत्माका ज्ञान ज्ञानसे ही अलंकृत होता है। जहां आत्माका ज्ञान तारणतरण
श्रावकाचा ज्ञान चेतना रूप परिणमन करता है वहीं धर्म तथा शुक्लध्यान होता है। धर्मध्यानमें कुछ सरागता । ॥११॥
है। शुक्लध्यानमें ऐसी निर्मलता है कि साधुको कोई रागका विकल्प नहीं होता है। बुद्धिपूर्वक चंच.
लता भी नहीं है। प्रथम शुक्लध्यानमें जो योग, शब्द व ध्येय पदार्थकी पलटना होती है वह अबुद्धिॐ पूर्वक पूर्व अभ्याससे होजाती है। ध्याता मुनिका उपयोग तो शुद्ध आत्माकी परिणतिकी तरफ ही ५ रहता है। यद्यपि साधुका आहार विहारादि छठे गुणस्थानमें होता है इसलिये सराग भाव छठेमें है। सातवें अप्रमत्त गुणस्थानमें वीतराग भावकी मुख्यता है तथापि आठवेंके मुकाबलेमें वहां अल्प वीतरागता या कुछ सरागता है। दूसरे शुक्लध्यानमें चंचलता नहीं है। इसीसे केवलज्ञानका लाभ होता है । साधुके संसारका कारण आत व रौद्रध्यान नहीं होना चाहिये। शोक व दु:ख भावरूप आर्तध्यान है उसके चार भेद हैं-इष्ट वियोगसे, अनिष्टके संयोगस, किसी पीड़ासे, व भोगोंकी आगामी प्राप्तिकी चिन्तासे । यह संक्लेशभाव चार तरहका है। दुष्ट भावको रौद्रध्यान कहते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी व परिग्रहमें आनन्दित होना चार प्रकारका रौद्रध्यान है । साधुमें तीन प्रकारका मिथ्यात्व न होना चाहिये । जिससे बिलकुल मिथ्या श्रद्धा हो वह मिथ्यात्व है। जिससे मची झूठी मिली हुई अहा हो वह सम्यक् मिथ्यात्व है। जहां सम्यक्तमें मात्र दोष या अतीचार लगे वह सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व है । गुरु महाराज शुद्ध तत्त्वके अनुभव में ऐसे मगन रहते हैं मानो उन रूप ही होगए हैं।ऐसे धर्मके पात्र गुरु, इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि सर्व तीन लोकके बड़े२ पुरुषों द्वारा वन्दनीक हैं । श्रावकको उचित है किऐसे निग्रंथ गुरुकीभक्ति करें तथा उनसे सत्य उपदेशका लाभ करें।
श्लोक-सार सारस्वती दृष्टं, कमलासने संस्थितं ।
ॐ वं हियं श्रियं सुयं, ति अर्थ प्रति पूर्णितं ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ-(कमलासने) अईत भगवानके हृदय कमलरूपी आसनम ( संस्थितं ) भलेप्रकार विरा. ॐ जित (ॐ वं हियं श्रियं ) ॐ, ही, श्रीं (ति अर्थ ) इन तीन अर्थोंसे (प्रतिपूर्णितं ) परिपूर्ण (सुर्य) ऐसी ४
श्रुतज्ञान मई (सार सारस्वती) उत्तम सरस्वती या जिनवाणी (दृष्टं ) देखने योग्य है।
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तारणतरण
विशेषार्थ-जिनवाणी वही ज्ञान है जो अहंत भगवानके भीतर शोभायमान है। लोकमें कम- श्रावकाचार
लके मध्य में सरस्वतीको विराजमान करते हैं यहां उसी अलंकारको लेकर यह कहा गया है कि ॥१२॥
अर्हतके हृदयरूपी कमलमें यह जिनवाणी विराजित है । ॐ ह्रीं श्रीं ये तीनों ही मंत्र पंच परमेष्टी, चौवीस तीर्थकर तथा केवलज्ञानादि लक्ष्मीके क्रमसे वाचक है जैसा पहले कहा है। इन तीनोंके भावोंको वह जिनवाणी भलेप्रकार दिखलाने वाली है। यह पाणी सार है क्योंकि सार तत्व जो आत्मा है उसको झलकाने वाली है। भगवत् द्वारा प्रकाशित ध्वनिको सुनकर गणधर देवादि उस
ध्वनिके भावको धारण करते हैं। उसीसे द्वादशांग रचना होती है। उसीका सार परंपरा जिन अ आगमसे आया हुआ अब तक आचार्यकी परम्परासे मिलता है। ऐसी सरस्वती या जिनवाणी ही जैन शास्त्र मानने योग्य है।
श्लोक-कुज्ञानं त्रि विनिर्मुक्तं, मिथ्या छाया न दृष्टते।
सर्वज्ञं मुखवाणी च, बुधप्रकाशं शास्वती ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ (कुज्ञानं त्रि) तीन अज्ञान कुमति, कुश्रुत, कुअवधिसे अथवा संशय, विमोह, विभ्रV मसे (विनिर्मुक्त) रहित है। (मिथ्या छाया) मिथ्यादर्शनकी छाया (न दृष्टते) जहां नहीं दिखलाई पड़ती।
है ( सर्वज्ञं मुखवाणी च) तथा वह वाणी सर्वज्ञके मुखसे प्रकट हुई है, (बुधप्रकाशं) व गणधर देवादि बुधजनोंके द्वारा प्रकाशित होती है (शास्वती) तथा नित्य प्रवाहरूप सदासे चली आरही है।
विशेषार्थ केवलज्ञान द्वारा जिन पदार्थोंको सर्वज्ञ भगवानने देखा है उनहीका प्रकाश उनकी दिव्य ध्वनिके द्वारा होता है। उसको सुनकर गणधर देव द्वादशांग रचना करते हैं उसीके अनुसार अन्य बुद्धिमान आचार्य और शास्त्र रचते हैं, इसतरह वह ज्ञान अवतक प्रकाशित होता रहा है।
जो सर्वज्ञका ज्ञान है उसमें कुमति, कुश्रुत व कुअवधि पना बिलकुल नहीं है क्योंकि तीनों ही * कुज्ञानोंमें मिथ्यात्वकी छापा पड़ती है। सर्वज्ञके ज्ञानमें मिथ्यादर्शनकी छाया नहीं दिखलाई पड़ती
है उसी तरह जिस ज्ञानको शास्त्रों में भरा जाता है वह श्रुतज्ञान भी सम्यग्ज्ञान है। उसमें भी मिथ्यात्वकी छाया नहीं है और न उसमें ज्ञानके तीन दोष हैं-संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय । यह वस्तु ऐसी है कि नहीं है यह संशय है। वस्तुको कुछका कुछ निश्चय कर लेना विपर्यय है। वस्तुके
१२॥
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तारणतरण ॥ १३ ॥
जानने में आलस्य अनध्यवसाय है। तथा यह श्रुतज्ञान प्रवाहकी अपेक्षा नित्य है, सदा ही केवलज्ञानियोंके द्वारा प्रगट होता रहा है और विद्वान आचार्यों द्वारा शास्त्रों में गूंथा जारहा है। विदेह क्षेत्र में नित्य ही रहता है क्योंकि वहा सदा ही तीर्थंकरोंका अस्तित्व रहता है । केवलज्ञान यद्यपि एकाकी है तथापि उसमें अन्य चार मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय सम्यग्ज्ञानोंका विषय गर्भित है परंतु तीन कुमति आदि कुज्ञानोंका विषय नहीं है क्योंकि वहां केवलीकी आत्मा में क्षायिक सम्यक्त है, मिथ्यात्वका अंश मात्र भी नहीं है। जो जिनवाणी सर्वज्ञ मुखसे प्रगट है व गणधरादि द्वारा प्रकाशित होती रहती है वही प्रमाणभूत है ।
श्लोक – कुज्ञानं तिमिरं पूर्ण, अंजनं ज्ञानभेषजं ।
केवली दृष्ट स्वभावं च जिनसारस्वती नमः ॥
१३ ॥
अन्वयार्थ – ( कुज्ञानं ) मिथ्याज्ञान रूपी (तिमिरं ) अंधकार से ( पूर्व ) पूर्ण जो भाव है उसको मिटानेके लिये ( ज्ञानभेषजं ) ज्ञानरूपी औषधि ( अंभनं ) अंजनके समान है । ( केवल दृष्टं स्वभावं च ) केवली द्वारा देखे हुए स्वभावोंको प्रकाश करनेवाली ऐसी (विन सारस्वती ) जिनेश्वर की वाणी सर - स्वती देवीको (नमः) नमस्कार हो ।
विशेषाथ — जिनवाणी वहीं सच्ची है जो उन ही पदार्थोंको वैसा ही प्रकाश करे जैसा केवलज्ञानीने जाना है । यह वाणी ज्ञानकी स्थापना रूप है । शब्दों में ज्ञान भरा जाता है । यह श्रुतज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान उन व्यक्तियोंके लिये अंजनरूप औषधि है जिनके भीतर कुज्ञानका अंधेरा छाया हुआ है । जिनवाणीको ध्यान से पढ़नेसे, विचारने से, अनुभव करनेसे अज्ञान मिट जाता है, सम्पज्ञानका प्रकाश होजाता है। जैसे आंख में रोग हो, धुंधलापन हो जिससे पदार्थ ठीक न दिखता हो या औरका और दिखता हो तब चतुर वैद्य द्वारा डाला हुआ अंजन उस दोषको मेट देता है। तव पदार्थ ठीक २ जैसाका तैसा दिखलाई पड़ता है । इसी तरह अज्ञानियोंके हृदयमें जो संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रूप दोष है वह जिनवाणीके यथार्थ अभ्यास से मिट जाता है तब जो एकांतरूप पदार्थका ज्ञान था वह अनेकांतरूप पदार्थका ज्ञान होजाता है । हरएक पदार्थ अनेक
श्रावकाचार
॥ १३ ॥
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पारणतरण
स्वभावोंको रखनेवाला है। जिस पदार्थके जो जो यथार्थ स्वभाव हैं वे मालूम पड़ जाते हैं। मोक्ष- श्रावकाचार ॥१४॥ मार्गमें सहकारी आत्माका यथार्थ ज्ञान है। यह आत्मा सर्व अनात्मासे-पुद्गल धर्म अधर्म काल आका
शसे, रागादि कर्मजनित भावोंसे व अन्य आत्माओंसे भिन्न अपने ही निज शुद्ध स्वभावरूप है। यह स्वसंवेदन रूप ज्ञान मोक्षका उपाय है वह ज्ञान जिस जिनवाणीसे मिलता है उसको हमारा नमस्कार हो।
श्लोक-देवं श्रुतं गुरुं वन्दे, ज्ञानेन ज्ञानलंकृतं ।
वोच्छामि श्रावकाचारं, व्रतं सम्यग्दृष्टितं ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ (ज्ञानेन) आत्मज्ञानके द्वारा (ज्ञानलंकृतं ) जहां ज्ञानकी शोभा होरही है ऐसे ( देवं) सर्वज्ञदेवको (श्रतं ) उनकी जिनवाणीको (गुरु) उसके अनुसार चलनेवाले गुरुको (वंदे) नमस्कार ४ करता हूं। (व्रतं सम्यग्दृष्टितं ) बारह व्रत और सम्यग्दर्शन रूप (श्रावकाचारं ) श्रावकोंके आचारको
(बोच्छामि ) कहूंगा। V विशेषार्थ-ग्रंथकारने देव, शास्त्र, गुरुको वंदना करके अपनी गाढ़ श्रद्धा झलकाई है, उनको ॐ स्मरण करते हुए उनमें आत्मज्ञान की शोभा पर ही लक्ष्य दिया है। वास्तवमें तत्व खोजी अरहत* * सिद्धमें भी शुद्ध आत्माको देखता है, शास्त्रोंके भीतर भी शुद्ध आत्माका ही दर्शन करता है व
गुरु महाराजके भीतर भी शुद्ध आत्माको देखता है अथवा उनके द्वारा शुद्ध आत्माका बोध प्राप्त करता है। इस वंदनासे यह षात यताई है कि मैं सम्यक्दर्शन तथा ब्रत रूप जो श्रावकोंका-गृहस्थियोंका आचरण है, उसको व्याख्यान करते हुए वही कहूंगा जो देव, शास्त्र, गुरुके द्वारा प्रकाशित है व जिसको सुनकर व जिसको समझकर जिसपर आचरण करनेसे मुमुक्षु जीवको आत्म-ॐ ज्ञान सहित पञ्चम देशविरति गुणस्थानका लाभ होजावे-वह सचा जैनी श्रावक होजावे ।
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वारणतरण
श्रावकाचारका प्रारम्भ ।
श्रावकाचार (संसार-शरीर-भोगका स्वरूप) श्लोक-संसारे भय दुःखाना, वैराग्यं येन चिंतये ।
अनृतं असत्यं जानते, असरनं दुःखभाजनं ॥१५॥ अन्वयार्थ-(भय दुःखानां) भय और दुःखोंसे भरे हुए (संसारे) संसारमें (येन ) उस मुमुक्षु द्वारा (वैराग्य ) वैराग्यभाव (चिंतये) चितवन किया जाता है ( अनृतं) यह संसार मिथ्या है (असत्य) असत्य है, ( असरनं ) अशरण है, ( दुःखभाजनं ) दुखोंका भाजन है।
विशेषार्थ-जो कोई अपना हित करना चाहे उसको पहले यह विचारना चाहिये कि मेरी वर्तमान दशा कैसी है। यदि यह बुरी है तो इसको दूर करना ही चाहिये। वह स्वहित प्रेमी विचारता है कि मैं संसारी हूं। जिस संसारमें भ्रमण कर रहा हूँ वह सदा भय रूप है। हरएक शरीरमें रहते हुए मरणका भय व दुःखोंके आनेका भय, रोगी होनेका भय, सुखके माने हुए साधक स्त्री ४ पुत्रादि धन लक्ष्मीके छूट जानेका भय लगा रहता है। तथा यह संसार दुःखोंसे भरा हुआ है। शारीरिक व मानसिक अनेक दुःख ही दुःख हैं। चिंता व इच्छा व तृष्णाका दाह बढ़ा भारी दुःख है। अज्ञानी प्राणी जिन विषय भोगोंके द्वारा इस तृष्णाके दाहको मिटाना चाहता है उतना अधिक वह तृष्णाके दाहको बढ़ा लेता है। जन्म, जरा, मरण, शोक, क्लेश व क्रोधादि कषाय आदि द्वारा संसारमें सदा दुःख ही दुःख है। अनेक व्याधियोंके होनेपर यदि कोई रोग कुछ देरके लिये कम होजाता है उसको सुख मान लिया जाता है परंतु वह सुख नहीं है किंतु दुःख की कुछ कमी मात्र है। यह विषयसुख आगामी दुःख बढ़ानेका कारण है। कमेंकी पराधीनताका संसारमें बड़ा दुःख है। इसीलिये चाहा हुआ काम नहीं होता। होते हुए सुखोंमें बाधा आजाती है। इच्छित पदार्थ नहीं मिलते । वे सदा एकसे नहीं रहते, यह उनको एकता रखना चाहता है, तब बहुत क्लेशित होता है। स्त्री पुत्रादि जब इच्छानुकूल नहीं चलते हैं तब वज्रके प्रहारव दुःख होता है। नरक व
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तारणतरण
श्रावकाचार
॥१६॥
असत्य है।
पाप है, अवस्था है, जलासमय वैरी होजात
पशुव मानवगति तो तुःखरूप हैं ही। देवगतिमें मानसिक दःख अधिक है। ईर्षाभाव व वियोग- भाव कृत शोक है। इसको असत्य स्वप्न सम देखना चाहिये जैसे सोते स्वप्न देखा जाता है, जागने पर कुछ नहीं रहता वैसे किसी शरीरमें रहते हुए जिन चेतन व अचेतन पदार्थों का सम्बन्ध होता है उनके वियोग होने पर व अपना मरण मानेपर उनका संयोग स्वमके समान होजाता है। यह संसार असत्य इसलिये है कि जिन को अपनाया जाता है वे सब पर हैं। स्वार्थवश परस्पर कुछ स्नेह करते हैं। यदि अपने स्वार्थमें हानि आती है तो उसी समय वैरी होजाते हैं। संसारमें जो कुछ दिखलाई पड़ता है वह सब पर्याय है, अवस्था है, जो अवश्य बदलने वाली है। उसको स्थिर मानना यही असत्य है। धन, जीतव्य, कुटुम्ब, राज्य, रूप, बल, यौवन, आदि सदा बना रहेगा, यह बुद्धि बिलकुल मिथ्या है। सूर्य की धूप व छायाको एक स्थल पर थिर मानना मात्र भ्रम है असत् है। फिर यह ससार अशरण है । मरणसे कोई बचा नहीं सका। तीव्र कर्मके उदयसे कोई रक्षित नहीं से कर सकता। अकेला ही मरना पड़ता है, अकेला ही रोगी, धनहीन व कुटुम्बहीन होना पड़ता है। इसतरह संसारका स्वरूप विचार कर इससे वैराग्य चितवन करना चाहिये तब ही श्रावक धर्मके साधनमें प्रीति होसकेगी। श्री कुन्दकुन्द आचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैं
जीवितं विद्युतातुल्यं संयोगाः स्वमसन्निभाः । सन्ध्यारागसमः स्नेहः शरीरं तृणबिन्दुवत् ॥ १५० ।
शकचापसमा भोगाः सम्पदो जलदोयमाः। यौवनं जलरेखेव सर्वमेत दशाश्वतम् ॥ ११ ॥ __ भावार्थ-यह जीवन विजलीके समान क्षणभंगुर है, स्त्री पूत्रादिका संयोग स्वप्नके समान है, मित्रादिसे स्नेह सन्ध्या समयकी लालीके समान नाशवंत है। शरीर तृगपर रक्खी हुई जलकी बुंदके समान पतन होनेवाला है, कामभोग इन्द्रधनुष समान क्षणिक है। सम्हाएं मेवोंके समान विला जानेवाली है। युवानी जलकी रेखा समान मिट जाती है। यह सर्व पदार्थ अनित्य हैं। ऐसे अनित्य संमार-चरित्रमें लुभाजाना मूर्खता है, यही मूर्खता महान दुःखोंका हेतु है । इसलिये बुद्धिवानको इनसे वैराग्यका चिन्तवन करना चाहिये।
श्लोक-असद शाश्वतं दृष्टं, संसारं दुःख'भीरुदं ।
शरीरं अनित्यं दृष्ट, अशुच्यमेध्यपूरितं ॥ १६ ॥
४॥१६॥
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श्रावकाचार
__ अन्वयार्थ (संसारं ) इस चतुर्गति भ्रमण रूप संसारको ( असत् ) असत्य-अयथार्थ कल्पित तारणतरण (अशाश्वतं ) क्षणभंगुर-नाशवंत व ( दुःखमीरुदं ) दुःख तथा भयको देनेवाला (डटं ) देखना चाहिये ।
शरीरंस शरीरको (अनित्यं न रहनवाला-क्षणिक, (अमेध्यपुरित) मल मूत्रादिका भरा हुआ (मशुचि) अपवित्र दृष्टं ) देखना चाहिये।
विशेषार्थ-जो अपना सच्चा हित चाहें उन ज्ञानी जीवोंको विचारना चाहिये कि यह संसार जैसे असत्य, अनित्य व दुख और नयका ठिकाना है वैसे यह शरीर भी अनित्य और अपवित्र महादिका भरा हुआ है। संसार में वास आकुलता देनेवाला है, निरन्तर क्लेशित व भयवान रख. नेवाला है तथा यह मानवका शरीर जिसमें यह मानव रहकर जीवनके दिन पूर्ण करता है, बिलकुल अनित्य है, आयुकर्मके आधीन है, भायुकर्मके खिर जानेसे छूट जायगा तथा पापके उदयसे रोगी व निर्बल होजाता है तथा दिनपर दिन पुराना पड़ता है, इसमें बुढापा आजाता है । अकाल मृत्युके कारण मिलनेपर शीघ्र ही छूट जाता है तथा यह अपवित्र भी है। माताके रुधिर व पिताके वीर्यसे इसकी उत्पत्ति हुई है तथा यह दो आंख, दो नाक छिद्र, मुँह, दो कान व दो मध्यके उपंग इन नव दारोंसे निरन्तर मल ही वहाता है। इसके करोड़ों रोओंसे भीमल ही निकलता है; भीतर हड़ी, चरबी, रुधिर, मांस, कीड़े आदिसे व मल मूत्रसे भरा हुआ है। यदि बाहरकी खालका ऊपरका भाग निकाल डाला जावे, तो यह शरीर ऐसा घिनावना होजायगा कि आप ही अपने तनको न देख * सकेगा तथा उसे काकादि व मक्खी आदि नोच २ कर खालेंगे। ऐसे नाशवत, गलनशील तथा
महा अपवित्र शरीरमें राग करके आत्माका अहित न करना चाहिये। यह शरीर फिर न प्राप्त हो ऐसी मुक्तिका यत्न करना चाहिये । सारसमुच्चय में कहा है:
सर्वाशुचिमयं काये नश्वरे व्याधिपीड़िते । को हि विद्वान् रतिं गच्छेद्यस्यास्ति श्रुतसङ्गमः ॥ १५३ ॥
भावार्थ-यह शरीर पूर्णपने अपवित्र है, नश्वर है-रोग पीडित है, जो शास्त्रज्ञ है वह विद्वान ॐ ऐसे शरीरमें किस तरह स्नेह करेगा ?
श्लोक-भोगं दुःखं अतीदुष्टं, अनर्थ अथलोपितं ।
संसारे स्रवते जीवः, दारुणं दुःखभाजनं ॥ १७ ॥
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तारणतरण अन्वयार्थ ( भोग) पांचों इन्द्रियोंके भोग ( दुःखं ) आकुलता रूप दुःखहीके कारण हैं, (अतीदुष्ट)
श्रावकाचार १८॥ अती दुष्ट स्वभाववाले हैं । ( अनर्थ ) जीवका बुरा करनेवाले हैं ( अर्थलोषितं ) आत्माके सच्चे कार्यको
लोप करनेवाले हैं। इन्हीं के कारण (संसारे) चार गतिरूप संसारमें (जीवः ) यह जीव (दारुणं) भयानक ( दुःखभाजनं ) दुःखोंका पात्र होकर ( सवते ) भ्रमण किया करता है।
भावार्थ-पांचों इन्द्रियोंके भोगोंमें आसक्त बुद्धि अज्ञानी जीवोंके होती है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं कि इन भोगोंके कारण प्राणीको आकुलतामई दुःख ही होता है। उनकी प्राप्तिके लिये दुःख, प्राप्त होने पर भोगनेकी तृष्णारूप दुःख, भोगकर तृष्णा बढ़ानेका दुःख, भोग्य वस्तुओंके छुट जाने पर उनके वियोगका दुःख, इसतरह ये भोग रोगके समान दुःखरूप ही हैं, तथा ये अति दुष्ट
स्वभावधारी हैं, इन भोगांसे अधिक राग करते हैं वे भोगोंके लिये अन्याय कार्य करके-अन्यायसे * धनादि सामग्री एकत्र करके महान पाप कर्म बांधते हैं। पापके फलसे घोर दुःख उठाते हैं, कभी २४
अन्यायका फल राज्यदंडादि यहां भी पालेते हैं। जिससे प्रेम करो वही दुःखमें डाले यही दुष्टकी दुष्टता है। ये भोग तृप्ति तो देते नहीं, उल्टी तृष्णाकी दाह बढ़ाकर जीवको महान अनर्थ करते हैं तथा जो इनके मोहमें अंधा होजाता है वह अपने आत्माके कार्यको लोप कर देता है । वह कभी धर्म में दिल नहीं लगाता है । उसे आत्माकी बात भी नहीं सुहाती है। वह मोक्षमार्गका साधन न करके मानव जन्मको विफल खोता है। इन भोगोंकी आसक्तिसे तीन कर्म बांधकर जीव निगोद, नर्क व एकेन्द्रियादि तिर्यच पर्यायों में उत्पन्न होकर अति भयानक चिन्तवनमें न आवें ऐसे कष्टोंको भोगता है। सारसमुच्चयमें कहते हैं
वरं हालाहले भुक्तं विषं तद्भवनाशनं । न तु भोगविषं भुक्तमनन्तभवदुःखदं ॥ ६॥
इन्द्रियप्रभवं सख्यं सुखाभासं न तत्सुखं । तच्च कर्म विवन्धाय दुःखदानेकपण्डितम् ॥ ७७ ॥ भावार्थ-हालाहल विष खालेना अच्छा है, उससे इसी जन्मका नाश होगा,किन्तु इन्द्रियभोगोंकी आसक्तिरूप विषका सेवन ठीक नहीं, क्योंकि इससे अनन्त भवों में दुःख उठाना पड़ता है इन्द्रियोंके भोग द्वारा होनेवाला सुख सुखाभास है, सुखसा दिखता है वह सच्चा सुख नहीं है उससे तो ऐसा कर्मवध होता है जोमहान दुखरूप कलता है,ऐसा विचारकर ज्ञानीको भोगोंसे वैराग्य रखना चाहिये। ॥
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श्रावकाचार
बिलकुल सार रहित मचि ४
शान्ति नहीं मा
वारणतरण
संसारका कारण। ॥१९॥
श्लोक-अनादी भ्रमते जीवः, संसारे सावर्जिते ।
मिथ्यात्रितय संपूर्ण, सम्यक्तं शुद्धलोपनं ॥१८॥ अन्वयार्थ (सारवर्जिते ) सार रहित असार (संसारे) संसारमें (अनादी ) अनादि कालसे (जीवः ) यह जीव (सम्यक्तं शुद्धलोपन) शुद्ध सम्यग्दर्शनको लोप करनेवाले ( मिथ्यात्रितय संपूर्ण) तीन प्रकार मिथ्यात्वसे भरा हुआ (भ्रमते) भ्रमण करता रहता है।
विशेषार्थ-ऊपर दिखाया है उसतरह यह संसार जो दुःखरूप है जिसमें क्षणिक व अशाच शरीर प्राप्त होता है व जिसको इन्द्रियोंके भोग दुःखके कारण हैं, बिलकुल सार रहित है। अर्थात् इसमें रमण करनेसे कोई स्थिर सुख व शान्ति नहीं प्रा होती है। जैसे केलेके खम्भेको छीलनेसे इ. पत्ताही पत्ता मिलता है-सार अर्थात् गूदा नहीं मिलता है। चाहे कितनी भी गूदेके पानेकी
माशा की जावे। उसी तरह इस संसारमें सर्वत्र आकुलता व क्लेश ही मिलता है, कहीं भी सुख शांति नहीं मिलती, चाहे कितनी भी सुख शांति पानेकी आशा की जावे। इस असार संसारमें अनादि काल यह जीव मिथ्यात्वके उदयसे भ्रमण कर रहा है। मिथ्यात्व कर्म सम्यक्तका विरोधी है। शुद्ध आत्मप्रतीति रूप सम्यग्यदर्शनको मिथ्यात्वने छिपा रक्खा है। इस मिथ्यात्व रूपी दर्शनमोहके नशेमें यह प्राणी भूला हुआ सच्चे सुखको नहीं पहचान सक्ता, न अपने आत्माके असली स्वरूपको जानता है। भ्रमसे त्यागने योग्य संसारको ग्रहण करने योग्य मानता रहता है, विषयकी लालसासे दारुण कष्ट पाते हुए पड़ा रहता है। अनादिकालीन जीवके साथ तो एक मिथ्यात्वका ही संसर्ग है। परंतु जब किसी जीवको एक दफे उपशम सम्यग्दर्शन होजावे और फिर वह छूट जावे तब उसकी सत्तामें तीन प्रकारका मिथ्यात्व या दर्शनमोह हो जाता है-मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व व सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व, क्योंकि वे तीनों ही शुद्ध सम्यक्त या क्षायिक सम्यक्तके घातक है इसलिये ग्रंथकर्ताने सामान्यसे कह दिया है कि इन तीन शत्रुओंके कारण यह जीव सम्यक्तका प्रकाशन करके भ्रमण करता रहता है।
MS
पत्ता मिलता है-सा
GGERKKKAKKAREE
॥१
॥
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वारणतरण
॥ २० ॥
श्लोक – मिथ्यादेवं गुरुं धर्मं, मिथ्या माया विमोहितं । अनृतमचेतरागं च, संसारे भ्रमणं सदा ॥ १९ ॥
अन्वयार्थ – (मिथ्यादेवं गुरुं धर्मं ) मिथ्या देव, मिथ्या गुरु, मिथ्या धर्म, ( मिथ्या ) मिथ्यात्व भाव व (माया मायाचार इन दोनोंसे ( विमोहितं) अचेतपना, (अनृतं ) मिथ्या वचन ( अचेतरागं च ) और अचेत अर्थात् जो चैतन्य नहीं है अनात्मा है उसमें रागभाव इनके कारण (सदा) अनादि अनंतकाल तक (संसारे ) संसारमें (भ्रमण) जीवोंका भ्रमण हुआ करता है ।
विशेषार्थ – यहां बताया है कि इस संसार में जीवों के भ्रमण होने व कष्ट उठानेका क्या क्या मूल कारण है । धर्म में प्रेरक सचे देव, गुरु, धर्म हैं वैसे ही अधर्ममें प्रेरक मिथ्या दंव, गुरु, धर्म हैं । रागी, द्वेषी, संसार कार्यों में आसक, जिनमें न सर्वज्ञपना है न वीतरागता है, वे सब ही मिथ्या देव हैं, विषय कषायों की पुष्टि करनेवाले व अपनेको महत मानके पूजवानेवाले, भक्तोंके मन प्रसन्न रखनेवाले, आत्मज्ञान शून्य, आरम्भ परिग्रह में लीन सर्व ही मिथ्या गुरु । वीतराग विज्ञान या आत्मज्ञान और वैराग्यसे विरुद्ध रागद्वेष व हिंसा पोषक श्रद्धान ज्ञान आचरण सब मिथ्या धर्म है। इनकी श्रद्धा व भक्ति मोक्षमार्ग से दूर रखती है, इसी तरह अनादिसे चला आया हुआ अग्रहीत मिथ्या भाव कि मैं पशु हूं, मनुष्य ह, देव हूँ, नारको हूं, इत्यादि अहंकार भाव तथा मेरा तन है, धन है, मेरी स्त्री है, मेरे पुत्र हैं, मेरा राज्य है इत्यादि ममकार भाव संसार में फंसानेवाले हैं । मायाचार भी जीवको अचेत रखता है । विषयभोगकी तृष्णामें फंसा हुआ जैसे मकडी जंतुओंको फंसानेके लिये जाल बनाता है इसी तरह रात दिन दूसरोंको ठगनेके लिये संसारी प्राणी मायाचार करते रहते हैं । माया उनकी प्रकृतिखी होगई है। मिथ्यात्वभाव व मायाचारने परिणामोंको मृढ़ व मोही बना रक्खा है । अपना इष्ट प्रयोजन सिद्ध करनेको मिथ्यावचनों का कहना व मिथ्या उपदेश देना, अपनेको व दूसरोंको गुमराह कराने वाला है। आत्माके शुद्ध स्वरूपके सिवाय जितना भी अचेत भाव या अनात्मभाव है अर्थात् अशुद्ध आत्मपरिणति, लोभ व मानकी पुष्टि कामभाव, व्यवहार धर्म जैसे पूजा पाठ, जप, तप, गृही या साधुका धर्म इत्यादिमें राग अचेतराग है । आत्माके शुद्ध प्रेमसे बाहर है। ये सब कारण इस जीवको चार गति प संसार में भ्रमण करानेवाल हैं।
श्रावकाचार
॥२०॥
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कारणतरण
श्लोक-अनृतं विनाशी चित्ते, असत्ये उत्साहं कृतं ।
__अज्ञानी मिथ्या सहियं, शुद्धबुद्धं न चिंतए ॥ २० ॥ अन्वयार्थ-(अनृतं ) मिथ्या वचन या मिथ्ण उपदेश (चित्ते) चित्तमें भरा हुआ (विनाशी) आत्माका घात करने वाला है। इससे ( असत्ये) मिथ्या मार्गमें (उत्साहं कृतं) उत्साह होजाता है। (मिथ्या सहियं) मिथ्या धर्मको रखन वाला (अज्ञानी) ज्ञान शून्य प्राणी (शुद्धबुद्ध) शुद्ध बुद्ध परमाy स्माको (न चिंतए) नहीं चिन्तन करता है।
विशेषार्थ-मिथ्यादेवके आश्रयसे व मिथ्या गुरुके द्वारा जो मिथ्यात्वका उपदेश मनमें भर जाता है वह उपदेश आत्माक भावों को एसा विपरीत बना देता है जिससे उसका संसार बढ़ता जाता है, वह आत्मज्ञानको न पाता हुआ आत्माकोरागद्वेष मोहमें फंसाए रखता है जिससे आत्माका बहुत बुरा होता है। यह भवभवमें भटककर जन्म जरा मरणकी घोर वेदनाएं सहन करता है। जो उपदेश यथार्थ आत्माको बताकर रागद्वेष मोह छुड़ानेवाला व आत्माके शुद्ध स्वभावकी तरफ ले जानेवाला हो तथा अहिंसाकी तरफ प्रेरक हो वह तो सत्त्य है, इसके विरुद्ध जो कुछ उपदेश है वह असत्य है। वस्तु कथंचित् नित्य कथंचित् अनित्य, कथंचित् अभेद कपंचित् भेद इत्यादि अनेक रूप है। वस्तु सदा स्वभावको न त्यागनेकी अपेक्षा नित्य है। सदा परिणमनशील होनेकी अपेक्षा अनित्य है। दोनों ही स्वभाव वस्तुमें हैं। वस्तु अपने गुण व पर्यायोंका अखण्ड पिंड है इससे अभेद है। गुणोंकी व पर्यायांकी भिन्नताकी अपेक्षा भेद रूप है । इस तरह यथार्थ वस्तुको बतानेवाला उपदेश सत्य है। इसके सिवाय एक ही पक्षका आग्रह करनेवाला उपदेश असत्य है। मिथ्यात्व पांच तरइका है इन पांचों तरहके मिथ्यात्वका पोषक सर्व उपदेश व वचन असत्य है।।
(१) एकांत मिथ्यात्व-अनेक स्वभाव वस्तुमें होते हुए भी उसे एक स्वभाव रूप ही मान पैठना कि वस्तु नित्य ही ह अथवा अनित्य ही है इत्यादि।
(२) विपरीत मिथ्यात्व-वस्तुका स्वरूप उल्टा मान लेना जैसे-हिंसा करनेमें, पशुबलिमें, विषय कषाय पोखने में जो अधर्म है उसमें धर्म मान लेना।
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वारणसरण
(३) संशय मिथ्यात्व-पदार्थ कैसा है उसका निर्णय न करके शंकाशील रहना कि आत्मा श्रावकाचर है या नहीं, परलोक है या नहीं, पुण्य पाप है या नहीं।
(४) विनय मिथ्यात्व-सत्य असत्यकी परीक्षा न करके सर्व ही देवोंकी, सर्व ही गुरुओंकी, सर्व ही धोकी भक्ति भाव रखना । मूढतासे यह समझना कि हम सबको मानेंगे इससे हमारा हित होगा। मूढ़ भक्तिको ही हित मानना।
(५) अज्ञान मिथ्यात्व-धर्मको जाननेका उत्साह न रखके मूर्ख रहना व देखादेखी विना ॐ समझे हुए किसी भी क्रियाको करते हुए धर्म मान लेना।
इन पांच तरह के मिथ्यात्वोंका पोषक वचन सर्व आत्माका घातक है। इनहीके कारण असत्य मार्गमें शिष्योंका उत्साह बढ़ जाता है। वे बिचारे मिथ्यात्व सहित होकर सम्यग्ज्ञानकी न पाते हुए अज्ञानी रहते हैं उनको कभी यह चिंतषन नहीं होता कि मैं तो वास्तवमें शुभ बुद्ध स्वभाव है, मैं ज्ञाता दृष्टा वीतराग हूं। तथा कर्ममैलसे मैं अशुद्ध होरहा हू। परमात्मा कर्म मैल रहित शुद्ध बुद्ध परम आनंदमई हैं। मुझे भी अपने आत्माको ऐसा ही विश्वासमें लाकर अंतरात्मा होना चाहिये और परमात्माका आराधन करके परमात्मा होजाना चाहिये । यह बुद्धि विपरीत कारणोंके होनेसे नहीं जगती है। ____ श्लोक-मिथ्यादर्शनं ज्ञानं, चरनं मिथ्या उच्यते ।
अनृतं रागसंपूर्ण, संसारे दुःखबीजकं ॥ २१॥ अन्वयार्थ-(रागसंपूर्ण) संसारके रागसे भरा हुआ (अनृतं ) मिथ्या भाव (मिथ्यादर्शनं ज्ञानं ) मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान तथा (मिथ्याचरनं) मिथ्या चारित्र (उच्यते ) कहा जाता है। ये ही (संसारे) संसारमें (दुःखबीजकं ) दुःखोंके उत्पन्न करनेवाले बीज हैं।
विशेषार्थ-संसार असार है, शरीर अपवित्र है, इन्द्रियोंके भोग अतृप्तिकारीव नाशवंत हैं। इनमें 5 वैराग्यभाषकोन लाकर असर इनही राग होनासोराग संपूर्ण मिथ्याभाव है। विषयभोगोंके लालचसे आत्माके आनन्द देनेवाले धर्मकी श्रद्धा न करके उससे उल्टे धर्मकी श्रद्धा करना मिथ्यादर्शन है। ए॥२१॥
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सारणतरण
श्रावकाचार
॥२३॥
जाता है । संसारमाधर्माचरण है-
त
एकेन्द्रियादि
इस मिथ्यादर्शनकी संगतिमें जितना भी ज्ञान होता है वह सब ज्ञान भी मिथ्याज्ञान कहा जाता है। यदि कोई ग्यारा अंग नौ पूर्वका पाठी बड़ा भारी जैन शास्त्रका ज्ञाता भी हो परंतु अंतरंगमें मिथ्यादर्शन हो, भोगोंकी तरफ आस्था हो, वीतरागता पूर्व शुद्ध-आत्मीक भावकी रुचि न हो तो उसका सर्व ज्ञान वस्तुस्वभावको शास्त्रके आश्रयसे (अनुभवसे नहीं) ठीक बताने पर भी उसके लिये मिथ्याज्ञान ही होरहा है। जैसे दूध लाभकारी मीठा होता है परंतु यदि कड़वी तुंधी में रख दिया जाय तो अहितकारी होजाता है उसी तरह वह ज्ञान मिथ्यात्वकी संगतिमें मिथ्याज्ञान ही कहा जाता है। संसार वर्द्धक विषयभोगोंकी अंतरंग तृष्णावश आत्मज्ञान व वैराग्य शून्य जो कुछ भी साधु व गृहस्थका धर्माचरण है-तप, जप, व्रत है वह सब मिथ्या चारित्र है। ये ही तीन घोर पाप कर्मके बंधके कारण हैं। उनहीसे जीव एकेन्द्रियादिमें जन्म लेकर अज्ञानतममें बेखबर सोया पड़ा रहता है। चारों गतियों में भ्रमण करानेके ये ही तीन मूल बीज हैं। जन्म, मरण, रोग, शोक, वियोग आदि दुःखों के ये ही कारण हैं। सच है जिसके साथ प्रीति होगी उसीका संसर्ग रहेगा। संसारकी प्रीति ससार वर्धक है । संसारसे वैराग्य संसार नाशक है। समाधिशतकमें पूज्यपादस्वामी कहते हैं
देहान्तरगतेबान देहेऽस्मिन्नात्मभावना । बीनं विदेहनिष्पत्तरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७ ॥ भावार्थ-इस शरीरमें आत्माकी भावना ही वारवार शरीर पानेका बीज है। जब कि आत्मामें ही आत्माकी भावना देह रहित होनेका बीज है। संसारके कारण ये ही तीन हैं। स्वामी समंतभद्राचार्यने रत्नकरंडश्रावकाचारमें कहा है
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः, यदीय प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ ३ ॥ भावार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रको धर्मके स्वामियोंने धर्म कहा है। इनके विपरीत मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान व मिथ्याचारित्र संसारकी परिपाटी बढ़ानेवाले हैं ।
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बारणवरण
बोध होने के भीतर मिकराने वाले हैं। लिये ) अनादिक
मिथ्यात्वका स्वरूप। श्लोक-मिथ्या संयम हृदये, चित्ते मिथ्या तप सदा ।
अनंतानंत संसारे, भ्रमते नादिकालिय ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ (हृदये) मनमें (मिथ्यासंयम) मिथ्यात्व सहित संयमका पालना (चित्ते) चित्त में (मिथ्या तप) मिथ्यात्व सहित तपका आचरना (सदा) सदा ही (अनादिकालिय) अनादिकालसे (अनंतानंतसंसारे) इस अपार अनंतानंत संसारमें (भ्रमते) भ्रमण कराने वाले हैं।
विशेषार्थ—मिथ्या चारित्रके भीतर मिथ्या संयम व मिथ्या तप भी गभित हैं। तथापि शिष्योंको विशेष बोध होनेके लिये अलग कहा गया है । सयम महाव्रत और अणुव्रत रूपसे दो प्रकार है। अहिंसादि पांचों व्रतोंको पूर्ण पालना महाव्रत है। इसको आचरनेवाले साधु होते हैं। इनहीको अपूर्ण अपनी शक्तिके अनुसार पालना अणुव्रत है। तथा संयमके इंद्रिय संयम व प्राण सयम ऐसे दो भेद भी हैं। स्पर्शनादि पांच इन्द्रियोंको व मनको वश रखना इन्द्रिय संयम है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा त्रस इस छः प्रकारके संसारी जीवोंकी रक्षा करना प्राणि संयम है। बारह प्रकारका तप है-छः बाहरी, छः अंतरंग।१ उपवास, २ ऊनोदर, ३ भिक्षाको जाते हुए प्रतिज्ञा-वृत्तिपरिसंख्या, ४ रस त्याग, ५ विविक्तशय्यासन एकांतमें शयन व आसन रखना, ६ कायक्लेश अर्थात् शरीरका सुखियापना मिटानको कठिन तप करना, ये छः बाहरी तप हैं। १ प्रायश्चित्त, २ विनय, ३ वैश्यावृत्य, ४ स्वाध्याय, ५ व्युत्सर्ग (ममता त्याग), ६ ध्यान, ये ६ अंतर तप हैं। जो कोई साधु साधुका संयम पाले, बारह प्रकारका तप तपे अथवा श्रावक अपने योग्य संयम पाले व यथाशक्ति तप तपे परंतु चित्तमें सम्यक्त न हो मिथ्यात्व हो तो वह सब सयम मिथ्या सयम है व सब तप मिथ्या तप है। यदि अभिप्राय आत्मशुष्टिका है तब तो संयम व तप सम्यक सहित होनेसे यथार्थ हैं। यदि अभिप्राय किसी प्रकारकी आशाका है। ख्याति, लाभ, पूजा, बड़ा ईकी चाह है, स्वर्गादि सम्पदा चक्रवर्ती आदिके क्षणिक सुख पानेकी अभिलाषा है तो बाहरसे ठीक पाला हुआ भी संयम व तप मिथ्या संयम व तप है। मिथ्यात्वके विना त्यागे संयम व तप
V॥२४॥
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श्रावकाचार
साधन करते हुए भी यह जीव अनादिकालसे अनंत संसार करता चला आरहा है वसंमार अनंत वारणतरण काल तक करता रहेगा। सम्यक् दर्शनके विना संसारका क्लेश मिट नहीं सका।
श्लोक-मिथ्यात्व दुष्ठसंगेन, कषाये रमते सदा ।
लोभं क्रोधं मयं मानं, गृहीतानंत बंधनं ॥ २३ ॥ मन्वयार्थ-मिथ्यात्व दुष्टसंगेन) मिथ्यादर्शन रूपी दुष्ट परीकी संगतिसे यह जीव (सदा) सदा (कपाये)कषायके भीतर (रमते) रंजायमान होता है। वे कषायें (गृहीगनंत बंधनं) अनंतकाल तक बंधकी परम्परा चलाने वाली अथवा मिथ्यात्वके बंधनको पकड़े रहने वाली चार हैं (लोभं क्रोध मयं मानं) क्रोध, मान, माया और लोभ ।
विशेषार्थ-मिथ्यादर्शन जीवका महान वैरी है। इसकी संगतिसे यह संसारी जीव कषायके, ५ उदयमें तन्मय होकर रंजायमान होजाता है । क्रोधके उदयमें मैं क्रोधी, मानके उदयमें मैं मानी,
मायाके उदयमें मैं मायावी, लोभके उदयमें मैं लोभी ऐसा मानता रहता है कभी भी उसके भीतर यह बुद्धि नहीं होती है कि ये कषाय मेरा स्वभाव नहीं हैं, यह कर्मकृत विकार है, या रोग है इसका प्रसंग त्यागने योग्य है क्योंकि उस अज्ञानीको अपने शुद्ध आत्मद्रव्यकी बिलकुल खबर नहीं है। रमनेका भाव यही है कि जब जिस कषायका जोर होता है तब उसीके अनुसार कार्य भी करने लग जाता है। क्रोधके कारण वैर बांधकर दुसरेकी बुराई करने में ही हर्ष मानता है। मानके कारण अपनी महत्ता प्रगट करने में व दूसरोंको नचिा दीखाने में ही राजी रहता है। मायाके कारण अपने विश्वासपात्र मित्रोंको भी ठग लेता है । लोभके वशीभूत हो न्याय अन्यायका विचार छोड़कर धन एकत्र करता है। इंद्रियोंकी भोग सामग्री जमा करता है । अंधा हो भोग लिप्त होजाता है। मांसाहारमें, मदिरापानमें तन्मय रहता है, शिकार खेलने में हर्ष मानता है, चोरी, ठगाई, लूटपाट करके अपनी चतुराई मानता है, जूआ रमणकर कभी हर्ष कभी विषाद करता है, हार जीतके मद में धर्म कर्म भूल जाता है, स्वच्छन्द हो वेश्यागामी व परस्त्री रत होजाता है । मिथ्यादृष्टीके अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभका उदय प्रायः सदा ही रहता है। ये कषायें जो अनंत मिथ्यात्व
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श्रावकाचार
सारणतरण
उसको पुष्ट करनेवाली हैं व उसके पीछे रहनेवाली हैं तथा ऐसा कर्मका बंध करानेवाली हैं जिससे बंधकी परम्परा दीर्घकाल तक चली जावे, कठिनतासे छूटे। ये अनंतानुबंधी कषायें जीवको अन्यायसे ग्लानि मिटा देती हैं। ये सम्यकदर्शन और स्वरूपाचरण चारित्र दोनोंको घात करनेवाली हैं। पद्यपि सासादन गुणस्थानमें मिथ्यात्वका साथ कुछ देरके लिये नहीं रहता है परंतु ये कषायें तुरत मिथ्यात्वको बुला लेती हैं। सम्यक्तसे गिरते हुए अधिकसे अधिक छ: आवली कालतक ही सासादन गुणस्थान रहता है फिर तुर्त मिथ्यात्व गुणस्थान मिथ्यात्वके उदयसे आजाता है कभी अनंतानुबंधीको अन्य कषायरूप करनेवाला अर्थात विसंयोजन करनेवाला जीव ग्यारम गुणस्थान तक चढ़के यदि मिथ्यात्वमें आता है तो एक आवली तक अनंतानुबंर्धाका साथ नहीं रहता है, मिथ्यात्व अकेला ही उदयमें रहता है परंतु आवली पीछे उदय होने लगता है। इसलिये ये कषाय मिथ्यात्वको
साथी बना लेते हैं। या मिथ्यात्व इनको अपना साथी बना लेता है। सम्यक्तभाव पानेके लिये इन ४कषायोंका मिथ्यात्वके साथ दमन करना जरूरी है।
कषायोंका स्वरूप । श्लोक-लोभं कृतं अशुद्धस्य, शाश्वतं दृष्टते सदा।
अनृते कृत आनंद, अधर्म सारभंजनं ॥ २४ ॥ ___अन्वयार्थ-(लोभ कृतं ) लोभको करनवाला जीव (सदा) सदा (अशुद्धस्य) अशुद्ध भाव या पर्यायको (शाश्वतं) नित्य रहनेवाली (दृष्टते) देखता है। (अनृते) मिथ्या मन वचन कायकी प्रवृत्तिमें (कृत आनंदं) आनन्द मानता रहता है (अधर्म ) यह लोभ अधर्म है-पाप है (सारभंजनं) सार जो ४ आत्मधर्म है उसको खंडन करनेवाला है।
विशेषार्थ—यहां अनन्तानुवन्धी लोभका स्वरूप बताया है। इस लोभके उदयसे यह प्राणी जो अशुद्ध क्षणभंगुर पर्याय है उसके लिये मानता है कि सदा बनी रहे। जीतव्य, यौवन, धन, स्त्री, पुत्र, बल, रूप, अधिकार, इंद्रिय भोग इत्यादि अशुद्ध कर्मजनित संयोगोंको तथा अशुद्ध राग
४॥२५॥
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भावको, कामभाषको-विषयलम्पटताको, मानभावको-अपनी प्रतिष्ठाको इत्यादि सर्व ही अशुद्ध बारणतरण
श्रावकाचार भावोंको नित्य रखना चाहता है। पे भनित्य हैं ऐसी समझको भूल जाता है। तथा मिथ्यास्वके उदयसे जो मन वचन कायकी मिथ्या प्रवृत्ति करता है जैसे मिथ्यादेवोंकी आराधना, मिथ्यागुरुकी सेवा, मिथ्याधर्मका पालन, हिंसादि विशेष आरंभकी प्रवृत्ति, युद्धादि क्रिया, परका बिगाड़, परिग्रह संचन, परको ठगना, परस्त्री भोग, अभक्ष्य भक्षण आदि । उनमें आनन्द मानता रहता है।
वास्तव में यह लोभ महान अधर्म है। सर्व ही पापोंका यही मूल कारण है। राज्यके लोभमें पुत्र V पिता तकका घात कर डालता है। इंद्रियविषयके लोभसे घोर पापोंकी प्रवृत्तिमें फंस जाता है।
यह लोभ ही सार जो धर्म है व सार जो आत्मीक सुख है उसको नाश करता है। एक शास्त्रज्ञाता भी आत्महितको समझता हुआ भी गृहस्थीके लोभमें पड़ा हुआ संयमको गृहण नहीं कर पाता है। लोभके समान कोई वैरी नहीं है।श्री अमितगति आचार्य सुभाषितरत्नसंदोहमें कहते हैं
दुःखानि यानि नरकेष्वतिदुःसहानि, तिर्यक्षु यानि मनुजेष्वमरेषु यानि ।
सर्वाणि तानि मनुमस्य भवन्ति कोभा, वित्याकळय्य विनिहन्ति तमत्र धन्यः ॥ ८॥ भावार्थ-नरकमें जो अति दुःसह दुःख होते हैं व तिर्यचोंमें, मानवों में व देवोंमें जो जो कष्ट ॐ होते हैं वे सब लोभ कषायके कारण होते हैं ऐसा समझकर जो लोभको मारता है वही धन्य है।
___ श्लोक-कोहाग्निः जलते जीवः, मिथ्यात्त्वं घृत तेलयं ।
कोहाग्नि कोपनं कृत्त्वा, धर्मरत्नं च दग्धये ॥ २५ ॥ अन्वयार्थ-(कोहाभिः) क्रोधकी आग (जीवः जलते) जब जीवके भीतर जल उठती है तब (मिथ्यात्व) १ मिथ्यात्व भाव (घृत तेढ्यं ) घी और तेलके समान पड़कर ( कोहामि कोपनं कृत्वा ) क्रोधकी अग्निको बढ़ा ४ देता है तब यह क्रोधकी आग (धर्मरत्नं च) धर्मरूपी रत्नको भी (दग्वये) जला देती है।
विशेषार्थ-यहां अनंतानुबंधी क्रोधका स्वरूप बताया है। यह क्रोध जब उदय हो उठता है तष मिथ्यात्वका भाव उस क्रोधकी आगको भड़कानेके लिये घृत पा तेलका काम करता है। जैसे आगपर घी या तेल डालनेसे भाग बढ़ जाती है ऐसे ही मिथ्यात्वभाव क्रोधको प्रबल कर देता है४॥२७॥
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काय कांपने लगी मन क्लेशित व मैला होजात धर्मको जला बैठते हैं।
धारणतरण ४ जिसके वशीभूत हो यह प्राणी ऐसा अंधा होजाता है कि अपने प्रियजनोंको भी प्राण रहित कर
श्रावकाचार ॥२८॥
नेको तय्यार होजाता है। दूसरेका सर्वस्व नाश किये विना चैन नहीं पाता है। घोर हिंसामें प्रवृत्ति कर बैठता है।कोधकी भागसे दीर्घकालसे पाला हुआ धर्म नष्ट होजाता है। दीपायन मुनिने क्रोषके आवेशमें बारकाको भस्म करके अपने आपके धर्मका भी विनाश किया। बैरी बारा कष्ट दिये जाने पर जो साधु क्रधिकी अग्नि भड़का लेते हैं वे धर्मको जला बैठते हैं। क्रोधके आवेशमें बड़ा भारी केश होता है, मन क्लेशित व मैला होजाता है, वचन कठोर व अविचार पूर्ण निकलते हैं, काय कांपने लग जाती है, शरीरका रुधिर सूखने लगता है, परका घात करते हुए व अपना अपघात करते हुए भी नहीं रुकता है, शास्त्रज्ञानको भूल जाता है, ज्ञानका लाभ, ध्यानका उद्योग नहीं कर सकता है, आत्माको तीन कर्मबंधसे जकड़ता है, दीर्घकालसे पालन पोषण किया हुआ धर्मवृक्ष क्रोधकी आगसे क्षणमात्रमें भस्म होजाता है। अमितगति महाराज कहीं कहते हैं
वरं विवर्धयति सख्यमपाकरोति, रूपं विरुपयति निन्द्यमति तनोति । .
दौर्भाग्य मानयति शातयते च कीर्ति, रोषोऽत्र रोषसहशो नहि शत्रुरस्ति ॥ भावार्थ-यह क्रोध वैरको बढ़ा देता है, मित्रताको नाश कर देता है, शरीरके रूपको विगाड़ म देता है, बुरिको निंदनीय व हिंसक बना देता है, दुर्भाग्य या पापको लाकर खड़ा कर देता है, ॐ पशको मिटा देता है। यहां क्रोधके समान कोई शत्रु नहीं है।
श्लोक-मानं च अनृते रागं, माया विनाश दृष्टते ।
. अशाश्वतं भावं वृद्धिः, अधर्म नरयं पतं ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ (अनुते ) मिथ्या अवस्थाओं में (राग) राग करना (मानं) मान होनेका (माया) व ४ मायाचार होनेका कारण है। इन दोनों कषायोंसे (विनाश) आत्माका नाश (इष्टते) दिखलाई पड़ता है।(मशास्वतं भावं) पर्याय बुद्धिक क्षणिक भाव (वृद्धिः) बढ़ता जाता है (अधर्म) अधर्म होता है.. (नरवं पतं)वनरकमें पतन होता है। विशेषार्थ-आत्माके शुर स्वरूपके सिवाय शेप सर्व पर्याय नर पशु देव नारक सम्बन्धी अंत.
॥१८॥
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श्रावकाच
॥१९॥
रंग और बहिरंग मिथ्या है, स्वमसम है, परिवर्तनशील हैं, अज्ञानी जीवोंका उनहोंमें राग होता है, वे राज्य, धन, कुटुम्ब, अधिकार, भोगादिके तीन अभिलाषी होते हैं। इन पदार्थोके स्वामित्वमें उनको अभिमान होता है। वे दूसरोंको तुच्छ दृष्टिसे देखते हैं तथा इनहीके बढ़ाने, प्राप्त करने,
रक्षा करने आदिके लिये ही उनको मायाचार करना पड़ता है। अनेक प्रकार प्रपंच रचकर दूसरोंको ५ ठगने में प्रवृत्त होना पड़ता है। ये कषायें आत्माके भावोंका ऐसा बिनाकर देती हैं कि उसके
भीतर पर्याय बुद्धिका भाव बढ़ता जाता है। जो पदार्थ नित्य नहीं रहनेवाले हैं उनको नित्य बनाए रखनेका रागभाव बढ़ता जाता है। वृद्ध होनेपर भी उनसे ममता नहीं छूटती है। अनित्य पदाथोंमें इस तरह मोह करनेसे धर्मको भूल जाता है,अधर्ममें रत होजाता है, अन्याय कार्य करने लग जाता है। जिससे तीन कर्म बांधकर नरकमें पतन होजाता है। इन दोनों कषायोंका दृष्टांत रावणका जीवन है। रावणने मायाचारसे सती सीताको हरण किया। उसम राग करके अनेक प्रपंव किये। अहंकार करके रामचंद्रसे युद्ध किया । फल यह हुआ कि वह नर्क चला गया। सुभाषितरत्नसंदोहमें कहा है
नीति निरस्मति विनीतिमपाकरोति । कीति शशांकषवकां मलिनी करोति ॥
___ मान्यान्न मानयति मानवशेन हीनः । प्राणीति मानमपइन्ति महानुभावः ॥ ४॥ मावार्थ-हीन बुद्धिधारी प्राणी मानके वशमें पड़कर नीतिको तोड़ देता है, अनीतिको पुष्ट करता है, चंद्रमा समान निर्मल यशको मेला कर देता है, मान्य महापुरुषोंको भी नहीं मानता है। ऐसा जानकर महान पुरुष मान नहीं करते हैं।
शीलवतो यम तपः, शम संयुतोऽपि । नात्राश्नुते निकृति शस्यधरो मनुष्यः ।।
आत्यन्तिकी श्रियमवाच सुखस्वरूपां । शस्यान्वितो विविष धान्य धनेश्वरो वा ॥ ५८ ॥ भावार्थ-शील, व्रत, उद्यम, तप, शांतभावसे संयुक्त होनेपर भी मायाचारी मानव इस जग१ तमें बाधा रहित मोक्षका आनन्द नहीं भोग सका है उसी तरह जिसतरह नानाप्रकार धन धान्यसे
पूरित मानव कांटा लगनेपर दुःखी रहता है।
coco
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श्रावसकर
बारणतरण
तीन मूढ़ताका स्वरूप। श्लोक-मिथ्या मायादि संपूर्णः, लोकमृदरतो सदा।
लोकमृदस्य जीवस्य, संसारे भ्रमनं सदा ॥ २७ ॥ अन्वयार्थ (मिथ्यामायादि सम्पूर्णः) मिथ्या पर्यायोंके सम्बन्धसे या मिथ्यात्वके उदयके साथ २ जो माया, मान, क्रोध, लोभ, कषाय होते हैं उनसे पूर्ण यह जीव (सदा लोकमूदरतः) सदा जगत सम्बन्धी मूढ़ताया मोहमें रत रहा करता है। (लोकमूदस्य जीवस्य) लोककी मूढ़तामें फंसे हुए जीवका (सदा) इमेशा ही (संसारे ) इस संसारमें (भ्रमनं ) भ्रमन रहता है।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वके साथ होनेवाले अनंतानुषन्धी कषायोंके साथ यह जीव जगतकी विनाशीक पर्यायोंमें रागी देषी मोही होता हुआ लोकमें मढ़ बना रहता है। जो आत्महितके कार्य हैं उनसे विमुख रहता है, संसार वर्द्धक कार्यों में लवलीन रहता है। धर्मकी वृद्धि व सच्चे परोपकारमें धन नहीं खरचता है। नामवरीके लिये व विषय कषायकी पुष्टिके लिये धनको बहुत जल्द खरचता
है। अध्यात्म विषयसे रुचि न करके अन्य कथाओं में फंसा रहता है। ऐसा मूर्व मोही प्राणी अनंVतानुबंधी और मिथ्यात्वके कारण चारों गतिमें भ्रमण कराने वाले कोकोबांधकर लेश्याके अनुसार
नीची ऊंची गतिमें जाकर हरएक शरीरमें इन्द्रियोंकी इच्छाओंमें फंसा हुआ घोर कष्ट उठाया करता है। जबतक इस मूढ़ताको न छोड़े तबतक संसारसे पार होनेका मार्ग नहीं मिलता है। यही मोही जीव लोकमूढ़तामें भी फंस जाता है। लोगोंकी देखादेखी अधर्मको धर्म मानकर सेवन करने लगता है और उससे लौकिक लाभकी कामना करता है। लोकमूढ़ताका स्वरूप रत्नकरंडश्रावकाचारमें स्वामी समन्तभद्र कहते हैं
आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । गिरिपातोग्निपातश्च, लोकमुदं निगद्यते ॥ २२ ॥ भावार्थ-धर्म समझकर नदी या समुद्र में स्नान करना, वालू पाषाण आदिका ढेर करना, पर्वतसे गिरना, अनिमें जलकर मरना लोकमढ़ता कही जाती है। जो विधवा स्त्री पतिके साथ आगमें जलकर पतिव्रत धर्म मानती है वह भी लोकमूहता ही है । यदि वृथा प्राण न देकर पतिके
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श्रावकार
तारणतरण
* गुणोंको स्मरण करते हुए धर्म, समाज व जातिकी सेवा करे। संतोषसे ब्रह्मचर्य व्रत पाले तो उसका
र सतीपन यथार्थ है। जिन लौकिक क्रियाओंसे कोई वीतराग आत्मा सम्बन्धी भावोंका स्मरण न हों ॥३१॥ वे सब लोकमूढ़तामें गर्भित हैं।।
श्लोक-लोकमूढ़रतो येन, देवमूढस्य दिष्टते ।
पाषंडी मृढ़संगेन, निगोयं पतितं पुनः॥२८॥ मन्वयार्थ (लोक मूढ़ रतः) जो लोकमूढ़तामें फंसा हुआ जीव है (येन) उसके (देवमूढस्य) देव मूढ़ता (दिष्टते) दिखलाई पड़ती है (पुनः) तथा (पाषंडी मृदसंगेन) पाषंडी मूढ़ताके संगसे (निगाय) निगोदमें (पतनं ) वह जीव गिर जाता है।
विशेषार्थ-मिथ्यादृष्टीके तीन मूहता पाई जाती है। वह मूढ़तासे किसी लौकिक आशाके कारण रागी देषी देवोंको पूजने लग जाता है तथा जो साधु सच्चे साधु नहीं हैं उनकी मान्यता करने लग जाता है। तीन कषायके कारण वह निगोदमें चला जाता है। पंचेन्द्रियसे एकेन्द्री साधारण वनस्पतिमें जाकर जन्म लेता है। इसीको निगोदमें जन्म लेना कहते हैं, जहां ज्ञान बहुत अधिक ढका हुआ होता है। उस निगोदसे निकलना फिर अनंतकाल में दुर्लभ होजाता है। जो
मूर्खता करे वह ज्ञानको बिगाड़कर अज्ञानी होजावे इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। यहां यह दिखलाया से है कि हे भव्य पुरुषों! यदि वृक्षादिकी पराधीन पर्यायों में जानेसे बचना हो तो लोक मूढ़ताके साथर देवमूढता व पाखंडि मूढताको भी त्यागो । इनका स्वरूप रत्नकरण्डमें ऐसा कहा है
वरोपलिप्सयाशावान् , रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढ़मुच्यते ॥ २३ ॥ ____ भाषार्थ-सांसारिक सुखकी आशा करके किसी पर पानेकी इच्छासे राग द्वेषसे मलीन देवताओंकी जो पूजा करता है वह देवमूढता कही जाती है। वीतराग सर्वज्ञ अरहंत और सिद्ध भग वानके सिवाय और सर्व ही सराग व अल्पज्ञ हैं उनको पूज्यनीय मानकर इस भावसे भक्ति करना कि ये देवी देवता प्रसन्न होकर हमारा इच्छित काम कर देंगे, देवमूढ़ता है। आत्मसिद्धिके लिये व अपने आत्माके भावोंको शुद्ध करनेके लिये कोई भी बुद्धिमान रागीदेषी देवी देवताओंकी उपासना
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वारणतरणY नहीं करता है। जो कुछ भी पूजा पाठ इनका लोकमें देखा जाता है वह सब लौकिक आशासे ही
श्रावकाचार ४ देखा जाता है। कोई धनकी, कोई पुत्रकी, कोई अधिकारकी, कोई जय पानेकी इत्यादि मिन्न २४ इच्छाओंके वशीभूत हो मूढ़ लोग ऐसी मानता मांगते हैं कि यदि हमारा काम सिद्ध होजावेगा तो हम यह चढ़ावेंगे या इस तरह भक्ति करेंगे । कदाचित् अपने पुण्यके उदयसे कार्य सिद्ध होजाता है तो यह अज्ञानी ऐसा मान लेता है कि देवी देवताकी कृपासे ही मेरा काम हुआ है, बस, उसकी देवमूढता और बढ़ जाती है। वह और अधिक कुदेवोंका भक्त बन जाता है। सम्यक्तीको न तो लौकिक कार्योंकी इच्छा ही होती है और न वह इस इच्छासे किसीरागीदेषी देव देवीकी पूजा भक्ति करता है।जो अपना कल्याण चाहें उसको कभी भीरागीदेषी देवोंकी उपासनान करनी चाहिये । यदि कदाचित् कोई इन्द्र धरणेन्द्र यक्ष-यक्षिणी आदि साक्षात् सामने आजावें तो सम्बनी जीव उनके साथ वैसा ही योग्य वर्ताव करेगा जैसा साधर्मी मानवोंके साथ करता है । जितने इन्द्रादि देव देवी होते हैं, वे चौथे गुणस्थान से अधिक नहीं चढ़ सके। इसलिये उनके साथ वही वर्ताव करना उचित
होगा जो चौथे गुणस्थान सम्बन्धी श्रद्धावान मानवके साथ होगा। यथायोग्य आसन दान आदि V करेगा उनको उस तरह कभी पूजेगा नहीं जिस तरह श्री वीतराग भगवानकी पूजा उपासना की ४ जाती है। रागी देषी देवोंकी मूर्ति बनाकर पूजना बिलकुल देवमूढ़ता है। ऐसी मूढ़तासे वह मूढ़ प्राणी वीतराग देवकी उपासनामें शिथिल होजाता है। . पाषंडी मूढताका स्वरूप रखकरंडमें कहा है
“सग्रन्थारंभहिंसानां संसारावर्तवार्तनाम्, पापण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषाण्डमोहनम् ॥ ७॥ भावार्थ-परिग्रह आरंभ तथा हिंसा कर्ममें लीन संसारके भवरमें घूमनेवाले भेषी साधुओंकी पूजा व भक्ति करना पाण्डि मूढता जानना चाहिये । निग्रंथ दिगम्बर जैन साधुके सिवाय अन्य परिग्रह सहित साधुओं की भक्ति करना मूढता है। मोक्षमार्गमें सहकारी निर्ग्रथ आत्मरमी बैंक साधु है उनहीकी भक्ति मुमुक्षु जीवको करनी चाहिये । किसी भी प्रयोजनसे उनके सिवाय अन्य आरंभी परिग्रहवान साधुओंकी भक्ति न करनी चाहिये । ये तीन मूढताएं जीवको निगोद में डालनेवाली हैं।
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वारणतरण
सम्यक्तके २५ दोष।
श्रावकाचार श्लोक-अनायतन मदाष्टं च, शंकादि अष्ट दूषनं ।
मलं संपूर्ण जानंतं, सेवनं दुःखदारुणं ॥ २९ ॥ अन्वयार्थ—(अनायतन ) छः अनायतन (च) और ( मदाष्टं ) आठ मद (शंकादि अष्टदूषनं ) शंका आदि * आठ दोष (संपूर्ण मलं) इनमें तीन मूढताको मिलाकर सर्व पचीस मल (जानंतं ) जानना चाहिये (सेवन) 2. इन पचीस मलोंका सेवना ( दारुणं दुःख ) भयानक दुःखोंका कारण है।
विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टीको सच्चे देव, शास्त्र, गुरुमें भक्ति रखते हुए सम्यक्तको मलीन करनेवाले . पचीस दोषोंको बचाना चाहिये । उनमें तीन मूढ़ता पहले कह चुके हैं। छ: अनायतन हैं वे धर्मके स्थान नहीं हैं। वे छः हैं-कुदेव, कुशास्त्र व कुगुरु और इन तीनोंके भक्त इन छहोंकी संगति-परिणामोंको सच्चे देव, शास्त्र, गुरुकी श्रद्धासे गिरानेवाली है। इसलिये श्रद्धाकी रक्षाके हेतु रागी, देषी देव तथा उनके भक्तोंकी संगति, भेषी साधु व उनके भक्तोंकी संगति, मिथ्यात्व पोषक शास्त्र व धर्माचरण व उनके कहनेवालोंकी संगति ऐसी नहीं करनी चाहिये जिससे लाचार होकर कुदेव, कुधर्म व कुगुरुकी भक्ति करनी पड़े। लौकिक व्यवहार मनुष्यताकी दृष्टिसे हरएक मानवसे रक्खा जासत्ता है। परंतु मिथ्याभाव पोषक व संसारवईक प्रवृत्तिमें सहयोग करना मिथ्याभावकी अनुमोदना करना है। इससे अपना भी बिगाड़ है व उनका भी बिगाड़ है । सत्यका अनुयायी स्वयं रहना चाहिये व सत्यकी ही अनुमोदना करनी चाहिये । इससे यह अभिप्राय नहीं है कि हम दूसरे धर्मवालोंसे प्रेमन रक्खे । साधारण प्रेम सर्व मानवोंसे रखते हुए जिन धार्मिक प्रवृत्तियोंके सहयोगसे आत्मकल्याण हो उनसे सहयोग करते हुए जिनसे विषय कषायकी पुष्टि हो व मिथ्यात्वमें व अन्यायमें प्रवृत्ति हो उनसे अलग रहते हुए मध्यस्थभाव रखना चाहिये। द्वेषभाव कभी भी किसीसे नहीं रखना चाहिये।
आठ प्रकारका मदं करना भी सम्यक्तमें दोष है। वे आठ मद हैं। जैसा रत्नकरंडमें कहा है __ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृदि तपो वपुः । अष्टावामित्य मानित्वं स्मयमाहुगतस्मयाः ॥ २६ ॥
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श्रावकाचार
वारणतरण
॥३४॥
- भावार्थ-मदनाशक सर्वज्ञदेवने कहा है कि ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप, शरीर रूप, इन आठोंके आश्रयसे मान करना आठ मद हैं।
सम्यक्ती संसार शरीर भोगोंसे अत्यन्त उदास रहता है, वह मोक्षा व आत्मीक परमा. नन्दका प्रेमी है इसलिये वह कर्मों के द्वारा उत्पन्न हुई अवस्थाओंसे अपनेको बड़ा नहीं मानता है। इसलिये वह आठ तरहका मद नहीं करता है। मैं बहुत शास्त्रका जाननेवाला हूं ऐसा घमंड करना ज्ञान मद है। मैं बहुत अधिकार रखता हूं, प्रतिष्ठित हूं ऐसा घमंड करना पूजा मद है। मैं ऊंचे वंशका हूं, मेरे पिता, महा पिता ऐसे हैं यह घमंड करना कुल मद है । मेरी माता पक्षके मामा, नाना ऐसे ऐसे हैं यह घमंड करना जाति मद है। मैं बड़ा बलवान हूं, चाहे जिसे वश कर सक्ताह यह घमंड करना बल मद है। मैं बड़ा धनवान हूं, इसतरह गरीबोंको तुच्छ दृष्टिसे देखकर धनका घमंड करना ऋडि मद है। मैं बड़ा तपस्वी ई, बहुत व्रत उपवास करता हूं ऐसा मद करना तप
मद है। मैं बहुत रूपवान सुंदर हूं ऐसा घमंड करना शरीर मद है। ज्ञानी जीव धनादिकी शक्ति * होनेपर उसे परोपकारमें खर्च करता है तथा जैसे वृक्षपर जितने अधिक फल आते हैं वह नम्रीभूत र होजाता है उसी तरह जितनी भी शक्ति विद्या, धन आदिकी ज्ञानीमें बढ़ती जाती है उतना ही वह अधिक नम्र व विनयवान होजाता है। और उस शक्तिसे स्वपरका उपकार करता है।
सम्यक्ती शंका आदि आठ दोष अपने में नहीं लगाता है । वे आठ दोष हैं:
(१) शंका-जैनके तत्वों में शंका रखना-जैनधर्मके तत्वों में दृढ़ श्रद्धानी होता हुआ शंका नहीं रखता है। यदि कोई बात समझमें नहीं आती है तो विशेष ज्ञानीसे पूछकर निर्णय करता है तथा सम्यक्ती निर्भय रहता है। धर्मसाधनको किसीके भयसे छोड़ता नहीं है। भय सात तरहका होता है
१-इहलोक भय-इस लोकमें लोग मुझे निदेगे या मेरी हानि होजायगी ऐसा भय । .-परलोक भय-परलोकमें मैं नर्क, पशु आदि दुर्गतिमें चला जाऊंगा ऐसा भय । ३-वेदना भय-मुझे रोगादि होजायंगे तो क्या करूंगा ऐसा भय । ४-अरक्षा भय-मेरा कोई रक्षक नहीं है, संकटोंसे कौन बचाएगा ऐसा भय ।
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श्रावकाचार
वारणतरण
५-अगुप्त भय-मेरा माल कोई चोरी लेजायगा तो क्या करूंगा ऐसा भय । ६-मरण भय-मेरा मरण न होने पावे ऐसा भय । ७-अकस्मात् भय-कोई अकस्मात् आपत्ति मेरेपर न आजाये ऐसा भय ।
सम्यक्ती वीर सिपाहीके समान इस संसारमें निर्भय रहता है। रोगादिसे बचनेका यथार्थ उपाय तो करता है जैसे सिपाही युरमें अपनेको बचानेका उपाय रखता है परन्तु सिपाही भयवान व कायर नहीं होता है इसी तरह सम्यक्ती अपना भाष साहस पूर्ण रखता है। रोग मरण द्रव्य हरणादि आपत्तिको कर्मजनित फल जानकर संतोष रखता है। इस तरह निःशंकित अंग पालता है।
(२) कांक्षा-भोगोंकी इच्छा-इद्रिय भोगोंको अधिर व अतृप्तिकारी जानकर उनकी इच्छा नहीं रखता है न उनमें सुख पानेकी अबा रखता है । आत्मीक सुखको सुख जानता है। इस तरह निःकांक्षित अंग पालता है।
(१) विचिकित्सा-घृणा-सम्यक्ती रोगी शोकी, क्षुधातुर किसी भी मुनि, श्रावक व अन्य प्राणीको देखकर उनसे घृणा नहीं करता है किंतु दया भाव लाकर उनकी सेवा करता है । मल* मूत्रादिका भी स्वरूप जानकर उनसे पचता तो अवश्य है परन्तु ग्लानि भाव नहीं रखता है। * इस तरह निर्षिचिकित्सित अंग पालता है।
(४) मूरष्टि-मूढताईसे श्रद्धा रखना-सम्यक्ती लोगोंकी देखादेखी मूर्खतासे किसी देव, V गुरु, शास्त्र या धर्मको नहीं मानता है, अमूढदृष्टि अंग पालता है।
(५) अनुपगृहन-दूसरों के दोष निन्दाभावसे प्रगट करना । सम्यक्ती परके दोषोंको प्रगट करनेकी आदत नहीं रखता है। वह जानता है कि प्रमाद व कषायके उदयसे प्राणियोंसे दोष बन जाया करते हैं। इससे दयाभाव लाकर दोषीके दोष छुड़ानेका यत्न करता है, उपगृहन अंग पालता है। " ( अस्थितीकरण-धर्ममें अपने व दूसरोंको स्थिर न करना-सम्यक्ती अपने मनको समझाकर सदा उसे धममें दृढ़ रखता है वैसे ही वह अन्य स्त्री व पुरुषों को भी धर्मसाधनमें दृढ़ रहनेका उपाय करता रहता है-स्थितीकरण अंग पालता है।
(७) वात्सल्य-साधर्मी भाई बहनोंसे प्रेम न रखना- सम्यक्ती सर्व साधर्मियोंको इस
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श्रावकाचार
वारणतरण
प्रेमभावसे देखता है जिस तरह गाय अपने वत्सको देखती है-प्रेमालु होकर उनके कष्टोमें। होता है, वात्सल्य अंग पालता है।
(4) अप्रभावना-धर्मकी प्रभावना न करना-सम्यक्ती सदा ही धर्मकी उन्नति चाहता है। जिस तरह बने अज्ञानको मिटाकर जैन शासनका महात्म्य प्रकाशित करता है, प्रभावना अंगको पालता है।
इस तरह तीन मूढता, छ: अनायतन, आठ मद, आठ शंकादि दोष इन २५ दोषोंके स्वरूपको भले प्रकार जानता है तथा समझता हैकि इनके सेवनसे ऐसा पाप कर्म बंध होगा जिससे भयानक दुःख भोगना पड़ेगा। निर्मल सम्यक्त इस लोक व परलोकमें सुखी रखनेवाला है।
000000000 मिथ्यात्वके त्यागका उपाय। श्लोक-मिथ्यामतिरतो येन, दोषं अनंतानंत यं ।
शुद्ध दृष्टिं न जानंतः, सेवते दुःख दारुणं ॥३०॥ अन्वयार्थ-मिथ्यामतिरतः) जो मिथ्यात्व भावमें व मिथ्या ज्ञानमें लवलीन है वह (येन ) इस मिथ्या मतिके कारण (अनंतानंत यं दोषं) अनंतानंत दोषका भाजन है। (शुद्ध दृष्टिं) शुद्ध आत्महष्टिको व सम्यग्दर्शनको (न जानंतः) न जानता हुआ (दारुणं दुःख) भयानक दुःखोंको (सेवते) भोगता है।
विशेषार्थ-यहां यह बताया है कि जगतमें जितने भी दोष हैं उन सबसे बड़ा दोष मिथ्या* त्वका है, इसके बराबर कोई पाप नहीं है । मिथ्यात्वी जीव अनगिनती दोषोंका पात्र बन जाता है,
व अनंत दोषरूप भावोंको किया करता है। इसे अपने शुद्ध आत्मीक भावकी श्रद्धा नहीं होती है। यह अपनेको रागी, देषी, मोही जाना करता है व कर्मजनित भावों में लीन होकर महान घोर कर्मका बंध करता है, नरक निगोदका पात्र होता है, दीन दुखी पशु व मानव पैदा होता है व नीच देव होजाता है। मिथ्यात्व इतना बड़ा दोष है कि इसके साथ में स्वर्गमें रहना भी बुरा है।
सारसमुच्चयमें कहते हैं
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तारण तरण
॥ ३७ ॥
बरं नरकवासोपि सम्यक्त्वेन समायुक्तः । न तु सम्यक्तहनिस्य निवासो दिवि राजते ॥ ३९ ॥
भावार्थ- सम्यग्दर्शन सहित नरकमें रहना भी ठीक है किन्तु सम्पक्त विना मिथ्यात्व सहित स्वर्ग में रहना भी ठीक नहीं है । और भी लिखा है
मिथ्यात्वं परमं बीजं संसारस्य दुरात्मनः । तस्मात्तदेव भोक्तव्यं मोक्षसौख्यं भिक्षुणा ॥ १२ ॥ भावार्थ - इस भयानक दुष्ट संसारका सबसे बड़ा बीज मिथ्यात्व है इसलिये जो मोक्षके सुखकी इच्छा रखता हो उसे उचित है कि इसका त्याग करदे ।
श्लोक - वैराग्ये भावनां कृत्वा, मिथ्या त्यक्तं त्रिभेदयं ।
कषायं त्यक्त चत्वारि, प्राप्यते शुद्ध दृष्टितं ॥ ३१ ॥ मिथ्या सम्यक् मिथ्यात्वं, सम्यक्प्रकृतिर्मिथ्ययं ।
कषायं चत्वनंतानं त्यक्तते शुद्धदृष्टितं ॥ ३२ ॥
अन्वयार्थ – (वैराग्ये ) संसार शरीर भोगों से वैराग्यकी (भावनां) भावनाको (कृत्वा) करते हुए (त्रिभेदयं ) तीन भेदरूप ( मिथ्या ) मिथ्यात्व ( त्यक्तं ) छोडना चाहिये तथा ( चत्वारि ) चार (कषायं ) कक्षायको (त्यक्त ) तजना चाहिये । तव (शुद्ध दृष्टितं ) शुद्ध दृष्टिको या सम्यग्दर्शनको ( प्राप्यते ) प्राप्त किया जा सकेगा । ( मिथ्या ) मिथ्यात्व ( सम्यक् मिथ्यात्वं ) सम्यक मिथ्यात्व ( सम्यक्प्रकृति मिथ्ययं ) सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व । ये तीन प्रकारका मिथ्यात्व (अनंतानं) अनंतानुबन्धी (चतु ) चार ( कषायं ) कबाय ( त्यक्तते) इन सातोंको त्याग कर देने पर ( शुद्ध दृष्टितं ) शुद्ध दृष्टि या सम्यग्दर्शन होता है ।
विशेषार्थ—इन दो श्लोकोंमें सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका उपाय बताया गया है । सम्यग्दर्शन आत्माका एक विशेष गुण है । उसकी प्रगटतासे आत्माको अपने असली शुद्ध स्वरूपका सच्चा ज्ञान श्रद्धान व उसके अनुभव करनेकी या ध्यान करने की शक्ति पैदा होजाती है। जैसे तेलीको तिलों में तेल, धान्य में कृषकको चावल, खानसे निकले हुए माणकके पत्थर में जौहरीको माणिक रत्न, सोने चांदी के मिले हुए आभूषणमें सर्राफको सोना, दूध पानीके मिश्रणमें हँसको दूध, मटीले
श्रावकाचार
॥ ३७ ॥
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बारणतरण
श्रावकाचार
नीमें विषेकीको निर्मल पानी, सरोवर में जलसे पृथक् कमल, व्यंजनमें सागरसे भिन्न निमक, ४ नाटकमें मेषी पात्रके भीतर ज्ञाताको उसका असली मनुष्यपना, मैले कपड़े में विवेकीको असली
कपड़ा मैलसे अलग दिखता है ऐसे सम्यग्दर्शनके प्रतापसे ज्ञानीको अपना आत्मा सर्व अनास्मासे, रागद्वेषोंसे, संकल्प विकल्पोंसे, शरीरादिसे व अन्य लोकके द्रव्योंसे पृथक् ही दिखता है। इस सम्यक्दर्शनको रोकनेवाले सात कर्म हैं। चार अनंतानुबन्धी कषाय क्रोध, मान, माया, लोभ और तीन प्रकारका दर्शन मोहनीय कम मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्पकृति मिथ्यात्व । अना. दिकालसे जिसको सम्यक नहीं हुआ है उसके सम्यक्तको रोकनेवाले मात्र पांच ही कर्म हैं। दो अंतके दर्शनमोह नहीं हैं। परन्तु जिसके सम्यक्त हो चुका है और छूट गया है उस सादि मिथ्यादृष्टीके सम्यक्तको रोकनेवाले सातों ही कर्म होसक्के हैं। उपशम सम्यक्त होते हुए मिथ्यात्व कर्मके तीन भाग होजाते हैं।
जो आत्माके सच्चे स्वरूपको औरका और झलकावे व जिससे जीवादि सात तत्वोंके स्वरू. पका सच्चा भाव न प्रगटे वह मिथ्यात्व कर्म है। जिसके उदयसे जीवादि तत्वोंका व आत्माका सच्चा व झूठा मिला हुआ श्रद्धान हो वह सम्यमिथ्यात्व है। जिसके उदयसे या असरसे जीवादि तत्वोंका व आत्माका सचा श्रद्धान तो रहे परंतु उस अडानमें चल, मल, अगाढ तीन प्रकारके दोष लगें उसको सम्यक्मिथ्यास्व कहते हैं
चल दोष यह है कि अरहंत, सिद्ध आदि परमात्माओंका स्वभाव एक होनेपर भी किससि अधिक व किसीसे कम लाभ जाने । जैसे यह विश्वास रक्खे कि शांति लाभ करने में शांतिनाथजी अधिक उपकारी होंगे। रक्षा करने में पार्श्वनाथजी अधिक लाभकारी होंगे।
जिसप्रकार शुद्ध सुवर्ण भी मलके निमित्तसे मलिन कहा जाता है उसी तरह सम्पक्त प्रकृ. तिके उदयसे जिसमें पूर्ण निर्मलता न हो वह मलदोष है। मल अतीचारको कहते हैं। पांच प्रकारका अतीचार कभी २ लग सका है। १-किसी तत्वमें शंका होजाना, ३-भोगभिलाष होजाना, -रोगी आदि देखकर ग्लानि हो उठना, ४-मिथ्यादृष्टिकी मिथ्या क्रियाकी महिमा मनमें करने लगना, ५-मिथ्याष्टिकी मिथ्या क्रियाकी वचनसे प्रशंसा करने लगना ।
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श्रावकाचार
तारणतरण
अगाढ दोष यह है कि सर्व धर्मके स्थान चैत्यालयादि बराबर होनेपर भी अपने बनाए हुएमें अधिक राग करना, अन्यमें कम करना इत्यादि।
ये मात्र स्थूल दृष्टांत हैं। सूक्ष्म चल व अगाढ दोष अनुभवगम्य हैं
पत्थरकी लकीर समान न मिटनेवाला क्रोध, पत्थरके खंभ समान न नमनेवाला मान, वासकी जड़के समान तीन तम टेढापन माया, मजीठके रंग समान न मिटनेवाला लोभ, अनंतानुबन्धी चार कषायके दृष्टांत हैं। इन सम्यग्दर्शनके पाधकोंके दूर करनेका उपाय वैराग्यकी भावना है। यह भावना कि एक शुद्ध आत्मा ही सार है उपादेय है, मोक्ष ही सार है. संसार प्रसार है। भोग रोगके समान शरीरोंका सम्बन्ध कारावासके समान है। प्रथम तो मुमुक्षुको सच्चे देव, शास्त्र, गुरु पर पक्का श्रद्धान लाना चाहिये । उनहीकी भक्ति करनी चाहिये । प्राण कंठगत होनेपर भी कुदेवादिकी भक्ति न करनी चाहिये । फिर इनकी भक्तिमें चार काम करने चाहिये।
(१) श्री जिनेन्द्रदेव-अरहंत सिद्धकी गाढ भक्ति, उनके गुणोंकी स्तुति. (१) शास्त्रकी म भक्तिमें शास्त्रका भलेप्रकार नित्य अभ्यास करते हुए शास्त्र के अोंका धारण, मनन, विचार, (३) ॐ आत्मज्ञानी गुरुओंकी संगति-उनसे तत्वोंका स्वरूप समझना, (४) एकांतमें बैठकर नित्य प्रात:काल
व सायंकाल सामायिक करते हुए आत्माको सबसे भिन्न विचार करना। इन चार उपायों को बरावर करते रहना चाहिये।
शास्त्रके बारा जीवादि सात तत्वका ठीक २ ज्ञान प्राप्त करना चाहिये क्योंकि इनका स्वरूप ज्ञान सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिमें परम उपकारी है। सात तत्वोंके व्यवहारज्ञानके लिये श्री उमास्वामी ॐकृत तत्वार्थसूत्र और निश्चयज्ञानके लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत पंचास्तिकाय, प्रवचनसार तथा
समयसार ग्रंथोंका भलेप्रकार अभ्यास करना चाहिये। यहां प्रकरण पाकर सात तत्वोंका कुछ स्वरूप कहा जाता है
(१) जीव तत्व-यह जीव ज्ञान दर्शन सुख धीर्यादि गुणधारी अमूर्तीक है। प्रत्येक जी की सत्ता भिन्न है, यह अनादि अनंत अविनाशी है । स्वभावसे यह रागादिका व कर्मबंधकान कर्ता है, न उनके फलका भोक्ता है। मात्र अपनी वीतराग परिणतिका कर्ता व आत्मीक आनंदका भोक्ता
॥३९॥
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वारणतरण
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है । जब संसार में कर्मबंध सहित होता है तब यह कम के उदयसे राग, द्वेष, मोहमें परिणमन करके कर्मोंका बंध करता है और उनका फल सुख दुःख स्वयं भोगता है । यह जीव अपनी उन्नति व अवनतिमें स्वयं स्वतंत्र हैं । यदि यह पुरुषार्थ करे तो कर्म काट सक्ता है । अशुद्ध भावोंसे आप ही बंधता है, शुद्ध भावसे आप ही निर्वाणरूप होजाता है । हरएक शरीर में शरीशकार रहता है यद्यपि इसमें लोकप्रमाण फैलनेकी शक्ति है । इसीसे इसके प्रदेश असंख्यात कहलाते हैं ।
(२) अजीव तत्व-जीवपना, चेतनपना जिनमें न हो ऐसे पांच द्रव्य अजीवतत्व में गर्भित हैं। ( १ ) पुद्गल - जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाया जाता है । यह परमाणु व स्कंधरूप से जगतमें व्यापी है । जिन कर्मोंका बंध होता है वे भी पुद्गल हैं । यह स्थूल शरीर भी पुद्गल है । इन्द्रियगोचर शब्दादि सष पुद्गल हैं ।
(२) धर्मास्तिकाय यह एक अमूर्तीक लोकव्यापी अखंड द्रव्य है । जीव पुद्गल जब स्वयं गमन कर हैं तब यह उदासीन रूपसे सहायता करता है ।
(३) अधर्मास्तिकाय - यह एक अमूर्तीक लोकव्यापी अखंड द्रव्य है । जीव पुद्गल जब स्वयं ठहरते हैं तब यह उदासीन रूपसे सहायता करता है ।
(४) कालद्रव्य - अमृर्तीक अणुरूप द्रव्य संख्या में असंख्यात हैं, लोकव्यापी हैं। इनकी सहायतासे सब द्रव्यों में परिणमन या अवस्थासे अवस्थांतर होता है ।
(५) आकाशद्रव्य-जो अनंत है, यह सब द्रव्योंको अवकाश देता है। जहां तक अन्य पांच द्रव्य भरे हैं उसको लोक या लोकाकाश कहते हैं। इसके बाहर अनंत आकाशको अलोक या अलोकाकाश कहते हैं ।
(३) आस्रवतस्य कर्म लोंका आत्मा के पास खिंवकर आनेको आस्रव कहते हैं । मन, वचन, कायकी क्रिया करते हुए आत्मामें चंचलता होती है इसीसे कर्मका आस्रव होता है । यदि शुभ मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति होती है तो मुख्यता से पुण्यकर्मका और यदि अशुभ मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति होती है तो पापकर्मका आस्रव होता है।
(४) बंध तत्व आए हुए कर्म पुद्गलोंका जीवके प्रदेशों के साथ कुछ कालके लिये ठहर जाना
श्रावकाचार
॥ ४० ॥
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तारणतरण
श्रावकाचार
॥४१॥
बंध है।कषाय अधिक होती है तो अधिक कालके लिये, कषाय कम होती है तो कम कालके लिये ठहरते हैं। इसीके भीतर भीतर अपना फल दिखाकर कर्म झड़ जाते हैं।
(५) संवर तत्व-आने वाले कर्म पुगलोंको रोक देना संवर है, जिन २ मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिसे कर्म पुगल आते हैं उन २ को रोकनेसे कर्म पुद्गल नहीं आते हैं। मिथ्यात्वभावके रोकनेके लिये सम्यग्दर्शन, अविरत भावके रोकनेके लिये अहिंसादि पांच व्रतोंका पालन, प्रमाद रोकनेके लिये अपमावभाव, कषाय रोकने के लिये वीतराग परिणति, योगोंको रोकने के लिये मन, वचन, कायकी गति संवरके करनेवाले हैं। जब कमें आएंगे नहीं तो उनका बंध नहीं होगा।
(क) निजरा तत्त्व-कर्म पुद्गलोंको जो बंध हुए हैं उनको शीघ्र ही आत्माके पाससे दर कर ४ देना-निर्जरा है। यह निर्जरा तपके द्वारा किये हुए आत्मध्यानके बलसे जो वीतरागता पैदा होती
है उससे होती है।आत्मध्यानसे भवभवके बांधे कर्म एकदम गिरने लगते हैं। इसे अविपाक निर्जरा कहते हैं। जो कर्म अपने समयपर पक करके फल देते हैं उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं।
(७) मोक्ष तत्व-नए काँको रोकते हुए, पुराने कमाको दूर करते हुए व बंधके कारण भावोंका निरोध होते हुए सर्व कमाँसे जीवका रहित होजाना मोक्ष तत्व है।
इन सात तत्वों में व्यवहार नयसे जीव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ग्रहण करने योग्य है परंतु निश्चय नयसे इनमेंसे अपने एक शुद्ध आत्माको ही ग्रहण करना चाहिये, अन्य सर्वको त्याग करने योग्य मानना चाहिये । ऐसा निश्चय में लाकर जब ऊपर लिखित चार उपायोंको नित्य करता रहेगा-अधिक ध्यान सामायिकमें लगाएगा व वैराग्यकी भावना भाएगा कि सिवाय मेरे शुद्ध आत्माके और सब मेरा नहीं है, संसार असार है, शरीर अशुचि है, भोग रोगके समान है, आठ कर्मका संयोगसंसारमें जन्म मरणादि दुःखोंका कारण है, तब भावना भाते भाते मुख्यतासे आत्माका चितवन करते करते
एक समय ऐसे भाव चढ़ जाते हैं कि उनके प्रभावसे सम्यदर्शनके विरोधक ऊपर लिखित सात या पांच V प्रकृतियोंका उपशम होकर सबसे प्रथम उपशम सम्यग्दर्शनका लाभ होता है। तब अपने शुद्ध स्वरूपका
सचा भान होजाता है। सच्चा अनुभव होजाता है। आत्माका आनंद झलक जाता है कि जो आत्महित करना चाहें उनको उचित है कि वे सत्यकी प्राप्तिके लिये तत्वोंके मननका पुरुषार्थ सदा करते रहें।
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वारणतरण
श्रावकाचार
॥४१॥
सम्यग्दर्शनका स्वरूप। श्लोक-सप्तप्रकृतिविच्छेदात, शुद्धदृष्टिश्च दृष्टते ।
श्रावकं अव्रतं जैनः, संसानुःखपरान्मुखं ॥ ३३ ॥ अन्वयार्थ-(सप्त प्रकृति) ऊपर लिखित सातों प्रकृतियोंके (विच्छेदांत् ) सर्वथा क्षय या नाश होजानेसे (शुद्धदृष्टिश्च ) शुष्क आत्मदृष्टि ही अर्थात् शुद्ध क्षायिक संम्यग्दर्शन ही (दृष्टते) आत्मामें दिखलाई पड़ता है। (श्रावकं अव्रतं ) वह अविरति श्रावक होता है (मैनः) वही जैनी है (संसार दुःख परान्मुखं) वही संसारके दुःखोंसे विपरीत सुखका भोगनेवाला है।
विशेषार्थ-सबसे पहले उपशम सम्यक्त होता है। इसकी स्थिति अंतर्मुहूर्त काल है। फिर यदि सम्यकप्रकृतिका उदय हो आता है तो क्षयोपशम सम्पग्दर्शन होजाता है। इसकी स्थिति अधिकसे अधिक छयासठ सागर है। जब अधिक वैराग्य भावना होती है व केवलीया श्रुतकेवलीका समागम होता है तब सातों प्रकृतियोंके नाशसे क्षायिक सम्यक्त पैदा होजाता है। सम्यक्ती जीव चौथे
अविरत सम्यग्दर्शन गुणस्थानमें रहता हुआ यद्यपि व्रतोंका आचरण नहीं कर पाता है तथापि र भावों में इसके वैराग्य, व धर्म प्रेम, श्रद्धा व दया यथार्थ होती है। प्रशम (शांतभाव), संवेग (वैराग्य),
आस्तिक्य (श्रद्धा), अनुकम्पा (दया) ये इसके लक्षण बाहर प्रगट रहते हैं। इसको संसारके दुःख नहीं होते हैं। यह अशुभ कमका बंध नहीं करता है। यदि पहले अन्य आयु नहीं बांधी हो तो . देव आयु ही बांधकर स्वर्गमें उत्तम देव होता है। तथा यह क्षायिक सम्यक्ती जीव तीसरे भव याy चौथे भवमें अवश्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है। क्षायिक सम्यक्तकी अपूर्व महिमा है। अन्य दो सम्यक्त यद्यपि छूटनेवाले हैं तो भी एक दफे जिसको उपशम सम्यदर्शन होजाता है वह अई पुद्गल परिवतन कालसे अधिक संसारमें नहीं रहता है। सम्यकका लाभ होना मोक्षकी कुंजी हाथमें आजाना है।
श्लोक-सम्यकदृष्टिनो जीवः, शुद्धतत्त्वप्रकाशकः ।
परिणामं शुद्धसम्यक्तं, मिथ्यावृष्टि परान्मुखं ॥ ३४ ॥
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वारणतरण
॥ ४३ ॥
अन्वयार्थ – ( सम्यकूटष्टिनो जीवः ) सम्यग्दर्शनका धारी जीव (शुद्धतत्वप्रकाशकः ) शुद्ध आत्मतत्वका प्रकाश करनेवाला होजाता है । ( सम्यक्तं ) सम्यग्दर्शन ( शुद्ध परिणामं ) आत्माका शुद्ध स्वभाव है या शुद्ध परिणाम है ( मिथ्यादृष्टि परान्मुखं ) जो मिथ्यादर्शन से विपरीत है ।
विशेषार्थ — उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक कोई भी सम्यक्त हो । जो महात्मा सम्यग्दर्शन को प्रगट कर देता है वह शुद्ध आत्माका सच्चा श्रद्धान-ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त कर लेता है । आत्मदर्शन करनेका जो नेत्र मुदित था सो खुल जाता है। यह सम्यग्दर्शन आस्माका एक मुख्य गुण है । मिथ्यादर्शन के उदय से अन्यथा परिणमन कर रहा था सो उसके न उदय होनेसे यथार्थ चमक जाता है । अंधकार और प्रकाशका जैसा विरोध है वैसा मिथ्यात्व और सम्यक्तका विशेष है । मिध्यादृष्टि संसारासक है तब सम्यक्वष्टि स्वाधीनता प्रेमी होजाता है। आत्मानंदका स्वादी हो जाता है ।
श्लोक - सम्यकदेव गुरुं भक्तः, सम्यकधर्म समाचरः ।
सम्यक्तं तु वेदंते, मिथ्या त्रिविध मुक्तयं ॥ ३५ ॥
अन्वयार्थ - ( सम्यक् देवं गुरुं भक्तः ) सबै देव व सचे गुरुका भक्त व ( सम्यकूधर्म समाचरः ) स धर्मका आचरण करनेवाला सम्यकूदृष्टी जीव ( मिथ्या त्रिविध) तीन प्रकार मिथ्यात्व (मुक्त) छूटा हुआ (सम्यकं तु ) सम्यक दर्शनका ही (वेदते ) अनुभव करता है ।
विशेषार्थ — सम्यकदृष्टि जीव सम्यक्त पाकर मात्र संतोषी व आलसी नहीं होजाता है । वह निरंतर श्री अरहंत व सिद्ध परमात्मा की भक्ति करता रहता है। निर्बंथ दिगम्बर गुरुकी सेवा करके उनसे सच्चा उपदेश सुनता रहता है। सच्ची आत्मबोध कारक धर्म क्रियाओंका आचरण करता रहता है । स्वाध्याय सामायिकका अभ्यास करता रहता है। जिन २ निमित्त व आलम्बनोंसे परिणाम अशुभसे बचकर शुभमें वर्ते जिससे शुद्ध आत्माके चितवनका अवसर मिले ऐसा उद्यम सदा करता रहता है । वह सम्यक्ती अंतरङ्गसे आत्मीक शुद्ध भावका ही अनुभव चाहता है । संसार सुखका प्रेमी नहीं रहा है।
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| श्रावकाचार
॥ ४३ ॥
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वारणतरण
॥ ४४ ॥
लोक—– सम्यकूदर्शन शुद्धं ज्ञानं आचरणसंयुक्तं ।
सार्द्धं त्रिति संपूर्ण, कुज्ञानं त्रिविधि मुक्तयं ॥ ३६ ॥
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अन्वयार्थ — ( सम्यग्दर्शन शुद्धं ) शुद्ध सम्यग्दर्शन (संयुक्त) सहित (ज्ञानं ) ज्ञान सम्यग्ज्ञान उसीके (साई) साथ (आचरण) चारित्र सम्यग्वारित्र है (त्रिति संपूर्ण ) तीनोंकी पूर्णता या एकता ही मोक्षमार्ग है (त्रिविधि ) तीन प्रकार (कुज्ञानं ) कुज्ञान अर्थात् संशय विमोह विभ्रम (मुक्तथं ) रहित है । विशेषार्थ – जब सम्यक्दर्शन सहित सम्यग्ज्ञान होजाता है तब न तो कोई संशयका कुज्ञान है न विपरीतपनेका है और न विभ्रम या अनध्यवसाय या ज्ञानमें आलस्यका कुज्ञान है। इन तीन ज्ञानके दोषों से रहित सम्यग्ज्ञान यथार्थ ज्ञान है। शुद्ध सम्यग्दर्शन सहित चारित्र ही सम्यग्वारित्र है । विना आत्मश्रद्धा प्राप्त हुए अनेक शास्त्रोंका ज्ञान रखते हुए भी मिथ्याज्ञान कहलाता है। इसी तरह आत्मानुभवके विना सर्व ही मुनि व श्रावकका व्यवहार चारित्र है, वह मिथ्या चारित्र कहलाता है। मोक्षमार्ग रत्नत्रय स्वरूप है। जहां सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन व सम्यक् चारित्रकी एकता प्राप्त होजाती है यही अभेद या निर्विकल्प अनुभव ही वास्तव में मोक्षमार्ग है । सम्यक्ककी प्राप्तिके समय सम्यग्ज्ञान व स्वरूपाचरण चारित्र भी होता ही है । फिर आगे आत्मानुभव के प्रतापसे चारित्र बढते २ यथाख्यात चारित्र होजाता है । तथा ज्ञान बढते २ केवलज्ञान होजाता है । सम्यक्त विना सब शून्य ही है ।
श्लोक-सभ्यक्तं संयमं दृष्टं, सम्यकतप सार्द्धयं ।
परिण प्रमाणं शुद्धं, अशुद्धं सर्व तिक्तयं ॥ ३७ ॥
अन्वयार्थ – ( सम्यक्तं संयमं ) सम्यकूदर्शन सहित संयम सम्यग्संयम ( दृष्टं ) देखा गया है। (सार्द्धंयं) उसी के साथ तप ( सम्यग्तप ) सम्यक्तप है । तब ही ( सर्व अशुद्धं ) सर्व अशुद्ध ज्ञानको (विक्तयं ) छोडकर (शुद्धं प्रमाण ) शुद्ध प्रमाणरूप ज्ञान (परिणे) परिणमन करता है ।
विशेषार्थ - संघम सम्यक्तकी उपस्थिति में ही सम्यक्संयम नाम पाता है। यदि सम्यग्दर्शन न हो और संयम नियम व्रत प्रतिज्ञा कितनी भी की जावे सब मिथ्या संयम नाम पाता है ।
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श्रावकाचार
॥ ४५ ॥
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वारणतरण
॥ ४५ ॥
किंतु यदि संयम आचरण करते हुए सम्यग्दर्शन होगा तो वह संयम सम्यक् संगम होगा । इसी तरह १२ प्रकारका तप ध्यानादि तब हो अपने नामको रखते हैं जब उनके साथ सम्यग्दर्शन हो । प्रमाण नयका ज्ञान यदि मिथ्यादर्शन सहित है, आत्माकी यथार्थ श्रद्धा रहित है तो वह कुज्ञान या अशुद्ध ज्ञान है परंतु सम्यग्दर्शन के साथ वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। मिध्यादृष्टि सम्यग्दृष्टि दोनों मतिश्रुतज्ञान से कदाचित्र पदार्थोंको एकसा जानते हैं तौभी मिथ्या अभिप्राय जो संसार की रोचकता उस सहित सर्व ज्ञान कुज्ञान है । परंतु सम्यक् अभिप्राय सहित सर्व ज्ञान सुज्ञान है । श्लोक -- षट्कर्म शुद्ध सम्यक्तं, सभ्यक्तं अर्थ शाश्वतं ।
सम्यकू शुद्धं ध्रुवं सार्द्ध, सम्यक्तं प्रति पूर्नितं ॥ ३८ ॥
अन्वयार्थ - ( शुद्ध ) शुद्ध भावनाके साथ ( षटकर्म ) मुनि या श्रावकके छः कर्म ( सम्यक्तं सार्द्धं ) सम्यग्दर्शन सहित ही होते है । (शाश्वतं ) अविनाशी ( अर्थ ) पदार्थ (सम्यक्तं सम्यग्दर्शन है । (सम्यक् ) सम्यक्त (शुद्ध) शुद्ध है (ध्रुवं) व ध्रुव है (सम्यक्तं ) यही सम्यक्त (प्रति पूर्नितं) संपूर्ण व यथार्थ सम्यक्त है । विशेषार्थहां बताया है कि निश्चय सम्यग्दर्शन आत्माका एक शुद्ध अविनाशी गुण है इस भावको लिये हुए ही सम्यग्दर्शन परिपूर्ण है । इस निश्चय सम्यक्तमें शुद्ध आत्माकी ओर लक्ष्य रहता है । इस लक्ष्य में ही शुद्ध भावना होती है । सम्पक्त रहित सर्व भावना अशुद्ध कहलाती है। जहां शुद्ध आत्मतत्वकी भावना है वहीं मुनि या श्रावक के नित्य छः कर्म यथार्थ कहे जाते हैं। उन कम करनेका फल मुनि या श्रावक किसी अशुद्ध लौकिक लाभको नहीं चाहता है । उसके यही भावना रहती है कि इनके द्वारा शुद्ध आत्मा में ध्यान चला जावे । मुनियोंके छः नित्यकर्म हैं । १-तिक्रमण-पिछले दोषों को दूर करनेकी सच्ची भावना, २- प्रत्याख्यान - आगामी दोषों से बचनेकी भावना, ३-संस्तुति- तीर्थंकरादिकी स्तुति करना, ४ - वन्दना- किसी एककी मुख्यता करके नमस्कार करना, ५- सामाधिक-समताभाव पानेको ध्यान करना, ६- कायोत्सर्ग - शरीरसे ममत्व त्यागना । श्रावकके छः कर्म हैं- देवपूजा, गुरुभक्ति, शास्त्र स्वाध्याय, तप या सामायिक, संयम, और दान । तात्पर्य यह है कि मुनि हो या आवक सबको अपने २ नित्य कर्म मात्र शुद्ध आत्माकी भावना हेतुसे ही करने चाहिये। तबही वे सम्यक हैं।
श्रावका
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॥ ४५ ॥
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भरणतरण
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श्रावकाचार ___श्लोक-सम्यक् देव उपासते, रागद्वेष विमुक्तयं ।
अरूपं शाश्वतं शुद्धं, स्वयं आनंदरूपयं ॥ ३९ ॥ अन्वयार्थ—सम्यदृष्टी जीव निश्चयसे (रागद्वेष विमुक्तयं ) रागवेषादि भावोंसे रहित परम वीत. राग ( अरूपं) वर्णादि रहित अमूर्तीक (शाश्वतं) अविनाशी (शुद्ध) कर्मादि मल रहित शुद्ध (आनंदरूप) * आनंदरूप (स्वयं) जो आप स्वयं है ऐसे (सम्यक् देव) यथार्थ परमात्माकी (उपासते) सेवा करता है।
विशेषार्थ-यहां बताया है कि यद्यपि सम्यक्दृष्टी जीव व्यवहार नयसे अरहंत सिडको पूज्यनीय देव मानता है तथापि निश्चयसे अपने आपको देव मानकर उसीकी आराधना करता है। यह आत्मा जो शरीरमें वस रहा है वह निश्चयसे भावकर्म रागद्वेषादि, द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि आठ कर्म, नोकर्म शरीरादिसे भिन्न है। स्पर्श, रस, गंध व वर्ण रहित अमूर्तीक है। अनादिसे अनंतकाल रहनेवाला अविनाशी है तथा सदा ही आनन्दरूप है। वास्तवमें जो अपने आत्माको यथार्थ जैसाका तैसा द्रव्य रूप, सर्व परद्रव्योंसे व परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले भावोंसे मिन्न अनुभव करता है वही सम्यग्दृष्टि है।
श्लोक–देवं देवाधिदेवं च, नंत चतुष्टे संजुतं ।
___ॐकारं च वेदंते, तिष्ठतं शाश्वतं ध्रुवं ॥ ४०॥ अन्वयार्थ-(च) तथा ( देवाधिदेवं ) देवोंका देव जो ( नंत चतुष्टे समुतं ) अनंत चतुष्टय सहित है ४ (शाश्वतं ) अविनाशी है (ध्रुवं ) द्रव्य अपेक्षा एकरूप है ( ॐकारं च तिष्ठतं ) जो ॐशब्दमें भी विरा-४ जित है ऐसे (देवं ) परमात्माको (वेदंते) अनुभव करता है।
विशेषार्थ-सम्यक्ती यह भी अनुभव करता है कि ॐ शब्दमें जो अरईत, सिद्ध, आचार्य, ४ * उपाध्याय, साधु ये पांच परमेष्ठी हैं उनके भीतर भी निश्चयसे वही शुद्धात्मा है जैसा कि मेरे
शरीरके भीतर शुद्धात्मा है। द्रव्य दृष्टि करके देखा जावे तो कोई भेद नहीं है। द्रव्यार्थिक नयसे सदा ही एकरूप टंकोत्कीर्ण रहनेवाला है। सदा ही उसमें अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य ये चार अनंत चतुष्टय विराजमान हैं। शुद्ध निश्चयनयकी मुख्यतासे देखने
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हुए सर्व ही आत्माएं सर्व ही अवस्थाओं में एक शुद्ध निर्विकार देखने में आती हैं। इस दृष्टिमें नर श्रावकार वारणतरण
नारक तिर्यच देवके सबभेद, संसारी सिरके भेद, गुणस्थान व मार्गणाके सष भेद लोप होजाते हैं। ॥ ७॥ यही दृष्टि समताभाव जागृत करती है। शत्रु मित्र. स्वामी सेवक, पूज्य पूजक, ध्याता ध्येयका
विकल्प मिटाती है। वीतरागताका आदर्श जमाती है। सर्व क्लेशोंका शासन करती है।
योगसारमें योगेन्द्राचार्य कहते हैं
सुद्धप्पा अरु निणवरहं भेउ म किमपि वियाणि । मोक्खह कारण माइया णिच्छह एउ वियाणि ॥२०॥
भावार्थ-शुद्ध आत्मामें और जिनेन्द्र में भेद कुछ भी न जानो।हे योगी निश्चयनयसे यही भाव मोक्षका कारण है ऐसा समझ ।
श्लोक-ॐकारस्य ऊर्धस्य, अर्घ सद्भाव तिष्ठते ।
ॐवंद्वियं श्रिय वंदे, त्रिविधिअथ च संजुतं ॥४१॥ अन्वयार्थ (ऊर्धस्य ) श्रेष्ठ (ॐकाराय) ॐमंत्रके भीतर (अर्थ) श्रेष्ठ (सद्भाव) सत्तारूप पदार्थ अशुद्ध आत्मा (तिष्ठते) विराजमान है। वह (ॐ हियं प्रियं) ॐ श्री (त्रिविधि अर्थ व संजुतं) इनके तीन प्रकार भावोंको लिये हुए हैं उसको (वंदे ) नमस्कार करता हूं।
विशेषार्थ-तीन लोकमें परम पद अरहतादि पांच ही हैं जिनको सर्व इन्द्रादि चक्रवर्ती आदि पुन: पुन: नमस्कार करते हैं उनहीका वाचक णमोकार मंत्र है व उनहीका वाचक यह ७ मंत्र है। इसलिये यह ॐ महामंत्र है, सर्व मंत्रों में श्रेष्ठ है। इसके भीतर जो पांच परमेष्ठी गर्भित हैं उन पांचोहीके भीतर परम पदार्थ शुद्वात्मा शोभायमान होरहा है। ॐ का अर्थ जैसे इस पदार्थ में गभित है वैसे ही ह्रीं व श्री का भी है।हीं से चौवीस तीर्थंकरोंका संकेत है, इनके भीतर भी
वही शुद्धात्मा है तथा श्री से अनंतचतुष्टय लक्षमीका बोध होता है। वह लक्ष्मी इस ही शुद्धात्मामें र विद्यमान है । इसलिये मैं ॐ मंत्रसे जानने योग्य अपने ही भीतर विराजित परम पदार्थ सत्तारूप
शुद्ध आत्माको बन्दना करता अर्थात उसीमें तन्मय होकर अनुभव करता हूं। यही भाव वन्दना परम मंगलरूप व मोक्षहेतु है।
॥४७॥
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वारणतरण
॥४८॥
श्रावकाचार श्लोक-देवं च ज्ञानरूपेण, परमेष्ठी च] संजुतं ।
सो अहं देहमध्येषु, यो जानाति स पंडितः ॥ ४२ ॥ अन्वयार्थ (ज्ञानरूपेण) परम सहज स्वाभाविक शुद्ध ज्ञानकी अपेक्षा (परमेष्ठी , संजुत) अरहतादि पाच परमेष्ठी सहित (च देवं) जो कोई परमात्मा देव है (सो) वही ( अई) मैं (देहमध्येषु ) इस अपने ॐ शरीरके मध्य में तिष्ठता हूँ। (यो) जो कोई सम्पदृष्टी (जानाति ) ऐसा अनुभव करता है (स) वही ४ (पंडितः ) पंडित है।
विशेषार्थ—पंडा अर्थात् प्रज्ञा या विवेकबुद्धि जिसके हो वह पंडित कहलाता है । जो पंडित ५ र है वही सम्यग्दृष्टि है, जो सम्परदृष्टी है वही पंडित है, अन्य कोई व्याकरण न्याय साहित्य छंद.
अलंकारका ज्ञाता महावादी शास्त्रज्ञ पंडित नहीं है। यदि धुरंधर शास्त्रज्ञ होते हुए वह सम्यग्दृष्टी है,आत्मज्ञानी है तो वह सच्चा पंडित है। यदि अनात्मानुभवी है तो वह शास्त्रज्ञ है तो भी अपंडित है। सम्यग्दृष्टीकी दृष्टि द्रव्यकी ओर मुख्यतासे रहती है वह जब स्वाभाविक ज्ञान आदि गुणोंकी अपेक्षा आत्मा पदार्थका अवलोकन करता है तो उसे अरहंत सिर आचार्य उपाध्याय व साधु इन पांच परमेष्ठियोंके भीतर जो शुखात्मा दिखलाई पड़ता है वैसा ही शुखात्मा उसे अपने इस शरीरमें विराजित दिखलाई पड़ता है, जो शरीरमें तिष्ठे हुए अपने आत्माको ही द्रव्य दृष्टिसे
परमात्मा रूप देखता है इसमें और पांच परमेष्ठीकी आत्माओंमें कोई भेद नहीं देखता है। र समानताका भाव पाता है वही यथार्थ ज्ञानी सम्यग्दृष्टी मोक्षमार्गी है।
योगसारमें कहते हैं- जो परमप्पा सो नि दउं को हउं सो परमप्पु । इउ नाणेविणु नोइमा अण्ण न करहु वियप्पु ॥ २२ ॥
भाषार्थ-जो परमात्मा है सो ही मैं ई, जो मैं हूँ सोही परमात्मा है ऐसा समझकर हे योगी! और दूसरा कोई भेद विकल्प त न कर । वास्तव में सोई मंत्रका भाव इस श्लोकमें बताया गया है। साहका जप व सोहका ध्यान परमात्मा और देहमें विराजित आत्मामें एकता करा देता है और शुद्ध साम्यभावमें लेजाता है।
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लोक-कर्म अष्ट विनिर्मुक्तं, मुक्तिस्थाने य तिष्ठते ।
___ सो अहं देहमध्येषु, यो जानाति सः पंडितः॥४३॥ अन्वयार्थ (बष्टकर्म विनिर्मुक्कं) आठों कोसे रहित सिद्ध भगवान (मुक्तिस्थाने य) सिरक्षेत्रमें (तिष्ठते) विराजते हैं (सो) वही ( अहं) मैं (देहमध्येषु ) इस शरीरके बीच में है (यो) जो तत्वज्ञानी (मानाति) ऐसा पहचानता है (सः) वही (पंडितः) पंडित है।
विशेषार्थ-व्यार्षिक नयसे देखा जाये तो सर्व ही आत्माएं समान गुणधारी शुद्ध हैं। पचपि प्रदेशोंकी अपेक्षा या व्यक्तिपनेकी अपेक्षा हरएक आस्मद्रव्यकी सत्ता भिन्न रूप है तथापि गुण व स्वभावोंकी अपेक्षा सब एक रूप हैं। इसी दृष्टिसे जब ज्ञानी देखता है तो सिख भगवानमें और अपने शरीरमें विराजित भात्मामें कोई भेद नहीं देखता है। सिर भगवानका आत्ता ज्ञानावरणादि आठ कोके बन्धनसे रहित शुद्ध है वैसे ही यह आरमा जो कर्म संयोगकी अपेक्षा संसारी झलकता है वही द्रव्य दृष्टिसे कमासे भिन्न सिद्धवत् शुद्ध प्रतीतिमें आता है। सिद्ध भगवानका निवास लोकाकाशके अग्रभागमें तनुवातवलयके भतिर है वहां वे पुरुषाक र चैतन्यमई अपने आपमें मगन परमगम्भीर आत्मरस वेदन करते हुए परम कृतकृत्य समदर्शी विराजमान हैं । इस अपने आत्माका निवास उस आकाशमें है जो इस शरीरसेव्याप्त है। सिद्धक्षेत्र भी आकाश है। शरीरका क्षेत्र भीआकाश है। इस कारण यदि शरीरको ही शुद्धात्माका सिद्धक्षेत्र कहें तो कोई आपत्ति नहीं स्वरूपसे वह आत्मा जैसा शरीरमें है वैसासिद्धक्षेत्रमें है। शुद्ध सुवर्णकी डली रतन-पिटारीमें रक्खी हुई जैसी है वैसे ही वह कीचड़ में सनी हुई है। वह कीचड़में पडी हुई सुवर्णपनेको कभी खोती नहीं। वैसे यह आत्माराम कार्मण, तैजस, औदारिकादि शरीरोंके भीतर रहता हुआ भी अपने आत्मद्रव्यके स्वभावको कभी त्यागता नहीं है। इस तरह जो सिद्धवत् अपने आत्माको अपनी देहके भीतर अनुभव करता है वही पंडित है। अन्य कोई मात्र शब्दोंका ज्ञाता पंडित नहीं है किंतु जड़ मुर्ख है। योगसारमें कहते हैं
सत्य पढ़तह ते विभड अप्पाजे ण मुणंति । तिह कारण ऐ नीव फुडु ण हु णिम्वाण कहति ॥ १२॥
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तारणतरण
॥ ५० ॥
भावार्थ - जो कोई आत्माको नहीं पहचानते हैं वे शास्त्रोंको पढ़ते हुए भी जड़ हैं। इसी कारणसे वे शास्त्रज्ञानी ग्यारह अंग नों पूर्वके पाठी तक भी निर्वाणको नहीं पासक्ते हैं । श्लोक - परमानंद संदृष्टाः, मुक्तिस्थाने य तिष्ठते । सो अहं देहमध्येषु सर्वज्ञं शाश्वतं ध्रुवं ॥ ४४ ॥
अन्वयार्थ — (परमानन्द संदृष्टाः ) परम आनन्दको अनुभव करनेवाले सिद्ध भगवान (मुक्तिस्थाने य ) मोक्षक्षेत्र में (तिष्टते) बिराजमान है (सो) उसीके समान (अहं) मैं (सर्वज्ञ) सर्वका जाननेवाला (शाश्वतं अविनाशी (धुत्रं ) अपने स्वभावको स्थिर रखनेवाला ( देहमध्येषु ) अपनी देहके मध्य में हूँ ।
विशेषार्थ – सिद्ध भगवान निरंतर परमानन्दका अनुभव करते रहते हैं और सिडालपमें बिरा-जमान हैं उसी तरह मेरा यह आत्मा यद्यपि कर्मों के बन्धन के कारण पर्याय संसारी रख रहा है और पराधीन है तथापि जब मैं इस अपने आत्माको भी शुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टिसे देखता हूं तो इसमें व सिद्धमें कोई अन्तर नहीं पाता हूं । सिद्ध भी सर्वके ज्ञाता दृष्टा हैं, मैं भी सर्वका ज्ञाता दृष्टा हूं । सिद्ध भी अविनाशी है मैं भी अविनाशी हूं। सिद्ध भी ध्रुव है मैं भी ध्रुव हूं । सम्पदृष्टी ज्ञानी अपने आत्मामें सर्व ही आत्मीक गुणों का विलास देखकर परम संतोष पारंदा है और पुन, पुनः देहके भीतर ही देखकर अपने आत्मा देवका आराधन करता है ।
श्लोक - दर्शनज्ञान संयुक्तं, चरणं वीर्य अनन्त यं ।
अमृत ज्ञानसंशुद्धं, देहे देवलि तिष्टते ॥ ४५ ॥
अन्वयार्थ - ( दर्शनज्ञान संयुक्त ) अनन्तदर्शन अनन्तज्ञान सहित (चरणं वीर्य अनन्त यं ) अनंन्त वीर्य तथा वीतराग चारित्र सहित ( अमूर्त ) अमूर्तीक (ज्ञान) ज्ञानाकार (संशुद्धं परमं शुद्ध देव ( देहे देवलि ) देहरूपी मंदिर में (तिष्टते) विराजमान हैं ।
विशेषार्थ - इस शरीररूपी मंदिर के भीतर जो आत्मा है वही निश्चय से परमात्मा देव है । उसमें अनंतदर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्य, सुख आदि सर्व गुण को सिद्धों में प्रगट है मो सब विराजमान हैं । यह परमात्मा देव यद्यपि कर्मोंकी वर्गणाओंसे हरएक प्रदेशमें छाए हुए होने के कारण मूर्तीकसा होरहा
श्राक्काचार
॥ ५० ॥
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वारणवरण
हैतथापि स्वभावसे देखा जाय तो इसके साथ पौलिक कोका कोई सम्बन्ध नहीं, यह तो रूप, श्रावकाचार रस, गंध, स्पर्श रहित अमूर्तीक है। यह शरीरके आकार परत ज्ञानाकार है। मूर्तीके आकार रहित है। ज्ञानी महात्मा अपने ही शरीरको मंदिर मानकर उसमें परमात्माकी परम शांत ज्ञानमई स्फटिक मूर्तिवत् आकृतिका दर्शन करके परम संतोषित होते हैं। उसकी भावना भाते भाते कभी उसी स्वरूपमें एकाग्र होजाते हैं और स्वानुभवका आनन्द लेते हैं। यही मोक्षका उपाय है।
पोगसारमें कहते हैं
अप्पसरूवह जो रमह छंडाव सहुवबहारू । सो सम्माइट्ठी हवा लहु पाव भापारु ॥ ॥
भावार्थ-जो सर्व व्यवहार छोड़कर अपने आपके शुद्ध स्वरूपमें रमण करता है वही सम्यग्दृष्टी y जीव शीघ्र ही संसारसे पार होजाता है।
श्ले.फ-अहेतदेव तिष्टते, ह्रींकारेन शाश्वतं ।
ॐवं ऊर्ध सद्भावं, निर्वानं शाश्वतं पदं ॥ ४६ ॥ __ अन्वयार्थ-(हकारेन ) ही इस मंत्र पदमें ( शाश्वतं ) सदा ही (भरहन्तदेव) अरहन्तदेव चौवीस तीर्थकर स्वरूप (तिष्टते) विराजमान हैं। (ॐ)ॐ इस मंत्र पदके भीतर (ऊर्षे) श्रेष्ठ (सदभाव) सत्तारूप आत्मा पदार्थ (निर्वानं) निर्वाण स्वरूप या सिद्ध स्वरूप (शाश्वत पर्द) अविनाशी पद धारी विराजमान हैं।
विशेषार्थ-यहां फिर भी यह स्मरण कराया है कि ॐहमंत्र पदों का ध्यान आत्माकीभावनाके लिये उपयोगी है। पहिले कहा जांचुका है कि ही में चौधीस तीर्थकर व ॐ में अरहतादि पांचो परमेष्ठी गर्भित हैं। इन सबमें यदि निश्चयसे देखा जाये तो एक अविनाशी मोक्षपदका धारी सत्तारूप पदार्थ शुद्ध आत्मा विराजमान है। तात्पर्य यह है कि इन मंत्र पदोंका आश्रय लेकर हमको सर्व विकार रहित शुद्ध आस्माका ही चिंतवन, मनन व अनुभव करना चाहिये। निर्वाण कोई पर वस्तु नहीं है जिसे कहीं प्राप्त करना है, निर्वाण न कोई पर क्षेत्र है जहां कहीं इसे जाना है। निर्वाण तो इस अपने भास्माका ही स्वयं स्वभाव है व आत्मा ही निर्वाणक्षेत्र है। व्यवहारसे
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सारणवरण
॥ ५१ ॥
→DAY
सि परमात्माको निर्वाण स्वरूप कहते हैं व सिद्धक्षेत्रको निर्वाणपुर कहते हैं । परंतु निश्चयसे देखा जावे तो यह आत्मा आप ही निर्वाण स्वभाव है व आप हो निर्वाणका क्षेत्र है। ज्ञानी सम्पतीको सर्व संकल्प विकल्प त्यागकर निश्चित हो भीतर प्रवेश करके आप अपने ही आत्माका पवित्र दर्शन करके सच्ची भक्ति में लगे रहना चाहिये। तो शीघ्र ही वह सम्पती निर्वाणपुर में चला जाता है।
आरमा तीन भेद
श्लोक - आत्मा त्रिविधिं प्रोक्तं, पर अंतर्बहिरप्ययं ।
परिणामजं च तिष्ठते, तस्यास्ति गुणसंयुतं ॥ ४७ ॥ आत्मा परमात्मतुल्यं च विकरूपं यन्न क्रीयते ।
शुद्धभाव थिरीभूतं, आत्मानं परमात्मनं ॥ ४८ ॥
अन्वयार्थ – ( आत्मा ) आत्मा (त्रिवि) तीन प्रकार (प्रोकं) सिद्धांत में कहा गया है (परु) परमात्मा (अंतर) अंतरात्मा (बहिरण्यम ) बहिरश्मा । ये तीनों भेद ( परिणाममं ) परिणमन या पर्यायोंके द्वारा (तिष्ठते) होते हैं । (तस्य ) इनमें से जो (गुणसंयुतं ) सर्व आत्मीक गुणों से पूर्ण है, जहां (आत्मा च परमात्मा) आत्मा और परमात्मा (तुल्यं ) शुद्ध निश्चय नयसे बराबर हैं (यत् विकर) ऐसा विवार या मेद (न) नहीं (क्रियते ) किया जाता है। (शुद्ध भाव ) शुद्ध स्वभाव में (थिरीभूतं ) थिरता व मग्नताको प्राप्त ( आत्मानं ) आत्माको (परमात्मनं ) परमात्मा कहते हैं ।
विशेषार्थ- शुद्ध निश्वयनयसे या शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टिसे यदि देखा जावे तो सर्व ई। सिद्ध पा संसारी आत्माएं एक समान शुद्ध ही देखने में आएगी । परंतु यदि भिन्न २ अवस्था जो आत्मा के साथ संयोग प्राप्त कमोंके निमित्तसे हो रही है उसकी अपेक्षा से देखा जाये तो इस अशुद्ध निश्वयः नय अथवा अव्यवहार नय या पर्यायार्थिक नयसे जगत के भीतर आत्माकी तीन अवस्थाएं दिखलाई पड़ेंगी। परमात्मा, अंतरात्मा और बहिरात्मा शुद्ध सिद्ध कृतकृत्य आत्माको परमात्मा कहते हैं। जो अंतरंग में आत्माको आत्मा, आत्मा के साथ संयोग प्राप्त द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मको अनारमा
॥ ५१
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श्रावकाचाव
कारणवरण
अनुभव करता है ऐसा सम्यग्दृष्टी जीव तत्वज्ञानी अंतरात्मा है। जो आत्मा और अनास्माकी यथार्थ भेद बुद्धिसे रहित है । संसारके विषयों में तन्मय है। शुद्ध आत्माके अनुभवसे शून्य है। आस्माके स्वभावसे विपरीत किंचित् भी विभावको पा परमाणु मात्र भी पर वस्तुको आत्माकी जो मानता है वह बहिरात्मा अज्ञानी मियादृष्टी है। चौदह गुणस्थानोंकी अपेक्षा विचार किया जावे तो तेरहवें चौदहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली और अयोगकेवली अरहंत भगवान परमात्मा हैं। अविरत सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थानसे लेकर क्षीण मोह बारह गुणस्थान पर्यत अंतरात्मा हैं। इनमेंसे अविरत सम्यग्दृष्टी जघन्य अंतरात्मा हैं, देशविरत व प्रमत्तविरत दो गुणस्थान धारी मध्यम अंतरात्मा हैं, सातवेंसे बारहवें तक शुद्धोपयोगी उत्कृष्ट अंतरात्मा हैं। गुणस्थानोंसे बाहर श्री सिद्धभगवान तो साक्षात् शरीरादि रहित परमात्मा हैं। आत्मामें परिणमन शक्ति है। सर्वथा कूटस्थ नित्य नहीं है। आत्मामें वैभाविक शक्ति भी है जिससे यह कर्मके उदयके निमित्तसे स्वभावसे विभावरूप परिणमन कर जाता है। जैसे जल में उष्णरूप होनेकी शक्ति है। अनिका निमित्त मिलने पर उष्णरूप परिणमन कर जाता है। निमित्त न हो तो स्वभाव में शीतल ही बना रहता है। अना. दिकालसे संसारमें संसारी आत्माएं कमों के साथ दूध पानीके समान मिली हुई चली आरही हैं। कोके उदय जनित भावोंका परिणमन होता रहता है। जहांतक मिथ्यारव कर्मका, अनंतानुबंधी
कषायका व सम्यक् मिथ्यात्वका उदय है ऐसे मिथ्यात्व, सासादन व मिश्र गुणस्थानों में शुद्ध खभा४ वमें रंचमात्र भी परिणमन नहीं है, अशुद्ध या मिश्रित भावों में परिणममन है। अतएव इन तीन
गुणस्थान वालोंको बहिरात्मा कहते हैं। जहां सम्यग्दर्शनका लाभ होगया वहां शुद्ध स्वभावमें
परिणमनकी शक्ति प्राप्त होगई परंतु चारित्र मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अंतराय ४ कर्मके उदयसे यथाख्यात चारित्र तथा केवलज्ञान प्रगट नहीं हुआ वहांतक अंतरात्मा रूप परिणमन
है। चार घातीय कमौके नाश होनेपर आत्मा भावोंकी अपेक्षा सर्वज्ञ वीतराग आनन्दमय होजाता
है तब आत्माका परमात्मा रूप यथावत् परिणमन है। इसे परमात्मारूप परिणमन कहते हैं। ॐ परमात्मा सम्पूर्ण आत्मीक गुणोंसे परिपूर्ण है। साधक अवस्थामें छठे गुणस्थान पर्यंत यह
विचार किया जाता था कि मेरा आत्मा शुख निश्चयनयसे परमात्माके तुल्य है। अब जब परमात्म
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वारणतरण
१५४ ॥
पद प्राप्त होगया तो वहां यह विकल्प बिलकुल भी नहीं रहा । निर्विकल्प वीतराग परमानन्दमय शुद्ध स्वभावमें जो स्थिर होगया है उसे ही परमात्मा कहते हैं ।
समाधिशतक में पूज्यपादस्वामी कहते हैं—
बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरान्तरः । चित्तदोषात्म विभ्रान्तिः परमात्मातिनिर्मलः ॥ ५ ॥
निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः । परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥ ६ ॥
भावार्थ - जिसकी शरीर आदि में अर्थात् सर्व आत्मा के सिवाय अन्य पदार्थोंमें या भावों में आत्मापने की भ्रांति है वह जीव बहिरात्मा है । जिसके भीतर से यह भ्रांति निकल गई है कि चित्तके दोष रागादि आत्मा हूँ अर्थात् जो कर्म सम्बन्धी रचना से आपको भिन्न अनुभव करता है वह अंतरात्मा है । जो अति पवित्र कर्म कलंक रहित आत्मा है वह परमात्मा है । परमात्मा के अनेक नाम - कर्ममल रहिन है इससे निर्मल है, सर्व कर्म रहित है इससे केवल है, परम शुद्ध स्वभावको सिद्ध कर लिया है इससे सिद्ध है, सर्व कर्मादिसे जुदा है इससे विविक्त है, आप आपका स्वामी स्वाधीन है इससे प्रभु है; कभी स्वभावसे रहित न होगा इसी से अक्षय है, उत्कृष्टादि पदमें बिराजित है इससे परमेष्ठी है, संसारी जीवों की अपेक्षा उत्कृष्ट है इससे परात्मा है या परमात्मा है । इन्द्रादिको असम्भव ऐसे अतरंग और बहिरंग परम ऐश्वर्य सहित है इससे वह ईश्वर है, आत्मा के शत्रु रागादि व कर्मबन्धको जिसने जीत लिया है। इसलिये वह जिन है । प्रयोजन यह है कि मुमुक्षु जीवको बहिरात्म बुद्धि त्यांगकर अंतरात्मा होकर परमात्माका ध्यान करना योग्य है । श्लोक-विज्ञानं यो विजानन्ते, अप्पा परपरीक्षया ।
परिचये अप्प सद्भावं, अन्तरात्मा परीक्षयेत् ॥ ४९ ॥
अन्वयार्थ - (यो ) जो कोई ( अप्पापर) आस्मा और परकी ( परीक्षया) परीक्षा करके (विज्ञानं ) दोनोंके विशेष ज्ञानको अर्थात् भेदविज्ञानको (विज्ञानन्ते ) विशेष सूक्ष्मता से जनता है। तथा तथा (अल्प सद्भावं ) आत्मा के सत्तारूप शुद्ध स्वभावका ( परिचये ) परिचय पाता है । (अंतरात्मा ) वहीं अंतरात्मा है ऐसा (परीक्षयेत् ) पहचानना चाहिये ।
श्रावकाचार
॥ ५४ ॥
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श्रावकाचार
विशेषार्थ-यहां अंतरास्माका स्वरूप बताया है। आत्मा और कर्म पुद्गले शरीरादि दूर वारणवरण
पानीकी तरह मिल रहे हैं या पानी और मिट्टीके समान एकक हो रहे हैं। लक्षणभेदसे दोनोंको भिन्न पहचानना चाहिये । आस्माका निज स्वभाव ज्ञान, दर्शन, सुख, धार्यमय अमूर्तीक पवित्र है तथा कर्म आदि पुद्गल सब मूर्तीक स्पर्श, रस,गंध, वर्णमय चेतनता रहित हैं व रागवेषादि विकार के कारण हैं। इस तरह अपनी बुद्धिसे प्रमाण ज्ञानसे व नपके द्वारा दोनोंको भिन्नर कर जो आत्मा
नहीं है सो मैं नहीं इस तरह परसे उदासीन होकर जो अपने आत्माके यथार्थ शुद्ध सरूपको ४. पहचानता है और उसीके स्वादकी रुचि प्राप्त करता है उसे अंतरात्मा जानना चाहिये।
श्लोक-बहिरप्पा पुद्गलं दृष्ट्वा , रचनं आनंद भावना ।
परपंच येन तिष्ठते, संसारे स्थितिवर्द्धनं ॥ ५० ॥ अन्वयार्थ-(बहिरप्पा ) बहिरास्मा (पुद्गलं ) पुदलको ( दृष्ट्वा ) देखकर (आनन्द भावना ) आनमकी भावनाको (रचन) रचता है (येन) इस जड़में मग्नताकी भावनासे (परपंचं) जगतका प्रपंच (तिष्ठ) बना रहता है तथा (संसारे स्थिति) संसारमें उसकी स्थिति (बर्द्धनं ) बढ़ती जाती है।
विशेषार्थ-शरीर पुद्गल है, पांच इंद्रियों के द्वारा भोगने योग्य विषय, स्त्रीका तन, भोजन, सुगंध, सुन्दर चेतन व अचेतन पदार्थ, नानाप्रकारके मनोहर गान आदि सब पुद्गल हैं। इंद्रियों के द्वारा यही पदार्थ देखने में जानने में आते हैं इनको मनोज्ञ देखकर मनमें रंजायमान होजाता है और अमनोज्ञ देखकर मनमें क्लेशित होजाता है। तब जो २ पदार्थ इस अज्ञानीको दृष्ट लगते हैं उनकी प्राप्तिके लिये और जो १ अनिष्ट लगते हैं उनसे बचनेके लिये नानाप्रकार मायाचार व आरंभ व हिंसादि पापोंमें फंसा रहता है। विषयलम्पटी होकर अन्याय सेवन करता है, अभक्षा भक्षण करता है, रागी द्वेषी देवोंकी आराधना करता है। दूसरोंको घोर कष्ट पहुंचा करके व ठग करके भी अपना स्वार्थ सिद्ध करता है, घोर पापोंमें मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति होनेसे वह दीर्घ स्थितिबाले कर्मों को * बांधता रहता है जिससे उसके संसारकी स्थिति बढती जाती है।
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॥ ५६ ॥
श्लोक-बहिरप्पा परपंचार्थ, व्यक्तंति प्रविचक्षणाः । अप्पाधर्म पयं तुल्यं, देवदेवं नमस्कृतं ॥ ५१ ॥
अन्वयार्थ ~~~( बहिरप्पा ) बहिरात्मा (परपंचार्थ) जगतके प्रपंचके कारण (पयं तुल्यं ) ! दूधके तुल्य ( अप्पा धर्म ) आत्म स्वभाव रूपी धर्मको ( देवदेवं नमस्कृतं ) जिसको देवोंके देव इन्द्रादि नमस्कार करते हैं (त्यकंति ) छोड़ बैठते हैं ।
विशेषार्थ बहिरात्मा अज्ञानी इतने मूर्ख होते हैं कि अपने हितकारी धर्मकी और पीठ देकर उसको छोड़ बैठते हैं । जैसे कोई मूर्ख पुष्टिकारक दूधको जो पीनेको मिल रहा है छोड़कर चला जा तथा काकके समान अशुद्ध मलके स्वादमें रंजायमान होजावे वैसे ही यह आत्मीक स्वभावरूप जो अभेद रत्नत्रयमई धर्म है उसकी तरफसे बेखबर रहता है । यह धर्म वह है कि जो इसको धारते हैं वा जो इसके स्वामी हैं ऐसे अरहंत सिडको व साधुओंको इन्द्रादि देव नमन करते हैं, जो समयकदृष्टी श्रावक हैं या अव्रती हैं उनकी भी भक्ति या सेवा इन्द्रादि देव करते हैं। जिस आत्मीक धर्मसे संसार के क्लेश मिट जाते हैं व आत्मा परमात्मा हो जाता है व जिससे इस जन्ममें भी सुख शांति मिलती है उसको छोड़कर मलके समान विषयोंके जालमें बहिरात्मा पड़ जाता है । उसको जगतका प्रपंच ही अच्छा लगता है । वह इंद्रियोंके भोगों में व स्त्री पुत्रादिमें व लोगों से प्रतिष्ठा पाने में व स्वार्थ सिद्ध करनेमें ही मगन रहता है। ज्ञान वैराग्यकी बात उसको विष तुल्य भासती है । संसारक विकथा उसको अमृत समान मालूम होती है ।
सुदेव कुदेवका स्वरूप ।
श्लोक - कुदेवं प्रोक्तं जैनैः, रागादिदोषसंयुतं ।
ज्ञान त्रिति संपूर्ण, ज्ञानं चैव न दिष्टते ॥ ५२ ॥
अन्वयार्थ -- ( रागादि दोष संयुतं ) जो राग द्वेष आदि दोषोंसे पूर्ण हैं ( कुज्ञान त्रिति संपूर्ण ) व तीम
श्रावका कार
॥५५.४
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॥५७॥
कुज्ञानके धारी हैं जिनमें (ज्ञानं चैव) सम्यग्ज्ञान भी (न विष्टते) नहीं दिखलाई पड़ता है उनको (जैन) जैनोने या जैनाचार्योंने (कुदेवं ) कुदवे (प्रोक्तं ) कहा है।
विशेषार्थ-वीतराग सर्वज्ञ देव अरहंत तथा सिद्ध हैं उनके सिवाय जगतकी मायामें लिप्त लोगोंने अनेक रागी देषी यक्ष, क्षेत्रपाल, चंडिका, काली, पद्मावती, भूत, पिशाच, सूर्य, चद्रमा, तारे, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवोंको देव मानके पूजना प्रारंभ कर दिया है। ये सब संसारी प्राणी हैं। इनमें प्रायः सम्यग्दर्शन नहीं है क्योंकि सम्यग्दृष्टी मरकर इनमें पैदा नहीं होता है। किसीको वहां सम्यक्त हो वा न हो। अधिकतर वे सब देव भाव मिथ्यात्वी होनेसे कुमति, कुश्रुति व कुअवधि तीन ज्ञानके धारी हैं। उनमें सम्यग्ज्ञान नहीं दिखलाई पड़ता है । जगतके प्राणी किसी वरकी इच्छासे ही इन देवोंकी स्थापना करके पूजा करते हुए अपने अनादि अगृहीत मिथ्यात्वको दद करते हैं। यदि इनमें कोई सम्यग्दृष्टी भी हो तो भी उसको साधर्मी भाई या बहनके समान सन्मान देना चाहिये । दीन होकर परमात्माके तुल्य किसी भी रागी देषी देवकी या इन्द्रकी या अहमिंद्रकी पूजा करना मिथ्यादर्शन है। श्री अमितगति आचार्य श्रावकाचारमें कुदेवोंको कहते हैं
रागवतो न सर्वज्ञा यथा प्रकृतिमानवाः । रागवतश्च ते सर्वे न सर्वज्ञास्ततः स्फुटम् ॥ ७२-४॥
वाश्लिष्टास्तेऽखिलौषैः कामकोपभयादिभिः । मायुधप्रमदाभूषा कमंडल्वादियोगतः ॥ ७॥
भावार्थ-राग सहित हैं वे सर्वज्ञ नहीं, वे संसारी मनुष्योंके समान हैं। जो कल्पित रागी देषी देव हैं वे सर्व सर्वज्ञ नहीं हैं यह प्रमट है । जो कोई आयुध, स्त्री, आभूषण, कमंडल आदि उपकरण रखते हैं वे अवश्य काम, क्रोध, भय आदि मल सहित हैं अतएव कुदेव हैं। बहिरात्मा इनकी सेवा करता रहता है और धन, पुत्र आदिकी कामनामें व्याकुल रहता है। उसे वीतराग मार्ग नहीं सुहाता। इसीसे वह वीतराग सर्वज्ञकी भक्ति कदाचित् देखादेखी करता भी है तो उतनी भक्तिसे नहीं करता है जितनी भक्ति कुदेवोंकी करता है।
श्लोक-मायामोह ममत्वस्थाः, अशुभभाव रताश्च ये ।
तत्र देवं हि जानते, यत्र रागादि संजुतं ॥ ५३ ॥
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श्रावकाचार
वारणतरण
___ अन्वयार्थ—(माया मोह ममत्वस्थाः) जो अज्ञानी बहिरात्मा मायाचार, मोह, ममत्वमें लीन हैं ५८॥
(च ये) और जो (अशुभभाव रताः) अशुभ भावों में रंजायमान हैं वे (यत्र) जिनमें ( रागादि संजुतं ) राग आदिका संयोग है (तत्र ) उनको (हि.) निश्चयसे (देव) अपना देव (जानते) जानते हैं।
विशेषार्थ-अज्ञानी मिथ्यादृष्टी जीव संसारके मोहसे व ममत्वसे पागल होकर मायाचार करनेमें तत्पर रहते हैं व हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, क्रोधादि कषायके अशुभ भावों में रंगे रहते हैं उनको वे ही देव पसंद आते हैं जो रागद्वेषसे परिपूर्ण हैं। वे उनसे अपनी मनोकामनाकी सिद्धि चाहते हैं वे उनको खूब मिठाई आदि चढ़ाते हैं। घंटों उनके सामने नाक रगड़ते हैं कि उनका काम होजावे । उनको लक्ष्मी पुत्र आदिकी आशा होती है जिस आशाको ये रागी द्वेषी देव पूर्ण कर देंगे ऐसा विश्वास उन अज्ञानी जीवोंको रहता है। इससे वे कुदेवोंकी भक्तिमें राजी रहते हैं। वीतराग सर्वज्ञ भगवानकी भक्ति में दिल नहीं लगाते हैं। वे इस बातको भूल जाते हैं कि धन, पुत्र आदिका लाभ विना पुण्य कर्मकी सहायताके नहीं होसक्ता है। कोई भी रागी देषी देव किसीको पुण्य नहीं देसक्ता । उनकी भक्ति वृथा ही मिथ्यात्वके पापमें फंसाने वाली है। प्राणियोंको लौकिक धनादिके लिये बाहरी उपाय योग्य उद्यम आदि करना चाहिये व अंतरंग उपाय पापके क्षय करनेके लिये वीतराग सर्वज्ञ देवकी भक्ति करना चाहिये।
श्लोक- आरौद्रं च सद्भावं, माया मद क्रोध संयुतं ।
करनं अशुद्ध भावस्य, कुदेवं अनृतं परं ॥ ५४ ॥ ____ अन्वयार्थ-(कुदेवं ) रागी देषी देव देवी आदि (आरौद्रं च सद्भावं) आर्तध्यान व रौद्रध्यानसे ॐ पूर्ण रहते हैं । (माया मद क्रोध संयुतं ) माया, अहंकार तथा क्रोध सहित होते हैं । (अशुद्ध भावस्य करन) * शुर भावनाको न पाकर निरंतर अशुद्ध भाव किया करते हैं। (परं अनृतं) इन कुदेवोंका पूजना४ ॐ महान मिथ्यात्व है।
विशेषार्थ-जिन देवों में मिथ्यात्व व अनन्तानवन्धी कषायका उदय है ऐसे कीव कषाय पास नासे वासित होते हैं। इष्ट देवी आदिका व अपनी विभूतिका मरते समय वियोग होनेपर बड़ा
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9 भारी मार्तध्यान करते हैं। दूसरोंके पास अधिक सम्पत्ति देखकर उनको अनिष्ट सयोग जनित ४ वारणवरण
श्रावकाचार Y आर्तध्यान होता है। बड़े देवोंके द्वारा सेवा दिये जानेपर उनका वाहन आदि बननेपर उसको मानसिक पीड़ा रूपी आर्तध्यान होता है। विषयभोगकी चाहसे जलते रहते हैं व सदा भोग चाहते हैं । इससे निदान आर्तध्यान भी होता है । अपने पास प्राप्त सम्पत्तिमें मगनता होनेसे परिग्रहानंदी रौद्रध्यान करते हैं। किसीसे पूर्वजन्मका वैर हो तो हिंसानंदी चौर्यानंदी ध्यान द्वारा उसको छिपा. कर कष्ट देना चाहते हैं। कौतुकके लिये ये व्यंतरादि असत्य व इंसीके वचनोंको कहकर मृषानंदी
ध्यान करते हैं, अन्य मानवोंको दु:खित करके सुख मानते हैं। संक्लेश भावधारी असुरकुमार देव तीसरे नरक तक जाकर नारकियोंको आपसमें लड़ाकर प्रसन्न हो हिंसामें ही ध्यान करते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ चारों कषायोंके धारी हैं। शुद्ध भावकी प्राप्ति उनको स्वप्न में भी नहीं होती. है क्योंकि जिनके निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं हैं उनको आत्म परिणमन रूप शुद्ध भाव हो नहीं सक्ता.
है।वे निरंतर रागद्वेष, मोहरूप अशुद्ध भावको ही किया करते हैं। अतएव ये कुदेव, मिथ्यादेव र हैं, उनकी आराधना मिथ्यादर्शन है । महान पापबंधका कारण है । मोक्षमार्गसे दूर रखनेवाली है। ४
श्लोक-अनन्तदोषसंयुक्तं, शुद्धीवं न दिष्टते ।
कुदेवं रौद्र आरूढं, आराधे नरयं पतं ॥ ५५ ॥ अन्वयार्थ (कुदेवं) रागीदेषी कुदेव (अनन्त दोष संयुक्त) अनन्त दोषोंको रखनेवाले हैं। वहां (शुद्ध भावं) शुद्ध भाव (न दिष्टते) नहीं दिखलाई पड़ता है वे (रौद्र आरूढं) रौद्रध्यानमें आरूढ हैं। (भाराधे ) उनकी भक्ति करनेसे ( नरयं पतं) नरकमें गिरना होगा।
विशेषार्थ-रागीदेषी देव संसारी साधारण मानवोंके समान अनंत दोषोंसे परिपूर्ण है। जिनमें मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी कषाय हो उनमें दूषित भाव अनेक प्रकारके होसक्ते हैं। वहां शुद्ध आत्मीक अनुभव रूप भाव किस तरह होसक्ता है। वे परिग्रहमें मगन हैं, रातदिन विषयों में लीन हैं। अतएव रौद्रध्यानमें आरूढ़ हैं। ऐसे कुदेवोंकी भक्ति जो करते हैं वे तीव्र लोभी होते हैं। तीन ममता होनेसे वे नर्क आयुको बांधकर नर्क चले जाते हैं। कुदेवोंकी आराधना यहां तो कुछ फल
॥५९
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बारणतरण ॥॥
श्रावसंचार देती नहीं । उल्टा पापको बंध करती है, मनको मैला बनाती है, सच्चे देवोंकी आराधनासे विमुख । रखती है, परलोकमें यह दीन हीन दशामें पटक देती है, जिससे नरक निगोद व पशु गतिके घोर दुःख सहने पड़ते हैं। जो संसारके महान कष्टोंसे बचना चाहें उनको कुदेवादिकी भक्तिन करनी चाहिये।
श्लोक-कुदेवं ये हि पूजते, वंदनाभक्ति तत्पराः।
ते नरा दुःख सह्यंते, संसारे दुःखभीरुहे ॥ ५६ ॥ अन्वयार्थ—(ये हि) जो कोई (कुदेवं) कुदेवोंको (बन्दनाभात तत्पराः) उनकी वंदना व भक्किमें लीन होकर (पूर्वते) पूजते हैं (ते नराः) वे मानव (दुःखभीरुहे) दुःख और भयको उत्पन्न करनेवाले ( संसारे) संसारमें (दुःख ) दुःखोंको (सचंते) सहन करते हैं।
विशेषार्थ-रागी, द्वेषी, देवी, देव आदिकी वंदना, भक्ति करना, शीरनी चढाना, आरती उतारना, पूजा करनी, आदि सब क्रिया करने वालेके अनंतानुबंधी कषायके कारण तीन पापका बंध होता है। एकेंद्रियादि, कीटादि, पशु पर्यायमें, दीन हीन मानवमें, दीन देवों में, या दुःखभाजन नरकके जीवों में उत्पन्न होनेके योग्य पापकर्मका बन्ध होजाता है। दुर्गतिमें जाकर महान् कष्ट भोगना पड़ता है। संसार तो क्लेश और भयका भरा हुआ है। ये अज्ञानी प्राणी जय उसीमें तन्मय हैं तब इसे दुःख ही दुख मिलें इसमें क्या आश्चर्य है। मिथ्यात्वके फलसे ही नीच अवस्था होती है। अतएव जो इस भयानक दु:खी समुद्र में क्लेश उठाना नहीं चाहते हैं किंतु सुख शांति पाना चाहते हैं उनको उचित है कि वे भूलकर भी रागी बेषी देवोंकी भक्ति न करें।
श्लोक-कुदेवं ये हि मानते, कुस्थानं येऽपि जायते ।
ते नरा भयभीतस्थाः , संसारे दुःखदारुणे ॥ ५७ ॥ अन्वयार्थ (ये हि) जो कोई (कुदेव) रागी देषी देवोंको (मानंते) मानते हैं। (येऽपि) जो कोई (कुस्थानं ) कुदेवोंके स्थानों में-मंदिर मठ आदिकोंमें (जायते) भक्तिके लिये जाते हैं या संगति करते हैं (ते नरा) मानव ( दुःखदारुणे) अत्यन्त दु:खमई (संसारे) संसारमें (भयभीतस्थाः) भयभीत रहते हैं।
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धारणतरण
॥ ५१ ॥
विशेषार्थ - कुदेवोंकी भक्ति श्रद्धापूर्वक करना या श्रद्धा के बिना भी देखादेखी करना या उन कृदेवोंकी भक्ति योग्य स्थानमें जाकर बैठना-संगति करना परिणामों में मिध्यास्वको दृढ़ करनेवाला है तथा निर्विकल्प आत्मसमाधि मई रत्नत्रय धर्मसे व परम वैराग्यमय मोक्षमार्ग से दूर रखनेवाला है, संसारके मोह में पटकने वाला है, तीव्र धनादि परिग्रहसे राग बढ़ाकर तीन पापका बन्ध करानेवाला है, अतएव जो बहिरात्मा अज्ञानी मानव ऐसी मूढ़ता करते हैं वे इस बार गतिमई अनेक शारीरिक व मानसिक दुःखोंसे भरे हुए संसार में सदा भयको पाते हैं। उनको सदा हो मरण भय, रोग भय, जरा भय, परलोक भय आदि अनेक प्रकार भय रहते हैं। वे पर्याय बुद्धि शरीर में आपा मानने वाले मत कदाचित् शरीर छूट जावे, बिगड़ जावे, धन चला जावें, स्त्री कहीं न मर जावे, कहीं पुत्रका वियोग न होजावे, कहीं रोग न होजावे, कहीं अपमान न होजावे, कहीं समाज के लोग अप्रसन्न न होजाबे, कहीं राजा रुष्ट न होजावे, कहीं अकस्मात न आजावे इत्यादि भयसे आकुलव्याकुल रहते हुए जीवन बिताते हैं ।
श्लोक - मिथ्यादेवं च प्रोक्तं च, ज्ञानं कुज्ञान दृष्टते ।
दुर्बुद्धिः मुक्तिमार्गस्य, विश्वासं नस्यं पतं ॥ ५८ ॥
अन्वयार्थ – ( मिथ्यादेवं च ) मिथ्यादेवोंका या कुदेवोंका स्वरूप (प्रोक्तं च ) इसतरह कहा गया । (ज्ञानं ) इनको सुदेव रूपसे जानना (कुज्ञानं ) कुज्ञान (दृष्टते) कहा जाता । ( मुक्तिमार्गस्य ) मोक्षके मार्ग की ओर (दुर्बुद्धिः ) मिथ्यबुद्धि इनके कारण होती है (विश्वासं ) इनका विश्वास करना (नरयं पतं) नरक में डालने वाला है ।
विशेषार्थ — वीतराग सर्वज्ञका विशेषण जिनमें न प्राप्त हो वे सर्व ही पूज्यनीय देव नहीं | वे सर्व ही रागी द्वेषी संसारी है। उनका स्वरूप यहां संक्षेप में कहा गया है। इनको सुदेव समझना, पूज्य मानना, मिथ्याज्ञान है । इस ज्ञानके कारण मोक्षमार्ग की तरफ बुद्धि नहीं दौड़ती है । मोक्षमार्ग वीतराग विज्ञानमय है जिसमें अपने शुद्ध आत्माकी दृढ़ श्रद्धा तथा अतीन्द्रिय आनन्दकी ear और विषयसुखकी अश्रद्धा होना आवश्यक है । कुदेवोंकी भक्ति प्रायः संसारिक प्रयोजन
श्रावकाचार
HU
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वारणवरण
॥१२॥
ॐ वश ही की जाती है । संसारके विषय-सुखमें जो आसक्त हैं वे इन्द्रिय भोगने योग्य पदार्थोंको
स्थिर रखने के लिये व उनके साधक धनके समागमके लिये व उनके विरोधक कारणों को मिटानेके लिये निरंतर आकांक्षावान होते हैं। वे नानाप्रकारके जगतमें प्रचलित कुदेवोंको इन लौकिक विभू. ४. तिका देनेवाला मानकर पूजते हैं । उनपर दृढ़ विश्वास लाते हैं उनमें परिग्रहका तत्रि मोह होता है इसलिये वे नरकआयु पांधकर नरकमें जाकर तीव दुःख उठाते हैं।
श्लोक-सुदेवं न उपासते, क्रियते लोकमृदयं ।
कुदेवे याहि भक्तिश्च, विश्वासं नरय पतं ॥ ५९ ॥ अन्वयार्थ (सुदेवं ) जो सच्चे देव श्री वीतराग सर्वज्ञ भगवानको (न) नहीं (उपासते ) पूजते हैं व (लोकमूढयं) लोकमूढ़ता करते हैं। (कुदेवे) रागीद्वेषी देवोंमें (यांहि भक्तिश्च ) जो कुछ भी उनकी भक्ति है या (विश्वास) विश्वास है वह ( नरय पतं) नरकमें डालनेवाला है। . _ विशेषार्थ-जो अज्ञानी बहिरात्मा है उनको आत्माकी चर्चा ही नहीं रुचती है। वे विषयासक्त हैं उनको विषयवासनाका त्याग करानेका उपदेश देनेवाले अरहंत भगवानके वाक्यों में श्रद्धा नहीं आती है। इसलिये वे कभी सचे देवोंकी आराधना नहीं करते हैं। यदि देखादेखी करते भी हैं तो श्रद्धा विना वह भक्ति परिणामों में संसारसे वैराग्य व मोक्षमें प्रीतिभाव नहीं पैदा कर सकी है। वहां भी लौकिक प्रयोजनकी आकांक्षा करते हुए ही भक्ति करते हैं। उनके भावों में वीतरागताकी गध भी नहीं होती है। ऐसे मूढ प्राणी लोकमढतामें फंसे रहते हैं, इस जगतकी अवस्थाको थिर रखना चाहते हैं। स्वामय संसारको सच्चा समझ लेते हैं। क्षणिक पदार्थों की तीन वांछा करके उनकी ४ प्राप्ति कुदेवासे होंगी ऐसा मानकर कुदेवोंकी खूब भक्ति करते हैं, उनमें दृढ विश्वास रखते हैं । यही गृहीत मिथ्यात्व तीव्र पापबंध कराकर नरकमें डालनवाला है
श्लोक-अदेवं देव उक्तं च, अंधं अंधेन दृष्यते ।
' मार्गे किं प्रवेशं च, अंध कूपे पतंति ये ॥ ६०॥ अन्वयार्थ (मदेव ) जिनमें देवपना बिलकुल नहीं है ऐसोंको (देवं ) देव (उक्तं च ) कहा जाता
॥९॥
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कारणवरण
श्रावकाचार
है उनको देव मानना ऐसा है जैसे (अंध) अन्धेको (बंधन) अंधे द्वारा (दृष्यते ) मार्ग दिखाया जावे (किं) किसतरह ( मार्गे) मार्गमें (प्रवेशं च ) प्रवेश होसकेगा ! (ये) ये अदेव तो (अवकूपे) अंधे कृपमें (पति) डाल देते हैं।
विशेषार्थ-यद्यपि कुदेवोंके भीतर अदेव भी गभित हैं। तथापि जिनमें देवपना, दीप्तमानपना, व देवगतिपना विद्यमान है वे देव हैं उनमें वीतराग सर्वज्ञपना न होनेसे वे रागी द्वेषी देव हैं
अतएव देव हैं। इनके सिवाय जिनमें देवपना बिलकुल भी न हो उनको कुदेव कहते हैं जैसे १ तिर्यंचगति वाले प्राणियोंको देव मान लेना जैसे-गौको देव मानना, मोरको पूजना, हाथी घोड़ा
पूजना, पीपल पूजना, बड़ पूजना, तुलसी वृक्ष पूजना, अग्नि पूजना, समुद्र पूजना, नदी पूजना, वायुको देव मानना, आदि । तथा जो मात्र जड़ अचेतन हैं जिनसे देवपनका कुछ भी बोध नहीं होता है उनको देव मानके पूजना जैसे कलम, दावत, थैली, घरकी व दुकानकी देहली व कहीं इधर उधर पड़े हुए पत्थरको देव मानके पूजना, तलवारको पूजना, चकी चूल्हा पूजना, चाक पूजना, घड़ोंको पूजना । इत्यादि सर्वको देव मानना, ये सर्व अदेव हैं । क्योंकि इनमें न रागद्वेष सहित कुदेवोंका भाव है और न वीतराग सर्वज्ञके स्वरूपका झलकाव है; ये तो मात्र कल्पना किये हुए देव हैं। इन अदेवोंकी भक्ति करना व इनसे सुख होना मानना ऐसी ही मूढता है कि जैसे कोई अंधा हो और वह मार्ग भूल जावे तब दूसरा अंधा कहे कि चलो मैं मार्ग बता दूंगा। अंधा अंधेको ले चला । उस बतानेवाले अंधेको भी माग नहीं मालूम था। ऐसा अंधा मार्गप्रदर्शक उस दूसरे अंधेको लेजाकर आगे एक अंध कूपमें गिरा देता है व आप भी गिर जाता है। मार्गको न जाननेवाले अंधेसे अंधेको मार्ग किस तरह मिल सकता है। ये पशु व वृक्ष आदि व अचेतन जड़ आदि जिनसे सुदेव पनेका किंचित् भी बोध नहीं होता है स्वयं अज्ञानी हैं व ज्ञान रहित हैं। स्वयं संसारमें पड़े हैं, दुःख उठा रहे हैं या बिलकुल अचेतन हैं उनकी भक्ति सिवाय भक्तको अंधा रखनेके और क्या लाभ देसक्ती है। जो लोग संसाराशक्त हैं वे इन अदेवोंको भी धनकी, पुत्रकी, जयकी, निरोग होनेकी इत्यादि लालसाके वशीभूत हो पूजते हैं और अपने मिथ्यात्वको दृढ़ करते हैं।
श्री अमितगति महाराजने श्रावकाचारमें अदेवोंका कुछ स्वरूप बताया है।
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मुशर्क, देहली चुल्ली पिप्पश्चपको जलम् । देवा यैरभिदीयंते वय॑न्ते सैः परेऽत्रके ॥ १६ ॥
श्रावकाचार भावार्थ-मूसल, देहली, चूल्हा, पीपल, चंपा, जल आदिको जो देव कहते हैं जिनमें देवपनी ४ किसी भी तरह नहीं हैं उनको भी जो देव मानके पूजते हैं वे चाहे जिसको देव मानले उनसे कोई बचा नहीं है। तात्पर्य यह है कि प्रदेवोंको देव मानना बिलकुल ही अंधपना है।
श्लोक-अदेवं देव दृष्टंते, मानंते मूढ संगतः।
ते नरा तीव्रदुःखानि, नरयं तिथंच पतं ॥ ६१ ॥ अन्वयार्थ—(मूढ़संगतेः) मूढ़ मिथ्यादृष्टियोंकी संगतिसे जो (अदेवं) अदेवोंको (देवं ) देव (दृष्टते) ४ देखते हैं व (मानते) मानते हैं (ते नेरा) वे मानव (नरयं) नरकके (तियंचं) व तिर्यच गतिके (तीव.४ ४ दुःखानि) तीन दुःखोंको (पतं) पाते हैं।
विशेषार्थ-बहुधा जगतमें देखादेखी व कुल परम्परासे मूढ भक्ति चल पड़ी है। लोकमें यह मूढता है कि यदि जलको या नदीको पूजेंगे व उसमें स्नान करेंगे तो हमारे पाप धुल जांयगे । अग्निको पूजेंगे तो दुःख जल जायंगे, रुपयोंको पूजेंगे तो रुपया मिलेगा, वहीखाता पूजेंगे तो बहुत हिसाब किताब लिखा जायगा, बहुत धनका लाभ होगा, पीपल पूजेंगे पति जीवित रहेगा इत्यादि मूढ़ताके भाव जमाकर चाहे जिसको पूजना यह लोगोंकी मूढता जगतमें फैली है। देखादेखी दुसरे भी मानने लग जाते हैं। एक ब्राह्मण फूलोंको लिये हुए नदी स्नान करने जाते थे। मार्गके एक तरफ दुर्गधकारक मल पड़ा था । मलकी ओर दृष्टि न पड़े इसलिये उस ब्राह्मणने कुछ फूल पसपर डाल दिये और आगे चला गया। पीछेके आने वालोंने देखा कि ब्राह्मणने यहां फूल चढ़ाए हैं, तब उन्होंने भी उसपर फल चढ़ा दिये। फलोंका ढेर देखकर जो कोई उधर आवे वह फूल चढ़ावे और मान्यता मांगे । कुछ आदमियों में से किसीकी मान्यता उसके पुण्यके उदयसे होगई । तब वह मुढ मानने लगा कि इसी फूल देवताने हमारा काम पूर्ण किया है वह उसका और में दृढ़ बाल होजाता है और अपना अनुभव मित्रों को कहता है। उसके इस मूड उपदेशसे और भी अधिक भक्त फूल देवताके बढ़ गए । किसी समझदारने एकांतमें फूल हटाकर देखा तो
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वारणतरण
र
वहां मलको देखा और मूर्खतापर पछतावा किया। इसी दृष्टांतसे जगतमें कुदेव या अदेव पूजा चल पड़ी है। देखादेखी लोग अदेवका देव मान लेते हैं और पूजते हैं। इस अंधभक्तिसे घोर पापकर्म बांधते हैं जिससे नरकमें या तिर्यचगतिमें जाकर स्वयं नारकी होजाते हैं या पीपल, नीम, करोंदा, आमके वृक्ष होजाते हैं। जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक पृथ्वीकायिक जीव होजाते हैं। फिर पतंगादि व भेड़, बकरी आदि होकर घोर दुःखको भोग सहन करते हैं । अतएव अदेवोंकी भक्ति नहीं करनी चाहिये।
श्लोक-अनंतकाल भ्रमनं च, अदेवं देव उच्यते ।।
अनृतं अचेत दिष्टंते, दुर्गतिगमनसंजुतं ॥ ६२॥ अन्वयार्थ-जो ( अदेवं ) अदेवोंको (देव) देव (उच्यते) कहते हैं उनका (अनंतकाल) अनंतकाल तक (भ्रमनं ) संसारमें भ्रमण होगा। यह अदेव ( अनृतं ) मिथ्यारूप माने हुए देव हैं (अचेत ) सम्यरज्ञानसे रहित जड़ हैं (दिष्टंते) ऐसे दिखलाई पड़ते हैं (दुर्गतिगमनसंयुतं) इनकी भक्ति खोटी गतिमें गमनका कारण है।
विशेषाथ-जो मिथ्या उपदेशके देनेवाले ऐसा उपदेश करते हैं कि गौ, हाथी, घोड़ा, आदि पशुको देव मानके पूजो, या पीपल, वर्गत, तुलसी आदि वृक्षोंको देव मानके पूजो, या चाकू, मूसल, चूल्हा, देहली, तलवार, कलम, दावात, बही, आदि, व कंकड़ पत्थर आदिको देव मानकर पूजो वे मिथ्यात्वमें फंसानेवाले अनंत संसारके कारण हैं। जिनके देखनेसे व जिनके गुणोंसे वीतराग भाव नहीं झलकता है वे सब आकृतियें अदेवों में गर्भित हैं। जो सच्चे देवकी ओर जानेसे रोकनेवाले हैं वे अदेव हैं, उनकी भक्तिका जो उपदेश देते हैं वे मिथ्यात्वके प्रचार करनेसे अनंतकाल तक संसारमें भ्रमण करेंगे । इनमें किसी भी तरह देवपना नहीं है। इनको देव मानना मिथ्या है। इन माने हुए देवों में अर्थात् पशु आदि पीपलादिमें तो सम्यग्ज्ञान नहीं है, यद्यपि अपने योग्य मति श्रुतज्ञान है। तथा कलम, दावात, तलवार, कागज आदिमें ज्ञानकी शून्यता ही है, वे जड़ हैं। इनकी भक्ति मात्र अंध भकि है निरर्थक है, तथा पापबंध कराकर दुर्गतिमें ले जानेवाली है।
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वारणतरण
॥६६॥
श्रावकाचार श्लोक-अनृतं तु सत्य मानंते, विनाशं यत्र जायते ।
ते नरा थावरं दु:खं, इन्द्रियाधीन भाजनं ।। ६३ ॥ अन्वयार्थ-(यत्र ) जहां (विनाशं ) नाश (जायते) होता है एसे (अनृतं तु) मिथ्याको ही जो (सत्य) ॐ सच (मानते) मान बैठते हैं (ते नरा) वे मानव (थावरं ) स्थावरकाय मम्बन्धी (इन्द्रियाधीन) एक स्पर्श-४ नेन्द्रियके आधीन ( दुःखं ) क्लेशोंके (भाजनं ) पात्र होते हैं।
विशेषार्थ-मिथ्याको सच मान लेना पड़ा भारी अज्ञान है। इससे प्राणीका नाश होता है। यदि कोई रज्जूको सर्प माने तो वृथा भयभीत हो दुःख उठावे। जो संसारिक क्षणिक सुखको सुख, माने वे भी अज्ञानसे दुःख उठावे, जो मिथ्यादवोंको, कुदेवोंको तथा अदेवाको देव माने उनका इस जन्ममें भी नाश होगा, वे धर्मसे वंचित रहेंगे तथा परलोकमें दुतिके महान दुःख प्राप्त होंगे। क्योंकि अज्ञानकी सेवा अज्ञानरूप ही फलती है। इसलिये ऐसे अज्ञानी मिथ्यादृष्टी एकेंद्रिय जाति नामा कर्म बांधकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति ऐसी एकोन्द्रिय स्थावर पर्यायमें चले जाते हैं जहां, * स्पर्शनेन्द्रियके विषयके आधीन रहते हुए अत्यन्त पराधीन रहते हैं। चलने फिरनेकी शक्ति न होनेसे
वे शरदी गरमी, तेज पवन, पाला, वर्षा आदिके निमित्त मिलनेपर बहुत वेदनाको पाते ह । वृक्षाको. ४ कोई काटता है, छीलता है, नोचता है। उनको परकृत घोर वेदना सहनी पड़ती है, वे मूक हैं
अपने दुःखको कह नहीं सके। घोर अज्ञानमें जीवन विताते हैं। मिथ्यात्वकी तीव्रतासे ऐसे निमित्त में पहुंच जाते हैं कि स्थावर कायसे त्रस होना, देन्द्रियादिसे पंचेन्द्रिय होना, पंचेंद्रियसे मानव होना अत्यन्त दुर्लभ है। अतएव जो स्थावरोंके कष्टोंमें आत्माको नहीं डालना चाहते हैं उनको भूलकर
भी अदेवोंकी भक्ति नहीं करनी चाहिये । न कुदेवोंकी भक्तिसे रागद्वेषको बढ़ाना चाहिये । जो र संसारके भीतर रहते हुए साताकारी सम्बन्ध चाहते हैं उनको उचित है कि सर्वज्ञ वीतराग भगवानको छोड़कर अन्य किसी कुदेव या अदेवकी उपासना या भक्ति न करें।
श्लोक-मिथ्यादेवं अदेवं व, मिथ्यादृष्टी च मानते। मिथ्यात्वी मूढदष्टिश्च, पतितं संसार भाननं ॥ ६४ ॥
॥६ ॥
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अन्वयाम
कारणतरण ॥ ७॥
अन्वयार्थ-(मिथ्यादृष्टी च) मिथ्यादृष्टी बहिरात्मा हा (मिथ्यादेव) रागीबेषी कुदेवोंको (च) और ( अ ) अदेवोंको (मानते ) मानता है। (मिथ्यात्वी) मिथ्यादृष्टी (मूढदृष्टिश्च ) मूढताके भावों में फंसा हुआ (संसारभाजनं ) संसाररूपी कूपमें (पतितं) पड़ा रहता है।
विशेषार्थ-अनंत संसारके भ्रमणका कारण मिथ्यात्व है। जो संसारमें आसक्त है वही संसारमें भ्रमण करता है। जो शरीरका रागी है, विषय भोगोंका लोलुपी है वह रात दिन विषयकी तृष्णामें फंसा हुआ विषय सामग्री मिलने पर हर्ष व वियोगपर विषाद किया करता है। वह इंद्रिय सुखको ही अमृत समझता है। जैसे मृग मृगतृष्णामें चमकती हुई रेतको भ्रमसे जल समझकर आकुल व्याकुल होता है, प्यास बुझानेके स्थानपर अधिक बढ़ा लेता है ऐसे ही यह मूढ प्राणी आत्माधीन अतीन्द्रिय सुखको न पहचानकर इंद्रिय सुखोंमें तन्मय होता हुआ दुःख भोगता ४ हुआ तृष्णाकी दाह बढ़ा लेता है। यह मूर्ख प्राणी दुःख व आकुलता व बंधके कारण इंद्रिय सुखको सुख मानकर उसीके कारण नाना प्रकार उपाय करता है। बहुतसे मिथ्या उपाय भी करता है। उन ही मिथ्या उपायोंमें कुदेवोंका व अदेवोंका पूजन है। इस भक्तिमें अपनी शक्तिको व अपने धनको वृथा खोता है और बहुत पाप संचय करता है । नर्क निगोद, पशुगतिमें व दीन हीन मनुष्य गतिमें व कांति हीन छोटे देवों में पैदा हो अनेक शारीरिक और मानसिक दुःख उठाता है। जैसे अंधकूपमें गिर जानेसे निकलना बडा कठिन है वैसे भयानक ससारमें पतन होनेसे इससे निकलनेका साधन जो सम्यग्दर्शन है उसका पाना कठिन है, ऐसा जानकर कुदेवॉकी व अदेवोंकी भक्ति कभी नहीं करनी चाहिये।
श्लोक-सम्यक्गुरु उपासते, सम्यक्तं शाश्वतं ध्रुवं ।
लोकालोकं च तत्वार्थ, लोकितं लोकलोकितं ॥ ६५ ॥ अन्वयार्थ-ऊपर मिथ्यादेवोंका स्वरूप बताकर सचे देव श्री अरहंत सिद्ध भगवानकी भक्ति
॥
७
॥
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धारणतरण
श्रावकाचार
॥१८॥
करनेकी प्रेरणा की है।अब सच्चे गुरुका स्वरूप कहते हैं। (सम्यक् ) सच्चा (गुरु) गुरु (शाश्वतं ) अवि- नाशी (ध्रुवं ) न अन्यरूप होनेवाले सामायिक (सम्यक) सम्यग्दर्शनको (च) और (लोकलोकित) लोकमें
प्रकाशित या प्रसिद्ध परम उपयोगी (लोकालोकं) लोक व अलोक स्वरूप (तत्वार्थ) सर्व तत्वार्थको ४ (उपासते ) भलेप्रकार धारण करते हैं।
विशेषार्थ-सचा गुरु वही है जो सम्यग्दृष्टी व सम्यग्ज्ञानी हो । स्वाभाविक अविनाशी सम्यग्दर्शन आत्माका एक वचन अगोचर परिणति है या आत्माका एक विशेष गुण है। जिसके प्रगट होनेसे आत्माका अनुभव होजाता है। यह गुण सदा ही आत्मामें रहता है परंतु दर्शनमोह और चारित्रमोहके आवरणसे ढका हुआ होता है। यह कभी मिटता नहीं। ऐसे निश्चय सम्यग्दर्शनका लाभ जिनको हो वे ही सच्चे गुरु हैं तथा जो जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन सातों तत्वोंको यथार्थ जानकर श्रद्धान करने वाले हों इनका अडान व्यवहार सम्यग्दर्शन है क्योंकि सात तत्वोंके मननसे ही निश्चय सम्यक्तकी प्रगटता होती है। ये सात तत्व सर्व लोकालोकका स्वरूप बता देते हैं। लोकालोक जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल और आकाश, इन छ: द्रव्योंका समुदाय है इनका सच्चा स्वरूप ज्ञानी गुरु जानते हैं। सर्व सिद्धोंका स्वरूप पहचानते हैं। सर्व संसारी जीवोंके आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा व मोक्ष कैसे होती है इस सर्व भेदको जानते हैं। ये ही सच्चे तत्व हैं जिनको सर्वज्ञ भगवानने प्रतिपादन किया है। ये ही सर्व बुद्धिमान लौकिक जनोंको माननीय हैं। इन तत्वोंके भीतरसे सदगुरु शुद्ध आत्मतत्वको भिन्न पहचानकर उसीका अनुभव करनेवाले हैं। श्री समन्तभद्राचार्यने रत्नकरण्डमें गुरुका स्वरूप बताया है
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ भावार्थ-जो सच्चे सम्यक्ती साधु इंद्रिय विषयोंकी तृष्णासे शून्य हैं, आरंभ व धनधान्यादि * परिग्रहके त्यागी है, ज्ञानमें, आत्मध्यानमें वतप करने में लीन हैं, बड़े तपस्वी हैं वेही गुरु मानने योग्य हैं।
श्लोक-उर्घ अधो मध्यं च, ज्ञानदिष्टिं समाचरेत् ।
शुद्ध तत्त्व स्थिरी भृत्त्वा, ज्ञानेन ज्ञानलंकृतं ॥ ६६ ॥
॥६
॥
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बारणतरण
अन्वयार्थ-वे सच्चे गुरु (ऊर्ष ) ऊपर सुमेरु पर्वतके ऊपरसे सिद्ध लोक व अलोकाकाश तक
श्रावकार (अधो) नीचे सुमेरु पर्वतके नीचेसे सात नर्क व लोकांत व अलोकाकाश तक (मध्य च) तथा मध्यलोकमें जितनी सुमेरु पर्वतकी ऊंचाई है। इस तरह तीन लोक और अलोकमें (ज्ञानदृष्टिं ) सम्यग्ज्ञान या भेदज्ञानकी दृष्टिका ( समाचरेत् ) व्यवहार करते हैं। व (शुद्ध तत्त्व ) शुद्ध आत्मीक तत्त्वमें (स्थिरी भूत्वा) निश्चल रमण करते हुए (ज्ञानेन) आत्मज्ञानके द्वारा (ज्ञान) ज्ञानकी (लंकृतं ) शोभा बढ़ाते हैं ।
विशेषार्थ-यहां भी गुरु महाराजका स्वरूप घताया है। वे गुरु व्यवहार और निश्चयनयसे लोक व अलोकको ऊपर नीचे मध्यमें सर्व ओर देखने वाले हैं। व्यवहार नयसे छः द्रव्योंकी शुद्ध तथा अशुद्ध पर्यायोंको देखते हैं और निश्चय नयसे छः द्रव्योंके द्रव्य स्वभावको भिन्न २ यथार्थ रूपसे जानते हैं, उनमें अपने आत्माका यथार्थ स्वरूप पहचानते हैं। और अपने शुद्ध आत्मीक स्वभावमें स्थिर होजाते हैं। आत्माके ज्ञानसे अपने सर्व ज्ञानको सुशोभित करते हैं। अर्थात् सर्व संकल्प विकल्पको त्याग कर व सर्व ज्ञानके भेदोंको गौण कर मात्र शुद्ध आत्मीक परिणति रूप ही परिणमते हैं। स्वानुभव द्वारा आत्याका ही अद्वैत भाव पाते हैं, ऐसे गुरु मानने योग्य हैं।
श्लोक-शुद्धधर्मं च सद्भावं, शुद्ध तत्त्व प्रकाशकं ।
शुद्धात्मा चेतनारूपं, रत्नत्रयालंकृतं ॥ ६७ ॥ अन्वयार्थ (शुद्धधर्म च) तथा शुद्ध आत्मीक धर्म (सद्भाव ) सत्तारूप भाव है। शुद्ध आत्माकी परिणति विशेष है ( शुद्ध तत्त्व प्रकाशकं ) यही शुद्ध आत्माके स्वरूपको झलकानेवाला है। (शुद्धात्मा) ४ शुद्ध आत्मा (चेतनारूपं ) चेतनारूप है ( रत्नत्रयालंकृतं ) और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन रत्नत्रयोंसे विभूषित है।
विशेषार्थ-जिस शुद्ध तत्वका अनुभव श्री सद्गुरु करते हैं उसको यहां बताया है। सम्यग्दy र्शन आत्माका स्वभाव है, सम्यग्ज्ञान आत्माका स्वभाव है, सम्यक्चारित्र आत्माका स्वभाव है।
जब आत्मा राग, द्वेष, मोह त्यागकर व मन, वचन, कायके व्यापारोंसे हटकर निर्विकल्प वीतराग समाधिमें जम जाता है तब वहां ये तीनों निश्चय रत्नत्रय शोभा बढाते हैं। इस अवस्थाको ज्ञान
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KEEKKAREKKEKREEKECH
चेतना कहते हैं । अर्थात् यहां शुद्ध आत्माके स्वभावका ही स्वाद लिया जोरहा है, कर्मके स्वादका ७ लेना बंद है, यही शुद्धात्माका स्वरूप भीतर झलकता है। यही शुद्ध धर्म या निश्चय धर्म है जिसको . धारनेसे ही जीव उत्तम सुख व मोक्षको पाता है, यह धर्म पर धर्म नहीं है, आत्माका सत्तारूप भाव
है। आत्माका अमिट स्वभाव है । इस तरह जो सर्व प्रपंचजालसे उदास रहते हुए आत्मीक शुद्ध परिणतिमें रमण करते हैं वे ही श्रीगुरु हैं।
श्लोक-ज्ञानेन ज्ञानमालम्ब्यं, कुज्ञानं त्रिविधि मुक्कयं ।
___ मिथ्या माया न दिष्टते, सम्यक्तं शुद्ध दिष्टते ॥ ६८॥ अन्वयार्थ— ( ज्ञानेन ) आत्मज्ञानके द्वारा (ज्ञानं ) ज्ञानको (मालम्ब्य ) आलम्पन करते हुए (कुज्ञानं त्रिविषि) तीन कुज्ञान संशय, विमोह, विभ्रम या कुमति, कुश्रुत, कुभवधि (विमुक्तयं ) छूट जाते हैं। Vतब (मिथ्या माया) मिथ्यात्वभाव व मायाचार या संसारका ममत्व (न दिष्टते ) नहीं दिखलाई पड़ता है किन्तु (शुद्ध सम्यक्तं) शुद्ध निश्चय सम्यग्दर्शन (दिष्टते) दिखलाई पड़ता है।
विशेषार्थ-श्रीगुरुकी आत्मानुभवकी परिणतिकी महिमा बताई है कि जब आत्माको यथार्थ ज्ञान ज्ञानको ग्रहण कर लेता है अर्थात् सर्वांग शुद्ध आत्माका ही स्वाद आता है तब वहा कोई संशय या विपरीतता या अनध्यवसाय (ज्ञानमें बेपरवाही) ये तीन दोष नहीं रहते हैं न ऐसे आत्मानुभवीके भीतर कुमति, कुश्श्रुति व कुअवधि ये तीन मिथ्या ज्ञान रहते हैं। उस समय मिथ्या दर्शनका नाम तक नहीं है न वहां कोई ममता है न कोई प्रकारका मायाचार है। वहीं शुद्ध या यथार्थ सम्यग्दर्शन दिखलाई पड़ता है। तब ही वह साधु शुद्ध आत्मीक तत्वमें जमा हुआ होता है। वास्तवमें संसारसे पार करनेवाली शुद्ध आत्माकी दृष्टि है। जिसने भेद विज्ञानके द्वारा अपने आत्माको सर्व अन्य आत्माओंसे व परमात्माओंसे तथा अन्य पुद्गलादि पांच अजीव द्रव्योंसे व उन औपाधिक भावोंसे जो मोहनीय कर्मके द्वारा क्षेते हैं भिन्न जानकर अनुभव किया है, उसीने
ही शुद्ध आत्मीक भाव पानेका मंत्र पा लिया है। जो श्रीगुरु इस तरह आत्मीक शुद्ध परिणतिके र व उसीके भीतर दूसरोंको भी लगानेवाले हैं वे ही सच्चे गुरु मानने योग हैं।
M
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वारणतरण
॥ ७१ ॥
श्लोक – संसारे तारने चिंते, भव्यलोकैक तारकः ।
धर्मस्य अप्पसद्भावं, प्रोतितं जिनउक्तितं ॥ ६९ ॥
अन्वयार्थ - ( भव्य शेकैक तारकः ) भव्य जीवोंके एक मात्र अद्वितीय उपकारी संसार तारक गुरु ( संसार तारने) संसारी प्राणियोंको तारनेका उपाय ( चिंते) विचारते रहते हैं व (नि उक्तितं) श्रीजिनेंद्र भगवानने जैसा कहा है वैसा ( अप्पसदभावं ) आत्माका शुद्ध स्वभावरूप ( धर्मस्य ) धर्मका ( प्रोक्तितं ) विशेष व्याख्यान करते हैं।
विशेषार्थ —- यहां पर भी सच्चे गुरुका स्वरूप बताया है। सच्चे गुरु भव्यजीवोंको सच्चा मार्ग बतानेवाले जहाजके समान होते हैं। जैसे जहाज आप तरता है तथा दूसरोंको तारता है वैसे ही आत्मज्ञानी गुरु तरन तारन होते हैं। वे दया बुद्धि लाकर जब शुभोपयोग में होते हैं तब यही विचारते रहते हैं कि ये संसारके प्राणी संसार में मग्न होते हुए रात दिन दुःख उठा रहे हैं। जन्म मरण, जरा, रोग, शोक, वियोगसे व तृष्णाकी महान ज्वालासे पीड़ित हैं, उनका उद्धार कैसे हो । उन्होंने मिथ्यात्वरूपी मदिरा पी रक्खी है इससे उन्मत्त होकर आत्मा के बोधसे विमुख है । क्षणभंगुर जगतकी मायामें मोहित हुए मच्चे सुखका भोग नहीं पारहे हैं । आकुलता व चिंतासे तड़क रहे हैं । इनको किसतरह सम्यग्दर्शन रूपी औषधि पिलाई जाने जिससे इनकी मूर्छा दूर हो जाये । जब कभी ऐसे गुरु अवसर पाते हैं, व्यवहारधर्म के साथ साथ निश्चय धर्मका भी उपदेश करते हैं क्योंकि विना निश्चयको जाने कभी भी आत्माके शुद्ध स्वरूपका बोध नहीं होसक और बोध हुए विना सम्यक्त प्रगट नहीं होसक्का । परंतु वे श्रीगुरु श्री अईत भगवानके उपदेश के परम श्रद्धावान हैं । जैसा उन्होंने आत्माका सच्चा स्वरूप बताया है उसी तरह वे श्रीगुरु आत्माका शुद्ध स्वरूप भव्य जीवोंको समझाते हैं । अर्थात् यथार्थ धर्म बताते हैं । व्यवहारधर्म मात्र निश्चय धर्मकी प्राप्ति के 3 लिये निमित्त कारण है । धर्म तो वास्तवमें आत्माका स्वभाव है और वह अभेद रत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोग है, आत्मानुभव है, ज्ञानानंदका भोग है, सहज समाधि है, मन व वचनके अगोवर एक स्वसंवेदन ज्ञान है ।
श्रावकाचार
॥ ७१ ॥
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कारणतरण
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धन्य हैं ऐसे श्रीगुरु जो आत्मज्ञानामृतका स्वयं पान करते हुए भव्य जीवोंको भी उसी अमृतका पान करानेका मार्ग बताते हैं।
श्लोक-ज्ञानं त्रितय उत्पन्नं, ऋजु विपुलं च दिष्टते ।
मनपर्ययं च चत्वारि, केवलं शुद्ध साधकं ॥ ७० ॥ अन्वयार्थ-श्रीगुरुओंके (ज्ञानं त्रितय ) सुमति, सुश्रुत, सुअवधि येतीन सम्यग्ज्ञान (उत्पन्न) पैदा होजाते हैं। तथा (ऋजु विपुलंच) ऋजु मनापर्यय ज्ञान और विपुल मनापर्यय ज्ञान भी (दिष्टते) दिखलाई पड़ता है। उनके कभी (मनःपर्ययं च ) मनःपर्यय ज्ञानको लेकर (चत्वारि) चार ज्ञान भी दिखलाई पड़ते हैं। वे श्रीगुरु (शुद्ध केवलं) शुद्ध क्षायिक केवलज्ञानके (साधकं) साधनेवाले होते हैं।
विशेषार्थ-यहां श्रीगुरुके अनेक भेद झलका दिये हैं। इसके पहले यही बताया था कि श्रीगुरु ४ सर्व त्वोंके यथार्थ ज्ञाता सम्यग्दृष्टी, आत्मानुभवी वसत्य धर्मके उपदेश देनेवाले होते हैं। अर्थात्
मतिश्रुत सम्यग्ज्ञानके धारक होते हैं। कोई कोई परम गुरु तप व ध्यानके बलसे अवधिज्ञानको उत्पन्न करके तीन सम्यग्ज्ञानके धारी होजाते हैं। अथवा अवधिज्ञानको न पाकर ऋजुमति तथा विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानको पाकर मतिश्रुत, मनःपर्यय ऐसे तीन ज्ञानके धारी होते हैं। कोई कोई अवधि और मन:पर्यय दोनों ऋद्धियोंको पाकर चार ज्ञानके धारी होजाते हैं। श्रीगुरु अवधि ज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान पानेकी भावना नहीं करते हैं, तप द्वारा ये स्वयं झलक जाते हैं-ये तो मात्र शुद्ध केवल ज्ञानके साधक होते हैं,जो केवल ज्ञान आत्माका स्वभाव है और ज्ञानावरणीय कर्षसे ढका हुआ है। श्रीगुरुकी दृष्टि शुद्ध आत्मस्वरूप पर रहती है। शुद्धात्मानुभव ही वास्तवमें केवलज्ञानके साधक नहीं है क्योंकि ये मात्र रूपी पदार्थको ही जान सक्ते हैं।
पांच इंद्रिय और मन के द्वारा जो पदार्थोंका सीधा ज्ञान अपनी शक्ति अनुसार परोक्ष होता है उसको मतिज्ञान कहते हैं। जैसे शब्द सुनना, सुगन्ध जानना, घटको देखकर जानना इत्यादि ।
मतिज्ञानके द्वारा जामे हुए पदार्थके सम्बन्धसे दूसरे पदार्थको जानना वह श्रुतज्ञान है जैस जीव शब्द सुनकर व लिखा देखकर जीव पदार्थका बोध होना।
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श्रावकार
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादा लिये पुनलोंका व संसारी जीवोंका स्वरूप विना इंद्रिय तथा मनकी सहायताके प्रत्यक्ष जान लेना अवधिज्ञान है। जैसे किसीके पिछले अगले जन्मकी बातोंका प्रत्यक्ष देख लेना।
किसीके मन, वचन, काय द्वारा किये हुए कार्यको व विचारको जो कोई अपने मनमें चिंता वन कर रहा हो व कर चुका हो व करेगा उस सर्व विषयको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादासे आत्मा द्वारा प्रत्यक्ष जान लेना मन:पर्यय ज्ञान है। जैसे कोई साधु श्री रामचन्द्रका चरित्र चितवन कर रहा हो, मनापर्यय ज्ञानवाला साधु उस साधुके चिंतवन किये हुए विषयको मनापर्यय ज्ञानसे जानसक्ता है। इस ज्ञानका विषय परके मनोगत पदार्थ ही हैं। केवल ज्ञान शुद्ध स्वाभाविक ज्ञान है जो सर्व द्रव्योंकी सर्व पर्यायोंको एक समयमें यथार्थ प्रत्यक्ष जाम सक्ता है।
चार ज्ञान तक साथ होसक्के हैं। केवलज्ञान अकेला ही होता है। चार ज्ञानधारी तकको गुरु कहते हैं। श्री तीर्थकर भगवानके जितने गणधर होते हैं वे चार ज्ञानधारी होते हैं। श्री महावीर भगवानके ११ गणधरों में श्री गौतमस्वामी मुख्य थे, इन गणधरोंसे लेकर मात्र दो ज्ञान मतिश्रुत धारी तक जितने आरम्भ परिग्रह त्यागी, आत्मज्ञानी आत्मध्यानी, शुद्ध तत्वके अनुभव कर्ता व यथार्थ धर्मके उपदेष्टा साधु हैं वे सर्व गुरु पूजने योग्य, भक्ति करने योग्य हैं। गुरुपदमें आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्ठी गर्मित हैं
श्लोक-रखत्रय स्वभा च, अरूपी ध्यानसंयुतं ।
साक्षस्य व्यक्तरूपेन, केवलं पूतं ध्रुवं ॥ ७१ ॥ कर्मत्रिविधि निर्मुक्तं, व्रततप संयम युतं ।
शुद्धतत्त्वं च आराध्यं, दृष्टं सम्यकदर्शनं ॥ ७२ ॥ अन्वयार्थ-वे सचे गुरु ( रत्नत्रय स्वभावं च ) रत्नत्रय स्वभावमई (शुद्धतत्त्वं च ) शुद्ध आत्मतत्वका ही (आराध्य) आराधन, मनन या अनुभव करते हैं। (अरूपी ध्यानसंयुतं) जहां रूपातीत ध्यान होरहा है ( साक्षस्य) जहां आत्माका (त्यक्तरूपेन) प्रगट रूपसे स्वसंवेदन हे, (केवल) वह तत्व
V७५
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श्रावकाचार
वारणतरण
परके सहाय रहित केवल है (पूतं ) पवित्र है, (ध्रुवं ) अविनाशी है (कर्म त्रिविधि) तीन प्रकार कर्म ॥७४॥ द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नोकर्मसे (निर्मुक्त) रहित है, (व्रत तप संयम युतं ) वहा व्रत, तप व संयम भी है
व जहां (दृष्टं ) साक्षात् (सम्यग्दर्शनं ) सम्यग्दर्शन है।।
विशेषार्थ-श्री गुरु शुद्ध आत्मतत्वका ध्यान करते हैं। उसीका अनुभव करते हैं। उसीकी भावना भाते हैं। उसीका पाठ करते हैं। क्योंकि शुद्ध आत्माकी ओर दृष्टि वीतराग भावको उत्पन्न करनेवाली है। रागदेष मैलको काटनेवाली है। कर्मकी निर्जरा करनेवाली है। यही तत्व साक्षात मोक्ष साधक है, शुख आत्मतत्वका अनुभव रुपातीत ध्यानसे होता है जहां सिद्ध स्वरूपको अपने आत्मामें धारण किया जाता है व आपको सिद्धरूप अनुभव किया जाता है व आपको सिद्ध रूप अनुभव किया जाता है वहीं रूपातीत ध्यान है, इस अनुभवके समय आत्मा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष रूपसे व्यक्त है। इस समय उपयोग पांच इंद्रिय तथा मनसे बाहर होकर आत्मस्थ होजाता है, इसीको आपसे आपका ज्ञान या स्वसंवेदन ज्ञान कहते हैं। यहां मात्र केवल एक आपका ही अनुभव है। पर पदार्थकी ओर किंचित् भी ध्यान नहीं है। यह आत्मतत्वका अनुभव
पवित्र है। रागवेष मलसे रहित है तथा धुव है, सदा चला जानेवाला है। यदि कोई साधु W शुद्धोपयोगमें जमकर क्षपकश्रेणी चढ़े तो फिर अनंतकाल तक यह स्वानुभव बना रहता है। जहां ॐ शुद्धात्माका अनुभव है वहां साक्षात् सम्पदर्शन है। उपयोगमय सायग्दर्शन है। जब कभी कोई
सम्यग्दृष्टी अन्य कार्यों की तरफ उपयोगवान होता है, आत्माकी तरफ उपयोगवान नहीं होता है। तब उसके सम्यग्दर्शन लब्धिरूपसे रहता है,द्रव्यनिक्षेप रूप रहता है, भाव निक्षेपरूप नहीं होता है। स्वानुभवमें भाव निक्षेप रूप है। जिस आत्मतत्वकी आराधना की जाती है वह ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागबेषादि भाक्कर्म, शरीरादि नोकर्म इन तीन कर्मसे रहित शुद्ध है। व जब साधु इस तत्वका अनुभव करते हैं तब उनकी आत्मामें निश्चयसे व्रत हैतप है तथा संयम है। इससे यह दिखलाया है कि जहां निश्चय रत्नत्रय होता है वहां व्यवहार रत्नत्रय स्वयं प्राप्त है। व्यवहार रत्न अपके द्वारा ही निश्चय रत्नत्रय प्राप्त होता है। शुद्धात्मा ही उपादेय है यह निश्चय सम्यग्दर्शन है। शुखारमाहीका यथार्थ ज्ञान निश्चय सम्यग्ज्ञान है। शुद्धात्माही में तन्मयता निश्चय सम्यक्चारित्र है।
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बारणवरण
श्रावधवार
शुद्धास्माके अनुभवमें तीनों अभेदरूपसे हैं तब वह साधु यद्यपि विकल्प रहित है तो भी उसकी पारणामें सात तत्वका, देव, गुरु शास्त्रका सच्चा विश्वासरूप व्यवहार सम्पग्दर्शन है। व इनही तत्वोंका यथार्थ ज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान है। तथा अहिंसादि पांच महावतों में आरुढ़पना है। इच्छा निरोधरूपी तप है तथा सामायिक नामका संयम है। आत्मध्यान करते हुए व्यवहार व निश्चय दोनों रत्नत्र. पका लाभ होरहा है ऐसा ही द्रव्यसंग्रहमें श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती कहते हैं
दुविहं पि मोक्खहे शाणो पाउणदि ज मुणी णियमा । तम पयत्तचित्ता जूयं झाणं समभसह ॥ ४७ ॥
भावार्थ-दोनों ही प्रकारके मोक्षमार्गको मुनि नियमसे ध्यान करते हुए पालेता है इसलिये तुम लोग प्रयत्न चित्त होकर ध्यानका भले प्रकार अभ्यास करो । आस्मध्यानीको व्रतादिमें आरूढ रहना चाहिये । जैसा वहीं कहा है
तवमुदवदवं चेदा ज्ञाणरहधुरंधरोहवे जमा । तमा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह ॥१७॥ भावार्थ-क्योंकि तप करनेवाला, शास्त्रज्ञानी तथा व्रतवान आस्मा ध्यानरूपी रथकी धुरीको चलानेवाला होता है इसलिये ध्यानकी सिद्धिके लिये इन तीनों में रत सदा रहना योग्य है।
श्लोक-तस्य गुणं गुरुश्चैव, तारनं तारकं पुनः।
मान्यते शुद्ध दृष्टिश्च, संसारे तारनं सदा ॥७३॥ अन्वयार्थ-तस्य) उस शुद्ध आत्मीक तस्वकी आराधनाका (गुण ) फल यह कि (गुरुश्चैव तारनं) वह उस अनुभव करनेवाले गुरुको भी संसारसे तार देता है (पुनः ) तथा इसी तस्वके धारी गुरु (तारक) अन्य भव्य जीवोंको संसार-समुद्रसे तारनेको जहाजके समान होजाते हैं (मान्यते) वे ऐसा मानते हैं कि (शुद्ध दृष्टिश्च ) कि गुड आत्मतत्वकी दृष्टि ही ( सदा) सदा ही (संसारे तारनं ) संसारसे पार उतारनेवाली है।
विशेषार्थ-श्री गुरु तरनतारन कहाते हैं। व आप भी संसार-समुद्रसे तरते हैं व इसरोंको भी तारते हैं। वह जहाज जिसपर चढ़कर वे आप तरते हैं व दूसरोंको भी लेजाते हैं एक शुर भास्मीक तत्वका अनुभव है। सीमें यह गुण है कि जो उसका शरण ले वह कोको काटकर, विनोका
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सारणतरण
॥ ७६ ॥
नाशकर सीधा मोक्ष द्वीपको चला जावे। श्रीगुरुको यह दृढ़ श्रवान है कि मात्र निश्चय रत्नत्रयमई शुद्ध आत्मतत्वकी दृष्टि ही, व उसीका स्वसंवेदन ज्ञान व साक्षात्कार ही संसार-समुद्रसे तारने की शक्ति रखनेवाला एक अनुपम जहाज है, इसके सिवाय और कोई जहाज या उपाय हो नहीं सका है । वे श्रीगुरु इसी तत्वकी आराधनाका शिष्योंको उपदेश करते हैं, सचा मोक्षमार्ग बताते हैं, व आप भी इसीका अनुभव करते हुए वीतरागी होजाते हैं और यदि तद्भव मोक्ष होने की योग्यता हुई व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हुआ तो मुक्त हो परमात्मापदपर पहुंच जाते हैं। यहां यह दिखाय है कि ऐसे आत्मानुभवी महाव्रतोंके धारी, तपस्वी, संगमी गुरुको ही सच्चा गुरु मानो । इसी गुरुकी सेवा भक्ति करो तब हो सच्चा भात्मधर्म मिलेगा व मोक्षमार्गपर गमन होसकेगा । अन्य किसी संसारासक ख्याति लाभ पूजादिकी चाह धारी आत्मानुभव रहित साधुको कभी सुगुरु नहीं मानना चाहिये ।
श्लोक – यावत् शुद्ध गुरुं मान्यो, तावत् विगतविभ्रमः । शल्यं निकंदवं येन तस्मै श्री गुरुभ्यो नमः ॥ ७४ ॥
अन्वयार्थ - ( यावत् ) जबतक (शुद्धगुरुं ) शुशुद्ध आत्माके अनुभवी चारित्र से शुद्ध ऐसे गुरुकी ( मान्यः ) मान्यता रहेगी, भक्ति, पूजा व प्रतिष्ठा, संगति की जायगी ( तावत् ) तबतक ( गतविभ्रमः) कोई मिथ्याभाव नहीं रहेगा ( येन ) जिस गुरुने ( शस्य ) माया, मिथ्या निदान तीन शल्यों को (निकंदनं ) नष्ट कर दिया है । ( तस्मै ) उस (श्री गुरुभ्यो ) श्री गुरुको (नमः) नमस्कार हो ।
विशेषार्थ - जो कोई भव्यजीव चारित्रवान, व्रन, तप, संयमके धारी, शुद्ध आत्माके अनु मवी गुरुकी सेवा करेगा उनहीको सच्चा तरन तारन गुरु मानेगा, वह सदा संसार के मोह से दूर रहेगा । जबतक वह ऐसे सद्गुरुका भक्त होगा तबतक वह अवश्य मिध्यामार्ग से बचा रहेगा, उसको आत्मतत्वमें व मोक्षमार्ग में कोई भ्रम या शंका नहीं पैदा होगी। श्रीगुरुका उपदेश शंकाको निवा रनेवाला सदा मिलता रहेगा । जो कोई ऐसे सच्चे गुरुका शरण छोडेगा वह संसारमार्गी होकर भ्रम में पड़ जायगा, शंकाशील होजायगा, मोहमें फंस जायगा । यह सबै गुरु शल्य रहिन होते हैं। मायाचार करके कभी कोई मन, वचन, कायकी क्रिया नहीं करते हैं। जो साधुके अठाईस मूलगुण
श्रावकाचार
॥७६॥
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करणतरण
॥ ७७ ॥
प्राचीन दिगम्बर जैन आचायने बताए हैं उनको भले प्रकार पालते हैं वे २८ मूलगुण श्री वह केरस्वामीने मूलाचार में इस भांति कहे हैं
पंचय महव्वयाई समिदीओ पंच निणवरुचिट्ठा | पंचेर्विदियरोहा छप्पिय आवासया होचो ॥ २ ॥ अचेल भण्हाणं खिसियणमदतघंसणं चैव । ठिदि भोगनेयभसं मुळगुणा अट्टवीसा दु ॥ १ ॥
भावार्थ - श्रीगुरु नीचे प्रकार साधुके २८ मूलगुण पालते हैं५- महाव्रत - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग । ५- समिति - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण, प्रतिष्ठापना । ५- इंद्रियोंका विरोध ।
- आवश्यक नित्यकर्म-सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग । - केशोंका लॉच - अर्थात् मस्तक दाढ़ी मूछोंके वालोंको हाथोंसे ही नोच डालना । -अचेलक वस्त्रादि कोई आवरण शरीरपर न रखकर नग्न रहना ।
१- अस्नान - जलादिसे स्नान नहीं करना ।
१- क्षितिशयन - पृथ्वीपर शयन करना ।
१- अदंतघसन - दांतोंको घसने के लिये दंतवन न करना ।
१- स्थिति भोजन - खड़े होकर भोजन हाथोंमें करना ।
१ - एकभुक्त - २४ घंटोंमें दिनमें एक वार भोजन करना । २८ मूल गुण साधुके ।
श्रीगुरु व्रत तप संयम सहित होते हैं । यह बात ऊपरके श्लोकोंमें कही है इसीसे यह २८ मूलगुण रूप साधु व्रतके धारी होते हैं। अनशनादि बारह प्रकारका तप पालते हैं व मुख्यता से सामायिक रूप आत्मसंयममें व व्यवहारमें इंद्रिय व मनका निरोध रूप तथा छः काय के प्राणियों की दयारूप संयम में प्रवर्तते हैं। ऐसे निग्रंथ आत्मरमी साधु ही परम गुरु मानने योग्य हैं। उनके चारित्र में कोई मायाचारका भाव नहीं होता है न कोई मिथ्याभाव होता । वे पूर्ण श्रद्धा सहित व्रत पालते हैं न कोई निदान करते हैं, न कोई भोगाभिलाष है, न स्वर्गादि अहमिंद्रादिकी चाह है,
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॥
४
॥
न मोक्षकी चाह रखकर आकुल होते हैं-परम निस्पृह हैं। भास्मानुभवले आनंदके लिये ही ध्यान ४ करते हैं। किसी तरहका प्रशस्त या अप्रशस्त निदान नहीं करते हैं कि हमारे साधनका यह फल
होना ही चाहिये। तत्वार्थसूत्र में श्री उमास्वामी महाराजाने कहा है-"निशल्यो ब्रती-१८-७
ब्रती तीन शल्यसे रहित होता है। शल्य कांटेके समान चुभती है। निर्मल व्रतको नहीं पालने देती र है। जो शल्य रहित व्यवहार व निश्चय रत्नत्रयके पालक हैं वे ही सच्चे सद्गुरु हैं, उनके चरणोंको वार चार नमस्कार हो।
श्लोक-कुगुरुं अगुरुं प्रोक्तं, मिथ्यारागादिसंयुतं ।
कुज्ञानं प्रोक्तं लोके, कुलिंगी अशुभभावना ॥७५॥ अन्वयार्थ-(मिथ्यारागादिसंयुतं) मिथ्यात्व तथा राग बेषादि भावोंको धरने वाले (कुगुरुं) कुगुरुको (गुरु) यथार्थ गुरू नहीं ऐसा (प्रोक्तं) कहा गया है। उनके भीतर (लोके) लोकके सम्बन्धमें (कुज्ञानं ) मिथ्याज्ञान है ऐसा (प्रोक्तं ) कहा गया है। वे (कुलिंगी) जिन मुनिके यथार्थ भेषको छोड़कर अनेक अयोग्य भेषों को रखनेवाले हैं। (अशुभ भावना) उनकी भावना अशुभ रहती है।
विशेषार्थ-अब यहां कुगुरु या अगुरुका स्वरूप कहना प्रारंभ किया है। जो लक्षण सुगुरुके पहले बता चुके हैं वे लक्षण जिनमें न हों वेही कुगुरु हैं तथा वेही अगुरु हैं, वे गुरु मानने योग्य
नहीं हैं। क्योंकि उनके भीतर व्यवहार व निश्चय दोनों ही प्रकारके सम्यग्दर्शन नहीं है। वे अनादिॐ कालीन अगृहीत मिथ्यात्व व गृहीत मिथ्यात्वसे ग्रसित हैं। जो भक्ति व पूजा करे उस पर राग
करनेवाले जो भक्ति व पूजा न करे उसपर देष करनेवाले हैं। तीन लोक जीवादि छः द्रव्योंका ४ समुदाय है। इस सम्पन्धमें उनका ज्ञान ठीक नहीं है तथा वे मंमारको त्यागने योग्य-दुःखरूप नहीं
समझते हैं, वे मोक्षको उपादेय तथा सुखरूप नहीं जानते हैं। अपनी वड़ाई, महिमा, मिष्ट खानपान * आदि भावोंमें तल्लीन हैं। शुद्ध आत्मीक आनन्दका स्वाद नहीं पारहे हैं। उनके भावना शुद्ध
स्वरूपकी नहीं है और न शुभोपयोग ही है। क्योंकि जो शुभ भाव शुद्धोपयोगकी श्रद्धा रहित है वह शुभोपयोग वास्तवमें नहीं है, सम्यग्दृष्टीके ही असली शुभोपयोग होता है। मिथ्यादृष्टीका
॥
॥
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আখি
बारमतरणY
शुभ भाव मिथ्यात्वकी कालिमाको लिये हुए है, संसारका कारण है। इसलिये उसको वास्तव में
अशुभ उपयोग कहते हैं। कुलिंगी भेषधारी साधुओं के संसारकी ही व कषायपुष्टिकी ही भावना ७९॥ है इसलिये उनमें गुरुपना रंच मात्र भी नहीं है ऐसा जानना योग्य है।
श्लोक-कुगुरु रागसम्बन्धः, मिथ्यादृष्टी च दिष्टते ।
रागद्वेषमयं मिथ्या, इन्द्रियविषयसेवनं ।। ७६ ॥ अन्वयार्थ (कुगुरुः ) कुगुरु (रागसम्बन्धः) रागभावोंसे अपना सम्बन्ध रखता है तथा (रागद्वेषमय) रागद्वेषसे पूर्ण (मिथ्या) असत्य (इन्द्रियविषयसेवन । पांच इन्द्रियों के विषयोंकी सेवा किया करता है (च) इसी लिये (मिथ्यादृष्टी) मिथ्यादर्शन सहित (दिष्टते) दिखलाई पड़ता है।
विशेषार्थ—सुगुरु जब अपना प्रेम व अपना कर्तव्य वैराग्य चितवन तथा आत्मविचारमें रखते हैं तब कुगुरु अपना प्रेम रागवर्द्धक कार्यों में रखते हैं। सुगुरु जब पांच इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होते हैं तब कुगुरु इन्हीं में अनुरक्त होते हैं । स्पर्शनेन्द्रियके वशीभूत हो सुन्दर गद्दे तकिये वस्त्रोंका स्पर्श व कामके वशीभूत हो सुन्दर स्त्रियोंका स्पर्श करते हैं, रसना इंद्रियवश बहुत ही इष्ट अनेक प्रकार खाद्यको भक्षण करते हैं, घ्राण इंद्रियके वश हो, अत्तर फूलेल लगाते हैं, पुष्पमालाओंसे अपने अंगको सज्जित रखते हैं। चक्षु इंद्रियके वशीभूत हो, रागभाव साधक स्त्री आदि व सुन्दर नगरादि व उपवनादिका दर्शन करते हैं, श्रोत्र इंद्रियके वशीभूत हो मनोहर गान वादिन सुनते रहते हैं। ये इंद्रियोंके विषयसेवन इसलिये मिथ्या हैं कि इनसे सुख व तृप्ति होनेके स्थानमें तृष्णाकी दाह और आकुलता बढ जाती है तथा वे रागद्वेषको बढा देते हैं, मनोज्ञ विषयों में राग बढता है तब जो उनके बाधक हैं उनसे द्वेष होता है-साधकोंसे राग होता है। जिनके संसारके क्षणिक पदार्थों में व झूठ इंद्रिय सुखमें रंजायमान पना होगा वे किस तरह सचे तत्वके श्रद्धालु होसक्ते हैं। वास्तव में वे सम्यग्दृष्टी नहीं हैं किंतु मिथ्यादृष्टी हैं।
श्लोक-मिथ्यासमय मिथ्या च, प्रकतिमिथ्या प्रकाशए।
- शुद्धदृष्टिं न जानते, कुगुरुसंग विवर्जए ॥ ७७ ॥
॥७९॥
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श्रावकाचार
मन्वयार्थ-कुगुरु ( मिथ्यासमय) मिथ्या आगमको (च) तथा ( मिथ्याप्रकृति ) मिथ्या वस्तुके स्वभा॥४०॥४ वको (मिथ्या) मिथ्या वचनों द्वारा (प्रकाशए) प्रकाशते रहते हैं। (शुद्धदृष्टिं ) शुद्ध आत्माके तत्वको
४. (न मानते) नहीं जानते हैं नहीं अनुभव करते हैं। (कुगुरुसंग) ऐसे कुगुरुओंका संग (विवर्जर) दूरसे छोड़ देना चाहिये।
विशेषार्थ-वास्तव में स्याबाद नय गर्भित अनेकांत ही आगम है। जिसमें वस्तुको अनेक स्वभाव रूप जैसी कि वह है दिखलाया गया हो। वस्तु किसी अपेक्षा नित्य है किसी अपेक्षा अनित्य है, किसी अपेक्षा एक है किसी अपेक्षा अनेक है इत्यादि अनेक स्वभावोंको रखनेवाला पदार्थ हुआ करता है, उस पदार्थको यथार्थ अपेक्षासे यथार्थ जो कहे तथा जिसमें आत्माकी शुद्धिका व अहिंसांका व मोक्षका व मोक्षमार्गका यथार्थ स्वरूप दिखलाया गया हो तथा जो प्रमाणसे अबाधित हो, वैराग्यसे पूर्ण हो वही सच्चा आगम या समय है। इसके विपरीत एकांत वस्तुको कहनेवाला, मिथ्या संसारके पूजा पाठमें फंसानेाला, आत्माके अनुभव व वैराग्यसे दूर रखनेवाला, हिंसाके कार्यों में
धर्म बतानेवाला, मोक्ष व मोक्षमार्गसे विपरीत कथन करनेवाला जो प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रमाणसे Vबाधाको प्राप्त हो-रागवर्द्धक हो सो सब मिथ्या आगम हैं। कुगुरु ऐसे ही आगमका व्याख्यान
करते हैं, मनोरंजक कथाओंसे श्रोताओंको राजी करके उनके अनुकूल कथन करके उनसे विषयोंकी प्राप्तिरूप स्वार्थको सिद्ध करना चाहते हैं । वस्तुका हपभाव मिथ्या कहते हैं। उनकी सर्व वाणी मिथ्यात्वरूप होती है क्योंकि उनके भीतर मिथ्यातत्वोंकी श्रद्धा है व वे स्वयं मिथ्यात्वसे ग्रसित हैं, विषयानुरागी हैं, आत्मानंदके स्वादसे रहित हैं, शुद्ध आत्माके तत्वको जानते ही नहीं हैं, अनुभव करना तो दूर रहो । ऐसे संसारासक्त कुगुरुओंकी संगति करना उचित नहीं है।
श्लोक-कुगुरुं कुज्ञानं प्रोक्तं, शल्यं त्रिदोषसंयुतं । ।
कषायं वर्धनं नियं, लोक मृढस्य मोहितं ॥ ७८॥ विशेषार्थ-(कुगुरुं ) कुगुरुको (कुज्ञानं ) मिथ्याज्ञान धारी ( शल्यं त्रिदोष संयुतं ) तीन शल्यरूपी दोष सहित (नित्यं ) सदा (कषायवर्धनं ) कषायोंको पोषनेवाले (लोकमूढस्य ) लोक मृतामें ( मोहितं) मोहित (प्रोकं) कहा गया है।
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वारणवरण
विशेषार्थ-कुगुरुके सम्यक्तके अभावमें सच्चा ज्ञान नहीं होता है वे मिथ्या मति व मिथ्या श्रतके धारी होते हैं। यदि कदाचित् सर्वज्ञ कथित जिन आगमको भी जानते हैं तौभी शुरआत्माकी अशा विना उनका ज्ञान मिथ्या ही होता है। वे स्वयं अपने ज्ञानसे अपना भला नहीं कर सक्त हैं।
और वे सर्वज्ञ प्रणीत आगमको नहीं जानते हैं-एकांत आगमके ज्ञाता हैं, उनके तो व्यवहारमें भी मिथ्या तत्वांका ज्ञान होता है। कुगुरुके तीन शल्य पाई जाती हैं जो महा दोषयुक्त हैं। माया, मिथ्या. निदान येतीन कांटे हैं। जैसे कांटा चुभ जाये तो शरीर में चैन नहीं पड़ती है वैसे ये तीन कांटोंमेंसे एक भी कांटा हो तो धार्मिक क्रिया फलदाई नहीं होती है। माया शल्यके वशीभूत हो कगरु मात्र अपना महत्त्व जमानेके लिये धार्मिक क्रियाओंको करते हैं। शुद्धात्माकं प्रकाशके लिये नहीं करते हैं। भीतरसे तो वैराग्य नहीं है न आत्मरंजक भाव है परंतु बाहरसे लोगोंको कुछ साधना दिखलाते हैं वे वास्तवमें नटके समान प्रदर्शक हैं, साधक नहीं । मिथ्या शल्यके वशीभूत होयथार्थ चिके विना धार्मिक क्रियाओंको कर लेते हैं। जैसे रुचि विना भोजन लाभकारी नहीं होता है वैसे मिथ्या रुचि सहित धर्मका कार्य आनन्दप्रद व परिणामोंको शुद्धतामें बढ़ानेवाला नही होता है।देखादेखी क्रिया करना मिथ्या शल्यके दोषसे पूर्ण है। निदान शल्यके वशीभूत हो आगामी भोगाभिलाष, स्वर्गप्राप्तिकी भावना होती है-स्वात्माधीन अतीन्द्रिय अनंत सुखरूप मोक्षकी भावना नहीं होती। जिनके हृदय में ये तीन या दो या एक भी शल्य हो वे व्रती नहीं हो सक्के हैं। श्री अमितगति महाराजने श्रावकाचारमें शल्योंका स्वरूप कहा हैनिकर्तितं वृत्तवनं कुठारी, संसारवृक्षं सवितुं धरित्री। बोधप्रभा ध्वंसयितुं त्रियामा, माया विवा कुशलेन दूरं ॥ १९-७॥
भावार्थ-माया शल्य चारित्र वनके काटनेको कुल्हाड़ी समान है। संसाररूपी वृक्ष उपजानेको पृथ्वी समान है। ज्ञानरूपी प्रकाशके नाशनेको रात्रिके समान है। जो अपना हित चाहे उसको
मायाशल्य दूरसे ही छोडना चाहिये। बहुधा-किसी असत्य पक्षके चलानेको मायाचारसे धर्मक्रियाएं V कीव कराई जाती हैं जिनको करना उचित नहीं है। उनकी पुष्टि मायाशल्यस की जाती है। भीतर ४
जानता है कि ये अयोग्य है, शास्त्रोक्त नहीं है, फिर भी पक्षके मोहवश उनकी पुष्टि करता है यह मीयाशल्यका नमूना है। मिथ्या शल्यका स्वरूप इस भांति कहा है
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तारणतरण
॥ ८२ ॥
न बुध्यते तत्त्वमतत्वमंत्री, बिमेद्यमानो रभसेन येन । त्यनंति मिध्यात्वविषं पटिष्ठाः सदा विभेदं बहुदुःखदायि ॥११- ७॥ भावार्थ - इस मिथ्यात्व विषके वशमें पड़कर यह जीव तत्व कुतत्वको परीक्षा नहीं करता है । मोहित होता हुआ, अतिशय करके मिथ्या तत्वोंका ही पक्षपाती रहता है । यह मिथ्यात्व अनेक भेदरूप है बहुत दुःखोंका देनेवाला है । आत्महितैषी पंडितोंको उचित है कि इस मिथ्यात्व के विषको त्याग देवें । निर्मल बुद्धि करके तत्वको समझकर सधी रुचि सहित धर्मको पालें ।
प्रशस्तमन्यच्च निदानमुक्तं, निदानमुक्तैर्व्रतिनामृषीन्द्रैः । विमुक्तिसंसारनिमित्तभेदाद्, द्विधा प्रशस्तं पुनरभ्युदायि ॥२०-७॥
भावार्थ — निदानके त्यागी मुनिराजोंने व्रती भव्योंके लिये निदानके दो भेद कहे हैं - एक प्रशस्त दूसरा प्रशस्त । जो मोक्षके लिये वांछा वह एक तरहका प्रशस्त है व जो संसारके निमित्तों की वांछा है वह दूसरी तरहका प्रशस्त है । मेरे कर्मोंका अभाव हो, मैं मुक्तिको शीघ्र जाऊँ यह मुक्ति निमित्त प्रशस्त निदान है । मुझे धर्मके साधक कुल, जाति, देश, शरीर धनादि मिलें यह संसार निमित्त प्रशस्त निदान है ।
श्रावकाचा
अप्रशस्त निदान भोगोंकी व मान पानेको इच्छाको कहते हैं । ये खोटा निदान तो व्रतीको छोड ही देना चाहिये । प्रशस्त निदान विकल्प अवस्था में कदाचित् होसक्ता है, परन्तु निर्विकल्प अवस्थाका बाधक जानके यह भी त्यागने योग्य है । व्रतीको किसी प्रकारकी इच्छा न करके समभा वसे चारित्र पालना चाहिये । सम्यग्दृष्टी मुक्तिको अपने पास ही समझता है । उसको दूर से लाना नहीं है । इसलिये उसकी भी चाह नहीं करता है तब शुभ गतिकी चाह भी क्यों ? करेगा भोगों की चाह करना तो महान विपरीत निदान शल्य है । कैसे हैं भोग, वहीं कहा है
ये पड़ते परिचर्यमाणाः, ये मारयंते बत पोष्यमाणाः । ते कस्य सौख्याय भवंति भोगा, अनस्य रोगा इव दुर्निवाराः ॥ २७-७ ॥ भावार्थ - इन भोगों को सेवन करनेसे थे पीड़ा पैदा करते हैं। इनको पुष्ट करनेसे ये अपना घात करते हैं, ये भोग नहीं मिटने वाले रोगके समान हैं । इनसे किसी भी मनुष्यको सुख नहीं होक्ता है । भोगका निदान आत्माका महान बुरा करनेवाला है ।
उन कुगुरुवों के मिथ्याज्ञानके कारण क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायोंकी वृद्धि नित्य होती रहती है। साधुपना कषायोंके घटाने के लिये धारण किया जाता है परंतु अज्ञानी साधु उल्टी ॥ ८२ ॥
安安冬冬
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श्रावकाचार
तारणतरण
अपनी कषाय बढ़ा लेते हैं। यदि कोई विनय नहीं करे व आज्ञाके अनुसार पदार्थ न लावे तो उनको क्रोध आजाता है। जैसे जैसे उनकी भक्ति मूढ़ लोग करते हैं वैसे वैसे उनका मान बढ़ता जाता है । विषयभोग और मान पानेका लोभ भी बढ़ता जाता है। इस मान व लोभके वशीभूत हो माया कषायका प्रयोग भी बढता जाता है। ये कुगुरु लोककी मृढतामें फंसे रहते हैं। जैसे मूढ
जीव स्त्री पुत्रादिमें आसक्त हैं वैसे वे अपनी गद्दी, अपने शिष्य, अपने मानमें आसक्त हैं। प्रशंशाके * भूखे हैं। साधारण जनताको अपना भक्त जानकर उनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। ऐसे कुगुरु दूरसे ही छोड़ने लायक हैं।
श्लोक-इन्द्रियाणां मनो नाथः, प्रसरंतं प्रवर्तते ।
विषयं विषम दिष्टं च, तन्मतं मिथ्याभृतयं ॥ ७९ ॥ अन्वयार्थ-(मनः) मन (इंद्रियाणां) पाचो इंद्रियोंका ( नाथः ) नाथ है। (प्रसरंत) जितना इसे ॐ फैलाया जाय यह (प्रवर्तते ) धर्तता है या दौडता है (विषम ) भयानक व कठिन (विषयं ) विषयोंको X (दिष्टं च ) देखा करता है ( तत् ) इस मनको (मिथ्याभूतयं ) मिथ्याभूत या मिथ्या काम करनेवाला (मतं ) कहा गया है।
विशेषार्थ-जिनके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व स्वरूपाचरणकी शक्ति नहीं है उनका मन जगत पदाथों में मोही होता हुआ रात दिन दौडा करता है। मनवाले प्राणियोंके मन ही मुख्य स्वामी कार्य करनेवाला है। मनकी प्रेरणासे इंद्रियाँ काम करती हैं। यह मन ऐसा चंचल या अनर्थ काम करनेवाला है कि बडे बडे कठिन इंद्रियोंके विषयोंकी तरफ अपनी दृष्टि डालता है। उनको प्राप्त करनेकी व उनको भोगनेकी चाहना किया करता है। यदि इस चचल घोडेपर लगाम न हो तब तो यह कहां। जाता है इसकी कोई मर्यादा नहीं। यह इन्द्रकी सम्पदा चाहता है, इन्द्राणी व अप्सराओंके साथ भोग चाहता है, स्वर्गके रत्नमयी महलोंका निवास चाहता है, इन्द्रकी सभा चाहता है जहां अनेक देव देवी प्रणाम कर रहे हों। अनेक दवियोंसे अपनी सेवा कराना चाहता है, चक्रवर्ती नारायण प्रतिनारायणकी विभूति चाहता है, राजा महाराजोंकी, सेठ साहूकारोंकी विभूति देखकर अपनाना
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धारणतरण
चाहता है, सुन्दर सुन्दर स्त्रियोंको देखकर उनको भोगना चाहता है। अच्छे २ महल बाग बगीचे नाव देखकर सुनकर व बड़े नगरोंकी रमणीकता जानकर व सुनकर उनमें सैर करना चाहता है। बड़े २ धनिकोंकी विभूति अपने पास होजाय ऐसा विचारा करता है। मैं सबपर आज्ञा करने लगू ऐसा प्रभुत्व चाहता है। मैं कभी बूढा न होऊ, मरूं नहीं, रोगी न होऊ, वियोगी न होऊ, मेरी स्त्री सदा आज्ञाकारिणी रहे, बहुतसे पुत्र पुत्री होवें, खूब धन कमाऊं, उनके विवाहमें खर्च करके, खुब अपना नाम करूं इत्यादि वे गिनती हवाई भावोंको बनाया करता है। तीन लोकमें
बेधड़क पहुंच जाता है। तीन लोकके इंद्रिय विषयोंको अपनाना चाहता है। अपनी शक्ति व योग्य. * ताका कुछ भी विचार न करके अपनेको दौडाया करता है। इसका सारा विचार स्वप्न समान मिथ्या
होता है। वृथा ही अपध्यान करके यह परिणामोंको रागी देषी बना देता है जिससे वृथा ही पापकर्मका बंध होता है। इस मनको ज्ञानियोंने नपुंसक व अनर्थकारी व मिथ्यारूप तथा एक प्रकारका मोह ग्राह कहा है। बृहत् सामायिकपाठमें श्री अमितगति आचार्य मनका चरित्र कहते हैं
भमसि दिवियोषा यासि पातालमंग । भ्रमति धरगिटष्ठं लिप्स्यसे स्वांतलक्ष्मीम् ॥
अभिलषसि विशुद्धां व्यापिनी कीर्तिकांतां । प्रशममुखमुखाधि गाहसे त्वं न जातु ॥ २८॥ भावार्थ-हे मन! तू देवियोंको भोगना चाहता है, कभी पाताल में जाता है, कभी सारी पृथ्वीपर घूमता है, मनमानी लक्ष्मी चाहता है, जगतव्यापिनी निर्मल कीर्ति चाहता है, तू चाइकी दाहमें ही जला करता है किंतु सुख शांतिमय समुद्र में कभी भी गोता नहीं लगाता है।
श्लोक-उत्साहं मिथ्या कृत्वा, अभावं असुखं परं ।
माया मोह असत्यस्य, कुगुरुः संसारभाजनं ॥८॥ अन्वयार्थ—(कुगुरुः) कुगुरु मनके द्वारा (मिथ्या) झूठा (उत्साई) उत्साह (कृत्वा) करके (अभाव) इच्छानुकूल पदार्थको न पाते हुए (परं) घोर (अमुखं) दुःखको भोगते हैं (माया मोह असत्यस्य) माया, मोह, असत्यके भाजन होते हुए (संसारभाजनं ) संसारके ही पात्र बने रहते हैं।
विशेषार्थ-ऊपरके इलोकमें जो मनका स्वरूप बताया है उस प्रकारके मनके धारी कुगुरु होते
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वारणतरण
हैं । मनमें अति दुर्लभ उत्साह होता है कि ऐमी वस्तु प्राप्त होवें। जब वह नहीं मिल सकती हैं तो
श्रावकाचार बडा भारी कष्ट भोगता है, चिंतामें फंसा रहता है, मिथ्यादर्शनके कारण कुगुरुमें मायाचार मोह व असत्य धर्मका वास होता है। न तो वे तत्वको निर्णय करते हैं न संसारके मोहको हटाते हैं, मिथ्या तत्वकी श्रद्धा करते हुए, विषयोंकी वांछा रखते हए, मायामें फंसे हुए, ऐसे कुगुरु संसार हीमें भ्रमण किया करते हैं। ऐसे गुरु पाषाणकी नावके समान हैं-आप भी दृषते हैं व औरोंको भी डुवाते हैं। जबतक अनन्तानुबन्धी कषाय और मिथ्यादर्शन रूपी विषका वमन न किया जावे तबतक संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य तथा आत्म रुचि नहीं पैदा होती है। इसीलिये मन चंचल
रहकर विषयोंके वनमें भ्रमण करता रहता है। वे कुगुरु थाहरी दिखावटी धर्मको ही अपनी इच्छाकी ४ पूर्तिका साधन बना लेते हैं । जो अपना हित चाहें उनको उचित है कि ऐसे कुगुरुओंकी भक्ति व४ * संगति न करें।
श्लोक-आलापं असुहं वाक्यैः, आतिरौद्र समाचरेत् ।
क्रोधमायामदं लोभ, कुलिंगी कुगुरुं भवेत् ॥८॥ अन्वयार्थ-(कुलिंगी) खोटे भेषधारी ( कुगुरुं) कुगुरु (असुहं वाक्यैः ) अशुभ या न सुहाने योग्य वचनोंसे (आलापं) वात करते हैं। (आतिरौद्र) आर्तध्यान तथा रौद्रध्यानका (समाचरेत् ) व्यवहार करते हैं (क्रोधमायामदं लोमं ) क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायें (भवेत् ) कुगुरुमें होती हैं।
विशेषार्थ-कुगुरु भेषधारी साधुओंके भीतर आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान बर्ता करता है क्योंकि X जब उनको शुद्ध आत्मीक तत्वकी प्रतीति नहीं होती है तथा अतीन्द्रिय सुखका अनुभव नहीं होता है तब वहां धर्मध्यान असंभव है। धर्मध्यानके अभावसे दो खोटे ध्यान किसी न किसी रूपमें रहते हैं।
इष्ट परिग्रह, विषय, दास आदिके वियोगमें उनको इष्टवियोग आर्तध्यान होजाया करता है ल मनके अनुकूल न चलनेवाले व मनके अनुसार न वर्तनेवाले शिष्योंके कारण व अनिष्ट स्थान भोजन
पान वनादिके लाभसे उनको अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान होता है। शरीरमें रोगादि होनेपर तीन पीड़ाकी चिंतामें पड़ जाते हैं व इससे पीड़न चिंतवन आर्तध्यान होता है। पाच इंद्रियोंके भोगोंकी
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प्रचार
वारणतरण इच्छा रहती है कि आगामी इस लोक व परलोकमें मनोज्ञ इन्द्रियों के भोगने योग्य पदार्थ प्राप्त
हो। इसतरह निदान आर्तध्यान रहता है। जीवदया न होनेसे प्रमाद सहित आचरण करते हुए या १६॥
अपना कोई मनोरथ परकी हिंसा करके या परको बाधा देकर भी सिद्ध होता जाने तो गुरुके हिंसाV नंदी रौद्रध्यान होजाता है। अपना स्वार्थ सिद्ध करनेको मिथ्या वचन बोलते हुए व उससे काम सिद्ध
होते हुए मृषानंदी रौद्रध्यान होजाता है। कुगुरु बहुधा गुप्त रीतिसे इंद्रियोंके विषय सेवन करते हैं
इससे चौर्यानंदी रौद्रध्यान होजाता है। परिग्रहमें अनुरागी, मोही होनेसे अपने पास परिग्रह बढ़ता 4 हो व दूसरोंके धनादिकी वृद्धि होरही है ऐसा देखकर परिग्रहानंद रौद्रध्यान होजाता है।
कुगुरु साधुओंका वचन स्वार्थको लिये हुए अशुभ ही होता है। उनका उपदेश जीवोंको १ Y मोक्षमार्गमें लगानेके स्थान में संसारमार्गमें लगा देता है । क्रोधादि चारों कषायोंकी प्रबलता इनके होती है। ऐसे गुरु कुगुरु हैं।। ___ श्लोक-कुगुरु पारधी सदृशं, संसार बन आश्रयं ।
लोक मृढस्य जीवस्य, अधर्म, पासिबंधनं ॥ ८२ ॥ अन्वयार्थ (कुगुरु ) खोटे गुरु ( पारधी) पक्षी पकडनेवालेके ( सदृशं ) समान होते हैं जो ( संसार बन आश्रयं ) संसार रूपी वनमें आश्रय करनेवाले (लोक मूढस्य ) लोक मूढतामें फँसे (भीवस्य) जीवोंको (अधर्म ) मिथ्या धर्मरूपी (पासिबंधनं ) जाल में फाँसकर बांध लेते हैं।
विशेषार्थ-जैसे पक्षी पकडनेवाले चिडीमार जंगल में पक्षियोंको पकडनेके लिये जाल बिछाकर , उसमें उनको खींचनेवाला अन्नादि पदार्थ डाल देते हैं, उसके मोहसे पक्षीगण अपना स्वार्थ सधेगा
इस भावसे विश्वास करके जालके भीतर आजाते हैं और तुरन्त फंस जाते हैं, निकल नहीं सक्तेबन्धनमें पडकर पराधीन हो कष्ट सहते हैं। इसी तरह कुगुरु संसार वनमें घूमनेवाले भ्रमनेवाले अज्ञानी प्राणियोंको अधर्म रूपी जाल में फंसानेके लिये मीठे २ वचनोंसे संसार वडक, विषय कषाय पोषक उपदेश देकर उनको फंसा लेते हैं। वे और भी पराधीन हो संसार में दीर्घकाल घूमकर कष्ट जठानेवाले होजाते हैं। यदि कोई ऐसा उपदेश करदे कि पशुओंकी बलि देवताओंको चढानेसे
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बारणतरणY
ॐ देवता प्रसन्न होते हैं बलि देकर मांसका प्रसाद खाने व बांटनेसे पुण्य होता है, लौकिक काम सिद्ध
श्रावकाचार ए होजाते हैं, प्राणी स्वर्गमें जाते हैं, तो वह कुगुरु प्राणियोंको अधर्मके जाल में फांस देते हैं। कोई V यदि ऐसा उपदेश करदे कि गंगा यमुनामें स्नान करने मात्रसे पाप धुल जाते हैं। अज्ञानी लोग ॐ ऐसा मानकर स्नानमें ही धर्म समझने लगते हैं। अपनी सर्व शक्ति लगाकर दूर दूर से स्नान करने ४
आते हैं । जल स्नान एक आरभका कार्य है। जिसमें स्थावर व स जीवोंकी हिंसा होती है, इसमें धर्म मानना भूल है। स्नान करके परमात्माका भजन किया जाय तो धर्म होसक्ताहै। परंतु इस बातको न समझकर स्नानसे ही धर्म मानकर रूढिके वश में पड़ जाते हैं, इसी तरह यदि कोई उपदेश करदे कि अग्निमें जल जाने से सतीपना होता है या अग्नि जलाकर कायको क्लेश मात्र देनेसे धर्म व तप होता है तो यह उपदेश मिथ्या है। जीते हुए शीलवत पालना सती धर्म है। पांच इन्द्रियोंको जीतकर आत्मध्यान करना धर्म व तप है। इस सत्यको न पाकर लोग मिथ्या क्रियामें फंस जाते हैं। सती होनेवालीके वस्त्राभूषण उनके गुरुओंको मिल जाते हैं। लोभके वशीभूत हो कुगुरु ऐसा उपदेश कर देते हैं जो अपने पिताके नामसे श्राद्ध करे, उस दिन गुरुओंको सोना, चांदी, जवाहरात दे तो उसके पिताको परलोकमें यह सब मिल जाता है। इत्यादि कषायवश बहुमसे ऐसे मार्ग कुगुरू चला देते हैं जिसमें अधर्म होता है परंतु धर्म मान लिया जाता है । रागी द्वेषी देवों की आराधना कुगुरुओंके उपदेशसे ही चल पड़ी है। उनका उपदेश होता है कि इन कुदेवोंकी मान्यता करो, प्रसाद चढाओ, इनको आभूषण चढाओ, सोना चांदी चढाओ तो बड़ा भारी कष्ट दूर होता है, खेती फलती है, पुत्र होता है, आदि ३ अनेक लोभोंमें फंसाकर जगतके प्राणी मार्गच्युत कर दिये जाते हैं। यह सब कुगुरुओंके उपदेशका कुफल है।
श्लोक-पतंते ते बने जीवाः, पारधी वृषजोलकं ।
विश्वासं अहं बन्धेः, लोकमूढः न पश्यति ।। ८३॥ अन्वयार्थ—(ते जीवाः ) वे भोले प्राणी (बने ) इस संसार वनमें (पारधीवृषनालकं ) कुगुरु पारधीके धर्मके नामसे फलाए हुए अधर्मके जालमें (विश्वास ) विश्वास करके (पतं ते ) गिर जाते हैं ( आं बंधेः) मैं बंध जाऊंगा, इस पातको (लोकमूढः ) संसारासक्त प्राणी (न पश्यति ) नहीं देखना है।
॥ ७॥
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वारणतरण
श्रावकर
॥८
॥
विशेषार्थ-जैसे पारधीके जाल में पक्षी निवास करके फंस जाते हैं वैसे मूह प्राणी कुगुरु पारधीके अधर्मरूपी जालमें विश्वास करके फंस जाते हैं। उनको मूढताके वश यह ध्यान नहीं आता है कि यह धर्म नहीं है यह तो अधर्मका जाल है, यहां जावेंगे तो बंध जायगे।
मृढ लोग रातदिन धनकी, पुत्रकी, यशकी,रोग रहित रहनेकी, न मरनेकी चिंतामें लगे रहते हैं। उनको आत्माके कल्याणका बिलकुल खयाल नहीं होता है। लौकिक पूजनके सिद्ध करने के लिये वे कुगुरुओंकी बातोंमें फंस जाते हैं। उनपर विश्वास करके कुदेवोंको मानने लगते हैं। अधर्मको आचरने लगते हैं। मिथ्या तप करके घोर कष्ट उठाते हैं। विषयोंके भोगकी तृष्णाको बढ़ा लेते हैं। इष्टके वियोगमें घोर आकुलता करते हैं। हिंसाकारी अनेक यज्ञोंको रचाते हैं । घोर आरम्भ करते हैं। वैराग्यमई पूजा पाठको छोडकर रागवईक पूजा पाठ व लीलामें फंस जाते हैं। इंद्रियोंको प्रिय ऐसे नाचने गाने में धर्म मान लेते हैं। युद्धादिकी कथाओंको पढकर रंजायमान होने में ही धर्म समझ लेते हैं। वीतराग विज्ञानमय शुद्ध आत्माकी परिणति धर्म है इस बातका न उपदेश पाते हैं न इस तरफ मन, वचन, कायको ले जाते हैं। यह सब कुगुरुके उपदेशका प्रताप है।
श्लोक-कुगुरुं अधर्म विश्वस्ताः , अदेवं कृतताडनं ।
विकहा रागमय जालं, पाश विश्वास मूढयं ॥ ८४ ॥ बने जीवा रुदन्त्येवं, अहं बद्धं एक जन्मयं ।
अगुरं लोक मृढस्य, बन्धनं जन्म जन्मयं ॥ ८५ ॥ अन्वयार्थ—(कुगुरुं) खोटे गुरुका व ( अधर्म) खोटे धर्मका (विश्वस्ताः) विश्वास करते हुए (अदेवं) कुदेवोंके द्वारा (कृतताड़नं ) ताडन किए हुए अर्थात् कुदेवोंको भक्तिमें भयके कारण लगे हुए (विकहा) विकथा (रागमय ) का राग स्वरूप (जालं) जाल, जिसकी (विश्वासमूढयं) विश्वास मूढतारूपी (पाश) रस्सी है उसमें फंसे हुए (लोकमुढस्य) लोक मूढताके कारण (अगुरं ) कुगुरुओंके बारा (जन्म जन्मयं) जन्म जन्ममें (बंधनं ) घोर पंधन प्राप्त करते हैं जब कि (बने) वनमें (जीवा) पक्षीगण या मृगगण (अहं बढ़) हम बंध गए हैं (एवं ) ऐसा (एक जन्मयं) एक जन्ममें ही (रुदन्ति ) रुदन करते हैं।
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वारणतरण
विशेषार्थ-यहा दिखलाया है कि पारधीके जालमें फंसकर पशुओंको एक जन्ममें ही रुदन कर करके दुःख उठाना पडता है, परन्तु जो कुगुरु पारधीके जाल में फंस जाते हैं वे जन्म जन्म में दुख उठाते हैं। मूढ प्राणी संसार शरीर भागोंके लोलुपी होते हुए कुगुरुके अधर्ममय पोशका
और कुगुरुका विश्वास कर लेते हैं। अनेक कुदेवोंको व अदेवोंको पूजते फिरते हैं। भय यह रखते हैं कि यदि उनको न मानेंगे तो ये हमसे नाराज होकर हमारा अनिष्ट कर देंगे। इस तरह कुदेव,
कुगुरू, कुधर्मको मानते हुए चार विकथाओंके रागमें फंसे रहते हैं। शिकथाओंका राग जाल है। y उसमें मूढताईसे विश्वास करना यही इस जालकी रस्सी है जिसमें मूढ प्राणी फंस जाते हैं। धर्मस
कथाकी रुचि न रखते हुए स्त्री कथा, भोजन कथा, चोर कथा, व राज कथा आदि अनेक मिथ्या पापयक्क कथाओंके पढने सुनने में लग जाते हैं । अधर्म पोषक अनेक कथाओंपर विश्वास कर लेते हैं। गुरु जन मूढ लोगोंको अधर्म में फंसाने के लिये ऐसी राग वईक व भय देनेवाली कथाएं रच देते हैं जिससे उनको यह भय होजाता है कि यदि हम इस मार्गपर न चलेंगे तो हमारा बहुत अहित होगा।
वास्तवमें जिन कथाओंसे आत्म परिणति आत्माकी शुद्धिके मार्गमें लग जावे-संसार शरीर भौगोंसे वैराग्यरूप होजावे, जीवदया, परोपकार व चारित्रमें दृढ़ होजावे, हिंसादि पापोंसे विरक्त बोजवि. सहके जालसे निकलनेका भाव दृढ कर सके; मानव जीवनको सफल कर सके वे तो यथार्थ कथाएं हैं। इनके सिवाय सर्व विकथाएं हैं। विकथाओं का विश्वास करके मिथ्यात्वका आराधन यहां करके घोर पाप बांधते हैं, मर करके दुर्गतिमें जाते हैं, महान कष्ट उठाते हैं। मिथ्यास्वके समान कोई बंधन नहीं है, कोई जाल नहीं है। इस जाल में फंसा प्राणी भव भवमें कष्ट पाता है फिर उस भोले जविको मनुष्य जन्म अनेक जन्मों में भी मिलना दुर्लभ होजाता है। तथा सच्चे गुरुका समागम तो बड़ा ही कठिन होजाता है। प्रयोजन यह है कि जो अपना हित करना चाहें वे कुगुरुओंकी संगतिसे अपनी रक्षा करें। श्लोक-अगुरस्य गुरुं मान्याः , मूढ दृष्टिं च संगताः ।
ते नरा नरयं यांति, शुद्ध दृष्टि कदाचन ॥ ८६ ॥
८९॥
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तारणतरण
श्रावकाचार
॥९
॥
अन्वयार्थ (अगुरस्य) मिथ्या गुरुको (गुरु) गुरु (मान्याः) माननेवाले (मूढदृष्टिं च संगताः) मिथ्या. दृष्टिपनेकी संगति करनेवाले (ते नरा) जो मनुष्य हैं वे (नस्य) नरक (यांति) जाते हैं उनको (शुद्धदृष्टि) शुद्ध सम्यकदृष्टि (कदाचन ) कभी भी नहीं होती है। अर्थात् उन्हें सम्यग्दर्शनका लाभ कठिन है।
विशेषार्थ-ऊपर जो कुछ कुगुरुका स्वरूप कहा गया है इस तरहके जो कुगुरु संसारमें फंसाने. वाले हैं उनकी जो भक्ति करते हैं, उनके मिथ्या उपदेशको मानके मूढताईसे कुदेवोंकी व कुधर्मकी आराधना करते हैं वे बहु आरम्भ व बहु परिग्रहके आसक्तवान जीव नरक आयु बांधकर नरक जाते हैं। उनको सम्यग्दर्शनका लाभ मिलना ऐसा दुर्लभ है कि मानों कभी होगा ही नहीं। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि उनको सम्यग्दर्शन कभी न होगा। परन्तु यह तात्पर्य है कि उनको सम्यः कका लाभ बहुत दुर्लभ है। उनके तीन मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी कषायका बंध पड जाता है जिससे एक तो उनको सच्चे आत्मतत्वके उपदेश पानेका अवसर नहीं मिलता। यदि कदाचित् अवसर भी मिले तो उनका भाव नहीं जमता । गाढ मिथ्यात्वभाववालेको धर्मोपदेश उस तरह कटुक भासता है जैसे पित्तज्वर वालेको मीठा भोजन कडुआ मालूम होता है। ऐसा जानकर मिथ्या देव गुरु धर्मका आराधन कभी करना योग्य नहीं है।
लोक-अनृतं अचेतं प्रोकं, जिनद्रोही वचलोपनं ।
विश्वासं मूढजीवस्य, निगोयं जायते ध्रुवं ॥ ८७॥ अन्वयार्थ (वचलोपनं ) जिनेन्द्रकी आज्ञाको छिपाकर उपदेश करना (अनृतं ) मिथ्या ( अचेतं) अज्ञानरूप (जिनद्रोही) जिनेन्द्रसे विपरीत (मोक्तं ) कहा गया है। (विश्वास ) उसपर विश्वास करनेवाले (मूढनीवस्य ) मूर्ख बहिरात्माको (ध्रुवं ) निश्चयसे (निगोयं) निगोदमें (जायते) जन्म लेना पड़ता है।
विशेषार्थ-जिनेन्द्र भगवानने जैसा अनेकांत स्वरूप वस्तुको बताया है व शुद्धोपयोगको धर्म बताया है, संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य सिखाया है, अहिंसा पालनेका मुख्य कर्तव्य समझाया है। इत्यादि श्री जिनका जो उपदेश है उस उपदेशको लोपकर जैन गुरु नाम धराकर जो ऐसे गुरु द्वारा उससे विपरीतरागदेष वर्धक व मिथ्यात्व पोषक उपदेश किया जाना वह मिथ्या है, अज्ञानरूप
॥९.
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कारणतरण
॥९१॥
है और श्री जिनेन्द्र भगवानके साथ मानों द्वेष करना है। मूढ जीव उन गुरुभोंके कथनपर विश्वास कर लेते हैं और उनके अनुसार चलने लगते हैं। अज्ञानरूप धर्मकी क्रियासे वे घोर ज्ञानावरणी कर्म बंध करते हैं और ऐसी पर्याय में चले जाते हैं जहां लब्ध्यपर्याप्त अवस्थामें अक्षर के अनंतवें भाग अति तुच्छ ज्ञान रह जाता है। इस पर्यायको निगोद कहते हैं । निगोद में चले जानेपर फिर वहांसे निकलना बहुत दुर्लभ होता है । जैसे- मकान, मठ, खेत, बाग आदिको रखते हुए, शय्या, गद्दी, तकिये आदिपर शयन करते हुए, अतर फुलेल लगाते हुए, पुष्प-मालाओंको सूंघते हुए, राग वर्द्धक कथा संलाप करते हुए, पालकी पर चढकर चलते हुए भी अपनेको दिगम्बर जैनका गुरु मानकर लोगों से उसी समान भक्ति करवाना, अपनेको आचार्य समझना, अपने आडम्बर के लिये लोगों को तंग करके पैसा लेना आदि क्रियाएं श्री जिन वचनको उल्लंघन करनेवाली हैं । जिनवाणी में परिग्रह आरम्भ रहित परम वैराग्यवान इंद्रिय विजयी शुद्ध आत्मरमीको जिन साधु कहा है यह अपनेको जैन साधु मानकर जिन आज्ञा लोपकर विपरीत कहता, मानता व चलता है व भक्तोंको भी यही विश्वास कराता है। ऐसे जिन द्रोही मिथ्यावादी कुगुरु पाषाणकी नौका समान स्वयं भी भवसागर में डूबते हैं व भक्तोंको भी दुबाते हैं-निगोदमें उनको जन्म लेना पडता है ।
श्लोक - दर्शनभृष्ठ गुरश्चैव अदर्शनं प्रोक्तं सदा ।
मान्यते मिथ्यादृष्टिः, शुद्ध दृष्टिः न मान्यते ॥ ८८ ॥
अन्वयार्थ - ( दर्शनभृष्ट ) सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट (गुरुश्चैव ) गुरुके ही (सदा ) नित्य ( अदर्शनं) मिथ्यादर्शन (प्रोक्तं ) कहा गया है। ऐसे मिथ्यात्व सहित गुरुको (मिध्यादृष्टिः) मिध्यादृष्टि बहिरात्मा ( मान्यते) मानता है (शुद्ध दृष्टिः ) सम्यग्दृष्टी (न मान्यते ) नहीं मानता है ।
विशेषार्थ जो जिन आज्ञाको उल्लंघन करके औरका और जाने माने व उपदेश करे उसके जिन वचनों पर श्रद्धा न होने से वह व्यवहार सम्यग्दर्शन से भी रहित है, निश्चय सम्यग्दर्शन तो उसके पास हो ही नहीं सक्ता । वे कुगुरु सदा ही मिथ्यादर्शन रूपी घोर मैलसे लिप्त रहते हैं । उनको जिनेन्द्रके उपदेशका भय नहीं रहता है। वे मनमानी चलते हैं, स्वच्छंद वर्तन करते हैं ।
श्रावकाचार
॥९९॥
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वारणतरण
श्रावकाचार
॥९
॥
कभी ऐसे गुरु निश्चयनयके एकातको पकडकर अपनेको तत्वज्ञानी, शुद्धोपयोगी, बंधव मोक्षसे रहित मान बैठते हैं और मन, वचन, कायकी क्रियासे आत्माका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, ऐसा निश्चयसे मानकर व्यवहार मार्गमें चलते हुए बत, तप, शील आदिकी कुछ भी परवाह नहीं रखते हुए मनमाना आचरण करके अपना संसार बढाते हैं। जिनेन्द्रकी आज्ञा तो यह है कि स्वानुभव लिये निश्चय दृष्टिसे जगतको देखो तब अपना व परका आत्मा शुद्ध एकाकार दीखेगा। इससे साम्यभाव आयगा । समाधिका लाभ होगा । परन्तु जब स्वानुभव नहीं हो और व्यवहार मार्गका आलम्बन लेना पडे, व्यवहारमें वर्ताव करना पडे तप निश्चयनयको गौण कर व्यवहारनयकी मुख्यतासे व्यवहार करना चाहिये। अपने पाप कर्मका बंध भी देखना चाहिये। अरहंत व सिडको पंध रहित देखना चाहिये । उनकी भक्ति करनी चाहिये । अशुभ भावोंसे बचने के लिये शील व व्रत पालना चाहिये, संयमसे रहना चाहिये, जिन आज्ञाके अनुसार व्यवहार चारित्र यथोचित पालना चाहिये, तथापि दृष्टि निश्चयनयपर रखते हुए शुद्ध भावों में जमनेका उद्यम रखना चाहिये। व्यवहार मार्गका एकांत भी मिथ्यात्व है, निश्चय नयका भी एकांत मिथ्यात्व है। दोनों नयों को जानकर उनका प्रयोग यथा अवसर जो लेता है वही यथार्थ जिन आज्ञाका माननेवाला है, वही सच्चा सम्पग्दृष्टी जैन साधु है, वही शुद्ध आत्मध्यानसे काँकी निर्जरा करता है। जो ऐसा तो करे नहीं, सामायिक व ध्यानका अभ्यास करे नहीं व अपनेको परमात्मावत् मानके संतुष्ट होजावे और स्वछंदरूपसे नियों के विषयों में वर्ते और माने कि मेरे इस रागरूप वर्तनसे कुछ भी बंधन होगा वह जिनआज्ञालोपी है क्योंकि जैनसिद्धांतमें कहा है कि जहांतक सूक्ष्म लोभका भी उदय दसवें गुणस्थान तक हैवहांतक कर्मका बंध होता है। कषायोंसे रंजित परिणाम होते हुए-कृष्ण, नील, कापोत, पीत व पन लेश्या सम्बन्धी राग भाव होते हुए अपनेको व्यवहार नयसे या पर्याय दृष्टिसे बंध न मानना श्री जिनेंद्रकी भाज्ञाको प्रगट रूपसे अमान्य करके विपरीत अडान रखके मिथ्यात्वको ही पोषण करना है।
श्री अमृतचन्द्र आचार्य समयसार कलशमें कहते हैंसम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं नातु बन्धो न मे स्यादित्यत्तानोत्पुककवदना रागिणोऽप्याचरन्तु । आलम्बंता समितिपरता ते यतोऽयापि पापा आस्मानास्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्परिकाः ॥५-७॥
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मावार्थ-जो रागी होते हुए भी ऐसा माने कि मैं तो सम्यग्दृष्टी हूँ मुझे तो कभी बंध होही,
श्रावकार नहीं सक्का और मुंह फुलाए रहकर घमंड में रहे और चाहे जैसा आचरण करे अथवा बाहरसे ईर्या आदि पांच समितिको भी पाले तौभी वह पापी ही है, सम्यक्तसे खाली है क्योंकि उसको आत्मा व अनास्माका सम्यक् भेदज्ञान नहीं हुआ है।
मोक्षमार्गी स्याबादी है जो ज्ञान और क्रिया दोनोंके माथ यथासम्भव मैत्री रखता हुआ ६ चलता है। वहीं कहा है
स्याहादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां, यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः ।
ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्री-पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमा स एकः ॥ २१-११॥ भावार्थ-जो स्याबादमें चतुर है व संयममें निश्चल है और उपयोगवान होकर निरंतर आत्माकी भावना करता है वह ज्ञान दृष्टि व क्रिया दृष्टि इनमें परस्पर तीन मैत्री रखता हुआ इस मोक्षमार्गकी भूमिको आश्रय करनेवाला है। वही आचार्य पुरुषार्थसिड्युपायमें कहते हैं
येशिन सुदृष्टिस्तेनशिनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ २१९॥ - भावार्थ-जितने अंश परिणामों में सम्यग्दर्शन है उतने अंश बंध नहीं होता है। जितने अंश रागभाव है उतने अंश बंध होता है। इस बातको सम्यक्ती भलेपकार जानता है उसी प्रकार आचरण करता है, रागादिके निमित्तोंसे भी बचता है, वीतरागमय रहनेकाही पुरुषार्थ करता है। जो ऐसा स्वयं रहे, ऐसा कहे वही सच्चा गुरु है। इससे विपरीत कुगुरु है। मूढ़ लोग ऐसे कुगुरुको गुरु मान करके ठगाए जाते हैं परंतु सम्यग्दृष्टी ज्ञानी ऐसेको कभी गुरु नहीं मानते हैं। ___ श्लोक-कुगुरुं संगते येन, मान्यते भय लाजयं ।।
आशासस्नेहलोभेन, ते नरा दुर्गतिभाजनं ॥ ८९ ॥ कुगुरुं प्रोक्तं येन, वचनं तदविश्वासनं ।
विश्वासं ये च कुर्वति, ते नरा दुर्गतिभाजनं ॥ १०॥ अन्वयार्थ--(येन ) जो कोई (कुगुरुं ) गुरुकी ( संगते ) संगति करते हैं। तथा (भय काजय ) भय
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लाज (भाशा) आशा (सस्नेह) प्रेम ( कोमेन)वलोभके कारण (मान्यते) उनकी प्रतिष्ठा करते हैं श्राव
(से नरा ) वे मनुष्य ( दुर्गति भाग्नं ) कुगतिके पात्र हैं। (कुगुरुं ) कुगुरुद्वारा (येन प्रोक्तं ) जो कुछ कहा, ॐ गया ( तत् वचन) वह वचन (अविश्वासनं) विश्वास करने योग्य नहीं है (येच) और जो कोई (विश्वास) उनका विश्वास ( कुर्वति) करते हैं (ते नरा) वे मनुष्य (दुर्गति भाजन ) कुगतिके पात्र हैं।
विशेषार्थ-जिन कुगुरुनाका स्वरूप ऊपर कहा गया है वे सब मोक्षमार्गके सच्चे स्वरूपके न स्वयं अशावान हैं और न उसको यथार्थ कहते हैं। किन्तु एकांत, विपरीत, संशय व अज्ञान व विनय मिथ्यात्वके पोषक उनके वचन होते हैं, वे वचन विश्वास करने योग्य नहीं हैं। जो कोई मूढ मनुष्य कुगुरुको कुगुरु मानते हुए भी किसीके भयसे व कोई लाजसे या कोई आशासे व किसीके स्नेहवश या लोभके कारण उनकी भक्ति करते हैं, उनको मानते हैं व उनकी संगति करते हैं या उनके पचनोंपर विश्वास करते हैं वे मानव मिथ्यात्वकी पुष्टि या अनुमोदनाके दोषी होते हुए घोर पाप बाधकर मरक निगोद पशु गति आदिमें जाकर कष्ट पाते हैं। स्वामी समन्तभद्राचार्यने भी रत्नकरण्डमें कहा है
भयाशास्नेहलोभाच्च, कुदेवागमलिंगिनाम् । प्रणाम विनयं चैव न कुर्युः शुद्धष्टयः ॥३०॥ भावार्थ-सम्यग्दृष्टी भय, आशा, स्नेह, लोभसे भी कभी कुदेव, कुशाखा, व कुगुरुको प्रणाम पविनय नहीं करेगा।
सम्यग्दृष्टी वही है जो परिणामोंसे उज्वलता रक्खे, जो जैसा हो उसको वैसा माने पूजे । सम्यक्ती धर्मका प्यासा है।जहां सपा धर्म मिलेगा वहां उसका आदर होगा। जहां इसके विपरीत धर्मका भाव है वहां उसकी भक्ति कभी हो नहीं सक्ती है, क्योंकि वह धर्म, अधर्मको पहचानता
है । सम्यकदृष्टीको लोभी, भयवान आदि नहीं होना चाहिये । कभी कोई २ यह विचारते हैं कि ॐ हम अमुक राजा या सेठके यहां काम करते हैं, ये जिस देवताकी भक्ति करते हैं यदि हम नहीं करेंगे ७ तो ये हमारी आजीविका हर लेंगे अथवा अमुक राजाकी यह आज्ञा है कि अमुक कुदेवको जो
नहीं मानेगा उसको दण्ड मिलेगा तौ सम्यक्ती प्राण जानेके भयसे या आजीविका जानेके भयसे कभी भी अपनी अडासे विपरीत देव या गुरुकी भक्ति नहीं करेगा। यदि दस ऐसे आदमियों के
4444444444444444444444444444444444
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तारणतरण
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साथमें है जो कुदेवोंके भक्त है वे कुदेवोंकी पूजा भक्ति कर रहे हैं उस समय यह सोचे कि मैं यदि
श्रावकाचार नहीं करूंगा तो मैं निर्लज्ज कहलाऊँगा । इसलिये लाजके भयसे करने लग जावे, ऐसा सम्यक्ती नहीं करेगा। यदि कोई कुगुरु ऐसी आशा दिलावे कि जो कोई मेरी भक्ति करेगा वह शीघ्र बहु धन कमावेगा तौभी वह सम्यक्ती धनकी आशासे ऐसी मूढता नहीं करेगा। किसी मित्र के साथ बहुत स्नेह वह देवका भक्त है वह जब देवोंकी भक्ति कर रहा है तब यह सोचे कि याद में भी भक्ति न करूंगा तो मित्रका स्नेह कम होजायगा, इस स्नेहके वश श्रद्धा न होते हुए भी कुदेषकी . पूजा करने लग जावे, सम्यक्ती ऐसा नहीं करेगा।
स्वर्गादि व पुत्रादिके लोभसे भी सम्यक्ती कुगुरु आदिकी भक्ति नहीं करेगा। सम्यग्दृष्टी जौहरी है, वह रत्न परीक्षक है। जहां रत्न सच्चा होता है वहीं वह सच्चा रतन मानता है व वहीं वह उसकी वैसी प्रतिष्ठा करता है।
लौकिक व्यवहार धार्मिक व्यवहारसे भिन्न है। धार्मिक व्यवहारमें सम्यक्ती धर्म परतिसे व्यवहार करेगा। परंतु लौकिक व्यवहारमें लौकिक रीतिसे व्यवहार करेगा। लौकिक व्यवहारको लौकिक मानते हुए व लोकमें प्रचलित लौकिक विनय करते हुए सम्यक्तीको श्रद्धानमें कोई दोष नहीं आसक्ता। जैसे राजा, हाकिम, बड़े नगरसेठ आदिके पास जाते हुए व उनके अपने यहां आते हुए वह यथायोग्य विनय प्रणाम करेगा। यदि लौकिक विनय न की जाय तो लोक व्यवहार बिगड कायगा । लौकिक विनय करनेसे धार्मिक श्रद्धामें बाधा नहीं आती है। हनूमान, सुग्रीव, आदि बड़े पुरुषोंने राजाओंके दरबारमें जाते हुए यथायोग्य विनय किया था। व्यवहारमें कटुकता व देष न फैल जाय ऐसी सम्हाल सम्यक्ती रखता है। परस्पर प्रेम, विनय जो लोकप्रसिद्ध है उसको वह करता हुआ सर्वको सुखदाई व हितकारी रहेगा। जहां धर्मकी दृष्टिसे कुदेव, कुगुरु व कुशास्त्र व कुधर्मकी विनयका भाव आयगा उसको वह नहीं करेगा। किसी भय व आशा व लाज व स्नेह व लोभके वशमें नहीं पड़ेगा। जो शिथिल श्रद्धालु हो मिथ्यात्वकी अनुमोदना करेंगे ये अवश्य मिथ्यात्वका बंध करके दुर्गतिके पात्र होंगे।
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कुधर्मका स्वरूप। श्लोक-कुगुरुं ग्रंथसंयुक्तं, कुधर्म प्रोक्तं सदा ।
असत्यं सहितं हि सः, उत्साहं तस्य क्रीयते ॥९१॥ तत् धर्म कुमति मिथ्यात्वं, अज्ञानं रागबंधनं । ।
आराध्यं येन केनापि, संसारे दुक्खकारणं ॥९२|| अन्वयार्थ (ग्रंथसंयुक्तं) परिग्रहधारी (कुगुरुं) कुगुरुने (सदा) सदा (कुधर्म) कुधर्मको (पोक) कहा है (सः हि) वह कुधर्म निश्चय करके ( असत्यं सहित ) असत्यसे मिला हुआ है (तस्य ) इसमें असत्यका (उत्साह ) उत्साह या प्रेरकपना (क्रीयते) किया गया है। (तत् धर्म ) ऐसा धर्म (कुमति) मिथ्यामति ज्ञान (अज्ञान ) मिया श्रुतज्ञान रूप (मिथ्यात्वं ) मिथ्यादर्शन है (रागबंधनं ) रागके बंधन स्वरूप है (येन केनापि) जिस किसीने भी (भाराध्यम् ) ऐसे कुधर्मका आराधन किपा (संसारे) वह संसारमें (दुःखकारणं ) दुःखोंका भाजन होगया।
विशेषार्थ-अब कुधर्मका स्वरूप कहते हैं-संसारवर्द्धक धर्मके स्वरूपके उपदेशदाता कुगुरुही होते हैं जो अंतरंग, बहिरंग, परिग्रहके धारी हैं। मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति,
अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद, नपुंसकवेद ये १४ प्रकार अंतरंग परिग्रह व क्षेत्र, मकान, ७ चांदी, सोना, धन, धान्य, दासी, दास, कपड़े वर्तन ये १० प्रकार बहिरंग परिग्रह । इन २४ प्रकार ४ परिग्रहके धारी तथा इनकी ममताके फंदेमें फंसे हुए कुगुरुओं का उपदेश किया हुआ धर्म कभी
सत्य नहीं होसक्ता । वह बाहरसे सत्यसा दीखनेपर भी असत्यसे मिला हुआ होता है। जबतक धर्मका उपदेष्टा पैराग्यवान निस्पती व यथार्थ ज्ञाता तथा सर्वज्ञ वीतरागकी परम्परासे कहे हुए तत्वोंका मनन करनेवाला न होगा तबतक वह वीतराग विज्ञानमई शुद्ध आत्मतत्व बोधक-कषाय विध्वंसक उपदेश दे नहीं सकता। ऐसे उपदेशे हुए धर्ममें असत्यकी ही तरफ प्राणियोंको उत्साहित किया जाता है। सत्य एक शुद्धात्मा स्वरूप मोक्ष है। वह कुधर्म मोक्षसे विपरीत संसारकी तरफ
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वारणतरण
ले जानेवाला है। कुमति कुश्रुतमई मिथ्याज्ञानसे वह पूर्ण है। वह सम्यग्दर्शनसे विपरीत मिथ्या.
दर्शनका वर्डक है। वीतरागताको उत्पन्न करनेकी अपेक्षा वह रागद्वेषके बंधनमें फंसानेवा Vऐसा धर्म जो कोई भी है उसकी सेवा जो कोई करेंगे वे अवश्य संसारमें दुःख पठार
श्लोक-अधर्म धर्म संप्रोक्तं अज्ञानं ज्ञान उच्यते ।
अनित्यं शाश्वतं वदते, अधमै संसार भाजनं ॥ ९३ ॥ अन्वयार्थ—(अधर्म ) जो धर्म वास्तव में नहीं है उसे (धर्म ) धर्म ( संप्रोक्तं ) बताता है, ( अज्ञानं ) जो वास्तव में यथार्थ ज्ञान नहीं है उसको (ज्ञानं ) ज्ञान (उच्यते ) कहता है (अनित्यं ) जो नित्य नहीं
उसको (शाश्वतं ) नित्य ( वदते) कहता है (अधर्म ) ऐसा मिथ्याधर्म (संसार भाननं ) संसारका बढानेवाला है। ७ विशेषार्थ-अहिंसा धर्म है हिंसा अधर्म है यह बात सर्व ज्ञानियोंको मान्य है तथापि इस ॐ कुधर्ममें हिंसाको धर्म बता दिया गया है । पशुओंकी बलि चढानेसे देवता प्रसन्न होंगे, पुण्य बंध
होगा, ऐसा कह दिया गया है । यथार्थ ज्ञान वस्तुका अनेकांत स्वरूप है। वस्तु किसी अपेक्षा नित्य किसी अपेक्षा अनित्य, किसी अपेक्षा एक किसी अपेक्षा अनेक, किसी अपेक्षा सत् किसी अपेक्षा असत् है । कभी वस्तुका नाश नहीं होता है इस अपेक्षा नित्य है । अवस्थाओंका परिणमन उत्पाद व्यय रूप होता है इससे वस्तु अनित्य है, वस्तु अनेक गुणोंका अखण्ड पिंड है इससे एक रूप है। सर्व गुण वस्तुमें सर्वत्र व्यापक हैं इससे वस्तु अनेक रूप है। वस्तु अपने स्वभावकी अपेक्षा सत्य है उसमें परके स्वभावोंका अभाव है इस लिये असत् है । ऐसा होते हुए भी जो धर्म एकांत ही माने, नित्य ही माने, अनित्य ही माने, एक रूप ही माने या अनेक रूप ही माने इत्यादि मान्यताको सत्य नहीं कहा जासका । वह कुधर्म एकांत ज्ञानका पोषक है। अथवा परमात्मा कृतकृत्य सर्वज्ञ वीतरागी है ऐसा कहते हुए भी उसको जगतका निर्माता व जगतका संहार कर्ता व दुःख सुखका दाता कहना प्रगट अयथार्थ ज्ञान है। जो नित्य आनन्दरूप कृतकृत्य होगा वह संसारकी रचना करने व बिगाडने में अपनेको नहीं फंसा सका है। यह सब मिथ्याज्ञानका प्रकार है। संसारमें जितनी कर्म जनित अवस्थाएं हैं वे अनित्य हैं, नित्य मात्र एक निर्वाण है,
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श्रावकाचार
॥
जहांसे फिर कभी आत्माका पतन नहीं होता है। ऐसा होते हुए भी अनित्य ऐसा जो स्वर्गवास व भोगोंका समागम आदि उसको नित्य कहना, यह सब कुंधर्म है। जो ऐसे धर्मके श्रद्धावान हैं वे पत्थरकी नौकामें चढ़ते हुए संसारमें डूबते हैं-वे पार नहीं पासक्ते हैं।
श्लोक-कुगुरुं अधर्म प्रोक्तं, कुलिंगी अधर्मे स्थितं ।
मान्यते अभव्यजीवेन, संसारे दुक्खकारणं ॥ ९४ ॥ मन्वयार्थ-(कुगुरुं) कुगुरुके (प्रोक्तं) कहे गये (अधर्म) अधर्मको व (अधर्मे ) कुधर्ममें (स्थितं ) चलनेवाले ( कुलिंगी) मिथ्याभेषी साधुको ( अभव्य जीवेन) अभव्य जीव ( मान्यते) अडान करके पूजता है । यह मान्यता (संसारे) इस संसारमें (दुक्खकारणं) दुःखोंका कारण है।
विशेषार्थ-यहां अभव्य जधिसे प्रयोजन उस जीवकी तरफ है जो मूढ बुद्धि है, संसार रोचक है, विषय कषायोंका प्रेमी है, ऐसा जीव ऐसे ही धर्मको चाहता है जिससे अपना लौकिक प्रयोजन सिद्ध होसके । धन पुत्रादिकी वृद्धि हो, जगतमें यश हो, विषयभोगोंके पदार्थोंका सम्बन्ध हो उसे आत्मानुभवरूप शुद्ध धर्म नहीं रुचता है । इसलिये ऐसा मृढ प्राणी असत्य धर्मकी व ऐसे अधर्मके उपदेश दाता कुलिंगी गुरुकी श्रद्धा कर लेता है और बड़ी भक्तिसे उनकी आराधना करता है जिससे पाप बांधकर संसारमें उस पापका फल दुःख भोगता है। जगतमें देखा जावे तो करोडों प्रकारके देवी देवताओंका स्थापन कुलिंगी गुरुभोंने नाना नामोसे कर रक्खा है। उनके द्वारा नानाप्रकारके लौकिक फलोंके पानेका लोभ दिया जाता है। मूर्ख प्राणी उस लाभकी आशासे कि हमारे लौकिक स्वार्थ सिद्ध होंगे, उन स्थापनाओंकी बडी भक्ति करते हैं। व उनके उपदेश दाताओंकी बड़े भावसे प्रतिष्ठा करते हैं। दूर दूर देशांतरसे इसी लोभमें आते हैं । वडा भारी परिश्रम उठाते हैं। संसारकी कामनामें फंसे हुए संसारकी ही सेवा करते हुए वे अपने संसारको बढ़ा लेते हैं, कुगतिमें जाकर दु:ख उठाते हैं।
श्लोक-अधर्म लक्षणश्चैव, अनृतं असत्यं श्रुतं ।
उत्साहं सहितं हिंसा, हिंसानंदी जिनागमे ।।९५॥
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सारणतरण
श्रावसकर
अन्वयार्थ-(जिनागमे ) श्री जिन आगममें (अधर्म ) कुधर्मका ( लक्षणश्चैव) लक्षण यही है (अनृतं) मिथ्यात्वरूप हो ( असत्यं श्रुतं ) असत्य शास्त्रसे प्रतिपादित हो ( उत्साहं सहितं हिंसा) जिसमें उत्साह सहित हिंसाकी पुष्टि हो अर्थात् (हिंसानंदी) हिंसामें आनन्द माननेवाला हो।
विशेषार्थ-कुधर्मका स्वरूप यही जैन शास्त्र में है कि जो मिथ्या दर्शन, मिथ्र्यो ज्ञान, और मिथ्या चारित्ररूप हो । आत्मा और अनात्माका न जिसमें सच्चा श्रद्धान हो, और न सच्चा ज्ञान हो। तथा जो हिंसाके स्थानमें हिंसाको पुष्टि करता हो । हिंसाके होनेमें धर्म मानकर आनन्द मनाया जाता हो वह सब कुधर्म है। श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें स्वामी समन्तभद्र कहते हैं
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । यदीय प्रत्यनीकानि भवंति भवपतिः ॥ भावार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको तीर्थकरोंने धर्म कहाँ है तथा इनके उल्टे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्रको कुधर्म या अधर्म कहा है। क्योंकि ये ही संसारकी परिपाटीको बढानेवाले हैं।
सर्वज्ञ वीतरागको देव मानना, परिग्रह आरम्भ रहित ज्ञान ध्यानमें लीन निग्रंथ साधुको गुरु मानना, आत्मोन्नति कारक अहिंसामय धर्मको धर्म मानना जब सम्यग्दर्शन है तब इनसे विरोध रूप राग देष सहित अल्पज्ञानीको देव, परिग्रह धारी संसारासक्त साधुको गुरु, आस्माके रागद्वेष वईक व हिंसा पोषक मतको धर्म मानना मिथ्यादर्शन है। जीवादि सात तत्वका सच्चा श्रद्धान सम्यग्दर्शन है तब उनसे विपरीत तत्वों में श्रद्धान करना मिथ्यादर्शन है। आत्माके अशुद्ध होने व उसके शुद्ध होनेका उपाय इन सात तत्वों में भलेप्रकार बताया है। इनको न जानकर औरका और तत्वका अडान मिथ्यादर्शन है। देव गुरु धर्म तथा सात तत्वोंको यथार्थ न जानना मिथ्याज्ञान है। अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग इन महावतोंके विरुद्ध हिंसादि पोषक जो कुछ भी चारित्र है वह मिथ्याचारित्र है। निश्चयनयसे शुद्धात्मानुभवरूप परिणति धर्म है। इसके विपरीत जो परिणति है.वह कुधर्म है। इसतरह कुधर्मको हानिकारक व संसारवर्डक जानकर श्री सर्वज्ञ वीतराग भगवान बारा प्रणीत धर्ममें दृढ़ अडान रखना चाहिये । यही श्रावकका मुख्य कर्तव्य है।
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प्रारणतरण
लोक-हिंसानंदी सृषानंदी, स्तेयानंद अबभयं । ॥१०॥
रौद्रध्यानं च संपूर्ण, अधर्म दुःखदारुणं ॥ ९६ ॥ अन्वयार्थ (हिंसानंदी) जो हिंसामें भानंद माननेवाला हो (मृषानंदी ) जो मिथ्यावादमें व मिथ्या तत्वों में रंजायमान होनेवाला हो (स्तेयानंद) जो चोरीमें आनंद माननेवाला हो (अवमयं) जो अब्रह्म या कुशील षोषक हो (रौद्रध्यानं च संपूर्ण) ऐसे रौद्रध्यानसे पूर्ण हो वह (दुःखदारुण ) घोर दुःख देने वाला (अधर्म) अधर्म है।
विशेषार्थ-चार प्रकारका रौद्रध्यान जिस धर्ममें भरा हो व जिसके पालनेसे चार प्रकारका रौद्रध्यान हो वह अधर्म है क्योंकि रौद्रध्यान नर्कगतिके बंधका कारण है। धर्म वह है जो उत्तम सुखमें धारण करे । अन्य शास्त्रों में चौथा रौद्रध्यान परिग्रहानंद है जब यहां अब्रह्मचर्यको कहा है कोई बाधा नहीं है। क्योंकि अब्रह्मके निमित्तसे ही धनादि स्त्री आदि पदार्थों का मुरुपतासे संग्रह किया जाता है। धर्म वही है जहां शांत भाव होसकें।जहां शुद्धात्मापर लक्ष्य रखते हुए पूजा पाठ जप तप आराधन होगा वहीं शांत भाव प्राप्त होगा। रौद्रध्यानमें शांत भाव नहीं होसक्ता। हिंसा करने, कराने व उसकी अनुमोदनामें आनन्द मानना हिंसानंद है। मिथ्या कहने, कहलाने व उसकी
अनुमोदनामें आनंद मानना मृषानंद है। चोरी करने, कराने व उसकी अनुमोदनामें आनंद मानना अस्तेयानंद है। ब्रह्मचर्यके घात करने, कराने व अनुमोदनामें आनंद मानना व परिग्रह के संग्रह करने,
कराने व अनुमोदनामें आनंद मानना परिग्रहानंद रौद्रध्यान है। जिस धर्मका उपदेश रौद्रध्यानकी पुष्टि करता हो वह कभी धर्म नहीं होसका है। जैसे शृङ्गार करनेमें, युद्धादि क्रिया दिखाने में, पशुबलि करनेमें, जल स्नान करने में, रागदेष वर्धक आकारोंको पूजनेमें, रात्रिको आहार करने में, कंदमूल खाने में, संसारासक्त परिग्रहधारी विषयलम्पटी महन्तको दान देने में, वेश्यानृत्य कराने में, जुआ खेलने में, वृक्षादि पूजने में, हाथी घोड़ा आदिके दान करने में, जो प्रेरक होकर इनको ही धर्म बतावे वह कुधर्म है। जहां विषयोंकी पुष्टि हो, राग बढ़ाया जावे, मानादि कषाय पोषण किया जावे, परको कष्ट देकर धर्म माना जावे यह सब भधर्म है, पापवर्द्धक है। उसके फलसे जीवको संसारमें घोर दुःख सहना होगा।
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सारणतरण
श्रावन
॥१.१॥
श्लोक-आरति रौद्रसंजुक्त, धर्म अधर्म प्रोक्त ।
रागादि भावसंपूर्ण, अधर्म संसारभाजनं ॥ ९७॥ अन्वयार्थ (आरति रौद्र संजुक्तं ) आर्स और रौद्रध्यान सहित (धर्म) धर्मको (अधर्म ) अधर्म (प्रोक्तं) ४ कहा है । (रागादि भाव संपूर्ण ) रागद्वेषादि भावोंसे पूर्ण (अधर्म ) अधर्म (संसार भाजन ) संसारका भ्रमण
करानेवाला है। _ विशेषार्थ-रौद्रध्यान पहले चार प्रकारका कह चुके हैं। आर्तध्यान भी चार प्रकारका है। इष्टके वियोग होनेकी वारवार चिन्ता करना इष्ट वियोगज आर्तध्यान है। अनिष्टके संयोग होनेपर उसके वियोगकी वारवार चिंता करना अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है। शरीरमें पीडा होनेपर उसके कारण घोर क्लेशका विचार करते रहना पीडा चितवन आर्तध्यान है। आगामी भोगोंकी इच्छा करके मनमें निरन्तर भावना करनी, निदान आर्तध्यान है। जिस धर्ममें ऐसे आर्तध्यानका व रौद्रध्यानका समावेश हो वह अधर्म है। कोई कोई धर्मवाले किसी पिछले मरण प्राप्त बडे पुरुषकी याद करके छाती कूटते व रोते पीटते हैं, उसमें धर्म मानते हैं। कोई मृगया शिकार करने में धर्म मानते हैं, कोई रोगादिसे पीडित होनेपर उसके लिये चिंतित रहकर देवी दिहाडी पूजनेसे रोग दूर होगा व उसके सामने रोनेसे वह दया कर देगी ऐसा मानते हुए धर्माचरण समझते हैं। कोई नाना प्रकारकी सांसारिक चाह करके पूजा दानादि करने में ही धर्म जानते हैं। कोई हास्य ठट्ठा करने में, दुर्वचन बोलने में, होली जलानेमें, कुचेष्टा करने में धर्म मान लेते हैं। कोई परिग्रह धारी महतको विशेष धन ४ देनेमें ही धर्म जानते हैं इत्यादि । जगतमें वे सब क्रियाएं जिनसे आर्तध्यान व रौद्रध्यान थोडा या
बहुत आता है या राग देषादि भावोंकी वृद्धि होती हो वह सब कुधर्म है, संसारका बढानेवाला है। ॐ धर्म तो मात्र एक वीतराग विज्ञान मय शुद्ध आत्माका भाव है या शुद्ध आत्माकी ओर उपयोगको ले जानेवाली पूजा, पाठ, जप, तप आदि क्रियाएं हैं। श्री पद्मनंद मुनिने धम्मरसायणमें कहा है
जत्य वहो जीवाणं मासिज्जह जत्थ अकियवयणं च । जत्व परदव्वहरणं सेविजइ जत्व परयाणं ॥१५॥ बहुभारंभपरिगहगहणं संतोसवज्जियं जत्थ । पंचुंबरमहुमांस भक्खिजह सत्य धम्मम्मि ॥१॥
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सारणतरण
१.९॥
डभिज्मा जत्थ जणो पिज्जा मज च जत्थ बडुदोसं । इच्छंति सो वि धम्मो केइ य अण्णाणिणो पुरिसा ॥१॥ जह एरिसो वि धम्मो तो पुण सो केरिसो हवे पावो । जइ एरिसेण सम्गो तो णरय गम्मएं केण ॥१८॥
जो एरिसय धम्म किज्जइ इच्छेह सोक्ख अँजेऊ । वावित्ता णिवतरूं सो इच्छंह संवफल्लाइं ॥ १९ ॥ ___ भावार्थ-जिस धर्ममें पशुओंका व मानवोंका व अन्य जंतुओंका वध हो, जहां मृषा कटुक हास्यादि वचन कहा जाय, जहां परद्रव्यको हरण किया जाय व परस्त्रीका सेवन किया जाय, जहां ॐ बहुत आरम्भ व परिग्रहकी वृद्धि हो, जहां सन्तोषका नाश हो, जहां मधु व मांस खानेमें व पीपल,
वड, गूलर, पाकर, अंजीर ऐसे जंतु सहित फलोंके खाने में धर्म माना जावे, जहां मानवोंको ठगा १ जावे, जहां मदिरा पीनेमें धर्म माना जावे, वहां अज्ञानी पुरुष ही धर्म मानते हैं। जो यह सब
भी धर्म होजावे तो पाप किसको कहना । जो ऐसे धर्मसे स्वर्ग जावे तो नरकमें किससे जायगा ! जो ऐसे धर्म करके सुख चाहते हैं वे नीमका वृक्ष बोकर आमफल खाना चाहते हैं।
चार विकथाका स्वरूप। श्लोक-विकहा राग सम्बन्धं, विषय कषायं सदा ।
___ अनृतं राग आनन्द, धर्मश्चाधर्ममुच्यते ॥ ९६ ॥ अन्वयार्थ (धर्म च) जो धर्म (विकहा राग सम्बन्धं) विकथाओंके रागसे सम्बन्ध रखता है व (सदा) एइमेशा (विषय कषाय ) विषय व कषायको बढाता है ( अनृतं राग आनन्दं ) मिथ्यात्वके रागमें आनन्द मानता है सो ( अधर्म ) अधर्म ( उच्यते ) कहा जाता है।
विशेषार्थ-मोक्षमार्गसे विमुख करनेवाली व संसारके भ्रम जालमें फंसानेवाली कथाओंको विकथा कहते हैं। वे चार हैं-स्त्री कथा, भोजन कथा, देश कथा या चोर कथा तथा राजकथा । स्त्रियोंके हाव भाव विलास, लावण्य व उनके विषय भोगकी कथा जिसके सुननेसे काम भावकी तीव्रता बढ जावे सो स्त्री कथा है । आहारके रसोंकी मनोज्ञताकी कथा । कौन २ सा भोजन कैसा कैसा स्वाद युक्त होता है व किस तरह प्राप्त होता है या बनता है इसकी कथा इस तरह करना
॥१०॥
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वारणतरण
श्रावकाचार
॥१०॥
जिससे भक्ष्य अभक्ष्यका विचार भी जाता रहे और आहारके भीतर लालसा बढ जावे सो भोजन कथा है। अब्रह्मके सिवाय चार इंद्रियोंके भोगकी कथा भी आहार कथामें गर्मित है। देश में क्या २ सुन्दरता है, किस तरह सुन्दर सडकें व मकान व गली आदि बनती हैं, कौनसा देश षडा सुहावना देखने योग्य खेल, कूद, तमाशेसे भरा हैं, कौनसा देशविषयभोगकी सामग्री आदिसे भरपूर है, ऐसी कथा इस तरह करना जिससे कहनेवाले सुननेवालेके परिणाममें देश दर्शनका राग बढ जावे-या चोरोंकी ऐसी कथाएं करना जिसके सुननेसे चोरोंसे भय पैदा होजावे सो सब देश कथा याचोर कथा है। राजाओंके धन, सम्पदा, सेना, स्त्री आदिकी, उपवन आदिकी, आभूषण आदिकी, ऐसी कथा करना जिससे
राज्यभोगमें तृष्णा बढ जावे सो सब राज कथा है, जिस धर्मके वर्णनसे व पालनसे इन कथाओंसे ४ राग बढ जावे, सो कुधर्म है। कहीं २ धर्मके नामसे सैकड़ों मिठाइया बनाकर खानपान करके, नाच
कूद करा करके, अतर फुलेल, गुलाल अवीर लगा करके, भांग आदि नशोंको पान करके, हमने धर्म साधा ऐसा समझ लेते हैं, सो सब संसार राग वर्द्धक अधर्म है। जिन २ धर्मकी क्रियाओंसे इंद्रियोंका संयम न रखकर इंद्रियों में लीनता हो, क्रोधादि कषाय दमन न होकर उनकी वृद्धि हो वह धर्म सब अधर्म है। जिस धर्मसे मिथ्यात्वका राग बढ जावे व मिथ्यात्वमें आनन्द मनाया जावे जैसे-कुदेवोंकी व कुगुरुओंकी भक्तिमें धनादि खर्च करके ही आनन्द मनाया जावे सो सब अधर्म कहा जाता है।
श्लोक-विकहा प्रमाणं असुहं, नंदितं असुहभावना ।
ममता कामरूपेण, कथितं वर्णविशेषितं ॥ ९९ ॥ अन्वयार्थ (विकहा प्रमाणं) विकथा सम्बन्धी जो ज्ञान है वह (अपुहं ) अशुभ है। (नंदितं) विकथाओंमें आनन्द मानना (असुहभावना) अशुभ भावना है। (कामरूपेण ) भोगोंकी इच्छाके रूपसे (वर्णविशेषितं ) अनेक तरहके भेदोंकी या वर्णनकी विशेषतासे (कथित) विकथाओंका कहना (भमता) उनमें ममता बढा लेना है।
विशेषार्थ-ऊपर लिखित चार विकथाओंको विकथा रूपसे कहने व विचारनेकी कला अशुभ विद्या है। बहुतोंको कहानी, किस्से, उपन्यास रचने की एक खास चतुराई या विद्या आती है
॥१०॥
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तारणतरण
॥१०॥
जिससे वे बड़ी मनोरंजक कथाएं व नाटक व खेल, व गान व उपन्यास बनाते हैं, जिनके पढने, ४ श्रावकाचार सुनने देखनेसे वैरागीका मन भी रागी होजावे सो सब अशुभ प्रमाण या ज्ञान है। विकथाओंको बनाकर, पढकर, सुनकर आनन्द मानते रहना अशुभ भावना है, अशुभ उपयोग है, जो पापका बंध करनेवाला है। जिनको पढकर या सुनकर कामभोगकी इच्छा बढ जावे, पांचों इंद्रियोंकी तृष्णा अधिक होजावे, इस तरहसे उन विकथाओंको मनोरंजक बनाकर नानाप्रकारके रसोंसे भरकर कथन करना विकथाओंमें ममता बढाकर विषय कषायोंमें ममत्व बढानेवाला है। जिस धर्मके भीतर
ऐसे विकथाओंकी प्ररूपणा हो उन कथाओंको कह सुनकर रंजायमानपना किया जाता है वह ४. धर्म संसार राग बढानेके कारण अधर्म है।
श्लोक-स्त्रियः कामरूपेण, कथितं वर्णविशेषितं ।
ते नरा नरयं यांति, धर्मरत्नं विलोपितं ॥ १०॥ अन्वयार्थ-(वर्णविशेषित ) अनेक तरहके वर्णनकी विशेषतासे (कथित) जिनका कथन होसके ऐसी (स्त्रियः) स्त्रियां होती हैं (कामरूपेण ) जिनके निमित्तसे कामभावकी प्राप्ति होजाती है। जो मानव इन स्त्रियोंकी कथाओं में रंजायमान होजाते हैं वे कामभावको बढ़ाकर (धर्मरत्न) धर्मरत्नको (विलोपित) गमा बैठते हैं (ते नरा) वे मानव (नरयं) नरकको (यांति) जाते हैं।
विशेषार्थ-यहा स्त्री कथाका मुख्यतासे वर्णन है। स्त्रियोंके रूपोंका व उनके चरित्रका अनेक तरहसे ऐसा वर्णन किया जासका है जिससे कामभावका उद्वेग बढ़ जाता है। उस उद्वेगसे आकुलित हो अज्ञानी प्राणी व स्त्री व परस्त्रीका विचार छोडकर अनेक तरहसे कामभोगमें फंस जाते हैं। धर्मके सच्चे उपदेशको भूल जाते हैं, धर्म रत्नको खो बैठते हैं और पापों में फंसकर नर्क
चले जाते हैं। रावण सीताजीके रागके कारण राज्यपाट खोकर अपने वंशको नष्ट कराकर-घोर ४ अपमान पाकर अंतमें नर्कका पात्र होजाता है। स्त्रियोंके मोहमें स्त्री कथासे अंधपना आजाता है। जिस धर्मकी पुस्तकों में ऐसी स्त्री राग बढानेवाली मनोहर कथाओंका संग्रह हो व ऐसी लीलाएं बताई हो जिससे महापुरुषोंको भी परस्त्री भोग करनेका दोष लगाया हो सो धर्म कुधर्म ही हैआत्माको संसार सागरमें डवोनेवाला है।
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श्लोक-राज्यं रागं उत्पादी, ममतां गावस्थितं ।
रौद्रध्यानस्य आनन्दं, राज्यं वर्णविशेषितां ॥ १०१ ॥ ॥१.५॥
अन्वयार्थ-( गारवस्थितं ) गौरवमें स्थित (राज्यं ) राज्य (राग) रागको व (ममता) ममत्वको (उत्पादी) पैदा करनेवाला है (राज्यं वर्णविशेषितं ) अनेक तरहके वर्णनकी विशेषतासे राज्यका कथन करना (रौद्र. M ध्यानस्स) रौद्रध्यानका (आनन्दं) आनन्द बढ़ानेवाला है।
विशेषार्थ-यहां राज्य कथा, देश कथा या चोर कथाकी तरफ लक्ष्य दिया है। जिस देशमें गौरवपना हो, ऐश्वर्य हो, धन धान्यसे पूर्णता हो व जो देश सुन्दर स्त्रियों से भरपूर हो, सुन्दर गाने बजाने नाच कूदसे पूर्ण हो, खेल तमाशोंका घर हो, ऐसा राज्य वास्तवमें अज्ञानी प्राणियोंको राग व ममताको बढानेवाला होता है। वे ऐसे देशमें व राज्यमें जाना चाहते हैं, सैर करना चाहते हैं।
धर्म कार्यकी हानि करके भी उनकी बुद्धि देशकी सुन्दरताको देखनेके लिये लालायित होजाती है। ४ऐसे देशकी कथा नानाप्रकार मनोज्ञ वर्णनके साथ करना, सुननेवाले के परिणाममें परिग्रहानन्द
व हिंसानन्द व मृषानन्द आदि रौद्रध्यानको उत्पन्न कर देती है। जिस धर्मकी पुस्तकों में ऐसी राग बढानेवाली देश या राज्योंकी कथा हों जिसके सुननेसे मन राज्य या देश लोभी बन जावे, राज्य सम्पदाको चाहे, निर्वाणके अनुपम राज्यसे विमुख होके संसारके मायाजालको अभिलाषा करने लग जावे ऐसा धर्म जीवोंको बुरा करनेवाला है तथा कुधर्म है। __ श्लोक-हिंसानदी च राज्यं च, अमृतानंद अशाश्वतं ।
कथितं असुहभावेन, संसारे भ्रमन सदा ॥१०२॥ अन्वयार्थ—(असुहभावेन) अशुभ भावोंके द्वारा ( अशाश्वतं ) क्षणभंगुर (राज्य) राज्यकी (कथितं) कथा करना (हिंसानंदी) हिंसानंदी (च) तथा (अनृतानंद) मृषानंदी रौद्रध्यान है (च) और (सदा) सहा
ही ( संसारे) संसारमें (भ्रमन) भ्रमण करानेवाला है। VEER विशेषार्थ-वास्तव में राज्य सम्पदा सब नाशवंत है, आज किसीके पास हैकल नहीं है, इसका
स्वामित्व कुछ कालके लिये ही होसक्ता है। कोई मनुष्य सदा जीवित रहकर राज्यका भोग नहीं
॥१०५॥
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वारणतरण
कर सका। ऐसे विनाशीक राज्य में लुभानेवाली कथा इस भावसे करना कि सुननेवालोंका मन श्रावकाचा * रंजायमान हो, विकथा है। राज्यका वर्णन करते हुए युद्धादिका वर्णन आता है। राजाओंके कपट व मिथ्या वचन व मिथ्या आचरणका भी वर्णन आता है। ऐसी कथा सुनी जाने पर सुननेवालेका मन अनुमोदना करता हुआ हिंसानन्द व मृषानन्द रौद्रध्यानमें फँस जाता है। यदि देश या राज्यकी कथा पुण्यका फल दिखलानेके लिये व वैराग्य उत्पन्न करने के लिये की जावे, व राज्यभोगके दोषोंको बताने के लिये की जावे व परोपकारके हेतुसे की जावे, परिणामों में देश सेवाके भावको उत्पन्न करनेके लिये की जावे तो वह अशुभ भावसे नहीं की गई है किंतु शुभ भावसे की गई है इसलिये ऐसी राज्य कथा व देश कथा हिंसानंद व मृषानंद ध्यान न पैदा करके परोपकारभाव व प्रजाको पीड़ासे छुड़ानका भाव पैदा करनेवाली होगी। परंतु अशुभ भावसे की गई राज्य कथा परिणामों में चारों ही प्रकारका रौद्रध्यान पैदा कर देगी। उस रागमें फंसा हुआ प्राणी अशुभ कर्म बांधकर नर्क निगोदका पात्र होकर संसारमें दीर्घकाल घुमनेवाला होजायगा। जिस धर्ममें ऐसी विकथाकी पुष्टि है वह कुधर्म है।
लोक-भयस्य भयभीतस्य, अनृतं दुखभाजनं ।
भावः विकलितं याति, धर्मरत्नं न दिष्टते ॥ १०३ ॥ चौरस्य उत्पाद्यते भावः, अनर्थ सो संगीयते।
तिष्ठते अशुद्ध परिणाम, धर्मभावं न दिष्टते ॥ १०४॥ बन्यवार्य-(मयभीतस्य) भयसे डरे हुए मानवको (भयस्य) भय देनेवाला ( अनृतं ) मिथ्या वचन (दुखमाजनं ) दुःखका बढ़ानेवाला होता है। (भावः) भाव (विकलितं) आकुलित (याति) होजाता है (धर्मरत्नं) धर्मरूपी रत्न (न दिष्टते) नहीं दिखलाई पड़ता है। (चौरस्य भावः) चोर सम्बन्धी भाव ( उत्पाद्यते) उत्पन्न कराया जाता है (सो) वह (अनर्थ) व्यर्थ (संगीयते) कहा गया है। (अशुद्धपरिणाम) जिससे मलीन भाव (तिष्ठते) स्थिर होजाता है (धर्मभावं) धर्मभाव (न दिष्टते) नहीं दिखलाई पडता है।
विशेषार्थ-यहां चोर कथाकी ओर लक्ष्य देकर कहा गया है कि चोरोंकी कक्षाएं भय
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वारणवरण
॥१०७॥
भीत प्राणीको और भी अधिक भयमें डालनेवाली होजाती हैं। साधारण रूपमें सर्व प्राणियों को अपनी सम्पत्ति के सम्बन्धमें यह भय लगा रहता है कि कहीं कोई चोर न लेजावे । और जब उनको ऐसी विकथाएं सुननेको मिलें जिनमें चोरोंने माल चुराया हो तब उनके मनमें भय अधिक हो जाता है । यह चोर कथा यद्यपि सबी भी हो तौभी इसे मिथ्या कहा गया है। क्योंकि जो वचन अहितकारी हो, दुःखका बढानेवाला हो, कषायकी वृद्धि करता हो वह सत्य होनेपर भी निरर्थक है इसीलिये मिथ्या है। जैसे- किसीके पुत्रका वियोग होगया है । इसे कुछ काल बीत गया है फिर भी किसी ने उसके पुत्रकी स्मृति इन शब्दों में करादी जिससे उसके भीतर शोक उमड आये तो उसका यह सत्य वचन भी मिथ्या ही है क्योंकि वृथा ही परिणाम विचलित व विह्वल कराने वाला वह वचन होगया । श्री पुरुषार्थसिद्धयुपायमें श्री अमृतचन्द्र आचार्यने अप्रिय वचनका मिथ्यां वचनमें गिना है और उसका लक्षण यह बताया है
भरतिकरं भीतिकरं खेदकरं नैरशोककळड्करं । यदपरमपि तापकरं परस्य तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयं ॥ ९८ ॥
मावार्थ — जो वचन दूसरेके मनमें अरति भाव पैदा करदें उसे कुछ सुहावे नहीं ऐसा उदास भाव करदें, भयको पढादे, खेद करदे, वैर भाव किसीकी तरफ उत्पन्न करदे, शोक में डालदे, लड़ाई झगडा करादे या और भी किसी तरहका दुःख पैदा करादे वह सर्व वचन अप्रिय जानना योग्य है । इसी लिये चोरोंकी कथा वृथा हो डरानेवाली होती है, परिणामों में मलीनता व घबड़ाहट आ जाती है तब शुद्ध आत्मीक भाव रूपी रत्न नहीं सूझता है, धार्मिक भाव नहीं दिखलाई पडता है । परिग्रह में ममता ही भयके उपजनेका कारण है । यह चोर कथा परिग्रहकी ममता के साथ २ भयको बढ़ा देती है । उस समय यह सम्यक्त भाव कि मेरा परिग्रह नहीं है, यह सब पर है, छूटनेवाला है, मेरी आत्मीक ज्ञानदर्शन सम्पदा ही मेरी है, नहीं रहता है।
इसी कारण यह चोर कथा विकथा है, अनर्थकारी है तथा धर्मरूप न होकर कुधर्म है। आरति रौद्र संयुतं । संसारे दुःखदारुणं ॥ १०४ ॥
श्लोक - चौरस्य भावना दिष्टा, स्तेयानंद आनंद,
श्रावकार
॥१०७॥
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वारणवरण ॥१०८॥
अन्वयार्थ – (चौरस्य भावना ) चोरी करनेकी भावना (आरति रौद्र संयुतं ) अंर्त तथा ध्यान सहित (दिष्टा ) चोर कथाके कारण दिखलाई पड़ती है । (स्तेयानंद) सो चौर्यानंद रौद्रध्यान में (आनंद) आनन्द मानना (संसारे) संसार में (दुःखदारुणं ) भयानक दुःखोंका देनेवाला है ।
विशेषार्थ —चोरोंकी विकथासे सुनने पढ़नेवालोंके मनमें चोरी करनेकी भावना इस कारण हो उठती है कि चोरी करनेसे जब प्रचुर धनका लाभ होना तथा उस धनसे अन्यायके विषय भोग करना सुनाई देता है तब अज्ञानीके मनमें यह भाव पैदा होजाता है कि हम भी चोरी करके धन संग्रह करें और मनमाने विषयभोग करें तो बहुत अच्छा है । इस भावका फल यह होता है कि वह निदान नामके आर्तध्यान में तथा हिंसानंदी, मृषानंदी, चौर्यानंदी, परिग्रहानंदी चारों ही रौद्रयानों में उलझ जाता है । जब ऐसी भावना दृढ होजाती है तब चोरी करनेमें प्रयत्न भी हो जाता है । इस तरह घोर पाप कमाकर संसार में घोर दुःखोंको उठाता है। चोरी करना, कराना व उसकी अनुमोदना तीनों ही हिंसा के पापमें गर्भित हैं क्योंकि परको पीडा पहुंचानेका विचार होता है इसलिये ऐसी विकथा न कभी करनी चाहिये और न कभी सुननी चाहिये । श्लोक-चोरीकृतं व्रतधारेन, जिनउक्तं पद लोपनं ।
अशाश्वतं अनृतं प्रोक्तं, धर्मरत्न विलोपितं ॥ १०६ ॥
अन्वयार्थ - ( व्रतधारेन ) व्रतोंको धारते हुए ( चोरीकृतं ) जो चोरी की जाये वह (जिन उके पद ) जिनेन्द्र के कहे हुए वचनोंका (लोपनं ) लोप करना उसका ऐसा करना ( अशाश्वतं ) सनातन नहीं है (अनृतं) मिथ्या है ऐसा (प्रोक्तं ) कहा गया है, ( धर्मरत्नं ) धर्मरूपी रत्नको (विलोपित) चुराना है । विशेषार्थं—यहांपर उन लोगोंको लक्ष्य में लेकर कहा गया है जो शास्त्रकी आज्ञाको लोपकर शास्त्रानुसार व्रतों का नियम न लेकर मनमानी क्रिया पालते हैं तथा शास्त्राज्ञाको लोपकर शास्त्र के विरुद्ध आचरण करते हैं तौभी अपनेको श्रावक व्रती या साधु महाव्रती कहते हैं । यह भी चोरी ही है। क्योंकि जिनेन्द्र के कहे हुए वचनों को छिपाया जाता है। यह महान झूठ है तथा यह सनातनके मार्ग से विपरीत । जिस धर्मरत्न से आत्मकल्याण होता उसको इसने चुरा लिया, छिपा
श्रावकाचार
॥१०८॥
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श्रावकाचार
लिया, अधर्ममें फंस गया, धर्मका चोर बन गया। धर्मास्माको उचित है कि वह शुर मनसे
जितना आचरण अपनेसे पलता जावे उतना आचरण पालनेकी प्रतिज्ञा ले और शुद्ध मनसे उतने ॥१०॥ आचरणको पाले | महा व्रती साधु होकर परिग्रह रखना, रुपया पैसा रखना, खेती कराना, लेनदेन
करना, वस्त्रादि रखना, पालकी पर चढ़ना आदि सब क्रिया मुनिधर्मको लोप करनेवाली हैं। ऐसी क्रियाओंको करते हुए अपनेको साधुपदमें कहना मुनिधर्मको लोप करके धर्मकी चोरी करना है।
श्रावकोंकी ११ ग्यारह प्रतिमाओंमें जो २ आचरण जिस प्रतिमाके योग्य है उसको भले प्रकार रन पालकर औरका और पालना व अपनेको व्रती श्रावक मानना धर्मरत्नको चुराना ही है । यहां
यह प्रयोजन है कि हरएक प्राणीको शुद्ध मनसे धर्माचरण शास्त्रकी आज्ञानुसार यथार्थ पालना चाहिये जिससे जिनाज्ञा लोपका कोई दोष न लगे।
सात व्यसनोका स्वरूप। श्लोक-विकहा अधर्म मूलस्य, व्यसनं अधर्म संस्थितं ।
ये नरा भाव तिष्ठते, दुःखदारुण पुनः पुनः॥१०७॥ अन्वयार्थ (विकहा) विकथा तो (अधर्म मूलस्य) अधर्मकी मूल है। (व्यसन) सात व्यसन (अधर्म सस्वितं) अधर्मका ठिकाना है (ये नरा ) जो मानव (भाव) अपने भावों में (तिष्ठन्ते ) उन विकथाओंको तथा व्यसनोंको धारते हैं उनको (पुनः पुनः ) वारवार ( दुःख दारुणं ) भयानक दुःखोंकी प्राप्ति होती है।।
विशेषार्थ-चारों विकथाएं प्राणियोंके मनके भीतर अधर्मका बीज बो देती है। स्त्री कथासे * कामी, भोजन कथासे जिह्वा लोलुपी, देश कथासे तथा राजा कथासे हिंसानन्दी, परिग्रहानन्दी हो
जाता है। इसी तरह सात व्यसन अधर्ममें दीर्घकाल तक स्थापित रखनेवाले हैं। जो व्यसनोमें फंस जाता है उसके मनके भीतर ऐसी दृढता होजाती है-उसको ऐसी बुरी आदत पड़ जाती है कि फिर उसके भावोंसे व्यसन सेवनकी रुचि नहीं जाती है। व्यसन बुरी आदतको कहते हैं व व्यसन आपत्तिको भी कहते हैं। जिन बुरी आदतोंसे मानव आसक्त होजावे व जिनके सेवनसे इस
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सारणतारण लोकमें धन हानि, यश हानि, शरीर हानि, धर्म हानि उठाता है, परलोकमें तीब पाप बाधकर नर्क ॥११॥ आदिके दुख उठाता है सो भी एकवार नहीं वारवार दुखोंको भुगतनेवाली पर्यायों में जन्मना पड़ता है, ऐसे व्यसन सात हैं।
दोहा-जूआ खेलन मांस मद, वेश्या व्यसन शिकार | चोरी पररमनी रमन, सातों न्यसन निवार ॥
भावार्थ-जूआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यासेवन, शिकार खेलना, चोरी करना, परस्त्री सेवन करना, ये सात व्यसन महान अन्याय हैं। जो धर्मकी प्राप्ति करना चाहें उनको यहां यह शिक्षा दी है कि वे स्त्री, भोजन, देश व राजाकी राग द्वेष बढानेवाली कथाओंको कहें व सुने नहीं तथा वे इन सात व्यसनोंकी रुचि न पैदा करें। जो इनमें से एक भी व्यसनमें फंस जाता है वह अपना जीवन बिगाड़ देता है। आत्माकी शुद्धोपयोग परिणतिको धर्म कहते हैं। उस धर्मका लाभ व्यसनासक्तको अत्यन्त दुर्लभ है। अतएव हितैषीको इन सातों बुराइयोंसे अपनेको पचाना चाहिये।
लोक-जुआ अशुद्ध भावस्य, जोहतं अनृतं श्रुतं ।
परिणए आतिसंयुक्तं, जूआ नस्यभाजनं ॥ १०८॥ अन्वयार्थ (जुआ) जुआ खेलना (अशुद्ध भावस्य ) अशुद्ध भावोंको (जोडतं ) उत्पन्न करनेवाला ॐ है ( अनृतं ) मिथ्या ( श्रुतं ) वाणीरूप है ( आतिसंयुक्तं ) आर्तध्यान सहित ( परिणए ) परिणामोंको कर देता है। (जूआ) यह जूमा ( नरयभाजन ) नरकका लेजानेवाला है।
विशेषार्थ-यहां पहले गृत व्यसनका कथन किया है कि सात व्यसनोंका सहोर जुआ खेलना है। जुआरीके भावों में भारी अशुद्धता आजाती है। वह तीन लोभ व मायाके वशीभूत होजाता है। मिथ्या व कठोर वचनोंका प्रयोग भी जूएमें होजाता है। परिणामों में धन पानेकी तीन लालसा हो जाती है। यदि धन हाथसे निकल जाता है तो उसके चले जाने की घोर चिंता दिलमें आजाती है। यदि कहीं जीत होजाती है तो अभिमान बढ़ जाता है तथा और अधिक जूए खेलनेके भाव होजाते हैं। जुआरीके भाव तीन तृष्णामें फंस जाते हैं। यदि आयुबंधका अवसर आजावे तो उसको नरक आयु बांधकर नरक जाना पड़ता है। जूएकी धुनमें जुभारी धर्म कर्म न्याय अन्याय सर्व भूल जाता
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वारणतरण ॥११२ ॥
। हारता है तो धन कर्ज लेकर, गहना बेचकर फिर जूएमें लगाता है। यदि जीतता तो जीता हुआ धन शीघ्र हो न करने योग्य विषय भोगोंमें, मित्रोंके व्यवहार में खर्च होजाता है । जूभारी कुसंगति में पडकर नशा पीने लग जाता है, मांस खाने लग जाता है, वेश्या व परस्त्रीगामी होजाता है । शिकार की भी आदत पड़ जाती है, चोरी करने से ग्लानि चली जाती है, दूसरे छः व्यसन शीघ्र ही जुआरीके पास आजाते हैं, जुआरीका मन न्याय पूर्वक आजीविका करनेसे हट जाता है, उसके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष चारों ही पुरुषार्थ बिगड़ जाते हैं ।
श्री अमितगति आचार्य सुभाषित-रत्न संदोह में कहते हैं
तावदत्र पुरुषा विवेकिनस्तावति प्रतिजनेषु पूज्यता । तावदुत्तमागुणा भवन्ति च यावदक्षरमणं न कुर्वते ॥ ६२२ ॥ सत्त्यमस्यति करोत्यसत्यतां दुर्गतिं नयति हन्ति सद्गतिं । धर्ममत्ति वितनोति पातकं द्यूतमत्र कुरुतेऽथवा न किम् ॥ ६२४ ॥
भावार्थ – जबतक ये मानव जुआ नहीं खेलते हैं तबतक वे विवेकी होते हैं, तबतक ही जगत में उनकी पूज्यता होती है, तबतक ही उत्तम गुण उनमें वास करते हैं। यह जुआ सत्य से गिरा देता है, असत्यमें फंसा देता है, सद्गतिका नाशकर दुर्गतिमें पटक देता है, धर्मसे परिणामों को हटा देता है, पापका भाव फैला देता है । यह जूआ मानवका क्या क्या बिगाड़ नहीं करता है ? हरएक पुरुषको योग्य असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या कर्म इन छः मार्गों से न्यायपूर्वक अपनी योग्यता व स्थिति के अनुसार आजीविका करके गृहस्थका पालन करना चाहिये । जूएके पैसेकी बिलकुल भी चाह नहीं करना चाहिये । रूपया पैसेकी हार जीत करके जुआ खेलना तो महा बुरा है ही । मात्र वचनों की हार जीतका भी जूआ एक समयको सदुपयोग करनेवाले विवेकी गृहस्थको नहीं खेलना चाहिये। जो लोग ऐसा कहते हैं कि दिवाली में व अन्य किसी अवसरपर जूना खेलना धर्म है, न खेलने से पाप होता है, वे वास्तव में अधर्म के प्रचारको कराके मानवोंको घोर पापमें फंसानेकी शिक्षा देते हैं। वर्ष में एक दिन भी जुआ खेलना हानिकारक है । ऐसे लेनदेन जिनमें मात्र वचनोंके द्वारा हजारों व सैकडोंके दाव इधर उधर होजावें जूएके समान ही दुःखदाई हैं। वे प्राणीको घोर आकुलतामें पटक देते हैं। शीघ्र ही मानव धनिकसे कंगाल होकर कष्ट पाता है । ऐसे लेनदेन से कई एक मानव कभी धन अधिक एकत्र कर पाता है किंतु अनेक अधिक हानिसे विलचिलाते
श्रावकाचार
॥१२२॥
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१२॥
हैं, वह अधिक धन पानेवाला भी कालातरमें धन गमाकर पछताता है। जिसमें नीतिपूर्वक थोडा लाभ व थोडी हानि हो कि जिसको सह सक्ता हो, आकुलता में हो ऐसा ही व्यापार व लेनदेन
ग्रहस्थोंको करना योग्य है। YERNEHA वचनोंकी हारजीतके फंदे में फंसे हुए मानव तास, चौपड़, सतरंज आदि खेल करते हुए
प्रतिदिन जीवनको अमूल्य समय घंटों नाश कर देते हैं। तथा हारके भय व जीतके तीन लोभमें पड़े हुए कषाय भावोंसे उतनी देर पापका ही घंध करते हैं। इस चाटका भी चटोरा धर्म कर्म व खानपान समय पर करना भूल जाता है। जीवनका समय अमूल्य है। उसे उपयोगी कामों में न लगाकर जूए आदि व्यसनों में लगाना अमृतको पैर धोने में खर्च कर देना है, जीवनके समयको वृथा नाश करना है। अतएव जो श्रावकोंका आचार उत्तम प्रकारसे पालना चाहें उनको हरतरहकी हारजीतका जूआ नहीं खेलना चाहिये । अशुद्ध भावोंसे अपना बिगाड नहीं करना चाहिये ।
श्लोक-मांसं रौद्रस्य ध्यानस्य, सम्मुर्छन यत्र दिष्टते ।
जलं कंदस्य मूलस्य, साकं सन्मूर्छनं तथा ॥ १०९ ॥ मन्वयार्थ-(मांस ) मांस खाना (रौद्रस्य ध्यानस्य) रौद्रध्यानका कारण है। (यत्र ) जहा (सम्मृछन) सम्मूर्छन त्रस जंतु (दिष्टते) दिखलाई पड़ते हैं (तथा) उसी तरह (जल) अनछना जल लेना (कंदस्य) कंदका खाना (मुलस्य) मूलका खाना (सार्क) शाक-भाजी (सन्मूर्छनं ) तथा अन्य पदार्थ जिसमें , सन्मूर्छन जंतु उत्पन्न हो, खाना है।
विशेषार्थ-यहां दूसरे व्यसन मांस खानेका निषेध किया गया है। मांस बहुधा पशुओंके घातसे होता है। जो मांसाहारी होता है उसके दिल में पशु हिंसासे आनन्द भाव पैदा होता है। इसलिये उसके निरन्तर हिंसानन्दी रौद्रध्यान रहता है। दयावान प्राणी किसी भी तरह भूलकर भी मांसका ग्रहण नहीं करता है। जब जगतमें अन्न, फल, दूध, घी, मेवा आदि मांसकी अपेक्षा अधिक पौष्टिक पदार्थ मिलते हैं तब उनको ही खाकर जीवन यात्रा करना मानवका कर्तव्य है। प्राणीघातक मांसको लेकर तडफते हुए पशुओंकी कसाईखानों में हिंसा कराना उचित नहीं है।
॥११॥
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वारणतरण
॥११३॥
मानवका मृतक शरीर जैसे अशुद्ध है वैसे ही पशुका मृतक शरीर अशुद्ध है । जैसे मुरदेके भीतर अंतर्मुहूर्त पीछे अनगिनती मानव जातिके सम्मूर्छन जंतु पैदा होते हैं वैसे ही पशु मांस में पशु जातिके सन्मूर्छन जंतु पैदा होते हैं। यदि बिना मारे हुए ही स्वयं मरे हुए पशुका भी मांस मिल जाये तो भी नहीं खाना चाहिये । क्योंकि वह भी अनगिनती सम्मूर्छन पैदा होनेवाले अस जंतुओंका ढेर है । उसमें वारवार अनेक जंतु पैदा होते हैं तथा मरते हैं। इसीसे मांसकी दुर्गंध कभी नहीं जाती ।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में श्री अमृतचंद्र महाराज कहते हैं
मामास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातस्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥ ६७ ॥
आमा वा पक्कां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचितं पिंडं बहुजीवकोटीनां ॥ ६८ ॥
भावार्थ – कच्चे, पके हुए, पंकते हुए मांसके टुकडोंमें निरंतर इसी जातिके सम्मूर्छन जंतुओंकी उत्पत्ति होती रहती है- जो कच्चे या पके मांसकी डलीको खाता है या छूता है सो कोटानुकोटि निरंतर एकत्र हुए जंतुभोंकी हिंसा करता है । सुभाषितमें अमित० कहते हैं
येऽन्नाशिनः स्थावरजंतुघातान्मांसाशिनो येऽत्र सजीवघातान् । दोषस्तयोः स्यात्परमाणुमेर्वोर्यथान्तरं बुद्धमतेतिवेद्यम् ॥१३०॥ अश्नाति यः संस्कुरुते निहन्ति ददाति गृहात्यनुमन्यते च । एते षडप्यत्र विनिन्दनीया भ्रमन्ति संसारवने निरंतरं ॥९६९॥
भावार्थ- जो कोई कहे कि अन्नादि फलादि खाने में भी तो स्थावर जीवोंकी हिंसा होती है उसका समाधान यह है । अन्नादिके व्यवहारमें मात्र स्थावर जीवोंकी हिंसा है जब मांसाहार में स जंतुओं की इतनी अधिक हिंसा है कि दोनोंकी हिंसा में परमाणु और मेरु पर्वत के समान अन्तर बुद्धिमानको जानना चाहिये । अधिक हिंसा से बचना ही बुद्धिमानी है । जो कोई मांस खाता है, पकाता है, पशुको मारता है, दूसरेको देता है, हाथ में लेता है, व उस मांस खानेको अच्छा सम झता है ये छहों ही निंदनीय हैं। वे छहों ही पाप बांधकर निरन्तर संसार वन में भ्रमते हैं। यहांपर ग्रन्यकर्ताने श्रावकों को दूसरी वस्तुओंकी तरफ भी ध्यान दिलाया है जिनमें मांसकासा दोष आता है उनमें एक जल भी है।
जल छानने की विधि-विना छना हुआ पानी त्रस जंतुओं सहित है, उसमें निरंतर त्रस जीव पैदा होते हैं, इसलिये जलको दोहरे गाढे छन्नेसे छानकर उसकी जिवानी जहांसे भरा हो
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श्रावकाचार
॥ १११ ॥
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वारणतरण
श्रावकाचा
॥११॥
वहीं पहुंचा देनी चाहिये। ऐसा छना जल दो घडी या ४८ मिनिट तक काममें लेना चाहिये। फिर वह छानने लायक होजाता है। पानी छाननेके सम्बन्ध में दौलतरामजी क्रियाकोषमें कहते हैं
रंगे वस्त्र नहि छानो नीरा, पहरे वस्त्र न गालो वीरा ॥२४४॥ नाहिं पातरे कपड़े गालो, गाढ़े वस्त्र गालि अघ टालो । रेजा दिढ़ अँगुर छतीसा, लम्बा अर चौड़ा चौवीसा ॥२४॥ ताको दो पुड़ताकर छानो, याहि नातणाकी विधि जानो । जल छानत इक बूंदहिं धरती, मति डारहु भाषे महावरती ॥१४६॥ एक बूंदमें अगणित प्राणी, यह आज्ञा गावे जिनवाणी । गलना चिहुँटी धरि मत दावो, जीवदयाको जतन धरावो ॥२१॥ छाणे पानी बहुते भाई, मल गरणा धोवे चित लाई । जीवाणीको जतन करौ तुम, सावधान हौ विनवे क्या हम ॥२८॥ राखहु जलकी किरिया सुद्धा, तब श्रावक व्रत लहो प्रबुद्धा । जा निवाणकी त्यावो वारी, ताही ठौर निवाणी डारी ॥२९॥ द्वै घटिका वीते जो जाको, अनछानाको दोष जु ताको । तिक्त कसाय भेलि किये फासु, ताहि अचित्त कहें श्रुत भासू ॥२५॥ पहर दोय बाजे जो भाई, अगणित त्रस श्रीवा उपजाई । ज्योढ तथा पौने दो पहरा, आगे मति वरतो बुधि गहरा ॥१५॥ भात उकाल उष्ण जल जो है, सात पहर ही लीनू सो है। बीते वसूजाम जल उष्णा, बस मरिया इह है जु विष्णा ॥२५॥
भावार्थ-गाढेका नया छन्ना कमसेकम ३६ अंगुल लम्बा व २४ अंगुल चौडा लेकर दोहरा करके जल छाने। छानकर छने पानीसे जीवानी एकत्र करके यातो उसी समय या फिर पानी भरते समय वर्तन में डालकर कूपमें पहुंचादे । यह पानी दो घडी चलता है। यदि कषायला द्रव्य लोग, इलायची, निमक, मिर्च आदि डालकर प्राशुक किया जाय तो छः घंटेके भीतर२ वर्त लेवे फिर त्रस जंतु वैदा होजायंगे । यदि औटाले तो ८ पहर या २४ घंटे पानी चलेगा उसके भीतर वर्तले, फिर प्रस जंतु वैदा होजायंगे । मात्र उकाला नहीं परंतु खूब उष्ण हो तो शामतक चल सका है ऐसा प्रसिद्ध है। भावककी क्रियामें छना पानी अति आवश्यक है। मर्यादाके भीतरका पानी नहीं पीनेसे बहु बस धातका दोष होता है। यदि वर्तनका मुंह बड़ा हो तो दोहरा करनेपर वर्तनके मुंहसे तीनगुणा कपड़ा होना चाहिये । जिससे अनछना जल वर्तनमें न पड़े। दयावानोंको तो स्नान भी पानी छानकर करना चाहिये। पानीके छाननेसे अपने शरीरकी भी रक्षा होती है। बहुतसे महीन जंतु रोगोंको पैदा कर देते हैं। जिस तालाव या कूएका पानी वर्तावमें नहीं आता है उसको छानकर औटाकर ही पीना उचित है जिससे शरीरमें रोग न हो।
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वारणतरण
श्रावकाचार
कंदमूलके दोष। कंदमूल-जो फल भूमिके भीतर फलकर गड़े हुए निकलते हैंव जड आदि व वृक्षका धड जो जड़से मिला हो सो सब कंदमूलमें हैं। जैसे आलू, सुरण, घुइयां, शकरकंदी, मूली, गाजर, अदरक आदि। इन सबमें यद्यपि त्रस जंतुका घात नहीं है परंतु अनंत एकेंद्रिय स्थावर जीवोंका घात होजाता है। यहां ग्रंथकर्ताने उनकी हिंसाका दोष त्रस हिंसाके समान गिनकर मांसके दोषोंमें मना किया है। पुरुषार्थसिन्धुपायमें श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं
एकमपि प्रजिघांसुः निहन्त्यनन्तान्यतस्ततोऽवश्यम् । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम् ॥ १२ ॥
भावार्थ-जिस एकको घात करनेसे अनंत स्थावर जीवोंका घात होता है इसलिये अनन्तकायर वाली साधारण वनस्पतियोंको सर्व प्रकार त्याग कर देना चाहिये।
कंदमूल प्रायः इस ही दोषमें है। अत: त्यागना ही उचित है।
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शाक क फूलका दोष। शाक-शाक भाजी पत्ती पत्तेवालीका भी यहां मना किया है उसमें भी साधारण वनस्पतिका ४ सम्बंध विशेष रहता है तथा प्रायः छोटे २ अस जीव भी बैठे रहते हैं। तथा फूलों में भी यही बात है इसी लिये दौलतरामजी कहते हैंपत्र फूल कन्दादि भलें जे, साधारण फल मूढ चले जे । ते नहिं जानो जैनी भाई, जीभलम्पटी दुर्गति जाई ॥१.३॥ इसी तरह और भी वे पदार्थ जिनमें सन्मूर्छन त्रस जंतु पैदा हो, खाना उचित नहीं है। उनको कुछ आगे कहते हैं
सन्मुर्छन स जन्तु। ___ श्लोक-स्वादं विचलितं यस्य, सन्मूर्छन तस्य उच्यते ।
- ये नरा तस्य मुक्तं च, तिर्यश्चा: नर संति ते ॥ ११ ॥
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श्रावकाचार
तारणतरण १ ४
अन्वयार्थ-(यस्य) जिस भोजन या फल पा रसका (स्वाद) स्वाद (विचलित) बिगड जावे (तस्य) उसके भीतर ( सन्मूर्छन ) सम्पूर्णम बस पैदा होने लगते हैं ऐसा (उच्यते ) कहा जाता है। ४(ये नरा) जो मानव (तस्य भुक्तं ) ऐसी वस्तुको खाते हैं (ते नर ) वे मानव (तियंचाः) पशु समान अविवेकी (सति) हैं।
विशेषार्थ-मांसके दोषोंको बचानेके लिये यह बात बहुत जरूरी है कि जिस किसी वस्तुमें सन्मूर्छन त्रस जन्तु पैदा हो उसको न खाना चाहिये । हरएक भोजन जो बना हुआ ताजा होगा वह अपने स्वादमें रहेगा, वासी होनेपर रस चलित होजायगा। जो फल सड जावे गल जावे वह रस चलित होगा, जो थी या तेल अपने असली स्वाद में न होगा रस चलित होगा, ऐसे पदार्थोको खाना भावकको उचित नहीं है।
मोज्य पदार्थोकी मर्यादा क्या हैं। दौलतरामजी कहते हैंअब मुनि चून तनी मर्याद, भाषे श्रीगुरु जो अविवाद । शीतकालमें सात हि दिना, ग्रीषममें दिन पांच हि गिना ॥१७॥ वर्षारितु माही दिन तीन, आगे संघाणा गण लीन । मर्यादा वीते पकवान, सौ नहिं भक्ष्य कहे भगवान ॥१८॥ जामें अन्न जलादिक नाहिं, कछु सरदी जामाही नाहिं । बूरो और बतासा आदि, बहुरि गिदौड़ादिक जु अनादि ॥११॥ ताकी मर्यादा दिन तीस, शीतकालमें भाषी ईश । ग्रीषम पंदरा वर्षा आठ, यह धारो जिनवाणी पाठ ॥११॥ अर जो अन्न तनो पकवान, जलको लेश जु माहे जान । आठ पहर मरजादा तास, भाषे श्रीगुरु धर्मप्रकाश ॥११॥ मल वनित को चूनहितनो, घृत मीठो मिलिके को बनो । ताकी चून समान हि जान, मरजादा गिन आज्ञा मान ॥११॥ भुजिया बड़ा कचौरी पुवा, मालपुवा घृत तेलहि हुवा । इत्यादिक हैं अबरहु जेह, लुचई सोरी पूरी येह ॥११॥ ते सब गिनो रसोई समा, यह उपदेश कहें प्रति रमा । दारि मात कडही तरकारि, खिचड़ी आदि समस्त विचारि ॥११५॥
दोय पहर उनकी मर्याद, आगे श्रीगुरु कहें अखाद ॥११६॥ भावार्थ-भारतवर्षकी ऋतुके अनुसार भोजनकी मर्यादा यह है कि आटा पिसा हुआ जाड़े में सात दिन, गरमीमें पांच दिन, वर्षा में तीन दिमका लेना योग्य है। जिसमें अन्न व जलादि न हो ऐसा
॥११॥
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श्रावकाचार
बूरा, बतासा, सूखा गिदौडा शीतमें एक मास, गर्मी में पंद्रह दिन व वर्षा में आठ दिन चल सका है। वारणतरण
अन्नके पकवानमें जिसमें कुछ जलका अंश हो जैसे सुहाल, मठरी, लाडू, षर्फी, पेंडा, गुलाबजामन ॥११७॥ ४ आदि आठ पहर या चौवीस घंटे के भीतरके खाने चाहिये । जलको न डालकर घी मीठा व अन्न
* मिलाकर जो लाडू बने इसकी मर्यादा आटेके समान है। भजिया, बडा, कचौरी, पूरी घीकी
तली हुई व तेलकी बनी हुई दिनभर चल सकती है, रातवासी नहीं। दाल, भात, कडी, पतली तरकारी दो पहर या छः घंटोंके भीतर खाना योग्य है। दूधको थन धोकर निकालकर अंतर्मुहूर्त अर्थात् ४८ मिनटके भीतररगर्म करने रख दे, ऑट जानेपर वह चौवीस घंटे काममें आसका है। इसी दृधको जमाकर दही बनावे। वह भी २४ घंटेके भीतर एखालेना चाहिये । आजका बना दूसरे दिन तक । छाछ उसी दिनकी खानी चाहिये। कच्चा पानी यदि डाले तो दो घड़ी भीतर ही लेनी योग्य है। घी, तेलकी मर्यादा वहीतक है जहांतक उसका स्वाद नहीं बिगडे । मक्खनको न खाकर तुर्त उसको दो घडीके भीतर गर्म करके घी बना लेना चाहिये। उसे रस चालित होनेपर कभी नहीं खाये। पापड,पडी, मंगौडी उसी दिनकी खानी चाहिये। यदि खूब सूख जावे तो दूसरे दिनतक २४ घंटेके भीतर खालेवे।
जो नरनारी मर्यादाका ध्यान न रखकर कई दिनोंके पापड, वडी, मिठाई आदि खाते हैं वे प मांसके दोषके भागी होते हैं तथा सन्मूर्छन जंतुओंका कलेवर उदर में जानेसे रोगोंकी भी उत्पत्ति
होती है। इसलिये विचारवानको सदा शुद्ध भोजन करना चाहिये। वींधा अन्न नहीं खाना चाहिये। दिन प्रतिदिन अन्न शोधकर शुद्ध स्थानमें रसोई बनवाकर जीमना चाहिये।
विदल संघाना व पूर्णफल खानेका दोष । श्लोक-विदल संधान बंधानं, अनुरागं यस्य गीयते ।
मनस्य भावनं कृत्वा, मांसं तस्य न मुच्यते ॥ १११॥ फलस्य संपूर्ण भुक्तं, सन्मूर्छन त्रस विभ्रमं । जीवस्य उत्पादनं दिष्टं, हिंसानंदी मांसदूषनं ॥ ११२ ॥
॥१
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श्रावयापार
- अन्वयार्थ (विदलं) दो दाल जिसकी हो ऐसेका दहीके साथ खाना (संधानबंधानं ) भचार मुरब्बा * बना हुआ (मस्य ) जिस किसीके (अनुरागं ) इनका राग (गीयते) पाया जावे ( मनस्य भावनं कृत्वा ) उसके
मनसे मासकी भावना की गई होनेसे (तस्य ) उसके (मांस) मांस (न मुच्यते) नहीं छोडा गया है
(संपूर्ण फलस्य भुक्तं) पुरे फलको विना देखे खाना (सम्मुर्छन त्रस विभ्रमं) उसमें सम्मूर्छन त्रस जंतुके ल होनेकी शंका रहती है। उनमें (जीवस्य ) जंतुओंका ( उत्पादनं) पैदा होना (दिष्टं) देखा जाता है। जो खाता है वह ( हिंसानंदी) हिंसामें आनंद मानता है। उसे (मांसदूषनं ) मांसका दृषण आता है।
विशेषार्थ-इन दो श्लोकोंमें ग्रंथकर्ताने मांसके दोषों में विदल, संधान, विना तोड़ा फल खाना मना किया है। दौलतरामजी उस सम्बन्धमें कहते हैं
अन्न मसूर मूंग चणकादि, तिनकी दालि जु होय अनादि । अर मेवा पिस्ता जु बदाम, चारौली आदिक अति नाम ॥१३॥ जिन जिन वस्तुनिकी है दाल, सो सो सब दधि भेला टालि । अर नो दधि भेली मिष्टान, तुरत हि खावो सूत्र प्रवाण ॥१३६॥ अंतर्मुहूर्त पीछे जीव, उपमें यह मावे जग पीव । ताते मीठा युत जो दही, अंतर्मुहूर्त पहले गही ॥१३॥ दषि गुड खावो कबहि न भोग, वरने श्रीगुरु वस्तु अनोग । फुनि तुम सुनहु भिन्न इक बात, राई लूण मिले उतपात ॥१८॥
तातें दही महीमें करे, तमो रायता कांपी रे ॥१९॥ भावार्थ-विदलका स्वरूप यह है कि जिस किसी अन्नकी या मेवाकी दो दालें होजाती हों उसको दहीके साथ मिलाकर व दहीके साथ उनकी कोई चीज बनाकर न खाये। दहीके साथ शक्कर मिलाकर दो घडीके भीतर २ खावे, परन्तु गुडको दहीमें न मिलाना चाहिये । राई, लोण, दही व छाछमें रायता बनाकर व कांजीके वडे बनाकर खाना योग्य नहीं है।
संघाणा दोषीक विशेष, सो भन्यो छानो नो असेस ॥१.१॥ भत्थाणा संधान मथान, तीन जाति इनकी जु वषानि । राई लूण कलँजी आदि, अम्बादिको बारें वादि ॥१२॥ नाखि तेलमें कर हिं अथाण, या सम दोष न सुत्र प्रमाण । त्रस जीवां तामें उपनेत, भखियां आमिष दोष लहंत ॥१०॥ नींबू आम्रादिक मो फला, लूण माहि डारे नहि भला । याको नाम होय संधान, त्यागे पंडित पुरुष सुजाण ॥१०॥ अथवा चलित रसा सब वस्तु, संधाणा जानो अप्रशस्त । बहुरि जलेषी आदिक मोहि, डोहा राव मथाणा होय ॥१.५॥ लण छाछ माहीं फल डार, केर्यादिक ने खाहिं संवार । तेहि बिगाड़े जन्म स्वकीय, जैसे पापी मदिरा पीय ॥१.६॥
॥११॥
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श्रावकाचार
भावार्थ-संधान तीन प्रकारका होता है। अथाणा, संधान, मथान । जिसमें राई, लोण, आम, तारणतरण
नींबू व तेल डालकर बनाते हैं सो अधाना है। इनमें त्रस जीव पैदा होते हैं, नहीं खाना योग्य है। ॥११९॥
नीबू व आम आदिको लूणमें डालकर संधाना बनता है। जलेबी व राब आदि जिसमें खमीर उठे सो मथाणा है। इन तीनोंको खाना उचित नहीं है। कहीं २ अग्निसे पके हुए आचार व मुरबेको
२४ घण्टे व कहीं कहीं १२ घण्टे के भीतर खाना योग्य है ऐसा कहा जाता है। * किसी भी फल को तोडकर खाना उचित है, क्योंकि उसके भीतर बस जंतु पैदा होनेकी संभाY वना है। चने, बादाम, सुपारी, जामफल, आम आदिके भीतर कभी २ कीडा निकल पडता है। से अच्छी तरहसे देखे विना कोई फल नहीं खाना चाहिये। जो विना देखे खाते पीते हैं वे हिंसाकी
परवाह नहीं करते हैं। वे हिंलामें आनन्द मानते हैं उनको मांसका दोष आता है। प्रयोजन यह है कि जिस चीजमें सन्मूर्छन त्रस जीवोंकी उत्पत्ति होगई हो व होने की संभावना हो उस वस्तुको दयावान मांसाहार त्यागीको नहीं खाना चाहिये। शुद्ध रसोई खानपान करनेसे ही श्रावक यथार्थमें मांसके सर्व दोषोंसे बच सक्ता है।
श्लोक-मये ममता भावेन, राज्यं आरूढ चिंतनं ।
भाषाशुद्धि न जानाति, मये वित्तस्य संचितं ॥ ११३ ॥ अन्वयार्थ (मये) मद्य व्यसनके भीतर ( ममताभावेन ) ममताभावके द्वारा (राज्यं आरुढ़ ) मैं राज्य कर रहा हूं ऐसा (चिंतनं ) विचार होता है (भाषाशुद्धि) भाषाकी शुद्धि (न जानाति ) नहीं जानता है। (मद्ये) मद्यमें (वित्तस्य ) धनका ( संचितं) संचय किया जाता है।
विशेषार्थ—पहां तीसरे व्यसनका स्वरूप है। मदिरा पीना प्राणीको अचेत कर देता है। वह हित अहितको भूल जाता है, मदिरा अनेक जंतुओंके घातसे सडाकर बनती है, स्पर्श योग्य नहीं है, यह उदर में जाकर अंग उपांगको आकुलव्याकुल कर देती है, तब मुढ प्राणी अपनी पुत्री तकको स्त्री मानके कुचेष्टा करने लग जाता है, यद्वा तदा पकता है, अधिक नशा चढा तो बेहोश हो पड़ जाता है। रास्तेमें मोरियों में पड़ जाता है, मानवको बावला अज्ञानी बनानेवाली यह मदिरा किसी भी तरह पीने योग्य नहीं है। सुभाषित रत्नसं होहमें कहा है
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वारणतरण ॥१२०॥
D
प्रचुरदोषकरीमिह वारुणीं पिबति यः परिगृद्ध धनेन ताम् । असुहरं विषम्यमसौ स्फुटं पिबति मूढमतिर्नननिन्द्रितम् ॥ ११६ ॥ प्रचुरदोषकरीं मदिरामिति द्वितयजन्मविवाधविचक्षणम् । निखिल तस्वविवेच कमानसाः परिहरन्ति सदा गुणिनो जनाः || १९२ ॥ भावार्थ — जो कोई धन खरचकर महान दोषकारी मदिराको पीते हैं वे मूढमति अति निन्दित भयानक प्राणहारी विषका ही पान करते हैं । यह मदिरा इस जन्मको और परभवको दोनोंका बिगाड करनेवाली है । तत्वके विचार में चतुर गुणीजन इससे सदा ही बचते हैं। मदिराके पीनेकी आदत से गरीब आदमी अपनी कमाई इसीमें खो देता है। कुटुम्बके लिये भोजन वस्त्रका भी प्रबन्ध नहीं होने पाता है। मदिरा पीनेवाला बहुतसे राज्यदंड योग्य पाप कर लेता है । उसके शरीर में रोग भी अनेक प्रकारके होजाते हैं । मदिराका व्यसन बहुत ही बुरा है । जो विवेकी श्रावक है उनको मदिरा के सिवाय और भी कोई वस्तु जो मनको मूढ बनाई, नशा पैदा करदे, कभी न लेनी चाहिये जैसे- गांजा, चरश, भंग, तम्बाकू, अफीम आदि । कोई भी नशा बुद्धिको विपरीत कर देता है व उसका खुमार जबतक जोर से चढ़ा रहता है तबतक यह प्राणी अपने जीवनका समय वृथा खोता है । जो कोई वृक्षकी पत्ती आदि हो व जिसमें हिंसा न हो वह वस्तु किसी औषधके काम में तो ली जासक्ती है परंतु मद्य के रूपमें कभी न ग्रहण करना चाहिये । मदिराका सेवन तो औषधिमें भी लेना उचित नहीं है । क्योंकि यह प्राणियों के बहुघात से तैयार होती है। जिन औषधियों में मदिरा पडी हो, विचारवानको पीना योग्य नहीं है । पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें कहते हैं
I
मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मं । विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशंकमाचरति ॥ ६२ ॥
I
भावार्थ - मद्य मनको मोहित कर देती है, मोही चित्त धर्मको भूल जाता है । धर्मको भूला हुआ जीव निडर होकर हिंसा करने लगता है, अपना व परका घात व कष्ट प्रदान करने लगता है।
यहां ग्रन्थकर्ता भीतरी घनादिके मग्रकी तरफ लक्ष्य देकर लिखा है कि जिसके तीव्र ममत्व संसारसे है वह भी मद्य पीनेवाला है । वह यदि राज्य करता हुआ हो तो घोर अभिमानमें होकर यही विचारता रहता है कि मैं राज्य आरूढ हूं, यदि राज्य नहीं हुआ तो राज्य स्वामी होकर अभिमान करूं, खूब स्वार्थ सिद्ध करूं, ऐसा विचारता रहता है । मदिरा पीनेवालेकी जैसे भाषा बिगडी हुई निकलती है वैसे घनादिके नशेमें चूर प्राणीकी भाषा मानसे भरी हुई कठोर निकलती है। वह
श्रावकाचार
॥ १२० ॥
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बारणतरण
१२२॥
सवको छोटी दृष्टिसे देखकर निरादरके वचन कहता है । धनके मदमें प्राणी धनका ही संचय करता ४ रहता है। उसे धनका नशा चढ़ जाता है। जितना धन होता है उतना अधिक मद होता है। वह ४ धनको शुभ कार्यमें नहीं लगाता। मात्र मैं बडा हूं इस भावकी ही पूजा करने में लगा रहता है।
श्लोक-अनृतं सत्यभावं च, कार्याकार्यं न सूच्यते ।
ये नरा मद्यपा होंति, संसारे भ्रमणं सदा ॥ ११४ ॥ अन्वयार्थ-(ये नरा) जो मानव ( मद्यपा) मदिरा पीनेवाले होते हैं या धनादिका मद करते हैं वे ( अनृतं सत्यभावं) झूठ व सत्य पदार्थको (च) और (कार्याकार्य) कर्तव्य व अकर्तव्यको (न मुच्यते ) * नहीं देखते हैं (संसारे ) इस संसारमें (सदा ) हमेशा ( भ्रमण ) उनका भ्रमण होगा।
विशेषार्थ-जो मानव मदिरा पीते हैं या मदमें गृसित हैं उनकी विवेकबुद्धि नष्ट होजाती है, वे ॐ सत्य व जूठ की परीक्षा नहीं कर सके हैं न यह विचारते हैं कि क्या काम करना चाहिये व क्या काम
न करना चाहिये । वे स्वार्थके अंधे होकर धर्मको छोड बैठते हैं। अपना धनादि बढानेके लिये असत्य बोलते हैं, मायाचार रचते हैं, दूसरों को ठगते हैं, अन्यायसे धन एकत्र करते हैं, अंध हो विषयभोगोंमें धन खरचते हैं, नामवरीके भूखे रहते हैं, दूसरेसे इर्षा करके प्रचुर धन खरच करके भीतर
धन रहित होते हुए भी अपना नाम करना चाहते हैं-जिन कुरीतियोंसे या व्यर्थ पयसे अपना बुरा ४ या समाजका बुरा होता है उनको अभिमानवश नहीं छोड़ते हैं। हम अपने बड़ोंकी रीतिपर चलेंगे
नहींतो हम छोटे होजायंगे । धन, धर्म, सुयशका नाश करके भी अंध हो व्धर्थके काम किया करते हैं। इन कठोर चित्सवालोंके भीतर दया नहीं रहती है। वे रौद्रध्यानी हो जाते हैं, नर्क आय बांधकर नर्क जाते हैं फिर संसारमें अनेक पशु आदिके दीन हीन जन्म पापाकर भ्रपते रहते हैं, धर्मालका
मिलना कठिन होजाता है इसलिय विचारवानको न तो कोई नशा पीना चाहिये और न धनादिका & मद करना चाहिये । वे सर्व पदार्थ अनित्य हैं ऐसी भर चाहिये।
श्लोक-जिन उक्तं न श्रद्धते, मिथ्यारागादि भावनं ।
अनृतं ऋत जोनाति, ममत्त्वं मानभूतयं ॥११५॥
॥१९॥
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श्रावकाचार
वारणतरण
अन्वयार्थ-मद्यमें फंसा हुआ अभिमानी पुरुष (मिन उक्त) जिनेन्द्र के कहे हुए उपदेशका (न श्रद्धते)
श्रद्धान नहीं करता है (मिथ्यारागादि भावनं) मिथ्यात्व व राग देषकी भावना सदा किया करता है। ॥१२॥
( अनृतं ) जो झूठ है कल्पित है उसे (ऋत) सच्चा (जानाति) जान लेता है ( ममत्वं ) ममता व (मान) अभिमानका (भूतयं) भूत उसपर चढ़ा रहता है।
विशेषार्थ-जैसे मदिरा पीनेवाला मदके नशे में चूर होकर अपनी सुधबुध भुलकर पशुसे भी बुरा होजाता है वैसे ममता और मानका भूत जिसपर चढ़ जाता है ऐसा मोही प्राणी जिनेंद्र के उपदेशको 5 एकतो सुनता नहीं है । यदि सुनता है तो ग्रहण नहीं करता है। यदि ग्रहण भी करता है तो इसपर विचार नहीं करता है और न उसपर अपना अडान जमाता है। मिथ्यात्वमें फँसा हुआ, संसारासत बना हुआ, कुदेवादिकी भक्ति किया करता है, रागद्वेष करता हुआ किसीसे अति प्रेम व किसीसे
अति देष कर लेता है। कषायकी पुष्टिमें लगा रहता है। जिसपर द्वेष होजाता है उसका सत्यानाश ४ करता है, जिससे प्रेम होजाता है उसके लिये धन लुटा देता है। वह अंधा होकर कुमार्गमें
चलता है। जो बात सच्ची है, कल्याणकारी है उसे तो झूठ जानता है और जो झूठी है उसे सच्ची समझ लेता है। यह संसार असार है, दुःखका घर है । यह शरीर अपवित्र है, क्षणभंगुर है। ये भोग तुष्णावईक अतृप्तिकारी हैं। ये कुटुम्बादि सब स्वारथके सगे हैं ऐसा वस्तु स्वरूप होनेपर भी यह मूढ प्राणी संसारको सुखकारी, शरीरको सदा बने रहनेवाला, भोगोंको तृप्ति देनेवाला, कुटुम्बादिको
अपने सहाई व उपकारी समझ लेता है। इस तरह उल्टा मानके यह पदार्थको संचय करते हुए मान Vव मोहमें फंसता हुआ अपनेको और अधिक अंगवुद्धिके जाल में फंसा लेता है । धिक्कार हो मदि
राको। धिकार होधनादिके मदको। दोनों ही इस लोक व परलोक बिगाडनेवाले हैं,ज्ञानीको कभी भी अभिमानके नशेमे चूर न होना चाहिये।
श्लोक-शुद्ध तत्त्वं न वेदंते, अशुद्धं शुद्ध गीयते ।
मद्य ममताभावेन, मयदो तथा बुधः॥ ११६ ॥ अन्वयार्थ-जो कोई (शुद्ध तत्तं) शुद्ध आत्मतत्तको (न वेदंते) नहीं अनुभा करता है किंतु ४ (अशुद्ध) रागादि सहित अशुद्ध आत्माको (शुद्ध गीयते) शुद्ध है ऐसा गाता है वह प्राणी (मधे)
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मथके समान संसारमें (ममताभावेन) ममताभाव रूपसे वर्त रहा है। (तथा बुदैः) तैसे ही वद्धिवारणवरण
श्रावकाचार मानोंके द्वारा (मयदोष) मदिराका दोष कहा गया है। ॥११॥
विशेषार्थ-यहांपर यह बताया है कि जो कोई निश्चय नयके द्वारा अपने आत्माको शुद्ध रागादि रहित जानकरके एकांती होजावे अर्थात् वर्तमान में पर्याय अपेक्षा आत्माके कर्म बंध हैं, उसके राग द्वेष है, पुण्य या पापके फलका भोग है, इस वातको न मानता हो और अपने ही अशुद्ध आत्माको शुद्ध है ऐसा गाता हो, किन्तु रागादि छोडकर एकाग्र होकर आत्मध्यान करके शख आत्माको कभी अनुभवमें न लेता हो, व्यवहारमें रात दिन फंसा रहकर संसारी कार्यों में लिप्त रहे और यह माने कि इन कार्यो से मुझे बंध नहीं होता है-मात्र शुष्कज्ञान जो वास्त. वमें एकांत है मिथ्यात्व है संतोष मान लेता है। आत्माकी शुद्धिका यल नहीं करता है वह निश्च पाभासी एकांती मिथ्यात्वी है। उसे भी एक प्रकारका मद चढ़ गया है। मैं परमात्मा रूप हूं इस मदमें लीन होकर मन, वचन, कायको स्वच्छंद वर्ताना है, प्रमादी होरहा है, भ्रममें पड़कर अशुद्धको शुद्ध मान रहा है। वास्तवमें दृष्टि दो है-एक द्रव्यदृष्टि, एक पर्याय दृष्टि । द्रव्य हष्टिले या द्रव्याधिक नयसे द्रव्यका असली स्वरूप जाना जाता है, पर्यायाधिक जयसे उसकी अवस्थाओंका ज्ञान होता है। अपने आत्माको दोनों नयास ठीकर जाने तब सम्यग्ज्ञान होगा कि यह द्रव्य स्वभावसे तो शुद्ध
है परन्तु अनादि कर्म बंधकी अपेक्षा यह अशुद्ध है। इसमें राग द्वेष मोह हैं इसको मेटकर धीतराग र परिणति करनी है। ऐसा जो जानेगा वह अपनी अशुद्धता मेटने के लिये आत्मध्यानका साधन
करेगा, अशुभ भावोंसे बचेगा, शुद्ध भावों में रमेगा। जब शुद्ध भावों में न रमा जायगा तब शुभ भावों में रहनेका सहारा लेगा। इसतरह जो साधन करेगा वही समझदार सम्बाहटी है उतीकोही मिथ्यात्वका नशा नहीं है। परंतु जो एक पक्ष पकडकर सर्व साधन छोड़ बैठेगा वह मनवाले
समान अपने आपका बुरा करेगा । जैसे मिथ्यात्व मदका गृसित पाणी सबको वास्तविक न जानकर है औरका और जानता है वैसे ही मदिराका पीनेवाला वस्तुको औरका और जानकर दुःख उठाता है।
निश्चयका एकांत पकडनेवाला भी मतवाला है, वैसे ही व्यवहारधर्मका एकांत पकडनेवाला ॐ भी मतवाला है। दोनों ही भवमें इषते हैं। ऐसा ही समयसारकलशामें अमृतचंद्राचार्य कहते हैं-V॥१९॥
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धारणतरण
॥११४॥
ममाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति यन्मग्ना ज्ञाननयोषणोऽपि यदति स्वच्छन्द मन्दोद्यमाः ॥
विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं । ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यांति प्रमादस्य च ॥ १२-४ ॥
भावार्थ — जो मात्र क्रियाकांडके पक्षका ही आलम्बन लेते हुए आत्मज्ञानको नहीं अनुभव करते हैं वे संसार में डूबते हैं तथा जो ज्ञानको चाहते हुए भी आत्मानुभव के लिये अत्यन्त मंद उद्यमी हैं व स्वच्छन्द व्यवहार में प्रवर्तते हैं वे भी संसार में डूबते हैं। वे ही इस संसार से पार होसकेंगे जो आत्माका यथार्थ ज्ञान स्वयं रखते हुए कदाचित् क्रियाकांड में लीन न होते हुए प्रमाद के वश नहीं होते हैं- सदा आत्मानुभव के उत्साही रहते हैं । प्रयोजन यह है कि जैसे मदिरा पीना छोड़ना चाहिये वैसे एकांत मिथ्यात्वकी मदिराको भी त्यागना चाहिये ।
श्लोक – जिनोकं शुद्धतत्वार्थं, न साधयन्त्यव्रतीत्रती । अज्ञानी मिथ्याममत्त्वस्य, मद्ये आरूढते सदा ॥
११७ ॥
अन्वयार्थ -- ( अव्रती ) व्रत रहित हों या ( व्रती ) व्रतधारी हों जो ( निनोक्तं ) जिनेन्द्र भगवानके कहे हुए (शुद्धतत्वार्थ ) शुद्ध आत्म पदार्थको ( न साधयन्ति ) नहीं साधन करते हैं वे ( अज्ञानी ) ज्ञान रहित हैं और (सदा ) सदा ही (मिथ्याममत्त्वस्य ) मिध्यात्वकी ममतारूपी ( मद्ये ) मदमें ( आरूढ़ते ) आरूढ़ हैं ।
विशेषार्थ —— यहां यह बताया है कि कोई व्यवहार सम्पक्तको रखता हुआ सवे देव, शास्त्र गुरुको मानता हुआ, सात तत्वोंका श्रद्धान रखता हुआ व्रत रहित हो अथवा श्रावक या मुनिके व्रत रहित हो और शुद्ध आत्माके असली स्वरूपको पहचानता हो और न कभी शुद्धात्माका ध्यान करता हो न शुद्धात्माकी भावना भाता हो और अपनेको यह माने कि मैं सम्पती हूँ, मैं चौथे अविरत सम्यग्दर्शन गुणस्थानका धारी हूँ या मैं पंचम गुणस्थानका धारी श्रावक हूँ या मैं छठे, सातवें गुणस्थानका धारी मुनि हूं तो वह शुद्ध आत्माको अनुभव न करनेसे मिथ्याज्ञानी ही है। उसने व्यवहारको ही निश्चय मोक्षमार्ग मान लिया है। बंध कार्यको ही निर्वाणका मार्ग निश्चय कर लिया है । इसलिये वह मिथ्यास्य सहित है, परन्तु उसको यह नशा चढा है कि मैं सम्पती हूं, मैं मोक्षमार्गी हूं, ऐसा अज्ञानी भी सदा मदिरा पीनेवालेके समान ही उन्मत्त है, असत्यको सत्य जानता हुआ उन्मत्तवत् चेष्टा कर रहा है।
व
॥११४॥
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वारणतरण
श्लोक-वेश्या आसक्त आरक्ता, कुज्ञानं रमते सदा ।
नरयं यस्य सद्भावं, वेश्या तद्भावदिष्टितं ॥ ११८ ॥ अन्वयार्थ-(वेश्या आसक्त) जो वेश्याके व्यसनमें (बारक्तः ) लवलीन है वह (सदा) सदा (कुज्ञान) मिथ्या ज्ञानमें (स्मते) रंजायमान होता है। (यस्य) जिसको (नरयं) नरककी (सद्भाव) प्राप्ति होगी (वेश्या) वेश्या ( तद्भाव ) उसी नरक सम्बन्धी भावमें लीन (दिष्टितं ) दिखलाई पड़ती है।
विशेषार्थ-यहां वेश्या व्यसनको कहते हैं। जो अज्ञानी विषय-लम्पटी, कामी, वेश्यासेवनकी महान खोटी आसकतामें फंस जाता है वह हमेशा मिथ्या सुखमें सुख जानकर भूलता है। वेश्याकी प्रीति पैसे से होती है, जैसे नारकी अपनीनरककी अवस्थामें रमते नहीं, प्रेम नहीं करते हैं वैसे वेश्या मात्र द्रव्यका लोभरखती है, उस द्रव्यदाता पुरुषमें प्रेम नहीं रखती है। यह समझता है कि वेश्या प्रेम करती है इसी धोखेमें यह वेश्यालम्पटी प्रचुर धन ला लाकर वेश्याको सौंप देता है। जब धन रहित होजाता है तब वेश्या तुरत निकाल देती है फिर बात भी नहीं करती है। यह मूर्ख वेश्याके जालमें फंसकर उ नष्ट होजाता है । वेश्याका अँग महान अशुचि स्पर्शने योग्य नहीं होता है। क्योंकि वह मांसाहारी, मद्यपायी, दुराचारी आदि पुरुषोंके साथ अधिक रमण करती है। वेश्याके अँगमें अनेक, रोग भी पैदा होजाते हैं। वे रोग वेश्या प्रसंग करनेवालेके पीछे लग जाते हैं। जो वेश्या व्यसनका मोही होजाता है वह धर्म प्रीति, गृहस्थ प्रीति, लौकिक-पुरुषार्थ-साधन प्रीतिको गमा बैठता है। अपने जीवनको बेकार बना लेता है। वेश्याके पास कभी आना जाना भी व संगति भी नहीं करनी चाहिये । उसकी दृष्टि सदा धन लूटनेकी व अपने मोहमें फंसानेकी रहती है। यह व्यसन भी वेश्या लम्पटीको मांस, मद्य, परस्त्री, चोरी आदि व्यसनों में फंसा देता है। तीन लोभ जनित कृष्णादि लेश्याके वशीभूत हो वह प्राणी नरक आयु बांध लेता है और महान दुःखोंसे पूर्ण नर्क धरामें चला जाता है। सुभाषितरत्नसंदोहमें कहते हैं
तावदेव पुरुषो जनमान्यस्तावदाश्रवति चारुगुणश्रीः । तावदामनति धर्मवासि यावदेति न वशं गणिकायाः ॥ ६.८॥ मन्यते न धनसौख्यविनाशं नाभ्युपैति गुरुसज्जनवाक्यं । नेक्षते भवसमुद्रमपारं दारिकार्पितमना गतबुद्धिः ॥ ६.९॥
॥१२॥
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.॥१२॥
भावार्थ-जबतक वेश्याके वशमें नहीं होता है तब ही तक पुरुष माननीय होता है तब ही श्रावकार तक उत्तम गुणरूपी लक्ष्मी उसका आश्रय करती है तब ही तक धर्मके वचनोंको मान्य करता है। जब मन वेश्यामें फस जाता है, तय बुद्धि चली जाती है, धनकाच सुखका नाश होजाता है, गुरुजनोंके व सज्जनोंके वाक्योंको ध्यान में नहीं लेता है और न अपार संसार-समुद्र की तरफ देखता है कि मैं इसमें डूब रहा हूं-कैसे पार जाऊंगा। आत्तशुद्धि रूपी धर्म भावसे यह वेश्यासेवन अति दुर रखनेवाला है। बुद्धिमानों को इससे बचकर रहना ही उचित है।
श्लोक-पारधी दुष्टसदभावं, रौद्रध्यानं च संयुतं ।
आरत ध्यान आरक्तं, पारधी दोषसंयुतं ॥ ११९ ॥ अन्वयार्थ-(पारधी) शिकार खेलनेवाला (दुष्ट सदभाव) दुष्ट भावोंको रखता है। (रौद्रध्यानं च संयुतं) ॐ व रौद्रध्यानका धारी होता है (आरत ध्यान ) आर्तध्यान में (भारत) फंसा रहता है। (पारधी ) शिकारी ४ (दोष संयुतं ) अनेक दोषोंका पात्र है।
विशेषार्थ-यहां आखेट व्यसनको कहते हैं-मृगया याशिकार खेलना बहुत पड़ी पापल्प हिंसा * है। शिकारीके परिणाम सदा ही इष्ट रहते हैं, वह अपने रागके कारण पशु पक्षीको ढूंढ ढूंढकर उनके पीछे दौडकर उनका घात करता है। हिंसानन्दी रौद्रध्यानमें प्रवर्तता है। जब शिकार हाथ नहीं आता है या आकरके निकल जाता है तब इष्टवियोगरूप आर्तध्यान करता है या कहीं सिंह आदिसे आक्रमण किया जाता है तो अनिष्ट संयोगमें पड जाता है। इंद्रियविषयकी लंपटतारूपी भावकी आशामें रहनेसे निदानरूप आर्तध्यान करता रहता है। शिकारी अनेक दोषोंका पात्र होता है। अपने किंचित् राग भावके कारण मृग आदि पशुओंको हननकर उनके बच्चोंको अनाथ बनाता है। शिकारी मांसाहार, वेश्या सेवन आदि व्यसनों में लगमतासे फंस जाता है। हिंसानन्दी खोटे परिणामोंसे नरक गतिको पांच लेता है और दुर्गतिमें जाकर घोर कष्ट पाता है।
आस्मानुशासनमें कहते हैंभीतमृर्गतत्राणा निदोषा देहवितिका । दन्तलमतृगा नन्ति मृगीरन्वेषु का कथा ॥ २९ ॥
॥१२॥
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वारणवरण
॥१२०॥
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भावार्थ - शिकारी जन ऐसे निईयो होते हैं कि जो मृत भयमति रहती है, जिसका कोई रक्षक नहीं है, जो कोई अपराय नहीं करती है, जिसके शरीर मात्र धन है, जो तृणको खानेवाली है ऐसी मृगीको भी मार डालते हैं तब अन्य पशुओं की तो बात ही क्या है। एक शिकारी अपने जीवन में हजारों पशुओंका घातक होकर घोर पापबंध करता है। किसी भी मानवको शिकार के व्यसनमें नहीं पडना चाहिये। यह व्यसन धर्मको नाश करनेवाला है ।
श्लोक – मान्यते दुष्ट सद्भावं वचनं दुष्टरतो सदा ।
चिंतनं दुष्ट आनंद, पारधी हिंसानंदितं ॥ १२० ॥
अन्वयार्थ – (दुष्ट सदभावं ) दुष्ट भावोंकी ( मान्यते ) जो मान्यता करता है । (सदा वचनं दुष्टरतः ) जो सदा दुष्ट वचनों में रत है व (दुष्ट वितनं आनन्द ) दुष्ट चितवन में आनंद मानता है सो ( पारधी ) पारधी के समान (हिंसा नंदित ) हिंसा में आनन्द माननेवाला है ।
विशेषार्थ — जो दूसरोंके साथ दुष्टता करता है वह भी पारधी के समान है ऐसा बताते हैं । जो मानव, दुष्ट दुर्जन परका बिगाड़ करनेवाले खोटे मानवोंकी प्रतिष्ठा करता है, उनके साथ मित्रता करता है तथा जो सदा हिंसाकारी कठोर पापमय वचनोंको बोलता है, जिसके चित्तमें सदा ही दूसरेको ठगनेका, दूसरेका बुरा करनेका विचार रहता है वह हिंसानंदी मानव पारधीके समान है । जैसे शिकारी पशुओंके घातमें विचारता रहता है, उद्यमी होता है वैसे दुष्ट मानव अपने द्रव्यादिक स्वार्थवश दुष्टोंकी संगतिमें रहता है, स्वयं व उनकी सहायता से दूसरों को ठगनेके लिये मायाचारी, पूर्ण घातक, देखने में प्रिय परन्तु भीतर से गला काटनेवाले वचनों को कहता है । मायाचारसे ठगकर अपनी चतुराई पर बड़ा अभिमान करता व आनन्द मानता है । कोई २ दुष्टतासे किन्हीं भोले जीवोंको किसी झूठे मुकदमे में फंसा देते हैं और उनसे घनकी लूट करते हैं। यहां कहने का मतलब यह है कि केवल पशुका शिकार ही मृगया नहीं है परंतु जो मानव मानवोंका शिकार करते हैं, उनको सताकर उनको विश्वास दिलाकर उनके धन धान्यको हर लेते हैं। दूसरोंका नाश करके, दूसरोंमें परस्पर मतभेद कराकर, उनको मुकद्दमा लड़ाकर अपना स्वार्थ साधते हैं वे भी शिकार के ही करनेवाले पापी हैं ।
श्रावकाचार
॥१२७॥
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वारणतरण
११॥
श्लोक-विश्वासी पारधी दुष्ठः, मनकूटं वचकूटितं ।
कर्मना कूटकर्तव्यं, पारधी दोष संयुतं ॥ १२१ ॥ अन्वयार्थ (विश्वासी) जो दूसरेको अपना विश्वास दिलाता है ऐसा (दुष्टः) दुष्ट (पारपी) पारधीके समान ठगनेवाला है उसके (मनकूट ) मनमें मापाचार रहता है (वचन कूटितं ) वचनों में मायाचार रहता है (कर्मना) कायकी क्रियासे (कूटकर्तव्यं) मायाचार व उगाईके काम किया करता है। (पारधी ) ऐसा शिकारी (दोषसंयुतं) महा दोषोंको रखनेवाला है।
विशेषार्थ-यहां विश्वासघाती, मायाचारी पुरुषको भी शिकारीको उपमा दी है। शिकारी तो पशुओंको छिप छिप करके कष्ट देकर मारता है किन्तु यह विश्वासघाती जनाको विश्वास दिलाकर ठगता है। शिकारी जैसे शिकारका चिंतवन मनमें करकेहिंसानंदी रौद्रध्यान करता है वैसे यह भोले जीवोंको अपने फंदे में फंसाकर ठगनेका सदा विचार किया करता है अतएव हिंसानदी रौद्रध्यान में फंसा रहता है । वचनों में विष भरा हुआ होता है, ऊपरसे प्यारे लगते हैं। मायाचारी वचनोंसे विश्वास दिलाकर ठगता है। तथा अपने शरीरसे ऐसी क्रियाएं करता है जिनका हेतु मायाचार है। कोई २ प्राणी परको ठगमेके अभिप्रायसे ब्राह्मण, साधु व शास्त्रीका रूप बनाकर ठगते हैं । कोई २ बाहरी जप, तप, पूजा, पाठ आदि धर्मक्रिया अपनेको धर्मात्मपनेका विश्वास जमानेके लिये करते हैं किन्तु भीतर ठगनेका भाव होता है। कुटिल मन, वचन कायकी प्रवृत्ति अतुल दोषोंको उत्पन्न करनेवाली है। अल्प क्षणिक धनादिके लिये मायाचार करके दूसरोंको ठगना वैसा ही दोषपूर्ण है जैसे मृगोंका वनमें शिकार करना । ___श्लोक-जे जीवा पंथ लागते, कुपंथं जेन दिष्टते ।
विश्वासं दोष संगानि, ते पारधी दुःखदारुणं ॥ १२२॥ अन्वयार्थ (जे) जो (जीवा) जीवोंको (विश्वासं) विश्वास दिलाकर (पंथ) कुमार्गमें (लागते) . लगाते हैं। (न) जिनके द्वारा (कुपंथं) कुमार्ग (दिष्टते) दिखलाया जाता है (ते पारधी ) वे पारधीके समान (दुःखदारुणं) भयानक दु:ख उठाते हैं।
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विशेषार्थ-यहांपर ग्रन्थकर्ताने मिथ्या उपदेशकोंके ऊपर लक्ष्य दिया है। जगत में मिया वारणवरण
मार्गके प्रचारक भी पारधीके समान हैं। जो प्राणियोंको सुख पानेका व पुण्य कमानेका विश्वास ॥१२९॥
दिलाते हैं और वीतराग विज्ञानमय मार्गसे छुडाकर रागद्वेष पूर्ण कुमार्गमें लगा देते हैं, मिया देवोंकी आराधनामें, पशु बलिमें, शृंगार रसमें फंसा देते हैं। तथा जो यूत रमण आदि व्यसनों में फंसा देते हैं । लाखों ही प्राणी मोक्षमार्गसे विरुद्ध उपदेशके द्वारा कुमार्गमें अपनी श्रद्धा करके अधममें धर्म मानकर अपना अहित करते हैं। बहुतप्ते कुगुरु साक्षात् जानते हैं कि रागद्वेष वईक मार्ग कमार्ग है फिर भी वे अपना स्वार्थ साधनके लिये, भक्तोंसे धन लेनेके लिये, अपने विषयोंकी कामनाकी तृप्तिके लिये कुमार्गका उपदेश देकर पत्थरकी नौकाका सा काम करते हैं। वे आप भी संसा. रमें डूबते हैं और औरोंको भी डुवाते हैं। धनकी तृष्णा मानवोंको अंध बना देती है। इसके लिये मानव क्या क्या कुकर्म नहीं करता है। जो ऐसा कुमार्ग चलाते हैं वे घोर पापका बंर करते हैं । अपना संसार अनन्त काल तक दृढ करते हैं। वे निगोदमें, कीटादि विकलत्रयों में, दीनहीन पशु पर्यायोंमें, दीन मानवों में, नर्कमें वारवार उपज कर कष्ट भोगते हैं और अज्ञान व तृष्णामें पडे हुए रात दिन चाहकी दाहमें दहते रहते हैं।
श्लोक-संसार पारधि विश्वास, जन्ममरणं च प्राप्यते ।
जे जीव अधर्म विश्वासं, ते पारधी जन्म जन्मयं ॥१२३॥ अन्वयार्थ (संसार पारधि) लौकिक शिकारीका (विश्वास) विश्वास करनेसे (जन्म मरणं च ) इस V एक जन्म में ही मरण (प्राप्यते ) होता है (जजीव) जो जीव ( अधर्म पारधी) मिथ्या धर्मरूपी पारधीका (विश्वासं) विश्वास करते हैं (ते) वे जीव (जन्म जन्मयं ) अनेक जन्मोंमें मरण करते हैं।
विशेषार्थ-जो पशु या पक्षी पारधी द्वारा बिछाए हुए जाल में हमें सुख मिलेगा ऐसा विश्वास करके आते हैं और फिर अपने प्राण गमाते हैं। यह शिकारी तो एक ही जन्ममें मारता है परन्तु जो
मूढ प्राणी अधर्मको धर्म मानकर उसकी सेवा करते हैं उनको मिथ्यात्व कर्मका ऐसा बंध होता है V कि जिसका छूटना कठिन होता है। वे पुन: पुन: दुर्गतिमें पड़कर अशुभ कष्टदायक जन्म धारते हैं
और मरते हैं। जो कुगुरु मिथ्या धर्मका उपदेश देते हैं वे बड़े भारी निर्दयी पारधी हैं। मिथ्यात्वके
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श्रावकाचार
वारणतरण समान कोई जाल नहीं है। जगत में यह बात प्रगट है कि क्रोधादि कषाय दुर्गुण हैं। जिस धर्मके सा आचरण करनेसे कषाय कम होनेकी अपेक्षा बढ़ जावें, राग द्वेषकी वृद्धि हो, संसारमें अधिक
आसक्त होजावे, वीतराग विज्ञानमय धर्मसे बाहर रहे, हिंसामें मग्न रहें, खेल कूद लीलामें मग्न रहें, हास्य कौतुहल में लीन रहें, जिह्वाकी लंपटता पोखे, नेत्र इंद्रियका व घाण इंद्रियका विषय पोखे,
मनको मोहमालमें भ्रमावे या इंद्रिय भोगोंकी तृष्णा करके तप भी करे, शरीर भी सुखावे, कदाॐ चित् जैन शास्त्रानुसार धर्म भी पाले, परन्तु शुभोपयोगको मोक्षमार्ग जानकर वर्ते। शुद्धोपयोगरूप
सत्य मार्गको न जाने तो वह सब विचारे मिथ्यात्वकी कीचमें फंसकर संसार-सागरमें गोते ही खाते रहेंगे, पुनः पुनः जन्म मरण करेंगे, संसार तारक मार्गका मिलना दुर्लभ होजायगा। अतएव अधर्मसे बचना उचित है तथा अधर्मका उपदेश देना शिकारीसे भी कोटिगुणा पापका संचय करना है। इस पारधीपनसे बचना योग्य है।
श्लोक-मुक्ति पंथं तत्वसार्द्ध च, मूढलोके न लोकितं ।
पंथभृष्ठं अचेतस्य, विश्वासं जन्म जन्मयं ॥ १२४ ॥ अन्वयार्थ-(मूढलोकैः) अज्ञानी लोगोंके द्वारा (तस्वसाई च) तत्व सहित (मुक्तिपंथ) मोक्षका मार्ग (न लोकितं) नहीं देखा जाता है। वे (पंथभृष्टं ) मार्गसे विपरीत (अचेतस्य ) अज्ञानमई धर्मका (विश्वास) विश्वास (जन्म जन्मय) जन्म जन्म में करते रहते हैं
. विशेषार्थ-मोक्षका मार्ग तो आत्मतत्वकी यथार्थ प्रतीति सहित, ज्ञान सहित व चारित्र सहित है। वह तो अभेद रत्नत्रय स्वरूप आत्माकी एक शुद्ध परिणति विशेष है। संकल्प विकल्पसे रहित मात्र अनुभव गोचर है। इस परमानंदमय सच्चे मोक्षमार्गका जिनको ज्ञान व अडान नहीं होने पाता है, वे अज्ञानमई मिथ्या मार्गका विश्वास करके ठगे जाते हैं। मिथ्यात्वके विषको पीते हुए उससे ऐसे मूर्षित होजाते हैं कि अज्ञानमय पर्यायाँको-निगोद कीसी अवस्थाओंको, एकेन्द्रियादिमें जन्मको पुनः पुनः धारण करते हैं। उनको पंचन्द्रिय सैनीकी पर्याय मिलना अतिशय कठिन होजाता है। कदाचित पाते भी हैं तो उत्तम क्षेत्रमें धर्मका संयोग मिलना कठिन होजाता है। वे जन्म जन्ममें अज्ञान मिथ्यात्वके वशीभूत होते हुए वचनातीत कष्टको पाते हैं, पर्यायबुद्धि रहकर विषयसुखकी
M॥२३॥
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तृष्णामें ही तडफडाते रहते हैं-चाहकी दाहमें ही जलते रहते हैं-उनको सत्य धर्मका लाभ होना बहुत बारणतरण
ही दुर्लभ होजाता है। इसी लिये सुभाषितरत्नसंदोहमें कहते हैं१३२॥ करोति दोषं न तमत्र केशरी न दन्दशूको न करी न भूमिपः । अतीव रुष्टो न च शत्रुरुद्धतो यमुग्रमिथ्यात्वरिपुः शरीरिणां ॥११॥
भावार्थ-इस जगतमें अति भयानक मिथ्यात्वरूपी शत्रु शरीरधारी प्राणियोंको जैसा दुःख देता है व जैसा बुरा करता है वैसा बुरा तो अतिशय क्रोध आया हुआ न तो सिंह करता है न नाग करता है, न हाथी करता है, न राजा करता है और न कोई दुष्ट शत्रु ही करता है। मिथ्यात्वके समान कोई शत्रु नहीं है जो अनेक जन्मों में कष्टप्रद होता हो। ___ श्लोक-पारधी पासि जन्मस्य, अधर्म पासि अनंतयं ।
जन्म जन्मं च दुष्ठं च, प्रापितं दुःखदारुणं ॥ १२५ ॥ अन्वयार्थ-(पारधी) शिकारी तो (जन्मस्य पासि ) एक जन्मकी ही फांसी है किन्तु (अधर्म) ॐ मिथ्याधर्म (अनंतयं) अनंत जन्मोंकी (पासि) फांसी है । इसके कारण (दुष्टं च) महान दोषपूर्ण (जन्म जन्म च ) जन्म जन्ममें (दुःखदारुणं ) भयानक दुःख (प्रापितं ) प्राप्त होते हैं।
विशेषार्थ-यदि कोई शिकारी अपना जाल डाले तो उसमें पक्षी या पशु फंस जावे या मरकर ४ * प्राण गमावें, ऐसा शिकारीका जाल प्राणीको एक जन्ममें ही दुःख देता है। परन्तु कुगुरु द्वारा या ४ मिथ्या उपदेशक द्वारा दिखाया हुआ अधर्मका जाल ऐसा दोषप्रद है कि जिससे अनन्त जन्मों में खोटे खोटे अशुभ भव प्राप्त होते हैं। उनमें जो जो दुःख प्राप्त होते हैं उनका वर्णन मुखसे हो नहीं सक्ता है। इससे विवेकवान प्राणीको उचित है कि धर्मको परीक्षा करके ग्रहण करे या किसी परीक्षावान विश्वासपात्रकी आज्ञानुसार धर्मको पाले। जिससे संसारसमुद्रसे तिरना होसके वही तीर्थ है, वही धर्म है। वह धर्मरूपी जहाज रागदोष रूपी छिद्रोंसे रहित होना चाहिये। पूर्ण वीतरागता. रूपी अभेदपना उसमें होना चाहिये तब ही तो वह जहाज मोक्षदीपमें लेजायगा। राग द्वेषके छिद्र सहित धर्मरूपी जहाज स्वयं डूबेगा व उसपर जानेवालोंको भी डुबोएगा। जहां वीतरागता है, अहिंसा है, आत्मानुभव है वहीं धर्म है। इसकी पोषक सब क्रियाएं धर्म हैं। राग द्वेष पोषक सब क्रियाएं अधर्म हैं, ज्ञानी ऐसा मानता है। सुभाषितरत्नसंदोहमें कहा है
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श्रावकाचार
बारणतरण NB301
विरागसर्वज्ञपदाम्बुमद्वये यती निरस्ताखिलसंगसगतौ । वृषे च हिंसारहिते महाफले करोति हर्ष भिनवाक्यभावितः ॥१५८॥
भावार्थ-जिनेन्द्रके वाक्योंको माननेवाला वीतराग सर्वज्ञ भगवानके चरणकमलों में आनन्द सहित भक्ति करता है, सर्व परिग्रहकी संगतिसे रहित गुरुके चरणों में नमन करता है, महा फलदाई
अहिंसा धर्ममें इर्ष मानता है, इनके विपरीत जो कुछ है वह संसारमें निगोद नरकादि पर्यायों में ४ पटकनेवाला अधर्म है, ऐसा मानता है।
श्लोक-जिन लिंगी तत्त्व वेदंते, शुद्ध तत्व प्रकाशकं ।
कुलिंगी तत्त्व लोपंते,, परपंचं धर्म, उच्यते ॥ १२६ ॥ अन्वयार्थ (मिन लिंगी) जिनेन्द्रकी आज्ञानुसार जिनके भेषके धारी भावलिंग सहित निम्र द्रव्यालिंग धारी गुरु (शुद्ध तत्व प्रकाशकं तत्त्व) शुद्ध आत्माके स्वरूपको प्रकाश करनेवाले तत्वको (वेदंते) अनुभवमें लेते हैं। कुलिंगी) जो जिनाज्ञा विरुद्ध भावलिंग रहित द्रव्यालंग धारी हैं वे (तत्त्व) तत्वको (लोपंते) छिपा देते हैं (परपंच) बाहरी प्रपंचरूप क्रियाकांडको (धर्म ) धर्म (उच्यते ) कहते हैं।
विशेषार्थ-स श्लोक में मुख्यतासे द्रव्यलिंगी द्वारा दिखाए हुए मात्र व्यवहार धर्मका निषेध किया है। जो निग्रंथ गुरु व्यवहार और निश्चय दोनों नयोंसे जीवादि तत्वोंको जानते हैं तथा उपा. देय रूप ध्यान करने योग्य एक अपने निर्विकल्प वीतराग आत्मसमाधिरूप भावको ही मानते हैं वे स्वयं भी शुबरात्माके अनुभवसे आत्मानन्द पाते हैं व दूसरोंको भी इसी तुसे धर्मका उपदेश देते हैं। जो भव्यजीव ऐसे आत्मज्ञानी गुरुओंके द्वारा धर्मका लाभ करते हैं वे अपना कल्याण कर लेते हैं। जो आत्म तत्वको न पहचाननेवाले द्रव्यलिंगी मात्र हैं, बाहरी भेष तो साधुका है परन्तु भीतर मोक्ष साधक नहीं हैं, शुभ क्रियाकांडको ही मोक्षमार्ग मानते हैं उसीपर बडी दृढतासे चलते हैं, कभी शुद्ध आत्म तत्वपर लक्ष्य नहीं देते हैं, उनका उपदेश भी तत्वको लोपनेवाला होता है, वे व्यवहार प्रपंच क्रिया आचरणको ही एकांतसे मोक्षमार्ग उपदेश कर देते हैं, निश्चय नयका
उपदेश ही नहीं देते हैं, आत्माकी तरफ लक्ष्य ही नहीं कराते हैं। उनके उपदेशसे अनेक प्राणी भी Y व्यहार धर्म में ही अंध हो चलने लगते हैं, वे कभी भी निश्चय सम्यक्तको नपाते हुए संसारही में करेंगे।
॥१५॥
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कारणतरण
॥१३३॥
D
श्लोक - ते लिंगी मृढ़दृष्टी च, कुलिंगी विश्वासं कृतं । दुर्बुद्धि पासि बंधंते, संसारे दुःखदारुणं ॥ १२७ ॥
अन्वयार्थ – (ते लिंगी) वे भेषधारी (मुद्रढष्टी च ) जो मिथ्यादृष्टी हैं (कुलिंगी) कुलिंगी हैं। (दुर्बुद्धि ) बुद्धि रहित प्राणी (विश्वासं कृतं ) उनका विश्वास करके ( पासि) जाल में (बंधते ) बंध जाते हैं और (संसारे) इस संसार में (दुःखदारुणं ) भयानक दुःख उठाते हैं ।
विशेषार्थ - यहां यह बताया है कि जिन किन्ही मेषधारियोंको चाहे वह जैन भेष हो या अजैन भेष हो सम्यग्दर्शन नहीं है- मिथ्यादर्शन है, वे सब कुलिंगी हैं । यद्यपि भाव सम्यग्दर्शन रहित मात्र व्यवहार सम्पत्तवीको भी द्रव्यलिंगी कहा है तथापि जिसके व्यवहार सम्यक्त है वह जीवादि तत्वोंका देव गुरु शास्त्रका स्वरूप अन्यथा प्ररूपण नहीं करता है । उसको मात्र अनुभव नहीं है इसलिये स्वानुभव पूर्ण उसका कथन नहीं होता है। परन्तु आगम से विरुद्ध वह कुछ नहीं कहता है । इसलिये उनको छोडकर जो अपनेको जैन साधु व अजैन साधु मानकरके व्यवहार तत्वोंका उपदेश औरका और देते हैं, सर्वज्ञके आगमके प्रतिकूल कहते हैं, उनका उपदेश वीतराग मार्गका पोषक न होनेसे विश्वास करने योग्य नहीं होता है । परंतु रागी पुरुषोंको यही सुहाता है कि रागकी पुष्टि हो और धर्मका नाम भी होजावे इसलिये ऐसे मृढबुद्धि लोग रागवर्द्धक धर्मको भ्रमसे अपना हितकारी समझकर उसीपर विश्वास कर लेते हैं। बस, वे अधर्म के जालमें बंध जाते हैं और संसार में गहन कष्ट पाते हैं।
श्लोक – पारधीपासिमुक्तस्य, जिन उक्तं सार्थ ध्रुवं ।
शुद्धतत्वं च सार्द्ध च, अप्य सद्भाव चिन्हितं ॥ १२८॥
अन्वयार्थ — जो कोई ( जिन उक्तं ) जिनेन्द्र कथित (धुवं) अविनाशी (सार्थ) पदार्थों को (अप्प सद्भाव चिह्नितं ) आत्माकी सत्तासे लक्षण मय ( शुद्धतत्वं च सार्द्धं च ) शुद्ध तत्व सहित श्रदान करता है वह ( पारधी पासिमुक्तस्य ) पारधी जो अधर्म या अधर्म उपदेष्टा सांधु है उसके जालसे मुक्त होजाता है । विशेषार्थ - यहां यह बताया है कि अनादि कालसे फंसे हुए अगृहीत मिथ्यात्वके जाल मेंसे व
श्राव
॥१३२॥
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ब्राह्मणवरण
॥१३४॥
सादिकाल से फंसे हुए गृहीत मिध्वाश्वके जाल मेंसे निकलनेका उपाय क्या है। वह उपाये एक स्याद्वाद नयसे अनेकांत स्वरूप बतानेवाली जिनवाणीकी शरण है । इस जिनवाणी के मूल उपदेशक आप्त श्री अरहंत भगवान हैं जिन्होंने इस लोक में ध्रुव रूपसे पाए जानेवाले छ छः द्रव्योंका स्वरूप बताया है व जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश तथा काल इन छः द्रव्योंसे लोक भरा है। जिनवाणीने यह भी बताया है कि जीव और अजीवकी प्रवाह रूप अनादिकी व मिलते विछुडनेकी अपेक्षा सादि संगतिके कारण जीव, अजीव, आस्तव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्व और पुण्य तथा पाप मिलाकर नौ पदार्थ बन जाते हैं । जो कोई इन छः द्रव्य व सात तत्व व नौ पदार्थोंका भलेप्रकार श्रद्धान करता है, साथ में अपने शुद्ध आत्म तत्वका भी श्रद्धान करता है जिसमें ज्ञान चेतना लक्षण झलक रहा है, ऐसा सम्यक्ती जीव, आत्मानंदका रसिक वीतरागताका प्रेमी अधर्मके जालसे छूट जाता है । सम्यग्ज्ञानकी अपूर्व महिमा है। सुभा षितरत्न संदोह में कहा है
यथा यथा ज्ञानबलेन भीवो जानाति तत्वं भिननाथदृष्टं । तथा तथा धर्ममतिप्रसक्तः प्रजायते पापविनाशशक्तः ॥ १९० ॥
भावार्थ- जैसे जैसे ज्ञानके बलसे यह जीव जिनेन्द्र कथित तत्वको जानता जाता है तैसे तैसे पापके विनाशकी शक्ति होती जाती है और धर्ममें बुद्धि आसक्त होती जाती है। जिनवाणीका अभ्यास व मनन परम शरण है ।
श्लोक- स्तेयं अनर्थमूलं च, विटंबं असुह उच्यते ।
संसारे दुःखसद्भाव, स्तेयं दुर्गतिभाजनं ॥ १२९ ॥
अन्वयार्थ — ( स्तेयं ) चोरी (अनर्थमूलं च ) आपत्तिका मूल है (विटंबं ) आकुलतारूप (असुर) अशुभ काम (उच्यते ) कहा जाता है। इससे ( संसारे ) इस लोक में (दुःखसद नाव ) दुःखों की प्राप्ति होती है तथा यह (स्तेयं ) चोरीका व्यसन ( दुर्गतिभाजनं ) दुर्गतिमें पटकनेवाला है ।
विशेषार्थ - अब यहां छठे व्यसन चोरीके सम्बन्ध में कहते हैं । यह चोरी महा भारी पाप है । यह घोर हिंसानंदी विचार है । परके प्राणोंको हरनेके समान दूसरे के धनादिको हरना है। चोरोंके
श्रावक
॥१३४
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सारणतरण
॥१३॥
भावों में सदा ही आकुलता रहती है, वे भयभीत रहते हैं, वे सुखकी नींद नहीं सो सक्ते, धर्मा कर्म तो उनसे दूर भाग जाता है, वे इस जगतमें राजा द्वारा तीव्र कष्ट पाते हैं, अशुभ परिणामोंसे कुगातका बंध कर मरकरके कष्टमय गतिके पात्र होते हैं। चोरीकी आदत एक पलकी भी अच्छी नहीं । जैसे मदिरा पीनेकी आदत पड जाती है तो वह बढती जाती है छूटना कठिन होजाता है उसी तरह चोरीकी आदत बढ़ती चली जाती है, छटना कठिन होजाता है। चोर स्वयं दुःख में रहता है और हजारोंके परिणामोंको भय और दुःखोंके उत्पन्न करनेका कारण होजाता है। जो इस व्यसनमें फंस जाता है वह मानवजन्मको शीघ्र ही खो देता है, जगतमें महान अपयशका पात्र होजाता है। कुछ भी परोपकार व जगतहित नहीं कर सका है। शुद्ध आत्मीकतत्वको ज्ञान तो, उसकी मलीन बुद्धि में अतिशय कठिन होजाता है, वह तीव्र विषयभोगोंका लोभी होजाता है। इस घोर लोभसे घोर पापकर्म बांधता है। सुभाषितरत्नसंदोहमें कहते हैं
दुःखानि यानि नरकेष्वतिदुःसहानि । तिर्यक्षु यानि मनुनेष्वमरेषु यानि ।
सर्वाणि तानि मनुजस्य मवन्ति लोभादित्याकलय्य विनिहन्ति तमत्र धन्यः ॥ ८॥ भावार्थ-जो जो असहनीय दुःख नरकोंमें होते हैं व जोरभारी कष्ट तिर्यच योनिमें नरभवमें या देवगतिमें होते हैं वे सब इस मानवको लोभसे होते हैं। ऐसा जानकर जो लोभको नाश करता है वही धन्य है। चोरीका व्यसन महान लोभको बढ़ानेवाला है ऐसा जानकर इसके पास भी नहीं जाना चाहिये । चोरोंकी संगतिसे बचकर रहना चाहिये । न्यायका प्राप्त किया हुआ धन ही परिणामोको निर्मल रखता है, अन्यायका धन महान अनर्थकारी होता है।
श्लोक-मनस्य चिंतनं कृत्वा-स्तेयं दुर्गति भावना ।
___ कृतं अशुद्ध कर्मस्य-कूटभावरतो सदा ॥ १३० ॥ अन्वयार्थ-(मनस्य ) मनके द्वारा (स्तेयं ) चोरीका (चिंतनं कृत्वा) चितवन करनेसे (दुर्गतिभावना ) दुर्गतिकी भावना हुआ करती है। जो (अशुद्ध कर्मस्य ) इस मैले कामको (कृतं ) करते हैं वे ( सदा ) हमेशा ( कूटभावरतः) मायाचारीके भावों में फंसे रहते हैं।
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कारणतरण
श्रावकाचार विशेषार्थ-चोरी ऐसा बुरा पाप है कि जो मन में चोरी करनेका विचार भी किया जाय, तो ॥१५६४ चौर्यानंद रौद्र ध्यानका भागी होकर नायुके बंध होने लायक भावनाका करनेवाला होजाता है।
जिसका विचार भी बुरा है उस चोरीके दुःखदायक अशुचि काम में जो प्रवृत्ति करते हैं वे तो निरंतर मायाचारीके कुभावों में लीन रहते हैं, कपटके जाल बिछाए विना चोरी नहीं होसकी है। चोरी महा अनर्थका मूल है। मायाचार और लोभ कषायोंके फंदों में उसका मन रात दिन लटका रहता है। वह सुखसे न खाता है न पीता है न शयन करता है, उसके परिणामोमें सदा ही आकु. लता बनी रहती है। किसीको विश्वास दिलाकर उसके मालको हर लेना यह भी चोरी है । भोले भाई बहनोंको फुसलाकर उनका माल छीन लेना भी चोरी है। भय दिखाकर माल ले लेना, डाका डालना-गिरी पडी भूली वस्तुको उठा लेना आदि चोरी है। भीख मांगकर पेट भर लेना अच्छा है परन्तु चोरी कभी नहीं करनी चाहिये ।
श्लोकं-स्तेयं अदत्तं चिंतेय-वचनं अशुद्धं सदा ।
हीन कृत कूटभावस्य-स्तेयं दुर्गतिकारणं ॥ १३१ ॥ अन्वयार्थ (स्तेयं ) चोरी व्यसनमें फंसा हुआ जीव ( अदत्तं ) विना दी हुई वस्तुको लेना (चिंतेय ) ॐ चाहता है । (सदा) निरंतर (अशुद्धं वचनं ) मायाचारीसे पूर्ण मलीन वचनोंको कहना है (कूटभावस्य )४
मायाचारीके भावोंसे ( हीन कृत ) नीच काम परवन हरण आदि किया करता है ऐसा यह (स्तेयं ) चोरीका व्यसन (दुर्गतिकारणं ) दुर्गतिका कारण है।
विशेषार्थ-यह चोरीका व्यसन मन वचन काय तीनोंकी प्रवृत्तिको महान मायाचारीसे पूर्ण बना देता है। जैसे मार्जार मृषककी चिंतामें नित्य रहता है वैसे यह चोरीका करनेवाला दुसरेके । मालको किसतरह अपना करूं-किसतरह हरूं इस चिंतामें विचार करता हुआ पापका बंध किया करता है। क्योंकि परिणामोंके अनुसार बंध होता है। तथा जब उसकी भावना चोरीकी रहती है तब वह अपने वचनोंसे दूसरोंको विश्वास दिलाकर उनका माल किसतरह हाथ लगे ऐसे मायाचार
२३ पूर्ण वचनोंको कहता है। उसकी कायाकी प्रवृत्ति भी हीन होती है। चोरी करनेके सिवाय वह
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बारणतरण
॥१०॥
वेश्यासक, परस्त्री व्यसन, मदिरापान, आदि अशुभ कामों में फंसा रहता है। चोरका जीवन उसकी प्रवृत्तिकी अपेक्षा महान अशुभ नारकी समान होजाता है। वह घोर पापका बच करके जा
४ श्रावकाचार दुर्गति जाता है।
श्लोक-स्तेयं दुष्टप्रोक्तं च, जिनववनं विलोपितं ।
___ अर्थ अनथ उत्पादी, स्तेयं व्रतखंडनं ॥ १३२ ॥ अन्वयार्थ-(दुष्टपोक्तं च) दुखकारी हितकारी वचनोंका कहना भी (स्तेयं) चोरी है। (निनवचनं विलोपित जिद्रके वचनोंका लोप करना भी चोरी है ( अर्थ अनर्थ ) अर्थका अनर्थ (उत्सादी ) करनी भी४. चोरी है। (व्रतखण्डनं) व्रतोंका खण्डन करना भी (स्तेयं) चोरी है।
विशेषार्थ-यहांपर ग्रंथकर्ताने चोरीका दोष जिन २ बातोंमें आता है उनका यहां खुलासा किया है। ऐसे वचनोंका कहना जो दुष्टता लिये हुए हों, दूसरेका विगाड़ करने वाले हों, विश्वास दिलाकर घात करनेवाले हों, हिंसा, मृषा व चोरीसे गर्मित हों वे सब वचन स्तेपमें इसलिये आते हैं कि उनमें दसरेके हितका नाश करनेका गूढ अभिप्राय छिपा होता है। शास्त्रका उपदेश करते हुए जिन आज्ञाको उल्लंघन करके जो कथन जिन शास्त्रों में नहीं है इसको प्रगट करके कहना कि जिन शास्त्र में है अथवा शास्त्रके मन्तव्यको उल्टा समझाना, कमती बढ़नी बताना, इस तरह जान बझकर अपना कोई पक्ष पुष्ट करनेको व स्वार्थके साधन करने को जिन वचनको लोपकर व छिपाकर कहना सो भी चोरी है। क्योंकि यह जिनकी आज्ञाका उल्लंघन किया गया है। जो शब्दोंका अर्थ प्रकरण में होना चाहिये उसको छिपाकर कुछका कुछ अर्थ किसी स्वार्थवश कर देना यह भी भावको छिपाना है. इसलिये चोरी है। अथवा किसी कार्यको बिगाड़ देना, कोई धर्मकार्य अति लाभकारी होता हो उसको अपने वचनोंसे वा अपनी कृतिसे न होने देना अर्थका अनर्थ करना है इसलिये यह भी चोरी है। जो व्रत या प्रतिज्ञा या नियम लिया हो उसको तोड डालना, जान बूझकर उसमें दोष लगाना, अपनी कही हुई बातका उल्लंघन कर डालना यह भी चोरी है। इस तरह जो चोरीके दोषोंसे बचना चाहें उनको जिनेन्द्रकी आज्ञानुसार कहना, चलना व व्रत नियम सत्यतासे पालना चाहिये । व ऐसा वचन न कहना चाहिये जिससे दूसरेकी हानि होजाय । सरल सत्य व न्याय रूप
॥१७॥ १८
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वारणतरण
श्रावक्यंचार
व्यवहार करना, लेन देनमें साफ रहना, मनमें भी किसीको कष्ट देने का विचार न करना, एक पाई भी किसीकी हरनेका भाव न करना, तष ही चोरीके दोषसे बचा जासकेगा।
श्लोक-सर्वज्ञमुख वाणी च, शुद्ध तत्वं समाचरतु ।
जिन उक्तं लोपनं कृत्वा, स्तेयं दुर्गतिभाजनं ॥१३३॥ अन्वयार्य-(सर्वज्ञ ) सर्वज्ञ वीतराग अरहंत भगवानके (मुख) मुखारविंदसे प्रगट (वाणी च) वाणीके अनुसार (शुद्ध तत्वं ) शुद्ध आत्मीक तत्वका (समाचरतु) अनुभव करो। (निन उक्तं ) जिनेन्द्र के कहे
वचनको (लोपनं कृत्वा) जो न माना जायगा तो (स्तेयं ) चोरी है सो चोरी (दुर्गति भाजन) दुर्गतिमें Y पटकनेवाली है।
विशेषार्थ-यहांपर यह बताया है कि श्री सर्वज्ञ वीतराग भगवान ही यथार्थ तत्वोंके वक्ता V आप्त हैं। इनकी परम्परासे चले आए हुए आगमके अनुसार जीव अजीव तत्वका भेद समझना
चाहिये । प्रभुने बताया है कि यह संसारी जीव पुद्गल कर्मके साथ अनादिसे दूध पानीकी तरह मिले हुए चले आरहे हैं । जितनी विभाव परिणतियें होती हैं वे सब कर्मकृत विकार हैं । यदि कर्मका सम्बन्ध न हो तो आत्मामें राग, द्वेष, मोह आदिन प्रगटे। आत्माका स्वरूप यदि निश्चयनयसे विचारा जाय तो परम शुद्ध है, वीतराग है, ज्ञान, दर्शनमय ज्योति स्वरूप है, अखण्ड है, अमूर्तीक है। इस तरह भेदज्ञान सर्वज्ञके कथनानुसार प्राप्त करके अजीवसे मोह छोडकर सर्व पर पदार्थोसे वृत्तिको निरोध कर, पांच इंद्रिय और मनके विषयोंको छोडकर, समताभाव लाकर, निश्चल हो शुद्ध आत्माको ध्याना चाहिये । जैसे प्राचीन काल में श्री महावीर भगवानने, गौतमस्वामीने, सुधर्माचार्यने, जम्बूस्वामीने घ्याया था व श्री भद्रबाहु श्रुतकेवलीने व श्री कुंदकुंदाचार्यने भाया था। उसी तरह उस शुद्ध आत्मतत्वको सरल भावसे ध्याना चाहिये । जो कोई इस शुद्ध आत्मध्यानमय मोक्षमार्गका उपदेश न देकर मात्र व्यवहार धर्मका ही उपदेश देते हैं व आप भी व्यवहार क्रियाकांडमें मगन रहते हैं व दूसरोंको भी इसीमें लगाते हैं, इसीसे मोक्ष होगी, यही बुद्धि स्वयं रखते हैं व दूसरोंको कराते हैं वे भूले हुए हैं, जिनकी आज्ञाका लोप कर रहे हैं । अतएव चोरीके दोषके
॥१३८
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श्रावकाचार
भागी हैं, जिनेंद्रका मुख्य उपदेश शुखात्मानुभव है, इसीको लोप कर देना बड़ा भारी दोष है, बारणतरण
जीवोंको सम्यक्त होनेका कारण ही यह यथार्थ उपदेश है । केवल पुण्य बंध संसार भ्रमणकाही ॥१९॥ कारण है। द्रव्यलिंगी साधु शुद्ध आत्मतत्वके अनुभवको न पाते हुए पुण्य बांध स्वर्ग चले जाते हैं
फिर वहांसे आकर पशु पर्याय में भ्रमण करते हैं। संसारसे पार करनेवाला एक सम्यग्दर्शन है, उसके
विना सर्व क्रिया व सर्व ज्ञान संसारका ही कारण है, निश्चय सम्यग्दर्शनका छिपाना घोर पाप है, र चोरी है, इससे भी बचना योग्य है।
श्लोक-दर्शन ज्ञान चारित्रं, अमूर्त ज्ञानसंयुतं ।
शुद्धात्मानं तु लोपंते, स्तेयं दुर्गतिभाजनं ॥१३४॥ अन्वयार्थ-जो कोई (दर्शन ज्ञान चारित्रं ) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमई (अमृत) अमूर्तीक (ज्ञानसंयुतं) ज्ञानमई (शुद्धात्मानं ) शुद्ध आत्माको (तु लोपंते ) तो नहीं जानते हैं । परन्तु उसके सिवाय किसी धर्मको पालते हैं वे (स्तेय) चोरीके भागी हैं (दुर्गतिभाजन ) उनका मोक्षसे विपरीत संसारमें ही भ्रमण होगा।
विशेषार्थ-यहां फिर बताया है कि जिस धर्मके स्वरूपमें निश्चय धर्मका लोप किया हो मात्र व्यवहार धर्मका ही प्ररूपण हो, वहांपर भी चोरीका दोष आता है। क्योंकि असली धर्म निश्चयधर्म है, यही मोक्षका साक्षात् कारण है ।सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र निश्चयनयसे एक शुद्ध आत्मा स्वरूप है। ये तीनों ही आत्माके गुण हैं, आत्मासे अभेद हैं। शुद्ध आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्शसे रहित अमूर्तीक है तथा ज्ञानाकार है, क्योंकि वह एक अखण्ड पदार्थ है, वह जैसा शरीर होता है उस आकारमें व्याप जाता है, विना आकारके कोई वस्तु नहीं होसक्ती है। वह मूर्तीक जड आकारसे शून्य है। उसका आकार इम अल्पज्ञानियोंके ध्यानमें नहीं आसक्ता है। वह अमूर्तीक अनन्त गुणोंका पुंज है। इनमें ज्ञान सर्वत्र व्यापक है इसलिये उसको ज्ञानाकार कहते हैं। द्रव्य कर्म ज्ञानावरणादि, भाव कर्म रागद्वेषादि, नोकर्म शरीरादि, इन सबसे रहित स्वसंवेदन गम्य वह एक अद्भुत पदार्थ है। जहां पांच इंद्रिय और मनसे उपयोगको हटाकर देखा जायगा तो वही अनुभवमें आयगा । इस तरह जहां शुद्धात्मारूप अपने आपका श्रद्धान ज्ञान व चारित्र है वही अभेद रत्नत्रय
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वारणतरण ॥१४०॥
मोक्षका साधन है । जितना भी व्यवहार धर्म पालों जाता है वह इस स्वानुभव रूप निश्चय मोक्षमार्गके लिये । जहां इसको लोप कर दिया जाय वहां निःसार धर्म रह जाता है। जैसे चावल विना धान्यकी भूंसी, तेल विना तिलकी भूसी निःसार है । व्यवहार धर्मको निश्चय धर्मकी अपेक्षा विना सेवन करना चालू पेलकर तेल निकालना है। शुद्धात्मानुभव ही साक्षात् उपादेय-आराधने योग्य धर्म है। योगसार में योगेन्द्रदेव कहते हैं
जो निम्मल अप्पा मुणहि छन्दवि सहुववहारु । भिणसामी एड्इ भणइ लहु पावहु भव ॥ ३७ ॥
जाम न भावहु जीव तुहुं निम्मल अप्पसहास । ताम ण लब्भई सिगम' जईि माँहु तर्हि जाऊ ॥ २७ ॥ भावार्थ - जो सर्व व्यवहारको छोडकर निर्मल अस्नाको अनुभव करता है । जिनेन्द्र भगवान कहते हैं वही शीघ्र संसारसे पार होजाता है। हे जीव ! जबतक तू निर्मल आत्मा के स्वभावकी भावना न करेगा तबतक मोक्षमें गमन नहीं होसक्का, चाहे जहां जाय व चाहे जो कुछ करे ।
जो आत्मानुभवकी तरफ लक्ष्य दिलाते हुए व्यवहार क्रियाकांडका उपदेश देते हैं वे ही सच्चे जिनेन्द्र के तत्वको प्रकाश करनेवाले हैं । परन्तु जो मुख्य अंगको छिपाते हैं वे वास्तवमें आत्म हितकारी बातको छिपानेसे चोर हैं। चोरीके व्यसनमें प्रथम तो परकी वस्तुका ग्रहण मना किया है । जो अपने इकका पैसा है व सम्पदा है व पदार्थ है उसीमें हमको संतोष रखना चाहिये। फिर उसके दोष जो जो लगा सकते हैं उनको बताया है। जहां सरल मायाचार रहित परिणाम होगा वहां चोरीका कोई दोष नहीं लग सका है। भावोंकी सम्हाल ही मुख्य धर्म है ।
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श्लोक – परदारारतो भावः, परपंच कतं
सदा ।
ममत्वं अशुद्ध भावस्य, आलापं कूट उच्यते ।। १३५ ॥
अन्वयार्थ – ( परवारोरतो भावः) परस्त्रीमें आसक्त जिसका भाव है वह (सदा परपंच कृतं सदा प्रपंचजाल करे व करता रहता है (अशुद्ध भावस्य ममत्वं ) उसके अशुंडे भावकों मोह है । वह (कूट आली ) मायाचार सहित वातचीत (उच्यते ) कहता रहता है ।
विशेषार्थ - अब यहां परस्त्री रमन व्यसनको कहते हैं। वेश्या व्यसनमें अविवाहित व्यभिचों
श्रावकाचार
॥ १४०॥
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बारणतरण
॥१४॥
१
रिणी स्त्रीका ग्रहण है, यहां विवाहित व्यभिचारिणी स्त्रीका ग्रहण है। जो कोई परस्त्रीकी वांछार
श्रावकार मनमें करते हैं उनको सदा ही मनमें उस परस्त्रीसे सम्बन्ध करनेकी चिंता रहती है। उनसे मिलनेके लिये नाना प्रकार जाल रचा करते हैं। अशुद्ध पापकारी कामके भावों में उनकी लीनता रहती है। वे इसी हेतु मायाचार सहित वार्तालाप भी करते हैं। मन, वचन, काय तीनोंकी कुचेष्टा परस्त्रीमें रति भाव करनेसे होने लगती है। परस्त्रीके रागीके धर्म, अर्थ, काम तीनों गृहस्थके पुरुषार्थ बिगड़ जाते हैं। वह गृही धर्मको बिगाड़ लेता है। गृहस्थीको विवाह करनेका यही अभिप्राय है कि यह संतोषी रहे, संतानकी मुख्य भावनासे स्वस्त्री संतोष करे, परस्त्रीकी वांछा न करे। परस्त्रीका लोभ प्राणीको घोर संकटोंमें डाल देता है। इस लोकमें भी अपमान सहता है और परलोकमें भी अधोगतिका पात्र होता है। सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैंयो परिचिन्स्य भवार्णवदुःखमन्यकलत्रमभीप्सति कामी । साधुननेन विनिन्धमगम्यं तस्य किमत्र परं परिहार्यम् ॥ ५८८॥ दृष्टिचरित्रतपोगुणविद्याशीलदया दमशौच शमाद्यान् । कामशिखी दहति क्षणतो नुर्वहिरिवन्धनमूर्जितमत्र ॥ ५९१॥
भावार्थ-जो कोई संसारसमुद्रके दुःखोंको चितवन करके भी कामी है, परस्त्रीकी इच्छा . करता है उसको साधु जनोंने निंदनीय कहा है व अयोग्य बताया है। उसको पहां कुछ भी त्यागने योग्य नहीं रहा । कामकी अग्नि दर्शन, चारिज, तप, गुण, विद्या, शील, दया, संयम, शौच, शांति आदि गुणोंको क्षणमात्र में जला देती है जिस तरह अग्निकी शिखा ईधनके समूहको जला देती है।
जो गृहस्थ श्रावक धर्म पालकर अपना हित करना चाहें उनको उचित है कि अपनी विवाहिता स्त्रीमें सन्तोष रखें और हर तरह परस्त्रीके सम्बन्धसे अपनी रक्षा करे । यह व्यसन भी पीछे पड जानेसे नहीं छूटता है।
श्लोक-अबंभं कूट सद्भावं, मन वचनस्य क्रीयते।
ते नरा व्रतहीनाश्च, संसारे दुःखदारुणं ॥ १३६ ।। अन्वयार्थ-( अवमं ) अब्रह्मभाव (मन वचनस्य ) मन और वचनमें ( कूट सदभावं क्रीयते) मायाचारको जमा देता है। जो अब्रह्मकी सेवा करते हैं (ते नरा) वे मानव (व्रतहीनाश्च ) व्रत रहित ही हैं ( संसारे ) इस संसारमें (दुःखदारुणं ) महान दुःखको पाते हैं।
॥१४॥
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॥१२॥
विशेषार्ष-परस्त्री भोगका भाव मन और वचनको कुटिल कर देता है। जो कोई प्रावकके ब्रतोंको पालनेकी प्रतिज्ञा करके भी अब्रह्ममें रत होजाते हैं वे अपना महान बुरा करते हैं। पांच अणुव्रतोंमें स्वस्त्री संतोष व्रत मुख्य है। जो इस बातको भूलकर पर स्त्रियोंकी संगति करते हैं, उनसे हास्यजनक वार्तालाप करते हैं, वे उनके मोहमें पडकर व्रतका स्वरूप मलीन कर देते हैं। उनके भावों में परस्त्रीका रूप बस जाता है। वे उसके देखनेकी, उससे बात करनेकी, उससे मिलनेकी चिंतामें पह जाते हैं। वास्तव में ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिये निमित्तौके बचाने की बहुत जरूरत है। स्त्री पुरुषका एकांत निमित्त बडे १ महाव्रती मुनि तकके भावों में मलीनता पैदा कर देता है। ब्रतीको इसीलिये एकांतमें शय्या व आसन रखनेके लिये कहा गया है। उसको सब ही विकारकारी निमितोंसे अपनेको बचाना उचित है। श्रावक धर्मको पालकर जीवन सफल करनेका साधन परस्त्रीके व्यसनसे बचना ही है।
श्लोक-कषायेन हि विकहा स्यात्, चक्रइन्द्र नराधिपाः ।
भावनं यत्र तिष्ठते, परदाररतो नराः ॥ १३७ ॥ अन्वयार्थ—(परदाररतो नराः) जो मानव परस्त्रीके व्यसनमें लीन हैं उनके भीतर ( कषायेन ) लोभ कषायके द्वारा (हि) निश्चयसे (विकहा) विकथा (स्यात् ) करनेका भाव होता है (यत्र ) जिस विकथामें (चन्द्र इन्द्र नराधिपाः) चक्रवर्ती, इन्द्र, तथा राजाओंके पदकी (भावनं ) भावनाएं (तिष्ठते) होती रहती हैं।
विशेषार्थ-चक्रवर्तीके छयानवै हजार स्त्रीका भोग होता है। इन्द्रकी सेवामें भी हजारों देवांगनाएँ होती हैं । बडे २ राजाओं के भी स्त्री भोग प्रसिद्ध है। ऐसी कथाएँ जिनमें इनके कामभोग ॐ सम्बन्धी वर्णन आते हैं उन पुरुषोंको बहुत रुचती हैं जो कामी परस्त्रियों में रत हैं । इन कथाओंको
वे इसी भावसे सुनते या पढते हैं कि कामकी भावनामें रंजायमान हुभा जावे। ये कथाएं उनके मनमें यह भावना जागृत कर देती हैं कि हमको भी चक्रवर्ती व इन्द्रादिके व महाराजाओंके पद प्राप्त हों, जिसमें खूष स्त्रियोंके भोग करनेका अवसर मिले । कोई २इसी भावनाको मनमें रखकर मुनि व श्रावकके व्रत भी पालने लगते हैं। वे शुद्ध अतीन्द्रिय सुखकी भावनाको भूलकर क्षणिक
॥१४॥
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इंद्रिय जनित अतृप्तिकारी सुखकी भावना करते हुए अपने मनको अशुभ निदान भावसे मलीन सरणतरण
४श्रावकाचार रखते हैं। उनका चारित्र पालन बहुत अल्प पुण्य बांधता है-परम्परा वे संसारके ही मार्गी होते हैं।
प्रयोजन कहनेका यह है कि परस्त्री व्यसनके लोभसे बचना ही हितकर है। जो सम्यक्ती हैं वे तो काम भावको रोग जानते हैं, स्वस्त्री में भी भोग करना अपना कर्तव्य नहीं समझते हैं। उसे भी काम रोगका एक दिल दहलानेवाला उपाय समझते हैं, वे पहचानते हैं कि काम भावका नाश आत्मध्यानके वीतरागमय भावके अभ्याससे ही होगा। वे गृहस्थमें रहते हुए नीतिसे चलते हैं, कभी भी परस्त्रीकी वांछा नहीं करते हैं । यह कामकी उत्कट वांछा महान आर्तध्यानमें व विकथाथाओंमें फंसा देती है और घोर कर्मका बंध कराती है।
श्लोक-कामकथा च वर्णत्वं, वचनं आलापरञ्जनं ।
ते नरा दुःख साते, परदाररता सदा ॥ १३८॥ अन्वयार्थ—(कामकथा च ) काम भाव बढानेवाली कथाओंका भी ( वर्णत्वं ) वर्णन करना तथा ( आकापरंजनं वचनं ) कामकी चर्चा में रंजायमान करनेवाला वचन कहना । ऐसा जो करते हैं वेड ५ (परदाररता जनाः) वे मानव परस्त्री व्यसनमें रत हैं (ते नरा) वे मानव (दुःख साते) अनेक कष्ट सहते हैं।
विशेषार्थ-परस्त्रियोंकी सुन्दरताकी हावभाव विलास विभ्रमकी, उनके प्रेममें फंस जानेकी, उनको छल लेनेकी, उनके भोग विलासको कथाएँ मनको शृंगार रसमें फंसानेवाली कहना तथा उनको सुनकर प्रसन्न होना। हां हां मिलाना। इत्यादि परस्त्रियोंमें रतिको पैदा करनेवाली जो कुछ भी चर्चा है व वचनालाप है वह सब परस्त्री व्यसनमें गर्मित है, परिणामों में कामकी उत्कटता बढानेवाली है। ये अशुभ भाव पाप बन्ध कारक हैं। उन पापोंके उदयसे प्राणीको संसारमें दुःख सहने पडेंगे। यहां भी यदि कोई किसी परस्त्रीकी सुन्दरताकी कथा सुनकर उसपर अपने भाव आसक्त कर लेगा वह रातदिन चिन्ताकी दाहमें जलकर दुःख पावेगा। उसके लिये महान प्रपंच करेगा-असफलतामें प्राण तक गमा बैठेगा । इसलिये गृहस्थ श्रावकको उचित है कि परस्त्री व्यसनके भीतर भयभीत प्रवतें इसहेतु कभी कामकी कथाएँ न कहें न सुनें। ऐसे खेल नाटक
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वारणतरण ॥१४४॥
तमाशें भी न देखें जो मनको कामके विकारसे आकुलित करदें । वेश्याओंके नाचगान भी न सुनें । ब्रह्मचर्य पालनेके लिये यह आवश्यक है कि भावोंको बिगाडनेवाले निमित्तों से बचा जावे । क्योंकि काम भावकी आगका उत्पन्न होना महान संकटोंका कारण है। कुलभद्र आचार्यने सारसमुच्चय में कहा है
मदनोऽस्तिमहाव्याधिर्दुश्चिकित्स्यः सदा बुधैः । संसारवर्षनेऽत्यर्थ दुखोत्पादनतत्परः ॥ ९३ ॥
यावदस्य हि कामाग्निर्हृदये प्रज्वलैत्यलम् । आश्रयन्ति हि कर्माणि तावदस्य निरन्तरम् ॥ ९४ ॥ '
संकल्पाच्च समुदभूतः कामसर्पोऽति दारुणः । रागद्वेषद्विजिह्वोऽसौ वशीकर्तुं न शक्यते ॥ ९७ ॥
भावार्थ - कामभाव महान रोग है बुद्धिमानोंने इसका उपाय बड़ा ही कठिन कहा है, इससे संसार अतिशय बढ़ता है सदा ही दुःख हुआ करता है। जबतक यह कामकी अग्नि चित्तमें जला करती है तबतक निरंतर कमौका बंध हुआ करता है। कामरूपी भयानक सर्प संकल्प से ही उत्पन्न होता है जिसके राग द्वेषरूपी दो जिह्वा हैं । इसको वश करना बहुत कठिन है ।
दुष्टा येममनङ्गेच्छा सेयं संसारवर्धिनी । दुःखस्योत्पादने शक्ता शक्ता विचस्य नाशने ॥ ९८ ॥
भावार्थ - जो यह कामकी इच्छा है वह अति दुष्ट है यह संसारको बढानेवाली है, क्लेशको पैदा करनेवाली है तथा परस्त्री व्यसनमें फंसाकर धनका नाश करनेवाली है । इसलिये कामकी कथाओं से बचना बहुत जरूरी है।
श्लोक - विकहा श्रुत प्रोक्तं च, कामार्थ श्रुत उक्तयं ।
श्रुतं अज्ञानमयं मूढं व्रतखंडं दार रंजित ॥१३९॥
अन्वयार्थ - ( विकहा श्रुत प्रोक्त ) स्त्री कथारूपी विकथामें फंसानेवाले शास्त्रोंका व्याख्यान करना या ( कामार्थं ) काम भावके उत्पन्न करनेके लिये (श्रुत उक्तयं ) किसी भी शास्त्रका कहना ( अज्ञानमयं मूढं श्रुतं ) तथा ऐसा जो अज्ञानमई मृढतासे पूर्ण शास्त्र है ( दार रंजितं ) वह स्त्रियों में रंजायमान करानेवाला है तथा (व्रतखण्डं ) ब्रह्मचर्य व्रतका खण्डन करनेवाला है ।
विशेषार्थ-चार विकथाओंमें स्त्री कथा बडी खोटी विकथा है, स्त्रियोंके मोहमें फंसानेवाली
श्रावका कार
॥१४॥
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१४॥
५ है ऐसी कथाओंको व्याख्यान करनेवाले शास्त्रोंका रचना, उनका कहना सुनना व अन्य कोई भी शास्त्र हो, उसके वर्णनको इस तरह कहना कि जिसके सुननेसे काम भाव उत्पन्न होजावे विका
ॐश्रावकार रूप है। जैसे किसी जैन पुराणमें कहीं स्त्रियोंके शृंगारका वर्णन है उस वर्णनको आचार्यने पुण्यका फल या उसकी क्षणभंगुरता दिखाने के लिये किया है उस वर्णनको कोई व्याख्याता इस रूपमें कहें कि जिससे श्रोताओंका मन कामभावमें लिप्त होजावे, वह विकथाहीमें आजायगा। जहां ऐसा कथन आवे वहां वक्ताको इस तरह उसको समझाना चाहिये, जिससे रागके स्थान में वैराग्य होजावे, बडे १ काव्य, नाटक, छन्द, अलंकार व कविताएं ऐसी बनाई जाती हैं जिनमें बडी भारी विद्वत्ता है, परन्तु कामभावकी उत्तेजक हैं वे सब ग्रन्थ कुज्ञानमय शास्त्र हैं। वे मूढतासे भरपूर हैं। ऐसे शास्त्रोके रचने, कहने व सुनने से स्त्रियों में अनुराग बढ जाता है, परस्त्री व वेश्याकी चाहना उठ आती है। परिणामों में परस्त्रीकी तरफ आसक्ति आनेसे ब्रह्मचर्य व्रतका खण्डन होजाता है। अतएव ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिये स्त्रियोंकी विकथाओंसे बचना हितकर है। __श्लोक-परिणामं यस्य विचलंते, विभ्रमं रूप चिंतनं ।
आलापं श्रुत आनन्दं, विकहा परदारसेवनं ।। १४०॥ अन्वयार्थ-(यस्य) जिस विकथाके करनेसे (परिणाम) भाव (विचलंते) डगमगा जाते हैं (विभ्रम) स्त्रियोंके विलास (रूप) व उनके रूप देखनेकी (चिंतनं) चिंता उत्पन्न होजाती है। (आलापं श्रूत आनन्द) कामभावके गीत व वार्तालाप सुनने में आनन्द भाव जागृत होजाता है इसीलिये (विकहा ) स्त्री कथा करना (परदारसेवनं ) परस्त्री सेवनमें गर्मित है।
विशेषार्थ-स्त्रियोंकी कथा जबतक कुकथा रूपमें की जायगी, उसके सुनते सुनते कहते कहते परिणाम शद्ध ब्रह्मचर्यके भावसे डिगमगा जायगे। भावों में विकार तो हो ही जायगा। तथा यह चिंता
होजायगी कि हम स्त्रियोंके रूप देखा करें, उनके वस्त्राभूषण, चलने, फिरने, नाचने, गानेके विलास १. देखा करें, उनके मनोहर गान सुना करें, उनके साथ वार्तालाप किया करें। इस चिंताके साथ उसको
परस्त्रियों या वेश्याओं के साथ वार्तालाप करनेमें व उनके मनोहर शब्द सुनने में अति रंजायमान* पना होजायगा। यदि कोई परस्त्री भोग नहीं भी करे तो भी यह सब मनकी व वचनकी व कायकी wall
W
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वारणतरण
।।३.४६।।
चेष्टा परस्त्री व्यसन के सदृश भावोंको विकारी बनानेवाली है अतएव परस्त्री व्यसन में गर्भित है । यहां यही तात्पर्य है कि काम भावोंको उत्पन्न करनेवाली कथाओंको कभी भी सुनना, पढना व रचना न चाहिये। विवेकियोंको शील भाव दृढ करनेवाली कथाओंको सुनना व पढना व रचना चाहिये । श्लोक-मनादिकाय विचलंति, इन्द्रियविषय रक्षितं ।
व्रतखण्डं सर्व धर्मस्य, अनृतं अचेतं सार्द्धं ॥ १४१ ॥
अन्वयार्थ - ( मनादिकाय ) मनको आदि लेकर अर्थात् मन, वचन, काय तीनों (विचलति ) आकुलित होजाते हैं । ( इन्द्रियविषय रंजितं ) इंद्रियोंके विषयोंमें रंजायमान पना होजाता है । ( व्रतखण्ड ) ब्रह्मचर्य का खण्डन होजाता है । ( सर्व धर्मस्य अनृतं ) सर्व धर्म में मिथ्यापना होजाता है ( अचेत सार्द्ध ) साथ में मिथ्याज्ञान भाव दृढ होजाता है ।
विशेषार्थ — स्त्री सम्बन्धी विकथाओंके करनेसे मनमें आकुलता होजाती है। राग सहित वचका प्रयोग स्त्रियोंसे करने लग जाता है । स्त्रियोंके अंगादिको स्पर्श करनेकी कुचेष्टा भी कायसे होने लगती है । इस कामको तीव्रताके वश होकर पांचों इंद्रियोंके विषयोंमें रंजायमान पना हो जाता है। मनोहर वस्त्रादि, पलङ्गादि व परस्त्री वेश्यादिका स्पर्श करने में मन राजी रहता है । जिह्वाकी लोलुपता बढ जाती है, मिष्ट व कामोद्दीपक पदार्थ व मादक पदार्थ खाने में मन प्रसन्नता मानता है । अतर फुलेल लगाने में व फूलोंकी माला सूंघने में अनुरक्त होजाता है। आंखों में चंचलता बढ जानेसे निरन्तर मनोहर रूपके देखनेकी कामना दृढ होजाती है । कानोंसे सदा मनोहर गान, सुर ताल सहित सुननेकी तीव्र रुचि होजाती है । इसीसे ( व्रतखण्डं ) ब्रह्मचर्य व्रतका खण्डन होजाता है । तब जो कुछ अहिंसादि व्रत होते हैं उनका उसके भावोंमें सत्यपना नहीं रहता है । वह अतिरागी होकर अपने शील भावका हिंसक होजाता है । परस्त्रियोंके लिये अभिलाला करके उनकी प्राप्तिकी भावना से मिथ्या वचन बोलने में व गुप्तरूप से चोरी करने की भावना होजाती है । परिग्रहकी लालसा बढ़ जाती है । कुशीलकी अन्याय जनित प्रवृत्तिकी भावनासे सर्व धर्म उसके मिथ्या होजाते हैं । साथ में उसका ज्ञान भी निर्मल नहीं रहता है, मिथ्यात्वका उदय आजाता है और उसका सर्व
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श्रावकाचाव
॥ १४६॥
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वारणतरण
॥१४७॥
शास्त्रज्ञान मिथ्याज्ञानपनेको प्राप्त होजाता है। इसलिये जो ब्रह्मचर्यव्रतको, सर्व देश या एक
श्रावकाचार देश पालना चाहें उनको उचित है कि वे काम कथाके प्रपंचमें न पडे न ऐसी कुसंगति रक्खे जिससे मन भी किसी तरह विचलित होजावे । परिणामोंकी सम्हाल निमित्तोंके बचानेसे होगी। इसलिये ब्रह्मचर्यकी रक्षाके लिये तत्वार्थसूत्र में पांच भावनाएं बताई हैं
स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्टष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पंचः॥॥
भावार्थ-(२) स्त्रियों में राग बढानेवाली कथाओंका सुनना छोडना चाहिये, (१) उन स्त्रियोंके मनोहर अंगोंके देखनेका त्याग करना चाहिये, (३) पूर्वमें भोगे हुए भोगोंकी स्मृति न करनी चाहिये, (४) कामोद्दीपक पौष्टिक रस न खाना चाहिये, (५) अपने शरीरका श्रृंगार न करना चाहिये। मनकी चंचलता बडी विचित्र है। जरा भी विपरीत निमित्त होता है तो मन विकारी होजाता है। मनका विकारी होना ही कामदेवका उत्पादक है।
श्लोक-विषये रञ्जितं येन, अनृतानंद संजुतं ।
पुण्योत्साहं उत्पादी, दोषे आनंदनं ॥१४२॥ अन्वयार्थ-(येन विषये नितं ) जो पांच इंद्रियोंके विषयों में रंजायमान होजाता है वह ( अनृतानन्द संजुतं) मृषानंद रौद्रध्यान सहित होजाता है या मिथ्यात्वमें आनंदवान होजाता है। (पुण्योत्साहं उत्पादी) वह पुण्य करने में उत्साह पैदा कर लेता है। इस तरह (दोषे) जो संसारका कारण दोष है उसमें (भानंदनं कृतं) प्रसन्न होकर तन्मय होजाता है।
विशेषार्थ-स्त्री सम्बन्धी काम कथाका बुरा फल यह होता है कि यह प्राणी मूढ होकर जिन इंद्रियोंकी वांछा एक सम्यग्दृष्टीको नहीं होनी चाहिये उनहीमें यह रंजायमान होने लगता है। बस मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्यात्वी होजाता है या सत्य मार्गसे हट जाता है और मिथ्या मार्गमें आनंद मानने लगता है। उसके भीतरसे वीतराग विज्ञानमय सत्य धर्मकी रुचि चली जाती है। ऐसा विषय योका लोभी मोक्षमार्गको भूलकर पुण्य कर्म करने में बडा ही उत्साही होजाता है। अर्थात् पुण्यकी तीव्रता होगी तो मनोवांछित भोग स्वगों में व राजा महाराओंके पाकर खूब विषयभोग करूँगा, इस
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वारणतरण
॥ १४८ ॥
भावनामें लिप्त हो बडे भावसे पूजा पाठ करता है, भजन पढता है, दान देता है, शास्त्र पढता है, नियम संयम पालता है, उपवास करता है, मुनि होकर दिगम्बर साधुका कठिन चारित्र पालता है या श्रावक व्रतको पालता है तौभी मोक्षमार्ग से विपरीत चलता हुआ, भोगोंकी तृष्णाके उद्देइयको रखता हुआ जो दोष है उसमें आनन्द मान लेता है । वह अपने कठोर चारित्रको विषयरूपी विषके बदले में वेच डालता है । जिस चारित्र से स्वरूपाचरण चारित्र होकर अतीन्द्रिय आनन्दका लाभ होता था, निर्वाणका शाश्वत सुख प्राप्त होसक्का था उस चारित्रको उतनी ही मिहनत से पालता हुआ त्यागने योग्य मिथ्या वस्तुकी चाह में ही फंसा रहता है, विषयोंकी आशा में आनन्द मानता है । जैसे कोई धनकी प्राप्तिके आनन्द में तीव्र आतापमें भी नंगे पैर भारी भार लेकर ढोता है, बहुत उपसर्ग सहता है, ऐसे ही अज्ञानी जीव क्षणिक विषयसुखकी आशासे महान मुनिका या श्रावकका चारित्र शास्त्रोक्त पालता है - मिथ्यादृष्टी होता हुआ संसार वर्द्धक दोषकी ही सेवा कर रहा है । इस तरह यहां ग्रन्थकर्ताने परस्त्री व्यसनको बहुत अच्छी तरह बताया है । श्रावक गृहस्थियोंका यह मूल कर्तव्य होना चाहिये कि वे मोक्षकी भावनासे जीवन वितायें । निरंतर संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य भाव रक्खें, निजानन्द पदके गाढ प्रेमी होजावें, ऐसे गृहस्थी पांच इंद्रियोंके भोगोंको बहुत नियमित आवश्यक्तानुसार रोगके इलाजवत् रुचि रहित करते हैं । वे शुद्ध मनसे अपनी विवाहिता स्त्री में संतोषित रहते हैं । कामभावकी अग्निको उत्तेजित करनेवाली सर्व मन वचन कायकी क्रियासे, कुसंगति से, कथा आलापसे सबसे बचते हैं । वास्तव में ये सातों ही व्यसन मानवोंके परम वैरी हैं । जो अपना हित चाहे उनको इनसे बचकर रहना चाहिये तथा उनके सर्व अतीचारोंको भी बचाना चाहिये । इस कथन से यह बात तत्वज्ञानीको झलक जायगी कि अनंतानुबंधी कषायके भाव किस तरह प्राणीको मिथ्यात्वमें पटक देते हैं अथवा मिथ्या ज्ञानसे किस तरह यह प्राणी व्रत तप करता हुआ अनंतानुबंधी कषायके फेर में अचेत होजाता है ।
श्रावकाचार
॥१४८
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आठ मद स्वरूप। ॥१९॥
श्लोक-एतत्तु रागबन्धस्य, मद अष्टं रमते सदा ।
ममत्त्वं असत्त्य आनंदं, मदाष्ठं नरयं पतं ॥१४॥ अन्वयार्थ-(एतत् तु) इस प्रकारके (रागबन्धस्य ) रागसे बंधा हुआ प्राणी (सदा) निरंतर (मद अष्ट) से आठ मदोंमें (रमते ) रमण किया करता है ( ममत्वं ) जगतकी ममतामें फंसा रहता है ( असत्य आनंदं)४ मिथ्या पदार्थों में आनन्द माना करता है। (मदाष्टं) ये आठों मद (नरय पतं) नरकमें गिरा देते हैं।
विशेषार्थ-ऊपर लिखे हुए द्यूत रमण आदि सातों व्यसनोंके भीतर जो रंजायमान हुआ करता है, जिसको विषय रुचि व सेवन ही सुखरूप भासता है, जिसको आत्माके आनन्दकी खबर नहीं
है ऐसा मिथ्यादृष्टी जीव जाति कुल आदिके आठ प्रकारके घमण्डमें भी सदा रंजायमान V रहता है। क्योंकि इससे संसारसे अति ममत्व है, स्त्री पुत्र धनादिके साथ गाढ स्नेह है। इन
मदोंको करता हुआ यह अज्ञानी प्राणी मिथ्या जगतको अवस्थाओं में जो नाशवंत हैं, आनन्द माना करता है। जब उनका वियोग होजाता है तो अत्यन्त शोक करता है। तीन कषायमें गृसित होता हुआ यह अज्ञानी प्राणी नरकायु बांध लेता है, नरकमें जाकर घोर कष्ट पाता है। जो वस्तु थिर रहनेवाली नहीं है उनको पिर मानके घमण्ड करना वास्तवमें अज्ञान है। यह सबको प्रगट है कि धनके रहनेका कोई नियम नहीं है, कुछ दिनों में एक धनवान निर्धन
होजाता है। युवानीके रहनेका नियम नहीं है। युवानसे शीघ्र वृद्ध होजाता है। जीवनके छुट जानेका ४ कोई नियम नहीं है । तृणके ऊपर जल बूंदके समान पतन होजाता है। जगतमें जितने भी पर्याय हैं, स्कन्ध हैं, मिश्रित भाव हैं, औपाधिक परिणाम हैं, वे सब अथिर हैं। कर्मोदयसे उनका संयोग इस संसारी जीवको होता है। कर्मका उदय धूप छायाके समान कभी अच्छा कभी बुरा है। जो कोई धूप वा छायाके एक तरह बने रहनेका मिथ्या मोह करेगा वह अवश्य उनके वियोग पर कष्टका अनुभव करेगा। अतएव मद करना मात्र मिथ्यात्व भाव है और तीब कषायका झलकाव है।
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बारणतरण
श्लोक-असत्त्ये अशाश्वते रागं, उत्साहेन रतो सदा । ॥१५॥
शरीरे रागवर्धन्ते, ते तु दुर्गतिभाजनं ॥ १४४ ॥ अन्वयार्थ (असत्त्ये) मिथ्या (अशाश्वते) व अनित्य पदार्थ में (राग) राग करना व ( उत्साहेन) उत्साहके साथ (सदा) निरंतर (रतो) उनमें रति करना (शरीरे ) शरीरमें (राग) मोहको ( वर्धन्ते ) बढा देते हैं । (ते तु) जो ऐसे मोही हैं वे (दुर्गतिभाजनं ) अशुभ गतिके भागी होते हैं।
विशेषार्थ-जगतकी सर्व रचना जो बनती है व बिगडती है वह सब मिथ्या है व नाशवंत है 7 जैसे क्षण क्षणमें समय बीतता जाता है ऐसे ही सर्व अवस्थाएं क्षण क्षणमें बदलती रहती हैं । इन
अवस्थाओं में राग करना व इनके बने रहने में उत्साह रखना व रंजायमान होते रहना, प्राणीको शरीरका अतिशय मोही बना देता है, वह आत्माको बिलकुल भूलकर अपनेको शरीर रूप ही माना
करता है। मैं नृप हूँ, मैं सेठ हूँ, मैं बलवान हूँ, मैं विद्वान हूँ, मैं तपस्वी हूँ, मैं सुन्दर हूँ, मैं बडे Vवंशका हूँ इत्यादि शरीरकी मू में मूर्छित होता हुआ तीव्र कर्म बांधकर दुर्गतिमें चला जाता है।
सुभाषितरत्नसंदोहमें कहते हैंगलत्यायुदेहे व्रति विलयं रूपमखिलं । जरा प्रत्यासन्नीभवति लभते व्याविरुदयम् ।। कुटुम्बः स्नेहातः प्रतिहतमतिर्लोभकलितो । मनो जन्मोच्छित्त्यै तदीप कुरुते नायमसुमान् ॥ ३३३ ॥ भवन्त्येता लक्ष्म्यः कतिपयदिनान्येव सुखदास्तरुण्यः तारुण्ये विदधति मनः प्रीतिमतुलाम् ॥ तडिल्लोला भोगा वपुरपि चलं व्याधिकलितं । बुधाः संचिंत्येति प्रगुणमनसो ब्रह्मणिरताः ॥ १३॥
भावार्थ-यह आयु गलती जाती है, वह सब रूप विलय होता जाता है। जरा निकट आती जाती है। रोगोंका उदय होता रहता है । कुटुम्ब स्नेहमें फंसा हुआ लोभसे जकडा रहता है । तो भी निर्बुद्धि प्राणी इस मिथ्या व नाशवंत संसारके नाशके लिये कुछ नहीं करता है। ये धन-संपदा कुछ दिनके लिये सुखदाई भासती है, युवती स्त्रियां यवानीमें ही गाढ प्रीतिको विस्तारती है। भोग विजलीके चमत्कारके समान चंचल है। यह शरीर रोगोंसे भरा चलायमान है। गुणवान पंडितजन ऐसा विचार करके अपने शुद्ध आत्मस्वभावमें रमण करते हैं। वास्तव में इन सांसारिक पदार्थोके लिये मान व मूर्छा करना मात्र अज्ञानता है।
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श्रा
श्लोक-जाति कुली सुर रूपं, अधिकार तपः बलं । वारणतरण
शिलीज्ञानं आरूढं, मदष्टं संसार भाजनं ॥ १४५ ॥ ॥१५॥
अन्वयार्थ-(जाति) माताकी पक्षका ( कुल ) पिताकी पक्षका (ईसुर ) धनके स्वामित्वका (रूप) सुन्दर रूपका ( अधिकार) अधिकार व आज्ञा चलनेका (तपः) तप करनेका (बलं) शरीरके बल का
(शिल्पाज्ञानं ) शिल्पादि विद्याओंके ज्ञानका (आरूढं ) अभिमान करना ( मदष्ट ) ये आठ मद ( संसारॐ भाजन ) संसारके भाजन हैं।
विशेषार्थ-यहां आठ मदोंके नाम गिनाए हैं। सम्यग्दृष्टी इन मदोंको नहीं करता है। मिथ्यादृष्टी जगतके मोही जीवके भीतर ये आठ मद अपना घर कर लेते हैं। यह मानव मानके पर्वतपर चढा हुआ दूसरों को अपनेसे तुच्छ देखता है । इन आठ मदोंका स्वरूप इस भांति है
(१) जातिमद-शरीरको जन्म देनेवाली माता होती है। इससे माताकी पक्षको जाति कहते ४ हैं। जिसकी योनिमें जन्म हो वह माता है। उसके कुटुम्बीजनों में यह मान करना कि हमारे मामा, नाना, ऐसे २ हैं। उनके धनादि बलको होते हुए उनको अपना मानकर अहंकार करना जातिमद है।
(१) कुल मद-जिसके वीर्यसे पैदा होता है उसको कुल या वंश कहते हैं। अपने पिता, पितामह, पर पितामह आदिकी सम्पदा आदिका विचार कर उसके बलपर अपना बल मान अहंकार करना सो कुलमद है।
(३) ऐश्वर्य मद-धन सम्पदा-माल मकान, खेती, गहना, सोना, चांदी आदि पास होते हुए Vउनका मैं स्वामी हूं, अतएव मैं धनिक हूं, मैं सुखी हूं, ऐसा मान निधनाको तुच्छ दृष्टिसे देखता हुआ अहंकार करना सो धनमद है।
(४ रूप मद-शरीरका आकार सुन्दर सुहावना-आंख, नाक, कान, मुंह, शरीरका रंग शुभ ४ होते हुए अपनेको रूपवान, दूसरोंको सुन्दरता हीन समझकर अपने शरीरके रूपका अहंकार करना रूप मद है।
(५) अधिकार मद-प्रभुताई, बडप्पन, हुकूमत चलते हुए यह मानना कि मैं जो चाहे सो कर सका हूं चाहे जिसे झूठा दोष लगाकर भी दंडित कर सकता हूं। कोई साधारण भी अपमान
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वारणतरण
॥१५२॥
करे या दोष करे तो अपने अधिकारसे खूब कठोर दण्ड देसका हूं। मेरा कोई क्या बिगाड कर सक्ता है ऐसा अहंकार करना सो अधिकार मद है ।
(३) तप मद - और मनुष्योंसे न बन सके ऐसा तप, उपवास, रस त्याग, ऊनोदर, कठिन प्रतिज्ञा लेकर आहारको जाना, न मिलनेपर फिर उपवास कर जाना, पर्वत, शिवर, वन, नदीतट, स्मशानभूमि आदि विषम स्थानों पर जाकर तप करना । भूख प्यास, डांस, मच्छर, गाली आदि परीषहोंका सहना, इत्यादि नानाप्रकार साधु या श्रावकको अवस्था में रहते हुए तप साधना, परंतु मनमें यह अहंकार कर लेना कि मैं बडा तपस्वी हूं-मेरे समान तप किसीसे नहीं बन सक्ता है । यदि कोई प्रतिष्ठा व विनय में कमी करे तो मानवश क्रोध भाव रखना ये सब तपका मद है ।
(७) बल मद - शरीर में व्यायामादि करने से औरोंसे अधिक बल होनेपर निर्बलों को तुच्छ दृष्टिसे देखना, अपने बलसे निर्बलों को सताना, निःशंक हो उनका बिगाड करना और यह अहंकार करना कि कोई मेरा क्या कर सक्ता है मेरा सामना कोई नहीं कर सका है, ऐसा मानके रहना सो मद है ।
(८) शिल्पज्ञान या विद्या मद-अपनेको चित्रकारी, बड़ाईका काम, लोहारका काम, यंत्रविद्या, वस्त्रों पर बेलबुटे निकालना, कवि कला, न्याय, व्याकरण, छन्द, अलंकार, तैरना, बजाना, गाना, धर्म शास्त्रका सूक्ष्म ज्ञान आदि अनेक प्रकार लौकिक और पारलौकिक विद्याओंका स्वामीपना होनेपर अपने से औरोंको मूर्ख गिनना, किंचित् अपमान से क्रोधित होजाना, अपनी पूजा प्रतिष्ठा चाहना, मेरे सामने कोई आ नहीं सक्ता है, मैं सबको कला चतुराईमें परास्त कर सक्ता हूँ ऐसा अहंकार रखके मानके नशे में चूर रहना ज्ञानमद या विद्यामद है । जो शरीर, भोग व संसारका मोही है वही मूर्छावान अज्ञानी प्राणी उन क्षणिक वस्तुओंको अपनी मानके मद करता है-ज्ञानी नहीं करता है । सुभाषितरत्न संदोह में कहते हैं
गर्वेण मातृपितृबान्धवमित्रवर्गाः । सर्वे भवन्ति विमुखा विहितेन पुंसः ॥ अन्योऽपि तस्य तनुते न जनोऽनुरागं । मत्वेति मानमपहस्तयते सुबुद्धिः ॥ ४९ ॥
WADAY
॥१५२॥
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श्रावकाचार
बारणतरण ॥१५॥
भावार्थ-गर्व करनेसे माता पिता भाई मित्र सब मानी पुरुषसे विमुख रहते हैं, अन्य भी कोई मानीसे राग नहीं करता है, ऐसा जानकर बुद्धिवान मानको कभी भी नहीं करते हैं।
श्लोक-जातिं च रागमयं चिंते, अनृतं ऋतमुच्यते ।
ममत्वं स्नेहमानन्दं, कुल आरूढ रतो सदा ॥ १४६ ॥ अन्वयार्थ-जो कोई (जाति च) अपनी माताकी पक्षरूप जातिको (रगमयं) रागसे बंधा हुआ अपनी (चिंते) मानता है। वह (अनृतं) मिथ्याको (ऋतं) सत्य (उच्यते) कहता है। जो (सदा) निरंतर (कुल आरूढ रतः) कूलके मदमें तल्लीन रहता है वह अपने कुलके जनोंमें (ममत्वं ) ममता रखता है (स्नेहं ) स्नेह बढाता है तथा ( आनन्दं ) उनको देख देखकर आनन्द माना करता है।
विशेषार्थ-यह अज्ञानी जिस जातिको अपनी मानता है वह इसकी जाति है ही नहीं। & शरीरको जननेवाली माता होती है। शरीरकी जाति माता व उसके भाई पिता आदि हैं।
आमाको कोई जननेवाला नहीं है तब यह शरीरकी जाति अपने आत्माकी कैसे होसक्ती है। यह अज्ञानी मूर्ख प्राणी अपनी असली आत्मारूपी जातिको भूलकर शरीरके सम्बन्धले शरीरकी जातिको अपनी मान लेता है। यही उसका मिथ्याको सत्य मानना है। इस मिथ्या मान्यतासे अपने नाना मामासे राग करता है व चाहता है कि वे कुछ इसका स्वार्थ साधन करते रहेंगे। इसी तरह यह अज्ञानी प्राणी अपने कुलके ममें निरन्तर लिप्त हुआ अपने पिता, बाबा, स्त्री. पत्र, पत्री.
बहिन, आदिसे बडा ही ममत्व करता है। उनके वियोग होनेपर व उनके रोगी होनेपर व परदेश * जानेपर बडा ही कष्ट मानता है, शोक करता है, विह्वल होजाता है। उनकी स्नेहकी पासीमें ऐसा
जकड जाता है कि उनके पीछे रातदिन धनकी तृष्णामें फंसा रहता है, धर्म कार्यको भूल जाता है । ध्यान, सामायिक, पूजा पाठकी तरफ उपयोग नहीं लगाता है। यदि खाते पीते निरोग दिखते हैं तो बडा आनन्द मानता है। उनहीके होते हुए अपनी जिन्दगीका सुख समझता है। ॐ कदाचित् उनमेंसे किसीका वियोग होता है तो बड़ा ही दुःख मानता है। कुलका मद करके यदि * अपने पुत्र पुत्री अधिक होते हैं तो बड़ा अहंकार करता है, पुत्र रहितको देखकर पापी और अप
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श्रावकाचार
पारणतरणनेको भाग्यवान समझता है। धिक्कार हो ऐसे जाति व कुल मदको जो जीवनकी मोह पामिमें ॥१५॥ ॐफंसाकर आत्तकार्यसे विमुख कर देते हैं।
श्लोक-रूपं अधिकारं दृष्ट्रा, रागं वर्धन्ति ये नराः ।
ते अज्ञानमये मूढाः, संसारे दुःखदारुणं ॥ १४७ ॥ अन्वयार्थ-(रूपं) सुन्दर रूपको तथा (अधिकार) अपने अधिकारको (दृष्ट्वा ) देखकर (ये नराः) * जो मानव (रागं) रागको (वर्धन्ति) बढा लेते हैं। (ते) वे ( अज्ञानमये ) अज्ञानमई पदार्थ में या भावमें (मूढा) मूर्छित होते हुए (संसारे) इस संसारमें (दुःखदारुणं) भयानक दुःखको उठाते हैं।
विशेषार्थ-मोही प्राणी अपने शरीरका सुन्दर रूप देखकर बडा ही राग बढा लेते हैं। रागके साथ अहंकार भी बढ़ा लेते हैं। वे इस बातको भूल जाते हैं कि जिस शरीरकी ऊपरकी चमड़ी सुन्दर देखकर व आंख नाक मुखका आकार सुडौल देखकर राग या अहंकार किया जाता है वह शरीर तो महान अपवित्र घृणाके योग्य व क्षणभंगुर है। भीतर इसके कृमिकुल, राध आदि भरा है। यदि चमड़ीको अलग कर दिया जाय तो मक्खियोंसे भिनभिनाने लगेगा व अपनेसे भी अपना शरीर देखा नहीं जायगा। जिसके नव द्वारोंसे निरंतर मल बहता है, जो शरीर अचानक भूख प्यासकी अधिक बाधा होनेमे व रोगादि आनेसे व जरा आजानेसे बिगड जाता है-सुरूपसे कुरूप होजाता है, ऐसे मायाजालके समान अथिर रूपका राग करना व अहंकार करना मात्र मिथ्याज्ञान व मूर्खता है।
इसी तरह यदि उसका किसी कारणसे अधिकार है उसकी आज्ञा चलती है वह राजा, V महाराजा, मंत्री, प्रधान, कोटवाल, नगरसेठ, चौधरी, हाकिम, जज, मजिष्ट्रेट है तो उसको बड़ा ॐ अहंकार होजाता है। वह मदमें कठोर परिणाम रखता है। कठोर वाणीसे छोटोंके साथ व्यवहार करता है। अपने आधीनों के सुखका, शरीर स्वास्थ्यका ख्याल छोडके उसको अपनी मनमानी आज्ञामें चलाकर उनसे खूब काम लेता है, कहीं वे भूलसे कुछ काम बिगाड़ देते हैं तो विना सोचे समझे क्रोध कर लेता है, मार बैठता है, व दंडित कर देता है, नम्रता व मिष्टवादिता व विनयरूप
॥१५॥
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वारणवरण
व दयारूप वर्ताव उसके पाससे विदा होजाता है। यह अधिकार भी क्षणिक है, जरासी भूल होने श्रावकाचार
पर राज्य चला जाता है व मरण आजाता है तब सब अधिकार चला जाता है। बड़े र राजा ॥१५॥ महाराजा थोड़े ही काल अपना अधिकार रख सके हैं, पापका उदय आने पर शीघ्र ही राजासे रंक
होजाता है-बड़े से छोटा होजाता है। इसलिये अज्ञानी प्राणी ही इस अज्ञानमें फंसकर मद करता है और मढ़ मिथ्याती होता हुआ तीन कर्म बांधकर संसारमें भयानक दुःख उठाता है। इस तरह रूपका व अधिकारका मान करना मूर्खता है। सुभाषितरत्नसंदोहमें कहते हैं
नीति निरस्यति विनीतिमुपाकरोति-कीर्ति शशांकधवलां मलिनीकरोति ।
मान्यान्न मानयति मानवशेन हीनः, प्राणीति मानमपहन्ति महानुभावः ।। ४४ ॥ भावार्थ-ह मान नीति मार्गसे घटा देता है, विनयसे छटा देता है, चन्द्र सम निर्मल कीर्तिको ४ मैली कर देता है। हीन पुरुष मानके भीतर फंस करके माननीय पुरुषोंका भी नहीं मानता है ऐसा ४ जानकर जो महान उदार प्राणी है वह मान नहीं करता है।
श्लोक-कुज्ञानं तप तप्तानां, रागं वर्धन्ति ते तपाः।
गानि मूढ सद्भावं, अज्ञानं तप श्रुतं क्रिया।। १४८॥ अन्वयार्थ (कुज्ञानं ) मिथ्या ज्ञान सहित (तप सप्ताना ) तप करनेवालोंका (राग) राग (ते तपाः) Vवे मिथ्या तप (वर्षन्ति ) बढ़ा देते हैं उन्होंने (मूढसदभावं ) मिथ्यात्व भावका ( अज्ञानं तप श्रुतं किया ) वY अज्ञानई तप व अज्ञानमई शास्त्र व अज्ञानमई क्रियाका ही (ततानि) तप किया है।
विशेषार्थ-जो लोग आत्मज्ञान व आत्मानुभव न पाकर, आत्म सबके रसिक न होकर किंत इंद्रिय जन्य सुखकी लालसा रखकर इस आशासे तप करते हैं कि इसके फलसे स्वगादिमें जाकर बहुत सुख पाएंगे, ऐसा अज्ञान तप राग भाव घटानेकी अपेक्षा बढ़ा देता है। क्योंकि वे वीतराग भावकी सेवा नहीं कर रहे हैं, वेतो रागभाव हीकी सेवा कर रहे हैं। जितना अधिक तप करते हैं उतना विशेष राग पढ़ता जाता है कि अधिक सुख मिलेगा, हम इन्द्रादि होजायगे। वास्तव में ऐसे अज्ञानी प्राणी धार्मिक तप नहीं करते किंतु अपने मढ भावको अधिक तपाकर दृढ कर रहे ॥१५॥
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श्रावकाचार
बारणवरण
हैं। तथा अज्ञान तपको बढ़ा रहे हैं। उनका कुशास्त्र ज्ञान और मजबूत हो रहा है। उनका मिथ्या आचरण और भी जड पकड रहा है। वास्तव में जो आत्मोन्नतिके लिये तप किया जावे वही तप है। शेष तो मात्र एक तरहका व्यायार है। जैसे व्यापारी धनके लोभसे अनेक कष्ट सहकर भूख, प्यास, गर्मी, शर्दी सहकर, कठिन स्थानों में जाकर बडा भारी परिश्रम करता है वैसे यह कुतपी शरीरको बहुत भारी कष्ट देता है, परीषद सहता है, कठिन र स्थानों में जाकर ध्यान लगाता है। प्रयोजन-विषयभोग पानेका है, संसार बढानेका है, ऐसे मिथ्या तपके तपनेवालोंको ही तपका अहंकार होजाता है। वे मान व लोभके कषायोंको ही बढाते हुए अपना अहित कर रहे हैं। उमका तप गुणकारी नहीं होता है। सुभाषित में कहा हैदयादमध्यानतपोव्रतादयो गुणाः समस्ता न भवन्ति सर्वथा । दुरन्तमिथ्यात्वरजोहतात्मनो रजोयुतालाबुगतं यथा पयः ॥ १७॥
भावार्थ-जैसे रज सहित तुंबीमें भरा हुआ दूध मलीन होजाता है, पीने योग्य नहीं रहता है वैसे महा मिथ्यात्वकी रजसे मलीन आत्माकेबारा पाला गया दया, धर्म, संयम, ध्यान, तप, ब्रतादि सर्व ही गुणकारी नहीं होते हैं।
श्लोक-अज्ञानं तप तप्तानां, जन्म कोटि कोटि भव ।
श्रुतं अनेक जानते, रागं मूढ़मयं सदा ॥ १४९ ॥ अन्वयार्थ (अज्ञानं तप तप्तानां) जो प्राणी मिथ्याज्ञान सहित तप करते हैं उनको (कोटि कोटि भव जन्म) करोड़ों भवों में जन्म लेना पड़ता है वे (अनेक श्रत) बहुत शास्त्रको (जानते) जानते हैं तौभी (सदा) निरन्तर ( मदमयं राग) मिथ्यात्व सहित रागभाव हीमें लिप्त हैं।
विशेषार्थ-सम्यक्त रहित जैन शास्त्रानुसार व्यवहारमें अनशनादि बारह प्रकारका तप भले. प्रकार साधन किया हुआ भी संसारको छेदनकी अपेक्षा संसारको बढ़ा देता है। उनको मिथ्यात्व
और अनंतानुबंधी कषायके उद्वेगसे कोटानुकोट भव ले लेकर जन्म मरणके अपार कष्ट सहने पडते हैं। अधिक काल तिर्यंच गतिमें, उसमें भी एकेंद्रिय पर्यायमें, उसमें भी साधारण वनस्पतिरूपी निगोद में जन्म लेना पड़ता है। उनको सम्यक्तकी प्राप्तिका पुनः अवसर बड़ी कठिनतासे आता है।
1444444
॥१५॥
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श्रावकराय
मरणतरणY
वे इतना अधिक शास्त्र जानते हों कि ग्यारह अंग और नौ पूर्वके पाठी हों, उनके पढाए हुए अन्य
Y साधु यथार्थ मार्गको पालेवें परन्तु वे मिथ्यात्व भावसे वासित होते हुए वीतरागता मय कभी न ॥१५७॥ होते हुए, अंतरंग विषयानुरागकी भावना हीमें रहते हैं। चाहे वे मोक्षके लिये यल कर रहे हों
ऐसा मान रहे हों तथापि वे मोक्षको नहीं पहचानते हैं। मोक्षमें भी इंद्रियजन्य सुखकी अनंतता प्राप्त होगी ऐसी आशा भीतर बनी रहती है। क्योंकि उनको आत्मानुभव नहीं हो पाया है। उनको
अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद नहीं मिला है। इसीसे वे विषय स्वाइके लोलुपी ही भीतर वासनामें ४ होरहे हैं, मिथ्यात्वको ही पुष्ट कर रहे हैं। नौ ग्रैयिक कदाचि चले जाते हैं तो भी संसार हीमें रुलते हैं।
श्लोक-मानं रागसम्बन्धं, तप दारुणं बहुकृतं ।
__ शुद्धतत्वं न पश्यंति, ममता दुर्गतिभाजनं ॥१५॥ ___ अन्वयार्थ-(रागसम्बन्धं मानं ) ऐसे मिथ्या तप करनेवालोंके ऐसे तपमें मोरके कारण यह अहं. कार होजाता है कि (तप दारुणं बहुरुतं ) हमने बहुत कठिन २ तप बहुत काल तक किया है। वे (शुद्धतत्व ) शुद्ध आत्मीक तत्वको ( न पश्यति ) नहीं अनुभव करते हैं। (ममता ) उनके भीतर जो मोह है वही (दुर्गतिभाजन ) उनकी कुगतिका कारण है।
विशेषार्थ-लोभ कषायकी वासनाको रखते हुए जो दीर्घकाल तक बहुत कठिन तप करते हैं उनके भीतर तपका मद सहजमें होजाता है कि हम बडे तपस्वी हैं। उनका बहुत परीषह सहन कषायको मेटने के स्थानमें मान कषायकी तीव्रता कर देता है। खेद है वे शुद्ध आत्मीक तत्वका अनुभव न पाकर उस अमृतके स्वादसे शून्य है। इसीसे वीतरागता सहित निर्विकल्प समाधिको ये नहीं पाते हैं। यद्यपि ये विकल्पोंको मेटकर ध्यान लगाते हैं, परन्तु भीतर रागकी आग जला करती है, इसीलिये यह तप मिथ्या तप कहा जाता है। उनके भीतर जो संसारका ममत्व है वह उनके लिये मोक्षके विपरीत बहुतसी गतियों में भ्रमण कराता है। यद्यपि शुक्ल, पद्म या पीतलेश्याके कारण वे उस शरीरसे स्वर्गादि चले जाते हैं, वहांपर जाकर वे विषय-सुखमें अति आसक्त होजाते हैं, सम्यक्त न पाते हुए यदि जिनेन्द्रकी भक्ति करते हैं व जिन अकृत्रिम चैत्यालयोंका दर्शन करते
॥१५॥
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भारणतरण
१५८॥
हैं तथापि विषयकी लोलुपताको न छोडते हुए, अन्य अपनेसे अधिक विभूतिवाले देवोंकी सम्प-४ दाको देखकर ईर्षावान रहते हुए, देवांगनाके वियोगसे शोक भाव करते हुए, आयु पूर्ण होते हुए भारी आर्तध्यान करते हुए, यदि सौधर्म ईशान स्वर्गमें हुए तो मरकर एकेंद्रिय वृक्ष आदिमें आकर जन्म पालेते हैं, दीर्घ संसारके भागी होते हैं। इस तरह मिथ्या तप व उसका मद जीवका भारी अहित करता है। इसी तरह और भी मद प्राणीका अहित कारक है। आठों मदोंको विष तुल्य समझकर इनका संसर्ग करना उचित नहीं है। मान कषायको जीतकर विनय व नभ्रताको रखते हुए शुद्ध तत्वको जाननेसे ही स्वहित होगा, यह तात्पर्य है।
चार करायका स्वरूप। श्लोक-कषायं येन अनंतानं, रागं च अनृतं कृतं ।
चित्ते कुबुद्धि विश्वासं, नरयं दुर्गतिभाजनं ॥१५॥ ___ अन्वयार्थ-- येन ) जिसने ( अनन्तानं ) अनन्तानुवन्धी ( कषाय ) कषाय (च) तथा ( अनृतं रागं) मिथ्यात्वसे राग (कृत) किया है उनके (चित्ते) चित्तमें ( कुबुद्धि विश्वासं ) मिथ्याज्ञान व मिथ्या विश्वास रहता है जिससे ( नरय दुर्गतिभाजनं ) वे नरकादि दुर्गतिके भाजन होते हैं।
विशेषार्थ-ऊपर लिखित सात व्यसनों में आसक्ति तथा आठ मदोंमें लीनता उनही प्राणियोंको होती है जो अनन्तानुबन्धी कषायोंके उदयके आधीन है। तथा मिथ्यात्यके उदयसे पर्याय बुद्धि होरहे हैं, जिनको अपने स्वरूपकी कुछ भी खबर नहीं है। मिथ्यात्वकी सहकारी कषायको अनन्तानुबन्धी कहते हैं। इसकी वासना दीर्घ काल तक चली जाती है। अनन्तानुबन्धी भी क्रोध, मान, माया, लोभके चार दृष्टांत हैं। जैसे पाषाण में रेखा बनाई जावे व बहुत दीर्घकालमें मिटे ऐसा क्रोध जो बहुत काल में मिटे सो अनंतानुबंधी क्रोध है। पाषाणका खंभा जैसे नमे नहीं खंड होजाय तोभी नमे नहीं ऐसा मान जिसके हो वह अहंकारमें रहे व कभी विनयरूप न प्रवर्त, दीर्घकाल तक भी नम्र न हो सो अनंतानुपन्धी मान है। वांसका वीडा जैसा कुटिल होता है
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श्रावकाचा
वारणतरण
वैसा कुटिल व मायाचार जिसका दीर्घकाल तक छिग रहे उसके अनंतानुबन्धी माया है।
जैसे किरमिचका रंग दीर्घकालमें न मिटे ऐसा दीर्घकाल तक न मिटनेवाला लोभ अनंतानुबंधी ॥१५९॥
है। इन कषायोंके कारण व मात तत्वोंकी यथार्थ श्रद्धा न होने के कारण व आत्मा व अनात्माका भेद न जाननेके कारण मिथ्याज्ञान व मिधा विश्वाप्समें रमता हा प्राणी प्रायः नरकगति व नरक आयुको पांधकर नरक जाकर बहत कष्टोंमें पड़ जाता है। ये चार कषाय व मिथ्यात्व ये पांचों अनादिकालसे जीवके वैरी होरहे हैं। इन होके वश अनेक पंच परावर्तन इस जीवने इस अनंत संसारमें किये हैं, विचारवानको इनके क्षयके लिये उद्यम करना योग्य है। ___ श्लोक-लोभं अनृत सद्भाव, उत्साहं अनृतं कृतं ।
तस्य लोभं न शमितं च, तं लोभ नरयं पतं ।। १५२ ॥ अन्वयार्थ (अनृत सदभावं) मिथ्यात्वके साथमें रहनेवाला (लो) अनन्नानुबन्धी लोभ ( अनृतं उत्साहं कृतं ) मिथ्यात्व सेवनका उत्साह करता रहता है । (तस्य ) ऐसे जीवका (लोभ ) लोभभाव (न शमितं च ) ठडा नहीं होता है। ( त लोभ) वह लोभ ( नरयं पतं ) नरकमें डाल देता है।
विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी लोभका स्वरूप यहां बताया है कि ऐसे लोभके वशीभूत प्राणी र धनकी, पुत्र पौत्रादिकी तृष्णामें फंसा हुआ रात दिन इनहीकी प्राप्तिमें, इनहीके रक्षण में उत्साह दिखलाता है । धनादि कमानेमें ऐसा तत्पर होजाता है कि धर्मसेवनके लिये समय नहीं निकालता
है न नीति अनीतिका खयाल रखता है। उसका मिथ्यात्व भाव जो अनादिकालका अग्रहीत है ॐ वह दृढ़ होता जाता है तथा गृहीत मिथ्यात्व भी जड पकड़ लेता है। वह अपने स्वार्थ साधनके लिये
कुदेवोंकी मान्यता किया करता है। यदि किसी समय कोई मान्यता उसके पूर्वकृत पुण्य कर्मके उदयसे सफल होजाती है, तो वह किसी कुदेवने ही ऐसा कर दिया ऐसी कल्पना करके कुदेवों में और अधिक श्रद्धालु व भक्तिवान होजाता है। उसको जिस किसी पदार्थका लोभ पैदा होजाता है यह दीर्घकालतक मिटता नहीं। जैसे रावणको सीताजीका गाढ़ लोभ पैदा होगया। वह वारवार समझानेपर भी परस्त्री रमणके भावोंसे विरक्त नहीं हुआ। इसीलिये मानी बन गया, युद्ध में अपना
W
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धारणतरण ॥१३०॥
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सर्व खोकर नरकका पात्र होगया । लोभ मनकी पवित्रताका नाश कर देता है । लोभ न करने योग्य हिंसा, अनृत, चोरी, कुशील व परिग्रहमें वर्तन कर देता है। सुभाषितरत्न संदोह में कहते हैंशीतो रविर्भवति शीतरुचिः प्रतापी- स्तब्धं नमो जलनिधिः सरिदम्बुतृप्तः ।
स्थायी मरुद्विदहनो दहनोऽपि जातु । लोभनलस्तु न कदाचिददाहकः स्यात् ॥ ६३ ॥
भावार्थ — कदाचित् सूर्य तो ठण्डा होजावे और चन्द्रमा तापकारी होजावे, आकाश जंड होवे, समुद्र नदियों से तृप्त होजावे, पवन स्थिर होजावे, अग्नि शोतल होजावे तथापि लोभकी आग कभी शात नहीं होती है ।
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स्त्री रागमें, राज्यके राग में, बड़े२ युद्ध होजाते हैं। सर्वस्व नाश करनेवाला लोभ है जो अंतमें नरक में डालनेवाला है ।
श्लोक – लोभं कुज्ञान सद्भावं, अनादी भ्रमते भवे ।
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असत्ये लोभ चिंतंते, लोभं दुर्गतिकारणं ।। १५३ ॥
अन्वयार्थ—(कुज्ञान सद्भावं) मिथ्या ज्ञान सहित लोभके कारण यह प्राणी (अनादी) अनादिकाल से (भवे) संसार में (भ्रमते ) भ्रमण करता चला आया है : ( असत्ये ) मिथ्या पदार्थों में (लोभ) राग ( चिंतते ) का विचार किया करता है (लोभ) यह लोभ ( दुर्गतिकारणं ) खोडी गतिका कारण है ।
विशेषार्थ - जहांतक अनंतानुबंधी लोभ मिथ्यादर्शन के साथ में है वहांतक सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान और स्वरूपाचरण चारित्र इन तीनोंकी ऐकतारूप मोक्षमार्गका लाभ नहीं होता है। वहांतक यह मिथ्याज्ञानी प्राणी संसाराक्षक्त, पर्याय बुद्धि, विषयोंका लोलुपी बना रहता है इसको अतीन्द्रिय सुखके रसका भान नहीं आता है । इस देह, वचन, मनमें आपा मान लेनेसे यह अनादिकालसे संसार में भ्रमता आया है व जबतक सम्यग्दर्शन नहीं होगा भ्रमण करता रहेगा । ऐसा अज्ञानी जीव निरंतर रोग के कारणोंकी ही चिंता करता रहता है। धनके संग्रहकी, शरीर बने रहनेकी, स्त्री पुत्रादिके संयोगकी, मनोज्ञ पदार्थोंके लोभकी, अनिष्ट पदार्थोंके वियोगकी, शत्रुओं के नाशकी, विषय में सहायी मित्रोंके बने रहने की, आगामी उत्तमोत्तम भोग पानेकी, इत्यादि रागसे
श्रावकाचार
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सारणतरण
॥१२॥
MEGRALEGEGREGEEK RELEGELEGREAkkkk
सनी हुई चिन्ताओंके जालोंमें अटका रहता है । अपनी बढती परकी हानि चाहता है। अनेक प्रकार
४श्रावकाचार अपध्यान करता है, परधन व परस्त्रीकी चाह किया करता है, मान पुष्ट करने की अनेक बातें विचारा करता है। खेद है इस अपध्यानसे निरर्थक बहुत पाप बांध लेता है। जैसे तंदुल मच्छ महामच्छके उदरमेंसे जीवित मच्छोंको निकालते देखकर यह भाव किया करता है कि यदि मैं होता तो किसीको नहीं छोडता । वह इस निरर्थक अपध्यानके कारण सातवें नरककी आयु बांधकर सातवें नर्क चला जाता है. वैसे ही यह अज्ञानी मानव वृथा रागके जालमें उलझा हुआ अनंतानुबंधी लोमके कारण नरक व तिर्यचकी आयु बांधकर कुगतिमें गिर जाता है। अतएव इस मिथ्याज्ञानका संहार करना उचित है । और सम्यग्दर्शनका प्राप्त करना उचित है जिसके होते ही भावना बदल जाती है, पर पदार्थके स्वागतकी भावना नहीं रहती है।
श्लोक-अशाश्वते भावनं कृत्वा, अनेककष्ट कृतं सदा ।
चेतना लक्षणो हीनः, लोभं दुर्गतिबन्धनं ॥ १५४ ॥ अन्वयार्थ—(आशाश्वते ) अनित्य जगतके पदार्थों में (भावनं ) भावना ( कृत्वा ) करते करते इस जीवने ( सदा ) सदा ही ( अनेक कष्टं कृतं ) अनेक कष्ट पाए हैं। (चेतना लक्षणो हीनाः) चेतना लक्षणधारी होकर भी हीन होरहा है। जिसके कारण यह दशा है ऐसा (लोमं ) यह लोभ (दुर्गतिबन्धनं ) दुर्गतिका बंध करनेवाला है। . विशेषार्थ-अनंतानुबंधी लोभके कारण यह जीव जिस जिस शरीरमें प्राप्त हुआ वहां उस शरीरमें प्राप्त इंद्रियोंके भोगकी चाहकी दाहमें ही जला किया। यही आशा लगाते हुए भावना करता रहा कि आगामी सुख मिलेगा। एक तो इस चाहके कष्टमें दुःखी हुआ। दूसरे जब मिले हुए इष्ट पदार्थका वियोग होगया तब दुःखी हुआ। तीसरे विषयानुरागसे या विषयों की प्राप्तिके लिये किये गए हिंसादि पापोंसे जो अशुभ कर्म बांधे उनके उदय आनेपर अनेक नरक निगोद व तिर्यचगतिके दुःख भोगे । इसतरह चाहकी दाहसे सदा ही इस जगतमें दुःखी रहा । ये जगतके पदार्थ एकसी स्थितिमें नहीं रहते, इनकी अवस्था बिगड़ जाती है। तब यह अज्ञानी जिनको सदा बनाए
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ताणतरण
श्रावकाचार ४ रखना चाहता था उनको नष्ट हुआ देखकर महान क्लेश भोगता है। ग्रंथकती कहते हैं कि यह जीव
चेतना लक्षणको रखनेगला होकर फिर अचेत व दीन हीन दुखी होरहा है यह बडे खेद की बात है। इसका स्वभाव तो सर्वको साक्षीभूत होकर देखना जानना तथा अपने स्वभावमें तन्मय रहना है। अपने अतीन्द्रिय आनन्दका भोग करना है परंतु यह मोहके मदमें अचेत होकर अपने स्वरूपसे बाहर रहता हुआ बड़ा ही हीन व तुच्छ होरहा है। धिक्कार हो लोभको जो इस जीवन में भी दुःख देता है और आगे भी दुःखका दाता होजाता है। लोभ कषाय वास्तव में अन्य सर्व कषायोंकी उन्नतिका निमित्त कारण है । तथा इसका नाश भी सर्व कषायोंके पीछे होता है इसलिये सबसे पाले ग्रंथकर्ताने अनंतानुबंधी लोभको ही धिक्कारा है। सुभाषितरत्नसंदोहमें कहते हैं
तिष्ठतु बावधनधान्यपुर.सरार्थाः । संवर्षिताः प्रचुरलोभवशेन पुंसा ॥
कायोऽपि नश्यति निनोऽयमिति प्रचिन्स्य । लोभारिमुनमुपहन्ति विरुद्धतत्त्वं ॥२॥ भावार्थ-अधिक लोभके वशसे जो बाहरी धनधान्य आदि पदार्थ बढ़ा लिये जाते हैं उनकी तो बात ही क्या है, वे तो नष्ट हो ही जाते हैं किंतु जिसको अपना खास मानते हैं ऐसा शरीर भी नष्ट होजाता है-सब छोड़कर जाना होता है। ऐसा विचार कर बुद्धिमान इस आत्माके विरोधी स्वभा. चको रखनेवाले भयानक लोभरूपी शत्रुका नाश ही करते हैं।
लोभके नाशका उपाय जिनवाणीका पुन: पुन: मनन कर आत्मा और आत्मासे भिन्न पदाधोका भेदज्ञान है यही उपादेय है।
श्लोक-मानं असत्य रागं च, हिंसानंदी च दारुणं ।
परपंचं चिंत्यते येन, शुद्धतत्वं न पश्यते ॥ १५५ ॥ अन्वयार्थ-(मानं ) अनंतानुबन्धी मान (च असत्य रागं ) भी मिथ्या पदार्थों में रागसे होता है। ४ इस मान कषायसे (दारुणं हिंसानंदी) भयानक हिंसानंदी ध्यान रहता है। (येन ) जिस ध्यानके कारण (सरपंच) प्राणी नानाप्रकार झगड़े व मायाचारको (चिंत्यते) चितवन करता रहता है और (शुद्धतत्वं) शुद्ध आत्मीक तत्वको (न पश्यते) अवलोकन नहीं करता है।
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सारणतरण
विशेषार्थ-जिसको संसारके अनित्य पदार्थो में-स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, राज्य, भोगविलासमें तीव अनुराग होगा वह इन पदाथोंको थोडे या बहुत होते हुए अपने मनमें अहंकार कर लेगा। तथा सदा ही यह चिन्तवन करेगा कि मेरेसे अधिक किसीका नाम न हो । वह दूसरोंकी बढती न चाहेगा किन्तु दूसरोंकी हानि विचारेगा। मेरेसे दूसरेके पास अधिक धन व कुटुम्ब आदि न हो ऐसा सोचते हुए दूसरोंकी हानि करके भी अपना लाभ चाहेगा। यदि कदाचित् किसीकी अकस्मात् धनकी व कुटुम्बकी हानि होजावे व कहीं २ अपमान होजावे तो यह सुनकर बहुत प्रसबता मानता है। यदि किसीने कुछ भी अपमान किया तो उसका बदला लेनेका विचार करके उसको हानि पहुंचानेका प्रपंच रचता रहता है। रात दिन जगतकी विभूतिके मोहमें आसक्त हो 'मैं ऐसा मैं ऐसा ऐसा मान भाव रखता हुआव्यवहारके झंझटमें ही फंसा हुआ धर्मकी तरफ निगाह नहीं करता है । तत्वज्ञानीकी संगति नहीं करता है न तत्वज्ञानीके मुख से कुछ उपदेश सुनता है। न उसपर विचार करता है । उसको शुद्ध आत्मस्वरूपका अडान होना अति दुर्लभ हो जाता है। वास्तवमें मान कषायसे प्राणी अन्धा होजाता है। श्री कुलभद्राचार्य सारसमुच्चय में कहते हैं
महंकारो हि लोकानां विनाशाय न वृद्धये । यथा विनाशकाले स्यात् प्रदीपस्य शिखोज्वला ॥१९॥ ____ भावार्थ-अहंकार लोभोंकी वृद्धि कुछ नहीं करता है किंतु हानि ही करता है जैसे दीपककी शिखा विनाशकालमें ही ऊंची होजाती है।
लोक-मानं अशाश्वतं दृष्ट, अनृतं रागनंदितं ।
असत्ये आनंद मूढस्य, रौदध्यानं च संयुतं ॥ १५६ ॥ अन्वयार्थ-(मानं) मानको (अञ्चावतं) अनित्य (उ) देखा गया है। (अनृतं) यह झूठा है। (रागनंदितं) मात्र रागमें मगन होता है। (असत्ये आनंद मूढस्य) जो मूढ मिथ्या वातोंमें आनंद मानता वह (रौद्रष्यानं च संयुतं) रौदध्यान सहित होता है।
विशेषार्थ-मानीका मान सदा बना नहीं रहता है, शीघ्र ही नष्ट होजाता है। जिन पदार्थों के आश्रयसे वह मान करता है वे पदार्थ पिर रहनेवाले नहीं हैं। यदि धन नष्ट होगया, पुत्रका वियोग
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कारणवरण
॥१६॥
होगया, रोगग्रसित होगया, वृद्धावस्था होनेपर अशक होगया, कोई भारी अपमान होगया तो
श्रावकाचार ॐ उसका मान स्वयं नष्ट होजाता है तब उसके चित्तमें बडी ही लज्जा घर कर लेती है। वह अपने
काँके उदयकी ओर न खयाल करके किसी मानव विशेषके ऊपर क्रोध कर लेता है कि इनके बुरा विचारनेसे या इनके बुरे उपायसे ही मेरा नुकशान होगया है। इनकी ईर्षासे ही मेरा पुत्र मर गया है। इनके षड्यंत्रसे मेरा अपमान होगया है। इस तरह अपनी कल्पनासे दूसरोंको दोषी मानकर उनके साथ हिंसानंदी रौद्रध्यान कर लेता है। यह मान वास्तव में झूठा है, क्योंकि उन पदार्थोंको लेकर मान किया जाता है वे पदार्थ एकसे नहीं रहते हैं। तथा मान करना ये भी झूठा है कि जगतमें उससे अधिक धनवान, पुत्रवान, रूपवान, विद्वान लोक पड़े हैं। फिर मैं बडा हूं और छोटे हैं यह मानना मिथ्या है। मानमें मात्र क्षणिक पदार्थोक ममत्वमें मृळवान होकर दूसरोंको नीचा देखा जाता है। यह वास्तवमें मिथ्या राग है। इस मिथ्या आनन्दमें मूढ प्राणी निरन्तर परिग्रहानंद व हिंसानन्द रौद्रध्यानमें फंसा रहता है और तीव्र पाप कर्मका पन्ध करता है।
श्लोक-मानी पुन उत्पादंते, कुमते अज्ञानं श्रुतं ।
मिथ्या माया मुढदृष्टीच, अज्ञानरूपी न संशयः ॥१५७॥ अन्वयार्थ-(मानी) ज्ञानके अहंकारसे पूर्ण मानी विद्वान (पुन) फिर (कुमते) अपनी खोटी बुद्धिसे ( अज्ञानं श्रुतं ) मिथ्या ज्ञानमई शास्त्रको (उत्पादते ) रचता है। उसका रचा शास्त्र (मिथ्या माया * ४ मृढदृष्टी च) मिथ्या होता है, मायाचारसे पूर्ण होता है, मूढ श्रद्धानसे भरा हुआ होता है । (अज्ञानरूपी) अज्ञानमई होता है, (न संशयः) इसमें कोई संशय नहीं करना चाहिये।
विशेषार्थ-मानकी पुष्टि करनेको, राजा महाराजाओंसे व जनतासे मान प्रतिष्ठा चाह करके विद्याके अभिमानमें चूर मानी जीव परको रंजायमानकारी रचना गद्य में या पद्यमें करते हैं। ७ अपनी मिथ्यास्व वासित बुद्धिसे मिथ्यात्व गर्भित ज्ञानको पुष्ट करनेवाले शास्त्रकी रचना करते ४ हैं। उस शास्त्र में बहतसे मिथ्या कथन मिला देते हैं। उसमें परको विषयकषायों में लगाने के लिये
॥१४॥ ४ कपटरूप कथन होता है तथा वह शास्त्र सम्यक् धर्मसे विरोधी मिथ्या धर्मकी या संसारकी विषय-Y
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बारणतरण
॥१६॥
वासनाको पुष्ट करनेवाला होता है। वह मिथ्या ज्ञानको ही विस्तारता है। जो जो उसको पढते हैं व आगे पढ़ेंगे वे सब धर्मसे रुचि हटाकर अधर्म, व संसारमें व जगतके मोहमें फंस जायंगे । उस अश्रावकाचार मानीको इसका कुछ भी ध्यान नहीं होता है। वह काव्य छंद अलंकार आदिमें वाहवाह कराकर, अभिमानको बढाकर अपनेको कृतार्थ मान लेता है। उसका शास्त्रज्ञान उसके लिये विषवत् घात. कका काम करता है। मलीन भावोंसे अशुभ कर्मको बांधकर वह दुर्गतिका पात्र होजाता है। जो आत्मज्ञानसे विमुख करनेवाला व ससारके झूठे मोहमें लिप्त करानेवाला शास्त्र हो वह शास्त्र नहीं है शस्त्र है। ऐसे घातक शास्त्रको रचकर जो विद्वानपनेका अभिमान पुष्ट करते हैं वे अपना संसार अनंतकालके लिये बढा लेते हैं।
श्लोक-मानस्य चिंतनं दुर्बुद्धिा, बुद्धिहीनो न संशयः।
अनृतं ऋत जानते, दुर्गति पश्यंति ते नरा ॥१५॥ अन्वयार्थ—(मानस्य ) मानका (चिंतनं ) चितवन करना (दुर्बुद्धिः) मिथ्या बुद्धि है। जो मानी है वह (बुद्धिहीनो) बुद्धि रहित है (न संशयः ) इसमें कोई संशयकी बात नहीं है। (अनृतं ) मिथ्याको (ऋत) ॐ सच्चा ( जानते ) जो मानते हैं (ते नरा) वे मानद (दुर्गति) कुगति ( पश्यति ) को देखते हैं।
विशेषार्थ-जिनकी बुद्धि निर्मल होती है वे यह समझते हैं कि संसारके सर्व पदार्थ नाशवंत हैं, छुट जानेवाले हैं, इनके संयोग होनेपर अभिमान करना व्यर्थ है। परन्तु जो बुद्धि रहित, विचार रहित हैं वे मान कषायमें फंसे हुए अपनी कुबुद्धिका फल भोगते हैं। वे यही रातदिन सोचते रहते हैं कि मेरा किसी तरह मान खंडन न हो, मैं बड़ा माना जाऊँ, मेरी खूब प्रतिष्टा हो, दूसरे लोग मेरी सेवा करें। सर्व मेरे साथी कुटुम्बी मेरे अनुकूल वर्तन करें। वह यह ध्यान नहीं रखता है कि हरएक जीवका परिणमन उस उसके आधीन है। कोई जीव सदा ही किसीके अनुकूल नहीं चल सक्ता है। इस बातको भूलकर वह सदा ही स्त्रीको, पुत्रको, सेवकको अपनी इच्छाके अनुसार चलाना चाहता है। यदि कदाचित् वे न चले तो मान खंडन समझकर उनपर बहुत क्रोध कर लेता है व उनको बहुत कष्ट देता है। ग्रंथकर्ता कहते हैं कि ऐसा मानी जीव मिथ्याको सत्य मान लेता है। जितनी पर्यायें हैं या अवस्थाएं हैं वे सब क्षणिक हैं-नाशवंत हैं, वस्तुका मूल रूप नहीं है।
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वारणचरण
॥१३६॥
यह अज्ञानी उन अथिर पर्यायोंको थिर मान लेता है । उनके बिगडनेपर या वियोग होनेपर यह महा खेद करता है । पुनः संयोग पानेकी लालसा करता है - आर्तध्यानमें फंस जाता है। इसतरह यह अपनी कुबुद्धिसे अनंतानुबंधी कषायके कारण कुगतिको बांधकर नरक या तिथेच गतिमें जन्मलेकर दीर्घकाल तक मानके फल से नीच, दीन, दुःखी होकर अपमान पाता है फिर नर जन्मका मिलना अति कठिन होजाता है ।
श्लोक – मानबंध व रागं च, अर्थ विचिंतनं परं ।
हिंसानंदी च दोषं च स्तेयं दुर्गतिबंधनं ।। १५९ ॥
अन्वयार्थ – ( मानबंधं च रागं च ) मानके बंधमें फंसा हुआ रागी जीव ( परं अर्थ ) दूसरे के धनकी (विचिंतन) खोटी चिंता किया करता है । वह ( हिंसानंदी च दोषं च ) हिँसानंदी दोषका भागी होता है व (स्तेयं ) चौर्यानंदी रौद्रध्यानी होकर ( दुर्गतिबंधनं ) कुगतिका बंध कर लेता है ।
विशेषार्थ – अभिमानी मानवको अपने मानको बढानेका इतना भारी राग होता है कि वह अपने से दूसरोंको छोटा देखना चाहता है । यदि किसी के पास धन है, या मिलनेवाला है, या राज्यसम्पदा या अन्य सोना, चांदी, जवाहरात आदि पदार्थ हैं यह चाहता है कि वे घट जावे, उनकी हानि होजावे, उनकी चोरी हो जावे तो ठीक है। ऐसा हिंमानंदी और चौर्यानंदी रौद्रध्यान वृथा हो कर करके खोटी गति बांध लेता है । धिक्कार हो इस मान कषायको जिसके कारण धनादि पदार्थोंके संचय करनेमें महान तृष्णा होजाती है। मैं सबसे बड़ा माना जाऊँ यह मान उस अज्ञानी जीवको न्याय व अन्यायके विवेकमे शून्य कर देता है । यह धनका लोभी असत्य बोलकर विश्वा सघात करके घोर हिंसा करके अनाथ बालक व विधवाओंका धन छल बलसे हरण कर व बड़ी चतुराई से उनको अपने वश करके अपने अभिमानको पुष्टि करता है । यह मानी जीव धनवान विधवाओंको फुसलाकर उनके शीलको भी खंडन करता है और उनसे घन भी लूटता है । तथा यही अपनी समाज में मुखिया बनकर बड़ा अभिमान दिखलाता है और यह बताना चाहता है कि यह बडा जातिहितैषी, न्यायवान व धर्मात्मा है। मानके पुष्ट करनेको यह दूसरोंके प्राण लेकर भी
श्रावकाचार
॥ १६६॥
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तारणतरण
॥१६७॥
उनका सर्वस्व हरण करके भी राज्य धनादिका स्वामी होना चाहता
। यदि कहीं मान खंडन हुआ
तो यह महान क्रोधके वशीभूत हो युद्धादि ठान लेता है, जिससे घोर हिंसा होजाती है । मानीको मानके सामने इतना अंधेरा होजाता है कि उसे धर्म, न्याय, तथा अहिंसादि भावोंकी कुछ परवाह नहीं रहती है। वह घोर स्वार्थी बन जाता है। उसका हृदय महान कृष्ण होजाता है, जिसपर धर्मका उपदेश रंचमात्र भी असर नहीं करता है ।
श्लोक-मानं रागसम्बधं, तप दारुणं बहुश्रुतं ।
अनृतं अचेत सद्भावं, कुज्ञानं संसारभाजनं ॥ १६० ॥
अन्वयार्थ – (रागसम्बन्धं मानं ) संसारके रागसे बंधा हुआ मानी जीव ( तप दारुणं ) घोर तपस्याको तथा (बहुश्रुतं ) बहुत शास्त्रज्ञानको करता हुआ भी (अनृतं) मिथ्यात्व ( अचेत ) व अज्ञान (सद्भाव ) की सत्ता रखता है। वह ( कुज्ञानं ) मिथ्याज्ञान ( संसारभाजनं ) उसे संसारका ही पात्र रखता है ।
विशेषार्थ - जिसके मनमें वैराग्य व आत्मज्ञान नहीं होता है वह प्राणी परलोकमें स्वर्गादिके सुखों के रामसे बंधा हुआ या मोक्षमें भी अनंत इंद्रिय सुख मिलेगा इस भावना से घोर तप करता है । जिनका जैनधर्मका सम्बन्ध नहीं है वे पंच अग्नि तपना हाथ उठाए रखना, जटा बढाना, शीत सहना, उष्ण सहना, आदि भयानक तप तपते हैं। जिनको जैन शास्त्रका सम्बन्ध है वे जैन शास्त्र चारित्र के अनुसार यथार्थ बारह प्रकारके तप पालते हैं, चारित्रमें कोई दोष या अतीचार नहीं लगाते हैं, व्यवहार चारित्र पालते हुए मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी कषायके उदयसे उस तपका ही घमंड कर लेते हैं कि हम बड़े तपस्वी हैं । कोई २ बहुतसी विद्याओंको पढकर अभिमान कर लेते हैं, कोई जैनके शास्त्रोंको पढ़कर हम शास्त्री हैं ऐसा मान कर लेते हैं, कोई तपस्वी मिथ्यात्वी मुनि ग्यारह अंग और नौ पूर्व तक ज्ञानके धारी होजाते हैं, बहु श्रुती होकर मान कर लेते हैं । जिस कषायके नाशके लिये तप करना व शास्त्र ज्ञान प्राप्त करना उचित था उसी कषायको और बढ़ा लेते हैं । मिथ्यात्व और अज्ञानके होने के कारणसे वे अपना सच्चा हित नहीं कर पाते हैं । वे मोक्षमार्गको न पाकर संसारके ही मार्ग में चलते रहकर संसार में ही जन्म मरण करते रहते हैं ।
DDDDDODO.
श्रावकाचार
॥१६७
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बारणतरण
४ श्रावकाचार
हम ज्ञानी, हम तपस्वी, हम धर्मात्मा हम बडे योगी, यह अहंभाव मान कषायका ही रूपक है। यह मान कषाय उनको शुद्धात्मीक तत्वमें अनुभवके अयोग्य बना देता है। वे मानके विषको पीये हुए मान कषाय कारक कर्मका विशेष पन्ध कर लेते हैं और नीच गोत्रको बांधकर अनन्त नीच योनियों में जन्म ले लेकर कष्ट पाते हैं । सारसमुच्चय में कहा है
हीनयोनिषु बंभ्रम्य चिरकालमनेकधा । उच्चगोत्रे सकृत्पाते कोऽन्यो मानं समुद्हेत् ॥ २९५ ॥ भावार्थ-यह प्राणी दीर्घकाल तक अनेक प्रकार की हीन योनियों में भ्रमण करता है तब कहीं इसे एक दफे उच्च गोत्रका लाभ होता है। कौन बुद्धिमान इसका अभिमान करेगा, क्योंकि यह
भी छूट जानेवाला है और फिर अनन्त हीन योनियों में पटक देनेवाला है। इसलिये ज्ञानीको क्षण४ भंगुर पर्यायकी प्राप्तिका मान न करके समभाव रखना चाहिये। मान परिणामोंको कठोर बनाकर इस जन्ममें भी बुरा करता है और परलोकमें भी बुरा करता है।
श्लोक-माया असत्य रागं च, अशाश्वतं जलविंदुवत् ।
यौवनं अभ्रपटलस्य, माया बंधन किं कृतं ॥ १६१ ॥ अन्वयार्थ-( माया ) माया कषाय ( असत्य रागं च ) असत्य जगतके पदार्थों में राग करनेसे होती है। जगतके पदार्थोंकी अवस्था (जलविंदुवत् ) जलकी बूंदके समान ( अशाश्वतं ) क्षणभंगुर है । (यौवन) युवानी ( अभ्रपटलस्य) मैचों के समान विला जानेवाली है ( मायाबन्धन ) तेरी मायाके बंधनने (किं कृतं) क्या किया अर्थात् कुछ नहीं किया।
विशेषार्थ-अब अनन्तानुषन्धी माया कषायका वर्णन करते हैं। लोभ कषाय व मान कषाय व क्रोध कषाय वश यह प्राणी माया कषाय कर लेता है। राज्य, धन, संपदा, भूमि, गाय, भैंस, घोडा रथ आदि पदार्थोंके संग्रहकी इच्छासे यह प्राणी मायाचार या कपट करके बहुतोंको ठगता है। कभी मानके बढानेको मायाचार करके अपना महत्व दिखाता है, दूसरोंका ही महत्व घटाता है। कभी किसीपर द्वेष होता है तो उसको हानि पहुंचानेके लिये मायाचार रचता है। मूल हेतु विषयों में अपना राग है। जिस जीवनकी आशासे लक्ष्मी संचय करता है वह जीवन उसी
॥१६॥
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धारणतरण
॥१६९॥
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तरह नष्ट हो जायगा जैसे पानीका बुदबुदा नष्ट होजाता है व घासकी नोकपर रक्खी हुई पानीकी बंद गिर जाती है। जिस युवानी के मदको बनाए रखना चाहता है वह भी मेघ पटलके समान विला जाने वाली चीज है। धनादि सम्पदा भी मेघके समान देखते १ चल देती है । तब यह मायाका बंधन हमारा कुछ हित नहीं करता है । इम मायाचारके तीव्र पाप बांधकर तिर्येच होजाते हैं । सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं
यां छेदभेददमनांकनदाहदोह वातातपान्नजलशेषवधादिदोषाम् ।
मायावशेन मनुजो जननिन्दनीयां, तिर्यग्गतिं व्रनति तामतिदुःखपूर्णाम् ॥ ५४ ॥
भावार्थ- माया के अधीन होकर मानव अति दुःखोंसे भरी हुई और निंदनीक तिर्यच गतिको प्राप्त हो जाता है, जहां छेदन, भेदन, निरोध, दागा जाना, दुहा जाना, हवा, गरमी, अन्न जल निरोष आदि दोषोंको भोगना पड़ता है।
श्लोक - माया अशुद्ध परिणामं, अशाश्वतं संग संगतेः ।
दुष्टं नष्टं च सद्भावं, माया दुर्गतिकारणं ॥ १६२॥
अन्वयार्थ - ( माया ) मायाचारका भाव (अशुद्ध परिणामं ) आत्माका अशुद्ध मलीन भाव । जो (मशाश्वतं संग संगतेः ) विनाशीक परिग्रहको संगतिले पैदा होता है (दुष्टं) यह दोष पूर्ण है (नष्टं च सदभाव) जहां सत्य भावका नाश है ( माया दुर्गतिकारणं) ऐसी माया दुर्गतिका कारण है ।
विशेषार्थ – आत्माका स्वभाव कषाय रहित वीतराग व शुद्धोपयोग रूप है । भाव कषायके उदयसे पंचक भाव व मलीन भाव होजाता है । जगत के जो २ पदार्थ विनाशीक हैं ऐसे धन, सुवर्ण, राज्य आदिके निमित्तसे उनमें तीव्र लोभ होने से उनकी प्राप्तिके लिये मायाचार के भाव उठाए जाते हैं । यह मायाचारका भाव अत्यन्त दुष्ट है । अति दुष्टता लिये हुये है । दूसरोंको ठगनेका विकराल भाव जहां प्राप्त होजाता है । इस मायाचार के होनेसे स्वाभाविक शांत भाव नष्ट होजाता है । यह माया दुर्गतिका ही कारण है । असत्य व चोरीका जितना कुकर्म है वह मायाके द्वारा ही किया जाता है । मायाचारी झूठा सिक्का चलाता है व झूठे नोट बना लेता है, झूठे दस्तावेज लिख लेता
૨૨
।। १६९।।
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वारणवरण
॥१९०॥
है, झूठे मुकद्दमें चलाता है, सचको झूठ कर देता है, झूठको सच कर देता है। मित्र बनके प्रीति श्री व विश्वासका भाजन बनता है परन्तु भीतरसे ठगनेके भाव होते हैं जिससे यह मित्रको भी ठग लेता है। माया चारीको जरा भी दया नहीं होती है। धर्मके नामसे अलग किये हुए पैसेको अपने काममें लेने लगता है। जब कोई मांगता है तो मायाचारीसे ऐसी बातें बनाता है मानो धर्म द्रव्य
इसके पास सुरक्षित ही है। मायाचारी बड़े २ महन्त बनकर भोले भक्तोंको ठगते हैं। उनसे द्रव्य ४ संचय करके मनमाने विषयभोग करते हैं। माया प्राणीके मनको महा नीच बना देती है इसीसे ४ मायाचारी बहुधा तिर्यच आयुका बंध कर लेता है।
श्लोक-माया अनंतानं कृत्वा, असत्ये रागस्तो सदा ।
मनवचनकाय कर्तव्ये, मायानंदी चुतो जड़ः ॥ १६३ ॥ अन्वयार्थ-(अनंतानं माया कृत्वा) अनंतानुबंधी मायाके कारण (सदा) सदा ही (असत्ये रागरतः) मिथ्या पदार्थोक रागमें आसक्त रहता हुआ (मायानंदी) मायाचार करने में आनंद मानता हुमा (मनवचनकाय कर्तव्ये ) मन, वचन, काय द्वारा क्या उचित करने योग्य है उसमें (चुतः) हटा हुआ (जहः) अज्ञानी बना रहता है।
विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी माया कषाय सम्यक्तकी व शुद्ध स्वरूपके भीतर आचरण कराने की विरोधी है। इस कषायके उदयसे प्राणीके भीतर ऐसा गाढ़ अंधेरा रहता है कि वह शुद्ध आत्माको ॐ न पहचानकर उसमें तो प्रेम नहीं करता किंतु जो शरीर, धन, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि मिण माने
हुए व नाशवंत पदार्थ हैं उन हीमें तन्मय रहता हुआ, मन वचन कायके उचित व्यवहारको नहीं करता दुभा धर्मके ज्ञानसे रहित मूर्ख बना रहता है। वह रातदिन अपने स्वार्थकी सिद्धिके लिये मनमें कुटिलता व कपाचा विचार करता है, वचनोंसे कपटभरी बातें करता है, कायसे कपटयुक्त क्रिया करता है, मनमें कुछ और ही होता है, वचनसे कुछ और ही कहता है, कायसे कुछ और ही क्रिया करता है। सरलता व आव धर्मके विरुद्ध उसका व्यवहार हो जाता है। उसको मायाचार करने में ही आनन्द आता है। यदि वह कपटसे किसीको ठग करके कुछ सम्पत्ति पैदा कर लेता है तो वह अपनेको बडा चतुर मानता है और अधिक मायाका जाल फैलानेके लिये करियरहोजाता है।
ॐ ॥१७॥
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वारणतरण
१७१॥
उसका जीवन ही मायाचारीके विकल्पोंमें वीतता है। रातदिन यही विचार किया करता है। ऐसा मूर्ख प्राणी यह नहीं देखता है कि जिस धनके लिये मैं दूसरोंको ठगता हूं वह धन छोडकर चला जाना पडेगा । तथा इससे जो घोर पाप कर्म बांधा जारहा है उसका कटुक फल प्राप्त होगा। जैसे उलूक सूर्यको नहीं देखता है, दिनको रात्रि समझता है वैसे ही अज्ञानी मायाचारी धर्म व परलो. ककी ओर रहिनहीं करता है। मात्र क्षणिक स्वार्थमें ही लिप्त हो माया ही प्रसन्न हुआ करता है।
श्लोक-माया आनंद संयुक्तं, अनृतं अचेत भावनं ।
मनवचनकाय कर्तव्ये, कुबुद्धी विश्वास दारुणं ॥ १६४ ॥ मन्वयार्थ-(माया आनन्द संयुक्त ) मायाचारके आनंदमें भरपूर वह अज्ञानी ( अनृतं ) मिथ्यात व (परेत) अज्ञानकी (भावनं ) भावना किया करता है। (मनवचनकाय कर्तव्ये ) मन, वचन, कायके करने योग्य व्यवहारमें (कुबुद्धी) खोटी बुद्धि रखता हुआ ( दारुगं विश्वास ) तीव्र विश्वास रखता है।
विशेषार्थ-मायानंदी जीव मिध्यादर्शन व मिथ्याज्ञानकी निरन्तर भावना रखता है। आत्मीक तस्वस विरुद्ध जो संसार तत्व है उसी में तन्मय रहता है, विषयोंकी लम्पटना व मिथ्यात्व वर्धक
देव, कुगुरु, कुधर्मकी सेवा व मिथ्याज्ञान वर्द्धक ग्रन्थोंका आराधन किया करता है। उसकी भावना यही रहा करती है कि किसी तरह अपना मतलब सिद्ध करूं। कदाचित् वह जिनेंद्र प्रणीत देव, गुरु, धर्मकी भी भाक्ति करता है व जिनवाणीका भी मन लगाकर अभ्यास करता है, परन्तु माया शल्यके कारण उस मिथ्यात्वीका उद्देश्य आत्मकल्याण न होकर स्वार्थ साधन होता है, वह इस तरह कि मैं अपने बाहरी धर्म साधनका प्रभाव, देखनेवाली जनतापर डालकर उनकी प्रतीतिमें यह विश्वास जमादं कि वे मुझे धर्मात्मा मानने लगें फिर मैं उनसे अपना लौकिक स्वार्थ सिद्ध करूं। ऐसी मिथ्या वासनासे अपना सर्व धार्मिक कृत्य अधार्मिक बना देता है। तथा वह अपने मायाचारके फैलाने में तीन विश्वास रखता है, बडी श्रद्धासे मायाकी जाल फैलाता है और मन, वचन, कायका कुटिल व्यवहार करता है। उनके मन में यह श्रद्धा मिश्याज्ञानके कारणसे जम जाती है कि मेरी
कुटिलताको कोई जान नहीं सका है, मैं ऐसा चतुरहूँ कि सर्वकी आंखों में धूल डालकर, अपना १ स्वार्थ सिद्ध कर सका हूँ। इस तरह अपने कपटके व्यवहारमें घोर अरान रखता हुआ रातदिन
॥७॥
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बारणवरण
॥१०॥
कपटके फंदेमें फंसा रहता है। उसका भाव बांसके बेड़ेके समान अदृश्य मायाचारकी गहरी पासनासे पासित होता है।
श्लोक-माया अचेत पुन्यार्थ, पाप कर्म च वर्धते ।
शुद्ध तत्व न यस्यंते, मायावी नरयं पतं ॥१६॥ अन्वयार्थ-(माया अचेत ) मायामें लिप्त अज्ञानी जीव ( पुण्यार्थ) पुण्यरूप किये हुए कार्योंसे भी ॐ (पाप कर्म च वर्धते) पाप कमो का ही बन्ध बढ़ा लेता है (शुद्ध तत्व न यस्यते ) वह शुद्ध आत्मतत्वको नहीं अनुभव करता है ऐसा (मायावी) मायाचारी (नस्य पतं) नरकमें चला जाता है।
विशेषार्थ-मायाके अंधकारसे जिसकी बुद्धि मलीन होरही है ऐसा मिथ्याज्ञानी जीव अपनी माया फैलानेके लिये उन कामोंको बडी ही बाहरी भक्तिसे करता है। जिन कार्योंके सरलतासे व ४ कपट रहित करनेसे पुण्य कमाका बन्ध होता है, परन्तु वह बिचारा उन्हीं कार्योंसे घोर पाप कर्मका
बन्ध कर लेता है। देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, व दान-ये छः गृहस्थके कार्य पुण्यबंध करानेवाले हैं। परन्तु माया शल्यके साथ किये हुए इनहीसे पापका घोर पन्ध होजाता है। काका बन्ध भीतरी पासनासे होता है। वीतरागताका जिसका अभिप्राय होगा उसके तो बहुतसे पापोंका क्षय होगा। निदान रूप विषयभोगोंका अभिप्राय होगा तो वह अल्प पुण्य बन्ध करेगा। यदि मायाचारका अभिप्राय होगा तो वह माया कषाषके कारण तीब पापका बंध करेगा। मायावीके मात्र छल कपटकी भावना रहती है। वह तो उस ठगियाके समान है जो विश्वासपात्र मित्र बनकर मित्रता करता हुआ भी ठगनेका ही भाव रखता है। जैसे बिल्ली चूहेके लोभमें रहती है वैसे वह र स्वार्थ साधनके लोभमें रहता है। अतएव पुण्यके स्थानमें पापोंका ही बन्ध करता है। वह मिथ्याष्टी
जीव शुख तत्वको नहीं पहचानता है, न उसकी कचि करता है, न उसका अनुभव ही कर सक्का है।वह कृष्णादि अशुभ लेश्याके कारण नरकगति बांध लेता है। माया कषाय इस जीवका बड़ा ही बरा करनेवाला है, ऐसा जानकर जो अपना हित करना चाहें उनको माया कषायका त्याग करके सरलतासेही व्यवहार करना चाहिये और इस मानवजन्मको आर्जवधर्मको पालकर सफल
॥११॥
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धारणतरण ॥१७३॥
करना चाहिये। थोडीसी आयुके लिये मायाचारकरके धनका एकत्र करना आगामी पापके उदयसे तीव्र दुःखका कारण हो जायगा । सुभाषितरत्न संदोह में कहते हैं
शीलव्रतोद्यमतपः शमसंयुतोऽपि न चाश्नुते निकृतिशस्यधरो मनुष्यः ।
मात्यंतिक नियमबाधसुखस्वरूपां शल्यान्वितो विविधधान्यधनेश्वरो वा । १८ ॥
भावार्थ - जो कोई मानव शील, व्रत, उद्यम, तप, शांत भावले विभूषित है परन्तु माया- शल्यसे पीडित है वह बाधा रहित सुखमई मोक्ष की लक्ष्मीको नहीं पासक्ता है। जैसे नानाप्रकार धनका स्वामी होनेपर भी कांटा लग जानेपर वह दुःखहीको भोगता है ।
श्लोक –— कोहाग्निः अशाश्वते पोषितं, शरीरे मानबंधनं ।
अशाश्वतं तस्य उत्पाद, कोहाग्निः धर्मलोपनं ॥ १६६ ॥
अन्वयार्थ – ( कोहानिः ) क्रोध की अग्नि ( अशाश्वते ) क्षणभंगुर पदार्थके निमित्तसे ( पोषितं ) भड़क उठती है । (शरीरे मानबंधनं ) शरीर में अहंकार होनेसे इसका बंधन है । (तस्य ) इस क्रोध से (अशाश्वतं ) विनाशीक संसारका ( उत्पाद ) जन्म होता है । (कोहानिः ) यह क्रोध की अग्नि (धर्मलोपनं ) धर्मका लोप करनेवाली है ।
विशेषार्थ - जिन प्राणियोंका ममत्व शरीर में व शरीर के सुखके सहकारी स्त्री पुत्रों में व अन्य विषयके पदार्थों में होता है, जो अपनी पर्यायके ममत्वमें बंधे हुए होते हैं, उनको विनाशक पदाथके निमित्तसे क्रोध होजाता है। जब कोई उनको बिगाडता है या वे बिगडते तो स्वयं हैं परन्तु यह अज्ञान से किसीको उसमें कारण मानकर उनपर बहुत क्रोध करता है। जिसके अनंतानुबन्धी क्रोध होता है वह जरासा भी निमित्त मिलता है कि क्रोधमें आग भनुका होजाता है, अपने आधीन निर्बल, स्त्री, पुत्र, पुत्री, सेवक आदिको बहुत कष्ट देता है। मान व लोभके तीव्र उदयसे यदि किसीके द्वारा मानमें व लोभके साधन में बाधा पहुंचती है तो यह क्रोधित हो उस व्यक्तिले अति द्वेष या वैरभाव बांध लेता है तथा उसको कष्ट पहुंचाए विना चैन नहीं पाता है । इस क्रोध कषायसे वह कर्म बांधकर इस विनाशीक संसारको और बढ़ा लेता है । क्रोधके कारण धर्मका भी
श्रावका
H2OPIE
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श्रावकाची
बारणतरण लौंप कर दिया जाता है। यदि किसी धर्मात्माने कोई हितकी बात कही है तथा इसतरह पर कही ॥१४॥
है कि जिससे इसके दिलमें कुछ असर होवे। यह उस बातसे इतना बुरा मान लेता है कि जाने जो कुछ धर्म सेवता था उसको भी छोड़ बैठता है। क्रोधको यदि वश नहीं कर सके तो बडे २ तपस्वी भ्रष्ट हो दुर्गतिके पात्र होजाते हैं। क्षमा जहां है वहीं धर्मकी उन्नति है। जहां क्रोध है वहां धर्मका नाश है। क्रोध कषाय परिणामोंको अति मलीन व हिंसक बना देता है। सुभाषित. में कहते हैं
धैर्य धुनाति विधुनोति मति क्षणेन, राग करोति शिथिलीकुरुते शरीरं ।
धर्म हिनास्ति बचन विदधात्यवाच्यं, कोपो ग्रहो रतिपतिर्मदिरामदश्च ॥ १६॥ भावार्थ-यह क्रोधरूपी राक्षस कामके समान या मदिराके नशेके समान धैर्यको नाश कर देता है, क्षणमात्रमें बुद्धिको बिगाड देता है, रागको या हठको बढा देता है, शरीरको शिथिल कर देता है, धर्मको नाश कर देता है, वन कहने योग्य वचनोंको कहलाने लगता है। वास्तव में यह क्रोध इस लोक व परलोकमें महान पाधाकारी है। श्लोक-एतनु भावनं कृत्वा, अधर्म तस्य पस्यते ।
रागादि मल संजुक्तं, अधर्म ततु गीयते ॥ १६७ ॥ अन्वयार्थ (एतत्तु भावनं कृत्वा ) जहां ऊपर लिखित सात व्यसन, आठ मद व चार अनन्तानुबन्धी कषायोंकी भावनाएं की जाती हैं (तस्य ) वहां उस प्राणीके भीतर (अधर्म ) अधर्म ही (पस्यते) ४ देखा जाता है । (रागादि मल संजुक्त ) जो कुछ भाव या वचन या क्रिया रागवेषादि मलके साथ में है (तत्तु अधर्म गीयते ) उसको तो अधर्म ही कहा जाता है।
विशेषार्थ-ग्रंथकाने धर्मका स्वरूप ऊपर बहुत विस्तारसे कहा है, तथा स्पष्ट कर दिया है कि भावना ही अधर्म है व भावना ही धर्म है। जहां अपने शुद्ध स्वरूपकी भावना नहीं है वहां संसारकी भावना होगी। जहां संसारकी भावना होगी वहां पांच इंद्रियोंके भोगकी व लोभ व मान कषायकी पुष्टिकी ही विशेष भावना होगी। इस अशुभ भावनासे पीडित होकर वह प्राणी अवश्य ही सात व्यसनोंकी भावनामें फंस जायगा, आठ प्रकारका मद करेगा, तीन क्रोधादि
4644444444444444444AMAKAAR44444444444446
॥१०४
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श्रावकाचार
कषायका भागी होगा। उसके भावों में अधर्म ही अधर्म हर समय पाया जायगा । वास्तवमें वीतधारणतरण
राग विज्ञान तो धर्म है। उसके विरुद्ध जो कुछ भी रागद्वेष आदि मैलसे मैला भव है वह सब ॥१९ ॥ अधर्म है, कुधर्म है, संसारका कारण है। मिथ्यात्व साहन सर्व भाव बाहरमें धर्म सरीखे दिखते हैं
परन्तु वे अधर्म हैं। इस अधर्मको धर्म मानना यह गहरा मिथ्यात्व है। यहां ग्रंथकर्ताका भाव प्राणि. योंको धर्ममें सावान करनेका है इसलिये वे प्रेरणा करके कहते हैं कि जो इस नरभवको सफल
करना चाहें और सुखसे वर्तमान जीवन व भविष्यका जीवन विताना चाहें उनको उचित है कि V यथार्थ धर्मको समझें, कुधर्मको धर्म न जाने । जिस धर्ममें विषयकषायकी किसी भी तरह पुष्टि है वह अधर्म है व जहां वैराग्य और शुद्धात्म तत्वकी पुष्टि है वह धर्म है। सुभाषित में कहते हैंविरागसर्वज्ञपदाम्बुजद्वये यतौ निरस्ताखिलसङ्गसङ्गती, वृषे च हिंसा रहिते महाफले करोति हर्ष जिनवाक्यमवितः ॥१५८॥
भावार्थ-श्री जिनवाणीके अनुसार भावना करनेवाला वीतराग सर्वज्ञके चरणकमलों में, सई परिग्रह रहित साधुमें व हिंसा रहित महा फलदाई धर्ममें आनन्द मानता है।
धर्मका स्वरूप। श्लोक-शुद्धधर्म च प्रोक्तं च, चेतनालक्षणो सदा ।
शुद्ध द्रव्यार्थिक नयेन, धर्म कर्मविमुक्तयं ।। १६८ ॥ अन्वयार्थ-(शुद्धधर्म च प्रोक्तं च ) शुद्ध धर्म ऐसा कहा गया है कि वह ( सदा) सदा (चेतनालक्षणः) * आत्माका चेतना लक्षण है । (शुद्ध द्रव्यार्थिक नयेन) शुद्ध द्रव्य की दृष्टिसे (धर्म) वह धर्म (कर्मविमुक्तय) ४ सर्व प्रकार कर्मसे रहित है।
विशेषार्थ-अब यहां निश्चय धर्म या शुद्ध धर्मको कहते हैं। यह साक्षात् मोक्षमार्ग है। निश्चय धर्मका आराधन करे विना न कोई मोक्ष गया है न जावेगा न अब किसी क्षेत्रसे जासक्ता है। यह असली धर्म आस्माका या अपना स्वरूप है। आत्माका लक्षण चेतना है अर्थात् स्वभावसे आत्मा ज्ञानचेतना स्वरूप है, अपने ही यथार्थ ज्ञानमय शुद्ध स्वरूपका अनुभव या स्वाद लेनेवाला है। यह
॥१७॥
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श्रावकाचार
बारणतरण
कर्म चेतना व कर्मफलचेतनाके स्वादसे रहित है।रागद्वेषरूप होकर कार्य करते हुए यहअनुभवना कि ॥१७॥
मैं काम करता है यह कर्म चेतना है। काँका फल होते हुए यह अनुभवनाकि मैं सुखी हूं,या दुखी हूं कर्मफल चेतना है। यह अशुद्ध आत्मामें कभी पाई जाती हैं । आत्मा स्वभावसे ज्ञान चेतनामई है। शुद्ध द्रव्यार्थिक नय उस नय या अपेक्षा या दृष्टिको कहते हैं जो शुद्ध द्रव्यको देखती है। एक ही द्रव्यको परसे भिन्न देखता है। इस नयके द्वारा देखते हुए आत्मा भी कर्मोंसे रहित दीखता है व उसका स्वभाव या धर्म भी कमाँसे रहित दीखता है। कर्म तीन प्रकार हैं। भाव कर्म-रागद्वेषादि मलीन भाव है। द्रव्य कर्म-ज्ञानावरणादि आठ कर्म है। नोकर्म शरीरादि हैं। ये सब ही आत्माके स्वभावमें नहीं हैं, इसलिये शुद्ध धर्म आत्मारूप ही है, आत्मका निजस्वभाव है, यह अभेद रत्नत्रय स्वरूप है। अपने आत्माको शुद्ध द्रव्यकी अपेक्षा शुद्ध है ऐसा निश्चय करना सम्यग्दर्शन है ऐसा संशयादि दोष रहित जानना सम्यग्ज्ञान है तथा इसी में थिर होकर स्वाद लेना सम्मग्चारित्र है अर्थात् एक शुडाम्मानुभा या स्वानुभव, या स्वसमय या आत्मध्यान ही शुर धर्म है-मोक्षका साक्षात् उपाय है। श्री देवसेनाचार्य तत्वसारमें कहते हैं
को खल सुद्धो भावो सा अप्पणितं च दंसणं गाणं | चरणपि तं च भाणयं सा सुद्धा चेयणा अहवा ॥ ८॥
अबियपं तच्च तं सारं मोक्खकारणं तं च । त णाऊग विसुद्धं शायह होऊग जिग्गंथो ॥९॥
भावार्थ-मोनिश्वयसे शुद्ध आत्माका भाव है वह आत्मरूप है वही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान र व सम्यक्चारित्र कहा गया है-उसीको शुद्ध चेतना कहते हैं। वही निर्विकल्प तस्व है, वही सार है,
वही मोक्षका कारण है उसीको जानकरके व उसीके शुद्ध स्वरूपको निग्रंथ होकरके, सर्वसे ममता त्याग करके ध्याओ।
श्लोक-धर्म च आत्मधर्म च, रत्नत्रयमयं सदा ।
चेतना लक्षणो यस्य, तत् धर्म कर्म विवर्जित ॥ १६९ ॥ अन्वयार्थ (धर्म च ) धर्म तो ( आत्म धर्म च ) आत्माका स्वभाव ही है। वह ( सदा ) तीनों कालोंमें (रत्नत्रयमय ) रत्नत्रयमई है ( यस्य लक्षणः ) जिसका लक्षण (चेतना) चेतना या स्वानुभव है (तत् धर्म ) वह धर्म ( कर्मविवर्जित) सर्व कर्मकी उपाधिसे रहित है।
॥२०॥
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॥१७७॥
विशेषार्थ-यहां फिर दह किया है कि धर्म कहीं बाहर नहीं है न किसी चैत्यालय में हैन श्रावकाचार मान किसी तीर्थमें है न किसी गुरुके पाससे मिलता है न क्रियाकांडमें है।धर्म तो हरएक
आत्माके भीतर है। हरएक आत्माका अपना निज स्वभाव है। मेद दृष्टिसे देखें या कहें तो उसे सम्यग्दर्शन ज्ञाम चारित्रमय कहेंगे परन्तु अभेद नयसे देखें या कहें तो यह मात्र एक स्वानुभवरूप या ज्ञानचेतना मात्र है। उस धर्ममें राग द्वेषादिकी व संकल्प विकल्पकी कोई उपाधि नहीं हैं। .
जो कोई तत्वज्ञानी निश्चिन्त होकर सर्व चिन्ताओंको त्यागकर एक अपने शुद्ध आत्माको शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे देखता है, जानता है, अनुभवता है, तदुरूप होता है, तन्मय होजाता है, अतीन्द्रिय आनन्दके स्वादमें मग्न होजाता है वही अपने भीतर अपने धर्मको पाता है। यह धर्म वास्तवमें वचन अगोचर है । मनसे भी अगोचर है। जब कार्य भी थिर रहता है, वचन भी बंद रहता है, मनकी चंचलता भ मिट जाती है तब वह आत्मधर्म इन मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति से बाहर होनेपर ही अनुभवमें आता है। चैत्यालयका सम्बन्ध व भक्ति, शास्त्रका पढना, तीर्थमें जाना,
गुरुकी संगति, व्यवहार श्रावक व मुनिकी क्रिया मात्र मनको बाहरी प्रपंचजालसे बचानेको निमित्त 4 है। इसलिये उनका संयोग हितकारी है । परंतु जो कोई इनहीको असली धर्म मानले और शुद्ध
आत्माके तत्वको न पहचाने उसके लिये यहां कहा गया है कि असली धर्म तो आत्माका अपना स्वभाव है। इसतरफ लक्ष्य देनेसे ही मुमुक्षुको सच्चा मार्ग हाथ लगेगा और वह वास्तविक धर्मरत्न को पाकर कृतार्थ होजायगा । उसका जन्म जरा मरणरूपी रोगको मेटने के लिये व कर्मका मैल धोने के लिये यही एक अद्भुत गुणकारी औषधि है । इसीका पान या सेवन सदा सुखकारी है।
श्लोक-धर्मध्यानं य आराध्यं, ॐकारे च सुस्थितं ।
ह्रींकारे श्रींकारे च, त्रि ॐकारे च सस्थितं ॥ १७० ॥ अन्वयार्थ (धर्मध्यानं च ) धर्मध्यानका ही ( आराध्य ) आराधन करने योग्य है (ॐकारे च ) , ४ वह ॐकारके भीतर (हींकारे ) ह्रींकारके भीतर (श्रींकारे घ) तथा श्रीकारके भीतर ( सुस्थितं ) भले. प्रकार स्थित है (त्रि) ये तीनों (ॐवकारे च) ॐकारमें ही ( सुस्थितं ) भलेप्रकार प्राप्त हैं।
॥१७॥
2.
२३
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श्रावकाचार
धारणतरणY : विशेषार्थ-यहां धर्मध्यानके सेवनकी प्रेरणा की है, यद्यपि धर्मध्वान वास्तव में अपो हो शुद्ध ॥१४॥
9. आत्मामें स्थिति स्वरूप है, अपने आत्माका निर्विकल्प भाव है तथापि शिष्यको उसका अभ्यास
करने के लिये निहीं शब्दोंका आलम्बन लेना पडता है। उसके लिये यहां कहा है कि वे तीन पद हैं । ॐ ही, श्री। पहले बताया जाचुका है कि-ॐ मैं अरइंतादि पांच परमेष्ठी गर्भित हैं, हमें चौवीस तार्यकर गर्भित हैं तथा श्रीं में परमैश्वर्य युक्त अरहंत व सिद्ध परमेष्ठी गर्भित हैं या किसी अपेक्षा अन्य तीन परमेष्ठी गर्भित हैं। इन तीनों पदोंका जो भाव है वह एक में भलेप्रकार गर्भित है। अर्थात् चाहे तीनों पदोंका अलग २ ध्यान करो या तीनोंको मिलाकर करो या मात्र एक ॐ हीका करो सर्व एकहीभावको झलकानेवाले हैं । निश्चयसे शुद्ध आत्माही अरहंत है। शुद्ध आत्मा ही सिद्ध है, शुद्ध आत्मा ही आचार्य है, शुद्ध आत्मा ही उपाध्याय है, शुद्ध आत्मा ही साधु है, शुद्ध आत्मा ही श्री ऋषभादि महावीर पर्यंत चौवीस तीर्थकर हैं। ध्याताको अपना लक्ष्य शुद्ध आत्माकीतरफरखके मनकी चंचलताको मेटने के लिये, इन पदोंका आलम्बन लेकर इनको या तो जपना चाहिये या हृदयस्थानमें या दो भौंहोंके मध्य में या नाभिकमलमें या मस्तकपर या नाशिकाकी नोकपर विराजमान करके इनको ज्योति-स्वरूप चमकता हुआ देखना चाहिये। फिर उसके द्वारा शुद्ध आत्ता पर पहुंच जाना
चाहिये। वहांसे उपयोग हटे तब फिर इसी पदको देखना चाहिये। कभी कभी पांच परमेष्ठीके * २४ तीर्थंकरोंके गुणोंको विचारते रहना चाहिये । शुद्धात्मामें जब उपयोग न रमे तब ये सब कार्य
आलंबनरूप हैं। पुन: पुन: आलम्बन लेते हुए पुनः पुनः शुखात्मामें पहुंच जाना चाहिये । इसी ४ रीतिसे आत्माका ध्यान करना चाहिये। यही धर्मध्यान है।
श्लोक-धर्मध्यानं त्रिलोकं च, लोकालोकं च शाश्वतं ।
कुज्ञानं त्रिविनिर्मुक्तं, मिथ्या माया न दिष्टते ॥१७१॥ अन्वयार्थ-(धर्मध्यानं ) धर्म ध्यान (त्रिलोकं च ) तीन लोकका स्वरूप विचारना है (लोकालोकं च शाश्वत व अविनाशी लोकालोकका स्वरूप विचारना है (कुज्ञानं त्रिविनिमुक्त) तीन मिथ्याज्ञानसे रहित है (मिथ्या माया न विष्टते) वहां मिथ्यात्व व मायाचार नहीं दिखलाई पड़ते हैं।
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वारणतरण ॥ १७९॥
विशेषार्थ – धर्मका क्या स्वरूप है सो ऊपर कहा है, शुद्ध आत्माके स्वरूपका ध्यान करनी यह असली धर्मध्यान है । जब ध्यानमें उपयोग न लगे तब तीन लोकके स्वरूपका विचारना भी धर्मध्यान है । जैसे यह सोचना कि अधोलोक में सात नरक हैं जहां तीव्र पापके फलसे उपजता है । पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के खर भाग व पंक भागमें भवनवासी तथा व्यंतरोंके निवासस्थान हैं । मध्यलोकमें असंख्यात द्वीप समुद्र एक दूसरेको वेढे हुए हैं व विस्तार में एक दूसरेसे दूने २ हैं । इनमें से जंबूद्वीप, धातुक खंड तथा पुष्करार्द्ध इन ढाई द्वीपको मानवलोग कहते हैं, यहीं से मानव धर्म साधन कर मोक्ष या स्वर्ग जाते हैं । असंख्यात द्वीप समुद्रोंमें युगलिये पशु पैदा होते हैं, वहीं जघन्य भोगभूमि है | विदेह क्षेत्रों में सदा ही चौथा काल रहता है। वहां मोक्ष होना सदा चलता रहता है । ज्योतिष पटल मध्यलोक की ही हृद्दमें है । भूमिसे ७९० योजन ऊपर जाकर है। ऊर्ध्व लोक में १६ स्वर्ग, नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश, पांच अनुत्तर विमान फिर सिद्धक्षेत्र है, जहां कमसे मुक्त होकर शरीर रहित परमात्मा विराजमान रहते हैं । सर्वत्र लोकमें स्थावर जीव भरे हैं। त्रस जीव लोक के मध्य त्रस नाड़ीमें ही है । इस चतुर गतिमय संसारमें जीव पाप पुण्यके द्वारा दुःख व सुख उठाते हैं जो शुद्ध होते हैं वे मुक्ति में विराजते हैं, इस तरह तीन लोकका स्वरूप विचारना धर्मध्यान है । लोकां लोकके स्वरूप में जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल और आकाश इन छः अविनाशी मूल द्रव्योंका विचार करना चाहिये जिनसे यह लोकाकाश अलोकाकाश, नाम पड़ा है। लोका की, शमें छहों द्रव्य हैं, बाहर मात्र आकाश है। छः द्रव्योंकी पर्यायें स्वाभाविक या जीव पुद्गलों की वैभ विक पर्यायें भी हुआ करती हैं। पर्यायों की अपेक्षा यह विश्व अनित्य है परन्तु द्रव्यकी अपेक्षा नित्य है । इसे न किसीने बनाया न इसका सर्वथा नाश होगा। यह अनादि अनंत है। मिथ्या मति, श्रुत अवधिपना जहां नहीं है वहीं धर्म है क्योंकि वहीं सम्यग्दर्शन है। वास्तव में सम्यग्दर्शन ही धर्मका मुख्य अंग है। जहां परिणाममें न मिध्यात्व हो और न माया शल्य हो, मात्र j आत्मोन्नति के लिये सरलभावसे शुद्धात्मतत्व का अनुभव हो व उसके अनुकूल द्रव्योंका, तत्वोंका, पदार्थोंका विचार हो, कर्मके उदय व बंधका विचार हो, वह सब धर्मध्यान है यही करने योग्य है ।
श्रावकाचार
॥ १०९
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वारणतरण
॥१८०॥
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श्लोक – उत्तमक्षमा उत्पाद्यंते, उत्तम तत्व प्रकाशकं ।
अमलं अप्प सद्भावं, उत्तमधर्मं च निश्वयं ॥ १७२ ॥
अन्वयार्थ — ( उत्तम क्षमा उत्पार्थते ) जहां उत्तम क्षमा पैदा हो, जो ( उत्तम तत्व प्रकाशकं ) उत्कृष्ट आत्मतत्वका प्रकाशक हो, जो (अमलं) रागादि मल रहित हो ( अप्पसद्भावं ) जो आत्माका स्वभाव हो वही (निश्वयं च उत्तम धर्म ) निश्चयसे उत्तम धर्म है ।
विशेषार्थ - यहां उत्तम धर्म या निश्चय धर्मका स्वरूप कहते हैं। जहां परिणामों में ऐसी आत्मतल्लीनता हो व ऐसा उपेक्षा भाव हो कि परिणामोंकी भूमिका उत्तम क्षमामयी बन गई हो । क्रोधके कारण मिलनेपर भी क्रोध न उपजे । कोई सहस्रों दुर्वचन कहें कोई मारे पीछे अपमान करे, तौभी वज्रके समान स्थिर रहे, परम समताभाव घारी हों, जहां कंचन लोष्ट समान हो, शत्रु मित्र समान हो, जीवन मरण समान हो, जहां श्रुतज्ञानके बलसे भावश्रुतज्ञानको समझ लिया हो । सर्व द्वादशांगका सार शुद्धात्मा है, उसके अनुभवका प्रकाश होगया हो, राग द्वेषादि मलीन भावोंका राग छूट गया हो अर्थात् आत्माका ज्ञान दर्शन सुख वीर्यमय स्वभावमें एकतानता हो, श्रुतज्ञानके द्वारा स्वसंवेदन प्रत्यक्षपने ज्ञात हो वही निश्चय उत्तम धर्म है। श्री योगेन्द्राचार्य योगसार में कहते हैंरायरोस वे परिहरई जो अप्पा शिवसेइ । सो धम्मु वि जिणुउतियड जो पंचम गइ देइ ॥ ४७ ॥
भावार्थ - राग द्वेष दोनोंको छोड़कर जो आत्मामें निवास करता है वही धर्मको सेवन करता ऐसा जिनेन्द्रने कहा है । तथा वही पंचमगति मोक्षको पासक्ता है ।
श्लोक - मिथ्यासमय मिथ्यात्व, रागादिमलवर्जितः ।
असत्यं अनृत न दिष्टंते, अमलं धर्म सदा बुधैः ॥ १७३ ॥
अन्वयार्थ - ( मिथ्या समय ) मिथ्या आगम व मिथ्या पदार्थ ( मिथ्यात्व ) मिथ्यादर्शन व ( रागादि मल वर्जितः) रागादि मल से रहित जहां (असत्यं अनृत न दिष्टते) असत्य व मिध्यात्व नहीं दिखलाई पडे ऐसा (अमलं धर्म ) निर्मल धर्म ( सदा ) सदा ही ( बुधैः) बुद्धिमानोंसे माना गया है ।
विशेषार्थ- शुद्ध धर्म वही है जिस मम सत्य पदार्थोंका कथन हो, मिथ्या एकांत पदार्थोंका
आबकाज़ार
॥१८०॥
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तारणतरण
श्रावक
॥११॥
ॐ कथन न हो व जिसका आगम मिथ्या कथनसे रहित हो, यथार्थ अनेकांतका प्ररूपक हो व जिस
धर्म में किसी मिथ्यात्वकी पुष्टि न हो, न अगृहीतको न गृहीतकी, न जिसमें रागद्वेष क्रोधादि कषायकी तरफ झुकाव हो, किन्तु जहां वीतराग भावकी दृढता हो, जिसमें असत्य न हो व जहां अनित्यको अनित्य व नित्यको नित्य जैसाका तैसा बताया गया हो, ऐसा निर्मल धर्म ही यथार्थ धर्म है। सम्यग्ज्ञानकी पुष्टि करनेवाला ही धर्म होना चाहिये । जिसका लक्षण रत्नकरण्डमें कहा है
अन्यूनमनतिरिक्त याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसंदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ १२॥
भावार्थ-आगमके ज्ञाता उसे सम्परज्ञान कहते हैं जो ज्ञान पदार्थको न कम कहे न अधिक V कहे न विपरीत कहे न संदेहयुक्त कहे किंतु जैसा उसका स्वरूप कहे वैसा ही कहे। ऐसा सम्यग्ज्ञानसे पूर्ण धर्म ही सच्चा धर्म है।
श्लोक-धर्म उत्तम धर्मस्य, मिथ्यारागादि खंरितं ।
चेतना चेतनं द्रव्यं, शुद्धतत्त्वप्रकाशकं ॥१७॥ __ अन्वयार्थ-(धर्म) धर्म वही है जो (उत्तम धर्मस्य ) उत्तम श्रेष्ठ रत्नत्रय धर्मका षोषक हो (मिथ्यारागादि खंडितं ) जिसमें मिथ्यात्व व राग द्वेषादि विभाव भावोंका खंडन हो (चेतना चेतनं द्रव्य) जो चेतन तथा अचेतन द्रव्योंको यथार्थ झलकाता हो (शुद्धतत्वप्रकाशकं ) तथा जो शुद्ध तत्वका प्रकाश करनेवाला हो।
विशेषार्थ-मोक्ष शुद्ध आत्मीक परिणतिको कहते हैं। उनकी प्रगटताका मार्ग शुखात्मानुभव है। यही निश्चय उत्तम धर्म है । जिस धर्मका उद्देश्य स्वात्मानुभव हो वही माननीय धर्म है। जिस धर्ममें सम्यग्दर्शनकी पुष्टि हो तथा मिथ्यात्वका खंडन हो, वीतरागभावकी दृढता हो व राग द्वेषादि विभावोंका निषेध हो, बहुत अकाट्य युक्तियोंसे जहां मिथ्यात्वका व कषायका खंडन किया गया हो तथा जहां चेतनाको अचेतन पांच द्रव्योंसे भिन्न दिखलाया गया हो। आत्माको द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि, भावकर्म रागद्वेषादि व नोकर्म शरीरादिसे भिन्न बताया हो, तथा पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल तथा आकाशसे भिन्न लक्षणवाला बताया हो। आत्माके शुद्ध तत्वके प्रकाशका उपाय बतानेवाला हो, अतीन्द्रिय आनन्दकी कुंजी देनेवाला हो वही सच्चा धर्म है। यह
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बारणवरण
॥१८॥
लक्षण सर्वज्ञ वीतराग अरहंत कथित जिनधर्ममें भलेप्रकार गठित होते हैं। बुद्धिमानको परीक्षा करके धर्म व कुधर्मका निर्णय कर लेना चाहिये । जिनकी परीक्षाकी शक्ति न हो वह परीक्षावानके बचनानुसार धर्मपर श्रद्धा लावें। हमारा भंडार गुप्त है, हमारा अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख स्वभाव सब हमारे ही पास है। इसकी प्रगटताकी जो कुंजी है वही सच्चा धर्म है। संसारका ममत्व इटानेवाला ही सच्चा धर्म है। कुलभद्र आचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैं
ममत्वान्जायते लोभो, लोभाद्रागश्च जायते । रागाच्च जायते द्वेषो, द्वेषादुःखपरम्परा ॥ २११॥ निर्ममत्वं परं तत्वं निर्ममत्वं परं सुखं । निर्ममत्वं परं बीजं, मोक्षस्य कथितं बुधैः ॥ १४ ॥
भावार्थ-ममतासे लोभ पैदा होता है, लोभसे राग उत्पन्न होता है, रागसे द्वेष होता है, वेषसे दुःखकी संतान चलती है। ममता रहित परम तत्व है,ममता रहित पना परम सुख है, ममता रहित पना मोक्षका श्रेष्ट उपाय है, ऐसा बुद्धिमानोंने कहा है। जिन्होंको आत्मीक आनन्दकी प्राप्तिकी भावना है उनके शुद्धोपयोगमई भावको असली धर्म समझना चाहिये।
धर्मध्यानका स्वरूप। श्लोक-धर्म अर्थति अर्थ च, तीअर्थ वेदनं युतं ।
षट्कमलं त्रि ॐकारं, धर्मध्यानं च संयुतं ॥ १७५॥ अन्वयार्य-(धर्म) धर्म (अर्थ च अर्थति ) प्रयोजनका उद्देश्यको लिये हुए होता है (तीअर्थ) तीन अर्थ जो रत्नत्रय है उसकी (वेदनं ) अनुभूति (युतं ) सहित है। (षट्कमलं ) छः अक्षररूप ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं : कमल सहित व (त्रि ॐकारं ) तीन ॐ सहित रत्नत्रयरूप ऐसे (धर्मध्यानं च संयुतं ) धर्मध्यान
अनुभूति (युत ) साहित
सहित है। सहित व (त्रि
विशेषार्थ-धर्म वही है जो अपने प्रयोजनके लिये हुए हो, वह प्रयोजन यह है कि निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान व निश्चय सम्परचारित्रमई तीनों भावोंका एक साथ अनुभव किया जावे, इस अनुभवका सहकारी कारण धर्मध्यान है।
॥२८॥
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तारणतरण
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उस धर्म ध्यानके अनेक उपाय है। एक उपाय यह है कि एक कमल हृदयस्थान में छः पत्तोंका विचारा जावे। और उसके हरएक पत्तेपर क्रमशः - ॐ हाँ, ही, हू, हौं, हाँ, स्थापित करके अथवा अरहंत सिद्ध इन छः अक्षरोंको विराजमान करके इन मंत्र पदोंके द्वारा शुद्धात्माका ध्यान किया जावे अथवा तीन पत्रका कमल विचार करके हरएक पत्तेपर ॐ सम्यग्दर्शनाय नमः, ज्ञानाय नमः, ॐ सम्यञ्चारित्राय नमः, ऐसे तीन पद रखकर इनके द्वारा ध्यान करें । इस श्लोक का जो भाव समझमें आया सो लिखा गया है, विशेष ज्ञानी अधिक विचार कर लेवें ।
सम्प
श्लोक - धर्म अप्पसद्भावं मिथ्या माया निकन्दनं ।
می
शुद्ध तत्वं च आराध्यं, ह्रींकारं ज्ञानमयं ध्रुवं ॥ १७६ ॥
अन्वयार्थ - ( धर्मं ) धर्म (अप्प सद्भावं ) आत्माका यथार्थ स्वभाव है ( मिथ्या माया निकन्दनं ) जहां न मिथ्यात्व है न मायाचार है (शुद्ध तत्वं च आराध्यं) जहां शुद्ध आत्मीक तत्वकी आराधना है व (ह्रींकारं) जहां ह्रींका ध्यान है जिस होंमें (ध्रुवं ) अविनाशी ( ज्ञानमयं ) ज्ञानमई तत्व स्थापित है ।
विशेषार्थ — हरएक आत्माका अपना जो यथार्थ द्रव्यका स्वभाव है वही धर्म है । अर्थात् यह आत्मा स्वभावसे शुद्ध सहज ज्ञान दर्शन सुख वीर्यमई अविनाशी अमूर्तक कर्म कलंक से रहित परम निर्मल है। इसी शुद्ध स्वभावका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । इसीका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है व इसीका आचरण सम्यक् चारित्र है, यही यथार्थ धर्म है, इसपर लक्ष्य रखते हुए जिस उपायसे इसका ध्यान हो सके वह सब उपाय भी कर्तव्य हैं । उसीको धर्मध्यान कहते हैं । इस शुद्ध आत्मस्वभावमई धर्म में मिथ्यात्वका व मायाचारका नाम नहीं है। जहां अभिप्राय संसार सम्बन्धो रागद्वेष हो, विषय कषायकी पुष्टि हो, शुद्ध आत्मानन्द के लाभ के सिवाय अन्य कोई स्वर्गादिक सुखका पाना हो वहीं मिथ्यात्वको गन्ध कही जाती है, अथवा जहां कोई मायाचार ही हो, मात्र किसी लौकिक प्रयोजनके लिये दूसरोंपर असर डालने के लिये, धर्मका आचरण भी पाला जाता हो व धर्मध्यानका अभ्यास किया जाता हो, वह भी सच्चा धर्म नहीं है । धर्म वहीं है जहां आराधन करने योग्य एक शुद्ध आत्मीक तत्व हो । लक्ष्य बिंदू यही हो । इसी लक्ष्यको रखकर व्रत, उपवास, जप, तप, ध्यान, धारणा, समाधि आदिका साधन किया जाता हो । धर्मध्यानके उपय
श्रावकाचार
॥ १८३॥
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बारणतरण ४. ध्यान भी है। इसका ध्यान श्री ज्ञानार्णव ग्रन्धके आधारसे इस प्रकार करे कि मुख में एक कमलका श्रावकाचार ॥१८॥
विचार करे जो आठ पत्तोंका हो, उसकी कणिकाके मध्य में ह्रींको उज्वलं चमकता हुआ विचारे फिर उसीको कमलके हरएक पत्तेपर घूमता हुआ विचारे, फिर उसे आकाशमें चलता हुआ विचारे फिर तालुके छिद्र द्वारा अमृत सिंचन करता हुआ भौंहोंके मध्य में तिष्ठता ध्यावे । इस तरह इस माया
वर्णके चितवन करे परन्तु अपना लक्षा इसके वाचक ज्ञानमई अविनाशो आत्माके ही ऊपर रक्खे । ४इस मंत्रके द्वारा अपने शुद्ध आत्माका ही ध्यान करे, मनको रोकनेके लिये ह्रींका सहारा उपयोगी है।४
श्लोक-पदस्थं पिंडस्थं येन, रूपस्थं त्यक्त रूपयं ।
चतुर्थ्यानं च आराध्यं, शुद्ध सम्यकदर्शनं ॥१७७॥ अन्वयार्थ—(येन) जिसके ( पदस्थं पिंडस्थं ) पदस्थ डिस्थ (रूपस्थं ) रूपस्थ (त्यक्त रूपयं) रूपातीत (चतुर्थ्यानं ) ये चार प्रकारका ध्यान (आराध्यं ) आराधन करने योग्य है। वही (शुद्ध सम्यग्दर्शनं ) शुद्ध सम्यग्दर्शनका धारी है।
विशेषार्थ-शुद्ध सम्यग्दर्शनका धारी भव्य जीव आत्मकल्याणके लिये, मनकी चंचलताको रोकने के लिये, अपना शुद्ध तत्वका भाव रखके चार प्रकारके धर्मध्यानका अभ्यास करता है
(१) पदस्थ धर्मध्यान वह है जहां पदोंको किसी स्थानपर विराजमान करके उसके ऊपर मनको रोका जाये और वहीं शुद्धास्माकी भावना की जावे। (२) पिंडस्थ ध्यान वह है जहां अपने शरीरके भीतर अपने ही आत्माको सर्व कर्म कलंक रहित व शरीरादि रहित घ्याया जावे । (३) रूपस्थ ध्यान वह है जहां अरहंतका स्वरूप पिचार किया जावे। (४) रूपातीत ध्यान वह है जहां सिद्ध भगवानका स्वरूप ध्याया जाये । अरहंत व सिद्धके स्वरूपके द्वारा अपना ही स्वभाव ध्यानमें लिया जावे । शुद्ध सम्यग्दृष्टा जीव सर्व कामनाओंसे रहित होकर शांत स्वभावमई आत्माकी परिणतिको करनेके लिये इस तरह धर्मध्यानका अभ्यास करते हैं। सम्यक्त होने के पीछे यथाख्यात चारित्र व केवलज्ञानकी प्राप्तिके लिये ध्यानका अभ्यास जरूरी है। यद्यपि इस पंचमकालमें इस भरतक्षेत्र में शक्लध्यान व आठवां गुणस्थान नहीं होमक्ता है तथापि धर्मध्यान व सातवां गुणस्थान होसक्ता है।
जैसा श्री नागसेन मुनि तत्त्वानुशासन में कहते हैं
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श्रावकाचार
येऽवाहर्न हि कालोऽयं ध्यानस्य ध्यायतामिति । तेऽईन्मतानभिज्ञत्वं ख्यापर्यत्यात्मनः स्वयं ॥ ८॥ धरणवरण
अत्रेदानी निषेति शुक्लथ्यानं मिनोत्तमाः । धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणीभ्यां प्राविवर्तिनां ॥ ८३॥ ॥१८५॥
भावार्थ-जो कोई कहते हैं कि इस कालमें ध्यान नहीं होसका वे अईतके मतके ज्ञाता नहीं है, वे अपने अज्ञानको प्रगट करते हैं। तीर्थकरोंने इस कालमें मात्र शुक्लध्यानका निषेध किया है। श्रेणीके पहले रहनेवालोंके लिये धर्मध्यान कहा गया है। मुमुक्षुको उद्यम करके धर्मध्यानका अभ्यास करना चाहिये। श्लोक-पदस्थं पद विंदंते, अर्थ सर्वार्थ शाश्वतं ।
व्यंजनं तत्वसाथ च, पदाथ तत्र संजुतं ॥ १७८॥ अन्वयार्थ-(पदस्थं) पदस्थ धर्मध्यान (पद) पदोंको (विदते) ध्यानमें लेता है। (अर्थ) उसके भावको तथा ( सर्वार्थ शाश्वतं) अविनाशी सर्व पदार्थको विचारता है। (व्यंजनं ) शब्दको (तत्वसार्थ च) तत्व और अर्थके साथ ध्याता है (तत्र ) वहां (पदार्थ संजुतं ) पदार्थका संयोग मिलाता है।
विशेषार्थ-अक्षरोंके समूहको शब्द व शब्दके समूहको पद कहते हैं। जहां पदोंको अथवा शब्दको स्थापित करके उसके ऊपर चित्त रोका जावे, उन पदोंका व शब्दोंका क्या अर्थ है उसको विचारा जावे, उस अर्थसे जिन २ अविनाशी द्रव्योंका बोध होता हो तो उनको ध्यानमें लिया जावे, उनमेंसे त्यागने योग्यको त्यागा जावे व ग्रहण करने योग्य एक आत्मीय पदार्थको ग्रहण किया जावे। पदों या शब्दोंके आलम्बनको लेकर जहां आत्माका ध्यान किया जावे वह पदस्थ ध्यान है।
श्री ज्ञानार्णवमें कहा है:
पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते । तत्पदस्थ मतं ध्यानं विचित्रनयपारैगः ॥ १-१९ ॥
भावार्थ-योगीजन पवित्र पदोंका आलम्बन लेकर जो ध्यान करते हैं उसको अनेक नयोंके ४ ज्ञाता आचार्योंने पदस्थ ध्यान कहा है।
जैसे मंत्रराज ई शब्द है। इसका योगी कुंभक प्राणायामसे अर्थात् पवनको व मनको स्थिर करके पहले दोनों भौंहों के बीच चमकता हुआ चन्द्रमाकी ज्योतिके समान ध्यावे फिर मुखकमल में
॥१८॥
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तारणतरण
श्रावकाचार
॥१८६॥
64444444444444444448444KANP4444444444446
प्रवेश करता हुआ तालुओंके छेदसे गमन करता हुआ अमृतमय जल वर्षाता हुआ नेत्रकी पलकोपर ॐ चमकता हुआ फिर मस्तकके वालोंपर आता हुआ फिर ज्योतिषचक्रके भीतर भ्रमण हुआ फिर
चन्द्रमाके पाससे निकलता हुआ, दिशाओं में संचरता हुआ, आकाशमें उछलता हुआ, मोक्ष. स्थानको स्पर्श करता हुआ ध्यावे, फिर क्रमसे लाकर उसको भौंहोंके बीच में या नाशिकाके अग्रy भागमें विराजमान करके ध्यावे । यह मंत्रराज श्री जिनेन्द्र भगवानका च उनकी शुद्ध आत्माका बोध करानेवाला है। जैसा ज्ञानार्णवमें कहा है
मंत्रमूर्ति समादाय देवदेवः स्वयं जिनः । सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः सोऽयं साक्षाद व्यवस्थितः ॥ १२ ॥
मावार्थ-यह मंत्रराज ई सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, शांत, देवाधिदेव जिनेन्द्रको स्वयं साक्षात् बतानेवाला है, इसके ध्यानके बलसे अरहंतको ध्यावे फिर अरहंतके शुद्ध आत्माको ध्यावे, उनके शरी रादिसे लक्ष्य हटा लेवे फिर अपने शुद्धात्मापर लक्ष्य देवे, इसी तरह और भी पदोंका ध्यान करे।
श्लोक-कुज्ञानं त्रि न पश्यंते, माया मिथ्या विखंडितं ।
व्यंजनं च पदार्थ च, सार्थं ज्ञानमयं ध्रुवं ॥ १७९ ॥ अन्वयार्थ (त्रि कुज्ञानं ) तीन मिथ्याज्ञान कुमति कुश्रुत व विभंग अवधि ( न पश्यंते ) जहां न ॐ दिखलाई पड़े (माया मिथ्या विखंडित) मापाचार व मिथ्यात्वका जहां खंडन होगया हो वहां (व्यंजनं च)
शब्दको ही ( पदार्थ च) व पदके अर्थको ही (सार्थ ज्ञानमयं ध्रुवं ) ज्ञानमयी अविनाशी आत्मीक पदार्थके ४ साथ ध्यावै।
विशेषार्थ-पदस्थ ध्यानके ध्याताको सम्यग्दृष्टी होना योग्य है तब ही वह ध्यान मोक्षमार्ग है व तव ही वह धर्मध्यान है। उस ध्यान करनेवाले में कुमति कुश्रुत व कुअवधि न हो और न उसमें कोई शल्य हो न मायाचार हो न मिथ्यात्व हो और न निदान भाव हो। निर्मल सरल भाव करके ध्यान किया जावे । जिस शब्दका व जिस पदका आलम्बन लिया जावै उससे जिस पदार्थका बोध हो उसको विचारा जावे । मुख्यतासे अविनाशी ज्ञानमय आत्मापर लक्ष्य रक्खा जावे। जैसे णमो. कार मंत्रका ध्यान इसप्रकार किया जाचे-एक कमल आठ पत्रोंका हृदय में या नाभिमें या मुखमें
॥१८॥
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वारणवरण
श्रावकाचार
विचार किया जावे जो चंद्रमाके समान चमकता हुआ सफेद हो, उसकी बीचकी कर्णिकापर सात अक्षरका पद " णमो अरइंताणं" ध्यावे फिर चार दिशाओंके चार पत्रोंपर " णमो सिद्धाणं" ऊपरको, फिर बगलोंमें " णमो आइरियाणं, णमो उवझायाणं", नीचे " णमोलोए सव्यसाहूणं" फिर चार विदिशाओंके पत्रोंपर सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः, सम्पचारित्राय नमः, सम्यक्तपसे नमः, इन चार पदोंको ध्यावे। पहले इन नौ पदोंको पत्तोंपर लिखा हुआ विचार ले फिर. क्रमसे एक एकको ध्यावे-एक एक पर चित्तको रोके, उस पदके अर्थको विचारे, फिर उसके भावको विचारे । जैसे " णमो अरहताणं" में अईतोंका व तीर्थकरोंका स्वरूप विचारे, विचारते हुए उनके शरीर व पुद्गल परसे चित्त हटाकर उनके शुद्धात्मापर चित्त लेजावे फिर अपने आत्मापर आजावे । मनको जमाता हुआ ध्यावे । इसी तरह "सम्यग्दर्शनाय नमः" में व्यवहारनयसे देव, शास्त्र, गुरुका व सात तत्वोंका स्वरूप विचार जावे फिर निश्चयनयसे पुगल कर्मसे भिन्न शुद्ध आत्मापर लक्ष्य दे, फिर अपनी ही आत्मापर आजावे, इस तरह धीरे २ नौ पदोंके द्वारा अपने आत्माको ही ध्यानमें लेकर शुद्ध भावना सहित ध्यावे यह पदस्थ ध्यानका एक प्रकार है।
श्लोक-पदस्थं शुद्धपद साथ, शुद्धतत्त्व प्रकाशकं।
शल्यत्रयं निरोधं च, माया मिथ्या न दिष्टते ॥१०॥ अन्वयार्थ-(पदस्थं) पदस्थ ध्यान (शुद्धपद साथ) शुद्ध पद अर्थ सहितका होता है। (शुद्धतत्व प्रकाशकं) यह शुद्ध आत्मतत्वका प्रकाशक होता है। (शल्यत्रयं निरोध च) तीन शल्य जहां नहीं होती है (माया मिथ्या न दिष्टते) वहां माया व मिथ्यात्व दृष्टिगोचर नहीं होता है।
विशेषार्थ-शुद्ध शब्द जिसका अर्थ हो ऐसे शब्द व शब्दोंके समूह रूप पदोंको विराजमान करके पदस्थ ध्यान किया जाता है । इस ध्यानका हेतु यही होता है कि शुद्ध आस्मतत्वका अनुभव होजावे । ऐसे ध्यानीके भावों में माया मिथ्या निदान ये तीन शल्य नहीं होती हैं। वह सर्व प्रकार मायाचार व मिथ्या वासनासे रहित होकर मात्र शुद्धोपयोगके लिये पदस्थ ध्यान करता है। जैसे एक कमल हृदयस्थानमें विराजमान किया जावे उसके १६ पत्र हों उनपर १६ अक्षरी मंत्र एक एक अक्षरके क्रमसे लिखा हो वह है "अहत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यो नमः" इसका ध्यान करे
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अर्थ विचारे फिर पांचों परमेश्वीका स्वावा इस तरह और में
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फिर इसका अर्थ विचारे फिर पांचों परमेष्ठीका स्वरूप अलग २ विचार जावे फिर उनमें निश्चयनयंसे एक सुडात्माको देखे, फिर अपने शुद्ध तत्वको ध्यावे । इसी तरह और भी पदोंका ध्यान करें।
___ श्लोक-पदस्थं लोक लोकांतं, लोकालोक प्रकाशकं ।।
_व्यंजनं शाश्वतं सार्थ, ॐकारं च विंदते ॥ १८१ ॥ अन्वयार्थ-(पदस्थं ) यह पदस्थ ध्यान (ॐकारं व्यंजनं सार्थ) ॐ शब्दको अर्थ सहित (लोक लोकांतं) लोकके अंततक झलकनेवाला व (लोकालोक प्रकाशकं) लोकालोकका प्रकाश करनेवाला व (शाश्वतं) अविनाशी रूप व अविनाशी पदार्थको प्रकाशक (विंदते) ध्याता है।
विशेषार्थ-इस श्लोकमें ॐ के ध्यान करनेपर लक्ष्य दिया है। ॐ को प्रणव मंत्र कहते हैं। ॐ शब्दको ध्यान करनेवाला हृदयकमलके मध्यमें या नाशिकाकी नोकपर या भौहोंके मध्य में परम ॐ तेजस्वी, चंद्रमाके समान गौर वर्ण चमकता हुआ ध्यावे। जिसकी दीप्ति लोकके अंत तक सर्वत्र फैल
रही है ऐसा विचारे । फिर इसका अर्थ विचारे कि इसमें अरहंत आदि पांच परमेष्ठी गभित हैं। फिर उनमें से निश्चयनयसे लोकालोक प्रकाशक एक शुद्ध आत्मतत्वको ग्रहण करले। फिर अपने
आत्मापर लक्ष्य देवे। इस तरह ॐ का ध्यान करे । ॐ के द्वारा अविनाशी अपने आत्मापर आजावे। , इसी तरह अन्य पदोंका भी ध्यान करे। यह ॐ शब्द परम्परासे चला आया हुआ एक अवि. नाशी पद है।
श्लोक-अंगपूर्वं च जानते, पदस्थं शाश्वतं पदं ।
अनृतअचेत त्यकं च, धर्मध्यानमयं ध्रुवं ॥ १८२॥ अन्वयार्थ (पदस्थं शाश्वतं पदं) पदस्थ ध्यानमें नित्य चले आए हुए पदोंको विराजमान करनेसे व ध्यान करनेसे (मंगपूर्व च जानते ) ११ अंग १४ पूर्वका ज्ञान होजाता है। परन्तु वह विचार (अनृत अचेत त्यकं च) मिथ्यात्व व अज्ञानसे शून्य हो तथा (ध्रुवं धर्मध्यानमयं ) निश्चल धर्मध्यानमई हो।
विशेषार्थ-इस श्लोकमें वर्णमातृकाका ध्यान करनेका संकेत किया गया है। श्री ज्ञानार्णवके अनुसार उसकी विधि यह है कि अपनी नाभिमें १६ पत्रोंका कमल सफेद वर्णका विचार करे और
४॥१०॥
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प्रावकाचार
उनके ऊपर एक एक अक्षर पीतवर्णका इन सोलह स्वरोंमें संक्रमणसे लिख ले । अ आ इ ई उ वारणतरण ल ल ए ऐ ओ औ अं अः। इन अक्षरोंको क्रमसे पत्तोंपर फिरता हुआ विचारे । दसरा कमला ॥१९॥
अपने हृदयस्थानमें सफेद रंगका चौवीस पत्रोंका विचार करे । कर्णिकाको लेकर २५ स्थानोंपर पीले रंगके २५ अक्षर लिखे हुए विचारे । क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द धन, पक ब भ म । फिर तीसरा कमल मुख स्थानपर आठ पत्तोंका सफेद रंगका विचारे। इनके हरएक पत्तेपर
क्रमसे पीत रंगका लिखा हुआ य र ल व श ष स ह इन आठ अक्षरोंको क्रमसे घूमता हुआ विचारे। ४ ये सब अक्षर श्रुतज्ञानके मूल हैं। इनमें सर्व श्रुतज्ञान गर्भित है ऐसा अडान रखता हुआ इनको
घ्यावे । फिर विचार करे कि बादशांग वाणीका सार एक शुद्धात्मा है। इस तरह शुद्धात्मापर लक्ष्य लेजाकर फिर अपने आत्मापर आजावे। इस तरह लगातार नित्य कुछ देरतक ध्यान करे । इसका लगातार अभ्यास करनेसे शास्त्रज्ञानमें बुद्धिकी प्रबलता होती है। श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होता है और धीरे धीरे द्रव्य, क्षेत्र, काल भावानुसार वह सर्व बादशांगका जाननेवाला होजाता है। इस ध्यानसे परिणामोंकी बहुत उज्वलता होती है। इस पदस्थ ध्यानको करते हुए याताको पूर्ण श्रद्धा व निर्मल ज्ञानको रखना चाहिये । लक्ष्य शुद्धात्माका ही रखना चाहिये।
इसतरह यह पदस्थ ध्यान बहुत कार्यकारी है। इनही मंत्रोंका जप भी किया जाता है ॐ ध्यान भी किया जाता है। द्रव्यसंग्रहमें कहा है:
पणतीस सोल छ पण चदु दुगमेगं च जवह झाएह । परमेट्ठि वाचयाणं अण्णं च गुरुवएसेण ॥ भावार्थ-परमेष्टी के स्वरूपको बतानेवाले ३५ आदि सात प्रकारके मंत्रोको जपो और ध्यावी। और भी मंत्रोंको गुरुसे जानकर जपो और ध्याओ।
वे सात प्रकार मंत्र हैं
(१) ३५ अक्षर-णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आहरियाणं, नमो उवमायाणे, ४ णमो लोए सब्यसाहूर्ण।
१६ अक्षर-"अहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः। ६ अक्षर-अरहत सिद्ध ।
॥१८९
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॥१९॥
५ अक्षर-अ सि आ उ सा । ४ अक्षर-अरहंत । २ अक्षर-सिख अथवा ॐ हीं।
१ अक्षर-ॐ।
जप करने में बहुधा १०८ दफे जपना चाहिये । मालामें १०८ दाने तो मंत्रके जापके लिये होते ॐ हैं व तीन दाने ऊपरके सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्परज्ञानाय नमः, सम्यक्चारित्राय नमः, इस रत्नत्र-2 यधर्मके वाचक होते हैं। इनको जप लेना चाहिये । इस तरह पदस्थ ध्यानका कुछ स्वरूप कहा है।
श्लोक-पिंडस्थं ज्ञान पिंडस्य, स्वात्मचिन्ता सदा बुधैः ।
निरोधं असत्यभावस्य, उत्पायं शाश्वतं पदं ॥ १८३ ॥
आत्मा सदभाव आरक्तं, परद्रव्यं न चिंतये ।
ज्ञानमयो ज्ञानपिंडस्य, चिंतयंति सदा बुधैः ॥१८४ ॥ अन्वयार्थ-(पिंडस्थं ) पिंडस्थ ध्यान (ज्ञान पिंडस्य ) ज्ञान समूहरूप आत्माका ध्यान है (बुधैः) बुद्धिमानोंके द्वारा (सदा) निरंतर (स्वात्मचिंता) अपने आत्माका ध्यान करना योग्य है ( असत्यभावस्य ४ निरोध) असत्य भावोंको रोकना योग्य है (शाश्वतं पदं उत्पाद्यं) अविनाशी मोक्षपद पाना योग्य है। (आत्मा) यह आत्मा (सदभाव आरक्तं) अपने ही सत्स्व भावमें लवलीन होजावे (परद्रव्यं न चिंतये) पर द्रव्यकी चिंता न की जावे । (बुधैः) पंडितोंके द्वारा (ज्ञानमयो ज्ञानपिंडस्य चिंतयंति) ज्ञानमई ज्ञान धन आत्माका ही चितवन है।
विशेषार्थ-पिंडस्थ ध्यान अपने पिंड अर्थात् शरीरमें विराजित आत्माका ध्यान कहा जाता है, जहां अपने आत्माका द्रव्य दृष्टिसे सतरूप शुद्ध स्वभावका ध्यान किया जाय, क्षणभंगुर कर्मजनित सर्व पर्यायोंसे ध्यान हटा लिया जावे न परद्रव्यकी चिंता की जावे। अपने ही आत्माको छोडकर अन्य आत्माओंकी व पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, कालकी चिंता न की जावे। ज्ञान धन अपने आत्मामें तन्मय हुआ जावे । यह पिंडस्थ ध्यान अविनाशी मोक्षपदका कारण है।
४॥१९॥
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V.श्रावकाचार
श्री ज्ञानार्णव व अन्य ग्रंथों के अनुसार इस पिंडस्थ ध्यानकी पांच धारणाएं हैं जिनका क्रमसे तारणतरण
र ध्याना योग्य है। एक एकका अभ्यास कुछ काल तक करता रहे। वे धारणाएं हैं (१) पार्थिवी, (२)
आग्नेयी, (३) मारुती, (४) वारुणी, (५) तत्त्वरूपवती । मारुतीको पवन व वारुणीको जलधारण भी कहते हैं।
(१) पार्थिवी धारणा-ध्यान करनेवाला इस सर्व मध्यलोकको निर्मल क्षीरसमुद्र सफेद जलसे भरा विचारे । इसके मध्य में ताए हुए सोनेके समान एक हजार पत्रवाला कमल एक लाख योजन चौडा जम्बुद्धीपके समान विचार करे, फिर इस कमलके मध्यकी कार्णिकामें पीत रंगका सुमेरुपर्वत चितवन करे।
फिर उस पर्वतके ऊपर पांडक शिलापर एक स्फटिकमणिका सफेद सिंहासन विचारे तथा उसके ऊपर देखे कि आप स्वयं पद्मासन सुखरूप, शांतस्वरूप, क्षोभ रहित कर्मोंको दग्ध करने के लिये बैठा है तथा यह अद्धान व उत्साह रक्खे कि यह आत्मा रागद्वेषादि सर्व कलंकोंको तथा कोंको नाश कर सक्ता है इतना ध्यान जमाना सो पार्थिवी धारणा है।
(१) आग्नेयी धारणा-यह ध्यानी वहीं सिंहासनपर बैठा हुआ अपने नाभि मण्डल में ऊपरको उठा हुआ सोलह व्रतोंका एक सफेद कमल विचार करे । इसके हरएक पत्रपर पीत रंगके सोलह स्वर अक्षरोंको लिखा हुआ सोचें "अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल लू ए ऐ ओ औ अं अ" और कमलके बीचमें कर्णिकाके स्थानमें महामन्त्रको स्थापन करले। फिर दूसरा एक कमल हृदयमें आठ पत्तोंका
अधोमुख पहले कमल के ऊपर चिंतवन, करे। इन आठ पत्तोंमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, * मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अंतराय इन आठ कर्मोंको स्थापित करे । फिर यह सोचे कि नाभि
कमलके मध्य में स्थित है के रेफसे मंद मंद धुंआ निकला फिर ज्वाला प्रगटी, लपक बढी और वह हृदय में स्थित आठ कर्मरूपी कमलको जलाने लगा। इस अग्निकी शिखा इस हृदयकमलके मध्यमेंसे ऊपर मस्तकपर आगई तथा उसकी शिखा शरीरके दोनों तरफ चली गई फिर नीचे जाकर मिल गई। शरीरके चारों तरफ अग्निमय त्रिकोण बन गया ऐसा विचारे। इस त्रिकोणकी तीनों लकीरोंको र र र र से व्याप्त विचारे । र अग्निका बीजाक्षर है फिर सोचे कि इस त्रिकोणके तीन बाहरी कोनों.
REGREENSEKAKKARKRREFERE
॥१९
॥
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श्रावकाचार
वारणतरण
॥१९॥
LAGAKARMAGARMAKAL
पर अग्निमय तीन साथियें बने हैं तथा भीतरी कोनोंपर तीनों जगह ॐ अग्निमय स्थापित हैं। इन अग्निमें लपके उठती ईई विचारे परन्तु धुंआ नहीं है। ऐसा अग्निका मंडल बाहर शरीरको, भीतर आठ कर्मको जलाता जलाता दोनोंको भस्म रूपमें करता हुआ धीरे २ शमन होता है और अग्निकी शिखा हैके रेफसे उठी थी उसीमें समा जाती है ऐसा वारवार ध्यान करना आग्नेयी धारणा है।।
(क)मारती धारणा-वही ध्यानी ऐसा चितवन करे कि आकाशमें पूर्ण एक प्रचण्ड पवन चल रही है जो मेघोंको वखेर रही है, समुद्रको क्षोभित कर रही है, दशों दिशाओं में फैल रही है तथा मेरे चारातरफ एक गोल मण्डल बनाकर घूम रही है। उस गोल मण्डल में सब ओर पवनका बीजाक्षर स्वाय स्वाय लिखा हुआ विचारे । फिर यह सोचे कि यह पवन जो कर्मकी तथा शरीरकी भस्म थी उसको उडा रही है ऐसा वारवार चिंतवन करना सो पवन धारणा है।
(४) वारुणी धारणा-वही ध्यानी विचारे कि आकाशमें काले २ मेघोंके समूह छागए हैं, बादल गर्ज रहे हैं, विजली चमक रही है, उनसे मोती समान उज्वल जलकी धारा वरष रही है, लगातार जलकी वर्षासे यह अर्धचन्द्राकार जलका मंडल अपने ऊपर बन गया है उसपर हर जगह जलका बीजाक्षर प प प प लिखा हुआ है। यह धारा आत्माको घो रही है। जो कुछ कर्मकी व शरीरकी रज शेष रह गई थी उसको यह जलधारा वहा रही है ऐसा वारवार चिंतवन करें।
(५) तत्व रूपवती धारणा-फिर वही ध्यानी अपनेको सर्व शरीर व कर्म व राग दोष रहित पुरुषाकार अमूर्तीक शुख निरंजन सिद्ध समान चितवन करे और निश्चल रूपमें अपने आपमें तन्मय हो आत्मानुभव करे, यही असल में पिंडस्थ ध्यान है। चार जो धारणाएं हैं वे इस ही भात्माकार परिणति करने के लिये सहायक हैं।" यह ध्यान मोक्षके अविनाशी सुखको झलकानेवाला है। श्लोक-रूपस्थं सर्व चिद्रूपं, अधो ऊर्ध्वं च मध्ययं ।
शुद्धतत्त्वे स्थिरी भूत्वा, ह्रींकारेन जोइतं ॥ १८५॥
४॥१९॥
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वारणवरण
॥१९॥
चिद्रूपं सुय चिदरूपं, धर्मध्यानं च निश्चयं । मिथ्यात्व रागमुक्तस्य, अमलं निर्मलं ध्रुवं ॥ १८६ ॥ रूपस्थं अर्हत् रूपेण, ह्रींकारेण दिष्टते।
ॐकारस्य ऊर्ध्वस्य, शुद्धं ऊर्ध्वमयं ध्रुवं ॥ १८७॥ अन्वयार्थ-(रूपस्थं ) रूपस्थ ध्यानमें यह विचारे कि (सर्व चिद्रूपं ) सर्व चैतन्यका स्वभाव अर्हत् ४ भगवानकी आत्मामें (अषो ऊध्वं च मध्ययं) नीचे ऊपर मध्य सर्व ठौर है (शुद्धतत्वे स्थितीमत्वा) वे अईत भगवान शुद्ध आत्मधर्ममें लीन हैं (हींकारेन) ही बीजाक्षरसे (जोइतं ) देखने योग्य हैं। (चिपं) चैतन्यका स्वभाव (सुय चिद्रूप) श्रुतज्ञानके द्वारा जाना हुआ चैतन्यका रूप है। (च निश्चयं धर्मध्यानं ) व यही निश्चय धर्मध्यान है। (मिथ्यात्व रागमुक्तस्य) जिसके ऐसा ध्यान होता है वह मिथ्यात्व व रागादि
भावोंसे मुक्त होजाता है उसके ध्यानमें (अमलं) मल रहित (निर्मल) निर्मल शुद्ध (ध्रुवं) अविनाशी ४ आत्मतत्व है। (रूपस्थं) यह रूपस्थ ध्यान (महंत रूपेण ) अईत् भगवानके स्वरूपके द्वारा होता है।
(हींकारेण ) ही बीजाक्षरके द्वारा (दिष्टते) दिखलाई पडता है (ॐकारस्य ऊर्च ) ॐ के ऊपर जो विरा-४ जित है वह (शुद्ध) शुद्ध आत्मा (ऊध्र्वमयं) सबसे श्रेष्ठ व (ध्रुव) अविनाशी है ऐसा ध्यानमें झलकता है।
विशेषार्थ-यहां तीसरे रूपस्थ ध्यानका स्वरूप है। रूपस्थ ध्यानमें श्री अरहंत भगवानका स्वरूप ध्यानमें लेकर शुद्धात्माकी तरफ लक्ष्य देना चाहिये। पहले तो अरहंत भगवानको समवसरण में बारह सभाओं के साथ विचार करे। श्री मंडपके भीतर १२ समाओं में चार प्रकारकी देवियां चार सभाओं में, चार प्रकारके देव चार सभाओंमें, एक सभामें मुनि, एक सभामें आर्जिका, एक सभामें मानव, एक सभामें पशु इस तरह भगवानको शांतरूप बैठे हुए सोचे । इन्द्रादि देव व बडे चक्रवर्ती आदिक भगवानकी पूजा व स्तुति कर रहे हैं ऐसा देखे, फिर यह देखे कि अरहंत भगवान परम
शुद्ध सप्त धातुसे रहित अंतरीक्ष पदमासन ध्यानाकार विराजमान हैं, परम गंभीर हैं, इंद्रियोंके ॐ विजयी हैं, अद्यान्मीलित नेत्रोंसे अंतरंग तत्वको देख रहे हैं, परम वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं, जिनके , ज्ञान दर्पणमें सर्व लोकालोक प्रकाशमान है, जो परमानन्दमें मग्न हैं। सर्व इच्छासे शून्य हैं, कृतकृत्य
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तारणतरण ॥ १९४ ॥
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हैं, जो रत्नमय सिंहासनपर चार अंगुल ऊंचे शोभायमान हैं, जिनकी दिव्यध्वनि से धर्मामृतकी वर्षा होती है । जिनके शरीरकी आभाका मंडल तारों तरफ छाया हुआ है, जिसकी दोति सूर्य चंद्रमाको जीतनेवाली है, रत्नत्रय स्वरूप तीन छत्र जिनके ऊपर शोभायमान हैं। इसकी पंक्ति के समान उज्वल चमरोंके समूह दोनों तरफ दुर रहे हैं, दिव्य पुष्पोंकी वृष्टि होरही है, देवों द्वारा दुंदुभि बाजे बज रहे हैं, भगवानके पीछे अशोक वृक्ष शोभायमान है । इस तरह आठ प्रातिहायोंके द्वारा भगवान शोभनीक हैं । जिनकी आत्मामें नौ केवल लब्धियां विराजित हैं । अर्थात् १ अनंतज्ञान, २ अनंतदर्शन, ३ अनंतदान ४ अनंतलाभ, ५ अनंत भोग, ६ अनंत उपभोग, ७ अनंत वीर्य, ८ क्षाधिक सम्पक्त, ९ क्षायिक चारित्र । जो अर्हत भगवान समतारसमें या परम अद्वैतभाव में मग्न हैं, परम योगीश्वर हैं, परम वीर हैं, क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित हैं, परम दयालु, सर्व प्राणीमात्र के रक्षक, परम शांत, शुद्धात्मीक परिणतिमें तल्लीन हैं ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य नियमसारमें अर्हतका स्वरूप कहते हैं
क्षुतण्डभीरुरोसो, रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिद्धू । स्वेदं खेद मदो रइ विह्नियणिद्दा जणुव्वेगो ॥ ६ ॥ णिस्सेस दोसर हिलो, केवलणाणाइपरम विभवजुदो । परमप्पा उच्चर, तव्विवरीओ ण परमप्पा ॥ ७ ॥
भावार्थ- जो अईत भगवान क्षुधा, तृषा, भय, क्रोध, राग, मोह, चिंता, जरा, रोग, मरण, पसीना, खेद, मद, रति, आश्चर्य, निद्रा, जन्म, आकुलता ऐसे अठारहको लेकर अन्य सर्व दोषोंसे रहित हैं, केवलज्ञानादि विभव सहित हैं, यही पूजने योग्य अईत् परमात्मा हैं, इसके विपरीत कोई देव परमात्मा नहीं है । ऐसे अर्हतको सर्वांग शुद्ध चिद्रूपमय शुद्ध आत्मतत्वमें स्थित ही मंत्र द्वारा विचारना चाहिये अर्थात् ह्रींमें २४ तीर्थंकर गर्भित हैं, ह्रीं मंत्र को कहते हुए भी हम अरहंतका स्वरूप विचार सके हैं जिससे उपयोग और तरफ नहीं जावे, तथा के मंत्र को भी कहते हुए विचार सते हैं । ॐ के ऊपर जो अर्धचंद्राकार है वह सिद्धक्षेत्रका नमूना है । वहां उत्कृष्ट सिद्ध भगवान निश्चल विराजते हैं । वैसा ही शुद्ध आत्मा अतके भीतर है। चार अघातिया कर्म मात्र पुद्गलमध रजतुल्य हैं । उनके भीतर सिद्धवत् शुद्धात्मा विराजित हैं, ध्यान करनेवाला मिथ्यात्वभाव व सांसारिक भोगादिका सर्व राग स्यागकर ध्रुव व निर्मल अईनकी शुद्धात्मा पर लक्ष्य देवे । फिर अपने ही
श्रावकाचार
॥१९४॥
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श्रावन
चर
कारणवरण
॥१९५॥
आस्माके स्वाभाविक शुद्ध स्वरूप पर आजावे । इसतरह रूपस्थ ध्यानके द्वारा निश्चय धर्मध्यान करे। V अर्थात आत्मानुभवका आनन्द लेवे। श्रुतज्ञानके भाधारसे अरइंतका व अरहंतकी शुद्ध आत्माका स्वरूप विचार करे। श्लोक-रूपातीत व्यक्त रूपेन, निरंजन ज्ञानमयं ध्रुवं ।
मतिश्रुतअवधिं दिष्टं, मनपये केवलं ध्रुवं ।। १८८॥ अनंत दर्शनं ज्ञानं, वीर्यानंत सौख्ययं ।
सर्वज्ञ शुद्ध द्रव्याथ, शुद्धं सम्यक् दर्शनं ॥ १८९ ॥ अन्वयार्थ-रूपातीत ) रूपातीत ध्यान (व्यक्तरूपण) प्रगट रूपसे (निरंजन ) कर्म मैलसे रहित (ज्ञानमयं ध्रुवं ) ज्ञान स्वरूप अविनाशी आत्मा होता है जहां (मतिश्रत अववि मनपर्ये केवलं ध्रुवं दिष्टं) मति, श्रुत, अवधि, मनापर्यय तथा केवलज्ञान ये पांचों ही एक रूप नित्य दिखलाई पड़ते हैं (अनंत दर्शनं ज्ञानं वीर्यानंत सौख्यय) अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य व अनंत सुखमई है (सर्वसँ) सर्वज्ञ हैं (शुद्ध द्रव्या) शुद्ध भास्म पदार्थ है (शुद्धं सम्यक् दर्शनं ) यही शुद्ध सम्यग्दर्शन है।
विशेषार्थ-रूपातीत ध्यानमें पहले तो मूर्तीक रूप रहित सिद्ध भगवानके गुणोंका विचार करके ध्यान करे फिर सिर समान अपने आत्माका यथार्थ स्वरूप निश्चय नयसे ध्यानमें लेकर ध्यावे अर्थात् परमात्मा और अपने आत्माका भेदभाव मिटाकर अपने आत्मामें एक होजावे। श्री सिद्ध भगवान रूपातीत हैं, प्रगट रूपसे आठ कर्मरूपी अंजनसे रहित है, ज्ञानाकार हैं, अविनाशी हैं, उनमें मतिश्चत आदि पांच ज्ञानोंक विकल्प नहीं हैं। एक शुद्ध ज्ञानई हैं जो ज्ञान सदा ध्रुव रहता है। अनंतदर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य इन चार अनंत चतुष्टय सहित हैं। वे ही सर्वज्ञ है, शुद्ध आत्मद्रव्य हैं, शुद्ध सम्यग्दर्शन स्वरूप है। अर्थात् जहां क्षायिक सम्यग्दर्शन परम शुद्ध प्रकाशमान है। वे सिद्ध लोकाग्र पुरुषाकार ध्यानमय आत्मानन्दमें मगन परमानंद स्वरूप स्वात्मा. मृतका पान करते हुए निश्चल स्फटिककी मूर्तिके समान शोभायमान हैं, ऐसा ध्यानमें लेकर उनका चितवन करता हुआ अपने आत्मामें आजावे व शुद्ध निश्चयनयसे अपने आपको सिरवत् ध्यावे।
V॥१९५॥
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वारणवरण
॥१९६॥
जैसा ज्ञानार्णवमें अध्याय ४० में कहा है
सोऽहं सकलवित्सार्वः सिद्धः साध्यो भवच्युतः । परमात्मा परंज्योतिर्विश्वदर्शी निरंजनः ॥ २८ ॥ तदासौ निश्चलोऽमुर्त्ती निष्कलंको जगद्गुरुः । चिन्मात्रो विस्फुरत्युच्चैर्ध्यानध्यातृविवर्जितः ॥ १९ ॥ भावार्थ — जैसे सिद्ध भगवान हैं वैसे मैं हूँ। मैं ही सर्वज्ञ हूं, ज्ञानापेक्षा सर्व व्यापक हैं, सिद्ध स्वरूप हूं, मैं ही साध्य हूं, संसार से रहित हूं, परमात्मा हूं, परं ज्योतिमय हूं, सकलदर्शीीं हूं, मैं ही सर्व अंजनसे रहित निरंजन शुद्ध हूं, ऐसा ध्यान करे तब अपना स्वरूप निश्चल, अमूर्तीक, कलंक रहित, जगत् में श्रेष्ठ, चैतन्य मात्र, ध्यान ध्याताके भेद रहित ऐसा अतिशयरूप प्रकाशमान होता है । टथग्भावमतिक्रम्य तथैक्यं परमात्मनि । प्राप्नोति स मुनिः साक्षाद्यथान्यत्वं न बुध्यते ॥ १० ॥
भावार्थ-तब वह मुनि परमात्मा से अपने आत्माका भिन्नभाव उल्लंघन करके एकपनेको साक्षात् प्राप्त होजाता है, ऐसा कि वहां भिन्नपनेका बिलकुल भान नहीं रहता है । अर्थात् स्वयं परमात्मभाव में तन्मय होजाता है। मैं एक केवल शुद्ध आत्मा हूं, ऐसा ध्यान करते हुए परम अद्वैत स्वानुभवमें स्थिर होजाता है । यह परमानन्दमई रूपातीत ध्यानका स्वरूप है ।
सम्यग्दर्शन महात्म्य |
श्लोक – प्रतिपूर्ण शुद्ध धर्मस्य, अशुद्ध मिथ्यातिक्तयं ।
शुद्ध सम्यक् संशुद्धं, सार्थं सम्यग्दृष्टितं ॥ १९० ॥
अन्वयार्थ – (शुद्ध धर्मस्य प्रतिपूर्ण ) शुद्ध धर्म से जो भरा हुआ है । (अशुद्ध मिथ्यातिकयं ) अशुद्ध व मिथ्याभाव से जो रहित है ( सार्थ सम्यग्दष्टितं ) जहां आत्म पदार्थको यथार्थ स्वरूप सहित भलेप्रकार अनुभव किया जाता है वही ( संशुद्धं शुद्ध सम्यक्त ) परम शुद्ध क्षायिक सम्यग्दर्शन है ।
विशेषार्थ – यहां भाव निक्षेपसे सम्यग्दर्शनका स्वरूप है। जहां शुद्ध आत्माके शुद्ध व पूर्ण स्वभावका अनुभव किया जाता है। जहां न तो किसी प्रकारकी अशुद्धता है न कोई मिथ्यात्वका भाव है । शुद्ध आत्माका सम्पक् प्रकार मानो दर्शन जहां होरहा है, परम रुचि सहित आत्मामें
श्रावकाचार
12021
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सारणवरण
श्रावका
॥१९७॥
भाप तन्मय है। यही भाव शुद्ध व क्षायिक सम्यग्दर्शन है। निश्चयसे विचारा जावे तो यह आत्मा स्वयं जव सर्व विकल्पोंसे रहित होता है, आप आपमें थिर होता है, स्वसंवेदन ज्ञानमय या स्वानुभव रूप होता है तब वहां रत्नत्रयकी एकतारूप साक्षात् मोक्षमार्ग है । वहा शुद्धात्माकी रूचि भी है, उसीका ज्ञान भी है, उसीका चारित्र भी है। उसीको शुद्ध सम्यग्दर्शन, उसीको शुद्ध सम्यग्ज्ञान व उसीको शुद्ध सम्यग्चारित्र कह सकते हैं। वास्तव में वह तीनोंका अखण्ड पिंड एकीभावरूप मोक्षमार्ग है। ऐसा ही अमृतचन्द्राचार्य तत्वार्थसारमें कहते हैं
आत्मा ज्ञातृतथा ज्ञानं सम्यक्तं चरितं हि सः । स्वस्यो दशनचारित्रमोहाभ्यामनुपप्लतः ॥ ७॥
पश्यति स्वस्वरूपं यो मानाति च चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः ॥ ८-८॥
भावार्थ-आत्मा ही जाना गया ज्ञान है, वही जब दर्शनमोह और चारित्रमोहके मैलसे प्रवाधित है तब सम्यग्दर्शन है और सम्यक्चारित्र है । जो अपने ही स्वरूपका अडान, ज्ञान व चरण करता है ऐसा आत्मा ही दर्शन ज्ञान चारित्रमई कहा गया है। वास्तवमें शुद्ध सम्यक्त आत्माका ही एक अमिट अखंड गुण है।
श्लोक–देवगुरुधर्मशुद्धस्य, सार्थ ज्ञानमयं ध्रुवं ।
मिथ्या त्रिति विनिर्मुक्तं सम्यक्तं सार्थ ध्रुवं ॥ १९१ ॥ अन्वयार्थ-(देव गुरु धर्मशुद्धस्य) शुद्ध देव, शुद्ध गुरु, व शुद्ध धर्मका (सार्य) अर्थ सहित (ज्ञानमय) ज्ञानमय (ध्रुव) निश्चल अडान (मिथ्या त्रिति विनिर्मुक्त) तीन मिथ्यावसे रहित (सार्थ ध्रुवं सम्यक्त) अर्थ सहित निश्चल सम्यग्दर्शन है।
विशेषार्थ-यहां बताया है कि जिसको शुद्धास्माका अनुभव सम्यग्दर्शन प्राप्त है उसे निदोष देव, गुरु, धर्मकी भी श्रद्धा है। वह श्रखा ज्ञानमई अटल है। इसका भाव यह है कि वह सम्पत्ती व्यवहारनयसे तो श्री अरहंत व सिद्ध भगवानको अपना पूज्य देव व निग्रंथ आचार्य, उपाध्याय व साधुको अपना पूज्य गुरु व रत्नत्रयमई धर्मको पूज्य धर्म मानता है, निश्चयसे अपने ही शुद्धात्माको देव, खसीको गुरु व उसीकी परिणतिको धर्म जानता है। अथवा अरईत मिडमें जो ज्ञान स्वरूप निश्चल आत्मद्रव्य है उसीको शुद्ध देव मानता है तथा आचार्य उपाध्याय साधुमें जो उनका शुद्धात्मा
॥१९॥
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कारणवरण
* है उसे ही शुद्ध गुरु जानता है तथा रत्नत्रयमें एक अभेद रत्नत्रयमई स्वात्मानुभूतिको ही शुद्ध धर्मश्रावकाचार
मानता है। जिसको यथार्थ देव, गुरू, धर्मका व्यवहारनय व निश्चयनयसे यथार्थ अडान है वही Y सम्यग्दर्शन है। जहां मिथ्यादर्शनका, सम्यक्त मिथ्यात्व प्रकृतिका तथा सम्यक्त प्रकृतिका इन तीनों क्षायिक सम्यक्तकी घातक दर्शन मोहनीयकी प्रकृतियोंका उदय नहीं है, किंतु इन तीनोंका सत्तामें से नाश हो, साथमें अनन्तानुबन्धी चार कषायका भी नाश होगया है। यही निश्चय यथार्थ सम्यग्दर्शन है। वास्तवमें जिसे निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त है वही सचे देव, गुरु, धर्मको पहचानता है तथा वही अपने आत्माको जानता है। उसकी रूचि में एक स्वारमानुमति है। वही उसे देव, गुरु व धर्मके भीतर भी झलक रही है। ___ श्लोक-देवं देवाधिदेवं च, गुरु ग्रंथस्य मुक्तयं ।
धर्मस्य शुद्ध चैतन्यं, साथ सभ्यक्तं ध्रुवं ॥ १९२ ।। अन्वयार्थ-(देवाधिदेवं च देवं) देवों के देव श्री अरहंत सिद्ध भगवान तो देव हैं (ग्रंथस्य मुक्तयं गुरु) ग्रंथ अर्थात परिग्रह रहित गुरु हैं (शुद्ध चैतन्यं धर्मस्य) शुद्ध चेतनाका भाव धर्म है इन तीनोंका श्रद्धान करना (सायं सम्यक्तं ध्रुव) यथार्थ निश्चल सम्यग्दर्शन है। . विशेषार्थ-इंद्रादिक देव जिनके चरणोंको नमन करते हैं, जो सर्वसे महान तीनलोकमें श्रेष्ठ हैं वे ही पूज्यनीय देव श्री अरहंत और सिद्ध भगवान हैं। उनमें न तो कोई अज्ञान है और न कोई कषाय है, जो संसारी जीवों के भीतर कम व अधिक पाए जाते हैं। ऐसे ही देवके भीतर सम्यकीकी दृढ श्रद्धा रहती है। गुरु वे ही हैं जो निग्रंथ हों। जिनके ग्रन्थ अर्थात् ममताका कारण चौवीस प्रकारका परिग्रह न हो। मिथ्यादर्शन, क्रोध, मान, माया, लोम, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद,नपुंसकवेद ये चौदह प्रकार अन्तरंग और क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण, दासी, दास, कपडे, वर्तन यह १० प्रकारके बाहरी परिग्रह होते हैं। इनसे साधुकी ममता नहीं होती है। इनमें बाहरी परिग्रह तो छोडने योग्य है, बुद्धिपूर्वक दूर किया जासकता है। अंतरंग परिग्रहमें जिन कषायोंका उदय नहीं है वे तो नहीं होना संभव है, परंतु जिनका उदय साधु अव. स्था में होना संभव है उन कषायोंसे भी साधु निर्ममत्व है। परिग्रह पोटकी चोरको बचाकर जो
V॥१९॥
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कारणवरण
श्रावकाचार
॥१९९॥
नित्य आत्मध्यानकी अग्निको जलाकर कर्माके दग्ध करने में उत्साह सहित उद्यमवान हैं वे ही सचे मक्षमार्ग प्रदर्शक मुरु हैं। शुद्ध चेतनाका स्वभाव ही धर्म है। आत्माका स्वभाव जो शुद्ध ज्ञान दर्शन सुख वीर्यमय है उसी स्वभावमें श्रद्धा ज्ञान सहित तन्मय होजाना धर्म है। ऐसे देव, गुरु, व धर्मका श्रद्धान करना वही यथार्थ सम्यक्त है। इनमें से एक शुद्धात्माकी निर्विकल्प परिणति ही ग्रहण करने योग्य है ऐसी श्रद्धा सो निश्चय सम्यक है।
श्लोक-सम्यक्तं यस्य जीवस्य, दोषं तस्य न पश्यते ।
तत्व सम्यक्त हीनस्य, संसारे भ्रमनं सदा ॥ १९३ ॥ अन्वयार्थ-यस्य जीवस्य सम्यक्त) जिस जीवके पास सम्यग्दर्शन है (तस्य ) उसके पास (दोष न पश्यते) कोई दोष नहीं देखा जाता है (तस्य सम्यक्त हनिस्य) जिसके पास यथार्थ सम्यग्दर्शन नहीं है (सदा संसारे भ्रमनं ) उसका इस संसारमें सदा ही भ्रमण रहने वाला है।
विशेषार्थ—सम्यग्दर्शनका महात्म्य अपूर्व है। यथार्थ निश्चय सम्यग्दर्शन जिसके होगा वह शुद्धात्मानुभवकी शक्तिको प्राप्त कर लेगा। उसको आत्माका स्वाद मिल आयगा। आत्मिक आनंद अमृतके तुल्य है, विषयसुख विष तुल्य है, ऐसा अनुभव उसकी श्रद्धा होजाता है। वह ज्ञान वैराग्यसे परिपूर्ण होता है। उसका हरएक कार्य विरेक पूर्वक होता है। वह सम्यक्ती पचीस दोषोंको टालता हुआ वर्तन करता है, इसलिये निदोष व्यवहार करता है । वह बडा दयावान, परोपकारी, मिष्टवादी, शांत प्रकृति धारी, धर्मप्रेमी, नास्तिकता रहित होता है। यथार्थ तत्वको वह स्वयं अनुभव करता है तथा दूसरोंको वह तत्वज्ञानके मार्गमें प्रेरक होता है । वह संसारकी मायाको नाशवंत समझकर इसके लिये अन्याय नहीं करता है। परन्तु जिसके यह आत्मानुभव रूप यथार्थ तत्व ज्ञानमय सम्यग्दर्शन नहीं होता है वह विषयवासना सहित जीव व्यवहार धर्म व तप आदिको पालन करता है तौभी संसारसे कभी पार नहीं होसक्ता, स्वर्गादि जाकर भी फिर एकेन्द्रिय व पशु पर्यायमें जन्म लेलेता है। वह शरीरका मोही शरीरको वारवार धारण किया करता है।
श्लोक-सम्यक्तं यस्य हृदये, व्रत तप क्रिया संयुतं ।
२९९॥
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तारणतरण
+H
॥२०॥
IN..
शुद्धतत्वं च आराध्यं, मुक्तिगमनं न संशयः॥ १९४ ॥
४श्रावास अन्वयार्थ (यस्य हृदये ) जिसके हृदय में (सम्यक्त) सम्यग्दर्शन है तथा वह (व्रत तप क्रिया संयुतं) बत, तप, क्रिया सहित है (च) और (शुद्ध तत्वं आराध्यं) शुद्ध आत्मीक तत्वका आराधन करता है तो वह (मुक्तिगमनं) मुक्ति अवश्य पायगा (न संशयः ) इसमें कोई संशय नहीं है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनके समान कोई उपकारी नहीं है। जो श्रावक तथा मुनिके चारित्रको सम्यग्दर्शन सहित यथायोग्य पालेगा और निरंतर जिसका उद्योग आत्मध्यानकी तरफ रहेगा अर्थात् जो आत्मानुभवके ही लिये योग्य निमित्तोंको मिलाने के लिये व अयोग्य निमित्तोंके हटानेके लिये व्यवहार चारित्र पालेगा वह महात्मा यदि काललब्धि हुई व शरीर संहनन योग्य हुआ तो उसी जन्मसे निर्वाण लाभ करेगा। अन्यथा दो चार दश भवके भीतर मोक्ष चला जायगा। सम्यग्दर्शन वास्तवमें खेवटिया है। जैसा रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहा है
दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शन कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ॥१॥ भावार्थ-मोक्षके मार्गमें सम्यग्दर्शनको खेवटिया कहा जाता है। ज्ञान चारित्रकेद्वारा सम्यग्दर्शनकी उपासना की जाती है अर्थात् शुद्ध आत्मीक अनुभव किया जाता है। सारसमुच्चयमें कहते हैं
अतीतेनापिकालेन यन्न प्राप्तं कदाचन । तदिदानीं त्वया प्राप्तं सम्यग्दर्शनमुत्तमम् ॥ ४६॥
भावार्थ-गत काल में जिसको कभी नहीं पाया था ऐसा उत्तम सम्यग्दर्शन अब प्राप्त हुआ है। ४ यह बड़ा ही दुर्लभ लाभ है । इसलिये इसकी रक्षा करके इसके सहारे संसार-सागरसे पार हो ४
जाना चाहिये।
सम्यग्दृष्टीका आचरण। श्लोक-लिङ्गं च जिनं प्रोक्तं, त्रितय लिङ्गं जिनागमे ।
उत्तम मध्यम जघन्यं च, क्रियात्रेपण संयुतं ॥ १७५ ॥
॥2.00
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बारनवरण १२.१॥
उत्तमं जिनरूपी क, मध्यमं च मतं श्रुतौ। जघन्यं तत्व साधं च, अविरत सम्यक् दृष्टितं ॥ १९६ ॥ लिङ्ग त्रिविधि प्रोक्तं, चतुर्थलिक न उच्यते ।
जिनशासने प्रोक्तं च, सम्यग्दृष्टि विशेषतः ॥ १९७ ॥ अन्वयार्थ (मिनागमे) जिन आगममें (मिमं प्रोक) जिनेन्द्र भगवानके कहे गए (किंग प्रितम निंग) लिंग तीन (उत्तम मध्यम जपन्य च) उत्तम लिंग, मध्यम लिंग, व जघन्य लिंग (क्रियात्रेयण संयुतं) यह यथायोग्य त्रेपन क्रियासे संयुक्त होते हैं (उत्तम मिनरूपी च) उत्तम लिंग जिनेन्द्रका स्वरूप नग्न दिगंबर वस्त्रादि परिग्रह रहित है (मध्यमं च श्रुती मतं) मध्यम लिंग शास्त्रमें कहा हुआ श्रावकका लिंग है। (मपन्य तु) जघन्य लिंग (तत्व सार्ष) तत्वबोध सहित (अविरत सम्यग्दृष्टितं ) अविरत सम्यग्दृष्टिका लिंग है। (निविर्षि लिंग प्रोक्तं ) तीन प्रकार ही लिंग कहा गया है (चतुर्व किंग न उच्यते) चौथा लिंग नहीं कहा गया है(विशेषतः ) विशेष करके (निनशासने) जिन शासनमें (सम्यग्दृष्टि) सम्यग्दृष्टिको (प्रोक्तं च) कहा गया है।
विशेषार्थ-मोक्षमार्गमें रत्नत्रयके साधमकी अपेक्षा तीन श्रेणी है-एक महावती साधुकी दसरे श्रावककी तीसरे मत रहित सम्यक्पष्टीकी, चौथी श्रेणी नहीं है। इनमें सम्यग्दर्शनकी विशेषता इसलिये है कि इसके विना प्रावक व साधु सखा श्रावक व साधु नाम नहीं पाता है। अविरत
सम्यग्दर्शन चौथा गुणस्थान है, यहांसे स्वरूपाचरण चारित्र या स्वानुभव प्रारम्भ होजाता है। फिर * अप्रत्याख्यानावरण कषायके उपशमसे श्रावक पंचम गुणस्थानी होता है। इसकी दर्शन प्रतिमा
आदि ग्यारह श्रेणियां हैं। जितना जितना-प्रत्याख्यानाचरण कवायका क्षयोपशम अधिक २ बढ़ता ॐ जाता है उतना उतनाचारिक प्रतिमा रूपसे या श्रेणी रूपसे बहता चला जायगा । जय प्रत्याख्यानावरण कषायका भी उपशम होजाता है तब वह श्रावक साधु होजाता है, पूर्ण व्रती होजाता है
और सर्व परिग्रह रहित निग्रंथ होजाता है। यही उत्तम लिंग है, मध्यम श्रावकका है, जघन्य व्रत * रहित सम्पग्दर्शनका है। इनमें भी हरएकके भीतर तीन २ भेद उत्तम मध्यम जघन्यके भेदसे किये Vm
२६
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वारणतरणY
जासके हैं। अविरत सम्यग्दर्शनमें क्षायिक सम्यग्दर्शनके धारी उत्तम हैं। उपशम सम्यक्तका धारी ४ श्रावकाचार ॥२०॥
ॐ मध्यम है। क्षयोपशम सम्यक्तका धारी जघन्य है। मध्यम लिंग श्रावको पहिली प्रतिमासे छठी तक
जघन्य है, सातवींसे ९मी तक मध्यम है व १० मी व ११ मी प्रतिमा धारी उत्तम है। उनमेंसे श्रेष्ठ ऐलक मात्र एक लंगोरधारी है, क्षुल्लक एक लंगोट व एक चद्दरधारी उससे नीचे हैं। जिनरुपधारी उत्तम लिंगमें तीर्थकर उत्तम हैं, ऋद्धिधारी ऋषि मध्यम हैं, सामान्य साधु जघन्य हैं।
श्रेपन क्रियाएं। गुणवय तव सम पडिमा, दाणं नक गालणं च अणत्यमियं । दसण णाण चरित, किरिया तेवण्ण साक्या भणिया ॥
(दौलतरामकृत क्रियाकोष ) आठ मूलगुण+बारह बत+बारह तप+समताभाव+ग्यारह मतिमा+चार प्रकारका दान+जल गालना+रात्रिको न खाना+रत्नत्रय धर्म तीन सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र=५३ त्रेपण क्रियाएं इस तरह जाननी।
इनमें रत्नत्रय धर्म तथा चारह तप व समताभाव उत्तम लिंग साधुकी मुख्य क्रियाएँ हैं श्रावककी गौण हैं । दोष सर्व श्रावकों के लिये मुख्य हैं।
(१) आठ मूलगुण-मदिरा, मांस, मधु व पांच फल जिनमें अस होते हैं व होनेकी संभावना है जैसे बड फल, पीपल फल, गूलर फल, पाकर फल, अंजीर फल ।
. (२) बारह व्रत-(श्रावकके) १-अहिंसा अणुव्रत (संकल्पी घस हिंसाका त्याग), २सत्य अणुव्रत, ३-अचौर्य अणुव्रत, ४-ब्रह्मचर्य अणुव्रत (स्वस्त्रीमें संतोष), ५-परिग्रहका प्रमाण (सम्पत्तिका आजन्म प्रमाण कर लेना), ६-दिग्विरति (जन्म पर्यत लौकिक कार्यों के लिये १० दिशाॐ ओंमें जानेकी मर्यादा करना ), ७-देशविरति (जो मर्यादा जन्म पर्यंतके लिये दिशाओंकी की हो
उसमेंसे घटाकर एक दिन आदिके लिये करना), ८-अनर्थदंड विरति (व्यर्थके पाप करना जैसे पापका उपदेश, अपध्यान (खोटा विचार), हिंसाकारी वस्तुका दान, दुःश्रुति (खोटी कथाओंको पढना सुनना) प्रमादचर्या (आलस्यसे व्यवहार, अधिक जल आदि फेंकना), ९-सामायिक (सवेरे व
॥१९॥
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वारणतरण
॥२०३॥
सांझ व दोपहर शक्ति एकांत में बैठ ४८ मिनट के लिये या कम यथा समय ध्यानका अभ्यास करना ), १० - प्रोषधोपवाल (अष्टमी व चौदलको उपवास करना ), ११-भोगोपभोग परिमाण ( पांच इंद्रियोंकी भोग्य वस्तुओंका नित्य प्रमाण करना ), १२ - अतिथि संविभाग (पात्रोंकी दान देकर भोजन करना ) |
(३) बारह तप - १ - उपवास, २- कनोदर, भूख से कम खाना, ३-वृत्ति परिसंख्धान (कोई प्रतिज्ञा लेकर साधु आहारको जाते हैं, पूरी होनेपर लेते हैं) ४-रस परिश्याग (दूध, दही, घी, तेल, नमक मीठा इनमें से एक या अनेक रसोंका त्यागना ) ५ - विविक शय्यासन - ( एकांत में सोना बैठना ), ६- कायक्लेश ( शरीरका सुखियापन मेटनेको कठिन स्थानोंपर तप करना, ७ - प्रायश्चित्त (कोई दोष लगने पर दंड लेकर शुद्ध होना), ८ - विनय (धर्म व धर्मात्माओंका आदर करना), ९ - वैयावृत्य (रोगी, दुःखी, मांदे, धर्मात्मा भाइयों व बहिनों की सेवा करनी), १० - स्वाध्याय (शास्त्रों को पढना व विचारना), ११ - व्युत्सर्ग (शरीरादि से ममत्व त्यागना), १२-ध्यान (आत्मध्यानका अभ्यास करना) ।
( ४ ) समताभाव - राग द्वेष छोडकर समताभाव रखनेका अभ्यास करना ।
(५) ग्यारह प्रतिमा-ये ११ श्रावककी श्रेणियां हैं। १-दर्शन, २- व्रत, ३ - सामायिक, ४प्रोषधोपवास, ५- सचित्त त्याग, ६ - रात्रि भोजन त्याग, ७ - ब्रह्मचर्य, ८- आरम्भ त्याग, ९ - परिग्रह त्याग, १० - अनुमति त्याग, ११ उद्दिष्ट त्याग, इनका कथन आगे आपगा ।
(६) चार प्रकारका दान - आहार, औषधि, अभय, विद्या ।
(७) जल गालन - पानी छानकर पीना व व्यवहार करना ।
(८) अणत्थमिय-रात्रिको भोजन न करना ।
( ९ ) तीन सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र - चारित्र में १३ प्रकार मुनिका चारित्र इस भांति
पांच महाव्रत -- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व परिग्रहका स्याग ।
पांच समिति – ईर्ष्या (चार हाथ भूमि आगे देखकर चलना), २-भाषा-(शुद्ध वाणी बोलना ) ३- एषणा (शुद्ध भोजन श्रावक दत्त लेना ) ४-आदान निक्षेपण ( देखकर रखना उठाना ) ५-प्रतिछापना (मल मूत्र देखकर निर्जंतु भूमिपर करना ) ।
श्रावकाचार
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॥१०३॥
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तीन गुति-मनको, बचनको व कायको वश रखना, मध्यम लिंगवाले श्रावक इन ५३ क्रियाओंको भलेप्रकार पालते हैं, मुनि सम्बन्धी क्रियाओंका यथाशक्ति अभ्यास करते हैं।
श्लोक-जघन्यं अव्रतं नाम, जिन उक्तं जिनागमं ।
साध ज्ञानमयं शुद्धं, किया दस अष्ट संजुतं ॥ १९८ ॥ अन्वयार्थ-(अपन्य ) जघन्य लिंग या पात्र (अबतं नाम) अविरत सम्यग्दष्टी है जो (निन उक्तं) . जिनेन्द्र के को हुए (मिनागमं जैन आगमके ( साधु ) अनुसार (ज्ञानमयं शुद्ध) ज्ञानमय शुर आत्माका अनुभव करता है (किया दस अष्ट संजुतं ) तथा अठारह क्रिया सहित होता है।
विशेषार्थ-यहां चौथे गुणस्थानवर्ती पात्रका कथन करते हैं कि वह जैन शाखाका व जैन शासमें कहे हुए जीवादि तत्वोंका हढ श्रद्धालु होता है व उसीके अनुसार अपने आस्माका शुद्ध निश्वयनयसे सिडवत् शुख अनुभव करता है, ज्ञान वैराग्यमें तन्मय रहता है। यद्यपि वह अविरति तथापि पा प्रवामें परम साधु है। इसलिये आठ बाहरी लक्षणोंसे विभूषित है। जैसा कहा है
सक्यो जिम्वेओ निंदा गरहा उत्समो भली । अणुकम्मा वच्छलां गुणटु सम्पत्त जुत्तस्स ॥ भावार्थ-उसमें संवेग गुण होता है जिससे वह जैनधर्मसे गार प्रीति रखता है। धार्मिक कायोंको बडे उत्साहसे करता है। निर्वेद गुणके कारण संसार शरीर भोगोंसे परम उदासीन होता है, बिलकुल वीतराग रहना चाहता है तथापि पूर्वपर कषायके उदयसे रह नहीं सक्का के कपाय. युको संसारीक काम करता है। इस अपनी निर्मलताकी निन्दा दूसरों के सामने करता रहता है तथा अपने मन में भी करता रहता है यह गर्दा है। उपशम गुणके द्वारा शांत चित्तोता है। आकु. बतामय घबडाया हुआ परेशान नहीं रहता है, भक्ति गुणके कारण देव शास्त्र गुरुकी सबी भक्ति करता है, गुणवामोंकी सेवा करता है, अनुकम्पा गुणसे बडा दयावान होता है, सर्व जीवमात्रके साथ प्रेम करता हुभा उनकी रक्षा चाहता है। वात्सल्य गुणसे साधर्मी भाई व बहनोंसे गोवत्सके समान प्रेम करता है, उनके लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर डालता है। ऐसा गुणवान सम्यक्ती पचपि भतीचार रहित बतोंको पालनहीं सक्ता है तथापि इन वेपन क्रियाओं से अठारह क्रियाओंको पाखता है, या पालनेका यथाशक्ति उद्योगीराता है। आगेके दो लोकोंसे वे प्रगट कही गई।
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श्रा
॥.५॥
आठ मूलगुण+चार प्रकारका दान+सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रकी सेवा+रात्रि भोजन त्याग+नामा y पानी पीना+समताभावके लिये जिनागमका मनन करना । यह १८ क्रियाएं पालता है।
श्लोक-सम्यक्तं शुद्ध धर्मस्य, मूलं गुणं च उच्यते ।
दानं चत्वारि पात्रं च, साधं ज्ञानमयं ध्रुवं ।। १९९ ॥ दर्शन ज्ञान चारित्रै, विशेषितं गुणपूजयं ।
अनस्तमितं शुद्ध भावस्य, फासूजल जिनागमं ॥२०॥ अन्वयार्थ—(शुद्ध धर्मस्व सम्यक्तं) शुद्ध आस्मीक धर्मकी श्रद्धा रखनेवाले जीवके (मूलं गुणं च उच्यते) र आठ मूल गुण कहे जाते हैं (पात्रं च चत्वारि दानं ) पात्रोंको वह चार प्रकार दान देता है। उस दानको
वह (ध्रुवं ज्ञानमयं साफ) निश्चल ज्ञानमय भावसे विवेक सहित देता है। (दर्शन ज्ञान चारित्रैः विशेषितं ) वह सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रसे विभूषित होता है, (गुणपूमय) रत्नत्रयपारी महात्माभोंकी पूजा करता है, (शुद्ध भावस्य ) निर्मल भावसे श्रद्धा पूर्वक (अनस्तमितं ) रात्रिको भोजन नहीं करता है (जिनागम फासूजक ) जिनागमके अनुसार छमा पानी काममें लेता है।
विशेषार्थ-अविरत सम्यग्रष्टीके अप्रत्याख्यान कषायका उदय होता है जिससे अतीचार रहित स्याग नहीं कर सकता है तथापि जितना जितना कषाय मंद होता जाता है वह चारित्रको अंगीकार करता जाता है। शुज सम्यग्दर्शनका धारी तो वह होता ही है। आठ मूलगुणों में पांच बदम्बर फल व मदिरा, मांस, मधुका वह सेवन नहीं करता है। तीन प्रकार पात्रोंको भक्तिपूर्वक आहार, औषधि, अभय व ज्ञान दान देता है, दयाभावसे प्राणी मात्रको चार प्रकारका दान देता है। दानमें विवेकसे काम लेता है तथा बदले में पुण्यकी व कोई लौकिक लाभकी इच्छा नहीं करता है, केवल परोपकार भावसे दान करता है। सम्यग्दर्शनका आचरण व सम्यग्ज्ञानका आचरण यह है कि वह नित्य जिन भक्ति, गुरु सेवा, स्वाध्याय, सामाषिकमें लीन रहता है। जो रमैनपके पारी उनकी भक्ति करता है। गुणवानोंकी पूजा करता है, रात्रिको भोजन हिंसाकारी समझकर अपनी स्थितिके अनुसार छोडनेका उद्यम करता है। खाच (जिससे पेट भरे), स्वाथ (पान इलायची), लेख (चाटनेकी
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२.६॥
औषधि आदि), पेय (पीनेका पानी आदि) इन चारोंको चकमको यथाशक्ति छोडनेका अभ्यासी होता है। यदि शक्य होता है तो रात्रिको जल भी त्याग देता है, अशक्य होता है तो जिस तरह निराकुलता रहे वैसा वर्तन करता है। अभी इसके अविरत भाव है।यास मात्र है। नियमसे रात्रि भोजनका त्याग व्रती अवस्थामें छठी प्रतिमा तकमें पूर्ण होजाता है, छठी प्रतिमाके नीचे यथाशक्ति उद्यम है, स्वच्छंदता नहीं है, लाचारी हीमें इस क्रिया में कमी रखता है। पानी भलेप्रकार छान करके पीता है। छानने की क्रिया ठीक कराता है या करता है, जानता है कि पानी में बहुत प्रस जीप होते हैं। अपनी शक्तिके अनुसार बचानेका उपाय यही है कि जलको छानकर काममें लाया जावे व जीवानी जल स्थानक में पहुंचाई जावे । इस क्रियाका भी यह अभ्यासी मात्र होता है। किसी देश काल में ठीक नहीं पाल सके तो मनमें म्लानि रखता है। अठारहवीं क्रिया ५३ क्रियाओंमेंसे एक समताभाव है उसका पालक होता है। सम्यक्चारित्रमें यह पांच अणुव्रतोंका स्थूल अभ्यास करता है, संकल्प करके वृथा हिंसा नहीं करता है, असत्य नहीं बोलता है, चोरी नहीं करता है, परस्त्री सेवन नहीं करता है, परिग्रहकी अधिक लालसा नहीं रखता है। इन पांच अणुव्रतोंका भी अभ्यास मात्र रखता है। एक श्रद्धालु जैनीको कैसा होना चाहिये यह बात इन अठारह क्रियाओंमें समावेश होजाती है। यदि कोई साधारण जैनी इन बातोंको पाले तो वह नमूनेदार श्रावक चौथे दरजेका होजायगा।
श्लोक-एतत्तु क्रिया संजुक्तं, शुद्ध सम्यग्दर्शनं ।
प्रतिमा व्रत तपश्चव, भावना कृत सार्धयं ॥ २०१॥ अन्वयार्थ (शुद्ध सम्यग्दर्शनं ) निर्मल सम्यग्दर्शनका धारी (एतत्तु क्रिया संजुक्तं) इन अठारह क्रिया. ओंको पालता हुआ (सायं) इनके साथ (प्रतिमा व्रत तपश्चैव भावना कृत ) ग्यारह प्रतिमा, बारह व्रत और बारह तपकी भावना करता रहता है।
विशेषार्थ-उक्त त्रेपन क्रियाओंमेंसे ऊपर लिखी अठारह क्रियाओंको पालता हुआ शेष पैंतीस क्रियाओंकी भावना भाता है। यह विचार रहता है कि मेरे कषाय कब मंद हों, जो मैं उनको VIRON
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॥२०७॥
भलेप्रकार पालनेको समर्थ होजाऊँ। उन पैंतीसमें बारह व्रत, बारह तप तथा ग्यारह प्रतिमाएँ हैं। इनको छोडकर शेष अठारह क्रियाओंको शक्तिके अनुसार पालता है।
श्रावकाचार ऐसा सम्यक्ती जीव सर्व लौकिक कामोंको कर सकता है, गरीब-अमीर सब कोई ऐसा जैनधर्म पाल सक्ता है। असि (सिपाहीका काम), मासि (लिखनेका काम), कृषी, वाणिज्य, शिल्पकर्म, विद्याकर्म (गाना बजानादि) इन छ: कामें से अपनी स्थितिके अनुसार हरएक जैनी आजीवि. काका उद्यम भलेप्रकार करता रहकर सच्चा जनी रह सक्ता है। वह देशकी रक्षा कर सका है। दृष्टोंका दमन कर सकता है, प्रचुर अन्न खेतीसे पैदा कर सकता है, देश परदेश भ्रमण करके व्यापार कर सकता है। नानाप्रकार कारीगरी, लकडी, कपडा, लोहा, पत्थर आदिके काम कर सकता है, मकान बना सक्ता है, चित्रकला, गाना, बजाना आदि काम कर सक्ता है। बुद्धि कम होनेपर नाना प्रकार सेवा कार्य कर सका है। जिस क्षेत्रमें सर्व ही मानव जैनी होजावें उस क्षेत्रमें सारा काम जो गृहस्थियोंके लिये आवश्यक है करते हुए भी जैनधर्मका पालन होसक्ता है। जैनधर्म परिणामोंके आधीन है। बाहरी चारित्र अविरत सम्यक्ती यथासंभव ही पालता है। ___श्लोक-आज्ञा सम्यक्त संयुक्तं भावं वेदक उपसमं ।
क्षायिकं शुद्ध भावस्य, सम्यक्तं शुद्धं ध्रुवं ॥ २०२ ॥ अन्वयार्थ (भाज्ञा सम्यक्त संयुक्तं भावं) श्री जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञानुसार तत्वोंका श्रद्धानरूप जो भाव है वही (वेदक ) वेदक सम्यक्त है व (उपसमं) उपशम सम्यक्त है वही (क्षायिक) क्षायिक V सम्यक्त है। यह क्षायिक (शुद्ध भावस्य शुद्धं ध्रुवं सम्यक्तं ) शुद्ध आत्मीक तत्वका शुद्ध निश्चल अमिट ४ श्रद्धान है।
विशेषार्थ-जिन शास्त्रों में छः द्रव्य सात तत्वोंका जो स्वरूप कथन किया गया है उसको भलेप्रकार समझकर जिसने श्रद्धान कर लिया है वही आज्ञा सम्यक्त है । इस करके सहित जिसका भेद भावज्ञानसे पूर्ण होता हुआ अपने आत्माको रागादि भाव कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म व रागद्वेषादि भावकोंसे भिन्न अनुभव करता है वही भाव सम्यक्त है इसीके तीन भेद है-उपशम, वेदक, क्षायिक। मिथ्यादृष्टी जीवको चार अनंतानुबंधी कषाय और मिथ्यात्व प्रकृति अथवा मिथ्यात्व, सम्पर
, सम्बर २०७॥
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मिथ्यात्व व सम्यक्त प्रकृति सहित अर्थात् पांच प्रकृति या सात प्रकृतिके उपशमसे जो सम्यग्दर्शन होताीपा उपशम सम्यक है। जहां सम्यक्त प्रकृतिका उदय हो और शेष छाका उपशम हो या क्षय हो उसको वेदक सम्यक कहते हैं। यह सम्यक्त कुछ मलीनता लिये हुए है। इसमें चल, मल, अगाढ़ दोष लगते हैं।
उपशमसे वेदक या क्षयोपशम सम्यक्त होता है। फिर वेदकसे सातों कमाके क्षय करडालने पर ॐ क्षायिक सम्यक्त होता है। यह फिर कभी छूटनेवाला नहीं है, यह ध्रुव है, शुद्ध भावरूप है। इसका धारी या तो उसी भवसे या तीसरेसे या चौथेसे अवश्य मुक्ति पासक्ता है। सम्यक्तकी महिमा अपार है।
श्लोक-उपायो गुण पदवी च, शुद्ध सम्यक्त भावना ।
पदवी चत्वादि साधं च, जिन उक्तं साथ ध्रुवं ॥ २०३ ।। अन्वयार्थ- गुण पदवी च उपायो) अपने आत्मीक गुणोंकी पदवी अर्थात् सिर पदवी प्राप्त करनी पोग्य है ( चत्वारि पदवी सा च ) चार पदवीके साथ अर्थात् अरहंत, आचार्य, उपाध्याय, साधु पदवीके साथ २ सिर पदवी प्राप्त करना है जो कि ( सार्थ ध्रुवं ) यथार्थ में अविनाशी है(मिन उक) ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। (शुद्ध सम्यक्त भावना ) इसलिये शुर सम्यग्दर्शनकी भावना करनी योग्य है।
विशेषार्थ-शुष सम्यग्दर्शनकी भावनाका क्या फल होता है सो यहां बताया है। जगत में जो पांच उत्तम पद सही भावनाके प्रतापसे प्राप्त होते हैं। शुद्धात्माकी भावना करते ही करते एक अविरत सम्यग्दृष्टी अप्रत्यारूपानावरण कषायाका उपशम करके देशचिरति पंचम गुणस्थामी हो. जाता है, वहां श्रावककी क्रियाओंको पालता हुआ व शुखात्माकी भावना करता हुआ प्रत्याख्यानावरण कषायोंका भी उपशम कर देता है तब अप्रमत्तविरत सप्तम गुणस्थानी साधु होजाता है। यहां अन्तर्मुहूर्त ठहरकर प्रमत्तीवरत साधु होजाता है। यहां छठा सातवां वारवार हुभा करता है। जो साधु बहुत अनुभवी होजाते हैं और इस योग्य होते हैं कि वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञाम, सम्यग्चारित्र, सम्यग्वीर्य व सम्यक्तप इन पांच तरहके आचारोंको स्वयं पाले और दूसरोंको पखवा सके उनको आचार्य पद होता है। जो साधु विशेष शाखज्ञाता होते हैं व पठन पाठनका काम
R.1
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श्रावकार
उत्तम प्रकारसे कर सके हैं उनको उपाध्याय पद होता है। आचार्य व उपाध्यायके कार्य प्रमत्तपिरत भरणतरण
छठे गुणस्थानमें ही होते हैं। जब ये ही ध्यानमग्न होते हैं तब ७में चढ़ जाते हैं। ८ से १२३ गुणस्थान ॥२०॥ तक साधु ध्यानमग्न ही रहते हैं इसलिये वे साधु ही हैं, साधन करनेवाले हैं। जब चार घातीय
कोका नाश होजाता है तब तेरहवें गुणस्थानमें अरहंत परमात्मा होजाते हैं। शुक्लध्यान सम्बन्धी शुद्धास्माकी भावनाका ही प्रताप है जो साधु आठवेंसे बारहवें में व फिर तेरहवेंमें आजाते हैं। वहां आयु पर्यंत रहते हैं । अन्तर्मुहर्त पहले दो शेष शुक्लध्यानोंको ध्याते हैं। चौदहवें गुणस्थानमें चौथे
शुकध्यान द्वारा चार शेष अघानीय कर्मों का भी विध्वंश करके मिड परमात्मा होजाते हैं। पांचों कही परम पद शुद्ध सम्यक्तकी भावनाके फल हैं। इनमें चार पद अनुव हैं, केवल एक सिद्ध पद ही
ध्रुव है व यथार्थ आत्माका स्वभावरूप है । सम्यक्ती उसको उपादेय समझकर उसीपर अपना लक्ष्यबिंदु रखकर शुद्धात्माकी आराधना करता रहता है।
श्लोक-मतिज्ञानं च उत्पाद्य, कमलासने कंठ स्थिते ।
ॐ वंकारं च ऊर्ध्वं च, तिय अर्थ साधं ध्रुवं ॥ २०४ ॥ अन्वयार्थ-(कंठस्थिते कमलासने) कंठके स्थानपर एक कमल बनाकर उसपर (ॐ वकारं च ऊर्ध्व च) श्रेष्ठको विराजमान करके जो (तिय अर्थ ) तीनों तत्वोंसे पूर्ण है अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्रमई है (ध्रुवं ) और परम्परासे चला आया अविनाशी पर है। इस ध्यानके द्वारा (मतिज्ञानं च उत्पा) मतिज्ञानको विशेष उत्पन्न करना चाहिये।
विशेषार्थ-यहां पांच इंद्रिय व मनद्वारा जो सीधा पदार्थों का ज्ञान होता है उस मतिज्ञानकी ॐ शक्तिको बढानेका उपाय बताया है जिससे अधिक दूर तकका विषय स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु
व श्रोत्रमें आसके तथा मनकी निश्चलता आत्मतत्वमें होसके। वह यह है कि एक कमल आठ पत्रोंका कंठस्थान पर विचारे, उसके मध्य में श्रेष्ट मंत्र ॐ को विराजमान करे । इसमें पांच परमेष्ठी गर्भित हैं। जिनमें रत्नत्रय धर्मका निवास है। इस ॐ को चमकता हुआ ध्यावे । कभी कभी पांचों परमेडीके गुणोंपर लक्ष्य देकर विचार जावे, कभी कभी रत्नत्रयका स्वरूप व्यवहारनयसे व कभी निश्चयनयसे विचार जावे। इसीके द्वारा शुद्ध आत्माका विचार करे। शुद्धात्माके ध्यानसे आत्मशक्ति
॥३०॥
*
.
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वारणतरण
Katteller&GRGGEECREGEGELEGREGERMIK
बढती चली जाती है। ज्ञान तो आत्मामें परिपूर्ण है परन्तु ज्ञानावरण कर्मका आवरण पड़ा है
श्रावकाचार * जिससे प्रगट नहीं है। ध्यानके बलसे जितना जितना आवरण हटता जाता है उतना उतना ज्ञानका प्रकाश षढता जाता है।
श्लोक-कुज्ञानं त्रि विनिर्मुक्तं, मिथ्या छाया च त्यक्तयं ।
ॐ वं ह्रियं श्रियं शुद्धं, शुद्ध ज्ञानं च पंचमं ॥ २०५॥ ____ अन्वयार्थ(कुज्ञानं त्रि विनिर्मुक्तं ) तीन कुज्ञानको छोडकर (मिथ्या छाया च त्यक्तयं) मिथ्यात्वकी ४ छाया भी न रखते हुए (ॐ हिय श्रियं शुद्ध) ॐ ह्रीं श्रीं इन तीन मंत्रोंके द्वारा जो शुद्ध आत्माका अनुभव है वही (शुद्ध पंचम ज्ञानं च) शुद्ध पंचम केवलज्ञानको उत्पन्न करानेवाला है।
विशेषार्थ-केवलज्ञान क्षायिकज्ञा कभी न छूटनेवाला ज्ञान आत्माका स्वभाव है। वह ज्ञानावरणीय कर्मके उदयसे प्रकाशमान नहीं है। जब सर्व ज्ञानावरणीय कर्मका क्षय होजाता है तब
केवलज्ञान प्रकाशमान होता है। इसका उपाय एक शुद्ध आत्माका निश्चल ध्यान है, जिसको पहले ॐ गुणस्थानों में धर्मध्यान फिर श्रेणीके ऊपर शुक्लध्वान कहते हैं। शुद्धात्माके स्मरण करानेवाले तीन ४ मंत्र पद प्रसिद्ध हैं। ॐ हीं श्रीं इनके द्वारा धर्मध्यानके समय पांच परमेष्ठी व चौवीस तीर्थकर व जनके परम ज्ञानादि ऐश्वर्यका चितवन किया जाता है। इस चितवनके द्वारा जब सरूप धिरता होती है तब धर्मध्यान कहा जाता है। जहां बुद्धिपूर्वक स्वरूप मग्नता या शुद्धोपयोग है, परन्तु जहां अबुद्धिपूर्वक उपयोगकी पलटन हो जाती है वह शुक्लध्धान है। ॐ श्री मंत्रोंके आलम्बन से जैसे धर्मध्यानमें ध्यान किया जाता था वैसे शुक्लध्यानमें इनका आलम्बन है, परन्तु पूर्व अभ्याससे मात्र पलटन होती है। जैसे ॐ से ही में वहां से श्री में बुद्धिपूकि नहीं। जहां धर्मध्यान व शुक्लध्यानको मिथ्यास्व शल्यकी छायासे रहित ध्याया जाता है व जहां कुमति, कुश्रुत, व कुभवधि इन मियाज्ञानोंसे मुक्ति है ऐसा भाव श्रुतज्ञान ही केवलज्ञानका कारण है।
लोक-देवं गुरुं धर्म शुद्धं च, शुद्ध तत्व सार्थ ध्रुवं । सम्यग्दृष्टि शुद्धं च, सम्यक्तं सम्यक दृष्टितं ।। २०६ ॥
॥२१॥
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वारणतरण
॥२१
॥
अन्वयार्थ (देव गुरुं धर्म शुद्ध च) जहां यथार्थ देव गुरु व शुद्ध धर्मकी अंडा हो व (शुद्ध तत्व सार्थ
श्रावकाचार धुबं) शुद्ध यथार्थ अविनाशी आत्मतत्वकी श्रद्धा हो वही (सम्यग्दृष्टि शुद्धं च)शुद्ध सम्यग्दर्शन है।
वास्तवमें (सम्यकं) सम्यग्दर्शनका अर्थ ही यह है कि जहां (सम्यक् दृष्टितं ) पदार्थको जैसाका नेता ॐ यथार्थ जाना जावे।
विशेषार्थ-जैसा साध्य होता है वैसा साधन होता है। जब साध्य शुद्ध आत्माका लाभ है तब उसका साधन भी शुद्ध आस्माका लक्ष्य है। वास्तवमें शुद्धास्माका अनुभव ही मोक्षमार्ग है, यही सचा सम्यग्दर्शन है। शुद्धात्मानुभवके सहकारी चीतराग सर्वज्ञ अरांतदेव व सिद्ध भगवान है तथा शुद्ध रत्नत्रयमई निश्चय धर्म है तथा इस निश्चयधर्मका उपकारक आवश्यकीय व्यवहार धर्म है। शुद्ध तत्वका पहचाननेवाला शुद्ध तत्वके स्मरणके लिये ही देव गुरु धर्मकी भक्ति करता है। इस भक्तिमें भी शुद्ध स्वरूपपर लक्ष्य रखता है। शरीर सम्बन्धी क्रियापर ध्यान नहीं है। असल में भास्माका स्वभाव ही मोक्षमार्ग है। या उसी में रमणता मोक्षमार्ग है।
देवसेनाचार्य तत्वसारमें कहते हैंसयल वियप्पे थके उन्वन्त्रह कोवि सासओ भावो । नो अपणो सहावो मोक्वस्स य कारगं सोहु ॥ ६१॥
भावार्थ-सर्व विकल्पोंके रुक जानेपर कोई अविनाशी भाव ऐसा झटक जाता है जिसको ४ आत्माका स्वभाव कहते हैं तथा यह मोक्षका कारण है। और भी कहा है
जो अप्पा तं गाणं गाणं तं च दसणं चरणं । सा मुद्धचेयणावि य णिच्छयगंयमतिर नावे ॥५॥
भावार्थ-जो मारमा, है वही ज्ञान है, जो ज्ञान है वही सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र है, वही शुद्ध चेतना है। जो निश्चयनयका आश्रय करते हैं उनके लिये रत्नत्रय स्वरूप ॐ भास्मा ही है।
श्लोक-सम्यक्तं यस्य शुद्धस्य, व्रतं तप संजमं सदा ।
अनेक गुण तिष्ठते, सभ्यक्तं साधं ध्रुवं ॥ २०७।। अन्वयार्थ ( यस्य शुद्धस्य सभ्य ) जिस शब भावना करनेवाले जीवके पास सम्यग्दर्शन है वह ४ ॥२१॥
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कारणवरण
॥२१२॥
(सदा ) सदा ही (सा) सम्यग्दर्शन के साथ ( व्रतं तप संयमं अनेक गुण ध्रुवं तिष्ठंते ) व्रत, तप, संयम अनेक गुण सदा निश्चय रूप से रह सके हैं।
विशेषार्थ - यहां सम्यग्दर्शनका महात्म्य बताया है कि शुद्ध निश्चय सम्यग्दर्शन ही धर्मकी जड है । बुझकी जडके विना वृक्षपर पत्ते शाखा फूल फल कुछ नहीं लग सके हैं उस ही तरह सम्यग्दनिके विना धर्मका कोई भी अन्य अंग नहीं होमका है । जिसकी आत्मा में शुद्धात्मा अनुभव है वही सच्चा सम्प्रर्शन है तथा वही श्रावक व मुनिके व्रत व्रत कहलाते हैं अन्यथा मिथ्या व्रत हैं। सम्यग्दर्शन के साथ ही बारह प्रकारका तप तप है अन्यथा मिथ्या तप है। सम्यग्दर्शनके साथ ही इंद्रिय व प्राण संयम संयम है अन्यथा असंयम है । इनके लिये जितने भी उत्तम गुण हैं उनका गुणपना सम्यग्दर्शन के ही साथ है । दानीका दान व पात्रका पात्रपना सम्यक्त सहित ही प्रशंसनीय । सम्यग्दर्शनको गाढ, अतिगाढ, परमावगाढ करनेवाले हो आत्मज्ञान चारित्रादि गुण होते हैं। योगसार में श्री योगेन्द्राचार्य देव कहते हैं
जय तप संगम सीलनिय ए सब्बे अक इच्छ । जामन जाणइ इक्क परु सुद्धउभाव पवित्तु ॥ ११७ ॥
भावार्थ- जबतक कोई शुद्ध पवित्र आत्मीक भावको नहीं जानेगा तबतक उसका ब्रन, तप, संयम, शील ये सब निरर्थक हैं। शुद्ध आत्मीक अनुभव के साथ व्रत तप संयम शील आदि सब ही सफल है।
श्लोक - यस्य सम्यक्त हीनस्य, उयं तव व्रत संजमं ।
सर्वा क्रिया अकार्या च, मूलविना वृक्षं यथा ॥ २०८ ॥
अन्वयार्थ – ( यस्य सम्यक्त हीनस्य ) जो सम्बर: र्शन रहित है उसका (उम्र तब ) कठिन तप तपना (व्रत) व्रत पालना (संजमं ) संयम धारणा (सर्वा क्रिया ) इत्यादि सर्व व्यवहार आचरण ( अकार्याच ) पर्थ है या मोक्षमार्ग नहीं है (मूलविना वृक्षं ) मूलके विना वृक्ष नहीं होसक्ता है ।
विशेषार्थ – कोई ऐसा मानले कि मूल विना वृक्ष होजायगा तो उसकी पूरी अज्ञानता है। मूल या जड जब होगा तब ही वृक्ष अंकुरित होगा, फूटेगा, बढेगा, पत्र शाखावाला होगा, पुष्प फलसे
भार
॥२२२॥
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वन
फलेगा। यदि जड़ नहीं है तो वृक्ष कभी लग नहीं सका। क्योंकि जड़के बारा वृक्षका पोषण होता भारणतरण
है। इसी तरह यदि सम्यग्दर्शन नहीं है तो कठिन तप करते हुए उपवास करना, कम खाना, रस छोडना, अटपटी आखडी लेकर भोजनको जाना, रखा सूखा खाना, मासोपवासी, पक्षोपवासी रहना, कठिन २ स्थानोंपर जाकर तप करना, एकांत सेवना, घंटों ध्यान लगाना इत्यादि सर्व तपस्या सार रहित है।न तो आत्मानंद दाता है न स्वानुभव रूप हैन कर्मनाशक हैन मोक्षमार्ग है, मात्र
कायक्लेश रूप है। भले ही पुण्य कर्मका पन्ध होजावे परन्तु संसारके जालको यह तप काट नहीं y सका। इसी तरह मुनिके महाव्रत, श्रावकके अणुव्रत व इंद्रियदमन व प्राणिरक्षा आदि सर्व ही , व्यवहार धर्म पूजा, पाठ, जप, सामायिक, स्वाध्याय, शुद्धाहार, नीतिसे वर्तन, सत्यवादीपना,
चोरी न करना, ब्रह्मचर्य पालन, करुणाका व्यवहार, चार प्रकार दानका देना, साधु सेवा, जनताका उपकार आदि क्रिया मात्र पुण्य बंधकारक है। सम्यग्दर्शनके विना मोक्षमार्ग नहीं है। जहां सम्यक्त होता है वहां मात्र आत्मोन्नतिके हेतुसे, वैराग्यभाषसे, परिणामोंकी शुद्धताके लिये ही सर्व व्यवहार क्रिया तप आदि किया जाता है तब ये तपादि परिणामोंको शुद्धास्मानुभवमें लगाने के लिये विशेष महकासी होजाता है। जहां प्रात्माके अनुभवकी कला नहीं आई है वहां ये सब तपादि किसी अंतरंगमें छिपी हुई कषायके देतुमे ही किया जाता है। चाहे वह मान बडाईकी चाह हो, चाहे विषा भोगांकी चाह हो, चाहे घरके कष्टोंसे दुखित होकर किया जाता हो, चाहे किसी मायाचारसे हो। क्रोध, मान, माया, लोभ इनमें से किसी कषायकी पुष्टिके हेतुसे किया गया तपादि उस कषागको कैसे नाश कर सका है जिसके नाशके लिये तपादि करनेका प्रयोजन है। इसलिये प्रथम सम्यग्दर्शनकी जड होनी चाहिये नव ही धर्मका वृक्ष लग सकेगा। ____ श्लोक-सम्यक्तं यस्य मूलस्य, साहा व्रत नन्तनंताई।
अवरे वि गुणा होति, सम्यक्तं हृदये यस्य ॥ २०९॥ अन्वयार्थ-(सम्यक्तं यस्य मूलस्य ) जिसके सम्यग्दर्शनरूपी जड है(माहा) शाखाएं (व्रत नन्तनन्ताई) बतरूपी अनन्तानन्त होसकी है (अवरे वि गुणा होति) और भी बहुत गुण होते हैं (यस्य हृदये सम्यक्त) जिसके अन्तरंगमें सम्यक है।
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वारणतरण ॥२१॥
विशेषार्थ-जहां सम्यग्दर्शन है वहां परिणामोंकी अनन्तगुणी विशुद्धता बढ़ती जाती है। कषायकी मंदताके साथ साथ विशुद्धता च वीतरागताके अनन्त अंश बढते जाते हैं। वे ही व्रतोंकी शाखाएं फूटना है। सम्यक्तीके भाव जहां चढ़ते जाते हैं वह स्वयं अहिंसक होता जाता है। सत्यपादी, न्याय मार्गी, ब्रह्मचर्य रक्षक, संतोषी, संयमी होता हुआ चला जाता है। सम्यक्तके प्रभावसे सर्व बाहरी आचरण स्वयं ही उत्तम प्रकारसे होता जाता है। रस सहित आनन्दरूप सर्व व्रत तप आदि होने लगता है। जहां भीतर शुद्ध आत्माके अनुभवकी चतुराई मौजूद है वहां अनेक गुण होते हैं । वह कमाका फल सुख तथा दुःख अत्यन्त समता भावसे भोगता है। उसके कर्मफल देकर झड़ जाते हैन घोर बंध अत्यन्त अल्प करता है जो भी शीघ्र छुट जानेवाला है। सम्यक्तीके कर्मकी निर्जरा अधिक होती है बंध थोडा होता है। इसीलिये वह मोक्षमार्गी है। सम्यक्ती सदा संतोषी या सुखी रहता है। यदि आपत्तियें आजावें तो घबडाता नहीं। यदि सम्पत्ति होतो उन्मत्त नहीं होना है। वह ज्ञाता दृष्टा समदर्शी रहता है। उसका लक्ष्य एक आत्माकी तरफ रहता है, उसके व्यवहारसे किसीको पीडा नहीं होती है, वह जगतका महान उपकारी होता है, वह जगतको
अपना कुटुम्ब समझता है। सम्यक्तके प्रभावसे क्या क्या गुण प्रगट होते हैं यह कथन में नहीं । आसक्ता है। सम्यक्तकी जड़ अपूर्व वृक्षको फलती है, जिसका अंतिम फल परमात्मा होजाना है।
श्लोक-सम्यक्त विना जीवो जाने, श्रुत्यंग बहुभेदं ।
अन्ये यं व्रतचरणं, मिथ्यातप वाटिकाजालं ॥ २१०॥ अन्वयार्थ-(सम्यक्त विना जीवो ) सम्यग्दर्शनके विना जीव (श्रुत्यंग बहुभेदं जानै ) ग्यारह अंग नौ पूर्वतक बहु प्रकार शास्त्रको जाने अथवा (अन्ये यं वाचरणं) अन्य जो कोई बहुत व्रतादिका आचरण करे सो सब (मिथ्या तप वाटिका माल) मिथ्या तपका निवास रूपी जाल है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन एक अति सूक्ष्म आत्माका शुद्ध अनुभवन रूपी भाव है। जिसको इस सुक्ष्म तत्वका लाभ नहीं हुआ वह मुनि होकर ग्यारह अंग नौ पूर्व तक पढ लेवे अथवा अन्य कोई साधु बहुत प्रकार व्यवहार चारित्र पाले वह सब ज्ञान तथा चारित्र ऐसा बगीचा लगाना नहीं है जो सच्चा हो व जो मोक्षरूपी फल को देवे। किन्तु वह मिथ्या उपवनका जाल है। वह मिथ्या तप
॥२१
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श्रावकार
॥११५॥
है,कुनप है। अज्ञानी उसी जालमें मोहित हो अपना संसार बढाने के लिये ही प्रयत्न करता है न
कि संसार हटाने के लिये। उसका ज्ञान व चारित्रका बाग मिथ्यास्तके आतापसे दूषित है जैसे वनमें ॐ अग्नि लग जाये तो सब वृक्ष भस्म होजावे इसी तरह मिगसकी अग्रिसे ज्ञान व चारित्रका बाग पढने की अपेक्षा भस्व ही होजायगा। इसलिये सम्यग्दर्शन के सिवाय और कोई आत्मोपकारी नहीं है।
श्लोक-शुद्धं सम्यक्त उक्तं च, रत्नत्रय संजुतं ।
शुद्ध तत्वं च साधं च, सम्यक्तं मुक्ति गामिनो॥२११॥ मन्वयार्थ-(शुद्धं सम्यक्त । शुद्ध सम्यग्दर्शन (रत्नत्रय संजुतं) सत्नत्रय सहित (च शुद्धतखं सार्थ च) और शुद्ध आत्मीक तत्व सहित ( उक्तं च) कहा गया है। ऐसा सम्यक्त (मुक्ति गामिनो) मोक्षगामी जीवके होता है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन जहां है वहां रत्नत्रय तीनों हैं क्योंकि सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होते ही जितना ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान होजाता है और सम्यग्दर्शनके साथ ही अनंतानुबंधी कषायोंके उपशम होनेसे स्वरूपाचरण चारित्र पैदा हो जाता है। यदि सम्यग्दर्शनके साथ तीनों ही न हो तो सम्यग्दर्शनको मोक्षमार्ग नहीं कह सक्ते। ऐसा सम्यग्दर्शन वास्तव में शुद्ध आत्मीक तत्वके अनुभवके साथ साथ होता है। जिसको यह निश्चय सम्यक्त होजाता है वह अवश्य मोक्ष पहुंच जाता है। सम्यग्दर्शनमें आत्मानुभवमें कोई अंतर नहीं है। लब्धिरूप सम्यग्दर्शन तो अन्य कार्यकी तरफ उपयोग रखते हुए भी रहता है परन्तु उपयोगात्मक सम्यक्त तब ही होता है जब आत्मानुभूति जागृत होती है तब वहां कोई संकल्प विकल्प नहीं रहता है। ऐसी दशामें ही रत्नत्रयकी एकता कही जाती है। ऐसा ही देवसेनाचार्य तत्वसारमें कहते हैं
सयल वियप्पे थक्कइ उन्वज्जइ कोवि सासओ मावो । जो अप्पणो सहावो मोक्खस्सय कारणं सोहे ॥ ८६॥
भावार्थ-सर्व विकल्पोंके बंद होजानेपर ऐसा कोई अविनाशी निश्चल भाव पैदा होता है जो * वास्तवमें आत्माका स्वभाव है तथा वही मोक्षका कारण है । वहां रत्नत्रय तीनों मौजूद हैं।
श्लोक-सम्यक्तं यस्य त्यक्तं च, अनेक विभ्रम ये रताः ।
V॥२१५॥
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बारणवरण
श्रावकार
॥२१॥
मिथ्यात्वी मूढ दृष्टी च, संसारे भ्रमणं सदा ॥ २१२॥ अन्वयार्थ-(यस्य सम्यक्तं त्यक्तं च) जिसके सम्यग्दर्शन नहीं है (ये अनेक विभ्रम रताः) व जो अनेक प्रकार संकल्प विकल्पोंमें लीन हैं वे (मिथ्यात्वी मूढ दृष्टी च) मिथ्यात्वी बहिरात्मा हैं (सदा संसारे भ्रमण ) उनका सदा ही संसारमें भ्रमण होगा।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनका लाभ जिनको नहीं हुआ है वे रातदिन पर्याय बुद्धि ही रहते हैं। शरीरमें ही अपनापना कल्पना करते हैं, उनके हर समय परमें ममता रूप व देषरूप भाव रहता है। उनका उपयोग राग द्वेष भय सदा चंचल रहता है । वे आत्मज्ञानको न पाते हुए आरमांक आनन्दके स्वादसे विमुख, मूढबुद्धि व मिथ्या श्रद्धान सहित होते हैं। वे अनंतानुबंधी कषायके सम्बन्धसे नीची गति बांधकर संसारमें ही भ्रमण करते हैं। जो जिसका स्वागत करता है वही
उसको प्राप्त होता है। संसारका स्वागत करनेवाला संसार बढाता है, मोक्षका स्वागत करनेवाला ४ संसारको हटाता है । इष्टोपदेशमें पूज्यपादस्वामी कहते हैं
कर्म कर्महिताबन्धि जीवो जीवहितस्पृहः । स्वस्यप्रभावभ्यस्त्वे, स्वार्थ को वा न वांछति ॥
भावार्थ-कर्म अपने कर्मके हितको देखता है। जीव अपने जीवके हितको देखता है जिसका * प्रभाव जम जाता है वह अपने स्वार्थको चाहता है। मतलब यह है कि जब उपयोग आत्माकी
तरफ प्रेमी होता है तब आत्माका हित होता है। जब उपयोग कर्मके उदयसे प्राप्त संसार, शरीर भोगोंमें नुरक्त होता है तब संसार बढ़ता है। सम्यक्तीके परिणामों में संसारसे उदासी है मोक्षकी तरफ उत्साह है। इससे वह संसारसे पार होजाता है। मिथ्यात्वी संसारसे प्रेमी है, मोक्षसे उदासीन है, इससे अपने संसारको बढा लेता है।
श्लोक-सम्यक्तं ये उत्पादंते, शुद्ध धर्मरता सदा ।
दोषं तस्य न पश्यंते, रजनी उदय भास्करं ॥ २१३ ॥ अन्वयार्थ (ये सम्यक्त उत्पादते) जो सम्यग्दर्शनको उत्पन्न कर लेते हैं (सदा शुद्ध धर्मरताः) व निरंतर शुद्ध धर्ममें लीन रहते हैं (दोषं तस्य न पश्यते) उनके भीतर कोई दोष नहीं दिखलाई पड़ते हैं जैसे (भास्कर उदय रजनी) सूर्यके उदयसे रात्रिका अंधकार नहीं दिखता है।
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वारणतरण
॥२१७॥
विशेषार्थ-इसका भाव यह है कि जहांतक मिथ्यादर्शन और अनन्तानुबन्धी कषायोंका उदय
पायाका उदयश्रावकाचार रहता है वहांतक आत्माके ऊपर अज्ञान अंधकार छाया रहता है व अनेक दोष दीख पड़ते हैं। एक दफे सम्यग्दर्शन रूपी सूर्यका उदय हुआ कि सर्व अज्ञानका अंधेरा व अंधेरेमें होनेवाले सर्व दोष उसी तरह मिट जाते हैं जिस तरह सूर्यके उदय होते ही रात्रिका अंधेरा व रात्रि सम्बन्धी सर्व दोष मिट जाते हैं। सम्यग्दर्शन वास्तव में बाल सूर्यवत् है, यही बढते२ मध्याह्नका प्रतापशाली केवलज्ञानरूपी सूर्य होजाता है । जैसे सूर्यके उदय होनेसे सुमार्ग कुमार्ग व सर्व जगतके पदार्थ
प्रगट रूपसे अलग २ दीखते हैं उन पदार्थों के साथ कैसा व्यवहार करना यह सब विधि समझमें आ • जाती है। उसी तरह सम्यग्दर्शनके प्रगट होते ही ऐसा सम्यग्ज्ञान झलक जाता है जिससे लोका
लोकके छहों द्रव्योंके द्रव्य गुण पर्याय अलग२ झलक जाते हैं। आत्मा और अनात्मा अनादिकालसे मिले हुए हैं, दूध व पानीके समान एकत्र होरहे हैं तथापि अपने २ लक्षण भेदसे जुदे ५ दिखलाई पडते हैं। सम्यक्तीको शुद्ध निश्चयनयसे पदार्थों के अवलोकनकी शक्ति पैदा होजाती है, जिससे वह वृक्षादिमें व पशु पक्षी आदिमें सर्व प्राणी मात्रके भीतर आत्मद्रव्यको एकरूप शुद्ध ज्ञानदर्शन सुख वीर्यमय देखता है। पहले जो उसे विकाररूप ही अपना व परका आत्मा दीखता था अब विकार रहित अपना व परका आत्मा दीखता है। मिथ्यात्वके अन्धेरे में रागद्वेषकी तीव्रता थी। संसारासक्तपना था, स्वार्थ सिद्धिके लिये अन्यायसे वर्तन था, पांच इंद्रियोंकी लम्पटता थी। सम्यक्त होते ही अंतरंगमें वैराग्य व साम्धभावकी जागृति होजाती है। संसारकी आसक्ति मिट जाती है। विषयभोगकी तृष्णा विदा होजाती है । जगतके व्यवहारमें अहिंसातत्व सामने आके खडा रहता है, जिससे वह अन्यायके साथ वर्ताव न करता हुआ न्याय, दया, सभ्यता, परोपकारके साथ व्यवहार करता है। पहले पर पदार्थके संयोगमें आभिमान करता था, वियोगमें घोर विषाद करता था। सम्यक्तके होते ही कमौके कार्यका ज्ञानी मात्र ज्ञाता दृष्टा रहता है। अच्छे व बुरे उदयमें तन्मय नहीं होता है । संसारके कारणीभूत सर्व भावोंके दोष सम्यक्त होते ही मिट जाते हैं।
श्लोक-सम्यक्तं ये न पश्यंति, अंधा इव मृढत्रयं । कुज्ञानं पटलं यस्य, कोशी उदय भास्करं ॥ २१४ ॥
॥२१॥
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वारणतरण
॥२१॥
अन्वयार्थ-(ये सम्यक्तं न पश्यति) जो कोई सम्यग्दर्शनका अनुभव नहीं करते हैं वे ( अंधा इव)
Y.श्रावकाचार अंधोंके समान हैं। ( यस्य पटलं मूढत्रय कुज्ञान ) जिनकी ज्ञान चक्षुके ऊपर तीन मूढता व तीन कुज्ञानका पटल या परदा होरहा है। जैसे (कोशी) एक किसी बंद कोठरी में बैठा हुआ या परदेके भीतर छिपा हुआ प्राणी (भास्करं उदय) सूर्यके उदयको नहीं देख सकता है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनरूपी सूर्यका दर्शन उसीको होगा जो अज्ञानके परदेको हटाएगा । जैसे पर या बंद कोठरीमें बैठा हुआ मानव सूर्यके उदयको नहीं देख सकता है यद्यपि सूर्य प्रकट है तथापि उसको नो अंधेरा ही दिख पड़ता है, उसी तरह जिसके ज्ञान नेत्र देवमूढ़ता, पाखंड मूढता व लोक मूढतामे मुद्रित हैं व जो कुमति, कुश्रुत व कुअवधिके मिथ्याज्ञानमें वर्त रहा है उसके सम्यग्दर्शनरूपी सूर्य जो अपने ही आत्मामें प्रकाशमान है नहीं दीखता है। वह अपने आत्माको रागी, द्वेषी, मोही ही अनुभव करता है। अभिप्राय यह है कि जो सम्यग्दर्शनका प्रकाश करना चाहें सनको पचित है कि तीन मूढताओंको पहले त्यागे, किसी लौकिक मिथ्या अभिलाषामें पड़कर मिथ्यादेवोंका, मिथ्या पाखण्डी साधुओंका व मिथ्या लौकिक क्रियाओंकी प्रतिष्ठा न करें। इस बातका निश्चय रक्खें कि जगतमें सुख दुख अंतरंगमें पुण्य पापके उदयसे होता है, बाहरी कारण यथायोग्य निमित्त है। कोई कुदेवकी पूजा भक्ति पुण्यको नहीं उत्पन्न कर सकी है न पापको काट सती प्रथम यह निश्चय होना जरूरी है कि परिणामोंसे यह जीव पाप या पुण्यका बंध करता
अाभ भाव पाप व शुभ भाव पुण्यके बंधके कारण हैं। इसलिये जिस प्रकारकी पूजा व र भक्तिसे भावों में मंद कषायपना झलके, रागद्वेषकी कमी हो, वीतरागताका अंश प्रगटे थे तो कार्य,
कारी हैं। परन्तु जिनसे कषाय बढे, राग बढ़े, वें अकार्यकारी हैं। अतएव सर्वज्ञ वीतराग भग वानकी भक्ति वास्तवमें परिणामों को विशुद्ध करनेवाली है। इसलिये जो सम्यक्तके सूर्यको देखना चाहें उनको सच्चे देव, गुरू, धर्मकी भक्ति करनी चाहिये । मूढताईमें पडकर अन्धकारका बल और अधिक न बढाना चाहिये । इन तीन मूढताओंको त्याग देनेसे व जिनवाणीका प्रेमपूर्वक भाकरनेसे कुमति व कुश्रुत ज्ञानका अन्धेरा हटता चला जायगा-अभ्यास करते २ एक समय ऐसा आजायगा जो यकायक सम्यग्दर्शन सूर्यका उदय होजावे।
॥२१००
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R१९॥
श्लोक-सम्यक्तं यस्य खूवन्ते, श्रुतज्ञानं विचक्षणं ।
श्रावकाचार ज्ञानेन ज्ञान उत्पाद्य, लोकालोकस्य पश्यते ॥ २१५॥ अन्वयार्थ-(यस्य) जिस आत्माके भीतर (सम्यक्तं) सम्यग्दर्शन तथा (विचक्षणं श्रुतज्ञान) यथार्थ " श्रुतज्ञान (खूबन्ते ) परिणमन कर रहा है वहां ही (ज्ञानेन ) इस भाव श्रुतज्ञानके द्वारा (ज्ञान उत्पाचं) ४ ऐसा ज्ञान उत्पन्न होता है जिससे (लोकालोकस्य पश्यते) लोकालोक दिखलाई पड़ते हैं।
विशेषार्थ-यहां यह बताया है कि सम्यग्दर्शन सहित जिसको शास्त्रका यथार्थ ज्ञान है वही अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपको ठीक २ अनुभव कर सक्ता है। सर्व बादशांग वाणीका सार स्वानु. भव है। यही स्वानुभव धर्मध्यान है व यही स्वानुभव शुक्लध्यान है। इस हीके प्रतापसे घातिया काका क्षय होकर केवलज्ञानका लाभ होता है। केवलज्ञानका कारण यथार्थ स्वसंवेदन ज्ञान है। इसी ज्ञानसे सर्व आवरण दुर होजाता है और केवलज्ञानका प्रकाश होजाता है। इस कथन से यह बात दिखलाई है कि जिसको अपना परमात्म पद प्राप्त करना हो उसको उचित है कि सम्यग्दर्शनका लाभ करे और शास्त्रोंको भलेप्रकार मनन करे। जिनवाणीके अभ्यास व मननसे ही घातिया कोंकी स्थिति घटती है, सम्यग्दर्शनके घातक काका बल क्षीण होता है। सम्यग्दर्शन होनेके पीछे भी चारित्रकी शक्ति बढानेके लिये व अनन्त ज्ञानका प्रकाश होनेके लिये शास्त्रका विचार व आत्मानुभवका अभ्यास बराबर रखना जरूरी है।
श्लोक-सम्यक्तं यस्य न साधते, असाध्यं व्रत संजमं ।
ते नरा मिथ्याभावेन, जीवंतोऽपि मृता इव ॥ २१६ ॥ अन्वयार्थ (यस्य सम्यक्तं न साधते) जिससे सम्यग्दर्शनका साधन नहीं होसक्ता है उससे (व्रत Y संगम मसाध्यं) ब्रत व संयमका पलना असाध्य है। (ते नरा) वे मानव (मिथ्याभावेन) मिथ्यात्वकी र भावना सहित होनेसे ( जीवंतोऽपि ) जीवते हुए भी (मृता इव) मृतकके समान ही हैं।
विशेषार्थ-यहां यह बतलाया है कि मानव जन्मकी सफलता सम्यग्दर्शनके लाभ व सम्यक्त सहित ब्रत व संयमके पालने में है। जिन मानवोंने मिथ्यात्वका ही सेवन किया उनका जीना न
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धारणवरण ॥१२०॥
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जीना समान है । वे मृतकके तुल्य ही हैं क्योंकि उन्होंने अत्यन्त दुर्लभं मानव जन्म पानेका कोइ सार नहीं पाया। जिस मिथ्यात्वके कारण एकेन्द्रिय पर्याय में अनन्तकाल विताना पडता है व बेंदियादि कीटों में व पशु पक्षियोंमें व नरकमें घोर कष्ट उठाना पडता है, उस मिध्यात्वको दूर करनेका व सम्पतके लाभ होनेका अवसर मन रहित पंचेंद्रियों तक में नहीं है । जिस सम्पक्तका लाभ सुगमता से इस मानव पर्याय में होसक्ता है । यदि किसीने ऐसे अमूल्य अवसरको पाकर सम्यग्दर्शनका लाभ न किया, उसका साधन न किया व सम्यग्दर्शनके विना व्रत संयम भी यथार्थ न पाला तो सर्व तरहका सुभीता जो सम्यक्त के लाभका मिला था वह निरर्थक गया, इसके सिवाय जिसके परिणामों में सम्यक्त है, भेदविज्ञान है, वह मानव जन्मको संतोष व सुख पूर्वक विता सक्ता है । वह तृष्णाका दास न होकर जलमें कमल के समान गृही जीवन में रह सक्ता है, शुद्धात्माकी भावना से परमानन्दरूपी अमृतका पान कर सक्ता है। वही मुनि या श्रावकका चारित्र यथार्थ व शुद्ध भावसे पाल सक्ता है । सम्यग्दर्शन के विना महान चारित्र भी एकके अंक बिना शून्यके समान निष्फल है। जो सम्पक्ती है, वही जीवित मानव हैं, मिथ्यात्व सहित तो वह मृतक के समान है । श्लोक – उदयं सम्यक्तं यस्य, त्रिलोकं उदयं सदा ।
कुज्ञानं रागव्यक्तं च मिथ्या माया विलीयते ॥ २१७ ॥
ब्यन्वयार्थ – (यस्य ) जिसकी आत्मा में ( सम्यक्तं उदयं ) सम्यग्दर्शनका प्रकाश होगया है उसके ( सदा ) सदा ही ( त्रिलोकं उदयं ) तीन लोकका प्रकाश है। उसने ( कुज्ञानं रागत्यक्तं च ) कुज्ञान और riको छोड दिया है ( मिथ्या माया विलीयते ) और वहां मिथ्यात्व व मायाका अभाव है ।
विशेषार्थ — सम्यग्दर्शनका प्रकाश होते ही तीन लोकमें भरे हुए जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल इन छः द्रव्योंका यथार्थ स्वरूप झलक जाता है । मेरा आत्मा सर्व अनात्माओंसे व अन्य आत्माओं से भिन्न है, एक ज्ञानानंद स्वभावमई है ऐसा प्रकाश होजाता है। यदि शास्त्रका ज्ञाता है तो अपनेको सर्व ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादि भाव कर्म व शरीरादि नोकर्मसे भिन्न अनुभव करता है । जो शास्त्रका ज्ञाता नहीं व अन्तरङ्ग विरोधी कर्म प्रकृतियोंके उपशमसे जिसको सम्पग्दर्शन होजाता है वह भी अपनेको यथार्थ अनुभव कर लेता है। सम्यक्तके होते ही ज्ञान थोडा हो
श्रावकाचार
। ।। २२० ॥
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भारणतरण
॥२२॥
या बहुत सब सम्यग्ज्ञान होजाता है, रागदेषका गाढा मैल कट जाता है। यदि चारित्र मोहके
ॐ श्रावसकर उदयसे कुछ राग भाव होता भी है तो उसे वह कर्मकृत विकार जानता है, अपना स्वभाव नहीं जानता है व उसके मेटने के लिये भी अपना आत्मवल प्रगट करता रहता है। उसके भावों में न तो संसारमई अहंकार ममकार रूप मिथ्याभाव है और न किसी प्रकारका मायाचार है। वह सरल भावों से मोक्षमार्गी होकर चलता है व जीवनको सफल बनाता है। सम्यग्दर्शनका लाभ परम लाभ है, सभ्यक्तीका जीवन प्रशंसनीय जीवन है । सम्यक्ती सदा सुखी रह सक्ता है।
श्लोक-सम्यक्तयुत नरयम्मि, सम्यक्तहीनो न च क्रिया।
सम्यक्तं मुक्ति मार्गस्य, हीनो सम्यक् निगोदयं ॥ २१८॥ ___ अन्वयार्थ-(सम्यक्त युत नरयम्मि) सम्यग्दर्शन सहित नरकमें रहना अच्छा है ( सम्यक्त होनो न च ४ क्रिया) सम्यग्दर्शनसे जो शून्य है उसके कोई भी क्रिया यथार्थ नहीं है ( सम्यक्तं मुक्ति मार्गस्य) मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शन मुख्य है (सम्यक् हीनो निगोदय) जो सम्यग्दर्शनसे हीन है वह निगोदमें चला जाता है।
विशेषार्थ-यहां भी सम्यग्दर्शनका महात्म्य बताया है कि सम्यग्दर्शन सहित हो और यदि * नरकमें भी कर्मानुसार रहना पडे तो कोई हर्ज नहीं है। वहांपर भी सम्यक्ती आत्मीक आनन्दका
अनुभव कभी कभी करता ही रहता है तथा सम्यग्दर्शनके प्रभावसे नरकके कष्टोंको कोदय जानकर समताभाव रखता है। सातों नरकों में सम्यक्त पैदा होजाता है तथा पहले नर्कमें सम्यग्दर्शनको साथ लेकर भी जासकता है। यदि सम्यग्दर्शन होनेसे पहले नरक आयु बांधली हो । सम्यग्दर्शनके विना मुनि धर्म व श्रावक धर्मकी कोई भी क्रिया मोक्षमार्ग नहीं है, मात्र पुण्य बन्ध करानेवाली है। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गमें प्रथम इसीलिये कहा गया है कि इसके विना ज्ञान कुज्ञान है, चारित्र कुचारित्र है। जो सम्यक्ती नहीं हैं वे अज्ञान भावसे जगतमें आचरण करते हुए पर्याय बुद्धिके गाढ ममत्वके कारण एकेन्द्रिय साधारण वनस्पति काय नाम कर्मको यांधकर निगोदमें चले जाते हैं। वहां दीर्घकाल तक घोर कष्ट पाते हैं। वहांसे उन्नति करके फिर मानव गति पाना अतिशय कठिन होजाता है। अतएव इस मानव जन्ममें जिस तरह बने उद्यम करके सम्यग्दर्शनका लाभ कर लेना चाहिये। यही भव समुद्रसे तारनेवाला खेवटिया है। यही इस लोक परलोक दोनोंको सुधारनेवाला है।
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कारणवरण
॥२२२॥
श्लोक – सम्यक्त युतपामस्य, ते उत्तम सदा बुधै ।
नो सम्यक् कुलीनस्य, अकुली अपान उच्यते ॥ २१९ ॥
अन्वयार्थ – (सम्यक्त युत पानस्य ) सम्यग्दर्शन सहित जो कोई भी पात्र हो, चाहे हीन भी हो (ते बुधैः सदा उत्तम ) उसको पंडितोंने सदा उत्तम कहा है । (सम्यक्त हीनो कुलीनस्य ) जो उत्तम कुलवाला परन्तु सम्यग्दर्शन से रहित है उसे ( अकुली अपान उच्यते ) नीच कुली व नीच पात्र कहा जाता है । विशेषार्थ – यहां पान शब्द पीनेके वर्तनको कहते हैं। मतलब कोई भी पात्र हो चाहे हीन मानव भी क्यों न हो या कोई पशु पक्षी भी क्यों न हो जिसके पास सम्यग्दर्शनरूपी रत्न है वह उत्तम है, माननीय है, क्योंकि वह मोक्षमार्गी है। भले ही उसकी मान्यता उसके शरीर व उसकी आजीविकाकी अपेक्षा हीन हो परन्तु सम्यग्दर्शन के प्रभावसे वह देवोंके द्वारा भी माननीय होजाता है। बड़े २ आचार्य भी उसकी प्रशंसा करते हैं । इसके विरुद्ध जो कोई उत्तम कुलमें पैदा हुआ हो, जगतमें माननीय हो परन्तु यदि वह सम्यग्दर्शन से शून्य है, मिथ्यादृष्टी संसाराशक्त पर्यायबुद्धि है तो आचार्यगण व विवेकी मानव उसे हीन कुली व हीन पात्र ही कहते हैं। क्योंकि उसकी आत्मा हीन है, दुर्गतिमें जानेवाली है । एक गृहस्थ जो सम्यक्ती है वह उस मुनिसे बहुत अच्छा है जो घोर तप करता हुआ भी मिथ्यादृष्टी है । जैसे अंधकार और प्रकाशका अन्तर है वैसे मिथ्यात्वका और सम्यक्तका अन्तर है । जैसे विष और अमृतका अन्तर है वैसे मिथ्यात्व और सम्यक्तका अंतर है । श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्वामी समन्तभद्राचार्य कहते हैंसम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेह नं । देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरौजसम् ॥ २८० ॥
भावार्थ - यदि चांडाल की देहसे उत्पन्न हुआ है परन्तु सम्यग्दर्शन सहित है तो उसे भगवानने देववत् कहा है, वह जलते हुए अंगारके समान है जिसके ऊपर भस्म पडी है। भस्मके कारण उसका प्रकाश गुप्त है परन्तु भीतर वह पथार्थ अग्नि है । उसी तरह चांडालका शरीर भले ही हीन माना जाता हो परन्तु उसकी आत्मामें सम्यग्दर्शन होगया है इसलिये वह हीन नहीं है किंतु देवोंके समान उच्च है, माननीय है, मोक्षमार्गी है। वह एक अति कुलीन मिथ्यादृष्टीकी अपेक्षा बहुत कम पापकर्म बांधता है व अधिक पुण्यकर्म बांधता है। उसकी भात्मा में आत्मीक आनन्दामृतका स्वाद
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॥२२३॥४
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४श्रावकाचर
॥२२॥
आरहा है जब कि कुलीन मिथ्यादृष्टी मात्र विषयके स्वादका ही लोलुपी होरहा है।
और भी कहा है
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥ ३३ ॥
भावार्थ-जो गृहस्थ मिथ्यादृष्टी नहीं है वह मोक्षमार्गपर चलनेवाला है और जो साधु मोहवान् मिथ्यादृष्टी है वह संसारमार्गपर चलनेवाला है। इसलिये एक मिथ्यादृष्टी मुनिसे एक सम्यक्ती गृहस्थ श्रेष्ठ है।
श्लोक-तीर्थ सम्यक्तं साधं, तीर्थकर नाम शुद्धए ।
कर्म क्षिपति त्रिविधिं वा, मुक्तिपथं सार्थंध्रुवं ॥ २२० ॥ अन्वयार्थ (सम्यक्तं सार्थ) जो जीव सम्यग्दर्शन सहित है वही (तीर्थकर नाम) तीर्थकर नामकर्मको ॐ बांधकर ( तीर्थ) तीर्थकर जन्म लेता है। वह जन्म (शुद्धए) आत्माकी शुडिके लिये होता है। वहां
(त्रिविधि वा कर्म क्षिपति) तीन प्रकारके कर्मोंका क्षय कर डालता है (मुक्तिपथं साथै ध्रुवं ) उसके यथार्थ व निश्चल मोक्षका मार्ग विद्यमान है।
विशेषार्थ-जो सम्यक्ती होता है उसको ही तीर्थकर नाम कर्मका बंध होता है। उस सम्यक्त व तीर्थकर नाम कर्मके प्रभावसे वह जीव यातो उसी भवसे तीर्थकर होकर धर्मका प्रचार करता है जैसा विदेहोंमें होसका है अथवा एक भव और लेकर मनुष्य हो तीर्थकर पदधारी होता है जिसके इन्द्रादिदेव पांचों ही कल्याणक करते हैं। भरत व ऐरावतमें पांचों ही कल्याणक धारी जन्मसे ही तीर्थकर होते हैं। तीर्थकरोंके ऐसा यथार्थ आत्मानुभव होता है कि वे अपना लक्ष्य निरंतर आत्माकी शुद्धिपर ही रखते हैं । किंचित् भी वैराग्यका बाहरी निमित्त पाते ही वे दीक्षा लेलेते हैं। और थोडे ही परिश्रमसे घातिया काँका नाश कर केवलज्ञानी होजाते हैं। फिर जबतक आयु शेष है यत्र तत्र आर्यखंडमें विहार करके धर्मका उपदेश देते हैं। फिर सर्व कमासे रहित हो अर्थात् तीनों ही प्रकारके कमोसे छूट करके अर्थात् भावकर्म राग द्वेषादि, द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि व नोकर्म शरीरादि उन सबसे मुक्त हो शुद्ध सिद्ध होजाते हैं। यह परमोपकारी निश्चल सम्यग्दर्शन साथ साथ रहता है, वही तीर्थकर कर्मके बंधका निमित्त मिलाता है। वही तीर्थकरके जन्मका निमित्त
॥२२॥
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बारणतरण
मिलाता है। उसीके प्रभाव से तीर्थका प्रचार होता है। वही मोक्षमें पहुंचा देता है । वहापैर भी यह निर्मल क्षायिक सम्यक्त सदाकाल बना रहता है। इसीके महात्म्यसे वहां भी सिद्धभगवान स्वोमानंदका भोग करते रहते हैं। रत्नकरंडमें कहा है
अमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च नूतपादांभोनाः । ढष्ट्या सुनिश्चितार्था वृषचक्रधरा भवन्ति लोकशरण्याः ॥ ३९ ॥
भावार्थ -- सम्यग्दर्शन के प्रभाव से धर्मचक्र के धारी तीर्थकर होते हैं जिनके चरणकमलोंको इन्द्रादि, चक्रवर्ती व गणधरादि आचार्य नमन करते हैं, जिनको भले प्रकार पदार्थोंका निश्चय है व जिनकी शरण में तीन लोकके प्राणी आते हैं ।
श्लोक - सम्यक्तं यस्य
TUAZION
चितंति, वारं वारेन सार्थयं ।
दोषं तस्य न पश्यंते, सिंघ मातंग जूथयं ॥ २२१ ॥
अन्वयार्थ -(यस्य ) जो कोई ( सम्यक्तं ) सम्यग्दर्शनको (सार्थयं ) यथार्थ रूप से ( वारंवारेन) वारंवार (चिति) चितवन करते हैं ( तस्य दोषं न पश्यंते ) उसको दोष नहीं देखते हैं। जैसे ( मातंग जूथयं) हस्ती के झुंड (संघ) सिंहको नहीं देखते हैं ।
विशेषार्थ — जैसे सिंहका ऐसा प्रताप होता है कि उससे भय खाकर हाथियोंके समूह सिंहका सामना नहीं करते हैं, उसकी गर्जना सुनकर दूरसे ही भाग जाते हैं उसी तरह जिस भव्यजीवके अंतरंग में सम्यग्दर्शनका वारवार चितवन रहता है अर्थात जो अपने शुद्ध आत्मीक तत्वको सर्व अनात्मीक तत्वसे पृथक् करके एकाग्र मन हो अनुभव करते हैं उनके ऊपर रागद्वेषादि दोषोंका आक्रमण नहीं होता है। वे समताभाव में लीन रहते हैं। वे अपने आत्मीक धनके सिवाय किसी भी पर वस्तुको परमाणु मात्र भी अपनाते नहीं हैं। उनके भावोंमें अपने शुद्धात्माका मानो चित्रण होजाता है। उसके प्रेमके वे आसक्त होजाते हैं। वे कषायके मैलको मोहनीय कर्मका विकार समझते हैं । वे यही भावना करते हैं कि हमारे उपयोग में कषायका मैल न झलके तौही उत्तम है । यदि कदाचित् चारित्र मोहके उदयसे राग द्वेषका भाव आजाता है तो उससे भी उदासीन रहते हैं । दोषको दोष पहचानते रहते हैं। वे सदा जागृत रहते हैं। कभी भी मिथ्याज्ञानके धोखे में नहीं आते
श्रावकाचार
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धारणतरण ॥२२५॥
১में
हैं । उनके पास गुणस्थानकी परिपाटीके अनुसार बहुतसा कषायोंका दोष तो आता ही नहीं, जो कुछ आता भी है उसको वे सदा जीतनेका उद्यम रखते हैं। वास्तव में सम्यग्दृष्टी एक सिंहके समान है, वह बडा साहसी है, आत्मबली है। उसके पास आत्मज्ञानरूपी तेज बडा प्रतापशाली है उस तेजके सामने रागादि दोषरूपी हाथी आते हुए अवश्य कांपते हैं ।
श्लोक – सम्यक्तं शुद्ध पदं सार्थं, शुद्ध तत्व प्रकाशकं ।
ति अर्थ शुद्ध संपूर्ण, सम्यक्तं शाश्वतं पदं ॥ १२२ ॥ अन्वयार्थ—(सम्यक्तं सार्थ शुद्ध पदं ) सम्यग्दर्शन यथार्थ शुद्ध पर है (शुद्ध तत्व प्रकाशकं शुद्ध आत्मीक तत्वको प्रकाश करनेवाला है (ति अर्थ शुद्ध सम्पूर्ण ) शुद्ध तीनों भावोंसे पूर्ण है ( सम्यक्तं शाश्वतं पदं ) सम्यग्दर्शन ही अविनाशी स्वरूप है ।
विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन निश्चयसे इस आत्माका एक शुद्ध निर्विकल्प गुण है । इसीके प्रतापसे शुद्ध आत्माका अनुभव होता है। जहां सम्पग्दर्शन उपयोगात्मक है वहां सम्यग्दर्शन, सम्य ज्ञान व सम्यक् चारित्र तीनों ही पूर्णताको लिये विराजमान रहते हैं अर्थात् जब शुद्ध निश्चयनयके बल से शुद्धात्मा की भावना करते शुद्ध आत्माका अनुभव किया जाता है तब वहां तीनोंकी पूर्णता ही स्वसंवेदन ज्ञानके बलसे अनुभवमें आती है । यथार्थ आत्मा परोक्षरूपसे जाना जाता है । केवलज्ञानकी अपेक्षा वह परोक्ष है परंतु स्वसंवेदन ज्ञानकी अपेक्षा प्रत्यक्ष है । सम्वग्दर्शन आत्माका एक अविनाशी गुण है । संसारी जीवोंके मिथ्यात्वके उदयसे ढक रहा है। जब मिथ्यास्वका अंधेरा हट जाता है तब यथार्थ प्रकाश होजाता है । सम्यग्दर्शनकी महिमा अपार है । आत्माको यही परमात्मा झलकानेवाला है । यही ध्यानकी अग्नि प्रकटानेवाला है । जिससे कर्मों के समूह भस्म होजाते हैं ।
श्लोक -यस्य हृदये सम्यक्तं, उदयं शाश्वतं स्थिरं ।
श्रावकाचार
99%
तस्य गुण शेष नाथस्य, आसक्तं गुण अनंतयं ॥ २२३ ॥
अन्वयार्थ - (यस्य हृदये ) जिसके अंतरंग में ( शाश्वतं स्थिरं सम्यक्तं उदयं ) अविनाशी निश्चल क्षायिक ॥। १२५ ।।
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वारणतरण
श्रावकाचार
सम्यग्दर्शनका प्रकाश होजाता है (तस्य शेष गुण नाथस्य) उस अनन्तगुणके स्वामीके भीतर ( अनंतय * गुण आसक्तं ) अनंत गुण पाए जाते हैं।
विशेषार्थ-क्षाधिक सम्यग्दर्शनके प्रकाश होते ही इस आत्माके भीतर गुणोंका विकाश होने लगता है। यह आत्मा स्वभावसे अनंतगुणोंका स्वामी है। घातिया कर्मों के आवरणके कारण वे गुण प्रगट नहीं हैं। क्षायिक सम्यग्दर्शनके होनेपर वह महात्मा अधिक काल तक छमस्थ नहीं रहता है। यातो उसी ही जन्ममें केवल ज्ञानी होजाता है या बीचमें एक भव देव या नारकीका लेकर मनुष्य हो केवलज्ञानी होजाता है या यदि सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिसे पहले तिर्यच आयु या मनुष्य आयु बांधली हो तो भोगभूमिमें जाकर फिर वहांसे देव होकर फिर मनुष्य हो नियमसे केवलज्ञानी होजाता है। जैसे सूर्यके ऊपर मेघोंका आवरण या इससे उसकी किरणें नहीं फैलती थीं। सर्व आवरण हट जानेसे पूर्णपने किरणोंका प्रकाश होजाता है उसी तरह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय इन चार घातिया कोंके उदयसे आस्माके अनंतगुण प्रच्छन्न थे, अप्रगट थे। जब इन चारोंकाक्षय होजाता है तब अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, यथाख्यातचारित्र,क्षायिक सम्यक्त, अनन्त सुख आदि प्रकाशमान होजाते हैं। इन सबमें प्रथम क्षायिक सम्यक्त होता है । जबतक क्षायिक सम्यग्दर्शन प्रगट न हो तबतक कोई महात्मा क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है। क्षपक श्रेणीपर जानेसे ही दसवें सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानके अंतमें चारित्र मोहका पूर्ण क्षय होजाता है। तब ही क्षीण मोह बारहवां गुणस्थानवर्ती होजाता है और वहां यथाख्यात चारित्र प्रकाशमान होजाता है। फिर इस गुणस्थानके अन्तमें शेष तीन घातीय कर्मोंका क्षय होता है, तब तेरहवें गुणस्थानमें सर्वाग केवली होकर अरहंत नाम पाता है। पूर्ण गुण विकाशी परमात्मा हो जाता है। भावार्थ यह है कि सम्यग्दर्शन ही वास्तवमें परमात्म पदका कारण है। इसलिये जो अपना सच्चा हित चाहें उनको उद्यम करके सम्बग्दशेनको अपने भीतर अवश्य प्रकाश करना चाहिये । यही मोक्षकी सीढी है।
श्लोक-सम्यक्तं येन दिष्टंते, उदयं भुवनत्रयं ।
लोकालोकविलोकंच, आलवाले मुखं यथा ॥२२४॥ अन्वयार्थ-(येन सम्यक्तं दिष्टते) जिसने सम्यग्दर्शनका अनुभव कर लिया है उसको (भुवनत्रयं
V॥२२॥
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बारबबरण
॥२२॥
उदय) तीन लोकका ज्ञान होगया है (कोकालोकविलोकं च ) उसने लोक अलोकको उसी तरह देख लिया है (यथा मालवाले मुख) जैसे निर्मल जलके कुंडमें मुख दिख जाता है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन तब ही होता है जब स्वपरका भेद विज्ञान हो, आत्मा व अनात्माका भिन्न २ लक्षण प्रगट होजावे। यह तीन लोक इनही दो पदार्थों का समुदाय है। तथा अलोकाकाश भी अनास्मामें गर्भित है। सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका राजमार्ग यह है कि छ. द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्व, नौ पदार्थोंका ज्ञान, व्यवहार नय तथा निश्चय नयसे यथार्थ प्राप्त किया जावे। जिसने इन सबको समझ लिया उसने तीन लोक व अलोकको वास्तव में उसी तरह देख लिया जैसे निर्मल जलस्थानमें अपना मुख दिख जाता है। सम्पत्तीका आत्मा निर्मल होता है। उसमें कोई वस्तु आश्चर्यकारी नहीं भासती है। शास्त्रज्ञानक बलसे वह सर्व जगतके द्रव्योंके तत्वोंका जानकार होजाता है। यह तो परोक्ष लोकालोकका ज्ञान होना है। फिर यही सम्यक्ती जीव जब उन्नति करता है तब साक्षात् अईन्त परमात्मा होजाता है। उस समय तो प्रत्यक्ष ज्ञान भी सर्व लोकालोक अपने अनन्त गुण पर्याय सहित एक साथ स्पष्ट झलक जाते हैं। वास्तव में सम्यक्त एक अपूर्व दर्पण है, जिससे अपना शुरआत्मा कर्ममेल से मिला हुआ होनेपर भी कर्मसे पृथक्झलकता है, स्वानुभवमें आता है, उसके आनन्दका स्वाद आता है। सम्यक्तीको जीवन्मुक कहें तो कुछ अनुचित नहीं है। वह सदा सुखी रहता है, वह सीधा मोक्षनगरको चला जारहा है। ऐसे सम्यक्तको जिस तरह बने प्राप्त करना चाहिये।
आठ मूल गुण। श्लोक-मूलगुणं उत्पाद्यते, फल पंच न दिष्टते ।
बड पीपल कठुम्बर, पाकर उदंबरंस्तथा ॥ २२५ ॥ अन्वयार्थ-(मूलगुणं उत्पाद्यते ) सम्यग्दष्टीको मुलगुण पालने चाहिये (फल पंच न दिष्टते ) उसे पांच र फल न लेने चाहिये (बढ पीपल कटुम्बर पाकर उदवरंस्तथा ) वडका फल, पीपलका फल, अंजीरका फल, । पाकर फल तथा उदम्बर या गूलर ।
MR९॥
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वारणवरण
॥२२८॥
विशेषार्थ — बंड आदि पांच फलोंमें त्रस जीव होते हैं । इसलिये दयावान प्रांणी ऐसे फलोंको नहीं लेता है जिनके खानेसे त्रस जंतुओंका घात हो । इन फलोंको न गीला अर्थात् हरा खाना चाहिये और न सूखा खाना चाहिये । क्योंकि खनेपर वे बस जंतु सूख जांयगे । उनका कलेवर मांस होता है। सूखे मांसके खानेका दोष आता है । सागारधर्मामृत में भी कहा है:
पिप्पलोदुंबरप्लक्षवटफलगु फलान्यदन् । हंत्यार्द्राणि त्रसान् शुष्काण्यपि स्वं रागयोगतः ॥ १३-२ ॥
भावार्थ – पीपल, गूलर, पाकर, वड और कठूमर या अंजीर इन पांच वृक्षोंके हरे फल या सुखे फल जो खाता है वह राग भावकी अधिकतासे अनेक स जंतुओंका घात करनेवाला है । सम्पदृष्टी विवेकी होजाता है । वह खानपान ऐसा रखना चाहता है जिससे शरीर स्वास्थ्य ठीक रहे, धर्मध्यान में बाधा न पड़े, तथा अस व स्थावर दोनों प्रकारके प्राणियोंकी हिंसा जितनी होसके उतनी कम होवै । वह जिह्वाका लम्पटी नहीं रहता है । इसलिये जिन फलों में प्रत्यक्ष कीडे उडते दीखते हैं अथवा कीडोंकी उत्पत्तिकी बहुत संभावना है उन फलोंको दयावान सम्यग्दृष्टी नहीं खाता है। ऐसे अनेक फल हैं जिनमें ब्रस जंतु होते हैं, उनमें यहां पांच मुख्य गिनाए हैं। इसी तरह के और भी जो फल हों जिनमें त्रस जंतु पाए जावें उनको दयावान नहीं खाता है। शुद्धाहार शरीर व मन दोनोंका रक्षक है।
श्लोक – फलानि पंच त्यक्तंति, त्रसस्य रक्षणार्थं च ।
अतीचारा उत्पादते, तस्य दोष निरोधनं ॥ २२६ ॥
अन्वयार्थ — ( त्रसस्य रक्षणार्थं च ) श्रस जंतुओंकी रक्षा करनेके हेतुसे ही (पंच फलानि त्यक्कंति ) पाव फलोंका त्याग किया जाता है । (अतीचारा उत्पादते) इनके अतीचार जो जो पैदा होते हैं (तस्य दोष निरोधन) उन दोषों को भी रोकना उचित है ।
विशेषार्थ — दयावान गृहस्थ को यह विचार रखना चाहिये कि उसके खानपान के निमित्त से सजीवोंका घात न हो तौही ठीक है । इसलिये जैसे बड, पीपल आदि फलोंको त्रस जीवोंकी रक्षार्थ त्यागा जाता है वैसे ही और भी फलोंको जिनमें कीडोंके पैदा होनेकी सम्भावना है उनको
श्रावका कार
॥२२८॥
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वारणतरण
॥२२९॥
र नहीं लेना चाहिये । तथा हरएक फलको या बंद बादाम, सुपारी, इलायची, छुहारा आदिको तोडकर श्रावकाचार
व भले प्रकार देखकर खाना चाहिये। शरदी गरमी आदि कई निमित्तोंसे उनके भीतर त्रस जंतुओंका ४ पैदा होना संभव है। बहुधा फलोंके भीतर कीडे चलते हुए दिखलाई पड़ते हैं।
श्लोक-अन्नं यथा फलं पुहुवं, वीयं सम्मूर्छनं यथा ।
तथा हि दोष त्यक्तंते, अनेके उत्पाद्यते यथा ॥ २२७॥ अन्वयार्थ–(अन्नं यथा ) इसी तरहका जो अन्न हो घुन गया हो (फलं पुहुवं) फल तथा फूल, (वीर्य) 1 बीज, (सम्पूर्छनं यथा ) घास शाक आदि (तथा हि दोष त्यक्तंते ) वैसा ही दोष देखकर छोड़ देना चाहिये (अनेके यथा उत्पाबते ) उसी समान अनेक त्रस जंतु जहां उत्पन्न हो।
विशेषार्थ-अन्न जो पुराना हो घुन गया है काली फुल्ली पड़ गई हो वह भी त्रस जीवोंका स्थान जानकर त्याग देना चाहिये । फल जो सड गया हो उसमें त्रस जीव उत्पन्न होगए हैं ऐसा जानकर न खाना चाहिये। फूल जातिको न खाना चाहिये । फूलोंके आश्रय बहुतसे अस जंतु पैदा होते हैं और उनमें विश्राम करते हैं। गोभीका फूल बहुतसे त्रस जंतुओंका स्थान है। जिन पीजोंके
भीतर ब्रस जंतुकी संभावना हो उनको भी न खाना चाहिये । शाक पत्तियां जिनमें ब्रस जंतुओंके * बैठनेकी संभावना हो न लेना चाहिये । जहां त्रस जंतु पैदा होते हो उन उन वस्तुओंको न खाना & चाहिये । बुसी हुई मिठाई आदि तथा पहले बता चुके हैं, कौनसा भोजन कितनी देर तकका बना*
खाना चाहिये, पीछे इस जंतु पैदा होजायंगे। दयावानोंको निरंतर ताजा शुद्ध भोजन करना चाहिये व अच्छे ताजे फलोंको तोडकर देखकर खाना चाहिये। अजान फलोंको भी विना जाने न खाना चाहिये । जिसमें त्रस जंतुओंकी रक्षा हो वह कार्य करना चाहिये । दयावान गृहस्थ अपने जीवनके समान क्षुद्र जंतुओंके भी जीवनको समझता है। तथा जब कोई प्राणी अपना मरण नहीं चाहता है तब हमारा कर्तव्य है कि उनके प्राणोंकी रक्षा करते हुए हम अपना खानपानादि करें।
श्लोक-मद्यं च मानसंबंध, ममता रागपूरितं ।
अशुद्ध अलाप वाक्य, मद्यदोष संगीयते ॥ २२८ ॥
॥२१५
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नरम
४ावर
॥२०॥
अन्वयार्थ-(म) मदिरा (च) और (मानसम्बन्धं ) मान सम्बन्धी मद (ममता रागपूरितं ) ममता व रागसे भरा हुआ (अशुद्ध आलापं वाक्यं) मिथ्यावाद रूपी वचन ( मद्यदोष संगीयते ) मदिराका दोष कहा जाता है।
विशेषार्थ-आठ मूलगुणों में पांच उदम्बर फलोंके सिवाय तीन प्रकार मदिरा, मांस व मधुमी हैं। यहां मदिरापानका निषेध करते हुए मदिरा सम्बन्धी दोष भी न लगानेकी प्रेरणा की गई है। मान कषायके तीन वेगसे मद चढ़ जाता है। धन मद, अधिकार मद, तप मद, विद्या मद, रूप मद, बल मद, कुल मद, जाति मद, यह मद भी मदिराके समान बाधा करनेवाला है। जैसे मदिराके नशेमें प्राणी कुछका कुछ बकता है वैसे इस तरहके मदमें भी यह धनादिकी ममता व रागके कारण मान पोषक मिथ्या बातें किया करता है। दूसरेका अपमान हो अपनी बड़ाई हो ऐसी बकपक करके अपना उन्मत्तपना प्रगट करता है। किसी प्रकारका भी नशा ग्रहण करना योग्य नहीं है। जिस किसी वस्तुके खाने पीनेसे व जिस किसी भावनाके भानेसे व जिस किसी क्रियाके करनेसे अपनी यथार्थ स्मृति, बुद्धि व प्रज्ञा व विवेक न रहे, सावधानी बिगड़ जावे उस सर्व खानपान, भावना व क्रियाका त्याग कर देना उचित है। भांग, चरस, गांजा, तम्बाकू आदि नशोंको भी नहीं पीना चाहिये । बाहरी सामग्रीके होते हुए अनित्य भावनाका विचार करते हुए उनके भीतर तीब्र ममत्व भाव न लाना चाहिये । शेखी मारनेकी आदत छोड देनी चाहिये। मानके वशीभूत हो अपनी
आमदनी व खर्चका विचार न करके मर्यादासे अधिक विवाहादिमें खर्च करके उन्मत्त होकर अपना र झूठा मान पुष्ट नहीं करना चाहिये । आकुलताको बढ़ानेवाले कार्य विना सावधानीसे कर लेना यह सर्व उन्मत्त विचारका फल है।
श्लोक-संधानं सन्मूर्छनं येन, त्यक्तंते ते विचक्षणाः । अनंतम
शुद्धदृष्टितं ॥ २२९ ॥ अन्वयार्थ-(येन ) जिसमे ( संधानं ) संधानका दोष हो (सन्मूर्छन ) जहां सन्मूर्छन जंत पैदा हो उनको (त्यक्तंते) छोड देते हैं (ते विचक्षणाः) वे ही चतुर हैं (शद्धदृष्टितं ) शुद्ध सम्यग्दृष्टी (अनंतभावना दोष) अनंतानुबंधी कषायकी भावना सम्बन्धी दोषको नहीं लगाता है।
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कारणवरण
४२३१।।
विशेषार्थ - अचार मुरब्बा आदि ताजा खाना चाहिये । मर्यादाके भीतरका भोजन छोडकर मर्यादाके बाहरका भोजन खाने में वह पदार्थ रस चलित हो जाता है इससे उसमें मदिराका अतीवार आता है । किस पदार्थकी क्या मर्यादा है यह कथन पहले किया जाचुका है। जिस किसीमें सम्मूर्छन त्रस जंतु पैदा होजावें वह सब पदार्थ मदिरा के दोषको रखनेवाला है ।
सागारधर्मामृत में मदिराके अतीचार में कहा है
संधानकं त्यजेत्सर्वं दषितकं द्वयोषितं । कांजिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा ॥ ३-११ ॥
भावार्थ — सर्व प्रकारका संधान न खावे, दो दिनका दही छाछ न खावे, दहीके वडे कांजी न खावे, जिसपर फफूदी व फूल्ली आगई हो सो न खावे, यह सब महाव्रतके अतीचार हैं। वहीं लिखा हैजायंतेऽनन्तशो यत्र प्राणिनो रसकायिकाः । संधानानि न वरम्यंते तानि सर्वाणि भाक्तिकाः ॥
भावार्थ - जिस वस्तु रसके सम्बन्धी अनंत जंतु उत्पन्न होजावे उन सबको संघाना जानके जिन भक्त नहीं खाते हैं । सम्यग्दृष्टी जीव जिह्वाका लम्पटी नहीं होता है । इसलिये वह विवेकपूर्वक ही खानपान रखता है। शुद्ध भोजन करनेसे परिणाम निर्मल रहते हैं, आलस्य नहीं सताता है, रोग नहीं होते हैं, अनन्तानुबन्धी कषाय अन्याय व अभक्ष्य में प्रेरित कर देती है । सम्यग्दृष्टी के ऐसी कषायकी भावना नहीं होती है इससे वह विचारपूर्वक वर्तता है ।
श्लोक -मांस भक्ष्यते येन लोनी मुहुर्त गतस्तथा ।
न च भोक्तं न च उक्तं च व्यापारं न च क्रियते ॥ २३० ॥
अन्वयार्थ – (ये मांसं न भक्ष्यते ) जो कोई मांस नहीं खाते हैं ( तथा ) वैसे ही ( मुहूर्तं गतः लोनी ) दो घडी पीछे की लोनी ( न च भोक्तं ) नहीं खानी चाहिये । ( न च उक्तं) और न खानेको कहनी चाहिये ( व्यापारं न च क्रियते ) और न व्यापार ही करना चाहिये ।
विशेषार्थ - दूसरा मकार मांस है। मांसका भी त्याग भले प्रकार करना चाहिये । मांसके दोषों को भी बचाना चाहिये । लोनी मक्खनको दो घडीके भीतर गर्म करके घी बना लेना चाहिये । उसी घीको खाना चाहिये । व दूसरेको खानेको कहना चाहिये व उसी घीका व्यापार करना चाहिये। जो लोनीको दो घडीसे अधिक रख छोड़ा जायगा तो उसमें अन गिनती त्रस जंतु सम्मूर्छन
श्रावकाचार
॥ १३१ ॥
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वारणतरण
॥२३२॥
पैदा हो जायगे फिर उनको गर्म करनेसे मांसका दोष आयगा । दो घडीके भीतर २ बस जंतु नहीं पैदा होते हैं तबतक घी बनानेका रिवाज देश में प्रचलित करना चाहिये । ग्रामीणों को समझा देना चाहिये । वही घी खानेलायक है व उसीका ही व्यापार करना उचित है । सागारधर्मामृत में मांस के अतीचार कहे हैं
चर्मस्थमः स्नेहश्व हिंग्वसंहृतचम च । सर्व च भोज्यं व्यापन्नं दोषः स्यादाभिषव्रते ।। ३-१२ ॥
भावार्थ - चमड़े के वर्तनमें रक्खा हुआ जल, घी, तेल आदि- चमड़ेमें रक्खी हुई हींग तथा रस चलित सर्व भोजन मांसका अतीचार है। मर्यादाके भीतरके पदार्थ खाना पीना चाहिये जो मर्यादा पहले कही जा चुकी है। उसके बाहरके पदार्थोंमें त्रस जंतु पैदा होजांयगे । अतएव उन पदार्थों के खानेसे मांसका भी अतीचार होगा व मदिराका भी दोष होगा । दयावान गृहस्थ स्वपर उपकारी होता । अशुद्ध व अभक्ष्य भोजन करनेसे रागकी लम्पटता होती है, परिणाम बिगड़ते हैं व शरीर भी रोगी होता है । सम्यग्दृष्टी जीव जिह्नाका वश करनेवाला रहकर शुद्ध खानपान करनेमें हो संतोष मानता है ।
श्लोक - दोदारि या महिदुग्धं च, जे नरा भुक्तभोजनं ।
स्वादं विचलितं येन भुक्तं, मांसस्य दोषनं ॥ २३१ ॥
अन्वयार्थ - ( दोदारिया ) जिनकी दो दाल होती हों । उनको (महि ) दही छाछ (च दुख ) और दूध इनके साथ मिलाकर (जे नरा मुक्त भोजनं ) जो मनुष्य भोजन करते हैं अथवा ( येन स्वादं विचलित भुक्तं ) जिसने स्वाद चलित पदार्थको खाया उसको ( मांसस्य दोषनं ) मांसका दूषण लगता है ।
विशेषार्थ - द्विदल्ल अन्न मेवाको दही छाछ के साथ खानेका निषेध पहले कर चुके हैं। ऐसेको खाने के साथ ही मुंहकी राय के संयोगसे त्रस जंतु पैदा हो जाते हैं । सागारधर्मामृत में ५-१८ मेंआमगोरससंपृक्तं द्विदल ऐसा वाक्य दिया है जिसका सीधा अर्थ यह होता है कि कच्चे गोरस (दूध, दही या छाछ ) के साथ दो दाल वाली वस्तु मिलानेसे द्विदलका दोष होता है। यदि दूध, या दही या छाछको पका लिया जाये तो दोष नहीं रहता है ऐसा समझ में आता है। जिसका स्वाद विचलित हो जाये ऐसी वस्तुको खाने में भी मांसका दोष आता है क्योंकि वह सडने लगता
में
श्रावकाचार
HRARIE
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कारणवरण
IR३३॥
है, बस जंतु पैदा होने लगते हैं। मर्यादाका भोजन लेना बस रक्षाका उपाय है। रसोई साफ शुद्ध प्रकाशवाले स्थानपर बनवानी चाहिये। तथा जो सामग्री रसोई में काममें लीजावे वह जंतु रहित शुद्ध होनी चाहिये । चार बातोंकी शुद्धिको चौका कहते हैं।
द्रव्य शुद्धि-पानी, अन्न, आटा, घी, दूध आदि सर्व मर्यादाका नित्यका देखा हुआ लेना चाहिये । लकडी घुनी न हो, जंतु रहित हो।
क्षेत्र शुद्धि-रसोईका स्थान साफ जंतु रहित हो, भीतें साफ की जांय, छतपर या तो चंदोऊ हो या रोज साफ की जावे। भूमिको नित्य साफ करें। पक्की हो तो पानीसे धोवे, कच्ची हो तो मिहीसे लीपे।
काल शुद्धि-दिनमें मुनिदानके समयके पहले रसोई तैयार करले।
भावशुद्धि-रसोई बनानेवालेके भावोंकी शुद्धि यह हो कि वह दयावान हो, जंतुओंकी रक्षा ॐ करता हुआ रसोई बनावे व प्रेमाल हो। ऐसी भक्तिसे घनावे कि भोजन पानेवाले स्वास्थ्य लाभ करे तथा शरीर शुद्ध वस्त्र सहित हो । ऐसी शुद्ध रसोई शुद्ध स्थानमें ही जीमना हितकारी है। जितना त्रस घात बचेगा उतना मांस दोष टलेगा।
श्लोक-मधुरं मधुरश्चैव, व्यापारं न च दृश्यते ।
मधुरं मिश्रिते येन, दि मुहूर्त सम्मूर्छनं ॥ २३२॥ मन्वयार्थ-(मधुरं ) शहत (मधुरश्चैव ) और दूसरा मीठा इनका (व्यापारं न च दृश्यते ) व्यापार नहीं करना योग्य है (येन मधुरं मिश्रिते) जिस वस्तुमें गीला, मीठा या मधु मिलावेंगे उसमें (द्वि मुहूर्त सम्मूर्छन) चार घडीके पीछे सम्मूर्छन त्रस जंतु पैदा होजायंगे ।
विशेषार्थ-तीन मकारों में मधुको भी नहीं खाना चाहिये, यह मक्खियोंका उगाल है तथा गीले रसमें चार घड़ी पीछे त्रस जंतु सम्मूर्छन पैदा होजाते हैं ऐसा ऊपरके श्लोकसे झलकता है। मधुका व्यापार भी नहीं करना चाहिये तथा गीला मीठा अर्थात् गुडका व्यापार भी न करे। गीले मीठे या गुडमें भी चार घडीमें त्रस जंतु पैदा होंगे व जिसके साथ मधु या गीला मीठा मिलाया जायगा, उसमें इस जंतु चार घडी पीछे पैदा होजायंगे इससे उस रावके खानेकी मनाई
॥
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बारणतरण मालूम होती है जिस घड़ेमें ढककर बहुत दिनों तक रख छोडते हैं। मधुके अतीचारोंको बचानेके
श्रावकार ॥२३४॥
लिये फूलोंको नहीं खाना चाहिये ऐसा सागारधर्मामृतमें कहा है, क्योंकि वहींसे रस मक्खियां ले आती हैं।
श्लोक-सन्मूर्छनं यथा जानते, साकं पुहवादि पत्रयं ।
त्यक्तंते न च भुक्तं च, व्यापारं न च क्रियते ॥ २३३ ॥ कंदं बीयं यथा नेयं, सम्मूर्छनं विदलस्तथा ।
व्यापारं न च भुक्तं च, मूलगुणं प्रतिपालए ॥ २३४ ॥ मन्वयार्थ—(सम्मुर्छनं यथा) सम्मूर्छनके बराबर (साकं पुहवादि पत्रयं जानते) शाक, पुष्प आदि पत्रों को जानना चाहिये (त्यक्तंते न च भुक्तं च) इनका भी भोजन त्यागना चाहिये ( व्यापार न च क्रियते) V और न इनका व्यापार करना चाहिये । (यथा सम्मूर्छनं विदलः ) जैसे सम्मूर्छन विदल है (तथा कंद वीनं । ॐ नेयं) तैसे कंद मूलको जानना चाहिये (व्यापारं न च भुक्तं च ) इनको भी न खाना चाहिये न व्यापार करना चाहिये (मूलगुणं प्रतिपालए) तब आठ मूल गुण अतीचार रहित पाले जाते हैं।
विशेषार्थ-यहां ग्रंथकर्ता अतीचार रहित आठ मूलगुणोंको पालनेका उपदेश देरहे हैं जैसा कि दर्शनप्रतिमामें पालनेके लिये पंडित आशाधरजीने सागारधर्मामृतमें कहा है। * यद्यपि श्री समन्तभद्राचार्यने कंदमूल पुष्पादि खानेका त्याग भोगोपभोग परिमाणब्रतमें दूसरी
व्रत प्रतिमामें लिखा है तथापि यहां ग्रंथकर्ताने उनका त्याग निरतिचार आठ मूलगुण पालनेवालेके लिये भी बताया है। जैसे सडे बुसे पदार्थ में व द्विदलमें सन्मूर्छन त्रस जंतु उत्पन्न होते हैं, वैसे
शाक, फूल, पत्रों तथा कन्दमूल में साधारण अनन्तकायका दोष आता है जिससे अनन्त एकेंद्रिय ४जीवोंका घात होता है। अनन्त एकेंद्रिघोंका घात भी बहुतसे त्रस जन्तुओंके घातके बराबर है।
ऐसा जानकर दयावानोंको उनका त्याग ही करना उचित है। पत्रों व फूलोंमें, शाकमें बहुधा त्रस जंतुओं का भी आश्रय रहता है । जैसे गोभीके फूलमें-आलू, घुइया, शकरकंदी आदि जो जो कंद.१ मूल हैं जो जडके वहां फलरूप होते हैं उनमें साधारणका चिह बहुत अंशमें मिलता है वे सीधी ॥२४॥
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श्रावकाचार
टूट जाती है इसलिये इनको न खाना ही चाहिये और न इनका व्यापार ही करना चाहिये क्योंकि बारणतरण
व्यापारमें खिलानेका व अनुमोदना करनेका दोष अवश्य आता है। जिस वस्तुको हम अभक्ष्य ॥२३॥ समझते हैं उनको दृसरोंको भी खिलाना न चाहिये। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें भोगोपभोग परिमाण व्रतमें लिखा है
अल्पफळबहुविधातान्मूलकमाणि शृंगवेराणि । नवनीतनिम्बकुसुमं केतकमित्येवमबहेयम् ॥ ८५॥
भावार्थ-जिसमें फल तो अल्प हो मात्र कुछ जीभका स्वाद सधे और बहुतसे एकेंद्रिय ४. जीवोंकी हिंसा करनी पडे ऐसे मूली, गीले अदरक आदि व मक्खन व नीम व केतकीके फल आदि नहीं खाना चाहिये । पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें भी भोगोपभोग परिमाणव्रतमें कहा है
एकमपि प्रनिघांसुः निहन्त्यनन्तान्यतस्ततोऽवश्यं । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानां ॥ १६॥
भावार्थ-जिस एक वनस्पतिके घात करनेसे अनन्त जीवोंकी कायोंका नाश होता हो उन सर्व अनन्तकायवाली वस्तुओंका त्याग करना योग्य है।
सागारधर्मामृतमें भी भोगोपभोग परिमाण व्रतमें नीचेके श्लोक दिये हैं
नालीसूरणकालिन्दद्रोणपुष्पादि वर्षयेत् । आनन्म तदभुना बस्पं फलं घातश्च मूढसां ॥१६॥ अनंतकायाः सर्वेपि सदा हेया दयापरैः । यदेकमपि तं हन्तुं प्रवृत्तो हन्त्यनन्तकान् ॥ १७॥
आमगोरससंयुक्तं द्विदलं प्रायशोऽनवं । वर्षास्वदलितं चात्र पत्रशाकं च नाहरेत् ॥ १८॥ भावार्थ-धर्मात्मा पुरुषोंको नाली (कमलकी डंडी), सूरण, कालिंद, द्रोणपुष्प, मूली, अदरक, नीमके फूल, केतकी आदि पदार्थीका मरण पर्यंत त्याग करना चाहिये । इनके खानेसे अल्पफल परंतु बहुत प्राणियोंकी हिंसा है। दयावानोंको अनंतकाय वनस्पतियों को सदा त्याग करना चाहिये। इसमें एकके खानेसे अनंतका घात होता है। जमीनके भीतर उत्पन्न होनेवाली मूली, गाजर आदि प्रायः अनंतकाय हैं। प्याज, सुरण आदि कंदज भी प्राय: अनंतकाय हैं। जैसे विदलको दहीके साथ नहीं खाना उचित है वैसे पुरानै अनाजको न खावे व वर्षामें विना दले मूंग चना आदि न
खावे व पत्तोंवाले शाक भी न खावे । दौलतरामजीने कहा है:* त्यागो कन्दमूल बुद्धिवन्त, कन्दमूहमें जीव अनन्त । फूल जाति सब ही दोषीक, जीव अनन्त भरे तहकीक ।
४ ॥२९॥
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बारणवरण
॥२३
॥
साक पत्र सब निंद बखान, त्यगि करो जिन आज्ञा मान । कंद शाक फल फूल जु त्यागि, साधारण फलतें दूर भाग॥
इसी कारणसे इस श्रावकाचारके कर्ताने भी अधिक स्थावरकी भी हिंसा जिनसे हो उनके खानेका त्याग आठ मूलगुण धारीके लिये कहा है। अतएव कन्दमूल, शाक, पत्ते, फूल जाति ये सब नहीं लेना चाहिये। जवानको वश करके संयमी होके रहना ही परम हित है।
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रत्नत्रयका स्वरूप । श्लोक-दर्शनं ज्ञान चारित्रं, साधं शुद्धात्मा गुणं ।
व नित्य प्रकाशेन, सार्थ ज्ञानमयं ध्रुवं ॥ २३५॥ अन्वयार्थ-( दर्शनं ज्ञान चारित्रं ) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (सार्थ ) के साथ (शुद्धास्मा गुण) शुद्धात्माके गुणों के द्वारा (तत्व नित्य प्रकाशेन ) अविनाशी तत्वका प्रकाश होता है। यही तत्व (सार्थ ज्ञानमयं ध्रुवं ) यथार्थ ज्ञानमई निश्चल है।।
विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टी श्रावकको रत्नत्रय धर्मका पालन भले प्रकार करना चाहिये। यहां बताया है कि ये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र आत्माके गुण हैं। आत्मामें ही पाए जाते हैं। इसलिये जहां शुद्ध आत्माका तत्व ज्ञानमई निश्चल अनुभवमें आरहा है वहीं मोक्षका मार्ग है।" इरएक श्रावकको इस निश्चय मोक्षमार्गपर अपना लक्ष्य-बिंदु रखना चाहिये । तथा शुद्धात्माके मननकी निरंतर भावना भानी चाहिये। जैसी भावना भाई जाती है वैसा भाव ऊँचा चढता चला जाता है। इस निश्चय रत्नत्रयमई भावका आराधक अविरति सम्यग्दृष्टीसे लेकर हरएक जैनी होता है। इसके लिये अन्य बाहरी साधन मिलाए जाते हैं। रत्नत्रयसे ही मेरी शोभा है, मेरा हित है, मेरा उद्धार है,रत्नत्रय ही मेरा क्रीडावन है, ऐसी भावना भानी चाहिये । तत्वार्थसारमें कहा है
ये स्वमावाददृशिज्ञप्तिचर्यारूपक्रियात्मकाः । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १५॥ स्यात्सम्यक्तज्ञानचारित्ररूपः पर्यायार्थादेशतो मुक्तिमार्गः ।एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः स्याद्रव्यादेशतो मुक्तिमार्गः ॥११॥
भावार्थ-जो स्वभावसे होनेवाली सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्परचारित्र रूपी क्रिया है उन ही रूप इन तीनों रत्नत्रयमें तन्मय आत्मा ही मोक्षमार्ग है। पर्याय या भेदनयसे मोक्षमार्ग
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पारणवरण
॥२३७॥
तीनरूप है-सम्यक ज्ञान चारित्र, परन्तु द्रव्य दृष्ठिसे एक ही ज्ञाता दृष्टा अनुपम आत्मा ही सदा मोक्षमार्ग है।
श्लोक-दर्शनं तत्वार्थश्रद्धानं, तीर्थ शुद्धं दृष्टितं ।
ज्ञानमूर्तिः संपूर्ण, स्वात्म दर्शन चिंतनं ॥ २३६ ॥ अन्वयार्थ-(तत्वार्थश्रद्धानं दर्शन) तत्वार्थका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। (तीर्थ) यह भवसाग४ रसे तारनेका तीर्थ या जहाज है ( शुद्ध दृष्टितं ) यही शुद्ध दृष्टिमई है जहां (ज्ञानमूर्तिः ) ज्ञानमूर्ति (संपूर्ण) अपने सर्व गुणोंसे पूर्ण (स्वात्म दर्शन चिंतनं ) अपने ही आत्माका दर्शन है और चिन्तवन है।
विशेषार्थ—सात तत्वोंका व्यवहार और निश्चय नयसे यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यही वास्तवमें भवसागरसे पार करनेवाला तीर्थ या जहाज है। जहां सम्यग्दर्शन होजाता है वहां
अशुद्ध, मलीन, मिथ्यादृष्टि नहीं रहती है। किंतु शुद्ध, निर्मल, सम्यग्दृष्टि पैदा होजाती है। वास्त४ वमें अपने ही आत्माका श्रद्धान व मनन ही सम्यग्दर्शन है। शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे अपने ही ४
आत्माको सर्व कर्मकलंकसे रहित, ज्ञानाकार, अमूर्तीक, अपने दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्य, आनन्द, आदि गुणोंसे पूर्ण एकाकार श्रद्धानमें लाकर अनुभव करना चाहिये यही सम्यग्दर्शन है।
पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें कहा है:
जीवाभीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताऽभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ॥ २२॥
भावार्थ-जीव अजीवादि तत्वोंका सदा ही श्रद्धान करना चाहिये । उसमें कोई विपरीत अभिप्राय न हो। केवल आत्मशुद्धिके प्रयोजनसे ही भलेप्रकार जीव अजीवादि तत्वोंका दृढ विश्वास करना व्यवहार सम्यक्त है। निश्चयसे यह सम्यग्दर्शन सर्व आत्मासे भिन्न शुद्ध आत्माका एक स्वभाव है। सम्यग्दर्शन एक रत्न है जो अपने ही पास है, मिथ्यात्वकी कीचमें फंसा हुआ है। मिथ्यात्वके अंधकारके दूर होजाने पर यह स्वयं प्रकाशमान होजाता है। . श्लोक-दर्शनं सप्ततत्वानां, द्रव्य काय पदार्थकं । जीवद्रव्यं च शुद्धं च, सार्थ शुद्धं दर्शनं ॥ २३७ ॥
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श्रावकाचार
॥२१॥
अन्वयार्थ (सप्ततत्त्वानां द्रव्य काय पदार्थकं दर्शनं) सात तत्व, छः द्रव्य, पांच अस्तिकाय और नौ पदार्थीका अडान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है (जीवद्रव्यं च शुद्धं च सार्थ शुद्ध दर्शनं) तथा शुद्ध जीव द्रव्यका श्रद्धान करना यथार्थ निश्चय सम्यग्दर्शन है।
विशेषार्थ-व्यवहार सम्यग्दर्शन निश्चय सम्यग्दर्शनके लिये निमित्त कारण है। व्यवहार सम्यतके विषय छः द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्व और नौ पदार्थ हैं।
छः द्रव्य-२-जीव चेतना स्वरूप है। इसके तीन भेद बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्माका स्वरूप कहा जाचुका है। २-पुद्गल-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण मय जड परमाणु व स्कंघको कहते हैं। हमारे आत्माके साथ लगे तैजस, कार्माण व औदारिक तीनों शरीर पुद्गलके बने हैं। ये दो द्रव्य अनंतानंत हैं। येही क्रियावान हैं, हलन चलन करते हैं व इनहीमें विभाव पर्यायें होती हैं। यद्यपि शुद्ध आत्मा निश्चल है व स्वभावरूप है। -धर्म द्रव्य-लोक व्यापी असंख्यात प्रदेशी अमूर्तीक द्रव्य है जो जीव पुद्गलके गमनमें उदासीन निमित्त कारण है।४-अधर्म द्रव्य-लोकव्यापी अमूर्तीक द्रव्य है जो जीव पुद्गलकी स्थितिमें उदासीन निमित्त कारण है। ५-आकाश-जो सबसे बड़ा अनंत है यह सबको अवकाश देता है। ६-काल द्रव्य-जो अमूर्तीक है। इसके निमित्तसे सब द्रव्योंकी अवस्थाएँ नएसे पुरानी हुआ करती हैं। ये छः द्रव्य अनादि अनन्त अकृत्रिम, सदासे हैं। शुद्ध द्रव्यों में स्वभाष पर्यायें होती हैं, अशुद्ध द्रव्यों में अशुद्ध पर्यायें होती हैं। यह जगत इनहीका समुदाय है।
पांच अस्तिकाय-छः द्रव्योंमेंसे कालको छोडकर पांचको अस्तिकाय कहते हैं। क्योंकि जीवादि पांच द्रव्य बहु प्रदेशी हैं। परन्तु काल द्रव्य असंख्यात संख्यामें हैं और रत्नराशिके समान लोकाकाशके असंख्यात प्रदेशोंपर अलग २ फैले हैं वे कभी मिलते नहीं इससे कायरूप नहीं हैं। जितने आकाशको एक पुद्गल परमाणु रोकता है उसे प्रदेश कहते हैं। इस प्रदेशरूपी गजसे माप किये जानेपर काल सिवाय पांच द्रव्य बहुप्रदेश रखनेवाले हैं। इसलिये पांचको अस्तिकाय कहते हैं।
सात तत्व-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष । जीव और अजीव तत्वमें ऊपर लिखित छः द्रव्य गभित हैं। आस्त्रव–काँके आनेको आनव कहते हैं। मन, वचन, कायकी क्रियासे व मिथ्यादर्शन,
V॥२५॥
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वारणतरण हिंसादि पांच पाप, प्रमाद व कषायके सम्बन्धसे आठ कर्म योग्य पुद्गल वर्गणा आती हैं। शुभ मन,
४श्रावकाचार ४ वचन, कायकी क्रियासे मुख्यतासे पुण्य कर्मका, अशुभ मन, वचन, कायकी क्रियासे पाप कर्मका ॥२९॥
आस्रव होता है।
बंध-आए हुए कर्म पुद्गलों में तुर्त चार प्रकारका बंध पड जाता है। प्रकृति-ज्ञानावरणादि * कर्मरूप स्वभाव पडना । २ प्रदेश-कितनी संख्या किस किस कर्मकी पंधी। ३ स्थिति-काँमें मर्यादा.* कालका पडना । ४ अनुभाग-कर्म तीन या मंद फल देंगे ऐसा रस पहना।
संवर-कर्मों के आनेको रोकना-मिथ्यात्वके रोकनेको सम्पग्दर्शन प्राप्त करना, पांच पापोंको र छोडकर अहिंसादि पांच व्रतोंको पालना, प्रमादको रोकनेको अप्रमादभाव रखना, कषायको जीत.. नेके लिये वीतरागका अभ्यास करना, मन वचनकायको थिर रखना ये सब कारण कर्मोंके रोकनेके हैं।
निर्जरा-कर्म अपने समयपर पकते हैं तब झडते हैं, यह सविपाक निर्जरा है। आरमध्यानादि वीतराग भावसे कर्मको उदयकालके पहले झाड डालना अविपाक निर्जरा है।
मोक्ष-सर्व कमोसे छूटकर शुद्ध आत्मा होकर लोकशिखरपर सिद्धक्षेत्रों में अपने स्वरूप में सदाके लिये विराजमान रहना।।
नौ पदार्थ-सात तत्वों में पुण्य कर्म व पाप कर्म मिलानेसे नौ पदार्थ होजाते हैं। ये दोनों पदार्थ आस्रव व बंधमें गर्भित हैं तथापि विशेषताके लिये पृथक् गिनाया है।
इन सबमें व्यवहारनयसे जीव, संवर, निर्जरा, मोक्ष चार ग्रहण करने योग्य हैं जब कि निश्च-४ यनयसे एक अपना शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है। इस तरह श्रद्धान करके जब आत्माका ॐ मनन किया जाता है तब कुछ कालके अभ्याससे अनन्तानुवन्धी चार कषाय और मिथ्यात्व उपशम , होनेसे उपशम सम्यग्दर्शन पैदा होजाता है। यही शुद्ध आत्मानुभव करानेवाला धर्मतीर्थ है।
श्लोक-दर्शनं ऊर्व अधं च, मध्यलोकं च दृष्ठते ।।
षड् कमलं ति अर्थ च, जोयं सम्यदर्शनं ।। २३८॥ अन्वयार्थ (दर्शनं ) सम्यग्दर्शनके प्रभावसे ( ऊर्ध्व अथ च मध्यलोकं दृष्टते ) ऊर्व लोक अबोलोक व
M॥२३९॥
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वारणतरण
॥२४०॥
मध्यलोक स्पष्ट दिखलाई पडता है । ( षट्कमल) छः पत्ते के कमलके भीतर ( ति अर्थ ) तीन तत्वोंके भीतर ( सम्यग्दर्शनं जोयं ) सम्यग्दर्शन दिखलाई पडता है ।
विशेषार्थ —— सम्यग्दृष्टी छः द्रव्योंके स्वरूपको यथार्थ श्रुतज्ञानके बलसे जानता है और इस लोककी सर्व रचना छः द्रव्योंसे बनी हुई है । इसलिये वह इस लोकको भी जानता है अथवा वह श्रुतज्ञान द्वारा नारकी, तिर्यंच, मानव तथा देव इन चार गतियोंके स्थानोंको जानता है । कहां २ नर्क व स्वर्ग है, कहां २ जम्बुद्वीप आदि है, कहां २ अकृत्रिम चैत्यालय है, कहां अहमिंद्र लोक है, कहा लोकांतिक देव रहते हैं । लोकके ऊपर सिद्धक्षेत्र है जहां अनन्त सिद्ध रहते हैं । संस्थान विचय धर्मध्यानके द्वारा तीन लोकका स्वरूप जानता है । वैराग्यभावसे किसीसे रागद्वेष नहीं करता है । उसका अनुराग अपने शुद्ध स्वभावसे है ।
कमल व ति अर्थका भावार्थ स्पष्ट नहीं है, जो समझ में आया वह लिखा गया है । हृदयस्थान में छः पत्तोंका कमल बनाकर उनके ऊपर ॐ ह्रां ह्रीं हूँ हौं हा इन छः बीजाक्षरोंके आलम्बनसे विचारते हुए सम्यग्दर्शन के प्रभाव से शुद्धात्माका अनुभव होता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्पञ्चारित्र इन तीन तत्वोंके भीतर मुख्यता सम्यग्दर्शनकी झलकती है क्योंकि ज्ञान और चारित्रको सम्यक्पना सम्यग्दर्शन के प्रभावसे ही प्राप्त हुआ है । वास्तवमें सम्यग्दर्शन ऐसी ज्ञान चक्षु है जिसके द्वारा देखते हुए सर्व पदार्थ ठीक २ जैसे हैं वैसे दिखलाई पड़ते हैं । सम्यग्दृष्टिको छः द्रव्योंके गुणपर्यायके कार्यों में पूर्ण विश्वास है । उसको किसी भी क्रियामें आश्चर्य नहीं मालूम होता है । वह सम्यग्ज्ञानको रखता हुआ परम संतोषी है । अनेक प्रकारके धर्मध्यानके द्वारा जिनका कथन पहले किया जाचुका है सम्यग्दृष्टि अपने आत्माके अवलोकनका अभ्यास रखता है । वह आत्मरसका पिपासु होरहा है । जिस तरह बने आत्मानन्दका स्वाद लेता है ।
श्लोक - दर्शन यत्र उत्पादते, तत्र मिथ्या न दृष्टते ।
कुज्ञानं मलश्चैव त्यक्तं योगं समाचरति ॥ २३९॥
"
अन्वयार्थ – (यत्र दर्शन उत्पादन्ते ) जहां सम्यग्दर्शन उत्पन्न होजाता है ( तत्र मिथ्या न दृष्टते ) वहां
श्रावकाचार
॥१४०॥
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R४१॥
मिध्यावनी दिखलाई पडता है (कुज्ञानं मलश्चैव स्यक्त) कुज्ञान व सर्व मल भी छट जाते हैं (योग
श्रावकाचार समाचरति) धर्मध्यानका आचरण होने लगता है।
विशेषार्थ-जैसे जहां प्रकाशका उदय होता है वहां अन्धकार नहीं दिखलाई पडता है वैसे जहां आत्मामें सम्यग्दर्शन नामक गुणका प्रकाश हुआ वहां मिथ्यादर्शनकी छाया बिलकुल नहीं दिखलाई पडती है, क्योंकि अनन्तानुवन्धी चार कषाय व मिथ्यात्वके उपशमके बिना सम्यग्दर्शन होतादी नहीं है। पहले जो संसाराशक्ति थी सो मिट जाती है। शुखात्मस्वरूपकी प्रीति पैदा होजाती है। सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होने के पहले जो मिथ्याज्ञान था सो सम्यग्दर्शनके होते ही सम्यग्ज्ञान होजाता है। कुमति कुश्रुत कुअवधि, सुमति सुश्रुत सुअवधि होजाते हैं। मिथ्यात्वके होते हुए जो पचीस मल होते थे वे सब मल भी दूर होजाते हैं। जब भावों में आत्माका तथा परमात्माका यथार्थ स्वरूप झलक जाता है तब शंका आदि दोष व कुदेव कुगुरु कुधर्मकी मान्यता किसतरह ठहर सक्ती है। तथा वह सम्यक्ती सर्व जगतकी आत्माओंको पहचाननेवाला होजाता है, इससे उसकी मैत्री सर्व प्राणीमात्रसे रहती है। दुखियोंको देखकर उनपर करुणा बुद्धि रखकर उनका दुःख निवारण करना चाहता है। धर्मका सच्चा पालक, नीतिका सच्चा नमूना बन जाता है। ऐसे ही सम्यग्दृष्टीके भीतर यथार्थ योगाभ्यास होता है वही यथार्थ धर्मध्यानके पलसे निज शुद्धात्माके तत्वको सर्वसे पृथक् अनुभव करता है। विना सम्यक्तके मिथ्यादृष्टीका सर्व योगाभ्यास आत्मानुभव करने में समर्थ नहीं है। ___ श्लोक-मलं विमुक्त मुढ़ादी, पंचविंशति न दृष्टते ।
आशा स्नेह लोभं च, गाख त्रिविधि भुक्तयं ।। २४०॥ अन्वयार्थ-(मूढादी मलं विमुक्त) तीन मूढ़ता आदि मलोंसे छूटे हुए सम्यक्तीके भीतर (पंचविंशति ॐ न दृष्टते) पचीस दोष नहीं दिखलाई पड़ते हैं। (आशा लेह लोमं च गारव त्रिविधि मुक्त) आशा, स्नेह, लोभ, तीन प्रकार अहंकार आदि कुभावोंसे मुक्त होजाता है।
विशेषार्थ-सम्यक्तीके भीतर पहले कहे हुए मृढ़ता आदि पचीस दोष नहीं दिखलाई पड़ते हैं। शुद्ध सम्यग्दर्शनको जो पालनेवाला है उसके मात्र एक शुद्धात्मानुभवका ही उद्देश्य है। इसी Vyn
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वारणतरण उद्देश्यसे वह धर्मध्वान करता है। देवपूजा, गुरुभक्ति, शास्त्रस्वाध्याय, संयम, तप व दान इन नित्य
श्राचार ॥१४२॥ ४ गृहस्थोंके छः कर्मोंको भले प्रकार पालता है, जिसका फल माघ परिणामोंकी शुडि वाहना है।*
सम्यक्तीको क्षणभंगुर विषयभोगोंकी कोई इच्छा नहीं होती है, इसलिये वह इन्द्र नागेन्द्र अहमिंद्र चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण, तीर्थकर आदि बडे २ ऐश्वर्यशाली महत्वशाली पदोंकी आशा बिलकुल नहीं रखता है और न जगतके विनाशीक चेतन अचेतन पदार्थोंसे स्नेह रखता है। स्त्री पुत्र मित्र सेवकादिसे यथायोग्य व्यवहार करता हुआ व जगतके प्राणियों के साथ सभ्यता व नीतिसे वर्ताव करता हुआ वह भीतरसे उसी तरह अलिप्त रहता है, जैसे कमल जलसे अलिप्त रहता है। ज्ञानी सम्यक्ती लोभ अति अंद होता है। अपने २ पदके अनुसार संतोषपूर्वक आजीविकाका साधन करता है। दूसरोंको बहुत लोभ होते देखकर परिणामों में लोभपना नहीं जगाता है। किसी तरहका गारव या अभिमान नहीं रखता है। रस गारव, ऋद्धि गारव, बुद्धि गारव ये तीन गारव प्रसिद्ध हैं। सो सम्यक्तीके नहीं होते हैं। रसायन विद्यासे रस बनानेका गारव या मिष्ट रसीले पदार्थोके मिलनेका गारव रस गारव है। ऋद्धि आदि कोई चमत्कार तपके बलसे पैदा होजावे तो उसका अहंकार करना यह ऋद्धि गारव है। बुद्धि प्रबल होनेसे पदार्थों के समझनेकी अधिक शक्ति होते हुए बुद्धिका घमंड करना बुद्धि गारव है। ज्ञानी सम्यक्ती इन लाभोंको क्षणिक समझता है। इनकी शक्ति होनेपर भी कोई प्रकारका मद नहीं करता है।
श्लोक-दर्शनं शुद्ध तत्वार्थ, लोक मूढं न दृष्टते।
यस्य लोकं च सार्थ च, त्यक्तते शुद्ध दृष्टितं ॥ २४१ ।। अन्वयार्थ-(दर्शनं शुद्ध तत्वार्थ) शुद्ध आत्मतत्वमें दृढ प्रतीतिको सम्यग्दर्शन कहते हैं। वहाँ (लोकमूदं न दृष्टते) लोकमूढता नहीं दिखलाई पड़ती है। (यस्प लोकं च सार्थ च स्यको ) जिसने सर्व
लोकको व उसके सर्व पक्षायोंको पर जानकर उनसे मोह छोड दिया है (शुद्ध दृष्टित) मात्र शुद्ध * दृष्टिको धारण कर लिया है।
विशेषार्थ-जिसके पूजनीय, माननीय, दर्शनीय, मननीय, अनुभवनीय एक मात्र अपना शुद्ध आत्मा है, जो सिख भगवानको भी पर जानता है, उनकी पूजा व भक्ति भी आलम्बन जानकर
॥३४॥
KAKIRALEKALEGAKAREKARSA
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वारणवरण
॥२४३॥
करता हुआ भी उनसे वैरागी है, जानता है जहांतक स्वात्मानुभव नहीं होगा वहांतक मोक्षका मार्ग नहीं है। ऐसा सम्यक्ती जीव लोक मूढतामें कैसे फंस सक्ता है। लोगों की देखादेखी मूढ प्राणी घन, पुत्र, जय, यश आदिके लोभसे लोक मूढता में फंस जाते हैं । सम्यक्ती को इन बातोंकी तरफ आसक्ति नहीं है । यह जानता है कि वे सब पुण्य वृक्षके फल हैं। यदि मैं गृहस्थ हूं तो मेरा कर्तव्य समताभाव से नीतिपूर्वक उद्यम करना है । पुण्यकी सहायता होगी तो ये पदार्थ मिल सकेंगे। सम्यक्ती लोकके पदार्थों का स्वभाव शास्त्र द्वारा जानता हुआ भी किसीमें ममता भाव नहीं रखता है । परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, मेरे शुद्ध गुण व पर्याय हैं वे मेरेमें सदा विराजित है, इस प्रकारके ज्ञान वैराग्य से पूर्ण सम्यग्दृष्टी जीव रहता हुआ सदा आनन्द भोगता है ।
श्लोक — देवमूढं च प्रोक्तं च क्रियते येन मूढयं । दुर्बुद्धि उत्पाद्यते जाव, तावदिष्टि न शुद्धए ॥
२४२ ॥
अन्वयार्थ - (देव मूढं च प्रोक्तं च ) देव मूढ़ताका स्वरूप कह चुके हैं (येन मूढथं क्रियते) जिससे ऐसी मूढता की जाती है ( जाव दुर्बुद्धि उत्पाद्यते ) व उसके देव मूढताकी खोटी बुद्धि पैदा होती रहती है। (ताब) तबतक (दिष्टि न शुद्धर ) श्रद्धा निर्मल नहीं है ।
विशेषार्थ–देव सूढ़ताका स्वरूप कहा जाचुका है कि संसारीक प्रयोजनकी इच्छा से जो रागी द्वेषी देवोंको पूजना है सो देव मूढ़ता है । जो कोई अपनेको श्रद्धालु मानकर भी रागी द्वेषी देवोंकी पूजारूपी मूढताको नहीं छोड़ता है, उसके सदा काल खोटी बुद्धि उत्पन्न हुआ करती है । अमुक देवको मानूंगा तो यह लाभ होगा, अमुक देवीको मानूंगा तो यह लाभ होगा, अमुकको मानूंगा तो यह हानि होगी । जानता हुआ भी कि कुदेवोंकी भक्ति व्यर्थ है फिर भी पूर्व संस्कार से पुत्रकी बीमारी अच्छी करनेको, किसी घनके लाभको चाह करके कुदेवोंकी भक्ति स्वयं करता है, कराता है व अनुमोदना करता रहता है। यह मिथ्या शल्य जबतक उसके भावों में गडी रहती है वह कभी भी निःशंक निर्भय व शुद्ध श्रद्धावान नहीं होने पाता है । वह इस बातको भूल जाता है कि इन कुदेवोंकी भक्ति से वृथा ही श्रद्धानको मलीन करना है । हरएक प्राणी अपने २ किये हुए पुण्यकर्म व पापकर्म के आधीन है उसको कोई मेट नहीं सक्ता है। वीतराग जिनेन्द्र भगवानकी
श्रावकाचार
॥२४२॥
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वारणतरण
॥२४॥
भक्तिसे तो परिणामोंकी उज्वलता होकर भले ही पापकर्म कम होजावे या टल जावे और पुण्यकर्मका विशेष लाभ होजावे परन्तु कुदेवोंकी भक्तिसे तो सिवाय पाप दृढ़ न होनेके पापका शमन नहीं होसक्ता है। ऐसा जान कर जो सम्यक्तको दृढ रखना चाहता है वह भूलकर भी कुदेवोंकी भक्ति व पूजा नहीं करता है, अपने अडान भावको अति दृढ रखता है। ___ श्लोक-अदेवं देव उतच, मुढ दृष्टिः प्रकीर्तितं ।
अचेतं अशाश्वतं येन, त्यक्तये शुद्ध दृष्टितं ॥ २४३ ॥ मन्वयार्थ-(अदेवं देव उक्तं च ) जिनमें देवपना कुछ भी नहीं ऐसे अदेवको जो देव कहते हैं सो (मूढदृष्टिः प्रकीर्तितं ) मूढ श्रद्धा कही गई है (येन) क्योंकि (अचेतं अशाश्वतं) यह माने हुए अदव अज्ञानी हैव विनाशीक है (त्यक्तये शुद्धद्दीष्टंत) शुद्ध सम्यग्दृष्टी इनकी भक्ति नहीं करता है।
विशेषार्थ-पहले अदेवका स्वरूप कह चुके हैं। चार प्रकार भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी जो संसारी रागी बेषी देव हैं इनमें से किसीको देव मानकर अजा रखनी सोकदेव प्रजा है। इनके सिवाय गाय, घोडा, हाथी, बैल, गरुड, मोर, पीपल, तुलसी, परगत, आम, आदि तिर्यच गतिवाले अज्ञानी विनाशीक पर्यायधारी जीवोंको अथवा कुम्हारका चाक, दुकानकी दहली, मिट्ठीका हेर, पाषाणका खण्ड आदि अजीव विनाशीक वस्तुको जिबसे सच्चा देवपना अर्थात् सर्वज्ञ वीतरागपना या अरहंत सिद्धपना कुछ भी न झलके, कोई ध्यानमय भाव नहीं प्रगट हो देव मानना अदेव अरा है मूढता है । यह भी देव मूढतामें गर्भित है। शुद्ध सम्यग्दृष्टी तो शुद्धात्माके पदको प्राप्त जो
अरहंत और सिद्ध भगवान हैं उनहीको सुदेव मानेगा और उनहीकी भक्ति करेगा सो भकि भी * इसीलिये कि जिससे परिणामोंमें निर्मलता प्राप्त हो तथा अपने ही शुद्धात्माकी स्मृति होजावे।
सम्यग्दृष्टी व्यवहारमयसे सकल और निकल परमात्मा जोअरहंत और सिद्ध हैं उनकी गाढ़ श्रद्धाव 9 भक्ति रखता है अन्य किसी कुदेव या अदेवकी नहीं।
श्लोक-पापडी मृढ जानते, पापडं भ्रम ये रताः।
परपंचं पुद्गलाथ च, पाषंडिमूढ न संशयः ॥ २४४ ॥
॥२४॥
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मन्वयार्थ (पाषंड़ी मानते) जे मूढ़ अज्ञानी आत्मज्ञान रहित साघु जाने जाते हैं (ये पाषंड भ्रमरताः) कारणवरण
जो मिथ्यात्व भ्रम जाल में आसक्त हैं (पुद्गालार्थ परपंचं च) जो इस शरीरके लिये ही सर्व प्रपंचजाल ॥२४॥ करते रहते हैं उनको गुरु मानना (पार्षडमढ़ न संशयः) पाषंड मूढता है, इसमें कोई संशय नहीं है।
विशेषाथे-सुगुरु कुगुरुके स्वरूप में पाषंड मुदताका कथन आचुका है। फिर भी ग्रंथकर्ताने यहा शिष्योंको समझाया है कि परिग्रह रहित निग्रंथ साधुओंके सिवाय और किसी साधुको अपना ४ सच्चा पूज्यनीक गुरु न मानना चाहिये । जगतमें अनेक साधु साधुके भेषमें रहते हैं। न
उनकी क्रिया ही मोक्षमार्ग रूप है और न उनको शुद्धात्माका ज्ञान ही है। जो स्वयं मिथ्यात्वभाव सहित हैं, जिनके संसारकी लालसा छूटी नहीं है, जो परिग्रह व धनके लोभी, इंद्रियके विषयोंके लम्पटी हैं, स्वयं कुदेवोंके व प्रदेवोंके उपासक हैं और वैसा ही उपदेश अन्योंको देते हैं, जिनका जप तप भजन आदि व अन्य उपदेशादि, विहारादि सर्व क्रियाओंका हेतु जगतका प्रपंच है, वे इस शरीरके लिए और आगामी शोभनीक विषय भोगने योग्य शरीर पानेके लिए ही मनमाना साधन करते रहते हैं। जिनके दिलों में हिंसा व अहिंसाका विचार भी नहीं है। गांजा, चरस आदि मशेके पीनेसे जिनको ग्लानि नहीं है । इत्यादि मोक्षमार्गसे विपरीत आत्मानुभवसे शून्य साधु नामधारी साधुओंको साधु मानकरके भक्ति करना, उनमें साधुपनेकी श्रद्धा रखनी, पाखण्ड मूढ़ता है। सम्यग्दृष्टीको प्रथम ही स्याज्य है।
श्लोक-अनृतं अचेत उत्पादं, मिथ्या माया लोक रंजनं ।
पाषंडि मूढ विश्वासं, नरये पतंति ते नरा ॥ २४५॥ अन्वयार्थ (अनृतं अचेत उत्पाद) मिथ्यात्व व अज्ञानको ही वे उत्पन्न करनेवाले हैं। वे स्वयं (मिथ्या ४ माया लोक रंजन) मिथ्यात्व, मायाचार व लोगोंके रंजायमान करने में लगे रहते हैं। जो कोई (पाखंडि मूद विश्वासं ) ऐसे मूढ साधुओंका विश्वास करते हैं (ते नरा नरये पतंति ) वे मानव नरक पडते हैं।
. विशेषार्थ-कुगुरुओंकी सेवा करनेसे सेवकोंका मिथ्यात्व और अज्ञान और अधिक बढ जाता ॐहै, वे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिसे बहुत दूर होते जाते हैं क्योंकि वे साधु स्वयं मिथ्यात्व
वासित है, संसारानुरागी है, विषयभोगोंमें आसक्त हैं। जैसे स्वर्गादिमें कामभोगकी चाहको
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शारणतरण
१२४६॥
रखके साधुपना पालते हैं वैसा ही वे दूसरोंको उपदेश देते हैं। उनके दिलों में काम भोगका लोभ स्वर्ग सम्पदाका मोह उत्पन्न कर देते हैं। ये पाखंडी साधु मायाचारमें फंसे रहते हैं। अपना साधुपना बताकर अंतरंगमें माधु न रहते हुए भी लोगोंसे पूजा करवाते हैं और अपना खानपान आदिका स्वार्थ सिद्ध करते हैं। उनकी प्रति समय यही चेष्ठा रहती है कि हम लोगोंको खुश रखें। उनके दिलोंको राजी रखनेके लिये नाना प्रकार रसीली कथाएं रच रचकर सुनाते हैं। मूढतासे भरा गाना कराते हैं। ऐसे साधु जिनके पास न वैराग्य है न संयम हैन आत्मज्ञान है न मोक्षकी भावना है,
मात्र संसारके बढानेवाले पाषाणके नावके समान हैं, जो आप भी डूबेंगे व दूसरों को भी डुबाऐंगे। है जो अज्ञानी ऐसे पाखंडी साधुओंको सचा गुरु मानके उनके विश्वास में फंस जाते हैं वे स्वयं मिथ्या
स्व पोषक द विषयलम्पटी व परिग्रहके पिपासु बनकर नरक आयुको बांधकर नरक चल जाते हैं। -
श्लोक-पाषंडि वचन विश्वास, समय मिथ्या प्रकाशनं ।
जिनद्रोही दुर्बुद्धि ये, स्थानं तस्य न जायते ॥ २४६ ॥ अन्वयार्थ—(पाषंडी वचन विश्वासं) पाषंडी साधुओंके वचनोंका विश्वास करना (समय मिथ्या प्रकाशन) मिथ्या आगम या मतका प्रकाश करना है (ये निनद्रोही दुर्बुद्धी) जो पाषंडी साधु जिनेन्द्र के अनेकांत मतके शत्रु हैं व मिथ्या दुष्ट बुद्धिको रखनेवाले हैं (तस्य स्थानं न भायते) ऐसे पाषंडी साधुके स्थानमें भी जाना उचित नहीं है।
विशेषार्थ-पाषंडी साधुओंने बहुतसे मिथ्या शास्त्र बना दिये हैं जिनमें मिथ्यात्वको व राग देषको व हिंसाको पोषण किया है, उनके वचनोंपर विश्वास करना कभी उचित नहीं है।
जिनेन्द्रका आगम स्थाबादि नबसे जैसा पदार्थ अनेकांत स्वरूप है वैसा ही झलकानेवाला है तथा ज्ञान वैराग्यका प्रकाश करनेवाला है, आत्माको सुख शांतिके मार्गमें लगानेवाला है। संयमकी दृढता करानवाला है। ऐसे आगमका विरोधी वचन पाखंडी साधुओका होता है, वे एकांतको पुष्ट करते हैं, आत्मीक आनन्दके उपवन में जानेसे रोकते हैं, विषय कषायमें लगा देते हैं इसलिये वे जिनद्रोही हैं तथा उनकी बुद्धि भी सरल मंगलकारी नहीं है, वे दुष्ट बुद्धि रखते हुए आप भी कुमार्गमें चलते हैं और अपने भक्तोंको भी कुमार्गपर चलाते हैं। ऐसे पाखंडी साधुओंके स्थानोंपर
॥२४॥
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तारणतरण 1128011
ही जाना न चाहिये, उनकी संगति न करनी चाहिये। संगतिका भी बड़ा असर होता है । सचे साधुओंकी संगति मंगलकारी है, आत्मोन्नति के मार्ग में प्रेरित करनेवाली है तब स्वयं आत्मज्ञानशून्य इंद्रिय सुखके लोलुपी साधुओंकी संगति संसारके ही मार्गको दृढता करानेवाली है व इस मानव जन्मको निरर्थक व पापका भार बनानेवाली है अतएव खोटे साधु के संग से बचना ही श्रेष्ठ है । श्लोक – पाखंडि कुमति अज्ञानी, कुलिंगी जिन लोपनं ।
जिन लिंगी मिश्रेण यः, जिनद्रोही ज्ञानलोपनं ॥ २४७ ॥
अन्वयार्थ —–( पाखंडी ) पाखंडी साधु ( कुमति अज्ञानी ) कुमति व कुश्रुतका धारी है ( कुलिंगी) मिथ्या भेषी है (जिन लोपनं ) जिनके स्वरूपको लोपनेवाला है (यः) जो ( जिन लिंगी मिश्रेण ) जिन लिंगी के साथ अपनेको मिलाके अर्थात् जिन लिंगी दिखाके (जिनद्रोही) जिन भगवानका द्रोही होता हुआ (ज्ञानलोपनं सम्यग्ज्ञानको छिपानेवाला है ।
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श्रावस्यष्णर
विशेषार्थं - यहांपर यह दिखलाया है कि जो जिन भेषी नहीं हैं अर्थात् परिग्रह धारी साधु हैं उनके कुमति कुश्रुत ज्ञान होता ही है । वे तो जिनेन्द्र भगवानके मतको लोपनेवाले हैं ही परन्तु जो अपनेको जिन भेषी सरीखा मानते हैं, परिग्रह कुछ रख करके भी अपनेको जैन साधु मानते हैं। या परिग्रह त्याग नग्न होकरके भी अपनेको जैन साधु मानते हैं परंतु जिनेन्द्रकी आज्ञानुसार तत्वोंका न अनुभव करते हैं न यथार्थ तत्वोंका उपदेश करते हैं वे भी जिनद्रोही हैं । वे सम्यग्ज्ञानको लाभ करनेवाले हैं। कोई २ जैनका भेष धार करके भी तत्वज्ञान से शून्य होते हुए व किसी ख्याति पूजा लाभादिके हेतुसे मुनिका चारित्र पालते हुए मात्र भक्ति कराने में लीन हैं, गृहस्थोंको रुचे ऐसा ही उपदेश देनेवाले हैं । उनको व्यवहार पूजा पाठमें ही उलझाए रखते हैं, आध्यात्मिक ज्ञानकी तरफ नहीं जाते हैं किन्तु मना करते हैं कि आत्माकी कथनी गृहस्थको पढनी योग्य नहीं है । वे स्वयं भी आत्मानुभव करते हुए कषायका ही पोषण करते हैं और दूसरों को भी कषाय पोषणका मार्ग दिखाते हैं । निश्चय सम्यग्दर्शन के निधन से स्वयं भी दूर हैं और दूसरोंको भी दूर रखते हैं, ऐसे जिनभेषी साधु भी हितकारी नहीं हैं । वे जिन लिंगी बन करके भी श्री जिनेन्द्र के मार्गका लोप करनेवाले हैं, ऐसोंकी संगति भी हितकारी नहीं है ।
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॥२४७॥
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धारणतरण
॥२४८॥
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श्लोक- पाखंडी उक्त मिथ्यात्वं, वचनं विश्वास क्रीयते । त्यक्तते शुद्ध दृष्टी च; दर्शनं मल विमुक्तयं ॥ २४८ ॥
अन्वयार्थ—( पाखंडी उक्त मिथ्यात्वं ) पाखंडी भेषी साधुओंके द्वारा कहे हुए मिथ्यात्व पोषक (वचनं ) वचनोंका ( विश्वासं क्रीयते ) विश्वास किये जानेपर (शुद्ध दृष्टि च त्यकते ) शुद्ध आत्मीक दृष्टिका त्याग होजाता है (मल विमुक्तयं दर्शनं ) मल रहित सम्यग्दर्शन नहीं रहता है ।
विशेषार्थ - जिन शास्त्रोंके रचनेवाले निर्ग्रथ वीतरागी साधु न हों; किन्तु सरागी भेषी एकांती साधु हों उन शास्त्रों में जो उपदेश होगा वह मोक्षमार्ग से विपरीत राग पोषक आत्मानुभव से विपरीत होगा । उन शास्त्रोंको पढनेसे शिथिल श्रद्धावालेका श्रान बिगड सक्ता है तथा ऐसे पाखंडी साधुओंका उपदेश भी सुनना उचित नहीं है क्योंकि वह भी सम्यक् श्रद्धानको जो पक्का नहीं है गिरा सता है। शुद्ध आत्मीक दृष्टि हो सम्यग्दर्शन है। जहां एक आत्मीक आनन्दकी गाढ रुचि पाई जावे, संसार शरीर भोगों से पूर्णतया वैराग्य हो ऐसी रुचि जिन वचनोंके सुनने से जाती रहे उनको न सुनना ही न पढना ही हितकर है । सम्यग्दर्शनके अतीचारोंमें यह बात बता चुके हैं कि कुगुरु और उनके भक्तोंकी संगति करनाअनायतन है, धर्मकी प्राप्तिका ठिकाना न होकर धर्मसे शिथिल करनेवाला है। जैसे अपने पास रत्न हो तो उसकी रक्षा भलेप्रकार करना उचित है उसी तरह बडी कठिनता से प्राप्त जो सम्यग्दर्शन उसको रक्षा भलेप्रकार कर्तव्य है । संगतिका बडा भारी असर होता है। इसलिये सम्यग्दृष्टी आत्मज्ञानी वीतरागी साधुओं की संगति ही करना उचित है । इसी से सम्यक्तको मजबूती प्राप्त होगी व आत्मभावना दृढ होगी व संसारसे वैराग्य बना रहेगा । श्लोक-मदाष्टं मान सम्बंधं, शंकादि अष्ट विमुक्तयं ।
दर्शने मल नदिष्टंते, शुद्ध दृष्टिं समाचरतु ॥ २४९ ॥
अन्वयार्थ - ( मान सम्बंध मदाष्टं ) मान कषाय सम्बन्धी आठ प्रकारका मद व ( शंकादि अष्ट विमुक्तयं ) व आठ शंकादि दोषसे रहित ( दर्शने मल न दिष्टंते ) सम्यग्दर्शन में कोई भी मैल न दिखलाई पडे ऐसे (शुद्ध दृष्टिं समाचरतु ) शुद्ध सम्यग्दर्शनको आचरण करना उचित है ।
श्रावकाच
।। २४८ ॥
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वारणवरण
१२४९ ॥
विशेषार्थं गृहस्थ श्रावकको रत्नश्रयके आचरण में प्रथम सम्यग्दर्शन के आचरणका उपदेश है । इस दर्शनाचार में यही उचित है कि २५ दोषोंको न लगाता हुआ सम्पक्तकी दृढता जिस तरह रहे उस तरह वर्तन करें । श्रद्धान कभी शिथिल न होने पावे किन्तु दिनपर दिन दृढ होता चला जावे, ऐसा उद्यम रखना योग्य है । २५ दोषोंका वर्णन पहले कर आए हैं। जाति, कुल, धन, अधिकार, रूप, तप, बल व विद्या इन आठ प्रकारकी शक्तियोंके होते हुए कभी भी अभिमान नहीं करना चाहिये । जो पर वस्तुको या क्षणभंगुर पदार्थको अपनी मानेगा वही मान करेगा। सम्यक्ती तो सिवाय अपनी शुद्ध आत्माके और किसीको अपनी नहीं मानता, इससे उसके धनादिका कभी भी मान नहीं होता है। वह सदा अनित्य भावना भाता हुआ इनकी तरफसे उदासीन भाव ही रखता है । इसी तरह आठ शंकादि दोष भी नहीं लगाता है। वह निर्भय होकर व निःशंक दृढ श्रद्धालु होकर धार्मिक क्रियाओंको पालता है। विषयभोगोंकी अभिलाषा करके कांक्षा दोष नहीं लगाता है। रोगी दुःखी मानवों व पशुओं को देखकर घृणा नहीं करता है । मूढतासे कोई धर्मक्रियाको नहीं करता है । धर्मात्माओं के कर्म उदय से लगे हुए दोषोंको ढूंढ ढूंढकर उनकी निंदा नहीं करता है, आपको व परको धर्ममें स्थिर रखता है। धर्मात्माओंसे गोवत्स सम प्रीति रखता है। धर्मकी उन्नति में सदा उत्साही रहता है। लोक मूढता, देव मूढता व पाखण्ड मृढता से बचता है। कुदेव, कुगुरु, कुधर्म उनके भक्तों की गाढ संगति नहीं करता है। इस तरह २५ दोषोंको बचाकर निर्मल सम्पक्तका आचरण पालता है । व्यवहार धर्मकी ऐसी क्रियाओंको पालना जिनसे श्रद्धान दृढ रहे यही सम्पक्तका आचरण है। जैसे श्री जिनेन्द्र भगवानकी पूजा, भक्ति, स्तुति, वंदना, गुरुभोंके द्वारा उपदेश श्रवण, शास्त्रोंका भलेप्रकार स्वाध्याय करना, सवेरे सांझ आत्माके मननके लिये सामायिकका अभ्यास रखना । इत्यादि कार्य करते रहना चाहिये तब ही सम्पक्त दृढ रह सकेगा ।
श्लोक - ज्ञानं तत्वानि वेदंते, शुद्ध समय प्रकाशकं ।
शुद्धात्मानं तीर्थं शुद्धं, ज्ञानं ज्ञान प्रयोजनं ॥ २५० ॥
अन्वयार्थ - ( ज्ञानं तत्वानि वेदंते ) ज्ञान वही है जो जीवादि सात तत्वोंको अनुभव करावे ( शुद्ध समय प्रकाशकं ) जो शुद्ध निर्दोष पदार्थोंका व शास्त्र सम्बन्धी विषयोंका प्रकाशक हो (शुद्धात्मानं शुद्धं तीर्थं
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श्रावकाचार
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कारणवरण
तथा शुद्ध तीर्थस्वरूप शुद्धात्माका झलकानेवाला हो (ज्ञानं ज्ञान प्रयोजनं ) ज्ञानसे ज्ञानकी उन्नतिका ही ॥१५॥
प्रयोजन हो ही ज्ञानाचार है।
विशेषार्थ-अय सम्यग्ज्ञानाचारको कहते हैं। सम्यग्ज्ञान वही है जो जीवादि सात तत्वोंको यथार्थ बतावे तथा निर्दोष वस्तु स्वभाव बतावे व मुनि श्रावकका यथार्थ आचरण बतावे, लोकालोकका ठीक स्वरूप समझावे, महान पुरुषों के जीवनचरित्रोंको यथार्थ बतावे । अर्थात् जो यथार्थ रूपसे प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग रूप हो। इन चार अनुयोगोंके प्रकाशक यथार्थ ज्ञानके दाता शास्त्रोंका पढना सुनना सम्यग्ज्ञानका आचरण है। मुख्य अभिप्राय शास्त्र
ज्ञानका यही है कि संसार तारक शुद्ध आत्माका अनुभव प्राप्त हो । स्वात्मानुभव ही मोक्षमार्ग है V या तीर्थ है। सम्यग्ज्ञानका या स्वसंवेदन ज्ञानका आचरण ही ज्ञानकी वृद्धिका कारण है, यही
केवलज्ञानका द्योतक है। अतएव अतिशय प्रेम करके आत्मज्ञानकी वृद्धिकारक शास्त्रोंका पठन पाठन रखते हुए ज्ञानाचारका पालन करना उचित है।
श्लोक-ज्ञानेन ज्ञानमालम्ब्यं, पंच दीप्ति परस्थितं ।
___ उत्पन्नं केवलज्ञानं, साधं शुद्धं दिष्टितं ॥२५१ ॥ मन्वयार्थ (ज्ञानेन ) सम्यग्ज्ञान या श्रुतज्ञानके द्वारा (ज्ञानं ) आत्मज्ञानको (लम्ब्यं ) दृढ करना चाहिये, जिससे (पंच दीप्ति परस्थितं) पंच प्रकार ज्ञानों के भीतर श्रेष्ठ रूपसे स्थित जो (केवलज्ञानं ) केवलज्ञान सो (उत्पन्न) पैदा होजावे । और (साघ) साथ ही (शुद्धं दृष्टितं) शुद्ध आत्मीक प्रत्यक्ष दर्शन होजावे ।
विशेषार्थ-शास्त्र ज्ञानका भलेप्रकार अभ्यास ऐसा करना चाहिये जिससे आत्मा व अनात्माका दृढ ज्ञान संशय रहित होजावे, भेदविज्ञान पैदा होजावे। भीतरसे ऐसा झलक जावे कि मेरा आत्मा वास्तव में सर्व राग द्वेषादि विकारोंसे व ज्ञानावरणादि कर्म मलोंसे व शरीरादिसे रहित है। ऐसा भेद ज्ञान होनेपर जब इसीकी भावना वारवार की जाती है और आत्माका अनुभव किया जाता है तब जितना २ आत्मध्यान बढ़ता है उतना २ ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयो. पशम होता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञानकी शक्ति बढती जाती है। इसी आत्मध्यानकी योग्यतासे संपूर्ण बादशांगका ज्ञान होजाता है, आत्मा श्रुतकेवली होजाता है, अनेक ऋद्धियें सिद्ध होजाती हैं,
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धरणवरण
श्रावसकर
॥२५॥
शुद्ध आत्मीक ज्ञानकी भावना करते रहनेसे अवधिज्ञानकी दीप्ति व मन:पर्यय ज्ञानकी दीप्ति भी चमक जाती है। जिन ज्ञानों के प्रभावसे सूक्ष्म रूपी पदार्थोंका ज्ञान होने लगता है तथा उसी आत्मध्यानसे उन्नति करते २ जब वह ध्यान शुक्लध्यानके रूपमें होजाता है-एकाग्र शुद्धोपयोग होजाता है तब वही ज्ञान केवलज्ञानके रूपमें परिणत होजाता है। अर्थात् पांच प्रकारके ज्ञानावरणीय कर्मका नाश होजाता है और केवलज्ञान प्रकाशमान होजाता है। यह केवलज्ञान सर्व ज्ञानों में श्रेष्ठ है। इसके प्रगट होते हुए अन्य चार ज्ञानोंकी जरूरत नहीं रहती है। यह केवलज्ञान सर्व द्रव्योंको और
सर्व द्रव्योंकी सर्व पर्यायौंको एक साथ जान लेता है। साथ ही निजात्माका प्रत्यक्ष दर्शन जो ॐ अवतक न था सो होजाता है। श्रुतज्ञानसे शुद्धात्माका अनुभव यद्यपि स्वसंवेदनरूप प्रत्यक्ष है तथापि शास्त्र बलपर खडा हुआ परोक्ष ही है। जब केवलज्ञानका प्रकाश होजाता है तब प्रत्यक्ष
शुद्ध आत्माका यथार्थ अनुभव होजाता है। निरालम्ब केवल आत्मबोध होजाता है। इसलिये y उपासकको नित्य ही सम्यग्ज्ञानकी आराधना करते रहना चाहिये।
श्लोक-ज्ञानं लोचन भव्यस्य, जिनोक्तं सार्थं ध्रुवं ।
सुये तत्वानि विज्ञानं, शुद्ध दृष्टिः समाचरतु ॥ २५२ ॥ अन्वयार्थ-(भव्यस्य ) भव्य जीवकी (लोचन ) आंख (ज्ञानं ) ज्ञान है। जो (साथै भुवं ) यथार्थ है निश्चल है (निनोक्तं) ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। (शुद्ध दृष्टिः) सम्यग्दृष्टी जीव (सूये ) श्रुतज्ञानके द्वारा (तत्वानि विज्ञानं समाचरतु) तत्वोंका विशेष ज्ञान प्राप्त करें।
विशेषार्थ-भव्यजीव जगतके पदार्थोंको ज्ञानरूपी आंखसे देखता है जो अंतरंगमें प्रकाशमान रहती है। दोनों अखें तो मात्र रूपी स्थूल पदार्थों को ही जो वर्तमानमें सामने हैं उनहींको देख सती हैं । परन्तु शास्त्र ज्ञानसे प्राप्त हुई सम्यग्ज्ञानकी आंख सर्व पदार्थीको यथार्थ देख लेती है। जैसे पदार्थ जगतमें यथार्थ हैं उनको वैसा ही ठीकर जान लेना ही ज्ञान लोचनका कार्य है ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवानने कहा है। जहांतक केवलज्ञानका लाभ न हो वहांतक सम्यग्दृष्टीको उचित
है कि शास्त्रोंका अभ्यास करते हुए तत्वोंका विशेष ज्ञान बढाता रहे। शास्त्र समुद्र अगाध है, . नित्य अभ्यास करते हुए भी १०० वर्षका जीवनवाला मानव बहुत थोडा ही पार पासका है।
॥२५॥
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॥२५॥
Vतौभी एक श्रावकका मुख्य कर्तव्य है कि शास्त्रोंका मनन करता हुआ ज्ञानका आचरण करता रहे। ज्ञानाचारही आत्माकी भावना दृढ रखनेको बडा भारी आलम्बन है।
श्री मूलाचारमें ज्ञानाचारका स्वरूप कहा है
मेण तचं वि वुझेज्न नेण चितं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विमझेन तं गाणं मिणसासणे ॥७॥
जेण रागा विरजेज जेण सएसु रज्जदि । जेण मिती प्रभावेज तं गाणं निणसासणे ॥१॥ भावार्थ-जिसके द्वारा तत्वोंका यथार्थ ज्ञान हो, जिसके द्वारा मनके व्यापारका निरोध हो, जिससे आत्मा रागादि रहित वीतराग हो वही जिनशासनमें ज्ञानाचार कहा गया है। जिससे यह जीव रागादि विकारोंसे वैरागी हो, जिससे अपने निर्वाणके भीतर अनुरागी हो, जिससे प्राणी मात्रमें मैत्रीभाव बढ़ जाये वही जिनशासनमें ज्ञानाचार है।
इस प्रकार ज्ञानका महात्म्य जानकर भव्य जीवको उचित है कि योग्य कालमें विनय पूर्वक चित्तको समाधान करके ज्ञानकी आराधना करे। ज्ञानापास जीवनको सदा आनन्द प्रदान करने वाला प चिंताओंको मेटनेवाला है।
श्लोक-आचरणं स्थिरीमृतं, शुद्ध तत्व ति अर्थकं ।
ॐवकारं च विदंते, तिष्ठते शाश्वतं पदं ॥ २५३ ।। अन्वयार्थ शुद्ध तत्व ति अर्थक स्थिरीभूतं ) शुद्ध आत्मीक तत्वमें जो तीन गुणोंका अर्थात् रस्न अयका स्थिर होजाना सो (आचरण) सम्पकचारित्र है। जहां (ॐ वकारं च विंदन्ते ) ॐ गर्भित परमात्माका अनुभव होता है जो (शाश्वतं पदं तिष्ठते) अविनाशी पदमें विद्यमान है।
विशेषार्थ-पहले दर्शनाचार व ज्ञानाचारको कह चुके हैं, अब चारित्राचारको कहते हैं। निश्चय सम्यग्चारित्रका वही स्वरूप है जो अपने ही शुद्ध आत्मस्वरूप में उपयोगको जमा दिया जाय। यह आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र स्वरूप है। आत्माका अनुभव करते हुए तीनों गुणोंकी एकतामें परिणति जम जाती है वही साक्षात् मोक्षमार्ग है। ॐकारको नमस्कार किया जाता है क्योंकि उससे पांच परमेष्ठीमें गर्मित शुद्धास्माका संकेत होता है। उसी शुद्धात्माका अनुभव स्वानुभवमें होता है। शुडात्माका शुखात्मा रूप रहना यही अविनाशी पद है। यहां यह दिखलाया है कि श्रावकको
॥२५॥
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वारभतरण ॥२५३॥
भी इस निश्चय सम्यग्वारित्रका अभ्यास करना चाहिये । सम्यग्दृष्टीका मुख्य कर्तव्य है कि निज आत्माकी भावना करे । यद्यपि यह आत्मा कर्मोंसे लिप्त अशुद्ध है तथापि इसको शुद्ध निश्चय नयकी दृष्टिसे कमसे अलग करके देख लेना चाहिये। जैसे विवेकी मानव रंगसे मिले पानी में पानीको रंगसे भिन्न देखता है | तेली तिलोंमें भूसीसे भिन्न तैलको देखता है। धान्यमें चावल और छिलका मिला है तौभी पहचाननेवाला चावलको छिलकों से भिन्न देखता है। स्थान में तलवार है उसे चांदीकी तलवार चांदी की म्यान होनेके कारणसे कहते हैं तथापि समझदार चांदीकी म्यानको अलग और तलवारको अलग देखता है । उसी तरह भेद विज्ञानी सम्यग्दृष्टी महात्मा आत्माको अलग और कर्म प्रपंचको अलग देखता है। इस शुद्ध नयकी दृष्टिसे बुद्धिबलसे अपने आत्माको शुद्ध रूप ठहराकरके उसमें थिरता करना ही निश्चय सम्यञ्चारित्र है, इसीका अभ्यास हितकारी है । श्लोक - आचरणं त्रिविधं प्रोक्तं सम्यक्तं संयमं ध्रुवं ।
प्रथमं सम्यक् चरणस्य, अस्थिरीभूतस्य संयमं ॥२५४॥ चारित्रं संयमं चरणं, शुद्ध तत्त्व निरीक्षणं ।
आचरणं अवध्यं दिष्टं, सार्थ शुद्ध दृष्टितं ॥२५५॥
अन्वयार्थ – ( आचरणं द्विविधं प्रोक्तं ) आचरण दो प्रकारका कहा गया है ( सम्यक्तं संयमं ध्रुवं ) एक सम्यक्त आचरण, दूसरा निश्चल संयम आचरण ( प्रथमं अस्थिरीभूतस्य सम्यक्तचरणस्य संयमं ) प्रथम जो सम्यक्त आचरण है वह श्रद्धानमें स्थिर होकर के भी चारित्र अपेक्षा चंचल रूप है। उस चंचलपने को मेटकर स्थिर होना सो संयम है ( संयमं चरणं चारित्रं) ऐसे संयम भावमें चर्या करना सो दूसरा संयम आवरण या सम्यग्चारित्र | जहां (शुद्ध तत्त्व निरीक्षणं ) शुद्ध आत्मीक तत्वका ही अनुभव होता है वही (माचरणं अबंध्यं दिष्टं ) आचरण सफल देखा जाता है वही ( सार्थ शुद्ध दृष्टितं ) यथार्थ शुद्धात्माका दर्शन है । विशेषार्थ – यहां निश्चयनयकी अपेक्षा लेकरके भी व्यवहारनयसे चारित्र के दो भेद बताये हैंएक दर्शनाचरण, दूसरा संघमाचरण । मैं शुद्ध ज्ञाता दृष्टा आनन्दमई एक पदार्थ हूं, रागद्वेषादिसे
श्रावकाचार
॥ २५३ ॥
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२५४॥
भिन्न हूं ऐसा जो अडान उसमें स्थिर होना सो सम्यकदर्शनका आचरण है, अर्थात् अपने आत्माके स्वरूपको यथार्थ निश्चय, जिसमें कोई शंका न रहे, वही दर्शनाचार है। वह सम्यकी इस बातको जानता है कि मेरा आत्मद्रव्य पर्यायकी दृष्टिसे वर्तमानमें अशुद्ध होरहा है कर्म बन्ध सहित है तो
भी यह आत्मा अपने द्रव्य स्वभावकी अपेक्षासे शुद्ध है। इसका स्वभाव अनादिकालसे कोके ९ साथ रहते हुए भी चला नहीं गया है। जैसे सोना दीर्घकालसे पाषाणसे मिला है, तौभी सुवर्णने से
अपना सुवर्णपना नहीं त्यागा वैसे निगोद पर्यायसे लेकर इस मनुष्य पर्याय में आते हुए अनंतभव धारण करते हुए भी इस आत्माने अपना आत्मपना कभी ही नहीं त्यागा । ऐसे अपने सच्चे आत्म-स्वरूपका दृढ निश्चय रखना सो सम्यक्त आचरण है। यह स्वरूप स्थिरतारूप नहीं है, मात्र श्रद्धारूप है। जब उपयोग अनेक पदार्थोंसे हटकर इस निश्चय किये हुए अपने ही आत्माके शुद्ध स्वरूपमें एकाग्र होजाता है तब संयमाचरण प्राप्त होजाता है। तय उपयोग मनके संकल्प विकल्पोंसे व इंद्रिय द्वारा जाननेके कार्यसे छूटकर अपने ही स्वामी उपयोगवान आत्मामें उसी तरह लय होजाता है जैसे निमककी डली खारे पानी में लय होजाती है। शुद्धात्माके अनुभव में स्थिरता पाना ही संयमाचरण है। यहीं शुद्धात्माका दर्शन होता है। यहीं आचरणकी सफलता प्राप्त होती है। यदि कोई बाहरी पांच अणुव्रत या महाव्रत पालता है-उपवास, व्रत, जप, तप करता है, घंटों आसन लगाता है, उनोदर आदि रस परित्यागादि तप करता है परंतु शुडात्मामें थिरता नहीं पाता है तो उसका आचरण सफल नहीं है। परंतु यदि अपने शुद्ध आत्माके अनुभव में ठहर जावे तो वह चारित्र सफल है। जहां स्वरूपाचरण चारित्र है वहीं शुद्धात्मीक दृष्टि है । यही परम मंगलकारी है। यही काँके बंधको संहार करनेवाली है। यही वारवार आराधने योग्य है। यही धर्मध्यान है व यही शुक्लध्यानका नाम पानी है। तत्वानुशासनमें कहा है
न हीन्द्रियधिया दृश्यं रूपादि रहितत्वतः । वितस्तिन्न पश्यति ते अविस्पष्टतर्कणाः ॥ १६६ ॥
उभयस्मिन्निरुद्धे तु स्याद्विस्पष्टम तीन्द्रियं । स्वसंवेदनं हि तद्रू स्वसंवित्त्यैव दृश्यतां ॥ १६॥
भावार्थ-यह शुद्धात्मा इंद्रिय ज्ञानसे नहीं देखा जासक्ता है क्योंकि इंद्रियें रूपी पदार्थको y देखती हैं परन्तु यह आत्मा रूपादिसे रहित अमृर्तीक है। और न मनके वितर्क या विचार आत्माको
॥२५था
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बारणवरण
श्रावकाचार
देख सके। क्योंकि वे सर्व तर्कनाएं स्पष्ट व स्थिर नहीं हैं। जब इन्द्रिय ज्ञान व मनके संकल्प विकल्प दोनों रोक दिये जाते हैं तव विशेष स्पष्ट साफ साफ इंद्रिय रहित अतीन्द्रिय अपना स्वरूप जो अपनेसे ही अनुभव करने योग्य है अनुभव में आता है। उसीको स्वानुभवके द्वारा ही अनुभव करना चाहिये, देखना चाहिये, यही यथार्थ सम्यक्चारित्र है, इरएक गृहस्थ श्रावकको अभ्यास करना योग्य है।
श्लोक-पात्रं त्रिविधि जानते, दानं तस्य सुभावना ।
जिनरूपी उत्कृष्टं च, अव्रतं जघनं भवेत् ॥ २५६ ॥ अन्वयार्थ (त्रिविधि पात्रं जानते) पात्र तीन प्रकार जानने चाहिये (सुभावना तस्य दानं ) शुभ भावोंसे ॐ उनको दान करना चाहिये (उत्कृष्टं च मिनरूपी) जो तीर्थकरके समान नग्न दिगम्बर रूपके धारी निग्रंथ मुनि हैं वे उत्कृष्ट पाश हैं (अव्रतं जघनं भवेत् ) जो व्रत रहित सम्यग्दृष्टी हैं वे जघन्य पात्र हैं।
विशेषार्थ-अब यहां यह बताते हैं कि गृहस्थोंको दान करना बहुत जरूरी है। गृहस्थोंका दान धर्म मार्गका चलानेवाला है । दानका लक्षण कहा है-" अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानं " अपना और दूसरेका उपकार हो इसलिये अपने धनादिका त्याग करना सो दान है। अपना उपकार तो लोभका त्याग होना व मंद कषायसे पुण्यका लाभ होना है। व दान लेनेवाले पात्रका धर्म साधन व धर्ममें अनुराग बढता है। धर्मकी उन्नति गृहस्थोंके आधीन है। सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रके साधक तीन प्रकारके पात्र होते हैं, उनको भक्तिपूर्वक दान करना उचित है। उत्तम पात्र जिनरूपी हैं, अर्थात् १ निग्रंथ साधु परिग्रह त्यागी हैं। जघन्य पात्र बाहरी प्रतिज्ञारूप बारहवत रहित सम्यग्दृष्टी हैं। मध्यम पात्र व्रत पालनेवाले श्रावक हैं। इनकी यथायोग्य भक्ति करके बहुत ही श्रद्धा व उत्साह पूर्ण भावोंसे आहारादिका दान करना चाहिये । दान देते हुए अपनेको धन्य मानना चाहिये । दातारका यह भाव रहना चाहिये कि मेरे निमित्तसे यदि धर्मात्माओंके धर्मसाधनमें स्थिरता न हुई तो मेरा धन निरर्थक है। मेरे गृहस्थपनेकी शोभा ही दानसे है। नित्य मुझे दान किये विना अन्न नहीं खाना चाहिये।
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वारणतरण
श्रावकाचार
॥२५॥
श्लोक-उत्तमं जिनरूवं च, जिन उक्तं समाचरति ।
ति अर्थ जोयते येन, ऊर्ध अधं च मध्यमं ॥ २५७ ॥ अन्वयार्थ (उत्तम मिनरूवं च) उत्तम पात्र जिनरूपी निग्रंथ साधु हैं जो (मिन उक्तं समाचरति) जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञा प्रमाण चारित्रको पालते हैं (येन) जिसने (ति अर्थ मोयते) तीनों तत्व सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रको अनुभव किया है तथा जो (उर्घ अर्घ च मध्यम ) ऊर्ध्व लोक, अधोलोक व मध्यम लोकका स्वरूप जानते हैं।
विशेषार्थ-यहां उत्तम पात्रका स्वरूप कहते हैं। मुनि महाराज उत्तम पात्र हैं। वे जिन आगमके अनुसार अपना चारित्र भलेप्रकार पालते हैं। पांच महाव्रत, पांच समति व तीन गुप्तिके पालक हैं तथा जो निश्चय व्यवहार रत्नत्रयके स्वरूपको यथार्थ जान करके व्यवहार रत्नत्रयको यथायोग्य साधन करते हुए निश्चय रत्नत्रय मई आत्मानुभवके अभ्यासी हैं। जिन्होंने श्रुतज्ञानके द्वारा तीन लोकका स्वरूप जाना है, छः द्रव्योंके गुणपर्यायोंको पहचाना है। सारसमुच्चयमें कहा है
संगादिराहिता धीरा रागादिमलवर्जिताः । शांता दांतास्तपोभूषा मुक्तिकांक्षणतत्पराः ॥ १९६ ॥ मनोवाकाययोगेषु प्रणिधानपरायणाः । वृत्ताब्या ध्यानसम्पन्नास्ते पात्रं करुणापराः॥ १९७॥
धृतिभावनया युक्ता शुभभावनयान्विताः । तत्वार्थाहितचेतस्कास्ते पात्रं दातुरुत्तमाः ॥ १९८ ॥ भावार्थ-जो परिग्रहादिसे रहित है, धीर हैं, रागादि मलोंसे वर्जित है, शांत हैं, इंद्रियदमनशील हैं, तप आभूषणके धारी हैं, मोक्षकी भावनामें तत्पर हैं, मन वचन कायकी एकतामें लीन हैं, चारित्रवान हैं. ध्यानी हैं, दयावान हैं, धैर्यवान हैं, शुभ भावनाके कर्ता हैं. तत्वोंके भीतर जिनका चित्त लीन हैं वे ही उत्तम पात्र दातारके लिये दानयोग्य हैं।
श्लोक-पट् कमलं त्रि ॐकारं, ध्यानं ध्यायति सदा बुधैः ।
पंचदीप्तिं च विदंते, स्वात्मादर्शन दर्शनं ॥ २५८ ॥ अन्वयार्थ-(बुधैः सदा षट् कमलं त्रि ॐकार ध्यानं ध्यायति) विद्वान उत्तम पात्र साघुओंके द्वारा सदा छ। बीजाक्षर और तीन ॐको कमलमें स्थापित करके ध्यान का अभ्यास किया जाता है। (पंचदीप्ति
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श्रावकाचार
॥२५७॥
४ च विदंते ) इसीसे वे पाचों ज्ञानोंका प्रकाश करते हैं तथा (स्वात्मादर्शन दर्शनं ) अपने आत्माका दर्शन- रूपी दर्शनको प्राप्त करते हैं।
विशेषार्थ-यहां षद् कमल विकारका कोई खुलासा नहीं है इसमें जैसा समझा वैसा हम पहले ही लिख चुके हैं कि एक कमल हृदयस्थानमें आठ पत्तेका विचार किया जाय । बीचमें ॐ लिखके फिर हर पांच पत्तेपर हां ही हूँ हाँ हा लिखे। तीन पत्तोंपर ॐ सम्यग्दर्शनाय नमः ॐ सम्यरज्ञानाय नमः ॐ सम्यक्चारित्राय नमः लिखे और क्रमशः नौ स्थानोंपर ध्यान जमावे और हरएकके द्वारा शुरात्माका स्वरूप विचार जावे व अपने आत्माकी तरफ आजावे अथवा ऐसा भी ध्यान किया जासक्ता है कि इसी आठ पत्तेके कमलके ऊपर बीचमें ॐ विराजमान करके पांच पत्तों पर णमो अरहंताणं, णमो सिडाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहणं लिखें। फिर तीनों पत्तोपर ॐ सम्यग्दर्शनाय नमः ॐ सम्यग्ज्ञानाय नमः ॐ सम्पश्चारित्राय नमः लिखें। और हरएकको भिन्नरकर स्वरूप विचार जावे। यह पदस्थ ध्यानका एक प्रकार है। इससे चित्तकी एकाग्रता होती है, संकल्प-विकल्प हटते हैं, तब ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम विशेष होता है, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान बढता जाता है। इसी ध्यानके बलसे शुद्धात्माका अनुभव रूप आत्मदर्शन
होने लगता है। उसके प्रतापसे साधुके अवाधिज्ञान मन:पर्यय ज्ञान तथा अंतमें केवलज्ञानका भी र प्रकाश होजाता है । अरहंत पद पानेका उपाय मात्र आत्मध्यान है जिसे श्री मुनिगण ध्याते हैं वे ही उत्तम पात्र हैं।
-अवधि येन संपूर्ण, रिजु विपुलंच दिष्टते।
मनपर्यय केवलज्ञान जिनरूपं उत्तमं बुधैः ॥ २५९ ॥ अन्वयार्थ—(येन) जिस उत्तम मुनि चरित्र के द्वारा (संपूर्ण अवधि) परमावधि सर्वावधि ज्ञान (रिजु विपुलं च मनपर्यय ) रिजु व विपुल मनःपर्यय ज्ञान (केवलज्ञानं दिष्टते) और केवलज्ञान प्रकाशित होता है वही (मिनरूपं) जिनेन्द्रका निग्रंथ रूप (बुधैः) आचार्योंके द्वारा (उत्तम) उत्तम कहा गया है।
विशेषार्थ-यहां उत्तम पात्र साधु महाराजकी महिमा बताई है कि यथार्थ रत्नत्रयके साधक आस्मध्यानी साधु आत्मध्यानके बलसे परमावधि सर्वावधि पूर्ण अवधिज्ञानको पा लेते हैं। दोनों
॥२५॥
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वारणतरण
श्रावधान
॥२५॥
ही प्रकारके रिजुमति, विपुलमति मन:पर्यय ज्ञानका प्रकाश कर लेते हैं और वही साधु सर्व ज्ञानावरणीय कर्मका क्षय करके केवल ज्ञानको जगा लेते हैं। ऐसे ही परम साधु गणधर देवादि
आचार्यों के द्वारा उत्तम पात्र कहे गए हैं। उत्तम पात्र साधुओं के भी तीन भेद हैं-उत्तम, मध्यम, जघन्य । जो तीर्थकर भगवान साघु अवस्थामें हैं वे उत्तममें उत्तम हैं। जो ऋद्धिधारी साधुसे लेकर चार ज्ञानके धारी तक हैं वे उत्तममें मध्यम पात्र हैं। जो इसके सिवाय मात्र साधन करनेवाले, निश्चय आत्मानन्दके विलासी परमात्मतत्वके रमणकर्ता हैं वे उत्तममें जघन्य हैं। इन उत्तम पात्रोंको गृहस्थोंके द्वारा दान दिया जाना मोक्षप्राप्तिमें उनके लिये परम सहायक है। साधुगण न स्वयं भोजनपानका प्रबन्ध करते न कराते हैं न ऐसी भावना भी करते हैं कि कोई हमारे लिये प्रबन्ध करें। वे उस आहारको भी नहीं लेते हैं जो किसीने मुनिको देनेके निमित्त ही बनाया हो। इसमें उद्दिष्टका दोष
है। गृहस्थने जो अपने लिये बनाया हो उसीमेंसे भक्तिपूर्वक दिये हुए आहारको जो लेते हैं वे नहीं ४ चाहते कि उनके निमित्तसे कोई आरम्भ हो। क्योंकि आरम्भमें हिंसा थोडी बहुत अवश्य होती
है। वे स्वनिमित्त हिंसा कराकर अहिंसा व्रतमें कमी करना नहीं चाहते हैं। इसीलिये विना संकेत किये भिक्षारूप कहीं भी निकल जाते हैं। वहां गृहस्थने यदि भक्तिपूर्वक लेजाकर कुछ भाग हाथों में रख दिया तो उसे भी बडे ही संतोष व समताभावसे लेकर संयमकी रक्षा विचार कर धर्म भावनामें निरत रहते हैं । मूलाचार अनगार भावनामें कहा है
गवि ते अभित्थुगंति य पिंडत्थं ण वि य किंचि नायति । मोणबदेण मुणिणो चरंति मिक्खं अभासंता ॥ १॥
भावार्थ-मुनि महाराज न तो भोजनके लिये किसीकी स्तुति करते हैं न याचना करते हैं। मौनव्रतसे भिक्षाको जाते हैं, विना बोले हुए जो शुद्ध मिल गया उसे ही लेलेते हैं। यदि लाभ नहीं हुआ तो लौट आते हैं। और भी लिखा है
पयणं व पायणं वा ण करेंति अ णेव ते करावेति । पयणारंभणियत्ता संतुट्ठां भिक्खमेतेण ॥ ५ ॥
भावार्थ-वे साधु न स्वयं भोजन पचाते हैं न पचन कराते हैं, वे भोजन क्रियाके आरम्भसे विरक्त हैं, भिक्षामात्रसे संतोषी रहते हैं। ऐसे संतोषी साधुओंको भिक्षा देना परम धर्मकी रक्षा करना है, साधुओंको मोक्ष पहुंचानेका साधन करदेना है। इसलिए दातार गृहस्थ बड़ा भारी धर्मका
॥२५८॥
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श्रावकाचार
सहायक है। इन उत्तम पात्रोंको नवधाभकिसे दान करना चाहिए । पुरुषार्थसिद्धयुगायमें कहाबारणतरण
संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च । वाक्कायमनःशुद्धिरेषणशुद्धिश्च विधिमाहुः ॥ १६८ ॥
भावार्थ-१-संग्रह अर्थात् अत्र तिष्ठ तिष्ठतिष्ठ, आहार पानी शुद्ध है ऐसा तीनवार कहकर यदि मुनि उधर भाव करें तो उनको आप आगे जाता हुआ भीतर ले जावे। १-फिर उच्च आसनपर पाट आदिपर विराजमान करे, फिर शुर जलसे किसी वर्तनमें उनके पग प्रच्छालन करे, ४ फिर आठ द्रव्योंसे पूर्ण पूजा या अर्घ देवे जैसा समय हो, ५ फिर उनको तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार करे, ६ मनकी शुद्धि, ७ वचनकी शुधि, ८ कायकी शुद्धि, ९ व आहारकी शुद्धि रक्खे। इस नौ प्रकार विधिसे मुनि दान करना चाहिये । दातारमें सात गुण होना चाहिये
ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानसूयत्वं । अविषादित्वमुदित्वे निरहंकारित्वमिति हि दातृ गुणाः ॥ १२ ॥
भावार्थ-दातारके ये गुण हैं-१ इस लोकके किसी फल की इच्छा न करे, २क्षमाभाव रक्खेॐ उस समय किसीपर क्रोध न करे, १ कपट रहित हो, ४ इर्षीभाव न करे, ५ विषाद न करे, ६ प्रसन्न ॐ रहे, अहंकार न करे।
गृहस्थी स्वयं भी धर्मसाधक भोजन खाता है व वैसा ही निरोगी आहार मुनिको देता है। * वहीं बताया है कि ऐसा द्रव्य देना चाहिये
रागद्वेषासंयममदुःखभयादिकं न यत्कुरुते । द्रव्यं तदेव देयं मुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् ॥१७॥ भावार्थ-ऐसा पदार्थ दानमें देना चाहिये जो रागदेष, असंयम दुःख, भय आदिको नहीं उत्पन्न करे तथा उत्तम तप व स्वाध्यायकी वृद्धि सहकारी हो। ऋतुके अनुसार सादा व पौष्टिक भोजन मुनिको देना उचित है। शुद्ध दूध, दालमोडी, चावल बहुत हितकारी है। प्रासुर फल भी योग्य हैं। गरिष्ट मिठाई आदि व पकवानादि न देना ही अच्छा है।
श्लोक-उत्कृष्ठं श्रावकं येन, मध्यपात्रं च उच्यते ।
मतिश्रुतज्ञान संपूर्ण, अवधी भावना कृतं ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ (मेन श्रावकं उत्कृष्टं) जो भाई उत्कृष्ट श्रावक हैं उनको (मध्यपात्रं च उच्यते) मध्यम
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कारणवरण
॥ २६०॥
में
पात्र कहा जाता है वे (मतिश्रतज्ञान संपूर्ण ) वे मति व श्रुतज्ञानसे पूर्ण होसके हैं (अवधी भावना कृतं ) तथा अवधिज्ञानकी भावना होती है ।
विशेषार्थ – उत्कृष्ट श्रावक दसमी व ग्यारमी प्रतिमाधारी होते हैं । दसमी प्रतिमावालेको अनुमति त्यागी श्रावक कहते हैं, ग्यारमी प्रतिमावालेको उद्दिष्ट त्यागी कहते हैं। यह भी अपने उद्देश्य से किया हुआ आहार मुनिके समान नहीं लेते हैं। इस ११ मी प्रतिमाके दो भेद प्रसिद्ध हैं-एक क्षुल्लक, दूसरे ऐलक । क्षुल्लक एक खण्ड वस्त्र व लंगोटधारी होते हैं । मोर पिच्छिका व कमण्डल रखते हैं । पात्र में बैठकर भोजन करते हैं। कई एक ही घर से भिक्षा या भोजन करते हैं। कोई अपने भिक्षा के पात्र में कई घर से थोडा २ लेकर अंतिम घरमें बैठ भोजन करते हैं। ऐलकमें विशेषता यह है कि वे मात्र एक लंगोट रखते हैं, हाथोंसे केशका लोंच करते हैं व बैठकर एक ही घर भिक्षासे अपने हाथों में दिया हुआ भोजन करते हैं। मध्यम पात्र दर्शन प्रतिमासे लेकर उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा तक ११ प्रतिमावाले होते हैं। इनमें उत्तम १०मी व ११मी प्रतिमाधारी हैं। मध्यम सातमीसे नौमी तक होते हैं। पहली से छठी तक मध्यम में जघन्य हैं। कोई कोई तीर्थंकर जन्मसे मति श्रुन अवधिज्ञानी होकर भावकके व्रत धारते हैं, अन्य कोई मतिश्रुतज्ञानी होते हैं। यहां पूर्णसे भाव पूर्ण द्वादशांग वाणीसे नहीं है क्योंकि पूर्ण द्वादशांगके ज्ञाता श्रुतकेवली साधु होते हैं, परंतु श्रावक भी यथार्थ मति व श्रुतज्ञानके धारी होते हैं व शास्त्रोंके विशेष मर्मज्ञ होते हैं । प्रयोजन यह है कि शास्त्रका ver ज्ञान हुए बिना श्रावकका चारित्र ठीक २ नहीं पल सक्ता है इसलिये श्रावकको मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी होना चाहिये । तथा उत्कृष्ट आवकको यथायोग्य भक्तिपूर्वक दान देना चाहिये । उनमें से ११ मी प्रतिमावालेको तो आहार पानी शुद्ध कह करके पडगाहना चाहिये व उच्च आसनपर बिठा पग प्रछालन करना चाहिये व यथायोग्य वन्दना करनी चाहिये, पूजन व अर्ध चढ़ानेकी जरूरत नहीं है । पूजन मात्र देव, गुरु, शास्त्रकी होती है। जो क्षुल्लक अनेक घर आहारी हैं उनको खंड खंड ही पात्र में भोजन दिया जायगा । भोजन व मन, वचन, कायकी शुद्धि तो होनी ही चाहिए । १० मी प्रतिमाषालेको भोजन के समय बुलाकर जिमाना चाहिए, शेष पहलेसे निमंत्रण मानसके हैं।
श्रावकाचार
॥२६०
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वारणवरण
॥२६२॥
श्लोक - आज्ञावेदक सम्यक्तं, उपशमं साधें भुवं ।
पदवी द्वितीय आचर्य, मध्यपात्रं सदा बुधैः || २६१ ॥
अन्वयार्थ —- ( आज्ञावेदक सम्यक्तं उपशमं ध्रुवं सार्धं ) आज्ञा सम्पक्त, वेदक सम्यक्त, उपशम सम्पक तथा ध्रुव अर्थात् क्षायिक सम्यक्त सहित ( पदवी द्वितीय आचर्य ) जो दूसरी श्रावककी पदवीका आचरण करते हैं उनको (बुधैः सदा मध्यपात्र) आचापने सदा ही मध्यमपात्र कहा है ।
विशेषार्थ – यहां ऐसा अभिप्राय झलकता है कि मध्यम पात्रको सम्यग्दर्शन सहित श्रावक व्रतोंका आचरण करना चाहिये । यदि वह एकदम मिथ्यात्व से पांचवें गुणस्थानमें अनंतानुबंधी कषाय और अप्रत्याख्यानावरण कषायोंके उपशमके व मिथ्यात्व के उपशमसे आए तो वह श्रावक उपशम सम्यक्त सहित होगा अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्ती उपशम श्रेणी से गिरकर पांचवेंमें आवे तौभी उपशम सम्यक्त सहित श्रावक होगा । यदि वेदक सम्यक्त चौथे या पांचवें में प्राप्त करे या वेदक सहित छठेसे पीछे आवे तो वेदक सम्यक्त सहित श्रावक होगा । यदि क्षायिक सम्यक्त चौथे या पांचवें में प्राप्त करे या क्षायिक सम्यक्तवाला छठेसे पीछे आवे तो क्षाधिक सम्यक्त सहित श्रावक होगा । यदि कोई जिनेन्द्रकी आज्ञाके अनुसार तत्वोंका श्रद्धान करके श्रावकके व्रत पालने लगे तो उसको आज्ञासम्यक्त सहित श्रावक कहेंगे परन्तु वह यदि उपशम या वेदक या क्षायिक सम्पत सहित नहीं है तो वह निश्चयसे न सम्पदृष्टी है और न श्रावक पंचम गुणस्थानवर्ती है। किंतु उसको श्रावक चारित्रवान निश्चय सम्यक्त रहित मानेंगे और व्यवहार सम्यक्तका धनी व व्यवहार चारित्रका धनी मानते हुए उसे कुपात्रों में गिनेंगे, परन्तु वह भी दानका पात्र होगा। जैन सिद्धांत में कहा है कि जो सम्यक्त सहित चारित्रवान हैं वे सुपात्र जो निश्चय सम्यक्त रहित यथार्थ चारित्रवान हैं वे कुपात्र हैं। ये दोनों ही दान देनेके योग्य हैं। जिसका व्यवहार चारित्र दोनों ही ठीक न होंगे वह अपात्र हैं, दान देनेका पात्र नहीं है।
सुपात्र और कुपात्र में व्यवहार चारित्रकी अपेक्षा कोई अंतर नहीं है, मात्र निश्चय सम्यक्त पात्र में नहीं होता। ऐसा ही अमितगति श्रावकाचार में कहा है
चरति यश्चरणं परदुश्वरं, विकटघोरकुदर्शनवसितः । सकलसस्वहितोद्यतचेतनो वितयकर्कश्शवाक्य परां सुखः ॥ अ० १०-३४॥
NE
श्रावकाचार
॥२६२॥
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कहते हैं। ये दान
| गुरुकषायमुजगतिशील गुण
44444444444444444444444444444444444444444
धनकलत्रपरिमहनिस्सहो नियमसंयमशीलविभूषितः । कृतकषावहषीकविनिर्जयः प्रणिगदंति कुपात्रामिमं बुधाः ॥३५॥
भावार्थ-जो कठिन चारित्रको पालते हैं, परन्तु विकट व भयानक मिथ्यादर्शन सहित हैं, सर्व प्राणी मात्रके हितमें उद्यमी हैं, झूठ और कठोर वचनके त्यागी , धन, स्त्री परिग्रहसे ममता रहित हैं, नियम संयम शीलसे विभूषित हैं, कषायको घटानेवाले व इंद्रियोंके विजयी हैं ऐसोंको पंडितजन कुपात्र कहते हैं। ये दानके पात्र हैं । अपात्रका स्वरूप इसप्रकार हैदृढ़कुटुम्बपरि महपञ्जरः, प्रशमशीलगुणव्रतवर्जितः । गुरुकषायमुजंगमसेवितं, विषयकोलमपात्रमुशंति तम् ॥ ३८॥
भावार्थ-जो इस कुटुम्ब या परिग्रहके पीजरे में बंद है, शांति शील गुण व व्रतसे रहित है, तीन कषायरूपी सर्पसे सेवित है, विषयोंका लोलुपी है, उसको अपात्र कहते हैं। सुपात्र या कुपात्रको दान
पात्रेभ्यो यः प्रकृष्टेम्यो मिथ्याष्टिः प्रयच्छति । स याति भोगभूमीषु प्रकष्टासु महोदयः ॥ ६२-११॥ कुपात्रदानतो याति कुत्सितां मोगमेदिनीम् । उप्ते कः कुत्सिते क्षेत्रे सुक्षेत्रफलमश्नते ॥ ८ ॥ येऽतरद्वीपजाः संति ये नरा म्लेच्छखंडजाः । कुपात्रदानतः सर्वे ते भवंति यथाययम् ॥ ८५ ॥ वर्यमध्यजघन्यासु तिर्यचः संति भूमिषु । कुपात्रदानवृक्षोत्थं मुंजते तेऽखिकाः फलम् ॥८६॥ दासीदासद्विपम्लेच्छसारमेयादयोऽत्र ये । कुपात्रदानतो भोगस्तेषां भोगवतां स्फुटम् ॥ ८७-११ ॥
भावार्थ-मिथ्यादृष्टी यदि उत्तम सुपात्रोंको दान दे तो उत्तम भोगभूमिमें मानव होवें। कुपात्र दानसे कुभोग भूमिमें पैदा हो। जैसे खोटे क्षेत्रमें पोए बीजका फल सुक्षेत्र में योऐ बीजके समान कैसे होसक्ता है ? कुपात्र दानसे उत्तम मध्यम जघन्य भोगभूमिमें तिर्यंच पैदा होता है। अपात्रको दान देना ठीक नहीं, निर्फल है। कहा है
अपात्राय धनं दत्ते व्यर्थ संपद्यतेऽखिलं । ज्वलिते पावके क्षिप्तं बीनं कुत्रांकुरीयति ॥ ९ ॥ भावार्थ-अपात्रको दिया धनादि सो सब व्यर्थ जाता है जैसे जलती आगमें डाला हुआ हुधा बीज कभी उग नहीं सक्ता है।
श्लोक-ॐ वंकारं च वेदंते, ह्रींकारं श्रुत उच्यते ।
अचक्षुदर्शन जोयंते, मध्यपात्रं सदा बुधैः ॥ २६२ ।।
IRENE
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वारणतरण
__ अन्वयार्थ (ॐ वकारं च वेदंते ) जो श्रावक ॐकारका अनुभव करते हैं ( ह्रींकारं श्रुत उच्यते ) व ही बीजाक्षरका उच्चारण करते हैं (अचक्षुदर्शन जयंते) अचक्षुदर्शनद्वारा आत्माको देखते हैं (सदा बुधैः श्रावमा ४ मध्यपात्रं ) उनको ही आचार्योंने सदा मध्यम पात्र कहा है।
विशेषार्थ-मध्यम पात्र श्रावक भी ॐका ध्यान करके पांच परमेष्ठीके स्वरूपका चितवन करके ५ सके द्वारा अपने शुखात्मापर उपयोग लेजाते हैं तथा वे ह्रींका भी अंतरंगमें जप करते हैं व उसका १
ध्यान करते हैं व इसके द्वारा चौवीस तीर्थंकरोंका स्वरूप विचारते हैं, फिर उनके द्वारा अपने शुद्धा. त्मापर उपयोग लेजाते हैं। तथा मन द्वारा अचक्षु दर्शनका प्रयोग करके निर्विकल्प आत्माका दर्शन करते हैं। मनका विषय आत्मा है, मन द्वारा अचक्षु दर्शन अमूर्तीक आत्मापर उपयोग लेजासत्ता है। इस तरह जो आत्माके प्रेमी, आत्मध्यानी व शुद्धात्माके अनुभवशाल होते हैं वे ही मध्यम पात्र कहे गए हैं।
श्लोक-प्रतिमा एकादशं येन, व्रतं पंच अणुव्रतं ।
साद्धं शुद्धतत्वार्थ, धर्मध्यानं च जोइतं ॥ २६३ ॥ ____अन्वयार्थ-(येन एकादशं प्रतिमा) जो ग्यारह प्रतिमाओंको पालते हैं (पंच अणुव्रतं व्रत) पांच अणुः बत व उनके सहकारी तीन गुण व्रत व चार शिक्षावतोंको पालते हैं (शुद्ध तत्वार्थ साई) शुद्ध तत्वके अनुभव करनेवाले हैं (धर्मध्यानं च जोइतं ) और धर्मध्यानका अभ्यास करते हैं, वे मध्यम पात्र हैं।
विशेषार्थ-दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त त्याग, रात्रि भुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग, उद्दिष्ट त्याग ये ग्यारह प्रतिमाएँ हैं। इनका स्वरूप इस ग्रन्थमें आगे कहा है। मध्यम श्रावक इस श्रेणियोंके द्वारा चारित्रकी उन्नति करते हैं। तथा बारह व्रतोंको उत्तरोत्तर बढाते जाते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व परिग्रह प्रमाण इन पांच अणुव्रतोंको पालते हैं। दिग्बत, देशव्रत, अनर्थदंड त्याग व्रत इन तीन गुण व्रतोंको पालते हैं। सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण तथा अतिथिसंविभाग इन चार शिक्षावतोंको पालते हैं। बाहरी चारित्र इसतरह पालते हुए शुद्ध आत्मकि तत्वका अनुभव किया करते हैं। उनकी मुख्य दृष्टि अपने आत्मीक विचारपर रहती है। इसी हेतु ये सब श्रावक धर्मध्यानका अभ्यास भले
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॥२६॥
प्रकार करते रहते हैं। श्रावकोंकी अंतरंग भावना मोक्ष प्राप्तिकी रहती है, इससे यही चाहते हैं कि कष इम मुनि ब्रतके योग्य होजावें जो ध्यानकी विशेष वृद्धि कर सकें। इन ग्यारह प्रतिमाओंमें आगेर चारित्रकी वृद्धि होती जाती है। दूसरी प्रतिमावाला पहलीके नियमोंको व तीसरीवाला दुसरीके नियमोंको पालता रहता है। आगे२ उन्नति करता जाता है। ये ११ श्रेणिया श्रावकाचारकी क्रमशः वृद्धिके लिये बहुत ही उपयोगी हैं।
श्लोक-अव्रतं त्रितियं पात्रं, देवशास्त्र गुरु मान्यते ।
सदहति शुद्ध सम्यक्तं, साथ ज्ञानमयं ध्रुवं ॥ २६४ ॥ अन्वयार्थ (त्रितियं पात्रं अव्रतं) तीसरा जघन्य पात्र अविरत सम्यग्दृष्टी है जो ( देव शास्त्र गुरु मान्यते) यथार्थ देव शास्त्र गुरुमें दृढ श्रद्धा रखता है । व (शुद्ध सम्यक्तं ज्ञानमयं ध्रुवं सार्थ सद्दति ) जो ज्ञानमय निश्चल यथार्थ तत्त्वके साथ शुद्ध सम्यग्दर्शनकी श्रद्धा रखता है।
विशेषार्थ-जघन्य पात्र वह है जिसके नियमसे अणुव्रत तो नहीं है परन्तु व्रतोंके धारणकी तीन भावना है। अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे अतीचार रहित ब्रत नहीं पाल सक्ता है तथापि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा व आस्तिक्य सहित होता है। अर्थात् इसके परिणामोंमें आकुलता व अन्ध कषायपना नहीं रहता है। आत्माका पक्का अडान होनेसे उसके भीतर शाति झलका करती है। जिसके भीतर संवेग भाव होता है अर्थात् जो संसार शरीर भोगोंसे दृढ वैराग्यवान होता हुभा धर्मसे परम प्रीति रखता है-अनुकम्पा भावके कारण वह सर्व प्राणी मात्रपर दया रखता है। दुखियोंको दु:खी देखकर उसका हृदय कम्पायमान होजाता है। यथाशक्ति वह दुःख ॐ दूर करनेका प्रयत्न करता है, कराता है, व दुःखीका दुःख मिट जानेपर हर्ष मानता है । आस्तिक्य-४
भाव तो ऐसा है कि उसे अपने आत्माके ऊपर पूर्ण विश्वास होता है, परलोकका अडान होता है, कर्मके बंध व उसकी मुक्तिके ऊपर विश्वास रखता है, सच्चे वीतराग सर्वज्ञ भगवान अईत सिर भगवानको देव मानता है, परिग्रह त्यागी निग्रंथ साधुको गुरु मानता है तथा जिनप्रणीत अहिंसा धर्मको धर्म मानता है व जिनवाणीको अनेकांत वस्तु स्वरूप प्रकाशक शास्त्र मानता है। उसका ॥२९४
KAKKAGAR
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॥२६॥
७ सम्यक्तभाव निर्मल होता है। वह शुद्धात्माको पहचानता है तथा शुरात्माका अनुभव करता है। श्रावकार ४ यह तीसरा पात्र भी मोक्षमार्गी है व दान देने योग्य है।
श्लोक-शुद्धदृष्टि च सम्पूर्ण, मलमुक्कं शुद्ध भावना।
मति कमलासने कंठे, कुज्ञानं त्रिविधि मुक्तयं ॥ २६५ ॥ अन्वयार्थ (सम्पूर्ण शुद्धष्टी च) यह अविरत सम्बग्दष्ट पूर्ण शुद्ध आत्माका श्रद्धावान होता है र (मलमुक्त ) अतीचार रहित होता है (शुद्ध भावना) शुद्ध आत्माकी भावना करता रहता है (कण्ठे
कमलासन ) कण्ठमें कमलको विराजमान करके (मति) बुद्धि स्वरूप ॐको ध्याता है (त्रिविधि कुज्ञानं मुक्तयं) तीन कुज्ञान रहित होता है।
विशेषार्थ-यह जघन्य पात्र शुद्धात्मापर पूर्ण विश्वास रखता हुआ उसी शुद्ध आत्माके स्वरूपकी भावना भाता है। अपने कण्ठमें कमल विराजमान करके उसमें ॐ स्थापित करके ॐके द्वारा परमात्माका ध्यान करता है। इसके कुमति, कुश्रुत, कुअवाधिज्ञान नहीं होते हैं । यह पांच अतीचारोंको बचाकर निर्मल सम्यक्त पालता है।
वे पांच अतीचार हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा, अभ्यदृष्टिसंस्तव ।
शंका-जिनधर्मके प्रयोजनभूत सात तत्वोंमें दृढ़ श्रद्धा रखता हुआ उनमें शंका नहीं लाता है । यदि शास्त्रोंमें कही हुई कोई बात समझ में नहीं आती है तो अपनी समझकी कमी समझता है व विशेष ज्ञानियोंसे समझनेकी चेष्टा करता है। उसके ऊपर मिथ्या श्रद्धा नहीं रखता है। तथा वह सात प्रकारका भय नहीं रखता है। इसलोक भय-ये जगतके लोग मेरा बिगाड़ करेंगे व मुझे इंसेगे, २-परलोक भय-परलोकमें बुरी गतिमें जाऊंगा तो क्या होगा, -रोग भय-रोग होजायगा
तो मैं क्या करूंगा, ४-अनरक्षा भय-मेरा कोई रक्षक नहीं है, कैसे मेरे प्राण बचेंगे,५-अगुप्त भयV मेरा माल कोई चुरा लेगा तो मैं क्या करूंगा। ६-मरण भय-यदि मर जाऊंगा तो सब कुछ छूट
जायगा इससे न मरूं तो ठीक, ७-अकस्मात् भय-कहीं मकान न गिर पड़े, भूचाल न आजावे, ऐसा । होगा तो क्या करूंगा। इस तरह सात तरहका भय सम्यक्ती नहीं रखता है। यथायोग्य हर
RKeketreeke
॥३६५॥
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वा रणतरण
||२६६॥
प्रकारकी सम्हाल रखता हुआ निर्भय सिपाहीके समान संसारके युद्धक्षेत्र में कमसे लड़ाई करता है, शंका दोषसे दूर रहता है।
कांक्षा - संसारके क्षणिक विषयभोगोंकी इच्छा नहीं रखता है। इन भोगोंको अतृप्तिकारी विनाशीक व देव समझता है, इनकी इच्छा करके धर्मका सेवन नहीं करता है, केवल सुखका अभिलाषी होता है ।
विचिकित्सा - किसी को रोगी, दुःखी, दलिद्री, गरीब देखकर घृणा नहीं करता है, वस्तुस्वरूप विचारकर - दया लाकर उनकी सहायता करता है ।
अन्यदृष्टि प्रशंसा - मिथ्यादृष्टी अज्ञानी अधर्मको धर्म जानकर जो क्रिया करें-पूजा, भक्ति, जप, तप, दान करें उसकी मनमें प्रशंसा नहीं करता है क्योंकि उनमें मिथ्यात्वका आशय है, जिस आशयको त्यागना चाहिये । इस आशय से किया हुआ धर्म कर्म प्रशंसनीय नहीं हो सका है । अन्यदृष्टि संस्तव - अपने वचनोंसे भी सम्यक्ती मिथ्यात्व धर्मक्रियाको प्रशंसा नहीं करता है क्योंकि वह मिथ्या अभिप्रायको पुष्ट करनेवाली होजाएगी । इस तरह पांच अतीचारोंको टालकर सम्यक्त भावको निर्मल रखता है ।
नोट- यहां 'मति कमलासने' का जो अर्थ समझ में आया सो लिखा है। श्लोक – मिथ्या त्रिविधि न दिष्टंते, शल्यत्रय निरोधनं ।
सुयं च शुद्ध द्रव्यार्थं, अविरत सम्यग्दृष्टितं ॥। २६६ ।।
अन्वयार्थ - ( मिथ्या त्रिविधि न दिष्टंते) उस आवरत सम्पक्की में तीन प्रकार मिथ्यात्वभाव नहीं दिखलाई पडता है । (शल्यत्रय निरोधनं ) उसने तीन प्रकार शल्यको निकाल डाला है । (सुयं च शुद्ध द्रव्यार्थ ) श्रुतज्ञानी है व शुद्ध द्रव्यार्थिक नयको समझता है ऐसा (अविरत सम्यग्दृष्टित ) यह अविरत सम्यग्दृष्टि होता है ।
विशेषार्थ — इस सम्यक्तीके भीतर तीन प्रकारका मिथ्यात्व नहीं होता है- मिध्यात्व, सम्पग्मिथ्यात्व व सम्पक्त प्रकृति मिध्यात्व, क्योंकि इसने इन तीन कर्मको प्रकृतियोंका उपशम या क्षय कर डाला है ।
श्रावकाचार
॥२६६॥
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धारणवरणY
तत्वोंको औरका और समझना मिथ्यात्व है-मिथ्या और सत्य दोनों तत्वोंपर मिश्र श्रावसाचार
श्रद्धा रखना सम्यग्मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन रखते हुए भी उसमें चल, मल, अगाढ तीन प्रकार ॥२७॥
दोष लगाना निर्मल सम्यक्तका न होना सो सम्यक्त प्रकृतिका भाव है। ये तीनों दोष इस जघन्य पात्रमें नहीं होते न उसमें माया, मिथ्या, निदान तीन शल्य होती हैं। वह सम्यक्ती कपट रहित, अण्डा सहित व आगामी भोगाभिलाष रहित धर्म पालता है, शास्त्रज्ञानका प्रेमी होता है-शास्त्रों के मर्मको समझता है तथा शुद्ध द्रव्यार्थिक नयपर विशेष लक्ष्य रखता है क्योंकि इस नयसे हरएक ४. शरीरमें आस्माका पवित्र शुद्ध दर्शन होता है। ऐसा अविरत सम्पती मोक्षका पात्र है।
श्लोक-त्रिविधि पात्रं च दानं च, भावना चिंत्यते बुधैः।
शुद्धदृष्टिरतो जीवर, अहावन लक्ष त्यक्तयं ॥ २६७ ॥ नीच इतर अप तेज च, वायु पृषि वनस्पती ।
विकलत्रयं च योनी च, अहावन लक्ष त्यक्तयं ॥ २६८॥ अन्वयार्थ-(बुधैः) बुद्धिमान लोग (त्रिविधि पात्रं च दानं च भावना चिंत्यते) तीन प्रकारके पात्रोंको दानकी भावना विचारते रहते हैं। ऐसा दानी (शुद्धष्टिरतः जीवः) जो जीव शुद्ध आत्मीक श्रद्धामें लवलीन है, सम्यग्दृष्टी है, वह ( अट्ठावन लक्ष त्यक्तयं) ८४ लाखमेंसे ५८ लाख योनियों में जन्म लेता है। (नीच) नित्य निगोद (इतर) इतर निगोद, (अपतेनं च वायु प्रथ्वि वनस्पति ) जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, पृथ्वीकायिक तथा वनस्पती कायिककी तथा (विकलत्रय च योनी च) देन्द्रिय, तेंद्रिय, चौन्द्रियकी योनि । (अट्ठावन लक्ष त्यक्तयं) इस तरह अट्ठावन लाख योनियोंसे बचा रहता है।
विशेषार्थ-जो सम्यग्दृष्टी शुद्ध आत्माका अनुभवी बुद्धिवान प्राणी है वह अति भक्तिपूर्वक बडी श्रद्धासे उत्सम, मध्यम, जघन्य इन तीन प्रकारके पात्रोंको दान देता है। निरन्तर भावना भाता है कि मैं दान हूँ। जब अवसर पाता है दान देनेसे चूकता नहीं है। श्रद्धावान जैनियोंको जो गृहस्थ हैं व अविरति हैं उनको भी मोक्षनार्गी समझकर आदरसे बुलाकर दान करता है। दान करना श्रावकका मुख्य कर्तव्य है। दानसे दातार व पात्र दोनोंके भाव प्रफुल्लिन होजाते हैं। दान
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वारणवरण
॥१६८॥
धर्म भावको बढानेवाला है । वास्तवमें पात्रोंको दान देना है वह रत्नत्रय धर्मकी प्रतिष्ठा करना है । जो गृहस्थ सम्यक्ती है व दानी है वह कभी ८४ लाखमेंसे ५८ लाख योनियों में पैदा नहीं होता है । ५८ लाखका वर्णन इस भांति है
....७ लाख
....७
"
नित्य निगोद साधारण वनास्पतिकाधिक इतर निगोद साधारण वनास्पतिकायिक पृथ्वी कायिक ७ लाख जल कायिक वायु कायिक प्रत्येक वनस्पतिकायिक १० " तेन्द्रिय प्राणी २ चौन्द्रिय प्राणी
७ लाख
७
"
99
अग्नि कायिक ७ "" बेन्द्रिय प्राणी २ " कुल ५८ लाख इससे सिद्ध हुआ कि सम्पत्ती कभी एकेन्द्रियसे चौन्द्रिय तककी किसी पर्याय में जन्म नहीं लेता है । पराधीन व अज्ञानमई पर्यायोंसे तो छूट जाता है। सम्यक्त अवस्था में यदि आयु बाधे तो मनुष्य या यदि पशु हो तो देव आयु बांधेगा व देव या नारकी होगा तो मानव आयु बांधेगा, परंतु जो सम्यक्त होनेके पहले नरक, तिर्येच, मानव आयु बांध ली हो तो मानव या तिर्थचको भी नारक, तिर्यच या मानव पंचेंद्रिय जन्मना होता है । इसलिये ८४ लाखमेंसे पंचेंद्रिय की योनियां जो २६ लाख हैं उनको यहां नहीं गिनाया है । वे २६ लाख हैं
पंचेंद्रिय तिर्यच ४ लाख
देव
४ लाख
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नारकी ४ लाख मानव १४ लाख
श्लोक – शुद्धसम्यक्क संयुक्ताः, शुद्ध तत्व प्रकाशकाः ।
कुल २६ लाख
कुल ५८+२६=८४ लाख योनियां होती हैं । वास्तवमें सम्यक्तकी बड़ी अपूर्व महिमा है ।
ते नरा दुःखहीना स्युः, पात्रदानरता सदा ॥ २६९ ॥
अन्वयार्थ – (शुद्ध सम्यक्त संयुक्ताः) जो शुद्ध सम्यक्कके धारी हैं (शुद्ध तत्व प्रकाशकाः) व शुद्ध आत्मीक तत्वके प्रकाशक हैं । व (सदा पात्रदानरताः ) सदा पात्रको दान देनेमें रत हैं (ते नरा दुःखहीना स्युः ) वे मानव दुःखों से छूट जाते हैं ।
च
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वारणतरण
॥२९॥
"रत्नकरडा नारकतिर्मन सावभवसनाथाः । महाका, पशु, नपुंसक
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनके धारी जो व्रत रहित भी हैं, परन्तु शुखात्मीक तत्वके अनुभव करने
श्रावकाचार वाले हैं तथा नित्य ही पात्रोंको दान देते रहते हैं वे पुण्यको बांधकर उत्तम गतिमें जाते हैं-वे कभी दुःखोंसे भरी गतियों में नहीं जाते हैं। मिथ्यादृष्टी यदि पात्र दान करे तो भोगभूमिमें जाता है तब यदि सम्यग्दृष्टी दान करे तो वह तो स्वर्ग हीको प्राप्त होगा। वहांपर भी नीच जातिका देव
नहीं होगा। सम्यक्त धारी जीवोंके सदा ही परिणामों में विशुद्धता रहती है। अंतरंगमें किसीसे * अति द्वेषपूर्ण भाव नहीं करता है । यदि कदाचित् वैरभाव होता भी है तो वह उस वैरीके कृत्य , मात्रसे होता है। सम्यक्ती उसकी आत्माका तो हित ही चाहता है।
रत्नकरंडश्रावकाचारमें कहा हैसम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतियङ्नपुंसकत्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च ब्रमन्ति नाप्यव्रतिकाः ॥५॥ ओजस्तेजो विद्यावीर्ययशोवृद्धिविनयविभवसनाथाः । महाकुलाः महा मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः॥ १६ ॥ ___ भावार्थ-जिनके सम्यग्दर्शन शुद्ध है वे नारकी, पशु, नपुंसक, स्त्री, नीच कुल, विकलांगी, अल्पाय, दलिद्री नहीं होते हैं। बत रहित हैं तौभी खोटी अवस्था नहीं पाते हैं। वे दीप्तवान, तेजस्वी, विद्वान, वीर्यवान, यशस्वी, विजयी, सम्पत्तिके धारी, उन्नतिशील, महा कुलवान, महान कार्य करनेवाले पुरुषश्रेष्ठ होते हैं। सम्यग्दर्शनकी शुद्धता परमोपकारिणी है।
श्लोक-पात्रदानं च चत्वारि, ज्ञानं आहार भेषजं ।
अभयं च भयं नास्ति, दानं पात्र सदा बुधैः ॥२७॥ अन्वयार्थ—(पात्रदानं च चत्वारि) पात्र दान चार प्रकारका होता है (ज्ञानं माहार भेषजं अभयं च) ज्ञान दान, आहार दान, औषधि दान, तथा अभय दान (सदा वुधैः पात्रदानं ) बुद्धिमान सदा पात्रोंको ४ ४ दान दिया करते हैं इमसे उनको (भयं नास्ति) भय नहीं होता है, वे निर्भय रहते हैं।
विशेषार्थ-पात्रोंके दो भेद कहे गए हैं जो दान देने योग्य हैं-एक सुपात्र व कुपात्र | यदि कुपात्रोंको भी दान होजावे तो कुभोगभूमिका फल होता है तब पात्रदानकी तो माहमा ही क्या कही जासक्ती है। ज्ञानी गृहस्थ निरन्तर धर्मके तीन प्रकार पात्रोको दान दिया करते हैं। जैन सिद्धातमें चार ही दान मुख्य हैं। ये ही सच्चे दान हैं। ज्ञान दान अर्थात् ज्ञान सिखाना, शास्त्रोंको देना, शास्त्र
भानासानाशाखाकाना, शाल॥१९॥
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२७॥
प्रकाश करना, विद्यालय स्थापन करना, छात्रोंको सहाय करना, विद्वतापूर्ण भाषण देना, मिथ्यास्वभाव इटाकर सम्यक्तकी प्राप्ति कराना, उत्तम पात्रोंको शास्त्र भेट करना, मध्यम पात्रोंको भी शास्त्र देना । यदि विद्याकी कमी हो तो विद्या साधन जोड देना । जघन्य पात्रोंको भी शास्त्र देना। व उनकी ज्ञान वृद्धिका उपाय कर देना।
-आहारदान-तीनों पात्रोंको गथायोग्य भक्ति करके भोजन कराना। यह धर्मकी वृद्धि व शरीरकी स्थिरताका कारण है।
३-औषधिदान-पात्रोंको रोगग्रस्त जानकर रोग मेटनेके लिये औषधिका दान करना, औषधालय खुलवाना, शुद्ध प्रामुक दवा बंटवाना, रोगियोंकी टहल चाकरी करना ।
४-अभयदान-पात्रोंको आश्रय देना, निर्भय करना, योग्य स्थान बताना, उनके ऊपर संकट पहें तो निवारण करना । रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें भी चार दान यही कहे हैं
आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन । वैय्यावृत्त्यं ब्रुवते चतुरात्मतत्वेन चतुरस्राः ॥ ११ ॥ भावार्थ-अरहंत भगवानने चार तरहसे पात्रोंकी सेवा करनेको कहा है। आहार देकर, औषधि देकर, उपकरण अर्थात् शाखा देकर प आवास अर्थात् निर्भय आश्रय स्थान देकर । श्री अमितगति श्रावकाचारमें नवम परिच्छेदमें कहा है
अभयान्नौषधिज्ञानभेदश्चतुर्विधम् । दानं निगद्यते सद्भिः प्राणिनामुपकारकम् ॥ ८॥ भावार्थ-ज्ञानियोंने प्राणियों के उपकार करनेवाले चार ही दान कहे हैं-अभयदान, अन्नदान, औषधिदान तथा ज्ञानदान ।
न सुवर्णादिकं देयं न दाता तस्य दायकः । न च पात्रं गृहीताऽस्य निनानामिति शासनं ॥ ७९ ॥
भावार्थ-प्लुवर्ण आदिक नहीं देना चाहिये । न दाता सचा दातार है न लेनेवाला सचा पात्र है ऐसी श्री जिनेन्द्रोंकी आज्ञा है। कन्यादान भी दान नहीं है। वहीं कहा है
या धर्मवनकुठारी पातकवसतिस्तपोदया चौरी । वैरायासासूया, विषादशोक श्रमक्षोणी ॥ १७॥ यस्यां सक्ता जीवा दुःखतमान्नोत्तरंति भवनलः । कः कन्यायां तस्यां दवायां विद्यते धर्मः ॥१८॥
भावार्थ-जो कन्या धर्मवन काटनेको कुल्हारी समान, पापकी वसती, तप व दयाकी चो वैर, उद्यम, इर्षा, विषाद, शोक, खेदकी भूमिका जननी है जिस कन्यामें आसक्त जीव दुःखमई
॥२७०
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धारणवरण
संसारसागरसे पार नहीं होसक्ते हैं, उन कन्याके देने में कौनसा धर्म होता है ! अर्थात् कन्यादान
४. धर्म नहीं है। ॥२७॥
दयापूर्वक प्राणीमात्रको चार प्रकारका दान करना यह करुणादान है । सम्यक्ती गृहस्थ सदा कृपालु होता है, जगत मात्रको उपकारी होता है, दुखित, भुखित, रोगी, अविद्याग्रसित व आश्रय * रहितको निरंतर चार दानोंसे संतोषित करता है, पशु पक्षी आदिकी भी दानसे सेवा करता है।
श्लोक-ज्ञानदानं च ज्ञानं च, आहारं दान आहारयं ।
अबाध्यं भेषजश्चैव, अभयं अभयदानयं ॥ २७१ ॥ मन्वयार्थ (ज्ञानदानं च ज्ञानं च ) ज्ञान दान करनेसे ज्ञानकी वृद्धि होती है (भाहारं दान आहारयं) आहारदानसे आहारकी कमी नहीं रहती है (भेषनश्चैव अबाध्यं) तथा औषधि दानसे शरीरमें व्याधि नहीं होती है (अभयदानयं मभयं) अभयदानसे भय नहीं प्राप्त होता है।
विशेषार्थ-यहां चारों दानोंके फल बताए हुए हैं। जो ज्ञान दान देते हैं, पात्रोंके ज्ञानकी वृद्धि चाहते हैं उनको स्वयं ज्ञानावराय कर्मका विशेष क्षयोपशम होता है। वे यहां भी तथा परलोकमें भी ज्ञानी होते हैं। व थोडे ही प्रयास में ज्ञानवान विद्वान होजाते हैं। जो आहारदान देते हैं वे अटूट पुण्य बांधते हैं, यहां भी अन्नसे दुखी नहीं रहते हैं व परलोकमें ऋद्धिधारी देव व धनशाली मानव होते हैं, औषधिदान करनेसे ऐसे पुण्य बांधते हैं जिससे भविष्यमें निरोग सुन्दर शरीर होता है। व अभयदान करनेसे सदा निर्भयताका साधन मिलता है, आश्रयहीन कभी नहीं होते हैं, वे सुन्दर आवास व रक्षकोंके मध्य में रहते हैं। ये चार दान अटूट पुण्यको बांध देते हैं। अमितगति श्रावकाचारमें एकादश परिच्छेदमें कहा है
यत्किचित्सुन्दरं वस्तु दृश्यते भुवनत्रये । तदन्नदायिना क्षिप्रं लभ्यते लीलयाऽखिलम् ॥ ३० ॥ वातपित्तकफोत्याने रोगैरेष न पाड्यते । दावैरिव जलस्थायी भेषनं येन दायते ॥४॥ शास्त्रदायी सतां पूज्यः सेवनीयो मनीषिणाम् । वादी वाग्मी कविर्मान्यः ख्यातशिक्षः मनायते ॥१०॥
विचित्ररत्ननिर्माणः प्रोत्तुंगो बहुभूमिकः । लभ्यते वासदानेन वासश्चंद्रकरोज्ज्वलः ॥५१॥ भावार्थ-जो तीन लोकमें सुन्दर वस्तु है सो सष आहारदानीको शीघ्र प्राप्ति होती है। जो
॥२७१॥
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कारणवरण
॥२७२॥
औषधि दान करता है वह वात, पित्त, कफसे होनेवाले रोगोंसे पीडित नहीं होता है, जैसे जलमें रहनेवाला अग्निसे पीडित नहीं होता। जो शास्त्र देता है वह सज्जनोंमें पूज्य, पंडितोंसे सेवनीय, वादीको जीतनेवाला, वक्ता, कवि, मान्य और प्रसिद्ध शिक्षक होता है। जो वस्तिका देता है वह विचित्र रत्नोंसे बना हुआ ऊंचा बहुत खणवाला चन्द्रमाके समान उज्वल महल पाते हैं।
श्लोक-पात्रदानं च शुद्धं च, कर्म क्षिपति सदा बुधैः।
जे नरा दान चिंतते, अविरत सम्यग्दृष्टितं ॥ २७२॥ अन्वयार्थ (सदा बुधैः शुद्धं च पात्र दानं ) सदा बुद्धिमानोंके द्वारा दिया हुआ शुद्ध पात्र दान (कम क्षिपति) काँको क्षय करता है (धे नरा दान चिंतते) जो मानव दानकी भावना भाते हैं वे ही (अविरत सम्यग्दृष्टितं) अविरत सम्यग्दृष्टी सामान्य गृहस्थ श्रावक हैं।
विशेषार्थ-जो ज्ञानी वीतरागभावसे मात्र दान करते हैं, पात्रोंके आत्मीक गुणों में प्रीति रखते हैं। उनके शुद्धात्मीक भावनारूप निश्चय रत्नत्रयकी भावना दृढ रहे ऐसी भावना मनमें रखकर दान करते हैं व दान देते हुए व देखते हुए पात्रके अंतरंग गुणों के प्रेमालु होते हुए संसार शरीर भोगोंसे वैराग्यकी भावना भाते हैं, उनके परिणामोंकी बहुत निर्मलता होजाती है। उन भावासे वे अपने बहुतसे पापकर्म क्षय कर डालते हैं व जितना अंश उन भावोंमें मंद कपायरूप शुभ राग होता है उनसे वे अतिशयकारी पुण्यकर्म बांध लेते हैं। दान यद्यपि शुभ कार्य है परन्तु सम्यग्दृष्टी ज्ञानी गृहस्थके लिये मोक्षमार्ग रूप होजाता है वह ज्ञानी दानके द्वारा भी शुद्धात्माकी भावना कर
लेता है। पात्रोंको दान देना रत्नत्रयके पालनमें उत्साह बढानेवाला है। इसीलिये सम्यग्दृष्टी निरंतर ४ पात्र दान करनेकी चिन्ता करता रहता है और जब अवसर पाता है, दान करके अपने जन्मको सफल मानता है।
श्लोक-पात्रदानं वट बीजं, धरणी वर्द्धति जेतवा ।
ज्ञानं वर्द्धति दानं च, दान चिंता सदा बुधैः ॥ २७३ ॥ अन्वयार्थ–(पात्रदानं ) पात्रों को दिया हुआ दान (धरणी वट वी बेतवा वर्द्धति) पृथ्वीमें बोए हुए
॥२७॥
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वारणतरण
॥२७॥
वर्गतके बीजके समान बहुत भारी फलता है (दानं च ज्ञानं बद्धति) ज्ञान दान ज्ञानको बढ़ाता है (बुधः
श्रावकाचार सदा दान चिंता) बुद्धिमानोंको सदा दान करनेको उत्साह रखना चाहिये।
विशेषार्थ-जैसे बर्गतका बीज बहुत छोटा होता है, परन्तु पृथ्वीमें बोए जानेपर बडा भारी वृक्ष होकर फलता है, तैसे पात्रोंको दिया हुआ दान बहुत भारी फल देता है। जो ज्ञान दान करते हैं उनका ज्ञान बढते२ केवलज्ञानरूप होसक्ता है। जो आहारदान करते हैं वे भविष्य में विपुल धनशाली होते हैं, जो औषधि दान करते हैं वे बडे बलिर, वीर्यवान, साहसी मानव होते हैं। जो अभयदान करते हैं वे कभी किसी शत्रु द्वारा भयको प्राप्त नहीं होते हैं। केवलज्ञानके समान और कोई फल नहीं है। जो दान अरईत पदमें सहकारी है उस दान देनेकी भावना बुद्धिमान सदा करते रहते हैं। गृहस्थोंके घरकी शोभा ही पात्र दानसे है। जो लक्ष्मी कमाई जाती है वह लोभ और मान कषायको बढा देती है। यदि उसे दानमें न लगाई जावे तो वह कुगतिमें पटकने का कारण होजाती है। और यदि निरंतर दान व परोपकारमें व्यय की जावे तो लक्ष्मी के कारण न तो लोभ बढने पाता और न मान भाव ही बढता है। लक्ष्मी अपनी नहीं है, पर वस्तु है, चंचल है । जबतक इसका स्वामीपना मेरे पास है मुझे यही योग्य है कि इसे दान में लगाकर सफल करलें, ऐसा विचार ४ दानी उदारचित्त मंदकषाई व संतोषी रहता है इसीसे वह धन द्वारा धर्म कमाता है। कृपण दान न ४ करता हुवा कठोर भावोंसे पाप कमाता है।
श्लोक-पात्रदानं मोक्षमार्गस्य, कुपात्रं दुर्गतिकारणं ।
विचारनं भव्यजीवानां, पात्रदानरता सदा ॥ २७४ ॥ अन्वयार्थ-(पात्रदानं मोक्षमार्गस्य) पात्र दान मोक्षमार्गकी सिद्धिका उपाय है ( कुपात्रं दुर्गातकारणं) परन्तु अपात्र दान दुर्गतिका कारण है। (भव्यत्रीवानां विचारनं ) भव्य जीवोंका कर्तव्य है कि वे भले. प्रकार विचार करके (पात्रदानरता सदा) पात्र दानमें सदा रत हों।
विशेषार्थ-यहां कुपात्रका अर्थ कुत्सित पात्र अर्थात् अपात्र है। अपात्रका भाव यही है कि जिसमें न व्यवहार सम्यक है न व्यवहार चारित्र है। जो जिन मार्गसे विरुद्ध आचरण करते हैं, मिथ्यात्वमें लीन हैं, मिथ्या मार्गके पोषक है, उनको अपात्र कहते हैं। पात्र दान अर्थात् सुगात्र दान
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बारणवरण
प्रावधान
॥२७॥
जन्य पात्र अविरत महान पुण्ययंध करनेवाल जैसा एक में
जय मोक्षमार्गको दृढ करनेवाला है तब अपात्र दान दुर्गतिका कारण है। अपात्रोंको भक्ति पूर्वक दिया हुआ दान मिथ्या श्रद्धान व मिथ्या चारित्रका पोषक है, मिध्वात्वरूपी पापका प्रचारक है ४ इसलिये पाप धकारक है। पापकी अनुमोदना अवश्य पाप लानेवाली है क्योंकि दाताकी विनय मिथ्यामार्गसे होगई । इसलिये भव्य जीव सम्यग्दृष्टी भलेपकार विचार करके अपात्रोंको दान नहीं देकर सुपात्रोंको दान देते हैं और मोक्षमार्गका प्रचार कराते हैं। उत्तम पात्र मुनि, मध्यम पात्र श्रावक, जघन्य पात्र अविरत सम्यग्दृष्टी तीनोंको भक्ति पूर्वक दिया हुआ दान मोक्षमार्गकी भक्ति करना है अतय कर्तव्य है व महान पुण्यबंध करनेवाला है। जिनके निश्चय सम्यग्दर्शन नहीं है परंतु व्यवहार सम्यक्त व व्यवहार चारित्र वैसा ही है जैसा एक मोक्षमार्गीको होना चाहिये वे कुपात्र हैं, उनको भी धर्मात्मा पुरुष दान देते हैं क्योंकि दान देना भी व्यवहार है तथा व्यवहार में व्यवहार ही देखा जाता है व व्यवहारकी ही प्रतिष्ठा की जाती है। निश्चय वचन अगोचर है तथा निश्चय सम्यक अंतर्मुहूर्तमें होसक्ता है व छूट सकता है। अतएव दातार तो जिसका व्यवहार चारित्र शास्त्रोक्त पाएगा उसको पात्र जानकर दान देगा। यदि उस पात्रके अंतरंगमें निश्चय सम्यक्त होगा तो दातारके भाव अधिक निर्मल होंगे। यदि वह सम्यक्त रहित होगा तो भाव कम निर्मल होंगे क्योंकि जैसा निमित्त होता है वैसा परिणाम होजाता है। परिणामों के अनुसार अधिक व कम पुण्यका धंध होगा। अपात्रोंको भक्तिपूर्वक दानका निषेध है। परंतु यदि कोई अपात्र करुणाका पात्र दीखे, भूखा प्यासा हो, रोगी हो, आश्रय रहित हो व विद्या व ज्ञानकी जरूरत रखता हो
तो धर्मात्मा श्रावक उसको दया बुद्धिसे विना भक्ति किये उसका क्लेश मेट सक्ता है। करुणा दानमें ४ पात्र अपात्रका विचार नहीं है, मात्र परोपकार भाव है।
श्लोक-कुगुरु कुदेव उक्तं च, कुधर्म प्रोक्तं सदा।
कुलिंगी जिनद्रोही च, मिथ्या दुर्गतिभाजनं ॥ २७५॥ तस्य दानं च विनयं च, कुज्ञान मृढ दृष्टितं । तस्य दानं चिंतनं येन, संसारे दुःखदारुणं ॥ २७६ ॥
॥३७४॥
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अन्वयार्थ-(कुगुरु ) अपात्र जो कुगुरु हैं वे (कुदेव उक्तं च ) कुदेवोंकी भक्तिका उपदेश देते हैं पारणवरण:
(कुधर्म सदा प्रोक्तं ) सदा ही कुधर्मका व्याख्यान करते हैं (कुलिंगी निनद्रोही च) वे मिथ्यात्वके धारी हैं ॥२७॥ व जिनेन्द्र के अनेकांत मतसे देष करनेवाले हैं (मिथ्या दुर्गति भाजन) मिथ्यात्वके कारण दुर्गतिके
* पात्र हैं। (तस्य दानं च विनयं च) ऐसे कुगुरुको दान देना व उसकी विनय करना (कुज्ञान मुढ दृष्टितं): मिथ्या ज्ञान व मूढ श्रद्धा है (येन तस्य दान चिंतनं ) क्योंकि उनके दान देनेकी चिंता (संसारे दुःखदारुणं) संसारमें भयानक दुःखोंका कारण है।
विशेषार्थ-यहां यह बताया है कि जो कुगुरु हैं वे ही अपात्र हैं जिनकी कथा पहले भी बहुत कर चुके हैं। ये कुगुरु स्वयं भी रागी देषी देवोंकी आराधना करते हैं व रागद्वेष पूर्ण धर्मकी सेवा। करते हैं व दुसरोंको भी मिथ्या देव व मिथ्या धर्मकी सेवाका उपदेश करते हैं उनका भेष यथार्थ जिनेन्द्र के मार्गके भेषसे विपरीत है तथा वे जिनधर्मका स्वरूप ठीक न समझकर अपने अज्ञानसे जिनमतसे द्वेष रखते हैं। एकांतकी पक्ष लेकर मिथ्यात्वके योगसे स्वयं दुर्गति जाते हैं तब जो उनकी भक्ति करेंगे, विनयपूर्वक दान देंगे उन्होंने वास्तव में मिथ्यात्वकी भक्ति की, मिथ्यादर्शन व मिथ्या ज्ञानको ही पुष्ट किया। इसलिये उनको दान देनेकी चिंतासे जो भावोंकी परिणति होती है वह अशुभ ही है तथा पापको बांधनेवाली है, नर्क निगोदके भीतर पटकनेवाली है। भक्ति वास्तव में उसीकी ही करनी योग्य है जिसमें भक्तियोग्य गुण हों। भक्तियोग तो रत्नत्रय धर्म है। जहां ये पाए जावेंगे वे पात्र ही भक्ति करने योग्य हैं। जब रत्नत्रयसे विरुद्ध धर्म अमा. ननीय है तब उस विरुद्ध धर्मके धारी माननीय कैसे होसक्ते हैं। इसलिये श्रावकको विवेकपूर्वक दान करना चाहिये । जो जिन-शास्त्रोक्त साधुका व श्रावकका आचरण पालनेवाले हैं व जिन शास्त्रोक्त श्रद्धा रखनेवाले हैं उनको ही पात्र मानकर उनको यथायोग्य भक्ति सहित दान करना योग्य है। उनकी भक्ति वास्तवमें रत्नत्रयकी ही भक्ति है अतएव हितकारी है। अपात्रोंकी भक्ति अधर्मकी भक्ति है अतएव पाप बंधकारी व मिथ्या मार्गकी अनुमोदना करानेवाली है। भक्तिपूर्वक यथार्थ चारित्रवानको ही दान देना योग्य है यह तात्पर्य है। विनय योग्य वे ही पात्र हैं।
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भारणवरण
२७६॥
श्लोक-पात्र अपात्र विशेषत्वं, पन्नग गवं च उच्यते ।
श्रावकाचार तृणभुक्तं च दुग्धं च, दुग्धं भुक्तं विषं पुनः ॥ २७७॥ अन्वयार्थ-(पात्र अपात्र विशेषत्वं ) पात्र अपात्रका विशेषपना (गवं च पन्नग उच्यते) गाय और ॐ सर्पिणीके समान कहा गया है (तृणभुक्तं च दुग्धं च ) गाय तृण खाती है परन्तु दृध देती है (दुग्धं मुकं विषं पुनः ) परन्तु सर्पिणी दूध पीती है व विष उगलती है।।
विशेषार्थ-यहां ग्रंथकर्ताने स्वयं बता दिया है कि कुपात्रसे प्रयोजन अपात्रसे है क्योंकि श्लोकमें अपात्र शब्द है। पात्र तो हितकारी है जब कि अपात्र हानिकारी है। इसका दृष्टांत दिया है। जैसे गाय तृण चारा खाती है परन्तु दूध प्रदान करती है वैसे धर्मके पात्र अल्प शुद्ध आहार
संतोष पूर्वक करते हैं परन्तु स्वयं रत्नत्रय धर्मका साधन करते हैं और दूसरे अनेक प्राणियोंको सत् ५ धर्ममें लगाते हैं । उनको अल्प भी दान स्वपर मंगलकारी है। उन पात्रोंका भी हित होता है और ४ नो दान करते हैं उनकी रुचि मोक्षमार्गमें बढती है तथा महान पुण्यका बंध होता है, यदि
सर्पिणीको दूध पिलाया जावे तो वह विषरूप होजाता है जो विष हानिकारक है उसी तरह अपात्रोंको पोषना, उनकी भक्ति करना, विनय करना, मिथ्यात्वका मार्ग प्रचार करानेवाला है। जिस कुधर्मसे प्राणियोंके जीवनका विगाह हो, मानव जन्म कुगतिका देनेवाला होजावे। ऐसे कुधर्मका प्रचार उचित नहीं है। वे अपात्र यदि इस कुधर्मको छोड दें तो वे पात्र होजानेपर भक्ति व दानके योग्य हैं । अभिपाय यहां यही है कि दान भक्तिप्ते पात्रोंको ही देना योग्य है अपात्रों को ४ कदापि नहीं देना योग्य है । तथापि यदि कोई जैनधर्मके श्रद्धान व चारित्रसे बाहर है व भूखा है रोगी है तथा उनके भक्त और उनके रक्षक नहीं है तो दयावान श्रावकोंका यह कर्तव्य नहीं है कि उनपर करुणाभाव न लावें । दयाभावसे जब श्रावकोंका धर्म प्राणी मात्रके साथ उपकार करना है तो अपात्र होनेपर भी वे करुणाके पात्र हैं। उनका कष्ट निवारण करना ही योग्य है, साथ ही उनको सम्यक् धर्मका उपदेश भी देना योग्य है, यदि वे सुधर जावे तो उत्तम है, ऐसा प्रेम भाव श्रावकको रखना योग्य है, वेषभाव तो किसीसे करना न चाहिये । मात्र भक्ति करनेका निषेध है क्योंकि वह भक्ति मिथ्या धर्मकी पोषक है।
IR७३
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बारणवरण श्लोक-पात्रदानं च भावेन, मिथ्यादृष्टी च शुद्धए ।
श्रावावर भावनाशुद्ध सम्पूर्ण, दानं फलं स्वर्गगामिनं ॥ २७८ ॥ ॥२७॥
अन्वयार्थ-(पात्रदान भावेन ) पात्रदान करने से व उसकी भावना करनेसे (मिथ्यादृष्टी च शुद्धए) मिथ्यादृष्टीकी शुद्धि होसक्ती है। (शुद्धभावनं संपूर्ण ) जो शुद्ध आत्माकी भावनासे परिपूर्ण सम्यग्दृष्टी है उसको ( दानं फलं स्वर्गगामिनं) पात्रदानका फल स्वर्गगमन है।
विशेषार्थ-पात्रदानका यह महात्म्य है कि यदि कोई शुद्ध आत्माकी भावना करनेवाला सम्यग्दृष्टी जीव पात्रोंको दान करे तो स्वर्गमें जाकर देव होने योग्य पुण्य बांधेगा। यहां भाव यह है कि सम्यक्ती गृहस्थ स्वभावसे पात्र भक्त होजाता है व वह पात्रोंको दान देता है। सम्यक्ती तो स्वर्गमें देव अवश्य ही होता है। यदि सम्यक्तके पहले और आयु बांधी होगी तो अन्यत्र पैदा होगा। जो कोई मिथ्यादृष्टी जीव है अर्थात् निश्चय सम्यक्ती तो नहीं है किंतु व्यवहारमें देव, शास्त्र, गुरुका अडावान है और पात्रोंको दान देता है तो उसका वह पात्रदान व रत्नत्रयधारियोंकी भक्ति निश्चय सम्यक्तके लिये कारणरूप है। ऐसे ही निमित्तोंके मिलानेसे वह सम्यक्तके बाधक कौंका उपशम करके निश्चय सम्यक्ती होजाता है। तथा पात्रदानके फलसे मिथ्यादृष्टी भोगभूमिमें जानेलायक पुण्य बांध लेता है।
यहां प्रयोजन यह है कि पात्रदान हरएक श्रद्धावानको करते रहना चाहिये। अपना गृहस्थका ४ घर दान विना पवित्र नहीं होसक्ता है । दान करनेसे परिणाम उदार रहते हैं। लक्ष्मीके संचयका मोह कम होजाता है।
श्लोक-पात्रदानरतो जीवः, संसारदुःखं निपातए ।
कुपात्रदानरतो जीवः, नरयं पतितं ते नरा ॥ २७९ ॥ मन्वयार्थ—(पात्रदानरतो जीवः) जो जीव पात्रोंको दान देने में लवलीन हैं वह ( संसारदुःखं निपातए) संसारके दु:खोंको दूर कर देता है (कुपात्रदानरतो जीवः) परन्तु जो अपात्रोंके दानमें रत हैं (ते नरा * नरयं पतितं) वे मानव नरकमें जाते हैं।
V२००
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धारणतरण
॥२७८॥
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विशेषार्थ — पात्रदान धर्मका पोषक है तब अपात्र दान अधर्मका पोषक है । पात्रदानसे रत्न - अपका लाभ होता है क्योंकि दातार रत्नत्रय स्वरूप मुनि, आवक, व श्रावानोंकी भक्ति करता है east संगति ही परिणामों में वैराग्यभाव ला देती है, उनका उपदेश भी भावोंको शांत कर देता है । धर्म में गाढ रुचि पैदा कर देता है। जो कुछ मिथ्यात्वकी व मायाकी व निदानकी शल्य अंतरंगमें हो उसको निकाल डालता है । छिपा हुआ सम्यग्दर्शन रूपी रत्न प्रकाशमान होजाता है । वीतरागके अंशोंके बढनेसे मिथ्यादृष्टी जीव पात्रोंके संपर्क से सम्यग्दृष्टी होजाता है । व धर्मके पात्र साधु व श्रावक बडे दयालु होते हैं। उनके निरंतर अपायविचय धर्मध्यान होता है कि हम किसी तरह संसारी प्राणियोंके मिथ्यात्व अंधकारके मिटाने में कारणीभूत हो। जैसे हमको आत्मीक सुखशांतिका लाभ है वैसा ही लाभ जगतके प्राणियोंको हो। ऐसे महात्माओंका सन्मान- उनको दान देना अपने परम कल्याणका उपाय है । धर्मके इच्छावानोंको निरन्तर पात्र दान करना चाहिये । दान किये विना आहार ही न करना चाहिये । नित्य पात्र दान करना मानों नित्य सुख शांतिके सागर पात्रोंकी संगतिसे आत्म-धर्मका लाभ करना । इसलिये जैसे मधुमक्खी, मधुके एकत्र करनेमें आसक्त रहती है उसी तरह विवेकी मानवको पात्रोंकी सेवा में तल्लीन रहना चाहिये । इसीसे धर्मका संग्रह होगा । पापों का नाश होगा तब संसारके दुःखोंसे रक्षा रहेगी । इसके विरुद्ध जो अपात्रोंको मान या लोभके वशीभूत हो दान करते रहते हैं वे कुधर्मकी शिक्षा लेते हुए संसारासक्त बन जाते हैं जगतकी मायाजाल में फँसे हुए वे नरकायु बांधकर नरक में चले जाते हैं । अतएव अपात्रोंकी भक्ति से बचकर पात्रोंकी भक्तिसे स्वहित करना चाहिये ।
श्लोक – पात्रदानं च प्रति पूर्ण, प्राप्तं च परमं पदं । शुद्धतत्वं च साधं च, ज्ञानमयं सार्थं ध्रुवं ॥
२८० ॥
अन्वयार्थ - ( पात्रदानं च प्रति पूर्ण ) पात्रदानका पूर्ण फल यह है कि ( परमं पदं प्राप्तं ) परमपद जो मोक्ष उसकी प्राप्ति होती है (शुद्धतत्वं च सार्धं च ) जो शुद्ध आत्मीक तत्व सहित है ( ज्ञानमयं सार्थ भुवं ) व ज्ञानमय यथार्थ निश्चल है ।
विशेषार्थ – पावदानका फल अंतमें मोक्षकी प्राप्ति है। जो पात्रोंको भक्तिपूर्वक दान देते हैं
श्रावकाचार
॥२७८॥
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जनके भीतर रत्नत्रय धारकोंसे आजा बढती जाती है जिसका असर उनकी बुद्धिमें यह पडता है.श्रावास भरणतरण
कि वे सम्यक्ती होजाते हैं। सम्यक्ती होना ही मोक्षमार्गको प्राप्त कर लेना है । एक दफे सम्यक होगया तो वह प्राणी अवश्य मोक्षको पहुंचेगा। जहां ज्ञानमई शुद्ध आत्मीक तत्व निश्चल अपने स्वरूपमें कल्लोल किया करता है। गृहस्थ श्रावकोंको और कोई इच्छा मन में न रखके मात्र शुद्ध आत्मीक तत्वके लाभके लिये ही पात्र दान करना चाहिये। पात्रोंकी सचे भावसे भक्ति करना चाहिये । मुनि उत्तम पात्र हैं, उनका समागम कठिन है, परन्तु श्रावक पदके धारी मध्यम पात्र पहलीसे ग्यारहमी प्रतिमा तक सुगमतासे मिल सक्के हैं उनको आहार, औषधि, आश्रय दान व ज्ञान दान करना चाहिये-उनको शास्त्र बांटना चाहिये, किसी विद्वान शास्त्रीका निमित्त मिलाकर उनके ज्ञानकी वृद्धि करनी चाहिये । जघन्य पात्र तो बहुतसे स्त्री, पुरुष, बालक, बालिकाएँ मिल सक्त हैं। जिनके यहां कुदेवोंकी भक्ति नहीं है, उनको चार प्रकार दानसे सन्तुष्ट करना चाहिये। ज्ञानकी वृद्धिके लिये धर्म शिक्षा देना चाहिये, पुस्तकोंको बांटना चाहिये, स्वयं धर्मोपदेश देना चाहिये, अनाथों की रक्षाके हेतु अनाथालय खोलना चाहिये, ब्रह्मचर्याश्रम खोलना चाहिये, जिससे बालक ब्रह्मचारी रूपमें रहकर विद्याका अभ्यास करें। श्राविकाश्रम व कन्याशाला आदि खोलना चाहिये यह सब पात्र दानका अंग है, धर्मकी वृद्धिका कारण है।
श्लोक-पात्रं प्रमोदनं कृत्वा, त्रिलोकं मुदा उच्यते ।
यत्र तत्र उत्पाद्यते, प्रमोदं तत्र जायते ॥ २८१॥ अन्वयार्थ-(पात्रं प्रमोदनं कृत्वा) जो पात्रोंको देखकर मन में प्रसन्नता लाते हैं उनके लिये (त्रिलोकं मुदा उच्यते) तीन लोकके प्राणी प्रसन्नता देनेवाले कहे गए हैं (यत्र तत्र उत्पाद्यते ) जहां तहां पात्रदानी पैदा होता है ( तत्र प्रमोदं जायते ) वहां वहां उसको प्रमोदभाव प्राप्त होता है।
विशेषार्थ— उत्तम, मध्यम, जघन्य तीनों ही प्रकारके पात्रोंका दर्शन करके जिनका चित्त प्रमोद भावसे भरकर प्रसन्न होजाता है उनके ऐसा अपूर्व पुण्यका बंध होता है। ऐसा सातवेदनीय,
सुभग नामकर्म, आदेय नामकम, यशाकीर्ति, उच्च गोत्र आदि पुण्य प्रकृतियों का बंध पडता है, ॐ जिससे वे तीन लोकमें जहां कहीं भी उत्पन्न होते हैं उनको हरजगह प्रसन्नता प्राप्त होती है। ४ ॥२७॥
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आकार
धारणतरण ॥२८॥
वे दु:खी, म्लानित व खदित नहीं होते हैं। पात्रदानके फलसे भोगभूमिमें यदि जावे तो वहां तीन पल्य, दो पल्य, एक पल्प तक कोई शारीरिक बाधा नहीं होती है न मानसिक तीव्र दुःख होता है किन्तु जन्म पर्यंत तक संतोष व सुख बना रहता है। यदि स्वर्गमें देव होजावे तो वहां भी वह उच्च देव होता है उसको देखकर अनेक देवी देव प्रसन्न होते हैं। उसके मनकी प्रसन्नताके कारण ही उपलब्ध होते हैं। भोगभूमिसे भी देव ही होता है। देवगतिमें भी पूर्व संस्कारसे वहां पात्रोंकी भक्ति करता है। मुनिगणोंको धर्मका आराधन करते देखकर व आवकोंको धर्म पालते देखकर वह भक्ति करता है, उपदेश सुनता है, कभी साधु संतोंपर पडनेवाले उपसर्गोंको दूर करता है। इससे पुण्यको बांधकर फिर उत्तम तेजस्वी मानव होता है जिसे देखकर सबको प्रमाद होवे। वास्तवमें पात्रोंकी भक्ति व प्रतिष्ठाका अपूर्व फल प्राप्त होता है।
श्लोक-पात्रं अभ्यागतं कृत्वा, त्रिलोकं अभ्यागतं भवे ।
__ यत्र तत्र उत्पाद्यते, तत्र अभ्यागतं भवेत् ॥ २८२ ॥ अन्वयार्थ-(पात्रं अभ्यागतं कृत्वा ) जो पात्रोंका स्वागत करता है-उनको दान देता है उसके लिये (त्रिलोकं अभ्यागतं भवे) तीन लोकमें स्वागत प्राप्त होता है ( यत्र तत्र उत्पाद्यते ) जहां जहां वह पैदा होता है (तत्र अभ्यागतं भवेत् ) वहां वहां उसका स्वागत व सन्मान होता है।
विशेषार्थ-पात्रों को देखकर प्रसन्न होना उससे अधिक क्रिया यह है कि पात्रोंका भक्तिपूर्वक स्वागत करके उनको दान देना । इस क्रियासे और भी अटूट पुण्यबंध होता है। तीन लोकके पाणी उसका स्वागत करते हैं, उसकी प्रतिष्ठा करते हैं। वह दानी दुर्गतिसे बचता है,मानव व देवगतिके ऐसे ऊंचे पद पाता है कि उसका अन्य देव तथा मानव बड़ी प्रतिष्ठासे स्वागत करते हैं। उनका कभी अपमान नहीं करते हैं, उनको देखते ही प्रभावित होजाते हैं। उनकी आत्मामें बंधा हुआ पुण्यकर्मबंध उनके तेज व महात्म्यको ऐसा बढा देता है कि सर्व कोई उसके वशीभूत होजाते हैं। ऐसे ज्ञानी प्राणी यदि कहीं निर्जन वन में भी चले जाते हैं तो उनको सब प्रकारका शारीरिक आराम देनेवाले वहां भी मिल जाते हैं। जिन्होंने पुण्यात्मा जीवोंके प्रवास पढ़े हैं वे जानते हैं कि ऐसे मानवोंको जंगलमें मंगल मिलते है। श्री रामचन्द्र, सीता, लक्ष्मण अपने वनके प्रवासमें जहां
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पर
R८२॥
भी जाते थे अपूर्व स्वागत पाते थे। धन्यकुमार सेठ पुत्र अकेला उज्जैनीसे राजग्रही में जाता है और वहां पुण्यके बलसे धनका लाभ, स्त्रीका लाभ व राज्यका लाभ तक कर लेता है। पूर्व जन्म में धन्यकुमारके जीवने पात्रदान भक्ति पूर्वक किया था, ऐसा जानकर गृहस्थ श्रावकोंको निरंतर पात्रदान करना चाहिये।
श्लोक-पात्रस्य चिंतनं कृत्वा, तस्य चिनं सुचिंतये ।
चेतयति प्राप्तं वीर्य, पात्र चिंता सदा बुधैः ।। २८३ ॥ अन्वयार्थ (पात्रस्य चिंतनं कृत्वा) जो श्रावक गृहस्थ निरंतर चित्तमें पात्रोंके लाभकी चिंता किया करता है (तस्य चित्तं चिंतये) उसका मन सदा शुभ भावों में लीन रहता है (चेतयति प्राप्तं वीर्य) वह अपने आत्म वीर्यका भले प्रकार उपभोग करता है अर्थात् चिंतित कार्य सिद्ध कर लेता है ( सदा बुधैः पात्र चिंता) इसलिये बुद्धिमानोंको सदा पात्रोंकी चिंता रखना चाहिये ।
विशेषार्थ-जो गृहस्थ निरंतर यह भावना भाता है कि मुझे पात्रोंका लाभ होजावे तो मैं दान है। इस पात्रदानकी भावनासे वह अपनी कषायोंकी शक्तिको ऐसी मंद कर देता है कि उसके चित्तमें सदा ही शुभ कार्योंके करने की भावना रहा करती है । और जिन शुभ कार्यों को वह करना चाहता है उनके करनेका आत्मबल वह अपने में जागृत कर लेता है । आत्मपलके प्रतापसे उसके सर्व ही शुभ कार्य सिद्ध होजाते हैं । यहां ग्रंथकर्ताने पात्रदानकी बड़ी महिमा यताई है सो बिल. कुल ठीक है। दानके भावोंसे, पात्रोंकी भक्तिसे अपूर्व पुण्यकर्मका बंध होजाता है। जैसे हिंसाकर्मी चिंतासे, असत्य भाषणकी चिंतासे, चोरीकी चिंतासे, कुशीलकी चिंतासे, परिग्रहकी चिंतासे निरंतर पापकर्मका बंध होता है वैसे पात्रदानकी चिंतासे जबतक चिंता रहेगी अपूर्व पुण्यकर्मका बंध होता है। दानी गृहस्थको प्रतिदिन पात्रकी चिंता करके प.ब्रोंका समागम मिलाकर दान करके
फिर भोजन करना चाहिये । यदि पात्रका लाभ न मिल तो दु:खित भुक्षितको जिमाकर आप ४जीमना चाहिये । वास्तवमें पात्रदान व करुणादान दोनों के भाव गृहस्थके सदा रहने चाहिये। *दानसे ही गृहीकी शोभा है।
VIR१.
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वार भवरण
१२८२॥
श्लोक – कुपात्रं अभ्यागतं त्वा, दुर्गति अभ्यागतं भवेत् । सुगतिः तत्र न दिष्टंते, दुर्गतिं च भवे भवे ॥ २८४ ॥
अन्वयार्थ – (कुप्पनं अभ्यागतं कृत्वा ) जो कोई अपात्रोंका स्वागत करते हैं वे (दुर्गति अभ्यागतं भवेत् ) अपने लिये कुपतिका स्वागत करते हैं ( तत्र सुगतिः न दृष्टते) उनको सुगतिका दर्शन नहीं होता है ( दुर्गतिं च भो भो ) उनको भव भव में दुर्गतिकी प्राप्ति होती है।
विशेष थं - जो मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान व मिथ्या चारित्र से वासित भेषी कुलिंगी हैं उनका जो स्वागत करना है, उनको भक्ति पूर्वक दान देना है सो संसार के कारण मिथ्या दर्शन आदिका ही पोषण करना है । जिसका फल कुगतिका ही बंध है । तथा मिध्यात्वके बंधको आते दृढता पाना है । उम मिध्यात्वके उदयसे प्राणीको अनंत भवमें दुर्गतिका सामना करना पडेगा । वारंवार एकेन्द्रिय पर्याय में जन्मना होगा । उनको फिर उन्नति करके पंचेंद्रिय सैनीका जीवन पाना अति कठिन होजायगा । गुण और औगुणका ही आदर या निरादर है । मिध्यात्यादि दुर्गुण अप्रतिष्ठा के योग्य है इसलिये उनके धारी व्यक्ति भी भक्ति करने के योग्य नहीं है । यदि द्यूत रमन बुरी वस्तु है तो छूतके रमनवालेका आदर भी उचित नहीं है उससे जूए खेलनेवालेको जूएके खेलने को उत्तेजना मिलती है व स्वयं भी जूरके फंदे में पड जाने की आशंका है। इसलिये प्रतिष्ठा के योग्य रत्नत्रय हैं व उनके धारी सुपात्र | अपात्रोंको दान देना केवल निरर्थक ही नहीं है उल्टा पापबंध कारक है। मिथ्यादृष्टी ही किसी मान व लोभ व आशा के वशीभूत हो ऐसे अपात्रोंका स्वागत करके तीम दर्शनमोहका बंध करते हैं। विवेकीको ऐसा करना उचित नहीं है ।
श्लोक - कुपात्रं प्रमोदनं कृत्वा, एकेन्द्रि थावरे उत्पाद्यं ।
तिरियं नरय प्रमोदं च, कुपात्रदान फलं सदा ॥ २८५ ॥
अन्वयार्थ — (कुपात्रं प्रनोदनं कृत्वा) जो अपात्रोंको देखकर आनन्द मनाते हैं । वे (एकेन्द्र थावरे उत्पाद्यं) एकेन्द्रिय स्थावरों में जन्मते हैं (तिरियं नश्य प्रमोदं च ) उनको नरक व निर्देचगति आनन्दले ग्रहण करती है (कुपात्रदान फलं सदा ) अपात्र दानका सदा हो ऐसा फल होता है।
आवणाच
IRRIT
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वारणतरण
दिये। श्री आमत
पुष्टिकारण, विनश्यात
विनश्यति ॥ १६ ॥
विशेषार्थ-अपात्रोंको देखकर आनन्द मनाना, उनकी अपात्रताका अनुमोदन करना है।
विशावर ४ मिथ्यात्व भावोंकी ही उनमें पात्रता है। मिथ्यात्त भावोंकी वासनासे व अनन्तानुवन्धी कषा
पकी तीव्रतासे एकेन्द्रिय जाति नाम कर्म, साधारण नाम कर्म, अपर्याप्ति नाम कर्म आदि प्रकृ. तियोंका बंध होनेसे यह जीव एक मानवसे मरकर सीधा साधारण वनस्पति रूप निगोद पर्यायमें चला जाता है, वहांसे फिर अनंतकाल में भी निकलना कठिन हो जाता है। अथवा नरकगति बांधकर नरक चला जाता है या अन्य पशु पक्षीकी पर्याय पालेता है। मिथ्यात्व समान कोई पाप नहीं है। मिथ्यात्व सहित व्यक्तिको धर्मात्मा मानके उसके अधर्मकी प्रतिष्ठा करनी उसे भी पतितY रखना है आप भी पतित होना है। विवेकी मानवको पात्र व अपात्रका विचार करके ही दान देना चाहिये। श्री अमितगति श्रावकाचारमें कहा है:
यथा रनोधारिणि पुष्टि कारण, विनश्यति क्षीरमलाबुनि स्थितम् ।
प्ररूद्रामध्यात्वमकाय देहिने, तथा प्रदतं द्रविग विनश्यति ॥ १६ ॥ भावार्थ-जैसे पुष्टिकारी दूध रजकी रखनेवाली तूंवमें रक्खा हुमा नाश हो जाता है मिथ्यात्व मलरूपी मलधारी प्राणीको दिया हुआ द्रव्य नाशको प्राप्त होजाता है। ___ श्लोक-पात्रदानं च शुद्धं च, दात्र शुद्धं सदा भवेत् ।
तत्र दानं च मुकं च, शुद्ध दृष्टि यथा मतं ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ—(पात्रदानं च शुद्ध च) पात्रदान शुद्ध दान है इससे (दात्र शुद्ध सदा मोत् ) दातार निर। तर शुर होता है। (तत्र दानं च मुकं च) पात्रोंको दान देना मुकिका उपाय है (यथा शुबाट म ) जैसे शुद्ध सम्यग्दर्शन मोक्षका उपाय माना गया है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन सहित सुपात्रोंको दान देना शुद्ध दान इसलिये है कि उस दानके कारण दातारके परिणाम शुद्ध हो जाते हैं। उसको मोक्षमार्गकी गाढ रुचि पैदा होजाती है। यदि कदाचित् दातार शिथिल श्रद्धानी हो तो दानके पीछे सुपात्रों के द्वार। ऐसा योग्य धनोपदेश मिलता है जिससे वह मोक्षमार्गके सन्मुख होजावे। इसलिये जहां पात्रों को दान देना है वहां मोक्षमार्गपर चलना है । जिसतरह सम्यग्दर्शन मोक्षका उपाय है वैसे पात्रदान मोक्षका उपाय है। जैसी
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परणवरण
श्रापसार
संगति होती है वैसा प्रभाव आत्माके परिणामों पर पड़ता है। यही कारण है जो मिथ्याष्टी भी सुपाको दान दे तो भोगभूमिका पुण्य बांध लेता है और यदि पात्र सम्यग्दर्शन रहित कुपात्र हो तो उनकी संगतिसे कुभोगभूमिका पुण्य बंध जाता है । सुगंधित वस्तु संपर्क ते वस्त्रों में सुगंध व दुगंधित वस्तुके संसर्गसे वस्त्रों में दुर्गध आने लगती है। बाहरी पदाथका बडा भारी असर प्राणीके भावाम पडता है। इसलिये विचारवान गृहस्थको उचित है कि सदा ही पात्रदान के लिये उत्साहित रहे, पात्रदान निरंतर करे । पात्रदान मोक्षके परम्पराय साधनों में एक प्रबल कारण है। रत्नत्रय. धारीकी भक्ति रत्नत्रयकी भक्ति ही है। ___ श्लोक-पात्रशिक्षा च दात्रस्य, दात्रदानं च पात्रये ।
दात्र पातं च शुद्धं च, दानं निर्मलित ध्रुवं ॥ २८७ ॥ अन्वयार्थ—(दात्रस्य) दातारको (पात्रशिक्षा च) पात्रद्वारा योग्य शिक्षा प्राप्त होती है (दात्र पात्रये दानं च) दातार द्वारा पात्रको दान होता है (दात्र पात्रं च शुद्धं च) जहां दातार तथा पात्र दोनों ही शुर हैं (दान निर्मलितं ध्रुवं ) वहां निरंतर दान निर्मल होता है।
विशेषार्थ-यहां बताया है कि सुपात्र दानका बडा भारी महात्म्य है। दातार और पात्र दोनोंका उपकार पात्रदानसे होता है। धर्मके पात्र धर्मके साधक हैं, उनको दान देनेसे उनके परि. णामोंकी थिरता होती है। उनके संबमका साधन होता है। उनकी रुचि धर्मके सम्मान होने से विशेष बढ जाती है। यह उपकार तो दाता द्वारा पात्रका होता है। पात्र द्वारा दाताका उपकार यह है
कि पात्र उत्सम धर्मापदेश देते हैं। उत्तम शिक्षाके मिलनेसे दातारके भीतर जो कुछ मलीनता होती र है वह दूर होजाती है। वह धर्मका विशेष अनुरागी होजाता है। बहुधा धर्मके पात्र मुनि पा श्रावक
दान ले चुकनेके पश्चात् किसी तरहके संयम धारनेका उपदेश देते हैं। दातार यथायोग्य नियम लेकर धर्मकार्यमें विशेष आचरण करने लग जाता है। वास्तवमें सुपात्र दातारके लिये बढेही उपकारी हैं। अपात्रोंको दान देनेसे जब मिथ्यात्वकी शिक्षा मिलती है तब सुपात्रोको दान देने से सम्यग्दर्शनकी शिक्षा मिलती है। जहां दातारका भाव शुद्ध है, सम्यग्दर्शनसे पूर्ण है व पात्र भी शुख भाव धारी सम्यग्दृष्टी है वहां अपूर्व निर्मल दान होता है। दोनोंके भाव अति पवित्र होजाते
॥२
॥
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खारणतरण
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है । यह दान सदा ही भावोंकी अति विशुद्धता करनेवाला है। पात्रदान धर्मका मुख्य साधक है । श्लोक - दात्रं शुद्धसम्यक्तं, पात्रं तत्र प्रमोदनं ।
दात्र पात्रं च शुद्धं च दानं निर्मलितं सदा ॥ २८८ ॥
अन्वयार्थ - ( दात्रं शुद्धसम्यक्तं ) दातार शुद्ध सम्यग्दर्शनका घारी होता है ( तत्र पात्र प्रमोदनं ) तब वह पात्रोंके लिये प्रमोद भाव रखता है (दात्र पात्रं च शुद्धं च ) जहां दातार और पात्र शुद्ध हों (दानं निर्मलितं सदा ) वहां निरंतर दानकी निर्मलता है ।
विशेषार्थ - जिस दाताके भीतर शुद्ध सम्पक्त है, जो निज शुद्धात्माका अनुभव करनेवाला है, जो धर्मका परम अनुरागी है, जो धर्मात्माओंको सेवामें नित्य भाव रखता है । ऐसा दातार नित्य मन में ऐसा चाहता है कि मुझे पात्रदानका अवसर मिले। जब कभी वह किसी उत्तम पात्र मुनिको, मध्यम पात्र श्रावकको व जघन्य पात्र अविरत सम्पदृष्टीको देखता है, उनका मन प्रफुल्लित होजाता है वह उनकी सेवाके लिये अति अनुरागी होजाता है और भक्तिपूर्वक उनको यथायोग्य दान देता है । इस सम्यग्दृष्टी दातारका भाव शुद्ध आत्मीक भावकी तरफ झुका हुआ है। वह यही चाहता है कि जो जो मोक्षमार्ग पर आरुढ है वे वंदनीय, आदरणीय व प्रतिटाके योग्य हैं। उसका रत्नत्रयका अनुराग अपूर्व रहता है। सम्यग्दृष्टी पात्रोंका भी भाव रत्नत्रय के प्रेमसे पूर्ण होता है । दाता और पात्र दोनोंकी दृष्टि जहां स्वात्मानुभव पर हो और वे दोनों दानके समय परस्पर मिलें तब परस्पर भावोंकी उज्वलता में बडा ही प्रभाव पडता है । सम्पण्डष्टी द्वारा सम्यग्दृष्टीको दान होजाना ही सच्चा पवित्र दान है । यह दान अतिशयकारी पुण्यबंधका कारण है। यह बांधा हुआ पुण्य जीवको संसार में आसक्त करनेवाला नहीं होता है । किन्तु ऐसे उत्तम निमित्त मिला देता है जिससे संयम पालनेकी योग्यता होजाती है तथा मोक्ष प्राप्त करने योग्य वज्रऋषभनाराच संहनन आदिका लाभ होजाता है । सम्यक्ती दाता व पात्र दोनों दानके समय आनंद पाते हैं । दात्र प्रमोद कारणं । उक्त दान जिनागमे ॥ २८९ ॥
श्लोक – पात्रं यत्र शुद्धं च पात्र दात्र शुद्धं च,
॥ २४५॥
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अन्वयार्थ (यत्र पात्रं शुद्ध च) जहां पात्र शुद्ध सम्यग्दृष्टी होता है (दात्र प्रमोद कारणं ) वह दाताप्रावका Inau
रको प्रमोद उत्पन्न करनेका कारण होता है (पात्र दात्र शुद्धं च) जहां पात्र और दातार दोनों शुद्ध सम्यग्दृष्टी हो (मिनागमे दान उक्तं ) वही दान जिनागममें उचित कहा गया है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनका ऐसा महात्म्य है कि जिसके कारण मुखपर एक अपूर्व शांतिका झलकाव होता है। सम्यक्ती पात्रके दर्शन करते ही दाता शांत रस में पहुंच जाता है। सम्यक्ती पात्रके द्वारा कोई ऐसी क्रिया नहीं होती है जिससे दातारको कुछ भी कष्ट हो, वह पडाहीसंतोषी होता है। जो उद्दिष्ट आहारके त्यागी हैं वेतोरस नीरम जो मिला उसे लेकर अपने आत्म कार्य में लग जाते
हैं। घेतो यहांतक सम्हाल रखते हैं कि उनके निमित्त कोई आरम्भ नहीं किया जावे । जो गृहस्थके Y. स्वकुटुम्बके लिये भोजन तरपार किया हो उसीमेंसे मुनिगण आहार लेते हैं। जिससे उनके निमि-Y
त्तसे न तो हिंसा हो और न कुछ भी कष्ट हो । अन्य मध्यम या जघन्य पात्र भी बडे ही उत्साही व धर्मके प्रेमी होते हैं। किसी तरहका अभिमान नहीं रखते हैं। यदि कोई भक्तिपूर्वक निमंत्रण करे तो वे कभी मानसे जमका निषेध नहीं करते हैं। जैन आगममें उसहीको उत्तम दान कहा गया है जहां पात्र और दान दोनों योग्य हो। सम्यग्दृष्टी द्वारा सम्यग्दृष्टाको दान होजाना ही प्रशंसनीय दान है। जहां सम्यग्दृष्टी मोक्षगामी दातार हो और तीर्थकर सरीखे मोक्षगामी महात्मा पात्र हों वह दान महान है। राजा श्रेयांस द्वारा श्री रिषभदेव भगवानको दान होजाना व चन्दना सतीद्वारा श्री महावीर भगवानको दान होजाना ऐसे सुयोग्य दानके उदाहरण है। सम्यग्दर्शनकी अपूर्व सुगन्ध है। . श्लोक-मिथ्यादृष्टी च दानं च, पात्र न गृहिते पुनः।
यदि पात्र गृहिते दानं, पात्रं अपात्र उच्यते ॥ २९॥ अन्वयार्थ-(मिथ्यादृष्टी च दानं च) मिथ्यादृष्टीके द्वारा दिये हुए दानको (पात्र न गृहिते पुनः) पात्र नहीं ग्रहण करते हैं (यदि पात्रदान गृहिते) यदि पात्रदानको ग्रहण करले तो (पात्रं अपात्र उच्यते ) वह पात्र अपात्र कहा जाता है।
विशेषार्थ-यहां यह बताया है कि जो सम्यग्दृष्टी पात्र होते हैं वे श्रद्धावान भाई यान दातारके
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परणवरण
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ही हाथसे भोजन लेते हैं। जो मिथ्यादृष्टी हैं, सचे देव, गुरू, शास्त्रके अडानी नहीं हैं. उनके सच्ची भक्ति सुपात्रोंसे नहीं होसती है। यदि कदाचित् वे किसी कारणवश पात्रोंको दान देनेके लिये तय्यार भी होजावें तो पात्र जो सम्पग्दृष्टी हैं वे उनको उपदेश देकर पहले सम्यग्दृष्टी अर्थात् व्यवहार अडान बना लेंगे तब उनको दातार मानके उनके यहां भोजन करेंगे । जो सच्चे देव, गुरु, शास्त्रके अडानी है वे ही शुद्ध भोजन तय्यार कर सके हैं, छना पानी व्यवहार कर सक्के हैं। शुद्ध अन्न, घी, दूधादि काममें लेंगे, जीवदया पूर्वक रसोई बनायेंगे। मिथ्याष्टीकी भोजनकी क्रिया जन शास्त्रोक्त नहीं होगी। इसलिये जो श्रद्धावान तीन प्रकार के पात्र हैं वे ऐसी अशुद्ध रसोईको स्वीकार नहीं कर सक्त। न तो वह वस्तु हो लेने योग्य है न दातार मिश्यादृष्टीकी भक्ति उस रत्नत्रय धर्म में है जिसके धारी वे पात्र हैं। भक्ति विना पात्रदान नहीं होता है। यदि कोई पात्र ऐसी अशुद्ध रसोईको मिथ्यादृष्टीके द्वारा दिये जाने पर लेलेके तौ वह स्वयं अपात्रहोजाता है अर्थात् स्वयं मिथ्या दृष्टी वनाचारके विरुद्ध होजाता है, ऐसा आवाोंने कहा है। जब तक अडान हो तबतक दातापना नहीं। जहां अन्डा बिगडी वहां पात्रपना नहीं। पात्रको वही दान लेना योग्य है जो उसको दातार द्वारा धर्मपात्र समझकर शुद्धताके साथ दिया जावे। जो पात्र इसके विरुड आहार करता है वह स्वयं अपात्र होजाता है।
श्लोक-मिथ्यादान विषं प्रोतं, घृतं दुग्ध विनाशए ।
नीचसंगेन पात्रं च, गुणं नाशन्ति यत्पुनः ॥ २९१॥ अन्वयार्थ-मिथ्यादान विषं प्रोक्तं) मिथ्यात्वीका दान विषरूप कहा गया है (घृतं दुग्ध विनाशए) जैसे विषके सपोगसे घी और दुबके गुण नष्ट होजाते है वैसे (नीवसंगन पात्रं च गुग नःशांति यत्तुनः) मिथ्यादृष्टीकी संगतितेपात्रके गुण भी नाश होजायगे।
विशेषार्थ-दान श्रद्धावानका ही गुणकारी है। जो अन्नादि ग्रहण किया जाता है उसमें दातारके भावोंका भी असर होजाता है। मिथ्यात्त भावसे मिला हुआ वह दान है। अतएप ऐसा दान ग्रहण करनेवाले पात्रकी बुद्धिको मलीन कर लेता है। जैसे विष के संयोगसे घी व दूध नष्ट होजाते हैं वैसे मिथ्यादानके संयोगसे पात्रके सम्यकादि गुण नष्ट होजाते हैं। यदि कोई पात्र न हो परन्तु
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कारणवरण ४ अपनेको पात्र मानकर मिथ्यादृष्टी दातारसे दान लेनेका अभ्यास बनाले तो उस पात्रका प्रेम उस श्रावास २८॥
मिथ्यादृष्टीसे होजायगा अर्थात् मिथ्यात्वकी अनुमोदना उसके होजायगी। वह दातार भी समझेगा कि मुझे इन पात्रोंने योग्य ही समझा तय ही तो मेरा दान लिया। वह और भी मिथ्यात्व ग्रंथिको दृढ कर लेगा। अतएव ऐसा दान उपकारक न होकर अपकारक होगा।
यहा तात्पर्य यह है कि सुपात्र वही है जो धर्मका दृढ श्रद्धावान हो व धर्ममें दृढ श्रद्धानियोंके ही भक्ति द्वारा दिये हुए दानको ग्रहण करे तय हो वह शुद्ध दान दातार व पात्र दोनोंको मोक्ष. मार्ग में प्रेरक है। मिथ्यात्वीके पात्रोंमें सच्ची भक्ति नहीं होती है। अतएव उनका दिया हुआ दान पात्र के लिये उचित नहीं है। यदि कोई ले ले तो वह अपात्र हो जायगा। दातारके अशुद्ध द्रव्यका व दातारके कुभावोंका भोजन करनेवालेके परिणामों में असर होता है वह विकारका हेतु है। एक वेश्याने मायाचारसे श्राविका बनकर धोखे से एक जैन साधुको आहार करा दिया। आहार करते हुए उनकी दृष्टि ऊपर गई। उन्होंने एक मोतियोंका हार टंगा हुआ देखा। उनके परिणाम ऐसे हुए कि हम हारको चुरा लेजावें तब उस साधुने अपने गुरुसे यह हाल कहा । गुरुने कहा कि तुमने अशुद्ध दातारका अशुद्ध भोजन खाया है। प्रायश्चित्त लेकर दोषसे मुक्त होना चाहिये। अतएव श्रद्धावान के द्वारा शुद्ध भोजन ही पात्रोंको ग्रहण करना चाहिये।
श्लोक-मिथ्यादृष्टी च संगेन, गुणं निर्गुणं भवेत् ।
मिथ्यादृष्टी जीवस्य, संगं तजति ये बुधाः ॥ २९२ ॥ अन्वयार्थ (मिथ्यादृष्टी च संगेन ) मिथ्यादृष्टीकी संगतिसे (गुणं निर्गुणं भवेत् ) पात्रके गुण औगुण V रूप होजाते हैं अतएव (ये बुधाः) जो बुद्धिमान हैं वे ( मिथ्यादृष्टी जीवस्य संगं तति ) मिथ्यादृष्टी जीवकी। संगति छोड देते हैं।
विशेषार्थ-जो सच्चे तत्वके श्रद्धावान नहीं है उनकी संगतिसे लाभ होनेके बदले में हानि होना बहुत संभव है। उनके प्रभावमें आकर सचे श्रद्धावानोंकी श्रद्धा बहुधा बिगड जाती है। तथा
गुणोंका नाश होकर औगुणों की उत्पत्ति होजाती है। बहुधा कुसंगतिसे ही लोग जुआरी, शिकारी, 1 नशेषाज, वेश्यागामी, मांसाहारी, परस्त्रीरत, चोर होजाया करते हैं। कुसंगतिसे विषयासक्ति हो- Rc
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खारणतरण
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जाती है। जिन दातारोंकी संगति से सम्यक्त दृढ हो उन हीके द्वारा दान लेनेसे सम्यक्कादि गुणों की वृद्धि होगी । यदि दातार सम्यक्त रहित है, मिथ्या देव शास्त्र गुरुका श्रद्धानी है तो पात्र के भीतर उसके भावोंका असर पडनेसे सम्यक्त भावमें बाधा होजायगी । अतएव सम्यक्ती सर्व ही पात्र उन अनापतनोंकी संगति नहीं करते हैं जिनसे श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र में अन्तर पड जावे। इसी लिये मिध्यादृष्टी दानको वे ग्रहण नहीं करते । श्रद्धावान श्रावक गृहस्थके ही द्वारा दिया हुआ दान लेते हैं।
श्लोक - मिथ्याती संगते येन, दुर्गति भवति ते नरा ।
मिथ्यासंग विनिर्मुक्तं, शुद्धधर्म रता सदा ॥ २९३ ॥
मन्वयार्थ – (येन) क्योंकि ( मिथ्याती संगते दुर्गति भवति ) मिथ्याती संसारासक्त मानवोंकी संगति से खोटी गति होती है अतएव (ते नरा मिथ्यासँग विनिर्मुक्तं ) वे मानव मिथ्यात्वीकी संगतिको छोडकर (शुद्ध धर्म रता सदा ) सदा ही शुद्ध रत्नत्रय धर्ममें लीन रहते हैं ।
विशेषार्थ – संगतिका बडा भारी असर होता है । कुसंगति से यह प्राणी मिथ्यादृष्टी होकर कुदेव, कुशास्त्र व कुगुरुका भक्त बन जाता है व इंद्रियोंके विषयोंका लम्पटी होकर विषयांध होजाता है । या ख्याति पूजा लाभादिके लोभ में पड जाता है, आत्मानुभव के हेतु रूप सच्चे धर्मका श्रवान खो बैठता है । अतएव नरक व पशुगति बांधकर नारकी या तिच होजाता है । इसीलिये जो पंडित पात्र हैं, चाहे मुनि हों या श्रावक हों या व्रत रहित सम्पती हों वे कुसंगति से सदा बचते हैं । मिथ्यादृष्टोकी संगति नहीं करते हैं तब वे मिध्यात्वी द्वारा दिया हुआ दान भी नहीं लेते। क्योंकि भोजनकी संगति व मिथ्यात्वी दातारकी संगति परिणामों में विकार उत्पन्न कर देगी । ज्ञानी पात्र सदा ही शुद्ध आत्मीक तत्वमें रमण किया करते हैं । व उसके साधक पांच परमेष्ठीको भक्ति करते हैं । धर्मात्मा गृहस्थोंकी ही संगति रखते हैं व धर्मात्मा गृहस्थोंके ही द्वारा दिया हुआ दान लेते हैं । उनके इस बातकी बडी सम्हाल रहती है कि हमारा रत्नत्रय धर्म किसी तरह भी मलीन न हो। वह पूर्णपने सुरक्षित रहे, इसलिये वे श्रद्धावान श्रावक गृहस्थोंके द्वारा दिया हुआ दान ही लेते हैं । मिथ्यातियोंको सम्यक्ती बनाकर फिर उनका आहार वस्त्र लेसक्ते हैं ।
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कान
॥२८९ ॥
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भरणतरण
श्रावकाचार
॥२९॥
श्लोक-मिथ्या संगं न कर्तव्यं, मिथ्या वासना वासितं ।
दूरे त्यति मिथ्यात्त्वं, देश इत्यादि त्यक्तयं ॥ २९४ ॥ सम्बयार्थ-(मिथ्यासंगं न कर्तव्यं) मिथ्यात्वका संग न करना चाहिये (मिथ्या वासना वासितं) मिथ्यास्वकी वासनासे वासित (देश इत्यादि त्यतय) क्षेत्र आदिका त्याग करना चाहिये । ज्ञानीजन (मिथ्यात्वं दूरे त्यमंति) मिथ्यादर्शनको दरसे ही त्याग देते।
विशेषार्थ-मिथ्यादर्शनके समान कोई पाप नहीं है। सम्यग्दर्शनके समान कोई गुण नहीं है। व्यवहार मिथ्यात्वका सेवन अंतरंग मिथ्यात्वकी वासनाको दृढ करनेवाला है, जैसे व्यवहार सम्पग्दर्शनका सेवन अंतरंग सम्यग्दर्शनको दृढ करनेवाला है इसलिये धर्मात्मा श्रावक गृहस्थाको मिथ्यात्वके पोषक अपात्रोंका संग नहीं करना चाहिये । उनको उस क्षेत्र में भी नहीं जाना चाहिये जहां मिथ्यात्वकी पुष्टि हो व सम्यग्दर्शनकी विराधनाकी शंका हो । मिथ्यादर्शनसे उसीतरह बचना चाहिये जैसे दुर्गंध वायु, जल, भूमिसे बचा जाता है। कुशेव, कुगुरु, कुधर्मकी संगति मिथ्यात्वकी वासनाको पैदा करनेवाली है। इसलिये उनकी संगति न करना ही उचित है । जिस देशमें मिथ्यात्वका ही प्रचार है, व्यवहार सम्यग्दर्शनके साधन नहीं है उस देश में प्रथम तो जाना ही उचित नहीं है। यदि लौकिक कार्यवश जाना पडे तो सम्यग्दर्शनकी साधक क्रियाओंको करता रहे। जप, पाठ, सामायिक ध्यानादिको कभी न छोडे तथा मिथ्यात्व क्रियाओंकी संगतिमें आप न बैठे। धर्मयुडिसे मिथ्या धर्मके धारकोंका सन्मान आदि न करे। जैसे शुद्ध श्वेत वस्त्रका धारी इस बातकी सम्हाल रखता है कि कहीं कोई कीचडका धब्या मेरे कपडॉपर न लग जावे, पैसे 3 विवेकीको सम्हाल रखना चाहिये कि मेरे श्रद्धानमें कोई मलीनता न आनी चाहिये । इसीलिये ॐ अपात्रोंकी भक्ति करनी उचित नहीं है।
लोक-मिथ्या दरे हि वाचंति. मिथ्या संग न दिष्टते ।
मिथ्या माया कुटुंबस्य, संगं विरचे सदा बुधैः॥ २९५॥ अन्वयार्थ (मिथ्या दुरे हि वाचंति) मिथ्यात्वसे दरसे ही बचना चाहिये (मिथ्या संग न दिष्टते).
२९॥
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मिथ्यात्वका संग न दिखना चाहिये (मिथ्या माया कुटुबस्य संगं) मिथ्यात्व व मायामें फंसे हुए कुटुंबका धरणवरण
श्रावकाचार संग (बुधैः सदा विरचे) बुद्धिमान सदा ही बचावे । ॥२९॥
विशेषार्थ-यहांपर भी मिथ्यात्वकी संगतिका निषेव किया है। ग्रंथकर्ताका अभिपाय यही है कि गृहस्थजन शुद्ध सम्यकमें परिपक्क रहें। क्योंकि सम्यग्दर्शन ही मोक्षमार्गकी प्रथम सीढी है। इसके विना बत, जप, तप सब असार है । आत्मानुशासनमें कहा है
शमबोषवृत्ततपसां पाषाणस्येव गौरवं पुंसः । पूज्यं महामगेरिव तदेव सम्यक संयुक्तम् ॥१५॥ भावार्थ-मभाव, ज्ञान, चारित्र, तपका मूल्य सम्यग्दर्शनके विना पाषाण खण्डके समान है परन्तु यदि वे सम्यग्दर्शनके समान हो तो उनका मूल्य व आदर महामणिके समान होता है। इसीलिये मिथ्यात्वसे भले प्रकारसे बचनेका उपदेश है। ज्ञानी गृहस्थको उचित है कि सदा ही सम्यग्दर्शनकी दृढताके कारक आयतनोंकी संगति रखे। जिनचैत्यालय, जिनशास्त्र, जैन गुरू, जैन धर्मात्मा ज्ञानी पुरुष, जिनेन्द्र भक्ति, सद्गरुको दान, सद्गरु द्वारा उपदेश श्रवण आदि निमित्तोंको मिलाता रहे, इनके विरुद्ध निमित्तोंकी संगति न करे, उनसे माध्यस्थ भाव रक्खे, लौकिक व्यवहार
न बिगड़े उतना मात्र सहयोग देवे परन्तु अपनी अडामें किसी तरह मलीनता भाजावे ऐसा सहॐ योग न करे। जो गृहस्थ कुटुम्बी मिथ्यात्वके पोषक हैं व जो मायाचारके पोषक हैं, ठग, अन्यायी हैं उनकी संगतिसे बचना ही उचित है। जिसतरह बने सम्यग्दर्शनकी रक्षा करे यह अभिपाय है। ___ श्लोक-मिथ्यात्वं परमं दुःखं, सम्यक्तं परमं सुखं ।।
तत्र मिथ्यामतं त्यक्तं, शुद्ध सम्यक सार्द्धयं ॥ २९६ ॥ अन्वयार्थ (मिथ्यात्वं परमं दुःखं ) मिथ्यादर्शन परम दुःखका कारण है (सम्यकं परमं सुखं ) सम्य- ५ ग्दर्शन परम सुखका कारण है (तत्र मिथ्यामतं त्यकं) इसीलिये मिथ्यादर्शनका त्याग करे (शुद्ध सम्यक साई) शुख सम्यग्दर्शनको अपना साथी बनाए रक्खे।
विशेषार्य-संसारमें नरक, निगोद, एकेंद्रिय, विकलत्रय, पशु आदिके घोरसे घोर दुःखों में ४ पटकनेवाले कोका बंध मिथ्यादर्शनसे होता है इसलिये मिथ्यादर्शन ही परम दुखरूप हे अथवा ॥२९ ॥
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नाक्यावर
R९॥
मिथ्यात्वी जीव संसारमें तीन रागी होता है, वह निरंतर इष्टका समागम चाहता है। जब इष्टका वियोग होजाता है या कोई उसके अनुकूल नहीं चलता है तो उसे महा दु:ख होता है। वह रात दिन तृष्णाकी व्याधिसे पीडित रहता है, विषयों के कारण आकुलित रहता है। इच्छा व चिंता ये ही महान दुख हैं। इच्छित वस्तुओंको मिलनेपर भी वह तृष्णाको बढाकर अधिक चाहकी दाहमें जला करता है। मिथ्यात्वीका जीवन सदा दुःखरूप रहता है। वह परलोकमें भी कष्ट पाता है। सम्यग्दर्शन परम सुखका कारण है। सम्यक्ती जीव मोक्ष पाता है। सम्यकी इस लोक व परलोक दोनों में सुखी रहता है। यहां यदि कमौके उदयसे दुःखके सामान मिलते हैं तौभी समभाव रखता है। यदि पुण्यके उदयसे सुखके सामान मिलते हैं तो उनसे वैरागी रहता हुआ उनमें रंजायमान नहीं होता है। इसीलिये इस बातकी बडी आवश्यक्ता है कि शुद्ध सम्यक्तकी रक्षा की जावे, सम्यकमें कोई दोष
न लगाया जावे । मिथ्यादर्शनको भलेप्रकार त्याग दिया जावे। जिनकी संगति से विषय कषायों में 7 लीनता हो, मिथ्या पूजापाठ व रूढियों में भी जकडना पडे उनकी संगति विवेकी न करें। इसी
तुसे भक्तिपूर्वक अपात्रोंको दान न करे । व्यवहार सम्यग्दर्शनके धारी पात्रों को ही भक्तिसे दान करे चाहे वे सुपात्र हों या कुपात्र अर्थात् निश्चय सम्यक्त रहित हो । परन्तु व्यवहार सम्यक्तसे शुन्य मिथ्यादृष्टीको भक्तिपूर्वक दान करना उचित नहीं है क्योंकि वहां धर्मकी पात्रता नहीं है। दया पुरिसेहरएक प्राणीको आहार, औषधि, अभय व विद्यादान करना उचित है, उसमें पात्र अपात्रका विचार नहीं है। धर्मबुषिसे मिथ्यात्वकी भक्ति हानिकारक है जिसे करना उचित नहीं है। सम्यग्दर्शनरूपी रत्नकी रक्षा करना विवेकीका कर्तव्य है।
रात्रि भोजन त्याग। श्लोक-अनस्तमितं बेघडियं च, शुद्ध धर्म प्रकाशये ।
साधं शुद्ध तत्वं च, अनस्तमित रतो नराः ॥२९७॥ अन्वयार्थ (अनस्तमितं बेघडियं ) दो घडी सूर्यके अस्त पहले भोजन कर लेना चाहिये (शुद्ध धर्म
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श्रावकार
प्रकाशये) ऐसा अहिंसाधर्म प्रकाशित करता है (शुद्धतत्वं च साई) जो धर्म शुद्ध वस्तुस्वरूपको बतानेकारणवरण
Vवाला है इस तरह (नराः अनस्तमितं रताः) मानवोंको रात्रिभोजन त्यागमें रत होना योग्य है। ॥२९॥
विशेषार्थ-अब ग्रन्थकर्ता रात्रि भोजन त्यागके सम्बन्धमें कहते हैं कि धर्मात्मा श्रावकोंको जो अहिंसाधर्मके प्रेमी हैं, जो चाहते हैं कि वृथा ही जंतुओंका वध न हो, यह उचित है कि रात्रिको भोजन न करें। दो घडी अर्थात् ४८ मिनट सूर्यके अस्तमें शेष रहे तब भोजनपान समाप्त करलें व दो घडी दिन निकले विना भोजनपान प्रारम्भ न करे। शुद्ध वस्तु स्वरूपको बतानेवाला यह जैनधर्म हिंसासे बचने के लिये ऐसा उपदेश करता है। रात्रिको अंधेरा रहता है । यदि दीपक जलाया जावे व उस प्रकाशमें रसोई बनाई जावे व खाई जावे तो उसमें अनेक चौइंद्रिय प्राणियोंका वध होगा, जो दिनमें विश्राम करते हैं व रात्रिको उडा करते हैं। अहिंसा व्रतकी पूर्णताके लिये रात्रिको पूर्ण उपवास पालना चाहिये । पुरुषार्थसिजयुपायमें कहा है
रात्रौ मुंजानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा। हिंसाविरतस्तस्मात्त्यक्तव्या रात्रिमुक्तिरपि ॥ १२९॥ अर्कालोकेन विना भुनानः परिहरेत् कथं हिंसां । अपि बोधितः प्रदीप भोज्यजुषां सूक्ष्मजंतूनां ॥ १३ ॥
भावार्थ-जो रात्रिको भोजन करते हैं उनको नियमसे हिंसा करनी पडती है इसलिये जो हिंसासे बचना चाहते हैं उनको रात्रिको भोजन भी न करना चाहिये । सूर्यके प्रकाश विना खाते हुए हिंसा कैसे छोडी जासक्ती है। क्योंकि प्रदीपके जलानेपर अनेक छोटे २ जन्तु आजावेंगे व उनका भोजनमें सम्बन्ध होनेसे उनकी हिंसा होगी व उनका कलेवर भोजनके साथ खाया जायगा।
विवेकी गृहस्थ रात्रिको जल भी नहीं लेते हैंतथापि गृहस्थोंकोरात्रिभोजन त्यागका यन करना उचित है । खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय, चार प्रकारका आहार है-अभ्यास करनेवाला यथाशक्ति त्याग करे । उद्यम इस बातका करे कि रात्रिको जल भी न लेना पडे तो उत्तम है।रात्रिको पूर्ण खानपानके त्याग करनेसे वर्ष में छ मासके उपवासका फल होता है।
श्लोक-अनस्तमितं कृतं येन, मन वच काय योगभिः ।
___ शुद्ध भावं च भावं च, अनस्तमितं प्रतिपालए ॥ २९८॥ अन्वयार्थ-(येन) जिसने (मन वंच काय योगभिः) मन वचन काय तीनों योगोंके द्वारा (अनस्वामित
॥२९॥
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भारणवरण
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कृत) रात्रि भोजनका त्याग कर दिया (शुद्ध भावं च भावं च) उसीने श भावोंकी भावना भा (मनस्तमितं प्रतिपालए) और रात्रिभोजन त्याग व्रत प्रतिपालन किया है
विशेषार्थ-रात्रिको भोजनकी इच्छा मनसे भी न करे, न रात्रिभोजन सम्बन्धी वचन बोले न कायसे रात्रिभोजन करे । मन वचन कायसै जिसने रात्रिभोजनका त्याग किया उसने अहिंसा-१ धर्मको यथार्थ पालन किया है। धर्मात्मा श्रावकोंको उचित है कि रात्रिको भोजनका सर्व विकल्प मेटकर परम सन्तोष रक्खें, और धर्मध्यानमें समय लगावें। शुद्ध भावकी भावना करें, आत्मतत्वका चितवन करें। भोजनादि कुकथाको भी त्यागे । पूर्णपने इस रात्रिभोजन त्याग व्रतको पालें।
जैन गृहस्थोंके अहिंसाधर्म व वीतराग धर्मकी यही शोभा है जो सूर्यप्रकाशमें ही भोजनपान कर लिया जावे। भोजन सम्बन्धी आरम्भ भी दिनमें किया जावे। दिन में ही रसोई तैयार की ४ जावे । दिनमें ही खाया खिलाया जाये । सम्यकी स्वभावसे ही दयालु होता है। वह यह उद्यम रखता है कि जितना अधिक हिंसासे बचा जावे उतना धर्म है।
श्लोक-अनस्तमित्वं पालंते, वासी भोजन त्यक्तये ।
रात्रि भोजनं कृतं येन, भुक्तं तस्य न शुद्धए ॥ २९९ ॥ अन्वयार्थ-(मनस्तमित्वं पालते ) जो रात्रिभोजन त्याग व्रत पालते हैं वे (वासी भोजन त्यक्तये) रात्रि वासी भोजन छोड़ देते हैं। (येन रात्रि भोजनं कृतं ) जिसने रात्रि भोजन किया (तस्य भुक्तं न शुद्धए) उसका भोजन शुद्धिके लिये नहीं है।
विशेषार्थ-रात्रि भोजनके त्यागीको न तो रातका बनाया खाना चाहिये न रोटी पुरी आदि जिसकी मर्यादा मात्र दिनभरकी है रात्रि वासी सबेरे खाना चाहिये । भोजनकी शुद्धि भी अति। * आवश्यक वस्तु है। शुद्ध भोजन वही है जिसमें हिंसाका दोष जितना बचाया जासके बचता हो।
रात्रिका पीसा आटा व मसाला आदि न खाना चाहिये। हिंसा ब्रस जंतुओंकी बचाना बहुत जरूरी है। त्रस जंतुके कलेवरको मांस कहते हैं। ऐसा मांस अपने खाने में न आवे इसलिये रात्रिको बनाना वरात्रिको खाना उचित नहीं है। परिणामोंकी उज्वलताके लिये शुद्ध भोजन बहुत उपकारी है।
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श्रावकार
२९५॥
गृहस्थी श्रावकको उचित है कि अपने यहां भोजन ऐसा शुद्ध तैयार करे जो मुनि आदि ॐ पात्रोंको दान भी किया जामके व अपनेको भी शुद्धतापूर्ण भोजन प्राप्त हो।
श्लोक-खाद स्वाद पीवं च, लेयं आहार क्रीयते।
वासी स्वाद विचलंते, त्यक्तं अनस्तमितं कृतं ॥ ३०० ॥ अन्वयार्थ-(खाद स्वाद पीवं च लेय आहार क्रियते) खाद, स्वाद, पेय, लेख ऐसे चार प्रकार आहार होता है इनको रात्रिमें तथा (वासी स्वाद विचलते) वासी भोजनको, जिनका स्वाद चलायमान होगया है (त्यक्त) छोड दिया जाय तब ही (अनस्तमितं कृतं) रात्रि भोजन त्याग व्रत पूर्ण हुभा समझना चाहिये।
विशेषार्थ-भोजनके चार भेद हैं। जिससे पेट भरे ऐसे अन्नादि खाद्य है। इलायची ताम्बल आदि स्वाद्य है । दूध, पानी आदि पेय है तथा चांटनेकी चीज चटनी आदि लेह्य है। रात्रिभोजन त्यागीको इन चारों ही प्रकारका भोजन नहीं लेना योग्य है। न रात्रिका बनाया हुआ न रात्रिका वासी भोजन जिसका स्वाद औरका और होगया है लेना योग्य है। वास्तवमें सन्तोष व इंद्रियविजयका भाव श्रावक गृहस्थमें होना चाहिये। जो सच्चे धर्मके श्रद्धावान हैं उनको इस व्रतके पालनमें कोई कठिनाई नहीं होती है। वे बडे दयावान होते हैं। जितना बचे उतना हिंसाको बचाते हैं, उनको विश्वास होता है कि दिनकी अपेक्षा रात्रिको खानपानका आरम्भ करने में वा खानेमें बहुत प्रस जन्तुओंका घात होता है। यदि हमको कोई लाचारी नहीं है तो हमें अवश्य खानपान दिन हीमें कर लेना चाहिये। यद्यपि जो गृहस्थ ऐसी स्थिति हो कि एकदम रात्रिभोजन नहीं त्याग सक्के वे छठी प्रतिमामें पहुंचकर अवश्य रात्रिभोजनका पूर्ण त्याग कर देते हैं।
श्लोक-अनस्तमितं पालितं येन, रागदोषं न चिंतये ।
शुद्ध तत्त्वं च भावं च,सम्यग्दृष्टी च पश्यते ॥ ३०१ ॥ अन्वयार्थ-(येन अनस्तमितं पाकितं) जिसने रात्रिभोजन त्याग व्रत पाला है वह (रागदोपं न चिंतये) रागद्वेष भावोंकी चिंता नहीं करता है किंतु (शुद्धतत्वं च भावं च) शुद्ध आस्मीक तत्वकी भावना करता है ( सम्यग्दृष्टी च पश्यते ) वही सम्यग्दृष्टी देखा जाता है।
॥२९॥
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R९॥
विशेषायं-यहांपर अन्यकर्ता रात्रि भोजन त्यागीके भावोंकी तसबीर बताते हैं कि उसमें श्रावकार बहाही सन्तोष व दयाभाव होता है। वह निस्पृही सम्यग्दृष्टी जीव अपने अंतरंगसे राग व देष ॐ बढानेवाली चर्चा या चिंता नहीं करता है, निरन्तर शुद्ध निश्चय नयका आश्रय लेता हुआ शुद्ध
आत्माका विचार किया करता है। यद्यपि अपनी स्थितिके अनुसार सम्यग्दृष्टी लौकिक क्रिया करता है तथापि उसकी भावना आत्मीक तत्वकी ही रहती है। रागद्वेष करना भाव हिंसा है। इससे वह अपनेको बचाता है। कोई ऐसा मानते हैं कि दिन में भोजन न करके रात्रिको करे तो क्या दोष है। सम्यक्ती ऐसा तर्क नहीं करता है क्योंकि दिनकी अपेक्षा रात्रिको घोर हिंसा होती है।
श्रावकाचारमें अमितगति महाराज कहते हैंये ब्रति दिनरात्रिभोगयोस्तुल्यता रचितपुण्यपापयोः । ते प्रकाशतमसोः समानतां दर्शयति सुखदुःखकारिणोः ॥५३-५॥
भावार्थ-जो ऐसा कहते हैं कि दिन रात दोनों में भोजन समान है, वे पुण्य व पापको समान ॐ कहते हैं, वे प्रकाश व अन्धकारको समान बताते हैं व सुख व दुःखके कारणको समान कहते हैं।
यह ठीक नहीं है, क्योंकि दिनमें भोजन दयाका अंग है, धर्मरूप है, पुण्यरूप है, जब कि रात्रिको भोजन पापरूप है, अधर्म है।
श्लोक-शुद्ध तत्वं न जानते, न सम्यक्तं शुद्ध भावना ।
श्रावकं तत्र न उत्पाद्य, अनस्तमितं न शुद्धए ॥ ३०४ ॥ अन्वयार्थ (शुद्ध तत्वं न जानते) जो कोई गृहस्थ शुद्ध आत्मीक तत्वको नहीं समझते हैं (न सम्यक्त शुद्ध भावना ) न उनके सम्यग्दर्शन है न शुद्ध आत्मीक तत्वकी भावना है (तत्र श्रावकं न उत्पाचं ) वहां श्रावकपना नहीं उत्पन्न होसक्ता (अनस्तमितं न शुद्धए) उनको रात्रिका आहार त्याग कर देना उनकी आत्माकी शुद्धिके लिये कारणभूत नहीं है। . विशेषार्थ—यहां यह दिखलाया है कि सम्यक्त सहित ही वह रात्रिभोजन त्याग ब्रत उपकारी* है व मोक्षका साधक है। यदि कोई सम्यक्ती नहीं है और वह शुद्ध तत्वकी भावना नहीं करता है तो उसका त्याग व नियम व व्रत सर्व पुण्य पन्धकारक नहीं होगा। विना सम्यक्तके श्रावकपना नहीं होसक्ता है। इसलिये श्रावकको मात्र हिंसाके बचावके लिये ही रात्रि भोजन नहीं करना Real
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चाहिये । व उस व्रतके बदले में मुझे पुण्य होगा ऐसा निदान न करना चाहिये। श्रद्धापूर्वक शाख वारणतरण
श्रावकाचार भावसे रात्रिभोजन त्याग व्रत पालना चाहिये । सम्यक्तीके रात्रिभोजनके त्यागका फल विशेष होता ॥२९॥ है। वह रात्रिके बहुत समयको धर्मध्यानमें लगाकर सफल करता है।
.. अमितगति श्रावकाचारमें फल बताया है
ज्ञानदर्शनचरित्रभूतयः सर्वयाचितविधानपण्डिताः । सर्वलोकपतिपूजनीयता, रात्रिभुक्तिविमुखस्व जायते ॥ ६४-५॥ - भावार्थ सर्व वांछित कार्य करने में समर्थ ऐसी सम्यग्दर्शन, सम्परज्ञान, सम्पकचारित्रकी विभूतियें व सर्व इन्द्रादिसे पूज्यनीयपना रात्रिभोजन त्यागी के प्राप्त होता है। वास्तव में ऐसा व्रती बडा ही संतोषी दयावान आत्मानुभवी होता हुआ उत्तम कल पाता है।
श्लोक-जे नरा शुद्धदृष्टी च, मिथ्या माया न दिष्टते ।
देवं गुरुं श्रुतं शुद्धं, तं अनस्तमितं व्रतं ॥ ३०३ ॥ मन्वयार्थ (जे नरा शुद्धदृष्टी च) जो मानव शुद्ध सम्यग्दृष्टी हैं (मिथ्या माया न दिष्टते) जिनमें मिथ्यात्व व मायाचार नहीं दिखलाई पडता है, जो (शुद्धं देवं गुरुं श्रुतं) शुद्ध वीतराग देव, वीतरागीर साधु व वीतराग विज्ञानमय शास्त्रको मानते हैं (तं अनस्तमितं व्रतं ) उनहीका रात्रिभोजन त्याग ४ ब्रत सफल है।
विशेषार्थ-यहां यह दिखलाया है कि कोई रात्रिभोजन मात्र त्यागकर अपने को धर्मात्मा १ श्रावक मान ले तो वह सच्चा श्रावक गृहस्थ नहीं होसक्ता । हरएक मानवको जो इस व्रतको पाले । * शुद्ध सम्यग्दृष्टी होना चाहिये-उसके भीतर भेदविज्ञानके प्रतापसे आत्मा निजस्वभावरूप अनुभवमें
आरहा हो, जिनको जीवादि सात तत्वोंका यथार्थ श्रद्धान हो, जिनमें न तो मिथ्यात्व हो, न कोई मूढता हो, न कोई मायाचार हो, सरल शुद्ध भावसे जिनकी श्रद्धा जैन धर्म के तत्वोंमें हो तथा जो सर्वज्ञ वीतराग देवको ही देव, निग्रंथ वीतरागी साधुको ही गुरु, स्थाद्वादनय से वस्तुके अनेकांत स्वरूपको बताने व आत्माको वीतराग विज्ञानके मार्गपर चलानेका उपदेश देनेवाले शास्त्रको न मानते हो । ऐसा सम्यग्दृष्टी श्रावक अहिंसा तत्वका प्रेमी व आत्मध्यानका अभ्यासी होगा। दिव
व ॥२९॥
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धारणसरण
॥२९॥
समें संतोषपूर्वक शुद्ध भोजन करना श्रावकके आत्मध्यानमें सहायक होगा, व उसके अहिंसा व्रतको ४
श्रावधर दृढ करेगा। रात्रिको वह भोजन सम्बन्धी आरंभसे विरक्त हो, खानपानकी चर्चासे अलग हो अपना समय धर्मध्यानमें देसकेगा।जो आत्मज्ञानी होगा उसीके सच्चा रात्रिभोजन त्याग व्रत होगा।
पानी छानना। श्लोक-पानी गालितं येनापि, अहिंसा चित्त शंकए ।
विलछितं शुद्ध भावेन, फासू जल निरोधनं ॥ ३०४॥ अन्वयार्थ (येनापि पानी गालित) जिस किसीने भी पानीको छाननेकी विधि की वह वही श्रावक होगा (अहिंसा चित्त शंकर) जिसके चित्तमें अहिंसाके पालनेका भय होगा वह (शुद्ध भावेन विलाछनं) गुड भावसे विलछन पहुंचावेगा तथा (फासू जल निरोधन) प्राशुक जलको बंद रक्खेगा-ढका रक्खेगा।
विशेषार्थ-अब श्रावककी त्रेपन क्रियाओं में जो पानी छाननेकी आज्ञा है उसपर ग्रंथकर्ताने प्रकाश डाला है कि पानी छाननकी विधि वही करेगा जो अहिंसावत भलेप्रकार पालनेका उद्योगी होगा व स्थावर व प्रसकी हिंसासे भयभीत होगा। विना छना पानी काममें लेनेसे अनगि. नती ब्रस जंतुओंका घात होता है। दयावान गृहस्थ गादेके दोहरे छन्नेसे कूप, वावडी, नदी आदिका पानी सम्हाखकर छानेगा, एक वर्तनसे दसरे वर्तनमें छानेगा । छन्ना इतना बडा होना चाहिये कि दोहरा करनेपर वर्तनके मुखसे तीनगुणा चौडा हो ताकि विना छना पानी वर्तनमें न आवे । पानी छानकर उसका विलपन या जीवानी वहीं समहालकर पहुंचा देनी चाहिये जहांसे पानी भरा गया हो । पना पानी दो घडी या ४८ मिनटसे अधिक नहीं चल सका है इसलिये पुनः पुनः छाननेकी जरूरत पडेगी। उचित है कि सब विलपन एक वर्तनमें एकत्र कर लिया जावे । जष फिर पानी भरनेको जावे तब उसी वर्तन में रखकर वर्तनको कूपमें डाल दे। नदी व सरोवरमें तो तुर्त छने पानीको धारसे उन्मेको घोदेना चाहिये । इस छने पानीको सदा ढका हुआ रखना चाहिये, जिससे कोई जंतु उसमें पडे नहीं। ४८ मिनट वीतनेपर फिर छानकर वर्तना चाहिये । यदि प्राशक करना हो तो लवंग, कसायला द्रव्य, निमक, मिरच आदि कोई पदार्थ कूट करके ऐसा मिलाया जावे
॥२९८॥
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धरणवरण जिससे पानीका स्वाद व रंग बदल जावे। ऐसा प्राशुक पानी छ:घंटे चल सकेगा। यदि उसको औटा
श्रावक लिया जाये तो यह चौवीस घंटे चलेगा। यदि अधन न हो, मात्र खूब गर्म हो तो १२ घंटे चलेगा। २९९॥ पा १२ या २४ घंटेके भीतर २ उस प्राशुक पानीको वर्त लेना चाहिये, वह फिर छाननेसे कामके
लायक नहीं होता है। जिसमें स्थावर जलकायिक जीव भी न हों उस जलको पाशुक कहते हैं। दयावान गृहस्थ अनने पानीका वर्ताव नहीं रक्खेगा।
लोक-जीवरक्षा पटू कायस्य, शंकये शुद्ध भावना।
श्रावको शुद्धष्ठी च, जलं फास प्रवर्तते ।। ३०५ ।। मन्नवार्य (शुद्ध भावना) शुर सम्यग्दर्शनकी भावना करनेवाला (श्रावको शुष्टि च) श्रावक शुक्रष्टि रखनेवाला (पदकायस्य जीवरक्षा) :कायके प्राणियोंकी रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता इसलिये (फासु जकं प्रवर्तते) प्रासुक जल काममें लेता है।
विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टी श्रावकके भीतर सर्व प्राणी मात्र पर दयाभाव होता है। वह सर्व प्राणि. योपर मैत्रीभाव रखता है। इसलिये वह पृथ्वी कायिक, जल कायिक, वायु कायिक, अग्नि कायिक, ४वनस्पतिकायिक तथा त्रसकायिक, इन शरीरधारी छहों जातिके प्राणियोंपर परम दयालु होता है। वह
जीवरक्षाकतुसे पानी छानने में कोई प्रमाद नहीं करता है। यहां ग्रन्थकर्ताने लिखा है कि प्रापक प्रामुक जलका व्यवहार करता है। इससे पता चलता है कि प्राचीन कालमें यही रीति होगी कि पानीको छानकर गर्म कर लेते होंगे इससे वारवार छाननेका काम मिट जाता है। तथा प्राशुक जल बहुत मर्यादाका बहुत देरतक विना चिंताके वर्ता जाता है। उसमें न तो अस जंतु पैदा होते हैं न स्थावर । गृहस्थ श्रावकके यहां ऐसा रिवाज होना उचित दीख पडता है। इसतरह प्राशुक जल गहमें रखनेसे मुनि आदि पात्रोंको बरी सुगमतासे दान होसकता है। पुनः पुनः छानने में प्रमाद होना संभव है। जलको छानके तुर्त प्राशुक कर लिया गया, अब छानने में प्रमादको अवकाश भी न रहा, यह प्रदात उचित मालूम पड़ती है।
सर्व काम प्राशुक जलसे ही करना उचित है। यद्यपि इसमें एकदके जलकायिक जंतुओंकी हिंसा होती है परंतु मर्यादा तक उसमें ऐसे जीव उत्पन्न न होंगे न फिर उनके घातकी जरूरत होगी।४॥२९॥
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वारणतरण
॥१००॥
श्लोक—जलं शुद्धं मनः शुद्धं, अहिंसा दया निरूपणं ।
शुद्ध दृष्टी प्रमाणं च, अव्रत श्रावक उच्यते ॥ ३०६ ॥
अन्वयार्थ–( जळं शुद्धं मनः शुद्धं ) जलकी शुद्धता से मनकी शुद्धता होती है (अहिंसा दया निरूपणं ) अहिंसा तथा दयाका पालन होता है (शुद्ध दृष्टी प्रमाण च) जिसका सम्पक्त निर्मल है व ज्ञान सम्पक् है वही (अव्रत श्रावक उच्यते ) अविरत श्रावक कहा जाता है ।
विशेषार्थ- शुद्ध प्रासुक जल पीने से मनके विचारोंमें निर्मलता रहती । यह कहावत प्रसिद्ध -" जैसा खाँवे अन्न वैसा होवे मन, जैसा पीवे पानी वैसी बोले वाणी ।" वास्तवमें पुद्गलका असर जीवके भावों में और जीवोंके भावोंका असर पुद्गलपर पडता रहता है, जहांतक आत्मा अशुद्ध है। पुद्गलके कारण उसकी शुद्ध शक्ति आच्छादित है । जब मन या आत्माका अशुद्ध उपयोग प्रसन्न होता है, सर्व शरीर सुख दिखता है, रुधिरका संचार ठीक होता है, भोजन ठीक पाचन होता है, उसी तरह जब शरीर निर्बल, अस्वस्थ व खेदित होजाता है, थक जाता है तब जीवों के अशुद्ध भाव ग्लानित व ढीले पड जाते हैं । मादक पदार्थोंके खाने पीने से बुद्धि उन्मत्त होजाती है । आत्मध्यान करने से शरीर प्रफुल्लित व निरोग होजाता है, इसी तरह शुद्ध खानपान करने से उससे रुधिर व वीर्य शुद्ध होता है । जिसका असर सर्व शरीरपर पडता है-उपयोगपर भी असर पडता है । जो मोक्षमार्गका पंथी है चाहे वह अविरत सम्यग्दृष्टी का क्यों न हो उसे शुद्ध खानपान करके अपने भावोंको शुद्ध रखना चाहिये तथा अहिंसा पालना चाहिये । अशुद्ध खानपानका राग हटने से भाव अहिंसा व अशुद्ध खानपान में जो प्राणी घात होता था वह नहीं होता है इससे द्रव्य अहिंसा पलती है, जीवोंकी रक्षा हो यह शुभ राग होता है । इस तरह दयाका पालन होता है। जो शुद्ध जल पीवे उसको सम्यग्दृष्टी व सम्यग्ज्ञानी होना चाहिये। तब ही वह अविरत सम्यग्दृष्टी होगा । मात्र पानी छानकर पीनेसे ही कोई जैनी नहीं होसकेगा, उसे आत्मानुभवी व संसार शरीर भोगों से वैरागी होना चाहिये ।
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कारणवरण
श्रावकाचार
श्रावकके छः नित्यकर्म। श्लोक-अव्रतं श्रावकं येन, पदकर्म प्रतिपालए ।
षटकर्म द्रविधश्चैव, शुद्ध अशुद्ध पश्यते ॥ ३०७ ॥ अन्वयार्थ—(अव्रतं श्रावकं येन) जो अव्रती श्रावक है उसको भी (षटकम प्रतिपालए ) छ: नित्यकर्म पालने चाहिये (षट्कम द्रविधश्चैव ) वे छः कर्म दो प्रकारसे हैं (शुद्ध अशुद्ध पश्यते) कोई शुद्ध कोई अशुद्ध दिखाई पडते हैं।
विशेषार्थ-श्रावकोंको व्रतोंका नियम न होने पर भी सम्यग्दर्शनकी दृढताके लिये तथा सम्यकचारित्रपर आरूढ होनेकी तैयारी करने के लिये नित्य छः कर्म पालने चाहिये-देव पूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप तथा दान । इनके पालनसे परिणामों में निर्मलता व आत्मभावना होती है, कषायोंकी मंदता होती है, परिणाम उदार होते हैं, जगतके मानव इन कर्माको करते हुए दिखलाई पडते हैं। कोई तो शुद्ध रीतिसे पालते हैं, कोई अशुद्ध रीतिसे पालते हैं। मिथ्यात्व सहित सर्व कर्म अशुद्ध हैं। सम्यक्त सहित सर्व कर्म शुद्ध हैं। जहांपर यह आशय या अभिप्राय है कि मुझे पुण्यका लाभ हो जिससे धन, पुत्र, राज्य, स्वर्गके भोग, देवियोंका समागम प्राप्त हो वहांपर बाहरमें यथार्थ
दीखनेवाले छ: कर्म किये हुए भी अशुद्ध कहे जाते हैं। क्योंकि अभिप्रायकी मलीनता साथमें है। ॐ जहां आशय मात्र आत्मशुद्धिका है, निर्वाणका है-वहां ये षट्कर्म शुद्ध कहे जाते हैं। क्योंकि वह ज्ञानी इन छ: कमों में भी शुद्ध आत्मीक भावकी खोज कर रहा है।
श्लोक-शुद्ध षट्कर्म जानीते, भव्यजीव रतो सदा।
अशुद्धं षट्कर्म रत, अभव्य जीवन संशयः॥ ३०८॥ अन्वयार्थ ( भव्य जीव ) भव्य जीव जो मोक्षगामी है सम्यक्ती है वह (शुद्ध षटकर्म जानीते) शुद्ध छ: काँको समझता है और (सदा रतः) निरंतर उनके पालनमें लीन रहता है (अशुद्ध षट्कर्म रत) जो 1 अशुद्ध षट्कर्ममें लीन है वह (मभव्य जीव न संशयः) अभव्य जीव है इसमें कोई संशय नहीं है।
विशेषार्थ-यहां भव्य अभव्यका स्थूलपने कथन है, सूक्ष्मदृष्टिसे कथन नहीं है। यहां सम्यक्तीको
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करणार
॥३०॥
व सम्यक्तके सन्मुखको, व्यवहार सम्यग्दृष्टीको भव्य कहा है। जिसको शुर आत्माकी बचिव आत्माके पवित्र करनेका चाव है तथा जिसको शुद्ध आत्माकी रुचि न होकर विषयोंके मोगकी रुचि है उसको अभव्य कहा है। भव्य जीव देवपूजादि छहों कार्याका यथार्थ आशय समझता है कि ये मात्र आलम्बनरूप हैं, शुभ रागरूप हैं, परन्तु उनहीके सहारेसे शुख भावका लाभ होसकेगा ऐसा जानता है इसलिये शुद्ध भावोंकी खोज करता हुआ व शुर भावोंकी तरफ हष्टि रखता हुआ वह ज्ञानी देवपूजादि छः काँको करता है तो उसे इनके भीतरसे स्वात्मानुभव होजाता है। देवपूजामें जिनेन्द्र गुणगान करते हुए जब उपयोग शुद्ध गुणोंके मननमें तन्मय होजाता है तो तुरत शुद्ध भाव जग जाता है। गुरुभक्ति करते हुए आस्मध्यानी गुरुकी संगतिसे भावोंमें आत्मध्यान जग उठता है। शास्त्र स्वाध्यायमें, मुख्यतासे अध्यात्म ग्रंथोंको पढनेसे भावोंमें आस्मानुभव झलक
जाता है। संयमका विचार करते हुए, प्रतिदिन सवेरे १७नियम लेते हुए ज्ञानीको भात्मसंयमका * भाव आजाता है। प्रतिदिन सबेरे व शाम सामायिक करते हुए साक्षात् आस्मानुभव प्राप्त कर लिया जाता है। सम्यग्दृष्टीके भावका, तीन प्रकार पात्रोंमेंसे किसीको दान देते हुए, उनकी सम्मु. खतासे रत्नत्रयमें भक्ति होते होते अभेद रतन्त्रय या स्वात्मानुभूतिमें पहुँच जाना होजाता है।
भव्य जीव पुण्यकी प्राप्तिका आशय बिलकुल नहीं रखता है। केवल शुद्धोपयोगके अभिप्रायसे इन * छ. कोको साधता है। इसी कारण उसके जितने अंश वीतरागता होती है उतने अंश मावसे बंध न होकर कर्मकी निर्जरा होती है व जितने अंश सरागता होती है उतने अंश कर्मका बंध होता है। खेद है मिथ्यादृष्टी जीव इस रहस्यको नहीं पहचानता है। वह लोभके लिये लाभ रहित देवकी भक्ति आदि करता हुआ मानो मैल लपटने के लिये मैलको जलसे धोता है, वह संसारमार्गी ही है। पुण्य बांधकर फिर देव होकर फिर एकेंद्रियादि पर्यायोंमें कलनेवाला है।
श्री पूज्यपादस्वामीने इष्टोपदेशमें कहा है
स्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं स पंकेन स्नास्यामति विलंपति ॥ १६॥
भावार्थ-जो कोई धन रहित पुरुष इसलिये धन कमावे कि धन कमाकर दान करूंगा व दानसे पुण्य बांधंगा तो वह ऐसा ही मूर्ख है जो अपने शरीरको इसलिये कीचडसे लपटे कि फिर स्नान करके रसाफ कर लूंगा। अभव्यकी क्रिया जब संसारवर्डकहैतब भव्यकी संसार छेदक है।
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श्रावर
.
श्लोक-अशुद्धं अशुचिं प्रोक्तं, अशुद्ध अशाश्वतं कृतं ।
शुद्धं मुक्तिमार्गस्य, अशुद्ध दुर्गति भाजनं ॥ ३०९ ॥ अन्वयार्थ-(अशुढं अशुचिं प्रोक्तं ) अशुद्ध षट्कर्म अपवित्र कहे गए हैं। (अशुद्ध मशाश्वतं कृतं) अशुद्ध षट्कर्म शाश्वत नहीं हैं, कल्पित हैं। (शुद्ध मुक्तिमार्गस्य ) शुद्ध षटकर्म मोक्षमार्गके साधक हैं। (अशुद्ध दुर्गतिमाननं ) अशुद्ध षट्कर्म दुर्गतिके कारण हैं।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व सहित जो षट्कोका सेवन है वह अशुद्ध है, अपवित्र है, कल्पित है। वह अनादिका सनातन मार्ग नहीं है, मनोकल्पनासे चलाया हुआ है। अशुद्ध षट्कर्मके सेवनका फल कुगतिमें भ्रमण है, जब कि शुद्ध षट्कर्म सेवनका फल परम्पराय मोक्ष है।
मिथ्यात्व दो प्रकारका है-एक अन्तरंग या अग्रहीत, दूसरा बहिरंग या ग्रहीत । अन्तरंग मिथ्यात्वके होते हुए व व्यवहार मिथ्यात्वके न होते हुए यह प्राणी कुदेवादिकी भक्ति तो नहीं करता है न कुगुरुकी सेवा करता है न कुशास्त्रोंको पढता है न अपात्रोंको दान देता है। जैनधर्मके अनुसार सर्व बाहरी चारित्र पालता है। परन्तु अन्तरंगमें शुद्धास्माकी रुचि नहीं प्राप्त हुई है, आत्मानुभव नहीं है किन्तु विषयवासना ही वर्त रही है, ऐसा प्राणी यद्यपि अतिशय रहित पुण्यका बंध कर लेता है व उससे देवादि गति पालेता है, परन्तु फिर वह एकेन्द्रियादि पर्यायों में जाकर दुःख उठाता है। उसका संसार कभी नाश नहीं होसक्ता। अन्तरंग मिथ्यादर्शन सहित व्यवहारसे योग्य षट्कर्मका साधन भी मोक्षमार्ग नहीं है। यदि शुद्धास्मानुभवकी रुचि सहित पवहार षट्कर्मका साधन करे तो मोक्षमार्ग व्यवहारनयसे कहा जासक्ता है। जिनके व्यवहारमें भी मिथ्यात्व है, जो कुदेवादिकी भक्ति करते हैं, अपात्रोंको दान देते हैं, कुशास्त्रोंको पढते हैं, हिंसास्मक क्रियाको धर्म मानते हैं, उनके तो व्यवहारमें भी अशुद्ध षट्कर्म हैं। ये पापको बांधनेवाले व दुर्गतिमें पटकनेवाले हैं।
श्लोक-अशुद्धं प्रोक्तश्चैव, देवलि देवपि जानते।
क्षेत्र अनंत हिंडते, अदेवं देव उच्यते ॥ ३१०॥ अन्वयार्थ-(अशुद्ध प्रोक्तश्चैव ) अशुद्ध देवभकि यह कही गई है जो (देवकि देवपि जानते) मंदिरमें
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वारणवरण
॥३०४॥
ही देवको जाने । जो ( अदेवं देव उच्यते) अदेवको देव कहता है वह (अनंत क्षेत्र हिंडते ) अनंत क्षेत्र परावर्तन करता है ।
विशेषार्थ - अब यहां अशुद्ध षट्कर्मका विस्तार कहते हैं। पहले देव पूजा है । "अशुद्ध देव पूजा वह है जो मंदिर में ही देव बिराजित हैं ऐसा जाने परन्तु यह न जाने कि मंदिरमें देवकी मूर्ति मात्र स्थापना रूप है, देवका स्वरूप बतानेवाली है उसमें साक्षात् देव नहीं है । साक्षात् देव तो सिद्ध भगवान मोक्ष क्षेत्र में है या अपना आत्मारूपी देव शुद्ध निश्चपनय से शुद्ध परमातम देव है । जैसे किसी बादशाहकी तसबीर मात्र इसलिये होती है कि उससे बादशाह के स्वरूपका ज्ञान हो तथा उसका आदर वह बादशाहका आदर व उसका निरादर बादशाहका निरादर समझा जाता है । कोई मूर्ख यह भले ही समझे कि चित्र में बादशाह साक्षात् है, परन्तु बुद्धिमान ऐसा कभी नहीं समझेगा । वह उसे बादशाहकी प्रतिमूर्ति मात्र समझेगा । इसी तरह भगवान की मूर्तिको साक्षात् भगवान समझना मूर्खता है । वह भगवानकी स्थापना है जिसमें भगवान के ध्यानमय रूपकी कल्पना की गई है । उस रूपके देखनेसे ध्यानमय स्वरूपकी याद आती है व उसके द्वारा की गई भक्ति भगवानकी ही भक्ति समझी जाती है । उसे कोई बुद्धिमान साक्षात् महावीर भगवान नहीं मान मक्ता, मात्र उनकी स्थापना उनके स्वरूपकी द्योतक है। जो कोई मोक्ष प्राप्त आत्माको व अपने आत्माके असली स्वभावको जो साक्षात् देव है उसको न समझकर मात्र मूर्तिको हो भगवान मानके पूजे तो उसकी मूढता ही कही जायगी । वह कभी शुद्ध तत्वपर नहीं पहुँचेगा । इसी तरह जो अदेव हैं जिनका स्वरूप पहले कहा जाचुका है। जैसे गौ, घोडा, हाथी, पीपल, वर्गत आदि, उनको देव मानकर पूजना अशुद्ध देवभक्ति है। तो मिथ्यात्वी जीव ऐसी मूढ भक्तिमें लगे हैं वे ज्ञानावरणीय कर्मका विशेष बन्ध कर अनंत दफे क्षेत्र परिवर्तन में जन्म धार धार करके मरेंगे और जीवन के कष्ट उठाएँगे ।
श्लोक - मिथ्या माया मूढदृष्टी च, अदेवं देव मानते ।
प्रपंचं येन कृतं सार्द्ध, मान्यते मिथ्यादृष्टितं ॥ ३११ ॥
अन्वयार्थ–{ मिथ्या माया मृढढष्टी च ) जा मिथ्यात्वी है, मायाचारी है, मूढ श्रद्धा सहित हैं वह
श्रावकाचार
॥२०४
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भरणवरण
रामाकर
०६॥
(मदेवं देव मान्यते) अदेवको देव मान लेता है(साबै येन प्रपंच कृतं)साथ वह प्रपंच करता है (मान्यते मिथ्याष्टितं) जो ऐसा माने यह मिथ्यादृष्टीहै।
विचार्य-जिनमें देवपना बिलकुल नहीं है ऐसे अदेवोंको जो देव मानके पूजते हैं वे वास्तव में संसारकी वासनाओंमें लिसोते हैं। उनको पदि किसीने कह दिया कि अमुक देवकी मान्यता करनेसे धन लाभ होगा, पुत्र लाभ होगा, यश लाभ होगा, जयका लाभ होगा तो वे अज्ञानी इस पातका विना विचार किये कि इनमें देवके लक्षण सर्वज्ञ वीतरागपना मिलते हैं या नहीं, लोभके वशीभूत हो चाहे जिस कुदेवको या अदेवको पूजने लग जाते हैं, उनकी यह मूढभक्ति मिथ्यास्वरूप है।मायाचार रूप यों है कि कपटसे भरी हुई है। इस मूढभक्तिके कारण उसको अनेक प्रपंच रचना पडते हैं, अनेक आडम्बर करने पड़ते हैं। इस प्रकारकी कुदेवकी या अदेवकी पूजा भक्तिसे अंतरंग मिथ्यात्व दृढ होता है। मिथ्याहष्टी ऐसी अशुद्ध देवकी भक्ति किया करता है। इससे रागदेष मोहको बडा ही लेता है, घोर पाप बांधकर दुर्गतिका पात्र होता है।
श्लोक-ग्रन्थं राग संयुक्तं, कषायं रमते सदा ।
शुद्ध तवं न जानते, ते कुगुरुं गुरु मान्यते ॥ ३१२ ॥ मिथ्या माया प्रोक्तं च, असत्यं सत्य उच्यते ।
जिनद्रोही वच लोपंते, कुगुरुं दुर्गति भाजनं ॥ ३१३॥ __ मन्वयार्थ-(रागसंयुक्तं मन्वं) राग सहित धन धान्यादि परिग्रहमें (कषाय) व क्रोधादि कषायों में जो (सदा रमते) सदा रमते हैं (शुद्ध तत्वं न जानते) वे शुद्ध आत्मीक तत्वको नहीं पहचानते हैं (ते कुगुरुं) वे कुगुरु हैं उनको (गुरु मान्यते) मिथ्या श्रद्धानी मूढबुद्धि गुरु मान लेता है। (मिथ्या माया प्रोक्तं च )
वे गुरु मिथ्यात्व व मायाचारसे पूर्ण उपदेश देते हैं। (असत्यं सत्य उच्यते ) जो असत्य है उसे सत्य १ करते हैं। (जिनद्रोही वच कोपते) वे जिनेन्द्र भगवानके मतके द्रोही हैं। तथा जिन वचनका लोप करके कथन करते हैं (कुगुरुं दुर्गतिमान) वे कुशुरू दुर्गतिके पात्र हैं।
विशेषार्ष-यहां अशुखकुगुरु भकिको बताया गया है। कुगुरुका स्वरूप पहले बहुत विस्तारसे
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तारणतरण ॥१०६॥
कहा जा चुका है। परिग्रह आरंभ रहित आत्मध्यानी वैरागी अनेकांत मनके ज्ञाता निर्बंध साधु दी सुगुरु हैं । इनके सिवाय जो परिग्रहधाते, विषयानुरागमें व मान लोभमाना कायमें अपुरक हैं, जिनको शुद्ध आत्मीक तत्वका अनुभव नहीं है न द्रव्योंका व तत्वोंका व पदार्थों का यथार्थ ज्ञान है, जो स्वयं मिथ्याती हैं व मिथ्यात्वका ही उपदेश देते हैं, जो मायाचारसे परिपूर्ण होते हुए अपना स्वार्थ साधन करते हैं, जो असत्य है, एकांत है, अवस्तु है उसे सत्य कहते हैं, जैन धर्मका भीतर से द्रोह रखते हैं, वे जिन वचनका लोप हो ऐसा उपदेश करते वीतराग विज्ञानमय धर्मको न तो वे स्वयं पालते हैं न दूसरोंको उस मार्गपर लेजाते हैं, वे कुगुरु पाषाणकी नात्र समान हैं, स्वयं संसार में डूबते व दूसरों को डुबाते हैं ।
संसार में बहुतसी रागवर्द्धक हिंसा पोषक पशुओंकी बलि आदि क्रिवाएं व मृढतासे भरा हुआ पूजा पाठ कुगुरुओंने ऐसा चला दिया है जिसके द्वारा वे द्रव्यके कमानेका उपाय कर लेते । उस द्रव्यसे मनमाने विषयसेवन करते हैं, महन्त बनकर रहते हैं, न्याय अन्याय, भक्षा अभ क्ष्यका विचार छोडकर वर्तन करते हैं, अपनेको साधु, गुरु, गुसाई व महन्त कहते हुए भी राजाओं से भी अधिक भोगविलास करते हैं, भक्तोंको नाना प्रकार लौकिक लोभ दिखाकर उनसे धन संग्रह करते हैं । जैसे वे कुगुरु राग रंगसे लिप्त हैं वैसे वे पूज्य परमात्मा ईश्वर के भीतर भी रागभावकी कल्पना कर लेते हैं । वीतराग विज्ञानमय जैन मार्गका खण्डन करते हैं । अनेकांतको संशयवाद बताते हैं । परम निस्पृही जिनदेव के वीतराग स्वरूपकी निंदा करते हैं। ऐसे कुगुरुओं की भक्ति अशुद्ध कुगुरु भक्ति है वह न करनी चाहिये । अथवा जो अपनेको जैन गुरु मानके परिग्रह रखते हैं, आरम्भ करते हैं, बाहरी व्यवहारपूजा-पाठ कराने में लीन हैं, कभी शुद्ध आत्मीक तत्वका न स्वयं मनन करते हैं न भक्तोंको उपदेश देते हैं, मात्र कथाएँ सुनाकर मनको रंजायमान करके अपनी मान्यता कराते हैं, वे भी कुगुरु ही हैं, उनकी भक्ति भी अशुद्ध गुरुभक्ति है ।
अथवा जो जैनका साधु चारित्र पालते हुए नग्न दिगम्बर रहते हुए, स्पाति लाभ पूजाकी चाह वश वर्तन करते हैं, जैन भेष होकर भी ईर्ष्या समिति नहीं पालते हैं भाषा समिति नहीं पालते हैं, उद्दिष्ट भोजन कर लेते हैं, शीत उष्ण नग्नादि परीषहोंके जीतने में कायर हैं । न स्वयं
भावाभाव
॥१०६॥
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डारणवरण ॥३०७॥
आत्माका मनन करते न दूसरोंको उपदेश देते हैं वे भी कुगुरु हैं। उनकी भक्ति भी अशुद्ध कुगुरु भक्ति है । ऐसे कुतुरुओंकी सेवा उन कुगुरुओं का भी बिगाड करनेवाली है व उनके पूजकों का भी बगाड करनेवाली है, क्योंकि यह मूढ भक्ति संसार वर्द्धक है ।
मिथ्या सामायिक |
श्लोक – अनेक पाठ पठनं च वंदना श्रुत भावना |
-
शुद्धत्व न जानते, सामायिक मिथ्या उच्यते ॥ ३१४ ॥
अन्वयार्थ - ( अनेक पाठ पठनं च ) अनेक पाठोंका पढना ( वंदना श्रुत भावना ) वंदना करनी, शास्त्र की भावना करनी । यदि (शुद्ध तत्वं न जानते ) शुद्ध आत्मकि तत्वका ज्ञान नहीं है तो यह (सामायिक मिथ्या उच्यते ) सामायिक मिथ्या कहलाती है ।
विशेषार्थ-यहां तीसरे अशुद्ध कर्म स्वाध्यायका कथन है। शास्त्र पढनेका नाम भी स्वाध्याय है तथा अपने आत्माके मननको भी स्वाध्याय कहते हैं। यहां सामायिकको भी स्वाध्यायमें गर्भित करके कहा है कि जो कोई अनेक पाठोंको पढें, शास्त्रों को पढ़ें, तीर्थकरों की बन्दना करे, स्तुति करे, प्रतिक्रमण करे, प्रत्याख्यान करे, कायोत्सर्ग करे, णमोकार मंत्र का जप करे परंतु शुद्ध आत्माका यथार्थ तत्व न जाने, न माने न अनुभव करे तो वह सभी सामायिक नहीं, अशुद्ध स्वाध्याय कर्म है । अथवा जो कोई एकांत नय पोषक व राग द्वेष वर्द्धक शास्त्रों को पढ़ें व विषय भोगोंकी इच्छा से रागवर्द्धक, एकांतपोषक पाठ पढें, व रागी द्वेष देवोंकी आराधनारूप जप करे, ध्यान करे सो भी अशुद्ध स्वाध्याय कर्म है । अशुद्ध स्वाध्याय व सामायिकका फल परिणामों में शांति व वैराग्य व आत्मानुभवकी रुचि उत्पन्न होना न होगा। किंतु कषायों की पुष्टिरूप भाव होगा जो ज्ञानावरणादि कर्मोंका तीव्र बंध करनेवाला होगा इसलिये अशुद्ध स्वाध्याय कर्म त्यागने योग्य है । श्लोक-संयमं अशुद्धं येन, हिंसा जीव विराधनं ।
संयम शुद्ध न जानते, तत्संयम मिथ्या संयमं ॥ ३९५ ॥
श्रावकाचा
॥१०७
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धरणवरण
श्रावसाचार
1३०८॥
अन्वयार्थ (येन हिंसा जीव विराधन) जिससे हिंसा हो, प्राणियोंका घात हो वह (अशुद्ध संयम) ॐ अशुद्ध संयम है (संयम शुद्ध न जानते ) अथवा जो शुद्ध आत्म-संयमको नहीं जानते (तत्संयम मिथ्या संजमं) वह संयम भी मिथ्या संयम है।
विशेषार्थ-जो संयमका नाम तो लें परन्तु असंयम पालें वह साक्षात् मिथ्या संयम है। जैसे जिन नियम प्रतोंसे इंद्रियोंका स्वाद अधिक पुष्ट हो व प्राणियोंकी अधिक हिंसा हो वह हिंसाकारक संयम अशुद्ध असंयम है, असंयम ही है। जैसे दिनको अन्न न खाकर रात्रिको स्वादिष्ट फलाहार मिठाई आदि खाना और अपनेको व्रती संयमी मानना। इससे असंयम ही हुआ क्योंकि रात्रिको खाना हिंसाकारक है, स्वादिष्ट भोजन जिह्वाकी लोलुपता पर्द्धक है। कोई यह नियम ले कि मैं अन्न न खाऊँगा, कंदमूल खाऊँगा । इसमें संयम अशुद्ध ही हुआ क्योंकि कंदमलके खाने में अधिक हिंसा हुई। अन्नमें उतनी न होती। जहां मन व इंद्रिय वशमें रहें वहीं संयम होसक्ता है। जहां इन्द्रियोंका पोषण हो वह अशुद्ध संयम ही है।
अथवा कोई जैन शास्त्रानुसार श्रावकका बाहरी संयम पाले, रात्रिको अन्न न खावे, कंदमल 5 न खावे, रस चलित न खावे, रस त्यागे, उपवास करे, नित्य १७ नियमका विचार करे, अनेक प्रका.
रकी प्रतिज्ञाएँ पालें । परन्तु निश्चय संयम जो आस्माकी सामायिक है उसको न पहचाने, मन व इंद्रियोंके अगोचर जो आत्माराम है उसके अनुभवमें लीन न हो, आत्मानन्द रसका पान न करें तो वह संयम भी मिथ्या संयम है। केवल कुछ पुण्यकर्म बंधका कारण है, मोक्षका मार्ग नहीं। अशुद्ध संयमसे श्रावकको बचना योग्य है।
श्लोक-अशुद्धं तप तप्तं च, तीव्र उपसर्ग सहं ।
शुद्धतत्वं न पश्यंते, मिथ्या माया तपं कृतं ॥ ३१६ ॥ अन्वयार्थ-(अशुद्धं तप तप्तं च) जो अशुषको तपते हैं (तीव उपसर्ग सह) व कठिन कठिन शरीरके कष्टोंको सहन करते हैं परन्तु (शुद्धतत्वं न पश्यते ) शुर आत्मतत्वका अनुभव नहीं करते हैं वे (मिथ्या माया तपं कुर्व) मिथ्यात्व व मायाचारमय तप करते हैं।
विपार्व-अशुद्ध तप वह है जहां शुद्ध तत्वका ज्ञान व अनुभव न हो किन्तु नानाप्रकार
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RECEGEGEKAGEGRECENTRACKAGEGREEKKERAGAR
शरीरको कष्ट दिया जाये, क्षुधा तृषा दंश मशकादिका परीषद तथा देव, मनुष्य, पशु अचेतन
श्रावकार कृत उपसर्ग सहन किये जाये। जो कोई जैन शास्त्रों के अनुसार अनशन, ऊनोदर आदिवारहप्रकार * तप करे, नग्न रहे, शास्त्रोक्त शुद्ध आहार ग्रहण करे, कोई क्रिया शाखाके विरुद्ध न हो परंतु यदि आत्मीक ध्यान अग्निमें तपनरूप तप न हो तो वह अशुद्धही मिथ्या तप है। समयसारमें कहा है
बदणियम्माणपरन्ता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता । परमवाहिरा भेण तेण ते होंति अण्णाणी ॥१६॥
भावार्थ-जो व्रत, नियम धारण करे, शील पाले तथा तप करे परंतु शुद्धास्माके अनुभव करून परमार्थसे शून्य हो तो वह अज्ञानी ही है। सम्यक्त रहित द्रव्यलिंगी मुनिका तप अशुद्ध तप है। इसी तरह कोई श्रावक बत उपवास करे रस छोडे, कठिन २ तप करे, परंतु सम्यग्दर्शन रहित होतो उसका सब तप मिथ्या तप है। यदि कोई बाहरसे भी मिथ्या तप पाले, पंचाग्नि तपे, भस्म रमावे, काष्ट जलावे, शरीर शोखे, वनफल खावे, एक हाथ ऊँचा करे, खडा रहे, अल्पाहार करे तो वह भी मिथ्या तप है अथवा कोई परको वश करनेके लिये नानाप्रकार तप करके अपना महत्व दिखावे वह भी मिथ्या व मायाचार सहित तप है। गृहस्थीका भी वह तप जो शरीर-कष्टरूप है, हिंधारूप है व किसी मायाचारके अभिमायको लिये हुए है वह सब मिथ्या तप है।
श्लोक-दानं अशुद्ध दानं च, कुपात्रं दिति सर्वदा।
वतभंगं कृतं मूढा, दानं संसारकारणं ॥ ३१७॥ मन्वयार्थ-(कुपात्रं विति सर्वदा दानं च ) अपात्रोंको निरन्तर दिया हुआ दान (अशुद्ध दानं) अशुद्ध दान कर्म है (व्रतमंग कृतं मूढा) इससे मिथ्यादृष्टी मूढ पुरुषाका सम्पदर्शनका व्रत भी भंग होजाता है (दान) ऐसा दान संसारका कारण है।
विशेषार्थ-अशुद्ध दान भी दो प्रकार है-एक तोसम्यग्दर्शन रहित कुपात्रोंको दिया हुआ दान र यह भी संसार मूलक है, पुण्य वांधकर कुभोग भूमिमें जन्म कराता है। फिर भवनत्रिकादिमें फिर
अन्य जन्ममें संसारका भ्रमण करानेवाला है। जिनका बाहरी चारित्र ठीक है शास्त्रोक है परन्तु * अन्तरंगमें सम्यग्दर्शन अर्थात् आत्मानुभव नहीं है वे कुपात्र हैं, यह भी सम्यक्त रहित दान होनेसे ४
अशुद्ध दान है । दूसरा अशुद्ध दान वह है जो उनको दिया जाता है जो अपात्र हैं, जो बाहरी
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बारणवरण
चारित्र जिन शास्त्रसे विकर पालते हैं। जो एकांत व मिथ्या मतके पोषक हैं। जिनको दान देनेसे मिथ्यामतकी सराहना होती है वह बिलकुल मिथ्या दान है व पापका बंध करनेवाला है। गृहस्थ
श्रावकको उचित है कि अपात्रोंको भक्तिपूर्वक दान न करें। दान करुणाभावसे हरएकको किया र जासक्ता है, उसमें भक्तिकी जरूरत नहीं है। जिस दानमें सम्यक्तकी प्रतिष्ठा ही वही शुद्ध दान है * यह पहले बता चुके हैं । अपात्र दान संसार भ्रमणका ही कारण है।
श्लोक—ये षट्कर्म पालंते, मिथ्या अज्ञान दिष्टते ।।
ते नरा मिथ्यादृष्टी च, संसारे भ्रमनं सदा ॥३१८॥ मन्वयार्थ-(ये षट्कर्म पालंते) जो कोई इन अशुद्ध छ: कोको पालते हैं (मिथ्या अज्ञान विष्टते) उनमें मिथ्यात्व व अज्ञान दिखलाई पडता है (ते नरा मिथ्यादृष्टी च) वे मानव मिथ्यादृष्टो ही हैं (संसारे भ्रमणं सदा) उनका सदा इस संसारमें भ्रमण रहेगा।
विशेषार्थ-जो कोई कुदेव पूजा करते हैं, कुगुरु सेवा करते हैं, मिथ्यात्व वर्द्धक शास्त्रोंका पठन करते हैं, हिंसाकारक संयम पालते हैं, कायक्लेशादि तप आत्मज्ञान रहित करते हैं तथा अपात्रोंको दान देते हैं इस तरह जो कोई इन छः गृहस्थोंके अशुद्ध षटकर्म पालते हैं वे मिथ्या ज्ञानी व मिथ्या अडानी हैं। ऐसा मिथ्यादृष्टी मानव मिथ्या धर्मका पुरुषार्थ करते हुए मिथ्या फल ही पाते हैं। पाप ही बांधते हैं व दुर्गतिमें जाकर कष्ट पाते हैं। जिन गृहस्थोंको अपना आत्महित करना हो उनको विवेकपूर्वक पहचानना चाहिये कि कौन देव सचा है, कौन गुरु सच्चा है, तथा कौन धर्म सच्चा है। फिर उनकी ही भक्तिमें रहकर उनकी आज्ञा पालन करना चाहिये । यह भलेप्रकार समझना चाहिये कि रागदेष मोह संसार है व वीतरागमय आत्मज्ञान ही मोक्ष या मोक्षका उपाय है। यह प्राणी
कषायोंके कारण जगत में अनादिकालसे भ्रमण कर रहा है। जब जहां कषायोंकी पुष्टिको धर्म पोषा ४ जावे तो वह उल्टा अधर्म सेवन ही है, धर्म नहीं होसका है। जहां शुद्धास्म लाभपर दृष्टि है वह तो४
पथार्थ धर्म है। जहां सांसारिक सुख प्राप्तिकी भावना है वहीं अधर्म है। गृहस्थ श्रावकको बहुत विचारपूर्वक अपना श्रद्धान निर्मल करना चाहिये और सच्ची श्रद्धा सहित धर्माचरण करना चाहिये। अमितगति श्रावकाचारमें कहा है
॥१०
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श्रावकाचा
मिथ्यात्वदूषणमपास्य विचित्रदोष, संरूढसंमृतिवधूपरितोषकारि । अरणवरण ४
सम्यक्तरत्नममल हृदि यो विधत्ते, मुक्त्यंगनामितगतिस्तमुपैति सद्यः ॥९८-१॥ ॥३१॥
मावार्थ-पढती हुई संसार वधुके संतोष देनेवाले नानाप्रकार दोषसे पूर्ण मिथ्यात्वके दोषको छ दूर करके जो निर्मल सम्यग्दर्शनरूपी रस हृदय में धरते हैं वे अनंतज्ञान सहित मुक्ति स्त्रीको शीघ्र ही पाते हैं।
श्लोक ये षट्कर्म जानते, अनेय विभ्रम कृते ।
__ मिथ्यात्व गरुवे संते, दुर्गतिभाजन ते नरा ॥ ३१९ ॥ अन्वयार्थ (ये) जो कोई (अनेय विभ्रम रुते ) अनेक प्रकार मिथ्याभावको करनेवाले (षट्कर्म ) छ: * अशुद्ध कौंको (जानते) जानते हैं (ते नरा) वे मानव (मिथ्यात्त्व गरुवे सते) मिथ्यादर्शनसे भारी होते हुए (दुर्गतिभाजन ) दुर्गतिके पात्र होते हैं।
विशेषार्थ-जिनको शुद्ध देवपूजादि षट्कर्मका न ज्ञान है न अडान है न उसका आचरण है वे अशुद्ध षटकर्मको ही करने योग्य कर्म मान लेते हैं। अनेक प्रकारके मिथ्या भावों में पड़े हुए अनेक प्रकारके कुदेवोंकी व अदेवोंकी भक्ति करते हैं, कुगुरुओंकी सेवा करते हैं, रागद्वेष मोहवर्डक ग्रंथोंको पढते हैं, असंयम व हिंसाको संयम मान लेते हैं, मात्र कायक्लेशको तप ठान लेते हैं, अपात्रोंको दान देकर संतोष मान लेते हैं ऐसे अशुद्ध षट्कर्मके सेवनेवालोंके परिणामोंमें कषायोंके पोखनेका ही भीतरी अभिप्राय रहता है । या तो वे पुत्र व सम्पत्तिके लोभसे या स्वर्गादि सुखोंके लोभसे षट्कर्म करते हैं या अपनी मान बडाई पुष्ट करनेको या किसी तरहके कपट भावसे करते रहते हैं।
जैसा अभिप्राय होता है वैसा ही फल होता है। कषाय पुष्टिका अभिप्राय संसारका ही बढानेवाला न है। घे दुर्गतिमें रुलते हुए जन्म-मरणके महान कष्ट पाते हैं। जहां आत्माकी शुडिके प्रयोजनसे
देव पूजादि षट्कर्म किये जाते हैं वहीं मोक्षमार्गका उपाय होरहा है, ऐसा कहा जायगा। रामदेष मोह संसार है, जहां इनकी पुष्टि है वहां संसारकी पुष्टि है।
॥२९॥
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श्रावकार
॥३१॥
शुद्ध षट्कर्म विचार। श्लोक-पद्कर्म शुद्ध उक्तं च, शुद्ध समय शुद्धं ध्रुवं ।
जिनोतं षट्कर्मस्य, केवलि दृष्ट जिनागमे ।। ३२०॥ अन्वयार्थ (शुद्ध षटकर्म उकं च) अब शुद्ध षद्कोको कहा जाता है, जहा अभिप्राय (शुद्ध शुद्ध ध्रुवं समय) रागादि भावोंसे शुन्य तथा ज्ञानावरणादिसे शून्य निश्चल शुद्धात्माका लाभ है वे ही शुद्ध षट्कर्म हैं। (मिनोक्तं षट्कर्मस्य ) ये जिनेन्द्र भगवानके कहे हुए षट्कर्म (केवली दृष्ट निनागमे) केवलीकी परम्परासे जिनागममें प्रमाणिक कहे गए हैं।
विशेषार्य-शुद्ध षट्कर्म ही हैं जहां आस्माकी शुद्धताका अभिप्राय हो। देवपूजादि हरएक कार्यको करते हुए भावना परिणामोंकी शुद्धि की हो, शुद्धोपयोगकी प्राप्ति हो, अन्य कोई सासारिक प्रयोजन जहां न हो। सम्यग्दृष्टी ज्ञानी जीवको यह निश्चय होगया है कि उसका आस्मा
वास्तवमें शुद्ध है, मात्र कर्म-कलंकसे मलीन होरहा है। इस कर्म-मैलके धोनेका उपाय निश्चय रनत्रय ॐ धर्म ही यथार्थ है जहां शुद्धात्माका अडान, ज्ञान व चारित्र है-जिसको आत्मानुभव कहते हैं। इसीसे कौका मैल कटता है। श्री जिनेन्द्र भगवानकी कही हुई वे ही छ: क्रियाएं यथार्थ हैं जो शुद्धास्माकी तरफ लेजावें। जिन आगम परम पूज्य ऋषियोंके द्वारा निर्मापित है जिनका मूल श्रोत तीर्थकर भगवानका उपदेश है, उस जिनवाणी में जिन शुद्ध षट्कोंके पालनेकी आज्ञा है उन्हें ही हरएक अरावानको पालना चाहिये। उनमें यही अभिप्राय है कि रागदेष मोह जो बंधके कारण
भाव हैं उनको दूर किया जावे और वीतराग विज्ञानमय शुद्ध आत्मीक भावको झलकाया जावे, * जहां रश्च मात्र भी सांसारिक सुखकी भावना न हो। ख्याति लाभ पूजादिकी चाह न हो वहीं शुरषद्कर्म है। पमनंदि मुनिने प्रावकाचारमें रत्नत्रयको मोक्षमार्ग कहकर शुरषद्कर्म बताएहैं
सम्यग्टग्नोपचारित्रत्रितयं धर्म उच्यते । मुक्तः पंथा स एव स्यात्पमाणपरिनष्ठितः ॥६-१॥
देवपूना गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । वानश्चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥१-७॥ भावार्य-प्रमाण निश्चय किया गया सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ही धर्म कहा गया है, यही
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कारणवरण
४३१२।।
TETE
मोक्षमार्ग है इसीलिये गृहस्थोंको नित्य प्रति देव पूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छ कमको नित्य करना चाहिये ।
श्लोक - देवं देवाधिदेवं च, गुरु ग्रंथ मुक्कं सदा ।
स्वाध्याय शुद्ध ध्यायंते, संयमं संयमं श्रुतं ॥ ३२१ ॥ तपश्व अप्पसद् भावं, दानं पात्रं च चिंतनं । षट् कर्म जिन प्रोक्तं, सार्धं शुद्ध दृष्टितं ॥ ३२२ ॥
मन्वयार्थे—(देवाधिदेवं च देवं ) इन्द्रादि देवों करके पूज्यनीय वीतराग भगवानको देव मानके पूजे (सदा ग्रंथ मुक्तं गुरु ) सदा ही परिग्रह रहित हो गुरु माने ( शुद्ध स्वाध्याय ध्यायंते ) शुद्ध आत्माका मनन रूपी स्वाध्यायको ध्यावे ( संयमं सयमं श्रुतं ) शास्त्र के कहे प्रमाण मन व इंद्रिय विरोध करके प्रतिज्ञा ले सो संयम है (तपश्य अप्प सद भावं ) आत्माके स्वभावमें तपना सो ही तप है ( दानं पात्रं च चिंतनं ) पात्रों को दान देनेका चितवन करना दान है (जिनप्रोक्तं षट् कर्म ) यह जिनेन्द्र कथित छः कर्म हैं (शुद्ध दृष्टितं सार्धं ) इन सबके साथ शुद्ध सम्यग्दर्शन होना उचित है ।
विशेषार्थ – इन दो श्लोकों में छहों कर्मको बता दिया है जो शुद्ध षट्कर्म है। जहां शुद्धात्माकी ओर दृष्टि हो, आत्मानुभवकी तरफ प्रेम हो । जहाँ सच्चा सम्यग्दर्शन हो वहीं ही शुद्ध षट्कर्म होते हैं । वीतराग सर्वज्ञ अरहंत और सिद्धकी निरंतर भक्ति करें, जिनको सर्व ही मुनिगण, इन्द्रगण आदि नमन करते हैं । इनकी भक्तिके द्वारा शुद्धात्माका मनन करता रहे, तब ही यह शुद्ध देवपूजा कर्म है । रागद्वेषादि अन्तरंग १४ प्रकार व क्षेत्र धनादि १० प्रकार बाह्य इन २४ प्रकारके परिग्रहसे रहित परम जितेन्द्रिय-सौम्यदृष्टि यथाजात नग्नरूप सहित, आत्मध्वानी ही जैन गुरु हैं । उनको गुरु मानके उनकी सेवा करके उनसे ज्ञानका लाभ लेवे यह शुद्ध गुरुभक्ति है । अनेक प्रका रके शास्त्रोंको पढता हुआ व शुद्धात्मा के मनन करानेवाले ग्रन्थोंको विशेष रूप से पढके आत्माका मनन करना स्वाध्याय है । शुद्धात्माकी दृष्टिकी मुख्यता जिस पठनपाठन में है वही शुद्ध स्वाध्याय | आत्मा के ध्यानके हेतु मनकी एकाग्रता प्राप्त करनेको जो जो भोग उपभोग बाधक हैं उनको
Yo
।। ११२*
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श्रावर
२१॥
ॐ त्याग करेंश उपभोगने शेग्य पदार्थ का मित्य संदेरे प्रमाण करके व उसी तरह चले सो शुद्ध 2. संयम है। अनशन ऊनो र रस त्याग आदि बाहरी तपोंको यथाशक्ति करता हुभा सवेरे सांझ
दो दफ कुछ दे एकांत में धैरकर अपन शुद्ध आत्माके स्वभा में नन्मय होनप करे, सो शुद्ध तप है। उत्तम, मम, घीन प्रकार पात्रों में से जो मिल मके, उनको भकपूर्वक दान देनेका विचार करके शुद्ध अ हराम औषधिज्ञान, अभयदान व ज्ञानदान देना सो शुद्ध पात्रदान है। इस तरह शुद्ध टूकमा को जिनेन्द्र भवा-ने कहा है। इनके साथ शुद्ध सम्यग्दर्शन का होना अत्यन आवश्यक है। ग्यत महिल ये षट्कर्म गृहस्थ श्रायकको परम्परासे मोक्षके कारण हैं। व उनी भवसे स्वर्ग गलिके दनवाले हैं। शुद्धात्माकी भावना सहित्व ही जैनके षद्कम एक जिन भक्त के लिय आवश्यक है इससे परम कल्याण है।
पांच परमेहीका स्वरूप । श्लोक-देवं च जिन उक्तं च, ज्ञान मय अप्प सद भावं ।
अनंत चतुष्टय जुत्तं, चौदस प्राण संजुदो ॥ ३२३ ॥ अन्वयार्थ-(देव च उतं च जिन) देव उसको कहा है जो जिन हों (ज्ञान मय अप्प सद् भावं) ज्ञान मय आस्माके स्वभावमें लीन हो ( अनंत चतुष्टय जुत्त ) अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख व अनंत वीर्य इन चार चतुष्टय सहित हों तथा (चौदस प्राण संजुदो) चार प्राण या दसप्राण सहित हों।
विशेषार्थ-यहां अरहंत परमात्माको पूज्यनीय आप्त देव कहा है। जो चार घातिया कोके व रागादिके जीतनेवाले जिन हों,जो निरंतर आत्माके रस में तन्मय हो, जिनको अनंत ज्ञानादि चतुष्टय प्राप्त हो, जिनमें कोई प्रकारका अज्ञान व मोह न हो, जो शरीर सहित रहते हुए-इंद्रिय, बल,
आयु व श्वासोच्छाम इन चार प्राणोंको धारते हैं या इनके भेदरूप दस प्राणों को धारते हैं अर्थात् १. पांच इंद्रिय, तीन शरीरादि यल, आयु व शासोच्छास ये १० प्राण जिनमें हों वे ही अरहंत देव
हैं। यद्यपि ये १० बाहरी प्राण अरहंत भगवान में होते हैं तथापिइनमेंसे कर्मके उदयसे शरीर व वचन
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वारणतरण
४ श्रावकाचार
बल तो काम करता है। मनमें द्रव्य मन में हलन चलन होता है क्योंकि मनोवर्गणा भी उनके आती है। पांच इंद्रियोंसे काम नहीं लेते क्योंकि मतिज्ञान उनके नहीं रहा। इंद्रियोंके आकार है परंतु वे कुछ काम नहीं आते हैं। आयु कम समय समय खिरता है। मंद मंद श्वास आता है। इस तरह शरीर सहित परमात्माको पूज्यदेव मानके भलेप्रकार पूजा व भाक्त करनी योग्य है। उनके गुणोंमें एकाग्र होना योग्य है। पद्मनंदी मुनिनै श्रावकाचारमें कहा है
ये जिनेन्द्रं न पश्यंति पूनमन्ति स्तुवन्ति न । निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम् ॥ १५॥
भावार्थ-जो जिनेन्द्रका दर्शन, पूजन, स्तवन, नहीं करते हैं उनका जीवन निष्फल है, उनके गृहाश्रमको धिक्कार है।
श्लोक-देवो परमेडि मइओ, लोकालोकं विलोकितं ।
परमप्पा ज्ञानमइओ, तं अप्पा देह मझमि ॥ ३२४ ॥ अन्वयार्थ—(परमेट्ठि महओ देवो) परम पदमें तिष्टनेवाला देव सिद्ध है (लोकालोकं विलोकित) जिसने लोकालोकको देख लिया है जो (ज्ञान मइओ) ज्ञानमई (परमप्पा) परमात्मा है (देह मज्झमि त अप्पा) इस देहके मध्यम वही आत्मा है।
विशेषार्थ-इसके पहले श्लोकमें अरहंत देवका स्वरूप कहा है वहां सिद्ध परमात्माका स्वरूप कहते हैं। सिद्ध भगवान सर्वोत्कृष्ट पदमें विराजित हैं आठ कर्म रहित होनेसे अशरीर परमात्मा हैं ज्ञानाकार हैं व जिनके ज्ञानमें लोकालोक दर्पणमें प्रतिबिम्बकी तरह झलक रहा है। वे सर्व रागादि दोष, आठ कर्म मल व शरीरादिसे रहित केवल आत्मा ही मात्र हैं। जैसा सिद्धका स्फटिकमाणिमय निर्मल स्वरूप है वैसा ही इस शरीरके भीतर जो आत्मा है उसका निश्चयनयसे स्वरूप है अर्थात् जब द्रव्यकी दृष्टिसे देखा जावे तो अपने शरीरके भीतर यह आत्मा भी आत्मारूप सिद्ध सम कर्मबंध रहित दिखलाई पडता है। इस आत्मा और परमात्मामें कोई अंतर नहीं है।दोनोंके गुण स्वभाव समान है। मात्र प्रदेशोंकी अपेक्षा भिन्नता है। यद्यपि प्रदेशोंकी संख्या भी असंख्यात प्रदेशी समान है। वास्तवमें जो अपने आत्माको भेद विज्ञानके द्वारा सर्व अनात्मासे
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निराला व सर्व कर्मजनित विकारी भावोंसे भिन्न अनुभव करेगा वही सिद्ध परमात्माको पहचाना सकेगा। योगसारमें योगेन्द्राचार्य कहते हैं
जो परमप्पा सो जि हउं मो हउ सो परमप्पु । इउ नाणेविणु जोइआ अण्ण म करहु वियप्पु ॥ ११॥
भावार्थ-जो परमात्मा है वैसा ही मैं हूँ और जैसा मैं वैसा परमात्मा है। हे योगी! ऐसा जानकर अनुभव कर और विकल्प न कर । सोहं शब्द इसी भावको झलकाता है। सोहं द्वारा अपने आत्माकी पूजा वही निश्चयसे सिद्ध पूजा है।
श्लोक-देहह देवलि देवं च, उवइटो जिन वरि देहं ।
परमेष्ठी संजुत्तं, पूजं च शुद्ध सम्यक्तं ।। ३२५॥ अन्वयार्थ-(देहह देवलि) शरीररूपी मंदिर में (देवं च) आत्मारूपी देव है ऐसा (निन वरिं देहिं उवट्ठो) जिनेन्द्रोंने कहा है (परमेष्ठी संजु ) वही सिद्ध परमेष्ठीके गुणों सहित है ( पूनं च शुद्ध सम्यक्त) उसकी भक्ति पूजा ही शुद्ध सम्यग्दर्शन है।
विशेषार्थ-शरीरके भीतर यदि शुद्ध द्रव्यदृष्टिसे देखा जावे तो आत्मा आत्मारूप सिख सम शुद्ध विराजमान है, उसको जब परमात्मा सम देखा जाता है तो वही पूज्यनीय देव दिखलाई पडता है। तब उस देवके तिष्ठनेका मंदिर अपना शरीर ही हुआ। अतएव निश्चल मनके द्वारा अपने शरीरको देवस्थान मानो और अपने आत्माको परमात्मा मानो और उपयोगको थिर करो अर्थात् उसकी पूजा करो, उसीका एकाग्रतासे अनुभव करो। अपने ही आत्माका स्वसंवेदन ज्ञानके द्वारा अनुभव करना यही शुद्ध सम्यग्दर्शनका अनुभव है व यही सिद्ध पूजा है व यही देव पूजा है। पं० थानतराय कह गए हैं-"निज घटमें परमात्मा, चिन्मूरति भइया, ताहि विलोकि सुदृष्टि घर पंडित परखैय्या।" जो शुद्धात्मानुभवी ही सचे निज आत्मादेवके आराधक हैं, वे ही यथार्थ उपासक हैं। व्यवहार नपसे सिद्ध का स्तवन व पूजन भी इसी हेतुसे किया जाता है कि निज भास्मामें परिणति धमे । जब उपयोग सर्व विकल्पोंको तजकर आत्मस्थ होता है तब ही सच्ची देव. पूजा पा सिद्धपूजा है। यही वास्तविक मोक्षमार्ग है। योगसारमें कहा है
नो मप्या मुद्ध वि मुणइ भमुहसरीरविभिण्णु । सो नाम सच्छह सयल सासयसुक्खहीण ॥९॥
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कारणवरण
श्रावकर
१३१७॥
भावार्थ-जो कोई अपवित्र शरीरसे भिन्न अपने आत्माको शुद्ध अनुभव करता है वह V अविनाशी आनन्दमें लीन होता हुआ सर्व शास्त्रोंको जानता है। जिमवाणीका सार मात्र एक समयसार रूप परिणाम है। ___ श्लोक-देवं गुरुं विशुद्धं, अरहन्तं सिद्ध आचार्य ।
उवझायं साधु गुणं, पंच गुणं पंच परमेडी ॥ ३२६ ॥ अन्वयार्थ-(विशुद्ध देवं गुरुं) वीतराग देव व वीतरागी गुरु (अरहंत सिद्ध आचार्य, उवझायं साधु गुणं) १ अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु गुणवान हैं (पंचगुणं ) ये पांच गुणी आत्माएँ (पंच परमेट्ठी) पांच परमेष्ठी कहलाती हैं।
विशेषार्थ—जैनों में ३५ अक्षरी णमोकार मंत्र प्रसिद्ध है उसमें इस लोकमें सर्व अरहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय तथा साधुको भाव पूर्वक नमस्कार किया गया है। वही भाव यहांपर भी बताया है कि जगतमें जितने महान पद हैं उन सबमें श्रेष्ठ शुद्ध गुणोंके धारी ये पांच ही परम पद हैं उनमें अरईस सिद्ध तो वीतराग देव हैं तथा शेष तीन आचार्य, उपाध्याय और साधु परम गुरु हैं। इनकी हर भक्ति परम पदकी परम्पराका कारण है।
इनके इस क्रमसे करनका प्रयोग यह है कि जिनसे साक्षात् विशेष उपकार होता है उनका नाम पहले लिया गया है। परमात्माको पहले नमन करना चाहिये फिर अंतरात्माको, इस हेतु अरहंत सिद्ध परमात्माको नमन करके फिर तीन अंतरात्माको नमन किया है। यद्यपि सिद्ध भगवान आठों कर्म रहित महान हैं उनको पहले नमन करना चाहिये तथापि जगत जीवोंका उपकार उनकी अपेक्षा अरहंत परमात्मासे विशेष होता है, अरहंत दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेश करते हैं क्योंकि वे शरीर सहित हैं सिडके शरीर न होनेसे उपदेशकपनेका अभाव है, अरहंत हीकी वाणीसे सिद्धोंका ज्ञान होता है ऐसा उपकार विचारकर पहले अरइंतोंको फिर सिद्धोंको नमस्कार किया गया है क्योंकि आचार्यादि तीनों अंतरात्मा भी अरहत सिद्धकी भक्ति करके ही अपनी उन्नति करते हैं इसलिये अरहंत सिडके पीछे ही उनको नमन किया गया है, उन तीन अंतरात्माओंमेंसे सर्वोचपदधारी व सबसे अधिक उपकारक आचार्य हैं जो संघके नायक, दीक्षा शिक्षा दाता, संरक्षक
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প্রাণ व सचालक होते हैं इसलिये उनको पहले नमन करके फिर उपाध्यायको नमन किया है, जो श्रापर
आचार्यकी आज्ञानुसार शास्त्रोंकी शिक्षा देनेका काम मुख्यतासे करते हैं। साधुगण मात्र साधन करनेवाले हैं। साधुओंसे अधिक उपकारी उपाध्याय हैं, इसलिये अंतमें साधुओंको नमन किया
गया है। इन सबमें रत्नत्रयके आतित्वकी प्रधानता है। रत्नत्रयकी पूर्णताके निकट अरहंत हैं,सिद्धोंके ४ रत्नत्रयकी पूर्णता है। शेष तीनों रस्लत्रयके अभ्यासी हैं, निश्चय रत्नश्रयरूप निर्विकल्प समाधि व
आत्मानुभवकी प्रधानताले ही ये सर्व तीन लोकके प्राणियोंसे उच्च हैं, परम पदधारी है, अतएव इंद्रादि देवोंसे नमन योग्य हैं-भवनवासी देवोंके ४०, व्यन्तर देवोंके १२, ज्योतिषियोंके चन्द्र व सूर्य, कल्पवासी देवोंके २४, चक्रवर्ती राजा व अष्टापद पशु इस तरह १००इन्द्र जिन चरणोंको पुन: पुन: नमन करते हैं इसलिये ही वे परमेष्ठी हैं।
श्लोक-अरहंतं ह्वियं कारं, ज्ञानमय त्रिभुवनस्य ।
नंत चतुष्टय सहिओ, ह्रींकारं जाण अरहंतं ॥ ३२७॥ मन्वयार्थ-(अरहत) प्रजने योग्य (हियं कारं ) ही मंत्रमें चौवीस तीर्थकर गर्भित हैं जो (त्रिभुवनस्य र ज्ञानमयं ) तीनलोकके पदाथोंका ज्ञाता हैं ( अनंत चतुष्टय सहिमो) और अनंत चतुष्टय सहित हैं इसलिये ४ (हींकारं जाण अरहंतं ) ही में अरहंतोंको गभित जानना चाहिये।
विशेषार्थ-हीं में हच र अक्षरोंकी प्रधानतासे र सेरह से ४ इसलिये बांई तरफसे जोडनेसे २४ तीर्थंकरोंका बोध होता है। परमोपकारी धर्मोपदेशक व धर्म प्रचारक होनेके कारण भरत व ऐरावत क्षेत्रमें हरएक अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी कालकी किरणमें चौवीस चौवीस तीर्थकर होते
रहते हैं। जब धर्मका लोपसा व धर्ममें अंधकारसा छा जाता है तब एक दूसरेके बहु काल पीछे ७ तीर्थकर होते हैं जो जीवन पर्यंत धर्मबोध देते हुए विहार करते हैं। जिनके समवसरणमें बारह
प्रकारकी सभाएं होती है जिनमें प्रत्येक में अलग २ भवनवासीकी देवी, व्यंतरोंकी देवी, ज्योतिषि१ चोंकी देवी, स्वर्गवासी देवोंकी देवी, भवनवासी देव, व्यंतर देव, ज्योतिषी देव, स्वर्गवासी देव,४
मुनिगण, आर्थिकागण, मानव तथा पशु विराजते हैं जिनका उपदेश हरएक मानव व सैनी पंचे. द्रिय पशु व हर प्रकारका देव सुन सक्का है, जहां किसीको जानेकी रुकावट नहीं है। जो तीर्थकर
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सबेरे, दोपहर, सांझ व मध्यरात्रि इस तरह २४ घंटे में चार दफे प्रत्येकमें छः छः घडी पर्यंत धर्मोपपाहणवरण देश लगातार देते हैं। विशेष पुरुषके प्रश्नवश अन्य समय में भी उपदेश प्रदान करते हैं, जिनकी छ
श्रावकार १३१९॥ वाणीको सुनकर अनेक गृहस्थ मुनि, अनेक श्रावक व्रतधारी, अनेक देव, मानव, पशु सम्यग्दृष्टी
होजाते हैं, सुखशांतिका परम लाभ कर लेते हैं। जो स्वयं अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, व अनंत वीर्यके धनी हैं ऐसे अरहंतों के स्वरूपका चितवन व मनन ही मंत्र द्वारा करना.योग्य है।
श्लोक-सिद्धं सिद्ध ध्रुवं चिंते, ॐ वंकारं च विंदते।
मुक्तिं च ऊर्द्ध सद्भावं, ऊद्ध च शाश्वतं पदं ॥ ३२८॥ अन्वयार्थ (सिद्ध सिद्ध ध्रुवं चिते) सिद्ध भगवानको ऐसा विचारे कि वे सिद्ध ध्रव हैं (ॐवंकारं च विंदते) ॐ शब्दसे जिनका अनुभव होता है (मुक्तिं च ऊद्धं समावं ) जो मुक्तिमें तीन लोकके ऊपर अग्रभागमें तिष्ठे हैं (ऊई च शाश्वतं पदं) जो श्रेष्ठ अविनाशी पदके धारी हैं।
विशेषार्थ-यहां सिद्ध भगवान के स्वरूपको झलकाया है कि वे सिख हैं क्योंकि उन्होंने जो साधन योग्य कार्य आत्माकी शुद्धि करनेका था उसको साध लिया है, उनको अब कुछ करना नहीं रहा, ये कृतकृत्य होगए हैं तथा वे ध्रुव हैं अब उनकी स्वाभाविक अवस्था कभी वैभाविकरूपन होगी। वे कभी भी संसारी न होंगे, उनका कभी आवागमन न होगा। वे निश्चल अपने
प्रदेशों में भी पुरुषाकार जैसे मोक्ष जाते समय शरीरमें थे वैसे विराजमान रहते हैं इसलिये • ध्रुव हैं, यद्यपि द्रव्यके स्वरूपकी अपेक्षा उनमें भी स्वाभाविक परिणमन अगुरुलघु नामा गुणके द्वारा जल में सूक्ष्म कल्लोलवत् प्रति समय हुआ करता है परंतु वह सदृश स्वाभाविक परिणमन कोई मलीनता पैदा नहीं करता है। स्वभावकी ध्रुवताको नहीं मिटाता है इसलिये सिद्ध भगवान ध्रुर हैं। ॐ शद द्वारा जिनका ध्यान किया जाता है। यद्यपि ॐ में पांचों परमेष्ठी गर्मित हैं तथापि शुद्ध निश्चय न्यसे उनमें शुद्ध आत्मा स्वरूपके झरकानेकी प्रधानता है इसलिये ध्यातागण ॐ के भौहोंके बीच, हृदयकमल व मस्तक आदिपर चमजता हुआ विराजमान करके उसपर चित्तको रोककर फिर सिद्ध स्वरूपमें चले जाते हैं। व सिद्ध भगवान लोकके अग्रभाग तनु वातवलयमें सबसे ऊपर सिद्धक्षेत्र विनमान हैं। उनका पद सबसे ऊंचा
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धारणतरण
॥३२०॥
इस अपेक्षासे है कि वह अविनाशी पद है। अरहंत आदि अन्य चार परमेष्ठी के पद सब अनित्य हैं, नाशवन्त हैं, शरीर सहित होनेसे पतन सहित हैं परन्तु सिद्धका पद सर्व कर्म व सर्व शरीर रहित होनेसे सदा हो रहनेवाला अविनाशी है । इस तरह सिडोंका ध्यान करना चाहिये ।
श्लोक- आचार्य आचरणं शुद्धं, ती अर्थ शुद्ध भावना ।
सर्वज्ञे शुद्ध ध्यानस्य, मिथ्या व्यक्तं त्रिभेदयं ॥ ३२९ ॥
मन्त्रयार्थ – ( आचार्य आचरण शुद्धं ) आचार्य शुद्ध आचरण करते कराते हैं ( ती अर्थ शुद्ध भावना ) रत्नत्रय स्वरूपकी शुद्ध भावना करते हैं ( सर्वज्ञे शुद्ध ध्यानम्य ) सवज्ञ परमात्माके शुद्ध ध्यानमें लगे रहते हैं (त्रिभेदयं मिथ्या त्यक्तं ) तीन प्रकार मिथ्यात्वसे रहित हैं । या तीन प्रकार मिथ्याज्ञानसे रहित हैं । विशेपार्थ - अब यहां आचार्य परमेष्ठीका स्वरूप बताते हैं । जो निग्रंथ मुनि पांच महाव्रत, पांच समिति व तीन गुप्ति ऐसे १३ प्रकार चारित्रका व दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार इन पांच प्रकार आचारका निर्दोष पालन स्वयं करते हैं व दूसरोंसे पालन कराते हैंजो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की भावना व्यवहार नय द्वारा करते हुए उसका अनुभव निश्चय नयसे शुद्धोपयोगरूप करते हैं। क्योंकि शुद्धोपयोग में ही निश्चय रत्नत्रयका लाभ होता है व वीतरागता होती है। आचार्य महाराजके प्रमत्त व अप्रमत्त दो गुणस्थान ही होते हैं। जब ध्यानमग्न निश्चल होते हैं तब सातवां अप्रमत्त और जब दीक्षा शिक्षा आहार विहार कार्यों में निरत होते हैं तब प्रमत्त छठा गुणस्थान होता है । इन दोनोंका काल अंतर्मुहूर्त से अधिक नहीं है इसलिये उन आचायाँका आत्मा पुनः पुनः ध्यानमग्न होता हुआ आत्मानन्दका विलास करता रहता है, वे बचन व कायसे बाहरी कार्यको करते हुए भी मनसे आत्मकार्य में ही लवलीन रहते हैं। जो शुद्ध धर्मध्यान करते हैं, सर्वज्ञ परमात्माका आलम्बन लेते हुए कभी स्तवन वन्दना भी करते हैं। जो क्षयिक सम्पती या उपशम सम्यक्ती होते हैं उनके तीनों दर्शन मोह नहीं होते हैं। वे मिध्यात्व, सम्यग्रमिध्यात्व व सम्पक् प्रकृतिसे रहित होते हैं । क्षयोपशम सम्यक्तमें सम्यक् प्रकृति या अतिमंद उदय होता है। अथवा जिनमें कुमति, कुश्रुत व कुअवधिज्ञान नहीं होते हैं अथवा जो मिथ्या माया व निदान इन तीन शब्द से रहित होते हैं। ऐसे परम मुनि वीतरागी परमोपकारी आचार्य हैं उनका ध्यान करना चाहिये ।
श्रावकाचार
॥१२०
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कारणवरण
श्लोक-उपाध्याय उपयोगेन, उपयोगो लक्षणं ध्रुवं ।
___ अंग पूर्व च उक्तं च, साधं ज्ञानमयं ध्रुवं ॥ ३३० ॥ ॥३२१॥
अन्वयार्थ-(उपाध्याय ) उपाध्याय (उपयोगेन) ज्ञानोपयोगमें लगे रहते हैं (उपयोगो ध्रुवं लक्षणं) उप. योग जीवका निश्चित लक्षण है ( अंग पूर्व च उक्तं च ) जो ग्यारह अंग व १४ पूर्वको कहते हैं (ज्ञानमयं ध्रुवं साध) साथमें अविनाशी ज्ञानमय आत्माका भी वर्णन करते हैं।
विशेषार्थ-यहां उपाध्याय परमेष्ठीका स्वरूप कहते हैं कि जो साधु निरंतर ज्ञानोपयोगमें लगे इते है, पठन पाठनमें दत्तचित्त हैं, द्वादशांग वाणीको भलेप्रकार जानकर दूसरोंको पढाते हैं तथा जिनवाणीका सार जो शुद्धात्म तत्व है उसको भी बताते हैं वे उपाध्याय हैं।
बारह अंगोंका स्वरूप संक्षेपसे यह है१-आचारांग-इसमें मुनियों के बाहरी आचरण हैं, कैसे चले, बैठे, उठे आदि। २-सूत्रकृतांग-इसमें सूत्ररूप संक्षेपसे ज्ञानका विनय आदि धर्म क्रियाका वर्णन है।।
-स्थानांग-इसमें दो तीन चार इसतरह यढते२ स्थानोंका कथन है। जैसे संग्रह नयसे जीव एक प्रकार है, व्यवहार नयसे संसारी मुक्त ऐसे दो प्रकार व उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप तीन प्रकार है। इत्यादि।
४-समवायांग-जिसमें समानतासे जीवादि पदार्थ बताए हों। जैसे धस्तिकाय अधर्मास्ति" काय समान हैं, मुक्त जीव सब समान हैं, द्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षा समानता ताई है।
५-व्याख्याप्रज्ञप्ति-इसमें गणधरके साठ हजार प्रश्नों के उत्तर हैं। जैसे जीव अस्ति है कि नास्ति है, एक है कि अनेक है, नित्य है कि अनित्य है इत्यादि ।
६-ज्ञात धर्मकथा या नाथधर्मकथा-इसमें त्रेशठ शलाका पुरुषों के धर्मकी कथा है। ७-उपासकाध्ययन-इसमें श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमा, क्रिया, मंत्र आदिका वर्णन है।
८-अंतःकृतदशांग-इसमें हरएक तीर्थकरके समय दस दस मुनि घोर उपसर्ग सहकर मोक्ष गए उनका कथन है। श्री वर्धमानस्वामीके समय ऐसे मुनि १ नमि, २ मतंग, ३ सोमिल, रामपुत्र, ४५ सुदर्शन, ६ यमलीक, ७ वलिक, ८ किष्कंबल, ९ पालंघष्ट, १० पुत्र ये १० भए हैं।
GEEKKKRGEGECEREST
ECREKAR
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करमवरण
४३२२॥
मे
९- अनुत्तरोपपादिक दशांग - इसमें हरएक तीर्थंकर के समय में दश मुनि उपसर्ग सह समाधिमरण कर विजयादिक अनुत्तरोंमें जन्मे उनका कथन है। श्री वर्डमानस्वामीके समय ऐसे १० मुनि १ ऋजुदास, २ धन्व, ३ सुनक्षत्र, ४ कार्तिकेय, ५ नंद, ६ नंदन, 9 सालिभद्र, ८ अभय, ९ वारिषेण, १० चिलाती पुत्र ये दश भए ।
१०- प्रश्न व्याकरणांग—इसमें अतीत अनागत वर्तमान काल सम्बन्धी लाभ अलाभ आदि के उत्तर कहने की विधि तथा चार प्रकार कथाओंका वर्णन है ।
आक्षेपिणी - धर्म में दृढ करनेवाली, विक्षेपणी, एकांत मत खंडनेवाली संवेजिनी-धर्मानुराग करानेवाली निर्देजिनी-संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य करानेवाली ।
११- विपाकसूत्र - कर्मके उदय बंध सत्ता आदिका जिसमें वर्णन है ।
१२- दृष्टिप्रवाद - इसके पांच अधिकार हैं । १- परिकर्म, २-सूत्र, ३- प्रथमानुयोग, ४- पूर्वगत ५- चूलिका । परिकर्म वह है जिसमें गणितादिके सूत्र हो । उसके पांच भेद हैं । चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, व्याख्या प्रज्ञप्ति । इसमें जीवादि पदार्थोंका स्वरूप है ।
सूत्र उसे कहते हैं जिसमें क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद, विनयवाद मतोंके १६३ भेदका वर्णन हो । प्रथमानुयोग में श्रेशठ सलाका पुरुषोंका जीवनचरित्र हो ।
चौदह पूर्व हैं वे इसप्रकार हैं
१- उत्पाद पूर्व-पदार्थोंका उत्पाद व्यय ध्रौव्य कथन है ।
२- अग्रायणीय पूर्व–७०० सुनय, कुनय व सात तत्वादिका वर्णन है ।
३- वीर्यानुवाद पूर्व - जिसमें जीव अजीवादिके धीर्यका व क्षेत्र, काल, भाव व तपके वीर्यादिका कथन है ।
४- अस्तिनास्ति पूर्व-अस्ति नास्ति आदि सात भंगों का स्वरूप है।
५-ज्ञान प्रवाद पूर्व-आठ प्रकार के ज्ञानका स्वरूप ।
६ - सत्य प्रवाद पूर्व - १० प्रकार सत्य आदिका वर्णन I
७ - आत्म प्रवाद पूर्व-- आत्मा के स्वरूपका कथन है ।
श्रावकाचार
>>>>>>>
॥१२१॥
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॥१२॥
८-कर्म प्रवाद पूर्व-काके बंधादिका कथन है। ९-प्रत्याख्यान पूर्व-त्यागका विधान कथित है।
१०-विद्यानुवाद पूर्व-७.. भल्पषिया, ५..महाविद्या साधने मंत्र यंत्र व आठ निमित्त ज्ञानका कथन है।
११-कल्याणवाद पूर्व-महापुरुषों के कल्याणकोका कथन है। १२-प्राणवाद पूर्व-वैद्यकका कथन है। १३-क्रिया विशाल पूर्व-संगीत, छन्द, अलंकार ७२ पुरुषकी १४ स्नीकला भादिका कथन है। १४-त्रिलोक बिंदुसार-तीन लोकका स्वरूप बीज गणितादिका कथन है। चूलिका पांच प्रकार हैं-जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता, आकाशगता। इसमें जल, थल, आकाशमें चलनेके रूप बदलनेके मंत्रादि । इन बारह अंगोंके अपुनरुक अक्षर
१८४४१७४४०७१७०९५५१५१५ अर्थात्म आ आदि १४ अक्षरोंके सबभेद उतने होते। पदि दो के अंकको दफे वर्ग करे और एक घटादें तो इतने अक्षर आएंगे। जैसे २४१-४, vxv=१६, १६४ १६ = २५१, २५१४२५६ - १५५० इसी तरह करनेसे निकलेंगे।
एक मध्यम पदमें १९७४८५.७८८८ अपुनरुक्त अक्षर होते हैं तब कुल अक्षरोंके ११२०३६८००५ पद निकलेंगे शेष ८.१०८१७५ भक्षर पड़ेंगे।
बारह अंगों में इतने पद नीचे प्रकार बांट दिये गए - १-आचारांग
१८...
२-सूत्रकृतांग ३-स्थानांग
४२०..
-समवायांग ५-व्याख्या प्रति १२८०..
-ज्ञात कथा -उपासकाध्ययन ११७००००
८-अंतकृतदश २५२८००० ९-अनुत्तरोपपादिक ९९४४.०० १०-प्रभ व्याकरण ११-विपाकसून १८४०००.. १२-रष्टिनवार १००६८५६००६
कुल पद १२८००हुए
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श्रावकाचार
॥१३॥
शेष ८०१०८१७५ अक्षरों में १४ प्रकीर्णक हैं, उनको अंग बाय कहते हैं। १-सामायिक-सामायिकके भेद । २-चतुविंशतिस्तव-२४ तीर्थकरकी स्तुति । ३-वंदना-एक तीर्थकरकी वंदना मुख्यतासे । ५-प्रतिक्रमण-गत दोष निवारण ७ प्रकार । ५-वैनयिक-पांच प्रकार विनय । ६-कृति कर्म-नित्य क्रिया कथन । ७-दशवकालिक-काल विकाल कथन । ८-उत्तराध्ययन-मुनिका उपसर्ग परीषद सहन कथन । ९-कल्प व्यवहार-मुनि योग्य आचरण कथन । १०-कल्पाकल्प-मुनिके योग्य व अयोग्य द्रव्य क्षेत्रादि कथन । ११-महाकल्प-जिनकल्पी स्थविरकल्पी मुनि कथन । १२-पुण्डरीक-चार प्रकार देवोंमें उपजनेके कारण दान पूजादि । १३-महापुण्डरीक-इन्द्र अहमिन्द्रमें उपजनेके कारण । १४-निषि डका-प्रायश्चित्त कथन ।
ये सब अंग प्रकीर्णक अब मिलते नहीं हैं। श्वेताम्बरोंने इन्हीं नामके धारक ग्रन्थ वीर भगपानके मोक्षके मौसो वर्ष बाद संकलन किये हैं। उनमें कुछ२ अंशिक कथन है। उपाध्याय शास्त्र के विशेष ज्ञाता होते हैं । इन साधुओंका कर्तव्य पढना पढाना है। श्लोक-सांधश्च सर्वसाध्यं च, लोकालोकं च साधये ।
रत्नत्रयमयं शुद्धं, ति अर्थ साधु जोइतं ॥ ३३१॥ अन्वयार्थ—(साधुश्च ) साधु महाराज भी (सर्वसाध्यं च) सर्व प्रकार साधन करनेवाले हैं (ोकालोकं ४ च साधये ) जो लोकालोकके दिखानेवाले केवलज्ञानको साधते हैं (रत्नत्रयमय शुद्ध) रत्नत्रयमई शुद्ध
भात्माको साधते हैं (तिमर्थ साधु मोइतं) जिन्होंने तीनों पदार्थों को भलेप्रकार जाना है।
॥३२
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श्रावबार
भ६२५॥
KeverekareeseseKEEEEEEEEEGreet
विशेषायं-साधु परमेष्ठीकी मुख्यता मोक्षकी सिद्धि करनेकी है। वे निरंतर व्यवहार रत्नत्रयके द्वारा निश्चय रत्नत्रय मई शुरु आत्माको साधन करते हैं। उनको इन तीनों सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र पदाथोंका भलेप्रकार ज्ञान होता है। उनका ध्येय केवलज्ञान प्राप्ति है। छहे प्रमत्त. गुणस्थानसे पारहवें क्षीणमोह गुणस्थान तक सर्व मुनि साधु हैं। साधु मुनि ही तेरहवें गुणस्थानमें जाकर अरहंत केवली होजाते हैं। आचार्य व उपाध्याय पदके धारी मुनि छठे व सातवें गुणस्थानमें ही होते हैं। जब आगेका साधन करना होता है तब ये मुनि आचार्य व उपाध्याय पदको छोड देते हैं। मात्र स्वयं साधनमें लग जाते हैं। जिनको न तो संघकी रक्षाकी चिंता हैन पठन पाठनकी चिंता है। जो नित्य आत्मध्यानमें व वैराग्यकी भावनामें व बारह प्रकारके तपके साधनमें लगे रहते हैं, कठिन २ तपस्या करते हैं, उपसर्ग परीषद सहते हैं, एकांतवास कर धर्मध्यानकी शक्ति बढाते हैं, फिर उपशम श्रेणी या क्षेपकश्रेणीपर शक्तिके अनुसार आरूढ होते हैं, काँके क्षयका निरंतर उद्यम करते रहते हैं। सामान्य साधुसे बारहवें गुणस्थान तक सबही साधु हैं। उन्होंमेंसे आचार्य व उपाध्याय हो जाते हैं। सर्वका भेष नग्न होता है। पीछी कमंडल या शान रखते हैं, अन्य विग्रहसे रहित हैं।
श्लोक-देवं पंच गुणं शुद्धं, पदवी पंच संयुतो।
देवं जिनं पण्णतं, साधए शुद्ध दृष्टितं ॥ ३३२॥ अन्वयार्थ-(पदवी पंच संजुतो) अरहंत आदि पांच पदवी सहित (पंच गुणं ) पांच परमेष्ठीको (शुद्ध दव) शुद्ध पूज्यनीय देव (देवं निन) देव जिनेन्द्र (पण्णतं) कहा गया है (शुद्ध दृष्टितं साधए) ये पांचों शुद्ध सम्यग्दर्शनको साध चुके हैं।
विशेषार्थ-यद्यपि अरहंत सिद्धको देव और आचार्य, उपाध्याय, साधुको गुरु कहते हैं तथापि ये पांच परमेष्ठी पद पूज्यनीय महान कहे जाते हैं। ये सभी शुद्ध आत्मीक अनुभव करनेवाले शुद्ध
सम्यग्दृष्टी हैं, अपनेर यथार्थ गुणों के स्वामी हैं। व्यवहार नयसे ये पांच पद हैं, निश्चयनयसे इन सबमें * एक ही जातिका शुद्धात्मा विराजमान है। ऐसा विचार कर अपने शुद्धात्माका ध्यान मुख्यतासे
करना योग्य है।
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लोक-अरहंत भावनं येन, षोडशभाव भावितं । ॥३२॥
ति अर्थ तीर्थकरं येन, प्रतिपूर्ण पंच दीतयं ॥ ३१३ ॥ मन्त्रया-(येन ) जिसने (पोडशभाव भावित) षोडशकारण भावना भाई तथा (परहेत भावनं ) भरांत पदकी भावना भाई है(बेन) वा (ति अर्य) तीन पदार्थ स्वरूप (सीकर) तीर्थकर (प्रतिपूर्ण पंच वाप्तवं) पूर्ण पांच ज्ञान होता है।
विशेषार्थ-भरत पदमें पचाप तीर्थकर व सामान्य केवली दोनों गर्मित तथापि तीर्थकरके पुण्यवंध विशेष होता है। उनकी इन्द्रादि देव भक्ति करते हैं। उनसे धर्मका प्रचार भी बहुत होता है।ऐसा तीर्थकर वही महान आत्मा होता है जो १६ कारण भावनाका दयसे विचार करता है। इन भावनाओं के मानेसेप केवली श्रुतकेवलीकी निकटतासे तीर्थकर मामकर्मका बंध होजाता है। तीर्थकरोंकी इन्द्रादि देव पंचकल्याणक रूप भक्ति करते हैं जो तीर्थकर नाम कर्म बांधे हुए उत्पन्न होते हैं। उनके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण पांचों कल्याणक होते हैं। जो खसी जन्ममें तीर्थकर नाम कर्म बांधकर तीर्थकर होते हैं खनके तप, ज्ञान, निर्वाण अथवा ज्ञान निर्वाण दो कल्याणक होते हैं। तीर्थकर सम्यक्ती, सम्यग्ज्ञानी, सम्पचारित्री होते हैं। तीनों पदार्थ जो रत्नत्रय है उनसे पूर्ण होते हैं। तीर्थकर नामकर्मकाध भी सम्यक्त होते हुए होता है। वास्तवमें तीर्थकर नाम कर्मका
सदय केवलज्ञान अवस्थामें होता है जहां पांचों ज्ञानोंकी पूर्णता या ज्ञानकी पूर्णता होजाती है। ये ११कारणभावना परमोपकार करनेवाली है। इनके भावनेसे पा इनपर चलनेसे पदि तीर्थकर नाम कर्मका पंधन भी हो तौभी महान पुण्यवंध होता है। वे भावनाएं नीचे प्रकार है
१-दर्शनविशुधिभावना-सम्यग्दर्शन शुरहे उसमें पचीसदोष न लगें ऐसी भावना करनी। २-विनयसम्पन्नता-रत्नत्रय धर्म व उनके धारकोंकी विनय करता रहूँ ऐसी भावना।
३-शीलमतेष्वनतीचार-शील स्वभाव व प्रतोंके पालनमें कोई दोष न लगे ऐसी भावना करनी।
४-अभीषण ज्ञानोपयोग-निरंतर भात्मज्ञान व शासनानके भीतर उपयोग लगा रहे पह भावना करनी।
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भारमतरण
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५-संवेग-संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य व धर्ममें अनुराग बहता रहे ऐसी भाषना करनी।
श्रावका ६-शक्तिस्त्याग-शक्तिके अनुसार माहार, अभय, भौषध य ज्ञान दान करता ऐसी . भावना करनी।
७-शक्तिस्तप-शक्तिके अनुसार बारह तप पालता रहूं ऐसी भावना करनी। ८-साधुसमाधि-साधुओंपर कोई उपसर्ग आवे तो उसको दूर करूँ ऐसी भावना करनी। ९-वैपावृत्यकरण-धर्मात्माओंकी सेवा करता रहूँ यह भावना करनी। १०-अईत भक्ति-ईतदेवकी भक्ति करता रहूं यह भावना। ११-आचार्य भक्ति-आचार्यकी भक्ति करता यह भावना। ११-बहुश्रुत भक्ति-उपाध्यायकी भक्ति करता रहूं यह भावना। ११-प्रवचन भक्ति-शास्त्रकी व धर्मकी भक्ति करता रहूं यह भावना। १४-आवश्यकापरिहाणि-नित्य भावश्यक धर्मक्रियाओंको नई पहभावना। १५-मार्ग प्रभावना-जिन धर्मकी उन्नति करता रहूं पह भावना। १५-प्रवचन वत्सलस्व-साधर्मियों से प्रेम रखता रहूं ऐसी भावना करनी।
क्योंकि इन भावनाओं में सर्व जीवोंके कल्याणकी भावना होती है इसीसे तीर्थंकर नामा कर्मका बंध होजाता है।
लोक-तस्यास्ति पोडशं भावं, तीर्थ तीर्थकरं कृतं ।
षोडशभाव भावेन, अरहंतं गुण शाश्वतं ॥ ३३४॥ मन्वयार्थ-(वस्य पोडशमा मस्ति) उसीके पोरश भावना यथार्थ भाई गई होती है जिसके (सी कृतं तीर्थकरं) तीर्थ जो धर्मरूपी जहाज उसको चलानेवाला तीर्थकर कर्मबंध होजावे (पोडशभाव भावेन ) सोलहकारण भावनाके मानेसे ( अरहंत गुण शाश्वतं ) अरहंत पद गुणमई व अविनाशी आरमाका स्वभाव प्रकट होता है।
विशेषार्थ-जिनके द्वारा सोलहकारण भावना सर्वही या कुछ वा एक भी परिपूर्ण भाई जाती है सीके तीर्थकर नामकर्म बंधता है। तीर्थकरके समान ऊँचा भरहंत पद दूसरा नहीं है। अवि
॥१२॥
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नाशी आत्माका स्वभाव जय झलक जाता है तप तीर्थकर देव अपनी दिव्यध्वनिसे उपदेश देकर अनेक भव्य जीवोंका उद्धार करते हैं। उनके महान उपकारको स्मरण कर हमें श्री ऋषभादि महाचीर पर्यंत चौवीस तीर्थकरोंकी सच्चे भावसे भक्ति करनी योग्य है। ___ श्लोक-सिद्धं च शुद्ध सम्यक्तं, ज्ञान दर्शन दर्शितं ।
वीर्य सुहमं अव्याधि, अवगाहना गुरु लघू ॥ ३३५ ।। अन्वयार्थ (सिद्धं च शुद्ध सम्यक्त) सिद्ध भगवानके शुद्ध सम्यक्त होता है (ज्ञान दर्शन दर्शित) अनंत ज्ञान व अनंत दर्शन प्रगट होता है (वीर्य सुहम अव्याषि) अनंत वीर्य, सूक्ष्मपना, अव्यायाधपना. (अवगाहना गुरु लघू ) अवगाहना व अगुरुलघूपना ये आठ गुण प्रगट होजाते हैं।
विशेषार्य-सिद्धात्मा पूर्णात्माको कहते हैं । सर्व बाधक काँका अभाव होनेसे आत्माकी पूर्ण शक्तियें वहां प्रकाशमान होजाती हैं। उनमें गुण तो अनंत होते हैं परंतु यहां आठ कर्मों के नाशसे जो आठ गुण प्रकाशमान होते हैं उनका कथन किया गया है। मोहनीय कर्मके नाशसे शुद्ध सम्यग्दर्शन व स्वरूपाचरण चारित्र सहित प्रगट होजाता है। ज्ञानावरणीय कर्मके नाशसे अनंत ज्ञान व दर्शनावरणीय कर्मके नाशसे अनंत दर्शन प्रगट होजाता है जिससे वे सर्व द्रव्योंके गुण पर्यायोंको एक समयमें ही देखते व जानते हैं। अंतराय कर्मके नाशसे अनंत बल प्रगट होजाता है। जिससे उनको कभी भी आकुलता प निर्बलता किसी प्रकारकी नहीं होती है। वेदनीय कर्मके नाशसे अव्यावाधपना प्रगट होता है। अब कोई पर वस्तु उनके सुखके भोगमें बाधक नहीं रही है। गोत्र कर्मके नाशसे अगुरुलघु गुण प्रगट होगया है। उनमें अब यह कल्पना ही नहीं रही है कि हम गुरु हैं या लघु हैं, ऊंच हैं या नीच हैं, वे स्वयं समदर्शी हैं, परम साम्यभावमें लीन हैं, नामकर्मके नाशसे सूक्ष्मपना प्रगट होगया है, शरीरादि न रहनेसे वे सिद्ध भगवान इंद्रियगोचर नहीं हैं, ज्ञानगम्य हैं, आयुकर्मके नाशसे अवगाहना गुण प्रगट होगया है, जहां एक सिद्ध विराजते हैं वहां अन्य सिद्धोंको ठहरनेमें कोई बाधा नहीं होती है, सिद्धोंका ऐसा स्वरूप विचार करना चाहिये।
श्लोक-सम्यक्तं आदि गुण साई, मिथ्यात्व मल विमुक्तयं ।
सिद्धं गुणस्य संपूर्ण, साध्यं भव्य लोकयं ॥ ३३६ ॥
॥
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१२९॥
अन्वया-(सम्यकं मादि गुण साई) सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके धारी (मिथ्यात मळ विमुक्तयं) मिथ्यादर्शन रूपी मलसे रहित (गुणस्य संपूर्ण) सर्व आत्मीक गुणोंसे पूर्ण (भव्य लोकयं साध्य) भव्य जीवों के द्वारा साधने योग्य (सिद्ध) ऐसे सिद्ध होते हैं।
विशेपार्थ-सिरोंमें कर्मजनित कोई भी विभाव मिथ्यात्व आदि नहीं होता है क्योंकि सर्व कोसे रहित आत्माको ही सिद्ध कहते हैं, उनके सम्यग्दर्शन आदि अनंत गुण जितने आत्माके भीतर हैं ये सर्व पूर्णपने विकासको प्राप्त होजाते हैं, वे आदर्श परमात्मा हैं, निरन्तर आत्मीक आनन्दका स्वाद लेते रहते हैं, उनको ही ईश्वर, भगवान, परब्रह्म, परमेश्वर, निरंजन, चिदानंद प्रभु
आदि नामोंसे भव्य जीव ध्याते हैं। वे ही साधने योग्य हैं। तीर्थकर भी जबतक गृहस्थ व मुनि * अवस्थामें होते हैं उनही सिडका ध्यान करते हैं। हरएक मुमुक्षुको उन सिद्धोंके गुणोंका स्मरण 5 करके अपने आत्मांको मिड सम ध्याना चाहिये।
श्लोक-आचार्य आचरणं धर्म, ती अर्थ शुद्ध दर्शनं ।
उपाध्याया उपदेशंति, दशलक्षण धर्म ध्रुवं ॥ ३३७ ॥ अन्वयार्थ-(भाचार्य ती अर्थ धर्म शुद्ध दर्शनं आचरणं) आचार्य परमेष्ठी तीन अर्थरूप अर्थात रनत्रय स्वरूप धर्मका तथा मुख्यतासे शुद्ध सम्यग्दर्शनका आचरण आप करते हैं व कराते हैं ( उपाध्याया ध्रुवं दशलक्षण धर्म उपदेशंति ) उपाध्याय परमेष्ठी यथार्थ दशलक्षणमय धर्मका पाठ पढाते हैं।
विशेषार्थ-जो सम्यग्दर्शन, सम्बरज्ञान, सम्यक्चारित्र रत्नत्रयमय धर्मका व्यवहार नय तथा निश्चय नयसे स्वयं आचरण करते हैं व अन्य साधुओंसे आचरण करते हैं उनको आचार्य परमेष्ठी
कहते हैं। मुख्यतासे शुद्ध आत्मीक अनुभवका अभ्यास करते हैं जहां शुद्ध सम्यक्त गर्मित है तथा 4. इसी स्वात्मानुभवका अभ्यास कराते हैं क्योंकि यही निश्चय रत्नत्रयकी एकतारूप मोक्षका मार्ग है, यही काका विध्वंश करनेवाला है।
उपाध्याय परमेष्ठी उत्तम दशलक्षण धर्मको स्वयं पालन करते हुए उनहीकी शिक्षा अन्य साधुओं को देते हैं उनका काम पढानेका है।
वेदशलक्षण धर्म नीचेप्रकार हैं:
॥२९॥
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तारणतरण
१-उत्तम क्षमा-उत्कृष्ट क्षमा-दूसरों के द्वारा पीडित पवध व आक्रोषित किये जानेपर भी श्रावकाचार ॐ किंचित् भी क्रोधका विकार न पैदा करके पूर्ण क्षमा रखना । मात्र अपने कर्गदरको विचारना।
क्योंकि अप कर्मके उदय रिना कोई किसीको कष्ट नहीं देसका है। शांतभावसे कर्मनिरा विशेष होती है।
२-उत्तम मार्दव-विद्या, तप, वक्तापना, ध्यानादिमें अति प्रवीण होनेपर भी या अज्ञानियों से द्वारा अपमानित होनेपर भी किंचित भी मान भाव चित्तमें न लाकर परप कोमल भाव रखना, मान अपमान रूमता रखना तथा धर्म व धर्मधारियोंकी विनय करना । कोमल आत्मामें ही धर्म वृक्ष फलता है।
३-उत्तः आर्जव--अनेक कष्ट पडनेपर भी, भोजनका अलाभ होनेपर भी लोमके वश या मानके वश कभी भी कपट भाव चित्तमें न लाना, अपना दोष सरलनासे गुरुसे कहते हुए शुद्ध भाव रखना । माया चार रहित शुद्ध शास्त्रोक्त वर्तना वैसा ही वर्ताना । कुटिलतारूप मन, वचन, कायको कभी न वर्ताना।
४-उत्तम शौष-लोभ कषायको सर्व पापोंका मूल जानकर परम संतोषकी भावनासे मन को पवित्र रखना । पंचेन्द्रियके भोगोंकी कुछ भी कामना न करना । इष्ट व अनिष्ट संयोगमें समभाव रखना । आत्माकी पवित्रताका साधन करना।
५-उत्तम सत्य-स्वयं सत्य धर्मपर चलना, सत्य ही विचारना, सत्य ही उपदेश देना, सत्यको जीवनका सार समझना । निर्भय होकर सत्यका अनुयायी रहना । असत्यके मैलसे बचना।
६-उत्तम संयम-भलेप्रकार पांच इंद्रिय व मनके विकल्पोंको रोककर इंद्रिय संयम पालना। तथा पृथ्वी आदि छ: कायके प्राणियोंकी दया निमित्त उनकी रक्षा करना सो प्राणि संयम पालना। * आत्माको आत्मामें निरोध करना । मुनिके चारित्रको पथार्थ साधना ।
७-उत्तम तप--भलेप्रकार उपवास आदि बारह प्रकार तपका साधन करना । तपस्या करते हुए उपसर्ग व परीषह आजावे तो समतासे सहना । किंचित् भी क्षोभित न होना। निर्जन स्था. नोंपर जाकर तप करना । परमानन्दका स्वाद लेते हुए तप साधना ।
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वा रणवरण
॥३१९॥
८ - उत्तम त्याग - स्वयं संकल्प विकल्प त्यागकर निर्विकल्प रहना तथा अन्य प्राणियोंकी रक्षा करते हुए अभयदान देना व मिध्यात्वादिके मिटानेको सम्पज्ञानका उपदेश करना | दुःखी थके रोगी साधुओं की सेवा करके औषधि दान देना । क्षुधा तृषाकी बाधा होनेपर धर्मामृत पिलाकर तृप्त करना यही आहारदान देना ।
९- उत्तम आकिंचिन्य - इस जगतमें परमाणु मात्र भी अपना नहीं है, आत्माके गुण पर्याय ही मेरी आत्मा के हैं ऐसी भावना भाते हुए अंतरंग रागादि, बहिरंग क्षेत्रादि परिग्रहसे निर्ममत्व रहना । एक केवल स्वयं आपको ध्याना ।
१०- उत्तम ब्रह्मचर्य - निश्चयसे अपने ब्रह्म स्वभावमें थिर रहना, व्यवहार से मन, वचन, काय व कृतकारित अनुमोदना से स्त्री मात्र से व कामके विकारसे विरक्त रहना, शीलको ही आत्माका आभूषण समझना ।
ये दश धर्म व्यवहार से दश भेदरूप हैं, निश्चयसे सर्व एक आत्मारूप हैं। जहां आत्माकी थिरता आपमें हुई वहां क्रोधादि कषायोंका विकार न होनेसे क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच स्वयं होजाते हैं । सत्य पदार्थ एक आत्मा है उसमें थिरता एक उत्तम सत्य है । आत्मामें संयमरूप रहना संयम, उसीमें तपना तप है । अपनेको अतीन्द्रिय आनन्द देना त्याग । परसे ममत्व न होना आकिंचन्य व आपमें आपी जमना ब्रह्मचय है ।
इन १० धर्मोंका एक देश पालन गृहस्थ भी करते हैं । वे इन धर्मोंको इतना पालन करेंगे जिससे धर्म, अर्थ काम पुरुषार्थ साधे जासकें, नीति न बिगड़े, दुष्टोंका दमन हो, सज्जनोंकी रक्षा हो, जगतका उपकार हो, अन्यायका दमन हो, आप व पर सब सुखसे निराबाध जीवन विता सकें, पूर्ण साधन साधु ही कर सके हैं । यदि दुष्टोंपर क्षमा की जाय तो गृहस्थ व साधु दोनोंका धर्म नहीं चल सका इसलिये गृहस्थ यथावसर विवेक पूर्वक इनका साधन करते हैं ।
श्लोक - सार्द्ध चेतनाभावं आत्मधर्मं च एक यं ।
आचार्य उपाध्यायेन, धर्मं शुद्धं च धारिना ॥ ३३८ ॥
अन्वयार्थ ~(शुद्धं धर्मं च धारिना) शुद्ध निश्चय धर्मको पालनेवाले ( आचार्य उपाध्यायेन ) आचार्य व
श्रावकाचार
॥१३१.
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धरणारण
४२३२॥
CL
उपाध्यायके द्वारा ( चेतनाभावं सार्द्ध) चेतना भाव सहित ( एक ये च आत्मधर्मं ) एक ही आत्मधर्मकी भावना की जाती है ।
विशेषार्थ - यद्यपि व्यवहार नयसे भेद रूप धर्मको आचार्य व उपाध्याय परमेष्ठी साधन करते हैं, परन्तु निश्चयसे वे शुद्ध ज्ञान चेतनामई एक आत्मघर्म की ही आराधना करते हैं व कराते हैं। यदि किसी आचार्य व उपाध्यायका ध्यान मात्र व्यवहार धर्म के प्रवर्तने पर हो, निश्चयधर्मके चलानेपर न हो तो वे यथार्थ आचार्य व उपाध्याय परमेष्ठी नहीं होसके। वे परम गुरु जानते हैं कि साप जैसा होता है वैसा साधन होना चाहिये । साध्य शुद्ध आत्म-स्वरूप है तब उसका साधन भी शुद्ध आत्म-स्वरूपमें थिरता है। इसके सिवाय जो कुछ अन्य भेदरूप धर्माचरण है वह आत्मध्यानके लिये निमित्त मात्र है । इस तत्वको सदा सामने रखते हुए जिस तरह साध्यकी सिडि हो उसी तरह आप चलते हैं व अन्य शिष्योंको चलाते हैं । अन्तरंग धर्मको वृद्धि करनेपर ही इन दोनों परमेष्ठियों का ध्यान रहता है । कर्मकी निर्जराका मुख्य कारण शुद्धात्माका ध्यान है । आचार्य व उपाध्याय स्वयं जबतक अपने पदोंपर आरूढ हैं तबतक धर्मध्यानको ध्याय सक्ते हैं, परन्तु शुक्लध्यानको नहीं पास हैं। जब शुक्लध्यान करना होता है तब वे इन पदोंका त्यागकर साधु पदमें आजाते हैं ।
श्लोक - तत् धर्मं शुद्ध दृष्टी च, पूजितं च सदा बुधैः ।
उक्तं च जिनदेवेन, श्रूयते भव्यलोकयं ॥ ३३९॥
अन्वयार्थ – (तत् धर्म ) वह धर्म (शुद्धदृष्टी च ) शुद्ध आत्माका दर्शन ही है (सदा बुषैः च पूजितं ) यह धर्म सदा ही बुद्धिमानों द्वारा आदरणीय है ( जिनदेवेन उक्तं च ) जिनेन्द्रदेवने उसका उपदेश दिया ( भव्यलोकयं श्रूयते ) भव्य लोगोंने इसी धर्मका श्रवण किया है ।
विशेषार्थ - वह निश्चय धर्म एक शुद्ध आत्मीक अनुभव है, वचन व मनसे अगोचर है, आत्माका ही आत्मा में ही थिरता रूप है, इसीको चाहे शुद्ध सम्यग्दर्शन कहो, चाहे शुद्ध ज्ञान कहो, चाहे स्वरूपाचरण चारित्र कहो, चाहे संघम व तप कहो। इसी धर्मकी जगतमें गणधरादि द्वारा व संतों द्वारा पूजा की जाती है तथा जितने तीर्थंकर व अन्य सामान्य अईत् परमेष्ठी उपदेष्टा हुए हैं उन्होंने
श्रावकाचार
॥१३२॥
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इसी परम धर्मका उपदेश दिया है इसीको सुनकर भव्य जीव आनन्दमें मगन होजाते हैं। प्रयोजन कहनेका यह है कि आचार्य परमेष्ठीका कर्तव्य है कि इसी धर्मका प्रचार करावें। पाध्यायोंका धर्म यह है कि इसी धर्मका पाठ पढावें। जहांतक आत्मज्ञान न होगा वहांतक अन्य अनेक शास्त्रोंका ज्ञान उपकारी न होगा, सर्व शास्त्रोंका सार अध्यात्म शास्त्र है, सर्व विद्याओं में श्रेष्ठ अध्यात्मविद्या है, सर्व कलाओंमें उत्तम आत्मानुभवकी कला है। इसीलिये जो इस कलाका प्रचार करते हैं ही सच्चे आचार्य व उपाध्याय हैं।
श्लोक-साधओ साधुलोकेन, दर्शनं ज्ञानसंयुतं ।
चारित्रं आचरणं येन, उदयं अवश्य शुद्ध यं ।। ३४० ॥ अन्वयार्थ-(साधुलोकेन ) साधुओंके द्वारा (दर्शनं ज्ञान संयुतं साधनो) ज्ञान सहित सम्पग्दर्शनका साधन किया जाता है (येन चारित्रं आचरण) और जो सम्यक्चारित्रका आचरण करते हैं (अवश्य शुद्ध यं उदयं) तथा उनके अवश्य अर्थात् निर्विकल्प स्वावलम्बन रूप शुद्ध भावका भी प्रकाश होता है। . विशेषार्थ-अब साधु परमेष्ठीका विशेष स्वरूप कहते हैं। जो रत्नत्रयका साधन करे उसको साधु कहते हैं। उनमें मुख्यता ज्ञान सहित सम्यग्दर्शनकी है, उनको तत्वोंका यथार्थ ज्ञान होता है तथा दृढ विश्वास पदार्थोंका होता है। पांच महाव्रत, पांच समिति तथा तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार या अठाइस मूल गुण रूप चारित्र साधुजन भले भावसे पालते हैं। तथा शुद्ध आत्मीक भावका प्रकाश करते रहते हैं । यदि कोई साधु मात्र व्यवहार रत्नत्रय पाले और निश्चय रत्नत्रयमई शुखात्मानुभव न पावे तो वह साधु परमेष्ठी पूज्य नहीं है, वह मात्र द्रव्यलिंगी साधु-मिथ्यादृष्टी है। ॐ भावलिंग सहित ही द्रव्यलिंगकी शोभा है। भावलिंग विना द्रव्यलिंग केवल पुण्यवंधका कारण हैमोक्षका कारण नहीं है।
श्लोक-ऊधं अधो मध्यं च, दृष्टि सम्यग्दर्शनं ।
ज्ञानमयं च संपूर्ण, आचरणं संयुतं ध्रुवं ॥ ३४१ ।। अन्वयार्थ (ऊर्ध अधो मध्यं च ) ऊर्धलोक, अधोलोक व मध्यलोक तीनों लोकों (सम्यग्दर्शनं दृष्टि)
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करणवरण
३३४॥
सम्यग्दर्शनके द्वारा जो देखनेवाले हैं (संपूर्ण ज्ञानमयं च ध्रुवं आचरणं संयुतं ) व सम्पूर्ण ज्ञानमय निश्चल आचरण करनेवाले हैं वे साधु हैं ।
विशेषार्थ — सम्यग्दर्शन के प्रभावसे साधुजन तीनों लोकोंको यथार्थ देखते व श्रद्धान करते हैं। जब व्यवहार नयसे देखते हैं तो विचारते हैं कि अधोलोक नर्क में नारकियोंको महान कष्ट है । मध्यलोकमें मानव व तिर्येच अनेक मानसिक व शारीरिक कष्ट पारहे हैं व भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी तीन प्रकार देव तथा ऊर्ध्व लोकके कल्पवासी देव भी मानसिक दुःख से पीडित हैं । सर्व जीव तीन लोक में एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय पर्यंत पर्यायों में जन्म ले लेकर मरते हैं । एक सिद्ध लोक ही सार है जहां सिद्ध भगवान जन्म जरा मरण रहित नित्य आनन्दमग्न रहते हैं । फिर निश्चय दृष्टिसे देखता है तो इस जगतको छः द्रव्योंका समुदाय जानकर हरएक द्रव्यका भिन्न १ स्वभाव विचारता है । अनन्तानन्त जीवोंको एकाकर शुद्ध ज्ञानदर्शनमय देखता है । परम समताभाव प्राप्त करता है, रागद्वेषको मिटा देता है। वीतरागताको पाकर आत्मध्यान में निश्चिन्त होजाता है । ज्ञानी साधु तत्वोंपर यथार्थ ज्ञान सहित विश्वास रखते हुए मात्र आत्म-शुद्धिके लिये व्यवहार आचरणको पालते हैं तथा निश्चय शुद्ध आचरण में आरूढ़ हो जाते हैं। जिनके मुख्य साधन आत्मध्यान है वे ही साधु हैं ।
श्लोक - साधु गुणस्य संपूर्ण, रत्नत्रयालंकृतं ।
भव्यलोकस्य जीवस्य रत्नत्रयं प्रपूजितं ॥ ३४२ ॥
अन्वयार्थ - (साधु) साधु परमेष्ठी ( गुणस्य संपूर्ण ) अट्ठाईस मूलगुणों से पूर्ण होते हैं (रत्नत्रयालंकृतं ) रत्नत्रय से शोभायमान होते हैं (भव्यलोकस्य जीवस्य ) भव्य लोक जीवोंके द्वारा ( रत्नत्रयं प्रपूजितं ) रत्नत्रय पूजने योग्य हैं ।
विशेषार्थ – साधुमें २८ मूलगुण पूर्ण होने चाहिये, वे इस प्रकार हैं
पांच महाव्रत अहिंसादि + पांच समिति ईर्या भाषा आदि + पांच इन्द्रियका दमन + छः आवश्यक - समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग + केशलोंच + नग्नपना + स्नान त्याग + दंत धावन त्याग +खडे भोजन + एकवार भोजन + भूमि शयन = २८ ।
DAY
। ।। ३३४ ॥
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शरणवरण
श्रावकाचार
तथा वे निश्चय घ व्यवहार रत्नत्र के साधक होते हैं। व्यवहार सम्यग्दर्शन निमित्त है जब कि निश्चय सम्यग्दर्शन साक्षात् मोक्षमार्ग है, व्यवहार सम्यग्ज्ञान निमित्त है जब कि निश्चय सम्प. रज्ञान साक्षात् मोक्षमार्ग है, व्यवहार सम्पचारित्र निमित्त है जब कि निश्चय सम्यकचारित्र साक्षात् मोक्षमार्ग है। तीनोंकी एकता मोक्षमार्ग है, पृथक् पृथक नहीं। जहां सुहात्मानुभवका अभ्यास है वहां स्वयं तीनोंकी एकता है। साघुओंके इसीका मुख्य साधन रहता है, क्योंकि साधु जन रत्नत्रयसे विभूषित होते हैं इसलिये भव्य जीव उनकी पूजा करते हैं, उनके गुणोंका स्मरण करते हैं, उनको दान देते हैं, उनसे धर्मोपदेश लेकर स्वयं उसपर चलते हैं।
श्लोक-देवं गुरुं पूज साधं च, अंग सम्यक्त शुद्धये ।
साध ग्यानमय शुद्ध, सम्यग्दर्शनमुत्तम ॥ ३४३ ॥ अन्वयार्थ- (देवं गुरुं अंग साधं च पून) देव, गुरु और शास्त्रकी पूजा (सम्यक्त शुद्धये) सम्यग्दर्शनकी शुद्धिके लिये कर्तव्य है (ज्ञानमयं शुद्ध सार्थ) साथ में ज्ञान स्वरूप शुद्ध आत्माका अनुभव करना (उत्तम सम्यग्दर्शनं ) उत्तम सम्यग्दर्शन है।
विशेषार्थ-यहां यह उपदेश दिया है कि पांच परमेष्ठी जैसे पूज्य है वैसे उनकी अंग पूर्वरूप पाणी भी पूज्य है। देवमें अरईत सिद्ध.गुरुमें आचार्य, उपाध्याय, साधु गर्भित हैं। देव शास्त्र गुरुकी पूजा निश्चय सम्यक्तकी प्राप्तिके लिये तथा यदि निश्चय सम्यक्त हो तो उसकी दृढ़ता व शुद्धिके लिये निरन्तर करना योग्य है । भक्ति करनेसे मनपर उनके पवित्र गुणोंके स्मरणका प्रभाव पड़ता है। जिससे परिणामों में कषायकी मंदता होती है। एक वस्तु आतापमय होरही है, उष्णतामें जाज्वल्यमान है, उसको पुनः पुनः शांत जल में डुबानेसे उसका आताप धोरे २ शमन होजाता है। उसी तरह हम संसारी जीव भरकी आतापसे शंतापित हैं, विषय कषायके दोषसे दूषित हैं तब हमें उचित है कि हम अपनेको परम वीतराग देव शास्त्र गुरुकी भक्ति में डुबावें। उनकी शांति हमारे भवातापको शांत करने में व उनका विषय-कषायोंसे वैराग्यमय बनाने में निमित्त पडेगा, इसलिये नित्य व्रती श्रावकको देव शास्त्र गुरुकी पूजा करनी योग्य है, भलेप्रकार भाव लगाकर करनी योग्य है, जिसमें पूज्यमें पूजकका भाव लवलीन होजावे। इससे अनंतानुबन्धी कषाय व मिथ्यात्वको
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सारणतरण ॥२३६॥।
उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका बल घटेगा और यदि सम्यक्त होगा तो अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरणादि कषायका बल घटेगा । इस व्यवहार सम्यग्दर्शनकी सेवा करते हुए श्रावकको यह भी योग्य है कि वह ज्ञानमई शुद्धात्माकी भावना भी करें । यही भावना उत्तम या निश्चय सम्यक्तकी भावना है ।
श्लोक - ज्ञानं च ज्ञानशुद्धं च शुद्ध तत्व प्रकाशकं ।
ज्ञानमयं च संशुद्धं ज्ञानं सर्वत्र लोकितं ॥ ३४४ ॥
अन्वयार्थ— (ज्ञानं च ) व्यवहाररूप अंग पूर्वादिका ज्ञान ( ज्ञान शुद्धं च ) तथा शुद्ध आत्माका ज्ञान (शुद्ध तत्त्व प्रकाशकं ) शुद्ध आत्माके स्वरूपको प्रकाश करनेवाले हैं (ज्ञानमयं च संशुद्धं ज्ञानं ) ज्ञानं मई परम शुद्ध केवलज्ञान (सर्वत्र लोकित) सर्व पदार्थों को देखनेवाला है ।
विशेषार्थ – यहां यह बताया है कि सम्यग्ज्ञानकी आराधना परम कार्यकारी है। शुद्ध आत्माके प्रकाशके लिये, आत्मा के रणको काटनेके लिये, शुद्ध आत्मज्ञानका अनुभव, मनन, चिंतवन परमावश्यक है । समयसार कलशमें कहा है
भावयेद् भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया । तावद्यावत्पराफच्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठितं ॥
भावार्थ - जबतक पर परिणति से छूटकर ज्ञान ज्ञानमें स्थिरता न पाले अर्थात् जबतक केवलज्ञान न हो बराबर भेदविज्ञानकी भावना करते रहो अर्थात् अपने आत्माको सर्व परभाव, परद्रव्य व कर्म जति नैमित्तिक भावसे जुदा अनुभव करते रहो। इस आत्मीक भावनाकी शुद्धि व दृढताके लिये जिनवाणीका अभ्यास परमावश्यक निमित्त कारण है। जहांतक निर्विकल्प समाधि न हो व शुक्लध्यानका प्रारम्भ न हो तथा छठा सातवां गुणस्थान पुनः पुनः होता रहता हो वहांतक शास्त्रका पढना आवश्यक आलम्बन है । सम्यग्ज्ञान के आराधन से ही सम्यग्ज्ञानका प्रकाश होता है, श्रुतज्ञान ही केवलज्ञानका कारण है । और जब शुद्ध केवलज्ञान होजाता है तब सर्व जानने योग्य जान लिया जाता है, क्योंकि ज्ञानका बाधक ज्ञानावरणका कोई अंश उदयमें नहीं रहा है तब सूर्य प्रकाशके समान पूर्ण ज्ञानका प्रकाश क्यों न हो । सर्वज्ञत्वपना सर्वदर्शीपना शुद्धात्माका मुख्य गुण है । अतएव सम्यग्ज्ञानकी आराधना नित्य करनी योग्य है ।
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श्राव
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तारणतरण
॥ ३३७ ॥
श्लोक - ज्ञानं आराध्यते येन, पूज्य तत्वं च विंदते । शुद्धस्य पूज्यते लोके, ज्ञानमयं सार्थं ध्रुवं ॥ ३४५ ॥
अन्वयार्थ–(मेन ज्ञानं माराध्यते ) जिसने ज्ञानकी आराधना को हो व (पूज्य तत्वं च विंदते ) व पूज्य - नीय आत्मतत्वका अनुभव किया है ऐसे ( शुद्धस्य कोके पूज्यते ) शुद्ध ज्ञानधारीकी ही लोक में प्रतिष्ठा होती है (ज्ञानमयं सार्थ ध्रुवं ) ज्ञानमय रहना ही निश्चल यथार्थ तत्व है ।
बिशेषार्थ – ज्ञानाराधनाका महात्म्य बताते हैं कि पांचों परमेष्ठी ज्ञानकी आराधना करके ही हुए । इस ही आराधनाके द्वारा पूज्यपना है। जगतके भव्य जीव पांच परमेष्ठी महाराजको ज्ञानाराधनके गुणके द्वारा ही पूजते हैं। सिद्ध भगवान सिद्ध अवस्था में शुद्ध आत्मा में तल्लीन होते हुए ज्ञानचेतनाका आराधन कर रहे हैं। जब साधक अवस्था में थे तब भी यही आराधना थी ।
अरहंत परमेष्ठी भी निरंतर शुद्ध ज्ञानचेतनाका स्वाद लेते रहते हैं । पहले भी इसीका ही आराधन किया था । आचार्य, उपाध्याय तथा साधु शुद्धात्मा की आराधनाके कारण हो स्वयं मोक्षमार्गी हैं तथा भव्योंके द्वारा पूज्यनीय हैं।
इसलिये ज्ञानमई शुद्ध आत्मीक तत्व ही यथार्थ निश्चल तत्व है । इस तत्वको जिस जिसने ध्याया वही यथार्थ ज्ञानका आराधक है । इसलिये सम्यग्दृष्टोको देव, शास्त्र, गुरुकी पूजा भक्ति करते हुए उसी में ही संतोष मानके न रह जाना चाहिये परंतु एकांत स्थान में बैठकर शुद्ध आत्मीक तत्वका शुद्ध नयके द्वारा अवलोकन करके उसीका मनन करना चाहिये । उसीके सिवाय सर्व पर वस्तुओंसे राग छोड़ देना चाहिये । कर्मफलचेतना व कर्मचेतनाका व्यवहार बंद करके ज्ञान चेतना - मय रहनेका पुरुषार्थ करना योग्य है । इसीसे मोक्षको सीढीपर चढना होगा, यही परम दृढ आलंबन है ।
शास्त्र भक्ति ।
श्लोक – ज्ञानगुणं च चत्वारि, श्रुत पूजा सदा बुधैः ।
धर्मध्यानं च संयुक्तं, श्रुतपूजा विधीयते ।। ३४६ ॥
श्रावकाचार
॥१३७॥
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वारणतरण
अन्वयार्थ-ज्ञान गुणं च चत्वारि ) ज्ञान गुणकै देनेवाले चार अनुयोग हैं (श्रुतपूना सदा बुधैः) उन
श्रावकाचार ॐ शास्त्रोंकी पूजा सदा बुद्धिमानोंको करनी चाहिये (धर्मध्यानं च संयुक्त) धर्मध्यान सहित ही (श्रतपूना ४ विधीयते) श्रुतपूजा करनी योग्य है।
विशेषार्थ-जिनवाणीके शास्त्र चार अनुयोगों में वटे हैं-प्रथमानुयोग आदि। इन शास्त्रोंको पढनेसे ज्ञानकी प्राप्ति होती है। अतएव किसी प्रकारकी लौकिक कांक्षा न रखके मात्र आत्मकल्याणके हेतु ही उन शास्त्रोंका पठन पाठन करना उचित है। तथा भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी उचित है। ज्ञानाभ्यास यह बहुत ही आवश्यक गृहस्थ कर्म है। शास्त्रके ध्यान पूर्वक पढनेसे मनके कुभाव बंद होजाते हैं,चिंताएं मिट जाती हैं, अज्ञानका नाश होता है, ज्ञानका प्रकाश होता है, कर्मकी निर्जरा होती है। प्राचीन आचार्योंने जो तत्वोंका मनन किया है उसका बोध होनेसे ज्ञान स्पष्ट होता है। यथार्थ भक्ति शास्त्रकी यही है जो उसका अर्थ भलेप्रकार समझकर धारणामें लिया जावे-उसको कालांतरमें भूला न जावे । रात दिन तत्वका विचार मनको प्रसन्न रखने के लिये वडा भारी साधन १ है। विषय कषायोंके मार्गसे बचानेवाला ज्ञानोपयोग है, आत्मा व अनात्माका भिन्नर स्वरूप सामने रखनेवाला तत्वका अभ्यास है, एक ही विषयके अनेक शास्त्रोंको पढकर हमें ज्ञानको निर्मल करना चाहिये । जितना अधिक शास्त्रोंका विशेष ज्ञान होगा उतना ही उपयोग अधिक देर तक वस्तुके विचारमें लग सकेगा । व्यवहार में श्रुतपूजा यह है कि हम उच्चासनपर शास्त्रोंको विराजमान करके उनकी स्तुति करके उनके भीतर अपनी गाढ भक्ति उत्पन्न करें। श्रुतभक्ति ज्ञानकी प्राप्तिमें दृढ निश्चय करानेवाली है। आत्महितके हेतु शास्त्र पढना व श्रुतपूजा करना धर्मध्यान है।
श्लोक-प्रथमानुयोग करणं, चरणं द्रव्याणि विंदंते ।
___ ज्ञानं ति अर्थ संपूर्ण, साध्यं पूजा सदा बुधैः ॥ ३४७ ॥ मन्वयार्थ-(प्रथमानुयोग करणं चरणं द्रव्याणि विदेते) प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग ऐसे चार प्रकार शास्त्र जानने चाहिये । (ज्ञानं ति अर्थ सम्पूर्ण) तीन अर्थ रत्नत्रय सहित जो ज्ञान है उसीकी (पूना सदा बुधैः साध्यं ) पूजा सदा पंडितोंको करनी योग्य है। विशेषार्थ-अनुयोगके चार भेद हैं जिनमें प्रथम अवस्थाके शिष्योंको धर्ममें रुचि बढ़ाने के
॥११८
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सारणतरण ॥३३९॥
हेतुसे भिन्न २ महापुरुषोंके व महान महिलाओंके जीवनचरित्र दिखलाए हों, कर्मोंका बंध व फल बताया हो, संसारका नाटक क्षणभंगुर दिखलाया हो, मिथ्यात्सके सेवन से क्या दुर्गति होती है, सम्यक्तके आराधनसे क्या २ सुख व कैसी सुगति होती है यह बताया हो, किन किनने आत्मध्यान करके मोक्ष पाई । मोक्ष प्राप्त आत्माएं किसतरह अनंतकाल तक सुखभोगती हैं ये सब दृष्टांत बताए हों। मोक्षकी सारता व संसारकी असारता कथाओंके द्वारा झलकाई हो, धर्म में रुचि बढाने व असे रुचि हटाने की युक्तिसे कथाएं लिखी गई हों सो प्रथमानुयोग बहुत ही उपयोगी शास्त्र विभाग है। दूसरा करणानुयोग है जिसमें तीन लोककी रचना, कहां२ कौन२ जीव पैदा होते हैं उनकी क्या व्यवस्था है, जीवों के परिणाम कितनी जातिके होते है, उनके कैसे २ कमका बंध होता है, कमकी माप उदय आदि व भावोंके भेद आदिका गुणस्थान व मार्गणाके रूपमें कथन हो, हरएक वस्तुका सूक्ष्म परिणमन जिससे मालूम हो, हरएकका हिसाब समझमें आवे । जैसी कुछ पर्यायें होती हैं व नाश होती है उनकी सर्व चर्चाएँ मालूम पडे सो करणानुयोग है । जिनसे मुनियोंके श्रावकों के बाहरी चारित्र पालनेके नियम मालूम हों, क्या२ व्रत उपवास किसतरह करना चाहिये, क्या क्या अतीचार बचाना चाहिये, श्रावकके आचरणकी ११ श्रेणियों में क्या २ चारित्र पालना चाहिये, साधुओंका चारित्र क्या है, उनको कैसे भिक्षा करना, विहार करना, भाषण करना, किसतरह समय विताना यह सब कथन किया हो वह चरणानुयोग है। जिन शास्त्रों में जीवादि छः द्रव्योंका व सात तत्वोंका स्वरूप दिखलाते हुए आत्मा द्रव्यकी विशेष महिमा बताई हो, शुद्ध निश्चय नघकी मुख्यतासे शुद्ध आत्माका विशेष कथन किया हो, आत्मानुभवकी रीति बताई हो, आत्मोन्नति के मार्ग झलकाए हों, अतीन्द्रिय आनन्द पानेका उपाय समझाया हो, व्यवहार नय व निश्चय नयसे पदार्थको बताकर निश्चय नयके विषय पर आरूढ कराया हो, वीतरागताका विशेष चित्रण जिसमें हो, द्रव्योंकी सूक्ष्मताका विवेचन हो सो सब द्रव्यानुयोग शास्त्र है । इन चारों प्रकारके शास्त्रकी पूजा करते हुए ज्ञान लाभ करना चाहिये ।
श्लोक- प्रथमानुयोग विंदंते, व्यञ्जन पद शब्दयं ।
तदर्थं पदशुद्धं च ज्ञानं आत्मालं गुणं ॥ ३४८ ॥
श्रावकाचार
॥१३९॥
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खारणतरण
श्रावकाचार अन्वयार्थ-(प्रथमानुयोग विदेते ) प्रथमानुयोग शास्त्रका अनुभव करना चाहिये (व्यञ्जन पद शब्दयं 5 ॥३४॥ Vतदर्थ पद शुद्ध च) उनके अक्षर, शब्द, वाक्य तथा उसके अर्थ व उसके भावार्थ व उससे प्रगट पदार्थको ४
शुद्ध जानना चाहिये (ज्ञानं आत्मालं गुणं) यथार्थ ज्ञान ही आत्माका गुण है।
विशेषार्थ-प्रथमानुयोगमें महान पुरुषों के जीवनचरित्र होते हैं। उनमें कविता व अलंकार छंद व मनोहरता भी होती है जिससे प्रथम अवस्थाके रागी शिष्योंका मन कथाओंके पढने में रंजायमान होसके। अनेक दृष्टांत दे करके नगरकी, शरीरकी व अन्य पदार्थों की शोभा कही जाती है, युद्धादिका भी वर्णन आता है। धर्म, अर्थ, काम तीनों पुरुषार्थोंको गृहस्थोंने कैसा साधा उसका कथन आता है। कहीं शृंगार, कहीं वोर, कहीं भय, कहीं शोक, कहीं रुदन, कहीं रौद्रध्यान आदि अनेक भावोंका कथन आता है। कहीं वैराग्य व संसारकी असारताका वर्णन आता है। पढनेवालेको उचित है कि अक्षरोंको ठीक पहचाने, उनके मिले हुए शब्दोंको अलग १ जाने, उन शब्दोंके मिले हुए। वाक्योंको अलग २ समझें, वाक्योंके अर्थ ठीक २ लगावें, फिर उनका भावार्थ ठीक २ समो, फिर ४ उनसे किस पदार्थका वर्णन झलकता है सो जाने, नौ पदार्थों मेंसे किसका वर्णन है सो पहचाने, जीवका है कि अजीवका है, आश्रवका है कि बंधका है, संवरका है कि निर्जराका है, मोक्षका है कि पुण्य तथा पापका है। जहां आश्रव बंध पुण्य पाप अजीवका कथन आवे उसको त्यागने योग्य जाने, जहां संवर, निर्जरा व मोक्ष तथा जीवका कथन आवे उसको व्यवहार नयसे ग्रहण योग्य माने । प्रथमानुयोगके कथा-ग्रंथोंको पढते हुए कथाओंके राग द्वेषमई वर्णनमें रंजायमान न होवे, किन्तु उनको जानकर पाप पुण्य कर्मका फल विचारे । किन २ भावोंसे कैसा २ काँका आश्रव व बंध किस जीवने किया व कौन २ धर्म पाला जिससे पापोंको रोका व कैसा तप किया जिससे कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष पाई, इसतरह पढनेवालेकी दृष्टि धर्मध्यानकी तरफ व तत्वके विचारकी तरफ रहनी चाहिये, तब ही आत्मामें यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति होगी। यह प्रथमानुयोग भी जीवनका चारित्र उत्तम बनानेके लिये बहुत उपयोगी है।
श्लोक-व्यंजनं च पदार्थ च, शाश्वतं नाम सार्थयं । ॐ वंकारं च विदंते, साधं ज्ञानमयं ध्रुवं ॥ ३४९ ॥
॥३४॥
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अन्वयार्थ-(व्यंजनं च पदार्थ च शाश्वतं नाम सार्थय) अक्षर, शब्द व पदार्थ, नाम व उनके अर्थ सब सारणतरण
सदासे चले आरहे हैं (ॐ वंकारं च विंदते) ॐ के भावको अनुभव करना चाहिये (ध्रुवं ज्ञानमयं सार्थ) श्रावकाचार १३४२॥
निश्चल ज्ञानमई आत्माको साथ २ जानना चाहिये।
विशेषार्थ-यद्यपि देशकालानुसार भाषाओंका परिवर्तन होजाता है तथापि अनादिकालीन ॐ जगतमें मानवोंकी वाणी प्रचलित है व शास्त्रका ज्ञान प्रचलित है, सदा ही तीर्थकर होते रहे हैं, र उनका उपदेश होता रहा है, उसको गणधरोंने सुना है। बादशांगवाणीकी रचना की है। पदार्थोके ।।
नाम रक्खे हैं, नामसे अर्थ निकलता है, अर्थसे नौ पदार्थों के भाव झलकते हैं। ये सब श्रुतज्ञान व शास्त्रज्ञान प्रवाहकी अपेक्षा शाश्वत है, चला आया है, चला जायगा । प्रवाहकी अपेक्षा अनादि व अनन्त है। एक विशेष व्यक्तिकी अपेक्षा सादि व शांत होसक्ता है। ऐसे प्रथमानुयोग शास्त्रके भीतर भी ज्ञानीको ॐ का अनुभव करना चाहिये तथा अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा
साधुका स्वरूप जानना चाहिये । पढनेवालेकी दृष्टि उनके स्वरूपकी खोजपर रहनी चाहिये, ४जहां कहीं बारह भावनाका, ब्रतोंके स्वरूपका, साधुके चारित्रका, उनके अरहंत होनेका, उनके द्वारा ॐ वाणीकै प्रकाशका व सिद्ध होनेका कथन आवे उसको विशेष ध्यानमें लेना चाहिये । चौवीस तीर्थ
करोंके जीवनचरित्रोंमें यह सब कथन आता ही है। फिर इनके भीतर शुद्ध निश्चय नयसे ज्ञानमई शुद्ध निश्चल आत्माको भी पहचाने । जितने प्राणी सिद्ध हुए हैं वे स्वभावसे वैसे ही थे, कमौके
पटलमें ढके हुए थे। पटल इट गया प्रकट होगए। इसतरह हरएक जीवका स्वभाव निश्चयसे शुद्ध ४ बुद्ध अविनाशी परमानंदमय है, ऐमा समझकर वस्तुका आनन्द लूटे। इस दृष्टिसे प्रथमानुयोगके उग्रंथोंको पढनेसे यथार्थ शास्त्रकी भक्तिका फल प्राप्त होसकेगा।
श्लोक-करणानुयोग संपूर्ण, स्वात्मचिंता सदा बुधैः।।
स्व स्वरूपं च आराध्यं, करणानुयोग शाश्वतं ॥ ३५०॥ मन्वयार्थ—(करणानुयोग सम्पूर्ण) करणानुयोग पूर्ण पढना चाहिये (स्वात्मचिंता सदा बुधैः) उसके द्वारा पंडितोंको अपने आत्माकी चिंता करनी चाहिये (च स्वस्वरूपं आराध्य) फिर अपने स्वरूपका ध्यान करना चाहिये (करणानुयोग शाश्वतं) यह करणानुयोग सदासे वस्तुका स्वरूप बतानेवाला है।
॥३४॥
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-तारणतरण
वितेश्चतुर्गतीनां च ।
विभागको,
यु
तीसरी वि
विशेषार्थ-करणानुयोग सूक्ष्म पदार्थोंका व उनकी सूक्ष्मसे सूक्ष्म अवस्थाका बतानेवाला है। श्रावकाचार रत्नकरंड श्रावकाचारमें इसका स्वरूप है।
लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । भादमिव तथामतिरवैति करणानुयोग च ॥ ४ ॥
भावार्थ-यह करणानुयोग लोक और अलोकके विभागको, युगके परिवर्तनको, चार गतिके जीवोंके स्वरूपको दपणके समान यथार्थ बतलानेवाला है। कारण तीसरी विभक्तिको भी कहते हैं जो किसी वस्तुका साधन हो उसे करण कहते हैं। अंक गणित, रेखा गणित, बीज गणित, क्षेत्र समास आदिका ज्ञान भलेमकार करके तीन लोकका आकार, माप, नारकी, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, मनुष्य, तिर्यच, कल्पवासी देव व कल्पातीत अहमिंद्र व सिडलोक इन सबका कहां । क्षेत्र है, वह क्षेत्र कितना बडा है, किस तरह स्थित है यह सब जानना चाहिये । अबसर्पिणी उत्सर्पिणी कालका परिवर्तन कहां होता है कैसे होता है व कहां नहीं होता है यह जानना चाहिये । चार गतिके जीवोंके भाव किस तरहके होते हैं उनकी क्या २ अवस्थाएं होती हैं, उनके परिणाम कैसे चढते हैं, कौन २ गुणस्थान किस गतिमें होते हैं, किस गतिमें किसके कितने
काँका बंध, उदय व कितने कमौकी सत्ता रहती है, परिणामोंका चढन किस तरह होता है, ॐ सूक्ष्मसे सूक्ष्म हिसाब हरएक प्राणीकी अवस्थाका बतानेवाला यह करणानुयोग है। जिन ४
परिणामोंसे सम्यक्त होता है उन अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण भावोंको झलकाता है। सम्यक्तीको बंधक क्यों कहते हैं व अबंधक क्यों कहते हैं यह भेद करणानुयोगके हिसाबसे मालूम पडता है कि वह मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृतियोंका बंध नहीं करता है परंतु चारित्र मोहके उदय जनित मलीनताकी अपेक्षा बंध करता है । करणानुयोग बताता है कि किसतरह कषायोंका धीरे २
घटाव गुणस्थान गुणस्थानपर होता है व किसतरह कषायके यकायक उदय आजानेसे यह जीव छठे 5 गुणस्थानसे मिथ्यात्वमें व पांचवें व चौथेसे मिथ्यात्वमें चला आता है। जो यह बाहरी क्रियापर
लक्ष्य न देता हुआ भावोंकी तौल करना बताता है। एक मुनि यदि संसारासक्त है, आत्मानुभवकी कलासे खाली है तो यह करणानुयोग उसको मिथ्यादृष्टी कहता है । तथा एक चंडाल यदि सम्यक्तसे विभूषित है तो यह उसको सम्यग्दृष्टी, ज्ञानी व मोक्षमार्गी कहता है। श्री त्रिलोकसार, गोमहसार, ॥३४॥
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तारणतरण
॥ ३४३ ॥
लब्धिसार, क्षपणासार आदि ग्रंथोंसे तीन लोकका व चार गतिके जीवोंका स्वरूप भलेप्रकार झलकता है । इसतरह जानकर अपने आत्माकी इस अनादि संसारमें कैसी कैसी दुर्व्यवस्था हुई है उसको विचारना चाहिये | यह किसतरह चतुर्गति में भ्रमण करके व किनर भावोंसे क्या कर्म बांधकर दुःख उठा चुका है, इसतरह विचारकर संसार से वैराग्य व मुक्तिपदसे रुचि करके उसके उपाय रूप अपने निज शुद्ध स्वरूपको ध्याना चाहिये, यही इस अनादिकालीन करणानुयोग शास्त्रको पढ़नेका प्रयोजन है। श्लोक – शुद्धात्मा चेतनं येन, ॐ वं ह्रियं श्रियं पदं ।
पंचदीतिमयं शुद्धं, सुयं शुद्धात्मा गुणं ॥ ३५१ ॥
अन्वयार्थ – (येन ) जिस कारण, योगकी सहायता से (शुद्धात्मा चेतनं ) शुद्ध आत्माका अनुभव होवे तथा ( ॐ वं ह्रियं श्रियं पदं पंच दीप्तिभयं शुद्धं ) ॐ ह्रीं श्रीं पदको व पांच परमेष्ठीके शुद्ध स्वरूपको तथा ( शुद्धात्मा गुण) शुद्धात्माके गुणोंको जाना जाये यही (सुर्य) करणानुयोग श्रुत 1
विशेषार्थ — यहां इस बातको स्पष्ट किया है कि जो कोई मात्र तीन लोकका स्वरूप जानले व गुणस्थान मार्गणा का स्वरूप जानले व कर्मोंके बंध, उदय सत्ताका स्वरूप जानले व चार गतिके जीवोंका स्वरूप जानले व कालचक्र के स्वरूपको जानले और विशेष पंडित होके ज्ञानका मद करे, मात्र पंडिताई प्रकाश करे, मान कषायको बढाये, अपना सच्चा हित न करे उनको शिक्षा दी है कि करणानुयोग के जाननेका फल यह है कि हम ॐ ह्रीं श्रीं पदोंसे प्रकाशित अरहंत, सिड, आचार्य, उपाध्याय और साधुओंके स्वरूपको गुणस्थानकी अपेक्षा व कमौके उदप, बंध, क्षयकी अपेक्षा तारतम्य सूक्ष्मता से जानें और इनके सच्चे स्वरूपको यथार्थ पहचानें, न कम जाने न अधिक जाने । तथा यह भी जाने कि शुद्धात्माके गुण क्या क्या है तथा उनको आवरण कर्म किस किस तरह करते हैं । तथा कमौके क्षयका उपाय एक शुद्धात्मानुभव है ऐसा समझकर निरंतर शुद्धात्माका अनुभव व चेतना व ध्यान करना योग्य है । यदि करणानुयोगको जानकर अपने परिणामोंको शांत, वीतराग व स्वस्वरूपमें रमणरूप न बनाया तो करणानुयोगके पढनेका कोई सच्चा फल न हुआ । यदि शुद्ध वीतराग परिणतिका उद्देश्य रखते हुए करणानुयोगका ज्ञान है तो वह सच्चा श्रुतज्ञान है । व अवश्य मोक्षका कारण है ।
श्रावकाथ
।। २४२ ॥
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तारणतरण
श्रावकाचार
॥३४॥
श्लोक-शल्यं मिथ्यामयं त्यक्तं, कुज्ञान त्रिविध त्यक्तयं ।
ऊधं च ऊर्ध सद्भाव, ॐवं कारं च विंदते ॥ ३५२ ॥ अन्वयार्थ-(मिथ्यामयं शल्यं त्यक्तं ) मिथ्यारूप तीन शल्यको त्यागना चाहिये (कुज्ञान त्रिविध त्यक्तयं) तीन प्रकार कुज्ञानको त्यागना चाहिये (ऊषं च ऊर्ध सदभावं च ॐ वंकारं विंदते) तथा ऊर्ष अर्थात् सिड भगवानको और उनके स्वभावको तथा ॐ को भलेप्रकार जानना चाहिये।
विशेषार्थ-करणानुयोगसे सूक्ष्मज्ञान करके उनका उपयोग मिथ्यात्वकी पुष्टिमें, मायाचारके प्रयोगमें व किसी विषयभोगकी प्राप्तिकी कामनारूप निदानमें नहीं करना चाहिये। तीन शल्यको छोडकर धर्मध्यानके हेतु उसका उपयोग करना चाहिये, तथा ज्ञानके तीन दोष बचाने चाहिये । संशय, विपरीत व अनध्यवसाय (बेपरवाही) इन तीन दोषोंसे रहित ज्ञानको यथार्थ स्पष्ट प्राप्त करना चाहिये । अथवा कुमति, कुश्रुत, कुअवधि तीन कुज्ञानोंसे बचना चाहिये अर्थात् मिथ्यात्वके परिणामको दिलसे निकाल डालना चाहिये । सर्वसे उत्कृष्ट जो ऊर्धलोकमें विराजमान ऐसे सिडभगवानको भलेप्रकार समझना चाहिये। तथा उनके शुद्ध गुणोंका वार वार मनन करना चाहिये। ॐ के भीतर गर्भित पांच परमेष्ठीका स्वरूप विचार करके निश्चय नयसे उनमें शुखात्माको देखना चाहिये।
श्लोक-द्रव्यदृष्टी च सम्पूर्ण, शुद्धं सम्यग्दर्शनं ।
ज्ञानमयं सार्थ शुद्धं, करणानुयोग चिंतनं ॥ ३५३ ॥ अन्वयार्थ- द्रव्यदृष्टी च सम्पूर्ण ) द्रव्यदृष्टि या द्रव्यार्थिक नय पूर्ण द्रव्यको देखनेवाली है इसीके . द्वारा (शुद्धं सम्यग्दर्शनं) शुद्ध सम्यग्दर्शनका लाभ होता है (ज्ञानमयं सार्थ शुद्ध) ज्ञानमई यथार्थ शुद्ध आत्माका अनुभव होता है। यही (करणानुयोग चिंतन) करणानुयोगकी चिंताका फल है।
विशेषार्थ-करणानुयोगमें यद्यपि मुख्यतासे पर्यायार्थिक नयसे अनेक भेद प्रभेदका कथन है उसको भलेप्रकार जानकरके ही संतोष न कर लेना चाहिये, मात्र भेदरूप अशुद्ध ज्ञान अकेला सम्यग्यदर्शनकी प्राप्ति नहीं करा सक्ता है इसलिये शुद्ध द्रव्यार्थिक नय या निश्चय नयसे भी द्रव्योंका
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वारणतरण
१४५॥
स्वरूप देखना चाहिये । शुद्ध नय भात्माको शुद्ध एकाकार अभेद अपने शुरु गुणोंसे पूर्ण, सिर सम श्रावकाचार परमात्मा रूप झलकाती है । इस दृष्टिसे जब बार बार विचार किया जाता है और कर्मजनित भावोंको व आठ कर्मकी रचनाको व शरीरादिको भिन्न अनुभव किया जाता है-इसी भेदज्ञानके अभ्याससे ही धीरे धीरे अनतानुबन्धी कषाय व मिथ्यात्व कर्मका उपशम होजाता है और शुर सम्यग्दर्शन प्राप्त होजाता है। जिस समय यह निश्चय सम्यक्त पैदा होता है उस समय ही मोक्ष.* मार्गका प्रारंभ व तब ही स्वरूपाचरणचारित्र होता है, स्मात्मानुभव होता है, परमानन्दका लाभ होता है। शुरज्ञानमई यथार्थ आस्मीक तत्व अपनी दृष्टिके सामने द्रव्यदृष्टि से ही रहता है इसलिये व्यवहार या पर्याय दृष्टिसे पर्यायोंको ठीक ठीक समझनेका काम लेना चाहिये तथा स्वात्मा-y नुभवके लिये शुख द्रव्यदृष्टिका आलम्बन लेकर पुरुषार्थ करना चाहिये । जहां स्वानुभव होता है * वहां तो नय सम्बन्धी विकल्प रहता ही नहीं है। करणानुयोगके चिंतवनका यही फल है जो शुद्ध सम्यग्दर्शनका लाभ हो।
श्लोक-चरणानुयोग चारित्रं, चिद्रूपं रूप दिष्टते ।
ऊद्ध अधो च मध्यं च, संपूर्ण ज्ञानमयं ध्रुवं ॥ ३५४ ॥ अन्वयार्थ (चरणानुयोग चारित्रं ) चरणानुयोग चारित्रका वर्णन करता है उसके द्वारा (चिद्रूपं रूप दिष्टते) चैतन्य स्वभाव आत्माका अनुभव होता है जिससे (ऊर्द्व अवो च मध्यं च ) ऊपर नीचे व मध्य में (सम्पूर्ण ज्ञानमयं ध्रुवं ) सर्व तरफ ज्ञानमय निश्चल आत्माका दर्शन होता है।
विशेषार्थ-चरणानुयोगमें मुनि व गृहस्थके व्यवहार चारित्रका वर्णन है। यह व्यवहार चारित्र निश्चय चारित्रका निमित्त कारण है। मन वचन कायकी चंचलता ध्यानमें बाधक है। जितना अधिक हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म व परिग्रहके प्रपंच में अनुरक्त रहा जायगा उतना ही अधिक मन वचन कायका विशेष व अविवेकरूप प्रवर्तन होगा। इन पांचों पापोंका त्याग मनके संकल्पोंको मिटाने. वाला है। मनके अनेक विचार हटे कि वचन व कायकी प्रवृत्ति थम जाती है। मनको निश्चलतामें लाने के लिये चिंताओंका अभाव करना चाहिये। ये चिंताएं गृह, स्त्री, पुत्र, कुटम्पादिके निमित्तसे ही अधिक होती हैं इसलिये इनके पूर्ण निवारणके लिये सर्व परिग्रहका त्याग आवश्यक है, साधुका ॥३४५६
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तारणतरण ॥१४६॥
चारित्र धारना जरूरी है, साधु हो एकान्तमें तिष्ठकर जब आत्माका मनन किया जायगा तब निश्चय चारित्र जो आत्माका अनुभव है सो प्राप्त होगा । विना व्यवहार चारित्रको सहायता के परिणामों में निराकुलताका लाभ होना कठिन है, इसलिये चरणानुयोगमें कहे अनुसार सम्यग्दृष्टी Grant श्रावकका चारित्र ग्यारह प्रतिमारूप व मुनिका चारित्र अट्ठाईस मूलगुण रूप पालते हुए मनको निर्विकल्प करते हुए निश्चय चारित्रको पाना चाहिये । यदि आत्मानुभव रूप निश्चय चारित्र न मिला तो व्यवहार चारित्र मोक्षका साधक न हुआ । यहां लोकमें निश्चय चारित्रकी प्रधानता करके कहा है कि वहां शुद्धात्माका स्वभाव ऐसी एकाग्रता से अनुभव किया जाता है कि तीनों लोकमें सर्वत्र उस ध्याताको वही चिदानंद एक रूप ही दिखता है उसके भीतर से अन्य विचार निकल जाते हैं । अथवा वह ध्याता भावना करता हुआ तीन लोकमें भरे सूक्ष्म तथा स्थूल जीवोंको शुद्ध निश्चय नपसे देखता हुआ, सर्वको परमात्मा देखता हुआ परम समतामई एक रसमें मगन होजाता है. वही आत्मीक चारित्र है ।
श्लोक - षट् कमलं त्रि ॐ वं च, साद्ध शुद्धधर्म संयुतं ।
चिद्रूपं रूप दिष्टंते, चरणं पंच दीप्तयं ॥ ३५५ ॥
अन्वयार्थ — (षट् कमलं त्रि ॐ वं च ) छः अक्षरी मंत्र वाले व तीन ॐ सहित कमलके ( सार्द्ध) साथ या सहारे से (शुद्ध धर्म संयुतं ) शुद्ध धर्मध्यान सहित अभ्यास करने से ( चिद्रूपं रूप दिष्टंते) चिदाकार स्वभाव अनुभव में आता है (चरणं पंच दीप्तयं ) सम्यक् चारित्र ही पंच परमेष्ठीका प्रकाशक है ।
विशेषार्थ - षट्कमलं आदि वाक्य पहले भी आचुके हैं इनका जो अर्थ पहले किया है वही हां कहा जाता है । ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हा इन अक्षरोंको एक आठ पत्ते के कमलपर जो कमल हृदयस्थानपर हो, इस तरह विराजमान करें कि ॐ को मध्य कमलकी कर्णिका में और पांच पत्तोंपर शेष ५ अथवा शेष तीन पत्तोंपर ॐ सम्यग्दर्शनाय नमः, ॐ सम्यग्ज्ञानाय नमः, ॐ सम्यक्चारित्राय नमः, इस तरहका कमल विचार करके कर्णिकाके व एक एक पत्ते परके एक एक अक्षर पदपर चित रोके, फिर गुणोंका विचार करता जावे । इन सबमें व्यवहार नयसे अरहंत, सिड, आचार्य, उपाध्याय, साधु गर्भित हैं। फिर निश्चय से उनहीके भीतर शुद्धात्माको देखें । इस तरह वारवार
श्रावकाचार
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॥ १४६ ॥
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श्रावकाशर
तारणतरण
अभ्यास करनेसे शुखात्माका अनुभव होता है। यही स्वरूपाचरण निश्चय चारित्र है। इसीके साधक
, साधु, उपाध्याय तथा आचार्य होते हैं। ॥३४७
अरहंत भगवानके प्रत्यक्ष आत्माका साध्यरूप स्वरूपाचरण चारित्र विद्यमान है। सिद्ध भग. वानके भी साक्षात् यही चारित्र है। पांचों ही परमेष्ठियों के भीतर स्वरूपाचरणई निश्वर चारि४त्रकी ही महिमा है। इसके विना कोई भी परमेष्ठी नहीं होसका है। चरणानुयोगका अभ्यास निश्चय चारित्रका बहुत सहायी है।
श्लोकद्रव्यानुयोग उत्पाद्य, द्रव्यदृष्टी च संयुतं ।
अनंतानंत दिष्टंते, स्वात्मानं व्यक्तरूपयं ॥ ३५६ ॥ अन्वयार्थ-(द्रव्यानुयोग उत्पा) द्रव्यानुयोगका अभ्यास करना चाहिये (द्रव्यदृष्टी च संयुत) साथ में द्रव्यार्थिक नयसे शुख आत्माकी दृष्टी भी प्राप्त करनी चाहिये जिससे (स्वात्मानं अनंतानंत व्यक्तरूपयं र विष्टते) अपने शुद्ध आत्माके समान जगतकी अनंतानंत आत्माएं प्रगट रूपसे दिखलाई पड़ें।
विशेषार्थ-चौथा अनुयोग द्रव्यानुयोग है जिसमें छः द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्व, नौ पदार्थोंका स्वरूप निश्चय तथा व्यवहार नयसे दिखलाया गया है। इन शास्त्रोंका रहस्य भलेप्रकार जानकर बंध और मोक्षका व संवर तथा निर्जराका स्वरूप समझकर छः द्रव्योंका परस्पर कार्य व सम्बन्ध जाकर सर्व लोककी व्यवस्थाको समझ ले फिर द्रव्यदृष्टिको प्रधान करके सामने लावे और
गहों द्रव्योंको जिनसे यह जगत भरा है अलग अलग शुद्ध अपने२ स्वरूपमें देखे । तब सब पुगल में परमाणु अलग अलग, सर्व जीव शुद्ध अलग अलग, सर्व असंख्पात कालाणु अलगर, धर्मास्तिकाय * अलग, अधर्मास्तिकाय अलग, आकाश अलग दिखलाई पड़ेगा । जैसा आप अपनेको द्रव्य दृष्टिके
द्वारा शुद्ध आत्मा जानेगा वैसा ही सर्व जगतमें भरे हुए अनंतानंत जीवोंको शुखात्मा जानेगा। १. ऐसा जानना ही द्रव्यानुयोगके जाननेका फल है। फिर वह अभ्यास करनेवाला सर्व विकल्पोंको
छोडकर मात्र एक अपने गुडात्मामें लयता प्राप्त करेगा, स्ससमयरूप होजायगा, स्वचारित्रमें मगन होजायगा यही द्रव्यानुयोगके शास्त्रोको पढनका फल है।
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तारणतरण
॥३४८॥
श्लोक- दिव्यं द्रव्यदृष्टी च नंतानंत चतुष्टं च
सर्वज्ञं शाश्वतं पदं । केवलं पद्मं ध्रुवं ॥ ३५७ ॥
अन्वयार्थ ~~( द्रव्यदृष्टी च दिव्यं) द्रव्धदृष्टि अपूर्व है, शोभनीक है ( सर्वज्ञं शाश्वतं पदं ) जो अपने आत्माको सर्वज्ञ व अविनाशी पदमें दिखाती है (नंतानंत चतुष्टं च ) जो अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख व अनंत वीर्यमय (केवलं) केवल असहाय पर संग रहित (धुवं ) निश्चल अविनाशी (पद्म) प्रफुल्लित कमलके समान विकसित व निर्लेप झलकाती है ।
विशेषार्थ – यहां शुद्ध निश्चयनय या द्रव्यार्थिक नयकी महिमा बताई है। जैसे भेदविज्ञानी विवेकीको तिलोंमें तेल व भूसी अलगर, धान्यमें चावल व भूसी अलगर, स्फटिकके माणिक में स्फटिक पाषाण व लाल डांक अलग २, चांदी सोनेके गहने में चादी सोना अलंग२, माणकसे जडी सोनेके अँगूठी में माणक व सोना अलग २, खीर में दूध, मीठा, चावल अलग२, रंगीन वस्त्रमें वस्त्र और रंग अलग ९ दिखता है वैसे मेदविज्ञानीको शुद्ध नय या द्रव्य दृष्टिके द्वारा देखते हुए अपना परका हरएक आत्मा सर्व ही आत्माएँ एक रूप, शुद्ध, परमात्मा सर्वज्ञके तुल्य सदा अविनाशी, अनंतचतुष्टयादि गुणोंसे अखण्ड भरपूर, सर्व पर द्रव्यके संग रहिन, एकाकी केवल स्वरूप, अपने स्वरूप में निश्चल, सर्व कर्मबंधकी व शरीरकी व रागादि मैलकी रचना से जैसे जलसे कमल अलिप्त है वैसे अलिप्त दिखते हैं। इस दृष्टिके द्वारा देखनेका अभ्यास समताभावको जागृत कर देता है, Treer foot कर देता है, वीतरागताकी व आत्मानुभवकी गुफा में पहुँचा जाता है, यह द्रव्यानुयोग द्रव्यदृष्टिको जो संसारके तमसे आच्छादित थी खोल देता है । यह मोक्ष मार्ग में परम सहाई है । श्लोक-चतुरगुणं च जानंते, पूजा वेदते बुधैः ।
संसारभ्रमणं मुक्तस्य, सुयं मुक्तिगामिनोः ॥ ३५८ ॥
अन्वयार्थ - (बुधैः ) बुद्धिमान पंडितोंको (चतुरगुणं च जानते ) इन चार अनुयोगोंको जानना चाहिये (पूजा वेदंत) व उनकी पूजा करनी चाहिये (सुर्य) यह श्रुतज्ञान (मुक्तिगामिनोः ) मोक्षमें जानेवाले प्राणीको (संसारे भ्रमणं मुक्तस्य ) संसारके भ्रमण से छुडानेवाला है ।
श्रावकाचार
||RYCK
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विशेषार्थ-जो गृहस्थ अपना परम कल्याण करना चाहें व मानव जीवनको सफल करना चाहें सारणतरण
उनका कर्तव्य है कि वे चारों अनुयोगोंके ग्रन्थोंको भलेप्रकार स्वाध्याय करें, प्रचलित वर्तमान दि. श्रावकाचार जैन ग्रंथों में ऋषिप्रणीत माननीय नीचे लिखे ग्रन्थ अवश्य पड जाने चाहिये:
प्रथमानुयोग-पदमपुराण, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, पार्श्वपुराण, महावीरचरित्र, जम्मूस्वामीचरित्र, जीवंधरचरित्र, धन्यकुमारचरित्र, भविष्यदत्त चरित्र, सुदर्शन सेठ चरित्र, सुक१ माल चरित्र।
करणानुयोग-त्रिलोकसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार, जयधवल, धवल, महाधवल, त्रिलोकप्रज्ञप्ति ।
चरणानुयोग-मूलाचार, आचारसार, भगवती आराधना, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अमितगति श्रावकाचार, स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा।
द्रव्यानुयोग-द्रव्यसंग्रह, तत्वार्थसूत्र, वृहत् द्रव्यसंग्रह, सर्वार्थसिदिराजवार्तिक, श्लोकVवार्तिक, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, परमात्मप्रकाश, ज्ञानार्णव,समाधिशतक, इष्टोपदेश, भातमीमांसा, प्रमेय रत्नमाला।
चारों अनुयोगोंके कुछ सुगम शास्त्रोंको पढकर जिनवाणीका रहस्य जानना चाहिये फिर स्वाध्यायको बराबर बढाते रहना चाहिये। इस चार अनुयोगरूप शास्त्रकी भाव पूजा व द्रव्य पूजा * मलेप्रकार करनी चाहिये । मुख्य भक्ति उनका ज्ञान प्राप्त करना है। जो संसारभ्रमणसे उदास हैं
और मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिये आगमकी सेवा बहुत ही जरूरी है। शास्त्रज्ञानके ही प्रतापसे भेदविज्ञान होगा। भेदज्ञानसे स्वानुभव होगा-स्वानुभवसे ही केवलज्ञान होगा और यह संसारसे पार होजायगा । श्रुतभक्ति संसार उद्धारक है।
श्लोक-श्रियं सम्यग्दर्शन च, सम्यग्दर्शनमुद्यमं ।
सम्यक्तं सम्पूर्णशुद्धं च, ति अर्थ पंच दीवयं ॥ ३५९॥ अन्वयार्थ-(भियं सम्यग्दर्शन च) श्री अर्थात् केवलज्ञानादि लक्ष्मी उसमें विश्वास अर्थात् देव, ४ उनकी वाणी व उसके अनुसार चलनेवाले गुरु इन तीनमें भलेप्रकार प्रदान करके भाक्त करना
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॥३०॥
(सम्यग्दर्शनमुबम) वह सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका उद्योग है (सम्यक्तं संपूर्णशुद्धं च) जो निश्चय सम्यग्दर्शन श्रावकाचार शुरु है (ति अर्थ पंचदीप्तय) वह तीनों अर्थ अर्थात् रत्नत्रय स्वरूप है और पांच परमेष्ठीपदका प्रकाशक है।
विशेषार्थ-देव शास्त्र गुरु जो परमार्थरूप हैं, जिनका स्वरूप कथन इस ग्रन्थमें बहुतसे स्थलोंपर 3 किया है उनका दृढ अडान रखके उनकी भक्ति करना यही निश्चय सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका उद्योग करना है। देव शास्त्र गुरुकी भक्ति करनेसे परिणामों में जितनी २ उज्वलता होगी उतनी २ सम्पग्दर्शनके निरोधक अनन्तानुबन्धी चार कषाय और मिथ्यात्व कर्मकी कमी होगी, उनका बल घटता जायगा। इस तरह मनन करते करते एक दिन पांचों प्रकृतियोंका उपशम होकर निश्चय शुख सम्यग्दर्शन पैदा होजायगा । हमें अपना उद्यम चार तरहका रखना चाहिये। (१) श्री जिनेन्द्रदेवकी स्तुति, भक्ति व गुणानुवाद गाना, उनके स्वरूपको देखना, विचारना, उनकी पूजा करनी । (२) जिनवाणीका नित्य प्रति स्वाध्याय करके सात तत्वोंको समझना । (३) अध्यात्म ज्ञाता परम ध्यानके अभ्यासी गुरुओंकी भक्ति करके सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति करना । (४) प्रातःकाल और संध्याकाल कुछ देर एकांतमें बैठकर सामायिक करना, बारह भावनाका विचार करना, आत्मा व अनात्माका भिन्नर स्वरूप भाना। इन चार उपायोंके करनेसे कभी न कभी सम्यक्त होजाना संभव है। जबतक सम्यक्त न होगा तबतक भी परिश्रम वृथा नहीं जायगा। जितना पुण्य बांधोगे वह संसारमें साताको पैदा करेगा, असातासे बचाएगा।
निश्चय सम्यग्दर्शन जब उदय होगा तब वहां सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र भी प्रगट होजाता है। ऐसा ही सम्यक्त रत्नत्रयमई स्वात्मानुभवमें जब लिया जाता है तब यही कषायको मंद करता हुभा श्रावकसे साधु, साधुसे आचार्य व उपाध्याय, आचार्य उपाध्यायसे फिर साधु-साधुसे अरहंत, अरहंतसे सिद्ध बना देता है। अतएव पांच उत्तम पदों के प्रकाशका परम्पराय कारण श्रीकी भक्ति है, देव शास्त्र गुरुकी आराधना है।
श्लोक-श्रियं सम्यग्दर्शनं, श्रियं कारण उत्पयते ।
. सर्वं ज्ञानमयं शुद्धं, श्रियं सम्यग्दर्शनं ॥ ३६० ॥ अन्वयार्थ-(श्रियं सम्यग्दर्शनं ) परम ऐश्वर्यशाली महत्वपूर्ण निश्चय सम्यग्दर्शन (श्रियं कारेण उत्पद्यते) ॥१५॥
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तारणतरण
पवित्र गुणोंमें इसी तरखते है उनके लिये यह दवा मानशास्त्र के मङ्गलाचरणम ह
KRELEGEGEGRGGLEGEGREGEGALEEKLLEGEGREGe
श्री अर्थात् देव शास्त्र गुरुकी भक्तिके द्वारा उत्पन्न होता है (सर्व ज्ञानमयं शुद्ध श्रियं सम्यग्दर्शनं) यह
श्रावकाचार निश्चय सम्यग्दर्शन सर्व प्रकारसे ज्ञानमई शुद्ध प्रास्माका अनुभव करनेवाला है।
विशेषार्थ-जैसा पहले कहा गया है देव, शास्त्र, गुरुकी सेवा जो उनके गुणोंको पहचान करके करते हैं, सेवा करते हुए कोई विषय कषायकी पुष्टिकी चाहना नहीं रखते हैं। मात्र उनके पवित्र गुणों में इसी तरह रंजायमान होते हैं जैसे भ्रमर कमलमें आसक्त होता है। उनके द्वारा जो शुद्ध आत्माका लक्ष्य रखते हैं उनके लिये यह देव शास्त्र गुरुकी भक्ति आत्माका अनास्मासे भेदविज्ञान करानेके लिये निमित्त कारण है। जैसा श्री मोक्षशास्त्रके मङ्गलाचरणमें है
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्ममभृतां । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥ भावार्थ-मैं संसारसे छटनेका मार्ग बतानेवाले, कर्मरूपी पर्वतोंको तोडनेवाले व सर्व तस्वोंके जाननेवाले इन तीन गुण विशिष्ट देवको उन ही गुणोंकी प्राप्तिके हेतुसे वंदना करता हूँ। निश्चय सम्यग्दर्शन आत्माका स्वभाव है। जिसके भीतर यह प्रकाशमान होजाता है उसके शुद्धात्माका अनुभव अवश्य होता है। तथा वह लोकके पदार्थोंमें यथार्थ ज्ञानी होजाता है, आत्माको आत्मा अनात्माको अनात्मा देखता है।
श्लोक-ज्ञानं च सम्यक्तं शुद्धं, संपूर्ण त्रिलोकमुद्यमं ।
___ सर्वं ज्ञानमयं शुद्धं, पद वन्द्यं केवलं ध्रुवं ॥ ३६१ ॥ मन्वयार्थ (सम्यक्तं ज्ञानं च शुद्ध) सम्यग्दर्शन सहित जो ज्ञान है वही शुद्ध है उसीके द्वारा ही (संपूर्ण त्रिलोक उद्यम ) सर्व तीन लोकको देखनेवाले ज्ञानके लाभका उद्यम होता है वह ज्ञान (सर्व) सर्व सम्पूर्ण है (ज्ञानमय शुद्ध) ज्ञानमय है, सर्व आवरण रहित शुद्ध है ( केवलं ध्रुवं वैद्य पद) केवल असहाय है, नित्य है, वंदनीक पद् उसीसे होता है।
विशेषार्थ-सम्यग्ज्ञान विना सम्यग्दर्शनके हुए सम्यक् नाम नहीं पाता है। यद्यपि न्याय शास्त्र ४ द्वारा व युक्ति बलसे व गुरुकी आज्ञा प्रमाण या शास्त्रके वचन प्रमाण कोई जीवादि तत्वोंको संशय विपर्यय अनध्यवसाय रहित ठीक ठीक जानले तथापि जबतक मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषायके उपशम होनेसे सम्यग्दर्शन नामी आत्मीक गुणका प्रकाश नहीं होता है तबतक ज्ञानको सम्यग्ज्ञान Man
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तारणतरण
॥३५२ ।।
यथार्थ नहीं कह सक्ते हैं। आत्मप्रतीति विना द्रव्यलिंगी साधुका ग्यारह अंग नौ पूर्व तकका ज्ञान भी मिथ्यात्व सहित होनेसे मिथ्याज्ञान नाम पाता है। जहां आत्मानुभूति जागृत होजाती है उसी ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यह सम्यग्ज्ञान वास्तवमें दोयजका चन्द्रमा है । इसी ज्ञानके द्वारा जितना २ शुद्ध आत्माका अनुभव किया जायगा, ज्ञानावरणका क्षयोपशम होता जायगा । इसी ज्ञानके बलसे सर्व श्रुतज्ञानका लाभ पाकर श्रुतकेवली मुनि होजाता है जो सर्व श्रुतज्ञानके बलसे अपने शुद्धात्माका अनुभव करते हैं । इसी ज्ञानके बलसे किसीको अवधिज्ञान या मन:पर्यय ज्ञान होजाता है, यही शुद्धात्मानुभव रूप सम्यग्ज्ञान पूर्णमासीके चन्द्रमा समान केवलज्ञानको पैदा कर देता है। चाहे किसीको पूर्ण श्रुतज्ञान या अवधि या मन:पर्यय ज्ञान न भी हो तौभी शुद्धात्मानुभव में यह शक्ति है कि वह कमसे कम एक अंतर्मुहूर्त मात्रके लगातार ध्यान से सर्व ज्ञानावरणीय कर्मको क्षय करके केवलज्ञानको जगा देता है । केवलज्ञान असहाय है इसको किसी इंद्रिय या मनकी जरूरत नहीं है, यह सर्व जानने योग्य पदार्थोंको एक साथ जान सक्ता है, यह फिर कभी आवरण नहीं पाता है, सदा ही रहता है व इसीके प्रकाशसे ही आत्मा अरहंत कहलाता है । सर्व ही अल्पज्ञानियोंके द्वारा वंदनीक पद इसी से प्राप्त होता है ।
श्लोक - श्रियं सम्यक्ज्ञानं, च, श्रियं सर्वज्ञ शाश्वतं ।
लोकालोकमयं रूपं, श्री सम्यक्ज्ञान उच्यते ॥ ३६२ ॥
अन्वयार्थ - ( श्रियं सम्यक्ज्ञानं च ) परम ऐश्वर्यशाली सम्यग्ज्ञान ( श्रियं सर्वज्ञ शाश्वतं ) अतिशय रूप सर्व पदार्थों का ज्ञाता व अविनाशी है ( लोकालोकमयं रूपं ) लोकालोकके प्रकाश करनेको दर्पण है ( श्री सम्यक्ज्ञान उच्यते ) ऐसा प्रभावशाली सम्यग्ज्ञान कहलाता है ।
विशेषार्थ—यहां केवलज्ञानकी महिमा बताई है । यह केवलज्ञान पूर्ण शुद्ध स्पष्ट ज्ञान है जिस ज्ञानके बल से मूर्ती व अमूर्तीक पदार्थ सर्व प्रत्यक्ष दीख जाते हैं । मति श्रुतज्ञान यद्यपि अमूर्तीक जीव धर्म अधर्म आकाश काल इन पांच पदार्थोंको जानते थे, परन्तु प्रत्यक्ष नहीं जानते थे- परकी सहायता से जानते थे । यह मात्र केवलज्ञान में ही शक्ति है जो सबको एक साथ प्रत्यक्ष जानले । यही ज्ञान सर्वज्ञका ज्ञान कहलाता है, इसका कभी न क्षय है, न अंत है। इस ज्ञानमें यह शक्ति
श्रावकाचार
।। १५२ ॥
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वारणतरण
REKELEGECKGEEK
है कि सर्व लोक व अलोकके भीतर भरे हुए छः द्रव्योंकी अनन्त गुण पर्यायोंको एक काल जान
श्रावनगर सक्ता है।तथापि मोहनीय कर्मके उदय विना इस ज्ञानमें कोईरागदेष मोह नहीं होता है। यह परम शुद्ध वीतरागी बना रहता है। इसीको यथार्थमें सम्यज्ञान कहते हैं। इसीका प्रकाशक आत्मानुभवरूप सम्यकज्ञान है। जो सम्यकदर्शन सहित होता है उसीको उपादेय जानके उसका लाभ करना योग्य है।
श्लोक-श्रियं सम्यकचारित्रं, सम् उत्पन्न शाश्वतं ।
___ अप्पा परम पयं शुद्धं, श्री सम्यक् चरणं भवेत् ॥ ३६३ ॥ अन्वयार्य-(श्रियं सम्यक्चारित्रं ) ऐश्वर्यशाली सम्यक्चारित्र (सम्यक् शाश्वतं उत्पन्न ) भले प्रकार श्री* अविनाशी वीतराग यवाख्यात सम्यक्चारित्रको उत्पन्न कर देता है। तब ( अप्पा परम पर्व शुद्ध) आत्मा परम पदको प्राप्त हुआ शुद्ध होजाता है (श्रीसम्यकूचरणं भवेत् ) यही परम प्रभावशाली सम्यक्चारित्र है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होते ही जो स्वरूपाचरण चारित्र पैदा होता है वही सम्यकूचारित्र है। जितना२ स्वरूपका अनुभव बढ़ता जाता है उतना उतना कषायोंका उपशम होता जाता है। उतना उतना सम्यबारिश भी बढ़ता जाता है, इसी उपाय श्रावकका एक देश संयम तथा मुनिका सकल संयम प्राप्त होता है। जब संज्वलन कषायका अति मंद उदय होता है तब श्रेणी चढकर चारित्र मोहको उपशम करे तो ग्यारहवें उपशांत मोह गुणस्थानमें यथाख्यात चारित्रको पालेता है। यदि चारित्र मोहको क्षय करे तो बारहवें क्षीण मोह गुणस्थानमें यथाख्यात चारित्रवान होजाता है। फिर तेरहवें गुणस्थानमें जब केवलज्ञान होता है तब वह परम यथाख्यात चारित्रवान होजाता है क्योंकि तब वह प्रत्यक्षपने आत्माका धिरपना पालेता है। आत्माकी परम शुद्धि चारित्रके प्रतापसे ही होती है। जितनी २ ध्यानकी शक्ति बढती जायगी नवीन काँका संवर अधिक होगा व पूर्व बडकर्मकी निर्जरा विशेष होगी। स्वात्मानुभव करते२ यह परम एकाग्र स्वचारित्रमें पहुँच जाता है वही यथार्थ सम्पचारित्र है जो अरहंत भगवान सिद्ध परमेष्ठीके पाया जाता है।
श्लोक-श्रियं सर्वज्ञ सार्थं च, स्वरूपं व्यक्त रूपयं ।
श्रियं सम्यक् ध्रुवं सार्थ, श्री सम्यक् चरणं बुधैः ॥ ३६४ ॥
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तारणतरण
अन्वयार्थ (श्रियं सर्वज्ञ सार्थ च) श्री सर्वज्ञ भगवान यथार्थ आत्मीक गुणरूपी लक्ष्मी कर सहितश्रावकाचार ॥३५॥ ४
हैं (स्वरूपं व्यक्त रूपयं) जिमके भीतर आत्माका स्वरूप व्यक्त है, प्रगट प्रकाशमान है ( श्रियं सम्यक् ध्रुवं सार्थ) वहीं परम प्रभावशाली निश्चय यथार्थ सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान है (श्री सम्यक्चरणं बुधैः) तथा वहीं परम सम्यक्चारित्र है ऐसा बुद्धिमानोंने माना है।
विशेषार्थ-व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान तथा व्यवहार सम्यक्चारित्रकी सहायतासे निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान व निश्चय सम्पकचारित्रकी एकता जो आत्माकी निर्वि कल्प समाधि उसके द्वारा अभ्यास करते करते जब यह केवलज्ञानी अईत होजाता है तब वहां निश्चय रूपसे शुद्ध सम्यग्दर्शन भी है, शुद्ध सम्पज्ञान भी है तथा शुद्ध सम्पचारित्र भी है। रत्नत्रय धर्मकी अपूर्णता साधक है, रत्नत्रय धर्मकी पूर्णता साध्य है। ऐसा जानकर बुद्धिमानोंको रत्नत्रय धर्मकी सेवा करनी योग्य है। इसीकी प्राप्तिके लिये यथार्थ देव, शास्त्र, गुरुकी भक्ति सदा करनी चाहिये।
श्लोक-पचहत्तर गुण वेदंते, सार्द्ध च शुद्धं ध्रुवं ।।
पूजितं संस्तुतं येन, भविजन शुद्ध दृष्टितं ॥ ३६५ ॥ अन्वयार्थ-(पचहत्तर गुण वेदंते ) जो पिछत्तर गुणोंको अनुभव करते हैं ( साद्धं च शुद्धं ध्रुवं ) साथमें आत्माके शुद्ध निश्चल गुणोंका अनुभव करते हैं (येन पूजितं संस्तुत) जिसने इन गुणोंकी पूजा की व स्तुति की है ( भविजन शुद्ध दृष्टितं) वही भव्य जीव शुद्ध सम्यग्दृष्टी है।
विशेषार्थ-पिछत्तर गुणोंको जानना, विचारना, उनकी पूजा करना, उनकी स्तुति करना, उनका र अनुभव करना ऐसा उपदेश यहां भव्य जीव गृहस्थ सम्यग्दृष्टीको दिया गया है। वे ७५ गुण कौनसे
हैं उनका यहां खुलासा नहीं है। अपनी बुद्धिसै विचारते हुए एक तो पांच परमेष्ठीके ७५ गुण ४ होसक्ते हैं, दूसरे सम्यग्दृष्टी गृहस्थको ७५ गुण पालने चाहिये । दोनों ही अर्थ लेकर ७५ गुणों की संख्या नीचे प्रकार जाननीअरहंत परमेष्ठीके....
अनंतचतुष्टय सिद्ध परमेष्ठीके ....
सम्यक्त आदि गुण
.... अनत्तचाप
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नारणतरण
....
श्रावकाचार
1३५५॥
७८
आचार्य परमेष्ठीके
.... दशलक्षण धर्म उपाध्याय परमेष्ठीके
.... ११ अंग १४ पूर्व साधुके.... .....
..... मूल गुण
२८ पांच परमेष्ठीके ....
.... मुख्य खुण गृहस्थको उचित है कि इन गुणोंको चितवन करता हुआ ॐ के द्वारा पांच परमेष्ठीका मनन करे । सम्यग्दृष्टी गृहस्थके भीतर नीचे लिखे ७५ गुण होने चाहिये२५ मल दोष रहित पना
२५ गुण ८ संवेगादि-अर्थात् १संवेग या धर्मानुराग, २ निर्वेद-संसार शरीर
भोगोंसे वैराग्य, ३ गाँ-अपने मनमें अपनी बुराई, ४ निन्दा-दूसरोंसे अपनी बुराई, ५ उपशम या शांत भाव, ६ भक्ति-अर्हतादिकी भक्ति, ७ वात्सल्य-धर्मात्माओंसे प्रेम, ८ अनुकम्पा-दु:खिघोंपर दया ।
८गुण अतीचार न लगाना-१शंका, २ कांक्षा, ३ विचिकित्सा, ४ अन्यदृष्टि प्रशंसा, ५ अन्यदृष्टि संस्तव
५ गुण ७ भय रखना- इस लोक, परलोक, ३ रोग, ४ अनरक्षा, ५ अगुप्ति,
६मरण,७ अकस्मात् ३ शल्य छोडना-माया, मिथ्या, निदान ८ मूलगुण-३ मकार, पांच उदम्बरका त्याग ७ व्यसन-यूतादिका त्याग १२ ब्रतोंका अभ्यास-पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षा व्रत
७५ गुण यदि यहां अन्य तरहसे ७५ गुणोंका प्रयोजन हो तो विद्वान विचार लेवें ।
गृहस्थी सम्यग्दृष्टी उन गुणोंकी पूजा भकि आदर मनन करता हुआ शुद्ध निश्चल आत्माका अनुभव अवश्य करता रहता है क्योंकि वही साक्षात् मोक्षमार्ग है।
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वारणतरण
श्रावकाचार
KEKELEGEGELEGECELECRECECAKE
श्लोक-एतत्तु गुण साई च, स्वात्मचिंता सदा बुधैः।
___ देवाश्च तस्य पूजते, मुक्तिगमनं न संशयः ॥ ३६६ ॥ अन्वयार्थ-(एतत्तु गुण साई च) इन गुणोंको विचारते हुए (बुधैः सदा स्वात्मचिंता) बुद्धिमानोंको सदा अपने आस्माका चिन्तवन करना चाहिये । (देवाश्च तस्य पूनते) ऐसे सम्यग्दृष्टी देवता भी पूजन करते हैं (मुक्तिगमनं न संशयः) तथा वह मोक्षमें अवश्य जायगा इसमें कोई संशय नहीं है।
विशेषार्थ-बुद्धिमान गृहस्थ आवकोंको प्रथम कहे प्रमाण ७५ गुगाको जो पांच परमेष्ठी में पाए जाते हैं या जो सम्यग्दृष्टी गृहस्थमें होने चाहिये भलेप्रकार ध्यानमें रखना चाहिये तथा मुरुपतासे अपने ही आत्माको भेदविज्ञानके द्वारा शुद्ध निश्चयनयकी सहायतासे, रागादिभाव कोसे, ज्ञानावरणादि द्रव्यकोसे, शरीरादि नो कमोंसे भिन्न अनुभव करना चाहिये । यह अपने आत्माका मनन, विचार व ध्यान सदा ही प्रतिदिन प्रातःकाल, सायंकाल तो अवश्य कुछ देर एकांतमें बैठकर करना चाहिये । जो सचे श्रद्धावान गृहस्थ हैं, पांच परमेष्ठीके भक्त हैं व देव, शास्त्र, गुरुके भक्त हैं उनकी महिमा इंद्रादि देव गाते हैं तथा कभी कोई संकट पड जावे तो उनकी सहायता भी करते हैं। ऐसा गृहस्थ अवश्य मोक्षका पात्र होजाता है। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अनुकूल हुआ तो उसी भवसे साधु हो ध्यान करके क्षपक श्रेणी चढकर केवलज्ञानी हो सिद्ध होजाता है। यदि अनुकूल न हुआ तो कुछ जन्मों के पीछे वह अवश्य सिद्ध होजाता है। क्योंकि जिसकी रात्रि दिन भावना अपने आत्माकी तरफ है वह क्यों नहीं भवसागरसे पार होगा व क्यों नहीं बंधनसे मुक्त होगा व क्यों नहीं वह अनन्त सुखको प्राप्त करेगा।
सुगुरु मक्ति। श्लोक-गुरुस्य ग्रंथमुक्तस्य, रागदोषं न चिंतए ।
रत्नत्रय मयं शुद्धं, मिथ्या माया विमुक्तयं ॥ ६६७ ॥
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सारणवरण
श्राक्काचार
३५७॥
गुरुं त्रिलोक वेदंते, धर्मध्यानं च संजुतं ।
तद्गुरुं सार्द्ध नित्यं, रत्नत्रयालंकृतं ॥ ३६८॥ अन्वयार्थ (ग्रन्थमुक्तस्य ) परिग्रह रहित (गुरुस्य ) गुरुकी सेवा करनी चाहिये वे गुरु ( रागदोष न चिंतए) रागद्वेषकी चिंता नहीं करते हैं किंतु (मिथ्या मावा विमुक्तयं) मिथ्यात्व व मायाचारसे रहित (शुद्ध रत्नत्रय मयं) शुद्ध रत्नत्रयमई आत्माका मनन करते हैं। (गुरु त्रिलोक वेदंते) ऐसे गुरु तीन लोकके यथार्थ स्वभावको जानते हैं (धर्मध्यानं च संजुतं ) तथा धर्मध्यान सहित वर्तन करते हैं (रत्नत्रयालंकृत) वे रत्नत्रयसे शोभित रहते हैं (तस्य गुरुं नित्य साई) ऐसे गुरुका नित्य साथ करना चाहिये।
विशेषार्थ-यहां गुरु भक्तिको दृढ किया है। गृहस्थ श्रावकका मुरूप कर्तव्य है कि सच्चे गुरुओंकी सेवा करे, उनकी संगति करे, उनके साथ रहे, उनकी वैयावृत्य करे, उनके उपसर्ग दूर करे, तथा उनसे शास्त्र ज्ञान व ध्यानका मार्ग जाने। गुरु बडे अनुभवी होते हैं, थोडेसे परिश्रमसे ही उनके द्वारा धर्मका लाभ होजाता है। उनकी संगतिसे भावों में पैराग्य रहता है। ऐसे गुरुओंका स्वरूप यह है कि परिग्रहसे रहित निर्ग्रन्ध हों। क्षेत्र, मकान, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी,
दास, कपडे, वर्तन आदि बाहरी १० प्रकारके परिग्रहसे तथा अंतरंग मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, 4 लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्ता, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसक वेद इन १४ प्रकारके परि
ग्रहसे बिलकुल ममत्व रहित हो, इनके बुद्धिपूर्वक त्यागी हो, नन दिगम्बर रूपके धारी हो, मात्र जीवदयाके लिये मोरपिच्छिका व शौचके लिये काष्ठ कमंडल, व ज्ञानके लिये आवश्यक हो तो शास्त्रको पास रखते हों। जो निर्भय हो, जालकवत् विहार करते हों, जिनमें राग द्वेष न हो, परम समताभावके धारी हो, शत्रु मित्र, कनक कांच, लाभ अलाभ, मान अपमान, जन्म मरण, रोग निरोग आदि अनेक संसारकी राग द्वेष मूलक अवस्थाओंकी तरफ राग द्वेष न करके समताभावके धारी हो, मिथ्या माया व निदान तीन प्रकारके शल्यसे रहित होकर व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान व व्यवहार सम्यकूचारित्रका यथार्थ शास्त्रोक्त आचरण करते हुए निश्चय रत्नत्रयमई शुद्ध आत्माका निरंतर अनुभव करनेवाले हों, आत्मानन्दके स्वादी हों, इंद्रिय विषयोंके स्वादसे विरक्त हों तथा शास्त्रोंके ऐसे ज्ञाता हो कि छः द्रव्योंका स्वरूप जानते हुए तीन लोककी
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बारणतरण
भावुकतार
॥३५॥
ॐ वस्तुओंका मूल स्वरूप, कारण व भेद प्रभेद यथार्थ जानते हों । स्वरूप विपर्यय, कारण विपर्यव,
भेदाभेद विपर्यय इन तीन दोषोंसे रहित जिनका निर्मल ज्ञान हो तथा जो कभी आर्तध्यान व रौद्रध्यान नहीं करते हो किंतु धर्मध्यानमें आसक्त हों। पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत इन ध्यानोंका अभ्यास करते हों, ऐसे गुरुओंकी सदा ही भक्ति करके अपने भावोंको वैराग्यमय, ज्ञानमय बनाना गृहस्थका मुख्य कर्तव्य है । गुरुओंमें और गृहस्थों में परस्पर उपकार होता है। गुरु महाराज तत्वोंका उपदेश करते हैं, साचा मार्ग बताते हैं, जागृत करते हैं, मिथ्यात्वीको सम्यक्ती, अब्रतीको व्रती बनाते हैं तब गृहस्थ उनकी सेवा आहार औषधि दानसे व वैयावृत्य आदिसे करते हैं । यह गुरुभक्ति नित्य करनी चाहिये, यही धर्मवृषिका साधन है।
स्वाध्यायका लाम। श्लोक-स्वाध्याय शुद्धं ध्रुवं चिंते, शुद्ध तत्व प्रकाशकं ।
शुद्ध संपूर्णदृष्टी च, ज्ञानमयं साथ ध्रुवं ॥ ३६९ ॥ स्वाध्याय शुद्ध चित्तस्य, मनवचनकाय रंधनं ।
विलोकं ति अर्थ शुद्धं, अस्थिरं शाश्वतं ध्रुवं ॥ ३७० ॥ अन्वयार्थ—(शुद्ध तत्व प्रकाशकं) शुद्ध आत्मीक तत्वके प्रकाश करनेवाले (शुद्ध स्वाध्याय) शुद्ध दोष ४. रहित शास्त्रका पठन या मनन या श्रवनका (ध्रुवं चिन्ते) सदाही विचार करता रहे।(शुद्ध संपूर्ण दृष्टी च) शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टिके द्वारा (ज्ञानमयं सार्थ ध्रुवं) ज्ञानयोग यथार्य निश्चय आत्मद्रव्यका ज्ञान होता है। (स्वाध्याय चित्तस्य शुद्ध) स्वाध्याय करनेसे मनकी शुद्धि होती है (मनवचनकाय रंधनं ) मन, वचन, काय वशमें होजाते हैं। (शुद्ध अर्थ) शुद्ध पदार्थको ( अस्थिरं) विनाशनीक (शाश्वतं ) व अविनाशी पदार्थको (ध्रुव) निश्चयसे ठीक २ जानता है।
विशेषार्थ-देवपूजा गुरुभक्तिको कह करके अब तीसरा नित्यकर्म जो स्वाध्याय है उसपर कहते हैं कि वास्तविक स्वाध्याय स्व अर्थात् अपने शुद्ध तत्वका अध्याप अर्थात मनन है। जहां
KEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEPAKGEEKRE
॥३५मा
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वारणतरण
शुद्धात्माके प्रयोजनसे शास्त्रोंको पढा जाय, विचारा जाय, धारण किया जाय वह स्वाध्याय है। जिनवाणीमें कथन दो दृष्टिसे है-पर्यायार्थिक दृष्टि और द्रव्यार्थिक दृष्टि। पर्यायार्थिक दृष्टिसे या पर्यायकी अपेक्षासे छहों द्रव्योंकी जो जो अवस्थाएं जगतमें प्रगट है उन सबका व्याख्यान है। जीव और पुद्गलके सम्बन्धसे चार गतिणं व चार गति सम्बंधी भाव हैं, गुणस्थान व मार्गणा स्थान है। सात तत्व व नौ पदार्थ हैं इन सबका स्वरूप भले प्रकार जानना चाहिये और द्रव्यार्थिक नबसे जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल इन छ: द्रव्योंका शुद्ध स्वरूप जानना चाहिये। दोनों नयोंसे जानकर द्रव्यार्थिक दृष्टिको मुख्य ध्यानमें लेकर अपने आत्माका द्रव्य स्वरूप शुद्ध ज्ञानानन्दमय स्वभाव अनुभव करना चाहिये । स्वाध्यायका प्रयोजन संसारसे वैराग्य तथा निज स्वरूपकी प्राप्तिका उत्साह है। स्वाध्यायके पांच भेद हैं। उसी तरह स्वाध्याय करे। पहले पढे सो वाचना है। किसी बातमें शंका रह जावे तो विशेष ज्ञानीसे पूछकर निर्णय करे यह पृच्छना है। जानी हुई बातको वारवार विचार कर दिल में धारणा करे यह अनुपेक्षा है। शुद्ध शब्द व अर्थको कण्ठस्थ करे यह आम्नाय है, फिर अन्य श्रोताओंको समझावे यह धर्मोपदेश है । स्वाध्याय करना बडा ही जरूरी है। हरएक
गृहस्थ श्रावक व श्राविकाको उचित है कि एक शास्त्र मुख्यतासे स्थापित करके थोडी देर रोज बहुत ॐ विनयसे बैठकर पढे, जो समझ में न आवे उसको एक अलग पुस्तकपर लिखता जावे, जब बहु ज्ञानीका निमित्त मिले तब उसका निर्णय करले । स्वाध्याय करनेसे तुर्त लाभ यह है कि चित्त शुद्ध होजाता है। मनसे शोक, भय, क्रोध, मान आदि कषायका मैल शांत होजाता है। यदि कोई तीनों मन, वचन कायकी गुप्तिको पालना चाहे तो शास्त्र स्वाध्याय बडा भारी उपाय है। विना तीनोंके एकत्र हुए समझमें नहीं आयगा । यह तप इसी लिये कहा गया है कि उसके द्वारा उपयोग ज्ञानमें तप जाता है जिससे कर्मकी निर्जरा होजाती है। शास्त्र स्वाध्यायसे, पर्यायकी दृष्टिसे सब जगत क्षणभंगुर है परंतु द्रव्यकी दृष्टिसे नित्य दीखता है। इस पंचमकालमें गृहस्थका ध्यान सामायिककी अपेक्षा स्वाध्यायमें विशेष सुगमतासे लग जाता है। इसलिये ध्यानका परम सहकारी समझकर नित्य भाव सहित स्वाध्याय करनी योग्य है। जैसे शरीरकी शुद्धिके लिये गृहस्थको नित्य जलका स्नान जरूरी है, वैसे अंताकरणके क्लेश व कुभावोंको दूर करनेके लिये यह स्वाध्याय एक प्रकारका
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तारणतरण
४३६०॥
स्नान है। चारों अनुयोगोंके ग्रंथोंको पढते हुए आध्यात्मिक साहित्य पर विशेष ध्यान देना चाहिये, शुमा मनन इसहीके द्वारा भले प्रकार होता है । स्वाध्याय के समान कोई || उपकारी उपाय नहीं है ।
संयम पालन |
श्लोक-संयमं संयमं कृत्वा, संयमं दुविधं भवेत् ।
इन्द्रियाणां मनो नाथः, रक्षणं त्रस (स्थावरं ॥ ३७१ ॥
अन्वयार्थ—( संयमं संयमं कृत्वा ) संघम अपनेको यम नियममें रखने को कहते हैं। (संयमं दुविधं भवेत् ) संघम दो प्रकारका होता है-इंद्रिय संयम व प्राणि संयम । ( इन्द्रियाणां मनो नाथः ) पांच इंद्रियोंको और उनके स्वामी मनको वश रखना इंद्रिय संयम है तथा ( त्रस स्थावरं रक्षणं ) त्रस और स्थावर प्राणियोंकी रक्षा करना प्राणि संयम है ।
विशेषार्थ — चौथा कर्म गृहस्थका संयम पालना । अपनेको यम नियममें चलाना संयम है। जो कार्य अन्याय व पापमय हैं उनका आजन्म त्याग कर देना चाहिये। जैसे जूभा आदि सात व्यसन तथा अभक्ष्य भोजन । और जो भोग उपभोग आजन्मके लिये छोडे न जासकें उनका गृहस्थको रोज प्रमाण कर लेना चाहिये नीचे लिखे १७ नियमका नित्य विचार करना चाहिये:
भोजने षटूसे पौने कुंकुमदि विलेपने । पुष्पें तांबूल गीतेषु नृत्यदौ ब्रह्मचर्यके ॥ वन भूषण वस्त्रोदौ वाहने शर्तेनासैने । सचिवस्तु संख्यादौ प्रमाणं भज प्रत्यहं ॥
१ भोजन कै दफे करूँगा । २ षट्स - दूध, दही, घी, नमक, तेल, मीठा, इनमें से क्या २ त्यागा । ३ पान-भोजन के सिवाय पानी के दफे पीऊँगा । ४ कुंकुमादि विलेपन - तेल चंदन विलेपन कै दफे लगाऊँगा या नहीं । ५ पुष्प फूल घुंगा या नहीं, या के दफे । ६ ताम्बुल - पान खाऊँगा या नहीं यदि खाऊँगा तो कै दफे । ७ गीत-संसारी गीत सुनूँगा या नहीं। ८ नृत्यादौ - नाच देखूँगा या नहीं । ९ ब्रह्मचर्य - आज ब्रह्मचर्य पूर्ण पालूंगा या नहीं । १० स्नान के दफे नहाऊँगा । ११ भूषण - गहने कौन २ पहनूँगा । १२ वस्त्र- कपडे कितने जोड काममें लूंगा । १३ वाइन - सवारी कौन रक्खी या त्यागी ।
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श्रावकाचार
॥३६
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तारणतरण
श्रावकाचार
१४ शयन-सोनेकी शय्या आदि कौन २ रक्ली । १५ आसन-बैठने के आसन कौन २रक्खे । १६ सचित्त-हरी तरकारी फल कौन २ रक्खे। १७ वस्तु संख्या-कुल खाने पीनेकी वस्तुएं कितनी रक्खीं।
संयमके दो भेद हैं-पांच इन्द्रिय व मनको अपने आधीन रखके सदा ही उपयोगी कामों में लगाए रखना । वृथाके कार्यों में इनको उलझाना नहीं। उनका ऐसा उपयोग करना कि ये स्वस्थ रहे और धर्म, अर्थ, काम, पुरुषार्थ साधनमें सहायक हो, यह इंद्रिय संयम है। छः कायके प्राणियोंकी दया पालनी प्राणि संयम है। त्रस जंतुओंकी भले कार रक्षा करनी, स्थावरका भी वृथा घात नहीं करना । मिट्टी, पानी, भाग, हवा, वनस्पतिका उपयोग प्रयोजन से अधिक नहीं करना। हरएक काम देखभालके करना जिससे कीडे, मकोडे आदिकी वृथा जान न जाये। पशुओंको सताना नहीं।
मानवोंके चित्तको दुखाना नहीं। जो गृहस्थ इन दो प्रकारके संयमका अभ्यास रखते हैं वे मानव* जन्मको सफल करते हैं और आत्माकी उन्नति भलेप्रकार कर सके हैं, श्रावकका धर्म उत्तम प्रकारसे निर्वाह कर सके हैं। समयको वृथा न खोकर समयका सदुपयोग करना भी संयम है। श्लोक-संयम संयम शुद्धं, शुद्ध तत्व प्रकाशकं।
नजलं शुद्धं, सुस्नानं संयमवं ॥ ३७२ ॥ अन्वयार्थ-(संयम ) अपने आत्मामें तिष्ठना सो (शुद्ध संयम ) शुद्ध संयम या निश्चय संयम है। यह संयम (शुद्ध तत्व प्रकाशकं ) शुद्ध आत्मीक तत्वको प्रकाश करनेवाला है। यही (शुद्ध ज्ञाननलं तीर्थ ) शुद्ध ज्ञानरुपी जलसे भरा हुआ तीर्थ है अर्थात् समुद्र है ( सुस्नानं ) इसमें भले प्रकार स्नान करना (ध्रुवं संयम ) निश्चय व निश्चल संयम है।
विशेषार्थ-इन्द्रिय संयम तथा प्राणि संयम पालना या नित्य प्रति नियम करना या श्रावकका संयम पालना यह सब व्यवहार संयम है। निश्चय या शुद्ध संयम यह है जो मन बचन कायको संयममें लाकर व इद्रियोंकी सर्व इच्छाओंको निरोध कर अपने आत्माके स्वरूप में आप ही तन्मय होजाना। इस तरह संयमका अभ्यास करना शुखात्माका अनुभव करानेवारा है तथा आत्माके कर्म रूपी मलको काटनेवाला है। तथा इसी संयमको तीर्थकी उपमा दी है। जिसमें तिराजाय सो तीर्थ है। तीर्थ नदी या समुद्रको कहते हैं । जगतके लौकिकजन गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा,
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सारणतरण
कृष्णा, कावेरी आदि नदियोंको तीर्थ कहकर इनमें स्नान करन। धर्म मानते हैं। ये तो वास्तव में तीर्थ श्रावकाचार ॥३६॥ नहीं हैं, क्योंकि जल स्नान हिंसाका कारण होनेसे धर्म नहीं होसका। शरीर स्वच्छ करके यदि
ध्यान स्वाध्यार करे तो यह जल-स्नान व्यवहार बाहरी शौचका मात्र कारण होसक्ता है। वास्तवमें पवित्रपना आत्माके भावोंका शुद्ध होना तथा आस्माके कर्ममैलका धुलना है, उसके लिये आत्मामें ४ लवलीन होना ही सच्चा तीर्थस्नान है। जो निरन्तर आत्मारूपी गंगामें स्नान करते हैं उनके कर्मके
ढेरके ढेर गल जाते हैं। अतएव गृहस्थ श्रावकको उचित है कि व्यवहार संयमके आश्रयसे आत्मीक * ध्यानका अभ्यास करे । यही शुद्ध संयम परम हितकारी व यही सच्चा मोक्ष मार्ग है, यही परम र उपादेय है। यही निरंतर भावने योग्य है।
तपका अभ्यास। श्लोक-तपश्च अप्प सदभावं, शुद्ध तत्त्व सुचिंतनं ।
___ शुद्ध ज्ञानमयं शुद्धं, तथा हि निर्मलं तपः ॥ ३७३ ॥ अन्वयार्थ-(तपश्च ) तप भी (अप्प सदभावं) आत्माके यथार्थ स्वभावमें ठहरना है (शुद्ध तत्व मुचिंतनं ) शुद्ध आत्मीक तत्वका भलेप्रकार चिंतवन करना है (शुद्ध ज्ञानमयं शुद्धं ) शुद्ध ज्ञान चेतनामय होना ही शुरु तप है ( तथा हि निर्मलं तपः) इसीको ही मल रहित निश्चय तप कहते हैं।
विशेषार्थ-गृहस्थीके छः कामें जैसे नित्य देव पूजा, गुरु भक्ति, शास्त्र स्थाध्याय, संयमका नियम लेना जरूरी है वैसे तप करना जरूरी है। मुख्य तप आत्मध्यान है। इसलिये गृहस्थको प्रात:काल और सायंकाल एकांत स्थानमें तिष्ठकर सामायिकका अभ्यास करना चाहिये। सूर्योदय व सूर्यास्तके करीब ध्यान करनेका अभ्यास करे। एकांत स्थानमें मन, वचन, कायको शुद्ध करके आसन बिछाकर बैठे। सामायिककी विधि यह है कि पहले पूर्व या उत्तरकी तरफ मुख करके कायोत्सर्ग हाथ लटकाके खडा होकर नौ दफे णमोकार मंत्र पढे फिर भूमिमें दंडवत् करके सामायिक स्वीकार करे। यह प्रतिज्ञा करे कि जबतक सामायिक करता हूँ जो कुछ मेरे पास है व जितना क्षेत्र मैंने रोका -
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श्रावकाचार
हैया इसके चारों तरफ दो दो जज और बाकी सब क्षेत्र व सर्व वस्तुका मुझको त्याग है, फिर उसी तारणतरण
दिशामें खडे हो कायोत्सर्ग तीन या नौ दफे णमोकार मंत्र पढकर हाथजोडके तीन आवर्त व शिरोन्नति करे । दोनों हाथ जोडे हुए बाएंसे दाइनी तरफ तीन दफे घुमावे असे आवर्त कहते हैं। फिर जोडे हुए हाथ मस्तक झुकाकर स्पर्श करे इसे शिरोनति करे। फिर हाथ जोडेकर खडे ही खडे
दाहनी तरफ मुड जावे। इधर भी उसी तरह तीन या नौ दफे णमोकार मंत्र पढकर तीन आवर्त ॐ तथा शिरोनति करे। ऐसा ही मुडते हुए शेष दोनों दिशाओंमें करके पदमासन या अर्द्ध पदमा.
सन बैठ जावे। बैठकर पहले कोई संस्कृत या भाषा सामायिक पाठ पढे, फिर जाप देवे, फिर पिंडस्थ पदस्थ आदि ध्यानका अभ्यास करे, बारह भावनाओंको विचारे, निज आत्माका स्वरूप ध्यावे व उसमें एकान होजावे । अन्तमें खडे होकर नौ दफे णमोकार मंत्र पढकर कायोत्सर्ग करके दंडवत् करे। इस विधि से यदि गृहस्थ कमसेकम दोनों संध्याओंमें अभ्यास करे तो धीरे धीरे उसको ध्यानकी सिद्धि होने लगे । वास्तव में निर्मल या शुद्ध तप वही है जो आत्मा अपनी आत्मामें तपे, शुद्धात्मा. नुभव हो, वही तप कर्मकी अविपाक निर्जरा करनेवाला है, परमानन्दका देनेवाला परमोपकारी है। ज्ञानमें रमण करना ही सच्चा तप है।।
दान नित्य कर्म । श्लोक-दानं पात्र चिन्तस्य, शुद्ध तत्व रतो सदा ।
शुद्ध तत्व रतो भावः, पात्र चिंता दानसंयुतं ॥ ३७४ ॥ मन्वयार्थ—(पात्र चिन्तस्य दानं ) पात्रोंकी भक्तिका भाव करना सो दान है ( सदा शुद्ध तत्व रतः) सदा शुद्ध आत्मीक तत्व में रमना भी दान है। (शुद्ध तस्व रतो भावः ) शुद्ध तत्वमें लीन होना शुद्ध या निश्चय दान है सो ( पात्र चिन्ता दान संयुतं) पात्रोंकी चिंता या पात्रोंको दान सहित व्यवहार दान सहित होना योग्य है।
विशेषार्थ-छठा कर्म गृहस्थका दान करना है। शुखदान यह है कि आप ही अपने आत्माको आत्मीक रसका आहार दिया जावे । यह शुख या निश्चय दान अपने आत्मामें लवलीनता रूप है। सच्चा पात्र
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तारणतरण
श्रावकाचार
३६
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रत्नत्रय स्वरूप अपनी आत्मा है। उसको स्वात्मानन्दामृतका दान देना परम शुद्ध दान है। व्यवहार दान यह है कि गृहस्थोंको नित्य प्रति पात्रोंका विचार करके भोजनके पहले दान करके भोजन करे। निरंतर पात्रदानकी भावना भावे । उत्तम पात्र मुनि, मध्यम पात्र श्रावक, जघन्य पात्र व्रत रहित अडावान । इन तीनोंमेंसे जिनका संयोग मिल सके उनको पात्रदान करके बड़ा हर्ष माने। नित्यका दान तो भोजनके पहले आहारदान है,सो पात्रोंको करके अपना जन्म सफल माने, अपना घर पवित्र माने । गृहस्थी श्रद्धावान पुरुष या स्त्रीको भी भक्तिपूर्वक निमंत्रण देकर दान करना धर्मका अंग है। जिसको भक्ति पूर्वक निमन्त्रण दिया जावे उसको भी धर्मकी प्रतिष्ठा करते हुए निमन्त्रण स्वीकार कर लेना चाहिये । हम दान क्यों लें ऐसा अभिमान नहीं रखना चाहिये । परस्पर श्रावक पश्राविका पात्र दान कर सक्ते हैं, इससे धर्मकी वृद्धि होती है, धर्मप्रेम बढ़ता है। यदि भोजनके पहले किसी पात्रका लाभ न होवै तौ दु:खित, बुभुक्षित, दयापात्र, किसीको भी दान देकर भोजन करे, यदि न मिले तो उसके लिये निकाल दे। कमसे कम हरएक जीमनेवालेको भोजन से पहले रोटी आधी रोटी अलग निकालके भोजन करना चाहिये। वह निकली रोटी किसी मानव या पशुको दी जासती है। इसके सिवाय गृहस्थीको अपनी कमाई.हे चौथाई, छठा, आठवांव कमसे कम दशा भाग निकालना चाहिये । उसे आहार, औषधि, अभय व विद्यादान में खर्च करना चाहिये । जैन श्रावक श्राविकाओंको औषधिका प्रबन्ध कर देना । गरीब कुटुम्बाको अन्नादिकी सहाय करना। अनाथ विधवा आदिकी पालना करनी, शास्त्रोंका प्रकाश करना, शास्त्र व पुस्तकें बांटना, विद्यालय खोलना, छात्रोंको वृत्तियें देना आदि जो चार दानके कार्य जैनधर्मके धारी जैन समाजके लिये किये जायगे ये सब पात्रदानमें आजायगे। करूणाभाव करके जगतमात्रके मानव व पशुओंको अन्नादि
देना, उनकी औषधि करना, उनके प्राणों को बचाना, सर्व मानवों में विद्याका प्रचार करना, यह करु • णादान है। गृहस्थको उचित है कि निरंतर पात्रदान व करुणादान दोनों प्रकारका दान भावपूर्वक
करै। दानसे ही गृहस्थकी शोभा है। दान करते हुए कभी आकुलित नहीं होना चाहिये। जितना धन दानमें निकल जाय वह बो दिया गया है ऐसा समझना चाहिये । दानी गृहस्थ उदार-चित्त होते हैं। कषाय मंद रहती है जिससे निरन्तर पुण्य बांधते व असाताके कारणोंसे बचनेका साधन करते हैं।
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श्रावकार
शुद्ध षट्कर्म संक्षेप। श्लोक-ये षटकर्म शुद्धं च, जे साधंति सदा बुधैः ।
___ मुक्ति मार्ग ध्रुवं शुद्धं, धर्मध्यानरतो सदा ॥ ३७५ ॥ अन्वयार्थ-(सदा बुधैः) सदा ही बुद्धिमानोंको उचित है कि (ये षट् कर्म शुद्धं च साधन्ति) इन छ: कौंको शुद्धताके साथ साधन करें (ने मुक्तिमार्ग ध्रुवं शुद्ध) वे निश्चल शुद्ध मोक्षमार्गपर चलनेवाले हैं (धर्मध्यानरतो सदा) वे सदा ही धर्मध्यानमें लवलीन हैं।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन या दृढ श्रद्धा पूर्वक देव पूजादि छहों कमाको व्यवहार व निश्चय दोनों नयोंके द्वारा जानकर सेवन करना चाहिये। श्री जिनेन्द्र देवकी पूजा करना व्यवहार देवपूजा है। उनके शुरु आत्मीक गुणोंके समान अपने आत्मीक गुणोंका अनुभव करना निश्चय देव पूजा है। श्री निर्मथ गुरुकी भक्ति करना, उनसे धर्मोपदेश लेना व्यवहार गुरुभक्ति है। उनकी संगतिसे अपने शुद्ध आत्माका साधन करना निश्चय गुरुभक्ति है। शास्त्रोंको पढकर ज्ञान प्राप्त करना व्यवहार स्वाध्याय है। तथा अपने आत्माके शुद्ध स्वभावका आराधन निश्चय स्वाध्याय है।
पांच इंद्रिय व मनका दमन व छ। कायके प्राणियोंकी रक्षाके हेतु यम नियमरूप संयम पालना व्यवहार संयम है। निश्चल शुद्धात्मामें रमण करना निश्चय संयम है। उपवास आदि बारह प्रकार तपका, शक्तिके अनुसार आराधन करना व्यवहार तप है। अपने ही शुद्ध आत्मामें अपने आत्माको तपाना निश्चय तप है। पात्रोंको भक्तिपूर्वक व दु:खियोंको दयापूर्वक दान देना, व्यवहार दान है।
तथा अपने ही आत्माको अनुभव करके ज्ञानामृतका दान करना निश्चय दान है। ये छहों कर्म गृह* स्थोंको मोक्षमार्गमें परम सहाई हैं। इनको निरंतर पालते हुए धर्मध्यानमें तन्मय रहना योग्य है।
श्लोक-षट्कर्म च आराध्यं, अव्रतं श्रावकं ध्रुवं ।
संसार सरनि मुक्तस्य, मोक्षगामी न संशयः ॥ ३७६ ॥ अन्वयार्थ—(अव्रतं श्रावक) व्रत रहित श्रावकको (ध्रुवं) सदा (षट्कर्म च माराध्यं) देव पूजादि छहों
॥३१५
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सारणतरण ३६६॥
कमका आराधन करना चाहिये (संसार सरनेि ) संसार के मार्ग से (मुक्तस्य ) छूट करके वह (मोक्षगामी ) मोक्षमार्ग पर चलनेवाला है ( न संशयः ) इसमें कोई संशय नहीं
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विशेषार्थ - निश्चय तथा व्यवहार नयसे ऊपर कहे हुए छहों कमको जो कोई नित्य भक्ति व भावसे सेवन करता है, अपने लौकिक कार्योंकी बहुतायत होनेपर भी बहुत आरंभ काम घंघा होनेपर भी, इनके लिये समय निकालता है वही सच्चा धर्मप्रेमी है । जिस काम के लिये अधिक प्रेम होता है उसके लिये समय अपने आप निकाल लिया जाता है। गृहस्थ श्रावक व्रतोंको प्रतिमारूपसे पालनेका नियम न रखने पर भी बडा ही दृढ श्रद्धावान होता है। जिस आत्मानन्दका एक दफे स्वाद पाचुका है उसीकी वारवार प्राप्तिकी भावनासे यह देवपूजादि छः व्यवहार कार्योंके आलम्बन से शुद्धात्माका मनन करके संसारके मार्गसे हटा हुआ है और मोक्षके मार्ग पर जारहा है। इसके जीवनका ध्येय ही आत्मोन्नति करना है ।
श्लोक - एततु भावनं कृत्वा, श्रावक सम्यक् दृष्टितं ।
अव्रतं शुद्ध दृष्टी च, साथं ज्ञान मयं ध्रुवं ॥ ३७७ ॥
अन्वयार्थ - ( एतत्तु भावनं कृत्वा ) इन छः कमौके करनेकी भावना करके ( श्रावक सम्यग्दृष्टितं ) यह श्रावक सम्यक दर्शनका आचरण करता है । (अव्रतं शुद्धदृष्टी च) यद्यपि यह व्रत रहित है तथापि विशुद्ध सम्पष्ट है । (सार्थ ज्ञान मयं ध्रुवं ) यह यथार्थ ज्ञानमई निश्चल परमात्माका ध्यान करनेवाला है ।
विशेषार्थ - यहांतक ग्रंथकर्ताने मुख्यता से अविरत सम्यकदृष्टीका चारित्र वर्णन किया है । यह धर्मका प्रेमी व संसारसे वैरागी होकर देवपूजादि छः कमकी उन्नतिकी भावना रखता है। तथा आठ मूलगुण पालता है, सात व्यसनों से बचता है, रत्नत्रयकी भावना भाता है, पांच परमेष्ठी की दृढ भक्ति रखता है । जल छानकर पीता है। रात्रिके भोजन त्यागका अभ्यास करता है। कुदेवादिकी भक्ति भूलकर भी नहीं करता है । इनके उत्साह आत्मोन्नतिका रहता है । अप्रत्याख्यानावरण कषायका जबतक उपशम न होजावे तबतक यह पांचवें देश विरत गुणस्थान में नहीं जासक्ता है । तथापि सम्यक दर्शन होनेके पीछे आत्मतत्वकी भावना भाते हुए जितना २ अप्रत्यारूपानावरण कषायका उदय कमकम होता जाता है उतना उतना इसका चारित्र ऊँचा होता जाता है। चारि
श्रावकाचार
॥१६६॥
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तारणतरण
श्रावकाचार
॥३६७॥
के प्रभावसे इसका भाव कोमल, विवेकी, धर्मयुक्त, न्यायमार्गी व दया धर्मसे गर्मित होता है।
त होता है। यह व्रती न होनेपर भी व्रतीके समान आचरण करता है। धर्मध्यान का प्रारम्भ चौथे गुणस्थानसे होजाता है। यह मदा संसार शरीर भोगोंसे वैराग्ययुक्त होकर आत्माके शुद्ध स्वरूपकी भावना करता है। जगतमें सुख दुःखकी प्राप्तिके नाटकके दृष्टाके समान देखकर न उन्मत्त होता है और न विषाद करता है, भीतरसे समता भावका प्रेमी है।
ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप । श्लोक-श्रावकधर्म उत्पाद्यते, आचरणं उत्कृष्टं सदा ।
प्रतिमा एकादशं प्रोक्तं, पंच अनुव्वय शुद्धयं ॥ ३७८॥ मन्वयार्थ—(श्रावकधर्म उत्पाद्यते ) श्रावकका धर्म उत्पन्न करना चाहिये ( सदा उत्कृष्ट आचरण) जिससे निरंतर आचरण बढता हुआ उत्कृष्ट मुनि होने तक होजावे। श्रावककी (एकादशं प्रतिभा प्रोक्तं ) ग्यारह प्रतिमा या श्रेणी कही है (पंच अनुव्वय शुद्धयं ) जिनके द्वारा पांचों अगुवनोंकी शुद्धता होती है।
विशेषार्थ-अविरत सम्यग्दृष्टीमें मात्र यथाशक्ति आचरणका अभ्यास है। नियमरूप व्रतोंका पालन नहीं है। प्रतिमाएं पांचवें देशविरत गुणस्थानमें प्रारम्भ होती हैं। यहां जो श्रेणी होती है उसमें प्रतिज्ञाएँ दोष रहित पाली जाती हैं व आगेकी श्रेणीका अभ्यास किया जाता है, इनमें नियम आगे २ बढते जाते हैं, पिछले नियम छूटते नहीं हैं। ये ग्यारह श्रेणियां वाहरी आचरणकी उन्नति रूप होते होते मुनिपदके चारित्रमें बडी सुगमतासे आरूढ कर देती हैं। मुख्य बाहरी आचरण पांच व्रत हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, व परिग्रह त्याग । इनको पूर्ण पालनेवाले महाव्रती मुनि होते हैं तब उनको एक देश थोडा शक्तिके अनुसार पालनेषाले श्रावक होते हैं। पहली प्रतिमामें इनका पालन प्रारम्भ होता है सो ग्यारहवीं प्रतिमा तक महाव्रतके निकट पहुंच जाता है। जैसे किसी कार्यके १०० अंश हों, प्रथम १० अंश करे फिर बढते बढते ९९ अंश तक पहुंचे वहांतक वह कार्य अपूर्ण किथा गया। जब १०० अंश होजावे तब वह पूर्ण हुआ। जैसे बाहरी चारित्र बढता जाता
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ॐ॥३६७०
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तारणतरण
है वैसे अन्तरंग शुखात्मानुभवकी शक्ति भी बढती जाती है। वैराग्य भी बढता जाता है। कषा- श्रावकार यका उदय भी मंद होता जाता है। प्रत्याख्यानावरणका उदय जितना २ मंद होता जाता है, प्रतिमाका दरजा बढता जाता है। जब वह विलकुल बंद होजाता है मात्र संज्वलनका उदय रहता है तब श्रावकसे साधु होजाता है।
श्री रत्नकरण्ड आ. में कहा हैश्रावकपदानि देवरेकादश देशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणः सह सतिष्ठते क्रमविवृद्धाः ॥ १३६ ।।।
भावार्थ-श्री गणधर देवोंने श्रावकोंके ग्यारह पद कहे हैं उनमें पहले पहिलेके गुणोंके साथ आगे १ के गुण क्रमसे बढ़ते हुए चले जाते हैं। अंतरंग आत्म शुद्धि व बाहरी चारित्र दोनों बढ़ते जाते हैं। इनका पालन गृहस्थ आवकोंको भले प्रकार कर्तव्य है।
श्लोक-दसण वय सामाइक, पोसह सचित्त चिंतनं ।
अनुरागं वं भवयं, आरम्भ परिग्रहस्तथा ॥३७९ ॥ अनुमति उदिष्ट देश, प्रतिमा एकदशानि च ।
व्रतानि पंच उत्पाद्यते, श्रूवते जिनआगमं ॥ ३८०॥ अन्वयार्थ-दसण वय सामाइक) दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा (पोसह सचित चिंतन) प्रोषधोपवास प्रतिमा, सचित्त विरत प्रतिमा (अनुरागं वं भवयं ) अनुराग भक्ति प्रतिमा, ब्रह्मचर्यव्रत प्रतिमा (आरम्भ परिग्रहस्तथा ) आरस्म त्याग प्रतिमा तथा परिग्रह त्याग प्रतिमा ( अनुमति उद्दिष्ट देशं च)
अनुमति त्याग प्रतिमा, उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा यहांतक एक देशवत है (प्रतिमा एकदशानि च ) ये ग्यारह ॐ श्रेणियां हैं (पंचव्रतानि उत्पाद्यते ) यहां पांच ब्रतोंकी शक्ति पैदा की जाती है (मिनागम श्रूयते) व जिन आगमको सुना जाता है।
विशेषार्थ-जो जिनवाणीको साधुओंके मुखार्विदसे प्रेमपूर्वक व भक्तिपूर्वक सुनें उसको श्रावक कहते हैं यह शब्दार्थ है। जिन आगमका अभ्यासी व भक्त हो वह श्रावक है, जो शास्त्रज्ञानसे अपने भीतर संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य बढाता चला जावे। यहां जो ग्यारह प्रतिमाके नाम
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वारणतरण आए हैं इनमें छठी प्रतिमाका नाम अनुराग भक्ति है। जब कि रनकरंडमें इसका नाम रात्रि मुक्तिश्रावकाचार
स्याग है व अमितगति प्रावकाचारमें दिवामैथुन त्याग है। इस भेदका कारण यह समझ में आता
कि श्री समंतभद्राचार्य मतमें रात्रिभोजनका त्याग छठी प्रतिमाके पहले तक यथाशक्ति अभ्यास रूप था, कोई यदि पूर्णतया त्याग तो उचित ही था, परंतु यदि न त्याग कर सके तो छठी श्रेणीमें भले प्रकार त्यागना उचित था, स्वयं करे भी नहीं,करावे नहीं, अन्य आचार्योंने यह विचारा होगा कि रात्रि भोजनका त्याग तो दर्शन व ब्रत प्रतिमामें ही होजाना चाहिये, छठी तक शेष न रहना चाहिये । इसलिये दिवामैथुन त्याग कराया है। तारणतरणजीने अनुराग भी नाम रक्खा है कि राग गृहस्थका इटा देना, आस्मामें विशेष भक्ति रखना जिससे आगे ब्रह्मचर्य पाल सके। दिवा मैथुन त्यागमें करीब २ अनुराग त्याग आजाता है। जब राग घटाएगा तब दिवस में मैथुनसे पूर्णपने विरक्त रहेगा। शेष सब नाम श्री समन्तभद्राचार्यके अनुकूल हैं। इनमें पांच अगुवाको अधिक अधिक बढाया जाता है।
श्लोक-अहिंसा अनृतं येन, स्तेयं पंच परिग्रहं ।
शुद्ध तत्व हृदये चिंते, साई ज्ञानमयं ध्रुवं । ३८१ ॥ प्रतिमा उत्पाद्यते येन, दर्शनं शुद्ध दर्शनं ।
ॐ वंकारं च विदंते, मल पच्चीस विमुक्तयं ।। ३८२ ।। अन्वयार्थ (येन अहिंसा अनृतं) जो अहिंसा, असत्य त्याग (स्तेयं पंच परिग्रहं ) चोरी त्याग, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग इनको अणुव्रत रूपसे पाले (हृदये शुद्ध तत्व चिंते) हृदयमें शुद्ध तत्वोंको-यथार्थ
सात तत्वोंको चितवन करे (साई ज्ञानमयं ध्रुवं) साथमें ज्ञानमई निश्चय शुद्धास्माका अनुभव करे (येन ४ प्रतिमा उत्पाद्यते) तब वह प्रतिमाको प्रारम्भ करता है (दर्शनं शुद्ध दर्शनं) दर्शन प्रतिमामें सम्यग्दर्शन
अतीचार रहित शुद्ध होना चाहिये (ॐ वंकारं च विंदते) ॐ मंत्रका जहां अनुभव किया जावे (मक पच्चीस विमुक्तयं ) जहां पचीस दोष छोडे जावें।
विशेषार्थ-दर्शन प्रतिमाका स्वरूप यह है कि श्रावक अहिंसादि पांच अणुव्रतोंका पालना
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तारणतरण
॥७॥
प्रारम्भ करदे । स्थूलपने यथाशक्ति पाले। इनके अतीचारोंका विचार व्रत प्रतिमामें होसकेगा यहां श्रावकागर अभ्यास मात्र अतीचार बचानेकी कोशिश करे तथा स्वपर तत्वको भिन्न विचारे तथा मुख्यतासे शुद्धात्मानुभवका विशेष अभ्यास करै । सम्यग्दर्शनको २५ दोष रहित शुद्ध पाले। ॐ के बारा पांच परमेष्ठीका ध्यान करे । परिणाम सदाकाल मोक्षमार्गमें उमंगरूप रक्खे ।
श्री रत्नकरंड श्रावकाचारमें लिखा है
सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिर्विण्णः पंचगुरुचरणशरणो, दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः ॥ १३७॥ मावार्थ-जो दर्शन प्रतिमाका धारी है वह शुद्ध सम्यग्दर्शनको पाले, संसार शरीर व भोगोंस वैरागी हो, पंच परमेष्ठीके चरणोंका भक्त रहे व मोक्षमार्ग पर चलने लगे अर्थात पांच अणुव्रतोंका स्थूल पने अभ्यास करे ।
अहिंसा अणुव्रतमें-संकल्पी हिंसा त्यागे, आरंभीके त्यागका मात्र अभ्यास करे, वृथा न ४ करे। अमितगति श्रावकाचारमें जैसा कहा है
स्थावरचाती जीवस्त्रससंरक्षी विशुद्धपरिणामः । योऽक्षविषयानिवृत्तः सः संयतासंयतो ज्ञेयः ॥५-६ ॥ हिंसाढेधा प्रोक्तारंभानारंभजत्वतोदक्षः। गृहवासतो निवृत्तो द्वेषापि त्रायते तां च ॥६-६ ॥
गृहवाससेवनरतो मंदकषायः प्रवृचिरम्भाः। भारम्भमां स हि शक्रोति च रक्षितुं नियतम् ॥ ७-६॥
मावार्थ-जो जीव स्थावरोंकी हिंसाको त्यागने असमर्थ है तथा त्रस जीवोंकी भलेप्रकार रक्षा रहित है, इंद्रियोंके विषयोंसे विरक्त है, विशुद्ध परिणामधारी है वह देश व्रतका धारी प्रावक होता है। हिंसा दो प्रकारकी है-आरम्भी दूसरी अनारम्भी या संकल्पी। जो गृहवासके त्यागी मुनि
हैं वे दोनों प्रकारकी हिंसाके त्यागी होते हैं। जो गृहवासमें हैं मंद कषायधारी हैं व आरम्भमें प्रवृत्ति में रखते हैं वे नियम रूपसे भारम्भ जनित हिंसाके छोडनेको असमर्थ होते हैं। आरम्भी हिंसा तीन प्रकारसे होसक्ती है।
१-उद्यमी-असिकर्म (शब्द प्रयोग द्वारा), मसिकर्म (लेखन कर्म), कृषि कर्म, वाणिज्य कर्म, शिल्प कर्म, विद्या कर्म (कला नृत्य गानादि) इन छ: प्रकार के कार्योंके द्वारा न्यायपूर्वक गृह* स्थीको आजीविका करनी पड़ती है तब इन उद्यमों में विचार पूर्वक करते हुए भी जो बस स्थावरकी
HROOM हिंसा होती है वह उद्यमी रिसा है।
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२-गृहारंभी-जो घरके कामकाजमें, भोजनादि आरंभमें, मकान, कूप, बावडी, पाग बना कारणचरण
2 में हिंसा होती है वह गृहारंभी है। भ३७१०
-विरोधी-जो कोई दुष्ट चोर, बदमाश या शत्रु जान मालको कष्ट देनेको उतारू हो व देशका नाश करे तथा किसी अन्य उपायसे उनका निरोध न होसके तो उनसे अपनी व अपने आधीनोंकी रक्षा हेतु जो शस्त्रका प्रयोग करना उसमें जो विरोधी मानवोंकी हिंसा होगी वह विरोधी रिसा है।
गृहस्थ श्रावक इन तीन प्रकारकी हिंसाको छोड नहीं सका-यथाशक्ति कम करता है परंतु संकल्पी हिंसा त्रस जंतुओंकी नहीं करता है। वृथा अस घात नहीं करता है जैसे शिकार खेलकरके, पशुबलि करके व मांसाहारके निमित्त वध नहीं करता व कराता है। जैसा अमितगति महाराज कहते हैं
देवातिथिमंत्रीपविपित्रादिनिमिततोपि संपन्ना । हिंसा पते नरके पुनरिह नान्यथा विहिता ॥ २९-६ ॥ _ भावार्थ-देव, गुरू, औषधि, पितर आदिके निमित की गई हिंसा भी नरकमें डालती है तो और प्रकार करी हुई नर्क में क्यों न हारे।
रिसादि पांच पापोंसे गृहस्थीके कोटि त्याग होता है, ९कोटि साधओंके होता जैसा अमितगति कहते हैं
त्रिविधा द्विविधन मता विरविहिंसादितो गृहस्थानां । त्रिविधा त्रिविधेन मता गृहचारकतो निवृतानां ॥१९-६॥
मावार्य-गृहस्यों के हिसादि पापोंका त्याग तीन मन, वचन, कायके द्वारा करना व कराना नहीं इस तरह छःप्रकार त्याग है । मुनियों के जो गृह त्यागी ई-मन, वचन कायके द्वारा करना, कराना व अनुमोदना ऐसे ९ प्रकार त्याग है। गृहस्थीके अनुमोदना त्याग १०वी प्रतिमामें होती है। ९वीं तक करना व कराना मात्रका त्याग है। जहांतक गृहस्थ हैं वहांतक अनेक कार्यों में अनुमति देनी पर जाती है। - सत्य अणुव्रतमें गृहस्थीको आरम्भ कार्य सम्बन्धी वचन जो हिंसाके कारण हैं उनके सिवाय अन्य प्रकार असत्य वचनका त्याग होता है। जैसा पुरुषार्थसिक्युपायमें कहा है
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धारणतरण
ફા
भोगोपभोगसाधनमात्रं सावयमक्षमा मोक्तुं । ये तेपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव तु ॥ १०१ ॥
भावार्थ — गृहस्थी भोग व उपभोगके साघन करनेके लिये हिंसाकारी वचन बोलना छोड नहीं सक्ता। उसके सिवाय समस्त प्रकार असत्यको नित्य ही छोड़ता है। जैसे प्रमत्त भाव सहित प्राणीवध करना हिंसा है, वैसे प्रमत्त भाव सहित अप्रशस्त या प्राणी पीडाकारी वचन बोलना अजून है । प्रमत्त भाव सहित परवस्तुको विना दिये लेना चोरी है। प्रमत्त भाव सहित मैथुन करना अब्रह्म है । परिग्रह में मूर्छा रखना परिग्रह है ।
असस्य चार प्रकार है- १ –वस्तु हो कहना नही है । २स्तु नहीं है कहना है । ३ स्तु हो कुछ कहना कुछ, ४ – गर्दिन, सावद्य, अमिय, कठोर, हास्यमय, बरुवशदमय, मर्मछेदक वचन कहना गर्हित है, आरंभ सम्बन्धी वचन कहना सावध है। अरति, भय, शोक, वैर कलह करानेवाला वचन कहना अप्रिय है । इन सबमें मात्र सावध वचनोंका त्याग गृहस्थी अणुवनीके नहीं बन सका हैं, परन्तु अन्य सर्व प्रकार के असत्य वचनोंका वह त्याग करता है । गिरी, पढी, भूली हुई विना दी वस्तुको कषाय भावसे उठा देना चोरी है, इसका त्याग गृहस्थ को जरूरी है। अपनी विवाहिता स्त्रीके सिवाय परस्त्रीका त्याग ब्रह्मचर्य अणुव्रत है । पुरुषार्थ सिद्ध्युराय में कहा है
असम ये कर्तुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् । तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परिस्याज्यम् ॥ १०६ ॥
भावार्थ — गृहस्थ भावक कूपादिका जल विना दिये लेनेका त्याग नहीं कर सके, इसी तरह अन्य फल लकडी मिट्टी आदिको भी विना दिये ले सके हैं, जिनके लिये मनाई नहीं है । अन्य सर्व विना दी हुई वस्तुको लेनेका त्याग करना उचित है । ईमानदारी व सचाई का पैसा लेना यही अचौर्य अणुव्रत है। ब्रह्मचर्य अणुव्रतका स्वरूप वहीं कहा है
ये निजकलत्रमात्रं परिहर्तुं शक्नुवंति न हि मोहात् । निःशेषशेष योषिनिषेपणं तैरपि न कार्यम् ॥ ११० ॥ भावार्थ- जो मोहके कारण अपनी विवाहिता स्त्री मात्रका भी त्याग नहीं कर सके उनको उचित है कि शेष सर्व प्रकारकी स्त्रियोंके सेवनका त्याग करें । वेश्या, परस्त्री, दासी आदिले विरत रहे।
योपि न शक्तस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्य वास्तुवित्यादि । सोपि तनूकरणायोः निवृतिरूपं मतस्वत्वम् ॥ १२८ ॥
श्रावका पार
। ।। २७९ ॥
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सारणतरण
॥ ३७३ ॥
भावार्थ — जो धन धान्यादि परिग्रहको बिलकुल छोड न सके उसको कम करना योग्य है क्योंकि त्यागरूप ही मोक्षतत्व है ।
१० प्रकारका परिग्रहका जन्म पर्यंत के लिये नियम करना चाहिये । १- क्षेत्र - जगह कितनी रक्खी, २- वास्तु — अपनी मालकीके कितने मकान रक्खे, ३- हिरण्य-चांदी या रुपये कितने रक्खे, ४ - सुवर्ण - सोना या जवाहरात क्या २ रक्खे, ५-धन- गाय भैंसादि कितने रक्खे, ६ - धान्यअनाज अपने खर्चका एक साथ कितना रक्खूंगा, ७- दासी दासी कितनी रक्खूंगा, ८- दास-दास कितने रक्खूंगा, ९- क्रुध्य – कपडे कितने रक्खूंगा, १०- भांड-वर्तन कितने रखूँगा ।
इनका प्रमाण जन्म पर्यंत करले । कुल जायदाद कितनेकी रखूंगा यह एक मुष्ट भी प्रमाण करले । जब उतना प्रमाण पूरा होजावे तब आप फिर कमाना छोड दे । अपनी मिलकियत इटाले । पुत्रादि अपनी सम्पत्तिके लिये स्वयं उत्तरदायी है । इन पांच अणुव्रतोंको सरलपने धारण दर्शन प्रतिमा से ही हो जाना चाहिये । इन पांच व्रतोंको दृढताने पालनेके लिये व उनकी वृद्धि के लिये हरएक व्रतकी पांच पांच भावनाएं हैं उनको विचारते रहना चाहिये । ये भावनाएं मुनिके लिये पूर्ण हैं, श्रावकके लिये यथाशक्ति हैं ।
१- अहिंसा अणुव्रतकी पांच भावनाएँ -
वांग मनो गुप्तीर्यादाननिक्षेपण समित्या लोकितपान भोजनानि च ॥ १ ॥
अर्थात् - १- वचन गुप्ति-वचनकी सम्हाल कि हिंसाकारी वचन न बोलूं, १- मनोगुप्ति – मन में हिंसक भाव न लाऊँ, ३- ईर्षा समिति – भागे जमीन देखकर चलूँ, ४-आदान निक्षेपण समितिकोई वस्तु उठाऊँ व धरूं तो देखकर, ५-आलोकित पान भोजन – खानपान देखकर बनाऊं व करूं ।
२- सत्य अणुव्रतको पांच भावनाएं
क्रोध लोभ भीरुत्वा । स्यप्रत्याख्यानान्यनुबीची भाषणं च पंच ॥ ९-७ ॥
अर्थात – १ - क्रोधका त्याग करूं-वश रक्खूं, २-लोभका त्याग करूं, ३ - भीरुता या भयका त्याग करूं, ४ - हास्यका त्याग करूं क्योंकि क्रोध लोभ भय हास्यके कारण असत्य बोला जाता है, ५- अनुधीची भाषण- शास्त्र के अनुसार वचन बोलूं ।
श्रावकाचार
॥२०३॥१
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-चौर्यवतकी पांच भावनाएं
शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभक्ष्यशुद्धिसधाविसंवादाः पंच ॥ - ॥ पत्-१-शून्य स्थानमें ठहरना, २-छोडे हुए स्थानमें ठहरना, ५-दूसरा ममा करे पहांग ठहरना व आप दूसरेको मानेसे मना न करना, ४-भोजनकी शुचि रखना, अंतरायका कारण होने पर भोजन न कर लेना, ५-साधर्मी भाई व बहनासे झगडा धर्म वस्तुके निमित्त न करना कि यह मेरी या तेरी नहीं है।
-स्त्री ब्रह्मचर्य व्रतकी पांच भावनाएं
हीरागकथाश्रवणतन्मनोहरागनिरीक्षणपूर्वरतानुसारणवृष्यहरसखशरारंसस्कारत्यामा: पंच॥७-७॥ मर्थात्-१-स्त्रियों में राग बढानेवाली कथाओंको पढना, २-उनके मनोहर अंगका देखना, व भोगों की स्मृति, ४-कामोद्दीपक पदार्थ खाना, ५-अपने शरीरका श्रृंगार करना। परिग्रह त्याग ब्रतकी पांच भावनाएं
मनोज्ञामनानेंद्रियविषयरागद्वेषवर्धनानि पंच॥ ८-७॥ अर्थात्-पांचों इन्द्रियोंके भोग्य पदार्थ मनोज्ञ या अमनोज्ञ हों उनमें राग मेष नहीं करना। प्रतीको और भी भावनाएं भानी चाहिये।
हिंसादिष्विहामुत्रापायावयदर्शनं ॥ ९-७॥ भावार्थ-ये हिंसादि पांच पाप इस लोक व परलोक नाशकारी व निन्दाकारी हैं। दुःखमेव वा-॥१०-७॥ ये पांच पाप दुःखरूप ही है, दुःखोंके कारण हैं।
मैत्रीप्रमोदकाहरण्यमाध्यखानि च सत्वगुणाधिकाविश्यमाना विनयेषु ॥ ११-७॥ अर्थात्-सर्व प्राणियोंपर मैत्रीभाव रहे, २-गुणवानों पर प्रमोदभाव रहे, -दुखियोंपर * ४दयाभाव रहे, ४-विनय रहितों पर माध्यस्थभाव रहे।
जगत्कायस्थमावौ वा संवेगवैराग्या। . अर्थात्-जगतका दुःखमय स्वभाव व कायका अशुचि स्वभाव धर्मानुराग व पैराग्यके लिये विचारते रहना चाहिये।
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हन भावनाओंको ध्यानमें लेते हुए पहली प्रतिमावालेको पांच अणुव्रतोंका अभ्यास करना ४ चाहिये । देव पूजादि षट्कर्म पालते रहना चाहिये । पांच परमेष्ठीमें दृढ़ भक्ति रखना चाहिये तथा सम्यक्वको २५ दोष रहित पालना चाहिये।
श्लोक-मूढत्रयं न उत्पाद्यते, लोकमूढं न दिष्टते।
जेतानि मृढदृष्टी च, तेतानि दृष्टि न दीयते ॥ ३८३ ॥ अन्वयार्थ-(मूढत्रयं उत्पाद्यते ) दर्शन प्रतिमाघारीके तीन मूढता नहीं उत्पन्न होती हैं (लोकमूद न ५ दिष्टते) पहली लोकमूढता नहीं दिखलाई पडती है (जेतानि मूढदृष्टी च) जितनी जगतमें मढताईकी
श्रद्धाएँ हैं (तेतानि दृष्टि न दीयते ) उनपर यह श्रावक अपनी दृष्टि नहीं देता है। उनपर कभी श्रद्धा नहीं लाता है।
विशेषार्थ-यद्यपि २५ मल दोषका कथन पहले कह चुके हैं तथापि प्रकरणवश उपयोगी जानकर यहां कहते हैं। तीन मूढतामें यह श्रावक नहीं फंसता है। प्रथम लोकमूढतामें जितने प्रकारकी लोकमें मूढताएं फैली हुई हैं उन सबको मूढता समझकर कभी उनपर श्रद्धा नहीं लाता है । जैसे नदी में स्नानसे व समुद्र में स्नानसे पुण्य होगा, पर्वतसे गिरनेसे व नदीमें पडनेसे पुण्य होगा, अग्निमें सती होनेसे पतिव्रत धर्म पलेगा, थैली पूजनेसे रुपया आयगा, तलवार पूजनेसे विजय होगी, कलम दावात पूजनेसे खूब व्यापार चलेगा, दुकानकी दिहली पूजनेसे बहुत व्यापारी आएंगे, दिनमें भूखा रहनेसे व रात्रिको खानेसे पुण्य होगा, दिवाली में जूआ खेलनेसे बहुत धन मिलेगा, होलीमें भांग पीना धर्म है, होली जलाना व होलीमें बकना धर्म है इत्यादि हजारों लोकसूढता है उन सबको विचारवान दार्शनिक नहीं मानता है।
श्लोक-लोकमूढं देवमूढ़ च, अनृत अचेत दिष्ठते ।
त्यक्तये शुद्धदृष्टी च, शुद्ध सम्यक् रतो सदा ॥ ३८४॥ अन्वयार्थ (लोकमूढं च देवमूढ़ ) लोकमूढताके समान देवमूहताको भी (भनृत अचेत दिष्टते) मिथ्यारूप व अज्ञानरूप ज्ञानी सम्यग्दृष्टी देखता है । इसलिये (शुष्टि च त्य कये) शुद्ध सम्यग्दृष्टी इन
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श्रावकाचार
कारणवरण
मूढताओंको छोड देता है (शुद्ध सम्यक् रतः सदा) वह सदा ही शुद्ध आत्मानुभव रूप सम्यग्दर्शनमें तन्मय रहता है।
विशेषार्थ-जैसे लोकमूढता मिथ्यात्व व अज्ञान है वैसे देवमूढता भी मिथ्यात्व व अज्ञान है। रागी देषी देव तो स्वयं संसारासत हैं, उनकी पूजा करना वीतरागताका कारण नहीं होसका है। अतएव किसी लौकिक प्रयोजनवश इन देव जातिके जीवोंकी भक्ति करना बिलकुल मूर्खता है अथवा जिनमें देवपना बिलकुल नहीं है ऐसे, गौ, मोर, घोडा आदिको देव मानकर पूजना या किसी पत्थरके खंडको रागी देषी देवकी स्थापनामें पूजना सो सब देवमूढता है। सम्यग्दृष्टी सम्यग्ज्ञानी होता है। वह जानता है कि परिणामोंको उज्वल करना चाहिये। उसका उपाय मात्र सर्वज्ञ वीतराग देवका आराधन है। तथा किसी विषयकी चाह करके किसी देवको पूजना मिथ्यात्वका अंग है, नि:कांक्षित अंगसे विरुड है। इस तरह वह ज्ञानी कभी भी मिथ्या अडान व मिथ्याज्ञानके वश हो मूढतासे देखादेखी किसी कुदेवको या किसी अदेवको पूज्यनीय देव नहीं मान बैठता है।
वह तो शुद्ध सम्यक्त भाव में प्रेमी बन रहा है। हरसमय आत्मानुभवका खोजी है। आत्मानन्दका * विलासी है, वह संसार शरीर भोगोंसे उदास है, वह क्षणभंगुर भोगोंकी कामनासे कभी भी देव मढता नहीं करता।
श्लोक-पाखण्डी मूढ उक्तं च, अशाश्वतं असत्य उच्यते ।
अधर्म च प्रोक्तं येन, कुलिंगी पाखण्ड त्यतयं ॥ ३८५ ॥ अन्वयार्थ-(पाखंडी मूढ उक्तं च) पाखंडी या गुरु मृढताको कहते हैं। जो (अशाश्वतं मसत्य उच्यते) क्षणिक पदार्थोको क्षणिक न कह करके चिरस्थायी कहे। (येन च अधर्म प्रोक्तं) अधर्मका भाषण करे सो (कुलिंगी पाखण्ड ) कुभेषधारी साधु हैं उनकी भक्ति (त्यक्तयं) छोडनी योग्य है।
विशेषार्थ-जो निग्रंथ आरम्भ परिग्रह रहित वीतरागी तत्वज्ञानी साधु हैं वे मोक्षमार्गी है उनकी भक्ति मोक्षमार्गमें प्रेरक है, परन्तु जो साधु भेष धारकरके आरम्भ परिग्रहमें लीन हैं, हिंसा होते हुए अहिंसा मानते हैं, संसारके प्रपंचसे बाहर नहीं हैं, ऐसे साधुओंकी कोई बाहरी महिमा या उनका चमत्कार देखकर या जानकर उनपर मोहित होजाना व उनकी भक्ति करने लग जाना
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वारणतरण ॥ ३७७ ॥
सो पाखंड या गुरु मूढता है । सम्यक्ती कभी भी शास्त्र के मार्ग से विरुद्ध चलनेवालोंकी भक्ति नहीं करता है । बहुधा कोई लौकिक आशासे शिथिल श्रद्धावान कुमेषी साधुओं की सेवा करने लग जाता है जो उसके सम्पत भावको मलीन करनेवाली है । सम्यक्ती भलेप्रकार गुरु मूढताके दोष से बचता है।
श्लोक - अज्ञान षट्कश्चैव त्यक्तते ये विचक्षणाः ।
कुदेव कुदेव धारी च, कुलिंगी कुलिंग मान्यते ॥ ३८६ ॥ कुशास्त्रं विकहा रागं च, व्यक्तते शुद्ध दृष्टितं । कशास्त्रं राग वर्द्धते, अभव्यं नरयं पतं ॥ ३८७ ॥
अन्वयार्थ – ( अज्ञान षट्कश्चैव ) अज्ञान स्वरूप छः अनायतन सेवा भी है। (ये विचक्षणः त्यक्तते ) जो चतुर हैं वे इनकी संगति त्याग देते हैं ( कुदेव कुदेव धारी च ) एक तो कुदेव, दूसरे कुदेवोंके भक्त, ( कुलिंगी कुलिंग मान्यते) कुभेषी साधु और उनके मानने वाले (कुशास्त्र विकहा रागं च ) खोटे शास्त्र जिनमें विकथाएं हों व राग वर्द्धक हों व उनके पढने व मानने वाले (शुद्ध दृष्टितं त्यक्तते ) इन छः ही संगति सम्यग्दृष्टी छोड देता है (कुशास्त्रं राग वर्द्धते ) खोटे शास्त्र राग बढानेवाले होते हैं (अभव्यं नरयं पतं ) अभव्य जीवका पतन नरकमें होजाता है।
विशेषार्थ — सम्यग्दर्शन पालनेके लिये जैसे तीन मूढतासे बचना चाहिये वैसे छः अनायतन से भी बचना चाहिये । संगतिका बडा भारी असर बुद्धिपर पडता है इसलिये सम्यग्दर्शनकी रक्षा के हेतु यह सम्हाल बताई है कि वह ऐसी संगति न रक्खे व इस तरह संगति कोई न करे जिससे व्यवहार व निश्चय सम्यक्तमें कोई प्रकारकी बाधा होजावे । धर्मकी वृद्धिके स्थानोंको आयतन कहते हैं। जो इनके प्रतिकूल हों वे अनायतन हैं। सर्वज्ञ वीतराग देवकी संगति जब धर्मायतन है तब रागी द्वेषी देवोंकी संगति अधर्मायतन है। क्योंकि उनकी संगति करने से उनकी भक्तिकी अनुमो दना होना व बुद्धिमें विपरीत भाव होजाना संभव है । इसीतरह रागी द्वेषी देवोंके जो भक्त हैं वे भी धर्मायतन नहीं हैं। जो वीतराग सर्वज्ञ भगवान के भक्त हैं उनकी संगतिसे सच्चा श्रवान ढ
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आवकाचार
॥ १७७॥
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वारणतरण
होगा परंतु जो उनसे विपरीत देवके श्रद्धानी हों उनकी संगति शिथिलता करनेवाली हैं इससे श्रावकाचार ऐसीन करे जिससे अपने धार्मिक ज्ञान व आचरणमें व श्रद्धामें कमी आजावे । बहुधा रागी देषी देवोंके आराधकोंकी संगतिसे उनके मोक्षमार्गविपरीत सेवाभक्तिकी अनुमोदना करनी पडती है
तथा दवाबमें आनकर इच्छा न रहते हुए भी उनके समान भक्ति करने में बाध्य होना पडता है। वे है यदि अनछना पानी पीते हैं तो कभीर अपनेको भी वे लाचार कर सके हैं। वे यदि अभक्ष्य भक्षणY
करते हैं तो संगति करनेवालेको भी ऐसे अभक्ष्य खानेमें झुक जाना पडता है। इसी तरह कुलिंगी रागी देषी साधुओं की भी सेवा न करनी चाहिये । वे यदि मोक्षमार्गसे विपरीत जारहे हैं तो उनकी संगतिका ऐसा असर मनमें पड़ेगा कि आप भी सुमार्गसे कुमार्गपर आजायगा व उनके यथार्थ न प्रव. विनेवाले उपदेशोंको सुनकर बुद्धिमें बुरा असर पडनेसे यह व्यवहार सम्पग्दर्शनसे गिर जायगा इसी तरह जो कुगुरुओंके भक्त नरनारी हैं उनकी भी संगति मना है क्योंकि वे अपनी बातोंसे इस श्रद्धालुका मन कुगुरुकी भक्तिमें प्रेरित करके इसी तरह स्त्री कथा, आहार कथा, देश कथा व राजा कथा, ऐसी चार विकथाको पुष्ट करनेवाले, संसारसे राग बढानेवाले शास्त्रोंको पढने सुननेकी संगति भी न करनी चाहिये, न इनके पढने व सुननेवालोंकी संगति करनी चाहिये।
परिणामों में शुद्ध सम्यग्दर्शन बना रहे इसलिये ऊपर लिखित छहों अनायतनोंसे बचना चाहिये। और जो सुदेव, सुगुरु व सुशास्त्र हैं व उनके सेवक हैं उनकी संगति रखनी चाहिये, जिससे ज्ञान व श्रद्धान व चारित्रकी दृढ़ता हो। यहां इतना ही प्रयोजन है कि धार्मिक भावों में शिथिलता आवे ऐसा व्यवहार नहीं रखना चाहिये । किंतु लौकिक लेन देन व्यवहारकी यहां कोई मनाई नहीं है। प्रेम व एकता रखनेकी कोई मनाई नहीं है। जैसे एक ही घरमें चार भाई हों । दो
तो शुद्ध मर्यादाका भोजन खाते हैं व दोको इसका कोई परहेज न हो तो वे जो शुद्ध भोजन कर४ नेवाले हैं वे अपने दूसरे दोनों भाइयोंके साथ रहते हुए भी ऐसी सम्हाल जरूर रखते हैं कि उनके
शुद्ध खानपानके नियममें बाधा नहीं आवे । इसी तरह सम्यग्दृष्टी जगतके मानवों के साथ भाईपनेका व्यवहार रखता है। तौभी अपने अडान ज्ञान चारित्रको मलीन नहीं होने देता है। अपने रत्नध्य धर्मकी भलेप्रकार रक्षा रहे इस तरह वर्तन करता है। यही प्रयोजन छः अनायतनसे बचनेका है। जो
॥३७॥
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श्रावकाचार
अभव्य जीव ऐसी सम्हाल नहीं रखता है वह धीरे२ शिथिल अडानी होता हुआ कुमार्गी बन जाता सारनवर और मिथ्यात्वकी कोच में फंसकर नर्क चला जाता है। ॥३७९॥
श्लोक-अज्ञानी मिथ्यासंयुतं, त्यक्तते शुद्ध दृष्टितं ।
शुद्धात्मा चेतना रूपं, साथ ज्ञानमयं ध्रुवं ।। ३८८ ॥ अन्वयार्थ (अज्ञानी) अज्ञानी जीव या शिथिलज्ञानी जीव (मिथ्यासंयुतं) मिथ्यात्व पोषक संगतिके कारण (शुद्ध दृष्टितं त्यक्तते ) शुद्ध सम्यग्दर्शनको छोड़ बैठता है तथा ( सार्थ ज्ञानमयं ध्रुवं शुद्धात्मा चेतना रूप) यथार्थ ज्ञानमई निश्चल शुद्धास्माके चैतन्यमई स्वभावको भी छोड़ बैठता है।
विशेषार्थ-ज्ञानी जीव कुसंगतिके प्रभावसे जरा भी शिथिल हुआ कि श्रद्धानको मलीन कर सक्ता है। तब जहां व्यवहार सम्यक्त बिगड़ा तब निश्चय सम्यक्त भी बिगड़नेका अवसर आजाता है। रागभावकी अधिककता होनेसे शुखात्मानुभवकी रुचि घटती जाती है और यह उपशम या क्षयोपशम सम्यकी जीव अनन्तानुषन्धी तथा मिथ्यात्यके उदयसे मिधात्वी होजाता है। परिणामोंकी विचित्र गति है। इससे बोधिदुर्लभ भावना भानी चाहिये कि जिस रनत्रयका लाभ बड़े ही भाग्यसे व बड़ी ही कठिनतासे मिला है। उस रत्नत्रयका सम्बन्ध बना रहे, वह हाथसे न निकल
जावे ऐसी भावना भाते हुए सदाही सम्पत भाव वर्डक संगति में रहना चाहिये। जैसे मदिरा व * मांसत्यागीको व यूत रमण त्यागीको मदिरा व मांसकी व द्यूतकी व इनके सेवनवालोंकी ऐसी
संगति बचाना उचित है जिससे वह उन व्यसनों में न उलझ जावे । सम्यक्तका मिलना बड़ा ही दुर्लभ है इससे भले प्रकार रक्षित रखना चाहिये। ___ श्लोक-मदाष्टं संशय अष्टं च, त्यक्तते भव्य आत्मना ।
शुद्ध पदं ध्रुवं सार्थ, दर्शनं मल मुक्तयं ॥ ३८९॥ अन्वयार्थ (मदाष्टं) आठ मद (संशय भष्टं च) आठ शंकादि दोष इन्हें ( भव्य आत्मना त्यतते) भव्य मात्मा छोडदें क्योंकि (शुद्ध पदं ध्रुवं सार्थ दर्शनं मल मुक्तयं) शुख पद मय निश्चल यथार्थ सम्यग्दर्शन मल रहितही शोभता है।
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ब्राह्मणवरण
॥ ३८० ॥
विशेषार्थ-तीन मूढता छः अनायतनके त्यागके साथ आठ प्रकारका मद न करे । जाति, कुल, धन, अधिकार, रूप, बल, विद्या व तप इन बातोंकी उत्तमता व अधिकता होने पर भी सम्पती इनका सम्बन्ध क्षणिक व कर्मजनित जानकर इनके संयोगसे अभिमान नहीं करता है। इन आठों मदों से बचकर मार्दव भाव व नम्रता से व्यवहार करता है तथा आठ शंकादि दोष से बचता है । जिनमत में शंका नहीं रखता है व कोई भय मनमें लाकर जिनधर्मकी सेवा नहीं छोड़ता है। कोई प्रकार संसारके विषयभोगों की इच्छा करके धर्म सेवन नहीं करता है। किसीको दुःखी, रोगी, दलिदी देखकर ग्लानि_भाव नहीं लाता है। मूढताईसे कोई धर्मक्रिया नहीं करता है, अपने आत्मीक धर्मको बढ़ाता है, दूसरोंके औगुणों को प्रगट करनेकी आदत नहीं रखता है, धर्म में अपनेको व दूसरोंको दृढ़ रखता है । साधर्मी भाइयोंसे गौवत्स सम प्रेम रखता है तथा धर्मकी प्रभावना करता है । हर प्रकार से उन्नतिका साधन मिलाता है ।
इस तरह जो आठ अंग न पालें तो ये आठ दोष होजाते हैं । सम्यक्ती २५ दोषोंको भलेप्रकार टालकर सम्पक्तको निर्मल रखता है, यही दर्शनिक श्रावक पहली प्रतिमाके धारीका कर्तव्य है । श्लोक – जे के विमल संपूर्ण, कुज्ञानं त्रिरतो सदा ।
एतानि संग त्यक्तंति, न किंचिदवि चिंतए ॥ ३९० ॥
अन्वयार्थ – ( जे के विमल संपूर्ण ) जो कोई भी इन पचीस दोषोंसे पूर्ण हैं ( सदा कुज्ञानं त्रिरतः ) च हमेशा कुमति आदि तीन कुज्ञानमें रत हैं ( एतानि संग त्यक्तंति ) इनकी भी संगति नहीं करनी चाहिये (किंचिदपि न चिंतए) कुछ भी चिंतवन न करना चाहिये ।
विशेषार्थ — जैसे मल लिप्त कपडा शोभता नहीं वैसे मल लिप्त सम्पक्त शोभता नहीं । मल लिप्त ववाले भेट करना, उससे मिलना जुलना, मिलनेवालेको भी मल लिप्त करनेवाला है उसी तरह हरएक सम्यक्तके रक्षकको उचित है कि वह इन ऊपर कथित २५ दोषोंको स्वयं अपने में न लगावे, निर्मल सम्पत रक्खे तथा जो कोई अन्य स्त्री या पुरुष मल सहित हैं, शंकाशील हैं, विषयोंकी आकांक्षावान है, मानी हैं, मूढताईसे कुधर्मको सेते हैं, परम निंदक हैं, धर्मप्रेम रहित हैं, कुसंगतिके धारी हैं तथा मिथ्यात्वकी बुद्धि रखते हैं व मिथ्या शास्त्रोंके व रागवर्द्धक पुस्तकों के पाठी हैं व राग
श्रावकाचार
॥१८०॥
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चारणतरण
॥१८॥
देष लिप्त अधर्मका उपदेश देनेवाले हैं व कुअवधिज्ञान धारी हैं उन सबकी भी संगति नहीं करनी चाहिये न उमकी संगतिका विचार करना चाहिये । मन, वचन, कायसे मिथ्यात्वमें व तीन रागमें पटकनेवाली संगतिसे बचकर रहना चाहिये। अनन्तानुबन्धी व मिथ्यात्व कर्मके उदय होनेवाले निमित्त कारणोंको बचाना चाहिये। क्योंकि बहुतसे काँका उदय बाहरी निमित्तके आधीन होता है। जिन निमित्तोंसे सम्यक्त भाव दृढ होता जावे उन हीका प्रसंग सदा मन, वचन, कायसे करना चाहिये। सम्यक्तमें बाधाकारक प्रसंगोंसे माध्यस्थ भाव रखना चाहिये। सम्यग्दर्शनकी निर्मलताका उपाय दर्शनप्रतिमाघारीको भलेप्रकार करना चाहिये।
श्लोक-मलमुक्तं दर्शनं शुद्धं, आराध्यते बुधजनैः ।
सम्यग्दर्शन शुद्धं च, ज्ञानं चारित्रसंजुतं ॥ ३९१ ॥ मन्वयार्थ—(मलमुक्तं दर्शनं शुद्ध) मल रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन होता है उसीको (बुधजनैः माराध्यते) बुद्धिमानों को आराधन करना योग्य है ( सम्यग्दर्शन शुद्ध च) जहां सम्यग्दर्शन शुद्ध है वहां (ज्ञानं चारित्र संजुतं) ज्ञान और चारित्र भी शुद्ध है।
विशेषार्थ-ज्ञान कितना भी हो यदि सम्यक्त शुद्ध नहीं है तो ज्ञान भी शुद्ध नहीं है। चारित्र कितना भी पाले, यदि सम्यग्दर्शन शुद्ध नहीं है तो चारित्र शुद्ध नहीं है। सम्यग्दर्शनके होते हुए ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान और चारित्र सम्यग्चारित्र नाम पाता है। नहीं तो ग्यारह अंग नौ पूर्व तकका ज्ञान तथा श्रापकका अनेक प्रकारका चारित्र व मुनियोंका आचरण व तप सर्व ही मिथ्याज्ञान व मिथ्या चारित्र है। जहां अंतरंगमें मिथ्यात्वकी वासना होगी-विषयाकांक्षा होगी, ख्याति लाभ पूजादिकी चाह होगी वहीं सर्व ज्ञान व चारित्र मिथ्या कहलायगा। इसलिये यह बहुत आवश्यक है कि सम्यग्दर्शनकी शुद्धताको दृढ़तासे रखे। उसके दृढ रहनका उपाय यह है जैसा कि शांतिपाठमें कहा है
शास्त्राम्यासो निनपदनतिः संगतिः सर्वदाय्य, सव्रतानां गुणगुणकथा दोषवादे च मौनं ।
सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चास्मतत्त्वे । संपद्यतां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्गः॥ भावार्थ-धर्मप्रेमी सम्यग्दर्शनके रक्षकको निरंतर यह भावना भानी चाहिये व ऐसा ही वर्ताव
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वारणतरण
श्रावकार
रखना चाहिये कि जबतक मोक्ष न हो मैं हरएक जन्ममें इन सात बातोंका अभ्यास करता रहूँ- (१) नित्य प्रति सम्यक्त वईक शास्त्रोंको पढता रहूँ। (२) जिनेन्द्र भगवानके चरणोंकी भक्ति करता रहूँ। (१) सदा ही साधु पुरुषोंकी संगति करता रहूँ। (४) उत्तम चारित्रवान स्त्री पुरुषोंकी कथा करता रहूँ। (५) परके दोषोंको कहने में मौन रहूँ। (६) सर्वसे प्यारे हितकारी वचन बोलूं। (७) तथा आत्माके स्वरूपकी भावना करता रहूँ। इन सात बातोंका अभ्यास सम्यक्तकी दृढता करनेवाला है। यदि इनके विरुड वर्ता जायगा तौ सम्यक्तके छूटनेका अवसर आसक्ता है या सम्यक्त मलीन रहेगा। मेरा श्रद्धान पत्थरके खंभके समान अटल बना रहे ऐसी सम्हाल श्रावकको रखनी योग्य है।
श्लोक-दर्शनं यस्य हृदये शुद्धं, दोषं तस्य न पश्यते।
विनाशं सकलं जानते, स्वप्नं तस्य न दिष्टते ॥ ३९२ ॥ अन्वयार्थ (यस्य हृदये दर्शनं शुद्ध) जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन शुद्ध है (तस्य दोषं न पश्यते) उसके भीतर कोई दोष नहीं दिखलाई पडता है ( सकलं विनाशं जानते ) वह सर्व जगतकी धन वखादि परिग्रहको विनाशीक जानता है (स्वप्नं तस्य न दिष्टते) उसको स्वप्न में भी नाशवंत वस्तुका राग पैदा नहीं होता है।
विशेषार्थ-जहां शुद्धता होगी वहां मैल नहीं व जहां मैल होगा वहां शुद्धता नहीं। दोनोंका विरोध है। इसलिये जो कोई सम्यम्दर्शनको रखते हुए २५मलों में से एक भी मलको नहीं लगाता है, सदा ही मूढतासे बचता है, किसी तरहका आभमान नहीं करता है, परम दृढतासे आत्माकी भावना भाता है, धर्मात्माओंसे प्रेम रखता है, धर्मकी वृद्धिका यथाशक्ति उपाय करता है, उसके भीतर कोई दोष प्रवेश नहीं करसक्के हैं। सम्यग्दृष्टी जीव, जितनी संसारकी परसंयोगजनित अवस्थाएं हैं उनको नाशवंत जानता रहता है इसीलिये उनमें राग द्वेष मोह नहीं करता है। वह जानता है कि शरीर, धन, यौवन, बल, पुस्तकोंके आश्रय विद्या, कुटुम्ब, सेवकोंका समागम तथा यह जीवन सर्व जलके बुदबुदवत् चंचल हैं। देखते २ नष्ट होजाते हैं इसकारण इन क्षणिक पदार्थोसे सदा ही उदासीन रहता है। सम्यग्दृष्टी चक्रवर्ती भी हो तौभी बाहरसे छः खण्डका राज्य करता दिखलाई पडता है, अंतरंगमें मात्र अपने आत्मीक राज्यको ही सम्हालता है। मेरा परमाणु मात्र भी
॥३८॥
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प्रभावकार
र
नहीं है ऐसी दृढ भावना सम्यक्तीके अंतरंगमें होती है। जैसे कोई न्यायवान गृहस्थ दुसरेकी वस्तुओंको कभी भी अपनी नहीं मानता है, उसी तरह सम्यक्ती शरीरादि परवस्तुओंको कभी भी अपनी नहीं मानता है। कभी स्वप्नमें भी उसका विचार नहीं होता है। जिस पातका संकल्प विकल्प स्वप्न रहित अवस्थामें हुआ करता है प्रायः स्वममें वे ही सब बातें आया करती हैं। अथवा यहां यह बताया है कि उसको स्वप्न नहीं दीख पडते हैं। इसका भाव यह भी झलकता है कि वह ऐसा निश्चित होकर शयन करता है कि उसे गाढ निद्रा आजाती है। गाढ निद्रामें स्वप्न नहीं दिखता है। जब निद्रा ढीली होती है तब ही स्वप्न आते हैं। सम्यक्ती शुद्धात्माकी भावना करता हुआ ही शयन करता है व जब नींद खुल जाती है तब उसी शुद्धात्माकी भावनामें लगता है। ज्ञान वैराग्य व शुद्ध स्वरूपकी भावनाके प्रतापसे उसका शयनादि बडा ही शांत व क्षोभ रहित होता है इससे यदि अभ्यासके बलसे सम्यक्तीको स्वप्न न आवे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। ___ श्लोक-सम्यग्दर्शनं शुद्धं, मिथ्या ज्ञानं विलीयते ।
शुद्ध समयं उत्पादंते, रजनी उदय भास्करं ॥ ३९३ ॥ अन्वयार्थ-(शुद्धं सम्यग्दर्शनं ) जहां मल रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन है (मिथ्याज्ञानं विलीयते ) वहां मिथ्याज्ञानका विलय होजाता है (शुद्ध समय उत्पादंते) शुद्ध आत्मीक भाव पैदा होजाता है अथवा शुद्ध चारित्र झलक जाता है ( रजनी उदय भास्करं ) जैसे सूर्यके उदय होनेसे रात्रिका अंधकार विला जाता है और प्रभातका सुहावना प्रकाश फैल जाता है।
विशेषार्थ-शुद्ध सम्यग्दर्शनके प्रकाशके सामने मिथ्याज्ञान उसी तरह नहीं ठहर सक्ता है जैसे सूर्यके उदय होनेसे रात्रि नहीं ठहर सक्ती है। सम्यक्तीके भीतर कुमति, कुश्रुति, कुअवधि कभी नहीं होते हैं। नारकीके भीतर सम्यग्दर्शनका प्रकाश होते हुए सर्व तीन ज्ञान सुन्दर मोक्ष प्राप्तिके अभिप्रायको लिये हुए होनेसे सुज्ञान रूप ही रहते हैं। सम्बग्दर्शनके होते हुए स्वरूपाचरण चारिश्रका उदय होजाता है या शुद्धात्माका अनुभव प्रकट होजाता है। आत्मज्ञानरूपी सूर्यके काशमें फिर संसारका मोहतम कैसे रह सक्ता है। वह ज्ञानी शुद्ध नपकी दृष्टिका विशेष अभ्यास रखता है। उसको हरएक संसारी आत्माके भीतर भी पुद्गल से भिन्न आत्माका दर्शन होता है। जैसे ज्ञानी
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कारणतरण
श्रावकाचार
॥३८॥
किसान धान्यके ढेरमें चावलोंको अलग व भूसीको अलग देखता है व तेली तिलोंके ढेर में तेलको भूसीसे भिन्न देखता है व जौहरी खानसे निकले हुए माणिक-पन्नेके पाषाणमें रनको अलग मैलको अलग देखता है चतुर धोबी वस्त्रमें वस्त्रको अलग व मैलको अलग देखता है वैसे ही सम्यग्दर्शनधारी महात्मा आत्मासे अनास्माको भिन्न देखता है, सदा ही शुखात्माकी भावनामें दृढ रहता है। सूर्यसम तत्वज्ञानमें चमकता रहता है।
श्लोक-दर्शनं तत्व सर्धानं, तत्व नित्य प्रकाशकं ।
ज्ञानं तत्व न वेदंते, दर्शनं तत्व सार्धयं ॥ ३९४ ॥ मन्वयार्थ (तत्व सर्धानं दर्शनं ) तत्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है (नित्य तच्च प्रकाशक ) अवि* नाशी शुद्ध तत्वका प्रकाश करनेवाला है। (ज्ञानं तत्त्व न वेदंते ) सम्यग्दर्शन रहित ज्ञान तत्वको अनुभव नहीं कर सक्ता है (दर्शनं तत्व सायं) परन्तु सम्यग्दर्शन आत्मतत्वके अनुभवके साथ ही होता है।
विशेषार्थ-यद्यपि व्यवहारनयसे जीव आदि सात तत्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है परन्तु निश्चयनयसे शुद्ध आत्माका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। जहांतक शुद्ध आत्म तत्वका प्रकाश नहीं होता है वहांतक ज्ञान मात्र तो है परन्तु सम्यक्त नहीं है। सम्यक्तके विना ज्ञानका कुछ भी मूल्य नहीं है। विना सम्यक्तके ज्ञान जान तो सका है परन्तु स्वानुभव नहीं कर सकता है। जबतक स्वात्मामें चिरतानहो तबतक स्वाद नहीं आसका है। अनंतानुबंधी कषायके उपशम होनेसे स्वरूपाचरण चारित्रका प्रकाश होता है, तब ही मिथ्यात्वके उपशमसे शुद्ध स्वरूपकी सच्ची कचि होती है। यदि सम्यक्तके वाधक कर्मप्रकृतियोंका उदय हो तो कदापि शुद्ध आत्माका अनुभव नहीं होसका है। इसीलिये सम्यग्दर्शनके लिये प्रयत्न कर्तव्य है। नित्य तत्वका विचार परम उपयोगी
है। आत्मा रागादिसे, आठ कर्मादिसे, शरीरादि नौ कोसे भिन्न है ऐसा वारवार विचार करना ४ चाहिये । सम्यक्तकी ज्योतिमें ही आत्मीक तत्वका अनुभव होता है।
श्लोक-सम्यग्दर्शनं शुद्धं, ॐ वं कारं च विंदते ।
धर्मध्यानं उत्पाद्यते, ह्रियं कारण दिष्टते ॥ ३९५ ॥
॥३८.
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भारणवरण
अन्वयार्थ (शुद्धं सम्यग्दर्शनं ) जब शुद्ध आत्माका अनुभव करानेवाला निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट
श्रावकाच होजाता है तब ही (ॐवं कारं च विदते ) ॐ का अनुभव होता है (धर्मध्यानं उत्पाद्यते ) धर्मध्यान पैदा होता है (हियं कारेण दिष्टते) व ह्रीं मंत्रकी सहायतासे आत्माका दर्शन होता है।
विशेषार्थ-ॐ मंत्रमें अरहंतादि पांच परमेष्ठी गर्भित हैं उनका स्थूलपने विचार तो मिथ्यादृष्टीके भी होसक्ता है परन्तु उनका व्यवहारनयसे फिर निश्चयनयसे विचार व उनके भीतरसे शुद्ध आत्माको पहचानकर उसके अनुभवकी शक्ति सम्यग्दर्शनके द्वारा ही होसक्ती है। यद्यपि सम्यक्तके विना भी मुनिगण ध्यान लगाते, तपस्या करते, उपवास करते, ईर्यासमिति पालते, जीवोंकी रक्षाका , ध्यान रखते, कठोर वचन नहीं कहते, शास्त्रानुसार सर्व आचरण पालते हैं तथा गृहस्थगण देवपूजा, स्वाध्याय, सामायिक, संयम, गुरुभक्ति व दानादि धर्मके कार्य करते हैं तथापि इन सर्व मुनि व श्रावकली क्रियाको धर्मध्यान सम्यग्दर्शनके विना नहीं कहा जासका । क्योंकि सम्यक्तके उदय विना साधक मुनि च गृहस्थके भीतर किसी कषायका अभिप्राय रहता है । या तो मानवश या मायावश या इंद्रिय सुखके लोभवश या संसार भ्रमणके भयसे धर्मका साधन है-शुखात्माके अनुभवके लिये नहीं है। इसलिये उस सष साधनको धर्मध्यान नहीं कह सक्ते। जहां शुद्धात्मानुभवके अभिवायसे धर्म साधन होता है वहीं धर्मध्यान कहा जाता है। हमें चौवीस तीर्थकर गर्मित हैं। इस मंत्र द्वारा भी तीर्थकरोंके गुणोंका विचार होता है। परन्तु शुद्धात्माका अनुभव तब ही होगा जब सम्यक्त होगा। इस हेतु संसार तारक परमोपकारक सम्यग्दर्शनको बडी चेष्ठाके साथ शुद्ध रखना चाहिये, उसमें कोई दोष नहीं लगाना चाहिये।
श्लोक-ॐ वं कारं ह्रींकारं च, श्रींकारं प्रतिपूर्णयं ।
ध्यानं च शुद्ध ध्यानं च, अनुव्रतं साधं ध्रुवं ।। ३९६ ।। __ अन्वयार्थ-ॐ वं कारं ह्रींकारं च) ॐ मंत्र, ही मंत्र तथा (श्रींकारं प्रतिपूर्णय) श्री मंत्र इन तीन मंत्रोंकी पूर्णता सहित अर्थात् ॐ ह्रीं श्रीं द्वारा (ध्यानं च ) ध्यान करना चाहिये तथा फिर (शुद्ध ध्यानं च ) शुद्ध आत्माके ध्यान में लवलीन होना चाहिये (अनुव्रतं सार्दै ध्रुवं ) ऐसा ध्यान पांच अणुव्रतोंके साथ निश्चलतासे करना योग्य है।
॥२८॥
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तारणतरण
॥३८६ ॥
विशेषार्थ – यहां यह बताया है कि दर्शन प्रतिमाघारी श्रावकका कर्तव्य है कि २५ दोष सहित सम्यक्तको पालते हुए व स्थूलपने पांच अणुव्रतोंका साधन करते हुए ॐ ह्रीं श्रीं मंत्रके द्वारा पांच परमेष्ठीका व चौवीस तीर्थकरोंका स्वरूप विचार करे । दर्शन प्रतिमाधारीको उनके स्वरूपको फिर अपने आत्माके स्वरूपसे मिलान करना चाहिये । शुद्ध निश्चयनय से अपनेको सिद्धरूप शुद्ध अनुभव करना चाहिये । केवल मात्र व्यवहार चारित्र में ही लीन होकर व मात्र ज्ञानसे संतोष मानकर न बैठ रहना चाहिये किंतु प्रातःकाल और संध्याकाल अवश्य एकांत में बैठकर सामायिकका अभ्यास करना चाहिये | शांत चित्त हो अनेक मंत्रोंके द्वारा पदस्थ ध्यानका व पृथ्वी आदि पांच धारणाओंके द्वारा पिंडस्थ ध्यानका अभ्यास करना चाहिये । शुद्धात्माका अनुभव हो यथार्थ में धर्मका सच्चा अनुभव है । इसके अभ्यासके लिये अन्य सब चारित्र किया जाता है । ऐसा निश्चय रखके आत्मध्यानका अभ्यास करना चाहिये ।
श्लोक - आज्ञा वेदकश्चैवं, पदवी दुतिय आचार्यं ।
ज्ञानं मति श्रुतं चिंते, धर्मध्यानरतो सदा ॥ ३९७ ॥
मन्वयार्थ - ( आज्ञा वेदकश्चैवं ) आज्ञा सम्यक्त तथा वेदक सम्यक्तको इस तरह पालते हुए (पदवी दुतिय भाचार्य) दूसरे पदका आचरण करना योग्य है ( ज्ञानं मति श्रुतं चिंते ) मतिज्ञान श्रुतज्ञानको चिंत वन करना योग्य है ( धर्मध्यानरतो सदा ) ऐसा दर्शन प्रतिमाधारी सदा धर्मध्यान में रत रहता है।
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विशेषार्थ — पहली पदवी अविरत सम्यक्त की है उसके आगे दूसरी पदवी दर्शन प्रतिमाकी है। यद्यपि दर्शन प्रतिमावालेके सामान्यसे व्यवहार सम्पक्त तथा निश्चय सम्पक्त तीनों ही प्रकार संभव है-उपशम, वेदक व क्षायिक | परन्तु उस पंचमकालकी अपेक्षा विचारते हुए ग्रन्थकर्ताका ऐसा आशय सूचित होता है कि क्षायिक सम्यक्त तो अब संभव नहीं है तथा उपशम सम्यक्त की स्थिति ही अन्तर्मुहूर्त है, अधिक काल ठहर नहीं सकता है तब व्यवहार सम्पक्त तथा वेदक सम्यक्त ये ही दोनों दीर्घकाल तक इस समय इस भरतक्षेत्र में ठहर सकते हैं। जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञा प्रमाण देव, शास्त्र, गुरुका श्रद्धान तथा जीवादि सात तत्वोंका श्रद्धान रखना व्यवहार सम्यक्त है । इसीको यहां आज्ञा सम्यक्त कहा है । क्षयोपशम सम्यक्तको हो वेदक सम्यक्त कहते हैं वहां अनंतानुबन्धी
श्रावकाच
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वारावरण
श्रावकाच
चार कषाय तथा मिथ्यात्व व सम्यक मिथ्यात्वका तो उदय नहीं रहता है किंतु सम्यक प्रकृतिका
उदय होता है जिसके उदयसे सम्यकमें कुछ मलीनता रहती है, सम्यक्त बना रहता है। इस सम्प१ कका काल बहुत है। दर्शन प्रतिमावालेको इस प्रकारके आज्ञा सम्पत व वेदक सम्यक्तकी दृढता रखते हुए दर्शन प्रतिमाका आचरण भलेप्रकार पालना चाहिये। मातिज्ञान व श्रुतज्ञानके द्वारा शास्त्रका विचार, मनन, चिंतवन करते रहना चाहिये तथा विवेकसे जगतमें व्यवहार करना चाहिये कभी विचित्तमें न लाना चाहिये न मिथ्यात्व पोषक शास्त्रोंकी संगति करनी चाहिये । किंतु तव विचारके सहकारी शास्त्रोंका मनन करके धर्मध्यान शक्ति बढानी चाहिये तथा धर्मध्यानमें सदा लीन रहना चाहिये।
श्लोक-अनेयव्रत कर्तव्यं, तप संजमं च धारणं ।
दर्शनं शुद्ध न जानते, वृथा सकल विभ्रमः ॥ ३९० ॥ अन्वयार्थ (अनेयत्रत कर्तव्य ) जो अनेक व्रतोंका कर्तव्य करे ( तप संजमं च धारण ) तर तथा संयमको भी धारण करे परन्तु (शुद्ध दर्शनं न जानते ) शुद्ध निश्चय सम्यग्दर्शनको न जाने न अनुमवे (वृथा ) तो उसका ब्रतादि वृथा है (सकल विभ्रमः) सर्व ही विपरीत है, मोक्षमार्ग नहीं है।
विशेषार्थ-यहां यह जोर देकर कहा है कि शुद्धास्माका अनुभव करानेवाला यदि शुद्ध सम्पक न हो तो सर्वही चारित्र मिथ्या व संसार वर्डक है, मोक्षका मार्ग नहीं है। कोई श्रावक अपनेको व्यवहारमें बवान समझकर कुदेव, कुगुरू, कुधर्मका सेवन न कर जैन तत्वों को मनन करे, जिनेन्द्रकी भक्ति करे, व्यवहारमें पांच अणुव्रतोंको पाले, उपवास, अनोदर, रसत्याग आदि नाना * प्रकार तप करे तथा इंद्रियसंयम व छ। कायकी दयारूप प्राणिसंयम पाले, व्यवहार चारित्रमें कोई कभी न करे तौभी यदि उसके निश्चय सम्यक नहीं है, जिसके शुद्धारमाके अनुभवका लक्ष्य नहीं है तो उसका यह सब आचरण मोक्षमार्ग नहीं होसका है। वह मोक्षमार्गकी अपेक्षा मिथ्या है या विपरीत है-कुचारित्र है। जहां सर्व ही व्यवहार चारित्रके पालनका हेतु अंतरंग आत्मानुभवरूप ४ चारित्रकी प्राप्ति है, वहां यह सर्व मोक्षमार्गमें निमित्त सहकारी होनेसे व्यवहारनयसे मोक्ष मार्ग
कहे जासक्त हैं। सम्यक्तीको यह दृढ निश्चय है कि शुबास्माका अनुभव ही वास्तवमें सम्धक है,
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ज्ञान है व चारित्र है। व्यवहार धर्म तो वास्तव में निमित्त कारण है। जहा शुखात्माके लाभकीरश्रावकाच दृष्टिस ब्रतादि पालन हो वही सफल है वमोक्षमार्गमें सहकारी है। जहा यह दृष्टि न हो वहा मात्र पुण्य बंध होता है, उस पुण्यसे सुगति व सुसामग्रीकी प्राप्ति होसकी है, परन्तु संसारका भ्रमण दूर नहीं होसक्ता है।
श्लोक-अनेकपाठ पठनं च, अनेक क्रिया संजुतं ।
दर्शनं शुद्ध न जानते, वृथा दान अनेकधा ॥ ३९९ ॥ अन्वयार्थ (अनेकपाठ पठनं च) अनेक पाठोंका पढना (अनेक क्रिया संजुतं) अनेक प्रकार व्यवहार चारित्रका पालना (अनेकथा दान ) अनेक प्रकारका दान देना (वृथा) निरर्थक है, यदि (शुद्ध दर्शनं न जानते) शुख सम्यग्दर्शनको अनुभव नहीं किया जाय ।
विशेषार्थ-यहांपर भी यही दृढ किया है कि सम्यग्दृष्टी ज्ञानीकी दृष्टि सदा ही शुद्धात्मापर रहनी चाहिये । केवल परिणामोंकी शुद्धिके लिये, कषायोंको घटानेके लिये वह शास्त्रोको पढता है, पूजा व्रत उपवासादि क्रिया साधता है तथा चार प्रकारका दान देता है, तब ये सब बाहरी साधन उसके लिये शुद्धात्मापर लक्ष्य रखनेके लिये निमित्त होजाते हैं। ज्ञानी सम्यक्ती किसी विषयवासनाके अभिप्रायसे या किसी मान बडाई प्रसिद्धिके लिये या किसी मायाचारसे कोई धर्मकी क्रिया नहीं करता है। यदि शुद्धात्माकी तरफ लक्ष्य न रखके मात्र गृहस्थका बाहरी चारित्र पाला जावे, दानादि दिया जावे, अनेक शास्त्रोंका पठन पाठन किया जावे तो वह पुण्यबंध कारक तो होगा, परन्तु मोक्षमार्ग न होगा। मोक्षमार्ग तो निश्चयनयसें एक अभेद शुखात्माका अनुभव स्वरूप है। यही परमानन्दका कारण है। जबतक सम्यक्तीका उपयोग आत्माके ध्यानमें लगता है तबतक वह आत्माका ध्यान ही करता रहता है। जब उपयोगमें निर्बलता होजाती है तब विषय कषायोंसे बचने के लिये तथा पुन: फिर शुद्धात्मध्यानमें पहुंचनेके लिये मंद-कषायके कारणरूप कार्यों में प्रवृत्ति करता है। अर्थात् पूजा, दान, व्रतादि करता है । तथापि उनको बंधका कारण जानता है, निश्चय मोक्षमार्ग नहीं मानता है।
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वारणतरण
॥ ३८९ ॥
श्लोक - दर्शनं यस्य हृदि दृष्टं, सुयं ज्ञान उत्पाद्यते । कमी दृष्टि यथा अंडं, स्वयं वर्धति यं बुधैः ॥ ४०० ॥
अन्वयार्थ — ( यस्य हृदि दर्शनं दृष्टं ) जिसके मन में सम्यग्दर्शन विद्यमान है (सुयं ज्ञान उत्पा) वहां ही श्रुतज्ञान बढता जाता है (यथा कमठी दृष्टि अंडं स्वयं वर्षति यं बुधैः ) जैसे कछवीकी दृष्टिने ही अंडा स्वयं बढता है इसी तरह बुद्धिमानोंका शास्त्रज्ञान बढता है ।
विशेषार्थ — सम्यग्दर्शनके होते ही जितना शास्त्र ज्ञान होता है वह सम्यक्ज्ञान नाम पाता है । तथा थोडेसे ही अभ्याससे व शुद्धात्माके अनुभव के प्रतापसे उसका शास्त्र ज्ञान दिनपर दिन बढता जाता है यहीं पर दृष्टांत दिया है जैसे कछुवीका अंडा होता है वह अंडा कछुवीकी दृष्टिसे ही बढता जाता है। इसका कारण यह है कि कछुवीका निरन्तर ध्यान अंडेकी तरफ रहता है। उसके इम्र संकल्पके निमित्त से ही अंडा बढता जाता है। उसी तरह सम्यक्तीका ध्यान निरंतर तत्व के अभ्यासमें रहता है । उसकी गाढ रुचि आत्मीक चर्चापर रहती है इससे उसका शास्त्र ज्ञान दिनपर दिन उन्नति करता जाता है । वह अति रुचिपूर्वक शास्त्रोंको देखता भी है पढता भी है। उसका मन एकाग्र हो शास्त्ररूपी वनमें क्रीड़ा करता है इससे उसको शास्त्र बोध बहुत जल्दी होता है। यहां यह भी अभिप्राय है कि सम्यक्तीका श्रुतज्ञान आत्मध्यानके प्रतापसे इसलिये बढ जाता है कि उसके श्रुनज्ञान ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम होजाता है। सम्यक्ती साधु विना अभ्यासके ही बादशांगका पाठी होजाता है । यह सब सम्यक्ककी महिमा है । जब सम्यक्तके प्रभाव से केवलज्ञान होजाता है तब श्रुतज्ञानके लाभमें कोई विशेष कठिनाई नहीं है । शास्त्रका सेवन जैसे सम्यक्क होने में सहाई है वैसे सम्यक्त होने के पीछे सम्पक्तकी दृढता व ज्ञानकी वृद्धिके लिये भी सहकारी है। सम्पककी भले प्रकार रक्षा कर्तव्य है ।
श्लोक - दर्शनं यस्य हृदि शुद्धं, सुयं ज्ञानं च संभवं ।
मच्छिका अंड जथा रेते, स्वयं वर्धति यं बुधैः ॥ ४०१ ॥
अन्वयार्थ – (यस्य हृदि शुद्धं दर्शनं ) जिसके मनमें शुद्ध सम्यग्दर्शन है ( सुयं ज्ञानं च संभयं ) वहां ही
श्रावकाचा
॥२-90
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॥३९॥
5. श्रुतज्ञानकी वृद्धि होती है (जथा रेते मच्छिका अण्ड) जैसे रेती में मलीका अंडा (स्वयं वर्षेति यं बुधैः) ४ श्रावना पार 3. स्वयं बढता जाता है वैसे ज्ञानियोंका ज्ञान बढता जाता है।
विशेषार्थ-यहां दूसरा दृष्टांत दिया है। जैसे रेतीमें बडी रक्षाके साथ रखा हुआ मछलीका अण्डा स्वयं बढता जाता है, क्योंकि उस मछलीको निरन्तर अण्डेका ध्यान है, उसी तरह जहां शुद्ध व दोष रहित सम्यग्दर्शन होता है, शास्त्रज्ञान बढता जाता है। यों तो हरएक आत्मा सहज शुरु पूर्ण ज्ञानमय है उसपर ज्ञानावरण कर्मका आवरण होनेसे वह बहुत कम जानता है। जितनार आवरण इटता जायगा उतना२ ज्ञानका प्रकाश होता जाता है। आवरणके होनेका मूल कारण कषाय है। कषाय भावोंसे ही ज्ञानावरणादि कर्मका बंध अंतर्मुहूर्त या उससे अधिक स्थितिरूप पडता है। तब नि:कषाय या वीतराग भाषसे अवश्य ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होता है, अर्थात् ज्ञान बढ़ता है। निश्चय शुद्ध सम्यग्दर्शनका अनुभव परिणामों में अपूर्व वीतराग भाव पैदा
कर देता है। बस यही भावोंकी शुद्धता ज्ञानावरणका क्षयोपशम करानेवाली है, श्रुतज्ञानको बढानेर पाली है । अतएव शुद्ध सम्यग्दर्शन सदा बना रहे ऐसा यत्न करना योग्य है। ____ श्लोक-दर्शनहीन तपं कृत्वा, व्रत संजम पढं किया।
चपलता हिंडि संसारे, जल सरणि तालु किटका ॥४०२॥ अन्वयार्थ (दर्शनहीन तपं कृत्वा व्रत संत्रम पदं क्रिया) जो सम्यग्दर्शनके बिना तप करते हैं, बत संयम पालते हैं, पठन पाठन करते हैं (चपलता) तथा चपलता या कषायभावका विकार अंतरंगमें रखते हैं ये (संसारे हिंडि) संसारमें भ्रमण करते हैं जैसे ( जल सरणि ताल किट्टका) ताड वृक्षका मैल नाला आदिमें बहता है।
विशेषार्थ-जैसे ताड वृक्षका मैल नदी, नाले आदि जलके मार्गमें दूरतक वहकर भ्रमण करता है वैसे ही जो कोई मुनि या श्रावकका चारित्र ठीक पालें परन्तु अंतरंगमें चपल हो माया, मिथ्या, निदान किसी शल्य सहित हो, सम्यग्दर्शनसे शून्य हो, आत्मानुभवके अभ्याससे रहित हो, आत्मानन्दकी रुचि रहित हो, अंतरंगमें इंद्रिय सुखकी वासना सहित हो तो उसका वह बाहरी चारित्र मोक्षका कारण नहीं सक्ता। वह मंद कषायसे पुण्य कर्म बांध लेगा, देवगतिमें चला
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तारणतरण
॥३९२॥
जायगा, वहां विषयोंमें लीन होजायगा । वहांसे चयकर दूसरे स्वर्गतकका एकेंद्रिय व बारहवें स्वर्ग तकका पशु व आगेका अतिशय रहित मनुष्य जन्म कर सम्पक्त रहित अन्य गतियों में जाजाकर कष्ट ही भोगेगा, जन्म जरा मरणसे रहित नहीं होसक्ता है ।
श्लोक – दर्शनं सुस्थिरं यस्य, ज्ञानं चारित्र सुस्थिरं ।
संसारे व्यक्त मोहं यं, मुक्ति सुस्थिर सदा भवेत् ॥ ४०२ ॥
अन्वयार्थ – (यस्य दर्शनं सुस्थिरं ) जिसका सम्धग्दर्शन भलेप्रकार स्थिर ( ज्ञानं चारित्र सुस्थिरं ) जिसका ज्ञान व चारित्र भलेप्रकार स्थिर है ( संसारे त्यक्त मोहं यं ) जिसने संसारसे मोह त्याग दिया है (मुक्ति सुस्थिरे सदा भवेत् ) उसको भले प्रकार स्थिर मोक्ष अवश्य होगी ।
विशेषार्थ - मोक्षका साधन निश्चय रत्नत्रयमई आत्माका अनुभव है । जिसके शुद्धात्माकी रुचि दृढ है, शुद्धात्माका ज्ञान दृढ है, शुद्धात्मामें थिरता दृढ है वह अवश्य मोक्षमार्गका अनुयायी है, वही श्रावक है। दर्शन प्रतिमाधारी श्रावकको व्यवहार व निश्चय सम्यग्दर्शन दृढतापूर्वक शुद्धतापूर्वक पालना चाहिये । तथा शास्त्र ज्ञान द्वारा आत्मज्ञानकी शक्ति बढानी चाहिये तथा अपने योग्य चारित्र के द्वारा मन, वचनकायकी थिरताको पाकर आत्मध्यानको योग्यता बढानी चाहिये । इसतरह जो भेदविज्ञानी उत्तम प्रकारसे रत्नत्रयकी आराधना करता है उसके बंध थोडा होता है व निर्जर। अधिक होती है । सम्यग्दृष्टी उदासीन भावोंसे कर्मके उदयको भोग लेता है, सुखमें उन्मत्त नहीं होता है, दुःख में घबडाता नहीं है । इससे कर्म फल देकर झड तो जाते हैं परंतु बंध बहुत ही अल्प होता है। इसके सिवाय आत्मानुभवके प्रतापसे बहुत अधिक अविपाक निर्जरा होती है । वश वह घोरे २ मुक्ति के मार्ग में चलता रहता है ।
श्लोक - एतत्तु दर्शनं दिष्टं ज्ञानाचरण शुद्धए ।
उत्कृष्टं व्रतं शुद्धं, मोक्षगामी न संशयः ॥ ४०४ ॥
अन्वयार्थ—(एतत्तु दर्शनं दिष्टं ) इसतरह सम्यग्दर्शनका महात्म्य विचारना चाहिये (ज्ञानाचरण शुद्धए) जिससे ज्ञान और चारित्र की शुद्धता होजावे (उत्कृष्टं त्रतं शुद्धं ) जिससे व्रत उत्कृष्ट व शुद्ध होता
श्रावकाचार
॥१॥
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वारणतरण
॥३९॥
चला जावे (मोक्षगामी न संशयः) ऐसा प्रावक मोक्षगामी है, इसमें संशय नहीं करना चाहिये। श्रावकाचार
विशेषार्थ-जिसने दर्शन प्रतिमाके नियम पालने प्रारंभ किये हों उसको मुरुपतासे सम्यग्दर्शनकी भले प्रकार दृढता रखनी योग्य है। २५ दोष रहित सम्यक्त पालना योग्य है। अंतरंग शुखात्माका चिंतवन व ध्यान करना योग्य है। इसीके प्रतापसे उसका शास्त्रज्ञान व चारित्र बढना चला जायगा व शुद्ध होता जायगा । जितनी २ कषाय मंद होगी उतना उतना ही ज्ञान व चारित्र उज्वल होगा। दर्शन प्रतिमावालेके अनन्तानुबन्धी व अप्रत्याख्यान कषायोंका उदय तो नहीं है। प्रत्याख्यान संज्वलन कषायोंका उदय है मो इसके आत्माभ्याससे मंद मंद होता जाता है। इमी प्रयोगसे इसका चारित्र बढते २ ग्यारह प्रतिमा तक पहुंच जायगा फिर यह साधुके अ रिणको, उत्कृष्ट महाव्रतोंको पालने लग जायगा। अवश्य कभी न कभी मोक्ष प्राप्त कर लेगा।सम्यक्त्त अहितके मोक्षलाभमें कोई शंका नहीं।
श्लोक-दर्शनं सार्द्ध यस्य, व्रतं तस्य यदुच्यते ।
व्रत तप नियम संयुक्तं, सार्द्ध स्वात्मदर्शनं ॥ ४०५॥ अन्वयार्थ-(यस्य दर्शनं सार्द्ध) जिसके साथ सम्यग्दर्शन है (तस्य यत् व्रतं उच्यते) उसीके व्रतोंका होना है या ब्रत प्रतिमा कही जाती है। वह दूसरी प्रतिमा धारी व्रती (व्रत तप नियम संयुक्त) अपर्न श्रेणीके योग्य बन तप व नियम सहित होता है तथा (स्वात्मदर्शनं साई) अपने आत्माके अनुभवको करनेवाला होता है।
विशेषार्थ-इस श्लोकमें बहुत संक्षेपमें व्रत प्रतिमाका स्वरूप कहा है। उसका स्वरूप रत्नकरंड श्रावकाचारमें इस भांति है
निरतिक्रमणमणुव्रतपंचकमपि शीलसप्तकं चापि । धारयते निःशल्यो योऽसौ वतिनां मतो व्रतिकः ॥ १३८ ।
भावार्थ-जो पांच अणुव्रतोंको अतीचार रहित पाले तथा सात शीलोंको भी पाले, जो शल्प ४ रहित होकर उनको पालता है वह श्रावक व्रत धारियों में व्रत प्रतिमावाला है।
पांच अणुव्रतका स्वरूप पहले कह चुके हैं। सात शील जो अणुवतके उपकारी हैं उनका स्वरूप यह है
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वारणसरण
तीन गुण व्रत-जो पांच अणुव्रतोंके मूल्यको बढा देते हैं इसलिये गुणवत कहलाते हैं।
(१) दिग्विरति-दशदिशाओं में जन्म पर्यंतके लिये लौकिक कार्यके हेतु इतनी इतनी दरसे आगे न जाऊँगान चीज मगाऊँगा न भेजूंगा, ऐसी प्रतिज्ञा इच्छाको मिटानेवाली है।
(6) देशविरति-जो प्रतिज्ञा गमनागमनकी दिग्विरतिमें जन्म भरके लिये की थी, उसमेंसे प्रयोजनभर मर्यादा रोज सवेरे २४ घण्टेके लिये रखले, शेष स्थानका राग छोड दे सो देशविरति है।
(३) अनर्थदण्ड विरति-रखे हुए क्षेत्रके भीतर भी विना प्रयोजन मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको न करें, वे मतलब पाप न करें वे पांच तरहके होते हैं
(१) पापोपदेश-दूसरोंको पाप करनेका उपदेश देना। (१) अपध्यान-दसरोका अहित मनमें भावना। (३) हिंसादान-हिंसाकारी बर्डी, ढाल, तलवार आदि किसीको मांगे देना।
(४) दु:श्रुति-धर्ममार्गसे हटानेवाली स्त्री, भोजन, आदिकी व शृंगाररसकी कमी करनी व ऐसी पुस्तकोंका पढना व सुनना आदि ।
(१) प्रमादचर्या-प्रमादसे विचारसे व्यवहार करना, वृथा पानी फेंकना, वृक्ष काटना आदि। चार शिक्षाबत हैं। ये मुनिपदकी शिक्षा देते हैं।
(१) सामायिक-शांतभाव चित्तमें लाकर संघरे व शाम ४८मिनिट या थोड़ी देर भी आरमध्यान व समताभाव करना-रागद्वेष छोडकर सम रहना ।
(२) प्रोषधोपवास-प्रोषध जो अष्टमी चौदस पवाका दिन उस रोज उपवास करना या एकमुक्त करना, धर्मध्यानमें मन लगाना।
(३) भोगोपभोग परिमाण-सत्रह नियम विचार लेना जिनका कथन पहले कर चुके हैं।
(४) अतिथि संविभाग–अपने लिये बने हुए भोजनमें से अतिथि जो मुनि उनकोयामायिका, १ ब्रह्मचारी, क्षुल्लक आदिको आहारदान देकर फिर भोजन करना।
सात शील और पांच अणुव्रत बारहवत कहलाते हैं इनको जो पाले वह बती प्रावक है। ॐ पांच अणुव्रतके पचीस अतीचार पूर्णपने बचावे, सात शीलोंके अतीचारोंके बचानेका यथाशक्ति
५.
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वारणतरण
काचार
अभ्यास करे। तथा मेरा मरण समाधिभाषसेनिके साथ हो ऐसी भावना सो सल्लेखणा है। १२ व्रत व समाधिमरण हरएकके पांच पांच अतीचर हैं।
अहिंसा अणुबतके-१ कषायवश होके मानव वा पशुको बंधन में डाल देना सोबंध है,२कषायके वश हो, लाठी चाबुकसे मारना सो वध है,-कषायके वश हो किसीके अंग व अपंग छेद बालना स छेद है, ४-पशु, मानव आदिपर मर्यादा रहित अधिक बोझा त्याग देना सो भी अतिभारारोपा है, ५-अपने आधीन मानव व पशुओंके अन्नपानको रोक देना अन्नपान निरोध है।
मत्य अणुव्रनके • अतीचार१-दूका मिश्या उपदेश देना सो मिथ्योपदेश है। २-त्रं षके एकांतकी बात कहना सो रहोभ्याख्यान है। ३-झूहालेख कागज हिंम्पादि लिखाना सो कूटलेख किया है।
४-किमाके अमानत असत्य बोलकर लेना, उसके भूलेसे कम मांगनेपर इतना ही तेरेकी है, ऐसा कहकर देना, हिसाव ठीक न बताना सोन्यासापहार है। ५-किमीकी सलाहको अंगके आकारसे जान कह देना साकार मंत्रभेद है।
-अचौर्य अणुव्रतके ५ अतीचार१-चोरीका उपाय बताना-चोर प्रयोग है। २-चोरीका लाया हुआ माल लेना-तदानादान है।
-विरुद्ध जय हानपर-राज्य प्रबन्ध ठीक न होनेपर मर्यादा उल्लंघन करके लेनदेन करना, र नीतिसे न चलना विरुद्ध राज्यातिकम है।
४-कमती तौलनाप करके देना-अधिक तौल नाप करके लेना हीनाधिक मानोन्मान है।
५-झूठा मिका चलाना व खरीमें खोटी वस्तु मिलाकर खरी कहकर विक्रय करना, प्रतिरू* पक व्यवहार है।
ब्रह्मचर्य अणुवनके ५ प्रतीचार१-अपन सम्बन्धी सन्तानोंके सिवाय अन्यकी सन्तानोंकी सगाई दंढना-पराविवाहकरण।
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वारणवरण
१९५।।
१ – विवाहिता व्यभिचारिणी स्त्री से हास्यादि व लेनदेन व्यवहार रखना - इत्वरिका परिभ्रहोता गमन है ।
३-विना विवाही वेश्यादि व्यभिचारिणी स्त्रियोंसे हास्यादिसे लेनदेन रखना सो । इश्वरिका अपरिग्रहीता गमन है ।
४ - काम सेवन के अंगोंको छोडकर अन्य अंगोंसे काम सेवन करना अनंग क्रीड़ा है ।
५ – काम सेवनकी तीव्र लालसा रखनी कामतीत्राभिनिवेश है ।
परिग्रह प्रमाण अणुव्रत के पांच अतीचार
१-क्षेत्र मकान – २ चांदी सोना, २ घन धान्य, ४ दासी दास, ५ कपड़े वर्तन, इन दो दोमें जो प्रमाण किया हो उनमें से एकके प्रमाणको घटाकर दूसरे के प्रमाणको बढा लेना ऐसे ५ अतिचार होंगे। दिग्विरतिके ५ अतीचार
१ – ऊपरकी मर्यादाको भूलसे उलंघ जाना कई व्यतिक्रम है ।
१- नीचेकी मर्यादाको भूलले उलंघ जाना अधो व्यतिक्रम है । १-आठ दिशाओं की मर्यादाको उलंघ जाना तिर्यक् व्यतिक्रम है । ४- किसी तरफ क्षेत्रकी मर्यादाको बढाकर इसी तरफ घटा देना क्षेत्रवृद्धि है।
५- मर्यादाको याद न रखना, भ्रममें चले जाना स्मृतन्तराधान है। देशविरतिके ५ अतीबार
१- मर्यादाके क्षेत्र से बाहर से मंगाना आनयन है ।
२- मर्यादासे बाहर भेजना प्रेष्य प्रयोग है ।
३- मर्यादा से बाहर बात करना व शब्द भेजना शब्दानुपात है । ४ - मर्यादा से बाहर रूप दिखाकर काम निकालना रूपानुपात है । ५- मर्यादा से बाहर पुद्गल फेंककर काम निकालना पुद्गल क्षेप 1 अनर्थदंड विरतिके ५ अतीवार
१- भांड वचन बोलना कंदर्प है।
श्रावकाचार
॥१९६॥
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बस्नवरण
श्रावसकर
५-मांड वचनोंके साथ कापकी कुचेष्टा भी करनी कौत्कुच्य है। ३-वृथा बकबक करना मौखर्यहै। .
-विना विचारे काम करना असमीक्ष्य अधिकरण है। ५-भोगोपयोग वृषा संग्रह करना भोगोपयोग अनर्थक्य।
सामायिकके अतीचार१-मनमें दुष्ट विचार करना मनः दुरपणिधान है। २-वचनोंको संसारिक कामों में लगाना वचन पणिधान है। ३-कायको आलस्यरूप रखमा काय प्रणिधान है। ४-सामायिक आदरसे न करना अनादर है। . ५-सामायिक करना व उसका पाठादि भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है।
प्रोषधोपवासके ५ अतीचार१-विना देखे विना शारे मलमन्त्र करना व रखना अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित उत्सर्ग है। २-विना देखे विना झाडे कुछ उठाना सो अ०भ० भादान है।
-विना देखे विना झाडे चढाई आदि बिछाना सो अ० अ० संस्तरोपक्रमण है। ४-उपवासमें प्रेम न रखना अनादर है। ५-उपवास करना व धर्मकी विधिको भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है।
भोगोपयोग परिमाणके पांच अतीचारये सचित्त वस्तु त्यागकी अपेक्षासे१-सचित्त या परी तरकारी फलादि जो छोडा हो भूलसे खालेना सचित्त है। 1-सचित्तपर रखी हुई व सचित्तसे ढकी हुई चीजें खाना सचित्त सम्बन्ध है। ३-सचित्तको अचित्त में मिलाकर खाना सचित्त सम्मिश्र। ४-कामाहीपक गरिष्ट पदार्थ खाना अभिषव है। ५-खराब पका दुभा व जो न पचे उसे खाना पकाहार है।
॥१९
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अतिथि संविभागके ५ अतीचारसचित्त त्यागी श्रावक व मुनिको आहार देते हुए१-सचित्तपर रक्खा हुआ देना सचित्त निक्षेप है। २-सचित्तसे ढका देना सचित्त अभिधान है। ३-दूसरेको दान देनेको कहकर आपन देना परव्यपदेश है। ४-वर्षा भावसे दान देना मात्सर्य है। ५-काल उल्लंघकरके देना कालातिकम है।
समाधिमरणके ५ अतीचार१-अधिक जीनेकी लालसा रखनी जीविताशंसा है। २-जल्दी मरने की इच्छा करनी मरणाशंसा है। 1-मित्रोंसे प्रेम बताना मित्रानुराग है। ४-पिछले सुखोंको याद करना सुखानुबंध है। ५-आगे भोग मिले ऐसा चाहना निदान है।
यह व्रती श्रावक धर्म साधनमें बडा सावधान होता है संतोषी होता है, शुख भोजन मर्यादाका मौन सहित जीमता है जिससे शांत भाव रहे। लालसा न हो व भोजन पर ध्यान रखे तथा अंतरायोंको टालकर भोजन करता है।
ज्ञानानंद निजरस निमिर श्रावकाचारके अनुसार अंतराय इस भांति हैं
१-मदिरा २-मांस ३-गीला हाड ४-काचा चमडा ५-चार अंगुल लोहकी धारा १-पडा पंचेडी मरा हुआ ७-भिष्टा मूत्र ८-चांडालादि । इसको आंखोंसे देख लेवे तो भोजन करते हुए
१-सूखा चमड़ा, २-नख, ३-केश, ४-ऊन, ५-पंख, ६-असंयमी स्त्री या पुरुष, ७-बड़ा पंचेंद्री ॐ तिर्यंच, 4-रितुवंती स्त्री, इनका स्पर्श हो तो अंतराय, ९-छोडी हुई चीजका भोजन, १०-मलमू.४
प्रकी शंका, ११-सरदाका स्पर्शन, .१२-थालीमें बस जंतु मरा निकले, १३-थालीमें बाल निकले,
mew
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वारणवरण १५-अपनेसे बेन्द्रियादिका घात होजावे तो अंतराय पाले। मरणादिक व भयानक दुःखई मदनके
श्रावकाचार शन्द सुने, अनि लगी सुने, नगरादिमें मारनेका लूटनेका, धर्मात्माके उपसर्गका, मृतक मनुष्यका, कान नाक छेदनेका, चोरादिसे मारे जानेका, लूट जानेका, चांडालके बोलनका, जिनविम्ब जिनमदिरकी अधिनयका, धर्मात्माके अविनयका शब्द सुने तो अंतराय । मनमें यह शंका हो कि यह भोजन मांस तुल्य है व ग्लानिरूप है तो अंतराय, इस तरह अंतराय पाले। यह व्रत प्रतिमाधारी बहा संतोषी होता है। अपने शुखात्माका मनन सामायिक द्वारा भले प्रकार करता है।
श्लोक-सामायिक कृतं येन, समसम्पूर्ण साईयं ।
ऊधं च अधो मध्यं च, मनरोधो स्वास्मचिंतनं ॥ ४०६ ॥ अन्वयार्थ-(येन सामायिकं कृतं) जो सामायिक तीन काल करे सो सामायिक प्रतिमाधारी है (सम सम्पूर्ण सायं ) जो समताभावसे पूर्ण सामायिक करे ( ऊधं च अधो मध्यं च मनरोषो) जो ऊर्ध्वलोक, अधोलोक व मध्य लोक सबसे मनको रोक लेवे (स्वात्म चिंतनं ) तथा अपने आत्माका चितवन करे ।
विशेषार्थ-यहां तीसरी सामायिक प्रतिमाका कथन है। सामायिक दुसरी प्रतिमामें भी थी, परंतु वहां अभ्यास रूप थी, कभी कोई कारणवश नहीं भी करे। यहां नियमसे प्रात:मध्याह व सायंकाल सामायिक करनी चाहिये सोभी ४८ मिन्ट या दो घडी प्रति समयसे कम नहीं। यदि कोई विशेष लाचारी हो तो ४८ मिनटसे कम अंतर्मुहर्त भी कर सकता है। इस प्रतिमामें अतीचार रहित धिर. तासे सामायिक करनी चाहिये । तीनों लोकमें किसी पदार्थसे राग नहीं करना चाहिये। निश्चयनयसे सर्व द्रव्योंको अपने स्वभावमें देखना चाहिये । व्यवहार दृष्टिको बंद कर देना चाहिये । तब अपना आत्मा भी शुद्ध ही दीखेगा व रागद्वेषका अभाव हो जायगा व परमसमता भाव प्राप्त हो जायगा। सामायिकके समय साधुके समान गृहस्थ श्रावकको भी निर्मोही रहना चाहिये व ध्यानका अभ्यास करना चाहिये । रत्नकरंडमें कहा है
चतुरावर्तत्रितयश्चतुःप्रणामस्थितो यथाप्रातः सामयिको हिनिषिद्यस्त्रियोगशुद्धविसंध्यममिवन्दी ॥ १३९॥
भावार्थ-जो चार आवर्तके हैं त्रितय जिसके अर्थात् एक दिशामें तीन आवर्नमा करने' वाला इस तरह १९ है। अर्थात जिसके चार है प्रणाम जिसके, कायोत्सर्ग सहित बाह्याभ्यंतर परि- ॥
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वारणसरण
ग्रहकी चिंतासे रहित, दो हैं आसन जिमके, (खड्गासन व पद्मासन) तीनों योग हैं, शुद्ध जिपके
श्रावकाचार तीनों कालोंकी संध्याओं में अभिवंदन करनेवाला ऐमा व्रती सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक है।" सामायिककी विधि यह है कि पूर्व या उत्तरको मुख करके कायोत्सर्ग खडा हो ९ दफे णमोकार मंत्र पढ दंडवत् करे फिर सर्व त्यागकी प्रतिज्ञा जहांतक सामायिक करता हो लेले । फिर उसी दिशामें खडा हो तीन या ९ दफे नमोकार मंत्र पढकर हाथ जोड तीन आवर्त एक शिरोनति करे । जोडे हुए हाथ बाएंसे दाहने लावे यह आवर्त है, उसपर मस्तक झुका यह शिरोनति है। ऐमाही अन्य तीन दिशामें तीन आवर्त व एक शिरोनति करे, फिर भासनसे बैठकर सामायिकपाठ पढ़ें। जाप दे, ध्यान करे, अंतमें कायोत्सर्ग खडा हो, नौ दफे मंत्र पढकर दंडवत् करे। वास्तव में सामायिक ही मोक्षमार्ग है। श्रावकको बडे प्रेमसे तीनों काल आत्मध्यान करना चाहिये व पहली दो प्रतिमाओंके सब नियम पालने चाहिये। ____ श्लोक-आलापं भोजनं गच्छं, श्रुतं शोकं च विभ्रमं ।
मनो वचन कायं शुद्धं, सामाई स्वात्मचिंतनं ॥ ४०७॥ अन्वयार्थ (सामाई ) सामायिक करनेवाला (माला५) वार्तालाप, (भोजन) भोजन, (गच्छं) गमन (श्रतं) सुनना, (शोकं) शोक (च विभ्रमं ) तथा संदेह (मनो वचन कार्य) व मन वचन कायका हलनचलन इनसे (शुद्ध) रहित हो (स्वात्म चिंतनं ) मात्र अपने शुद्ध आत्माका चितवन करे ।
विशेषा-सामायिकका अर्थ ही आत्मा सम्बन्धी भाव है। समय आत्माको कहते हैं। इसलिये सामायिकके समय शांत चित्त होमात्र एक अपने आत्माका ही चितवन करे, और कोई चिंता न करे, न किसीसे बातचीतका विचार करे और न पात करे न भोजनकी चिंता करे, न कहीं जाने आनेका विचार करे,न किसीकी बात सुनने में उपयुक्त हो, न शोक करे न कोई संदेहकी बात मनमें लावे । मन, वचन, कायको निश्चल रखकर केवल निजात्मामें उपयोग जोडे । उस समय अपनेको शरीरादिसे रहित परम शुद्ध निर्विकार अनुभव करे। जैसे समुद्र या नदी में स्नान करते हुए उसने गोता लगाते हैं वैसे ही अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपको ध्यान में लेकर उसे नदीके समान समझकर
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॥४.०॥
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उसीमें अपने आपको मन करे । सच्ची सुख शांति पानेका उपाय यह सामायिक है जिसको सर्वश्रावकाचार कामों की चिंता छोडकर करे ।
श्लोक-पोषह प्रोषधश्चैव, उपवासं येन क्रीयते ।
सम्यक्तं यस्य शुद्धंच, उपवासं तस्य उच्यते ॥ ४०८॥ अन्वयार्थ (पोषह प्रोषपश्चैव ) पोषह रूप प्रोषध या पर्वके दिन (येन उपवास क्रीयते) जो उपवास किया जावे तथा ( यस्य शुद्धं सम्यकं च) जिसका सम्यग्दर्शन भी शुरहो (तस्य उपवास उच्यते) उसको प्रोषधोपवास प्रतिमा कहते हैं।
विशेषार्थ-दूमरी प्रतिमा अष्टमी व चौदसको उपवासका नियम नहीं था, कभी कोई विशेष कारणसे नहीं भी करता था, या एकासन करता था व अतीचार भी नहीं बचाता था, व आरंभ त्याग नहीं भी करता था। यहां चौथी प्रोषधोपचास प्रतिमामें वह मासमें दो दफे हरएक अष्टमी व चौदसको उत्कृष्ट ६ प्रहरका उपवास करेगा व धर्मध्यानमें समय विताएगा, अतीचार रहित पालेगा । जैसा रत्नकरण्डमें कहा है
चतुराहारविसर्जनमुपवासः प्रोषधः सद्भुक्तिः । स प्रोषधोपवासों यदुपोष्यारम्भमाचरति ॥ १.९॥ पर्वदिनेषु चतुर्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुण प्रोषधनियमविधायी प्रणधिपरः प्रोषधानशनः ॥ १०॥
भावार्थ-खाय स्वाय, लेख (चाटने योग्य) पेय चार तरहके आहारका त्याग उपवास है, एक दफे भोजन प्रोषध है, आरम्भ त्यागे सो प्रोषधोपवाम है। एक मासमें चार पर्वी में अपनी शक्तिको न छिपाकर प्रोषधका नियम लेकर धर्मध्यान करे सो प्रोषधोपचास प्रतिमा है।
पहले दिन एक भुक्त तीसरे दिन भुक्त करे, १६ पहर धर्मध्यान करे, गमनागमन छोडे सो उत्कृष्ट है, यदि पहले दिन संध्याको आहारादि त्याग कर तीसरे दिन सबेरे पारणा करे, १२ पहर उपवास करे आरम्भ छोडे सो मध्यम है। यदि आरम्भ पहले दिन रातको न छोड सके व अष्टमी चौदसके सबेरे छोडे तो८ पहरका प्रोषधोपवास है। वसुनंदि प्रावकीचारके अनुसार यह भी विधि है कि मध्यममें १०पहर उत्कृष्टके समान धर्मध्यान करे परन्तु जल रखले, आवश्यक्तापर लेवे। जघन्य यह है कि जलके सिवाय बीच में एक मुक्त भी करे, १६ पहर धर्मध्यान करे। इनमेंसे जैसी अपनी ७ .०॥
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वारणतरण
*४.१॥
शक्ति हो सके अनुसार उपवास करे। यह उपवास मन, वचन, काय तथा अतिचारोंको शुखश्रावकाचार करनेवाला है व आत्मध्यानकी शक्ति बढानेवाला है। सम्पग्दर्शनकी शुद्धता सहित तीन पहली प्रतिमाओंके सर्व नियम पालनेवाला ही चौथी प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है।
श्लोक-संसार विरचितं येन, शुद्ध तत्त्वं च सार्धयं ।
शुद्ध दृष्टी स्थिरीभृतं, उपवासं तस्य उच्यते ॥ ४०९॥ - अन्वयार्थ-(येन संसार विरचितं ) जिसने संसारसे राग छोड दिया है (शुद्ध तत्त्वं च सायं) शुद्ध आत्मीक तत्वरूप होगया है.(शुद्ध दृष्टी स्थिरीभूतं) शुद्ध दृष्टी स्थिर होगई है (उपवासं तस्य उच्यते) उसीके उपवास कहा जाता है।
विशेषार्थ-वास्तवमें जहां मन व इंद्रियोंके सर्व विषयोंसे उदासीन होकर आत्माके अनुभव में व विचारमें तल्लीन रहा जावे वह उपवास है। ज्ञानी धीर वीर श्रावक प्रोषधके दिन जितनी देरको उपवास करते हैं उतनी देरके लिये १६ या १२ या ८पहरके लिये बहुत ही एकांत स्थान वन, उपवन, जिनमंदिर, पर्वत आदिपर माधुके समान तिष्ठते हैं, शौचको जल व भूमि झाडनेको मुलायम कपडा व कमसे कम शरीरपर वस्त्र व एक चटाई या आसन रखकर आत्मध्यानका अभ्यास करते हैं, ध्यान में मन न लगे तो शास्त्रका स्वाध्याय करते हैं। पांचों दोषोंको बचाते हुए साधुके समान वैराग्यवान व उपसर्ग परीषह सहते हुए अपना उपवासका काल विताते हैं। यदि स्वाध्यायमें मन
कम लगे तो जिनमंदिर में प्राशुक द्रव्योंसे पूजा भक्ति करते हैं, भजन भाव गाते हैं, धर्मचर्चा करते ॐ हैं-जिसतरह उपयोग धर्मध्यानमें लीन रहे वैसा साधन बनाते हैं। संसार शरीर भोगोंसे वैराग्य बढानेको बारह भावनाका चिंतवन करते हैं।
श्लोक-उपवासं इच्छनं कृत्वा, जिन उक्तं इच्छनं यथा ।
भक्ति पूर्व च इच्छंते, तस्य हृदये स मान्यते ॥ ४१०॥ - अन्वयार्थ ( उपवासं इच्छनं कृत्वा) उपवास करनेकी बडी रुचि रखना योग्य है (यथा मिन उक्तं इच्छन) जैसा जिनेन्द्र ने कहा है वैसा तत्वका स्वरूप विचार करे (भक्ति पूर्व च इच्छेते ) भक्तिपूर्वक जहां कचि हो (तस्य हृदये स मान्यते) उसीके मनमें उपवासकी मान्यता है।
१४.१॥
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तारणतरण
॥४०॥
विशेषार्थ-उपवास बडे आदर व प्रेमसे करे, जिनेन्द्र के कहे अनुसार सब करे, तत्वों में प्रेम करे, श्रावकाचार आत्माकी विशेष रुचि रक्खे, भक्ति सहित उपवास करे, अपने जन्मको सफल माने। आज मैंने आरंभ त्याग करके धर्मध्यानमें अपना समय लगाकर सफल किया है ऐसा समझे । सर्व चिंताओंको छोड करके उपवास करे। यदि अधिक परिग्रहवान राजा मंत्री व्यापारी होतो अपना सर्व कामकाज उपवासके दिन दूसरेके आधीन करदे व कहदे कि मैंने चिंता छोड दी है तुम सर्व प्रकारसे गृही कर्तव्य पालना, प्रजाकी रक्षा करना, मेरेसे कुछ पूछनेकी जरूरत नहीं है। मैंने तो सर्वसे उपवासके समय तक मोह त्याग दिया है। मेरे तो इस समय अरहंत सिद्ध आदि पांच परमेष्ठी ही शरण हैं, मैं तो इनहीका ध्यान करूंगा, इनहीके गुण गाऊंगा, अपने आत्माके विचारमें मगन रहूंगा, आत्मध्यानका अभ्यास करूंगा। ऐसा दृढ निश्चय करके एक नियत स्थानपर रहकर बडे ही शांत भावसे उपवास करे, शुद्धात्मामें परिणाम जमावे, आत्मानुभव करे । इस उपवासके कारण जो आत्मध्यानकी थिरता हो तो बहुत अधिक काकी निर्जरा होजाती है। इसीसे उपवासको तपमें गिना गया है। बडे ही प्रेमसे करना योग्य है।
श्लोक-उपवासं व्रतं शुद्धं, शेष संसार त्यक्तयं ।
पश्चात् त्यक्त आहार, उपवासं तस्य उच्यते ॥ ४११॥ अन्वयार्थ—(उपवासं व्रतं शुद्ध) उपवासमें पंच पापके त्याग रूप व्रतकी शुद्धता करना है (शेष * संसार त्यक्तयं) सर्व संसारका त्याग करना है (पश्चात् त्यक्त थाहारं ) फिर आहारको त्यागना है (तस्य५ उपवास उच्यते ) उसीकेही उपवास कहा जाता है।
विशेषार्थ-उपवास करनेवाला पहले अपने मनमें यह दृढ संकल्प करे कि मुझे हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म व परिग्रहका आज भुक्तिके समाम त्याग करना है, इन सम्बन्धी सर्व विकल्पोंको इटाना है, उसे संसारके सर्व कामोंसे विरक्त रहना है, मुझे निश्चिंत हो मात्र एक शुद्धात्माका ही शरण लेना है, ऐसा निश्चय करके फिर जितने कालके लिये थिरता जाने उतने कालके लिये चार तरहका आहार या तीन तरहका आहार या यथाशकि विधिपूर्वक त्याग करें। आलस्य प्रमाद
॥४०॥ से जीतनेके लिये व धर्मध्यानमें आसक होनेके लिये उपवास करे। जिस श्रावकको ऐसी उच्च भावना
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वारणतरण
॥४०३०
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है उसीके प्रोषधोपवास कहा जाता है। जितना अधिक आरंभ परिग्रहका निमित्त होता है उतना
श्रावकाचार अधिक मन उनमें फंसा रहता है। तब ध्यानके करते समय भी वैसे ही विचार मनमें आजाते हैं। इसलिये मनकी निश्चलताके लिये यही उचित है कि आरंभ व परिग्रहका त्याग किया जावे। सम्यग्दृष्टी ज्ञानी तो निरंतर साधु रूपमें रहनेकी आकांक्षा रखता है परंतु कषायके शमन न होनेसे गृहका त्याग नहीं कर सकता है तब वह प्रोषधोपवास धार करके नियमित कालके लिये साधुके समान आचरण करता है, परमानन्दके लाभमें आसक्त रहता है, मोक्षमार्गमें साक्षात् चलकर जन्मके समयको सफल करता है। ___श्लोक-उपवास फलं प्रोक्तं, मुक्तिमार्गं च निश्चयं ।
संसारदुःख नासते, उपवासं शुद्धं फलं ॥ ४१२॥ अन्वयार्थ–(उपवास फलं प्रोक्तं) उपवास करनेका फल यह कहा गया है कि (निश्चयं च मुक्तिमार्ग) निश्चय मोक्षमार्गकी प्राप्ति हो । ( संसार दुःखनासन्ते) संसारके दुःखोंका नाश हो (उपवास शुद्ध फर्क) उ व उपवाससे शुद्धभावकी प्राप्ति हो यह फल है।।
विशेषार्थ-यद्यपि उपवास करना, आहार न करना, भारम्भ त्यागना, एकांतमें रहना यह सब व्यवहार चारित्र है परन्तु यह तब सफल है जब कि निश्चय रत्नत्रयरूप शुद्धात्माके श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप निश्चय मोक्षमार्गका लाभ हो। शुद्ध भावोंकी प्राप्तिसे काँकी विशेष निर्जरा होती है जिससे संसारके दुःखोंका नाश होता है। व आत्माके शुद्धभावकी वृद्धि होती जाती है। उपवास करना बडा भारी तप है, परन्तु जिस उपवासमें आर्तध्यान होजावे, आदर न रहे, यह उपवास
सफल नहीं होगा। जहां धर्मध्यानका दृढ उत्साह रहे, परिणाम पैराग्यमें आरूढ होते रहे, अध्या. ॐ त्मीक-तत्वका ध्यान हो, असली मोक्षमार्ग मिले, वही उपवास सफल है। श्रावकोंको घडे ही प्रसन्न मनसे परिणामोंकी उज्वलताके हेतुसे ही प्रोषधोपवास करके आत्माका कर्म मैल छुडाना चाहिये।
श्लोक-सम्यक्त विना व्रतं येन, तपं अनादि कालयं ।
उपवासं मास पाषं च, संसारे दुःखदारुणं ॥ ४१३ ॥
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वारणतरण
॥४०४ ॥
अन्वयार्थ — ( सम्यक्त बिना ) सम्यग्दर्शन के विना ( येन अनादि कालयं व्रतं तपं ) जिसने अनादिकालसे व्रत पाले हों, तप किया हो (मास पाखं च उपवास) एक मास या पंद्रह दिनका उपवास किया हो ( संसारे दुःखदारुणं ) वह सब संसार में भयानक दुःखका ही कारण है ।
विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन मोक्षके मार्गका बीज है । सम्यग्दर्शनके विना जितना भी ज्ञान है वह कुज्ञान है, जितना भी चारित्र है, कुचारित्र है इसका कारण यही है कि मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी कषायकी वासना नहीं छूटती है। इसलिये यदि मुनि या श्रावकका चारित्र भी पालता है, मास मास भरके या पंद्रह पंद्रह दिन के उपवास भी करता है तौ भी कोई न कोई कषायक अभिप्राय भीतर जमा रहता है । पातो मानवश, या मायावश, या लोभवश, चारित्र पाला जाता है। उत्तम गतियोंमें सुख मिले, दुर्गतिमें दुःख न मिले ऐसी भावना मिध्यादृष्टीके भीतर बनी रहती है । इसलिये कठोर व्रत व तपश्चरण भी सच्ची वीतरागताको नहीं बढा सक्ता है क्योंकि बीज विना वृक्ष कैसे बढे । शुद्धात्माकी श्रारूप सम्यग्दर्शन बीज है । इसके होते हुए व्रत चारित्र तप आदि वीतरागताके वृक्षको बढाते हैं । यदि संसारसे वैराग्यकी श्रद्धाको जमानेवाला सम्पदर्शन नहीं है तो व्रत तपादि कुछ मंद कषायसे पुण्यका बंध कर देता है जिससे देवगतिमें या साताकारी मानव गतिमें जन्म लेता है वहां विषयभोगों में रंजायमान होकर नरक या पशु गति में चला जाता है या निगोद में चला जाता है जहांसे निकलना दीर्घकालमें भी दुर्लभ है । संसारके भयानक दुःखों को सहना पडता है । इसलिये यह उपदेश है कि श्रावककी श्रेणियोंको सम्पत महित पालन करो। सम्यक्तके विना व्रत उपवास भूसीको पेलना है । सम्यक्त सहित चारित्र ही धान्य में से चावल अलग करना है ।
श्लोक – उपवासं एक शुद्धं च
मन शुद्धं तत्व सार्द्धयं ।
मुक्ति श्रियं पथं येन, प्राप्तं नात्र संशयः ॥ ४१४ ॥
अन्वयार्थ - (येन ) जिसने (एक उपवासं शुद्धं च ) एक भी उपवास शुद्धतासे किया हो ( मन शुद्धं ) मनमें मैल न हो (तत्व सार्द्धयं ) आत्मतत्वकी भावना सहित हो (मुक्ति श्रियं पथं प्राप्तं ) उसने मोक्षलक्ष्मी मार्गको पालिया ( नात्र संशयः ) इसमें कोई संशय नहीं है ।
1990
श्रावकाचार
॥ ४०४ ॥
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पारणतरण
श्रावकार
॥४०६॥
विशेषार्थ-यहां कहते हैं कि उपवास चाहे जितने करो। हरएक उपवासमें शुद्धता होनी चाहिये। मनमें आर्तध्यान, रौद्रध्यान न होना चाहिये। तत्वोंकी भावना की जानी चाहिये। आत्माका अनुभव किया जाना चाहिये । ऐसा ही उपवास यथार्थ है। मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्तिका एक मार्ग है इसमें कोई शंका नहीं है। जहां शांतभाव, ज्ञानभाव, आनन्दभाव समय समय बढता रहे वही उपवास है। एक भी उपवास विधिपूर्वक व भावपूर्वक किया जाय तो अधिक फलदाई है। परन्तु जी अनेक उपवास किये जावे व आत्म शांति व आत्म विचार न हो तो वे मोक्षमार्ग नहीं है। प्रयोजन यह है कि चौथी प्रतिमाघारीको एक मासमें चार उपवास तो शुद्ध भावसे अवश्य ही करना योग्य है। जो सामायिक प्रति दिन तीन काल वह करता था, उपवासके दिन उसे बहुत अधिक कालतक साम्यभाव रखनेका अवसर मिलता है। उपवास धर्मध्यानका एक अच्छा अवसर प्राप्त कर देता
है। उपवास के दिन परमात्म प्रकाश, समपसार, समाधिशतक आदि अध्यात्म ग्रंथोंका विशेष मनन १ करना चाहिये। ध्यानका अभ्यास जितना अधिक होसके किया जाना चाहिये । यह उपवास आत्मोन्नतिका विशेष उपकारी है।
श्लोक-सचित्तं चिंतनं कृत्वा, चेतयंति सदा बुधैः।
अचेतं असत्य त्यक्तंते, सचित्त प्रतिमा उच्यते ॥ १५ ॥ मन्वयार्थ-(सचित्तं चिंतनं कृत्वा) सचित्त अर्थात् शुद्धात्माका चितवन करके (चेतयंति सदा बुधैः) ॐ सदा बुद्धिवान अनुभव करते हैं (अचेतं असत्य त्यक्तंते ) अज्ञान व मिथ्या वस्तुको त्याग देते हैं (सचित्त प्रतिमा उच्यते ) उसे सचित्त प्रतिमा कहते हैं।
विशेषार्थ-पांचमी सचित्त प्रतिमा या सचित्त त्याग प्रतिमा है। इस श्लोकमें निश्चयनयकी ॐ मुख्यतासे कथन है कि चेतना सहित जो शुखात्मा उसके गुणोंका चितवन करके उसका अनुभव
बुद्धिमानजन करते हैं। किसी मूढ भक्तिका व असत्य तत्वका चितवन नहीं करते हैं और न अज्ञान स्वरूप पुद्गलादिका चिंतवन करते हैं न नाशवंत असत्य जगतकी क्षणभंगुर पर्यायोंका चितवन करते हैं। आर्त व रौद्रध्यानके सब विषय छोडकर धर्मध्यानमें भी एक आत्माको ही विषय करके जो
॥४०
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वारणवरण
॥४०६॥
ॐ अनुभव करते हैं निरन्तर स्वरूपमें सावधान हैपेनिश्चयसे सचित्त प्रतिमाधारी भाषक हैं। आत्मध्यानके अभ्यासकी उन्नति ही वास्तव में प्रतिमाकी उन्नति है।
श्लोक-सचिनं हरितं येन, त्यक्ते न विरोधनं ।
सचित्त सन्मूर्छनं च, त्यक्ते सदा बुधैः ॥ ४१६ ॥ सचित्त हरितं त्यक्तं च, अचित्त साद्धं च त्यतयं ।
सचेतं चेतना भावं, सचित्त प्रतिमा सदा ।। ४१७ ॥ अन्वयार्थ-(येन) जो (सचित्तं हरितं त्यक्तंते न विरोधन) सचित्त वनस्पतिका त्याग करे उनको (वृथा) तोडे व नाश न करे। (बुधैः सदा सचित्त सन्मूर्छनं च त्यक्ते) बुद्धिमान जन सदा हरएक सचित्त एकेन्द्रिय सन्मूर्छनका त्याग करे (सचित्तं हरितं त्यक्तं च) सचित्त वनस्पतिका त्याग करके (अचित्त साद्धं च त्यक्तय) अचित्तके साथ मिली हुई सचित्तका भी त्याग करे। (चेतनाभावं सचेतं) चैतन्य भावका अनुभव करे ( सदा
सचित्त प्रतिमा ) उसके सदा सचित्त प्रतिमा होती है। ॐ विशेषार्थ-इस पांचमी प्रतिमामें जीव सहित वस्तुको खानेका त्याग है। इसलिये एकद्रिय जल, * पृथ्वी, वनस्पति आदिका सचित्त अवस्थामें यह आहार नहीं करेगा, उनको अचित्त अवस्थामें लेगा,
कच्चा पानी न पीकर प्रासुक या गर्म पानी पीवेगा। तरकारी फल आदि पचाकर व सूखे व प्रासुक दशामें खाएगा, सचित्त अवस्थामें न खाएगा। अभी इसके आरम्भका त्याग नहीं है इसलिये इनको सचित्तके व्यवहारका व विराधनाका सर्वथा त्याग नहीं है। यह पानीको प्रासुक व गर्म कर सकता है व वनस्पतिको सचित्तसे अचित्त कर सका है। यह सचित्त जल व वनस्पतिको कभी खाएगा नहीं, तौभी वृथा जल व वनस्पतिका विराधन नहीं करेगा। दयावान होकर जितना कम आरम्भ सचि. तका होसके उतना करेगा। रत्नकरण्डमें कहा है
मूलफलशाकशाखाकरीरकन्दप्रसूनवीमानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ॥१४१॥ भावार्थ-जो कच्चे या अप्राशुक मूल, फल, शाक, शाखा,गांठव केर, कंद, फल व वीज नहीं खाता है सोदयावान सचित्त प्रतिमाधारी है।प्राशुक करनेकीरीति यह है याप्राशुरु किसे कहते हैं तो लिखा है-
444444444444ECEKCARKAKAK44646444444
॥४
॥
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सारणतरण
४४०७॥
सुकं पकं तत्तं बलिलवणेहि मिस्सिय दव्वं । नं नंते ण हि छण्णं तं सव्वं पासुर्य माणयं ॥
श्रावकाचार भावार्थ-जो वस्तु सूखी है-पक गई हो जैसे फलका गदा, गर्म की हुई या खट्टी लवणादि । कसायली वस्तुसे मिली हुई हो व यंत्रसे छिन्न भिन्न की गई हो वह सब प्रासुक कही गई है। सूखी वह वनस्पति जो उगने लायक है वह भी योनिभूत सचित्त है, उसे भी सचित्त प्रतिमाधारी नहीं खाता है जैसे-सूखा चना, गेहूं। बहुत करके यह सूखी वस्तुओंको जरूरत पड़ने पर काम में लेता है जिनका ऊपर नाम लिया गया है। अपने हाथसे यदि अचित्त करना हो तो जिह्वा इंद्रियको वश करके जिसमें कम हिंसा हो उनही वस्तुओंको प्राशुक करके खाता है। जिह्वाके स्वाद वश अनन्त काय साधारण वनस्पतिका घात नहीं करता है। जैसे यह स्य सचित्त खाता नहीं है, पीता नहीं है वैसे यह दूसरोंको भी नहीं देता है। एकेंद्रियके आरंभसे व जिह्वा इंद्रियके स्वाद दोनोंसे विरक्त है। तथापि इस प्रतिमा मात्र सचित्तके खाने पीनेका ही त्याग है, व्यवहारका नहीं। तथा यह श्रावक आत्माका ध्यान विशेष करता है इसलिये भी इसे सचित्त प्रतिमा कहते हैं। यह भोगो. पभोग व्रतके पांच अतीचारोंको बचावेगा, सचित्त या हरे पत्ते पर रक्खा व उससे ढका व उससे मिली कोई अचित्त वस्तु भी नहीं खाएगा । निरंतर प्राणीसंयम व इंद्रिय मंयमका साधक रहेगा।
श्लोक-अनुराग भक्तिं दिष्टं च, राग दोष न दिष्टते ।
मिथ्या कुज्ञान तिक्तं च, अनुरागं तत्र उच्यते ॥ ४१८॥ शुद्ध तत्वं च आराध्यं, असत्यं तस्य त्यक्तयं ।
मिथ्या शल्यं त्यक्तं च, अनुराग भक्ति सार्थयं ॥ ११९ ।। अन्वयार्थ-(अनुराग भक्ति दिष्टं च ) अनुराग भक्तिको विचारना चाहिये जहां (राग दोष न दिष्टते) राग द्वेष न दिखलाई पडें (मिथ्या कुज्ञान तिक्तं च) जहां मिथ्यात्व व मिथ्याज्ञान छूट गए हों (तत्र अनुरागं उच्चते) वहां अनुराग कहा जाता है (शुद्ध तत्वं च आराध्यं ) शुद्ध तत्वकी भक्ति करना चाहिये (मसत्यं तस्य त्यक्तयं) असत्य तत्वका त्याग करना चाहिये (मिथ्या शस्य त्यक्तं च) मिथ्या शल्यको छोडना चाहिये (अनुराग भक्ति सार्थय) तब यथोचित अनुराग भक्ति छठी प्रतिमा है।
॥४०॥
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वारणतरण
श्रावकाचार
॥५०॥
RECErect&tke&EEKEN
गतितियावरात्रिमालाबालारा
विशेषार्थ-यहां ग्रंथकारने छठी प्रतिमाका नाम अनुराग भक्ति लिया है। किनही आचार्योंने दिवा मैथुन त्याग लिया है। प्राचीन आचार्योंने रात्रि मुक्ति त्याग लिया है। कारण यही है कि रात्रिको भोजन त्याग ग्रंथकर्ताके मतमें पहली प्रतिमामें या उससे पहले ही होजाता है तब यहांपर रखना उनके परिणामोंमें ठीक नहीं दीखा होगा, इससे इसका नाम अनुराग भक्ति रख करके कहा है। जहां शुद्ध आत्मीक तत्वका अनुराग विशेष बढ जावे, संसारके कर्मों में राग द्वेष षहुन घट जावे, स्व स्त्री प्रसंग भी न सुहावे, गृहस्थके कार्योंसे बहुत उदासीनता आजावे, सिवाय शुद्ध आत्मीक तत्वकी प्राप्तिके और बात सब असत्य दीखती हो, संसारसे वैराग्य बढ गया हो, मोक्षमें तीन भक्ति होगई हो वह अनुराग भक्ति प्रतिमा है।
श्री समन्तभद्राचार्यने रात्रि मुक्ति त्याग छठी प्रतिमाका स्वरूप ऐसा कहा हैअन्नं पानं खाद्यं लेह्य नानाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिमुक्तिविरतः सत्तेष्वनुकम्पमानमनाः ॥ १४२॥
भावार्थ-जो सर्व माणियोंके ऊपर दयाभावको रखनेवाला रात्रिको अन्न, पान, खाद्य व लेह्य (चाटने योग्य) ऐसे चारों प्रकारके सर्व आहारको नहीं खाता है वह रात्रि-भोजन त्यागी श्रावक है। यहांपर भाव यही है कि इस श्रेणी में गृहस्थके ऐसी उदासी आजाती है कि वह रात्रिको न तो स्वयं खाता है न खिलाता है न भोजन सम्बन्धी आरम्भ क्रिया करता व कराता है न वार्तालाप करता है। भोजनके सर्व विचारोंसे छुटकर अधिकतर धर्मध्यानमें रक्त रहता है। इसके पहले यथाशक्ति रात्रि-भाजनका त्याग था। यहांपर अतीचार रहित पूर्ण त्याग होजाता है। इसके पहले रात्रिको यदि स्वयं न खाता था तौभी दूसरोंको खिलाता था। सम्यक्ती दयावान होता है। अविरत सम्यक्ती भी रात्रिको खाना पसन्द नहीं करता है। यदि उससे बने तो वह दिन हीमें खाता है, परन्तु गृहस्थी अनेक प्रकारके व्यवसायवाले होते हैं, किसीको कामसे छुट्टी ही न मिल सके, दूर जाता आता होव और लाचारी हो इससे आचार्याने छठी प्रतिमासे पहले अभ्यास बताया है जितना शक्य हो उतना छोडे, छठी प्रतिमामें पूर्ण त्याग होना ही चाहिये। सम्यग्दृष्टी श्रावक अपनी शक्तिके अनुसार जीवदयाको पालता हुआ रात्रि भोजन पहले भी नहीं करेगा परंतु यदि कोईके कोई लाचारी हो तो और व्रतों व प्रतिमाओंको पालता हुआ रहकर वह रात्रि भोजनका पूर्ण त्यागी छठी श्रेणीमें होगा। ऐसा अभिप्राय आचार्योका दिखता है।
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बारणवरण
श्रावकाचार
४.९॥
श्लोक-बंभं अबंभ त्यक्तं च, शुद्ध दिष्टि रतो सदा ।
शुद्ध दशन समं शुद्धं, अबंभ त्यक्त निश्चयं ॥ ४२०॥ अन्वयार्थ-(पमं) ब्रह्मचर्य प्रतिमा सातमी है जहां (अवम त्यक्तं च ) अब्रह्म या कुशीलका त्याग १ किया जावे (सदा शुद्ध विष्टि रतः) सदा शुष सम्यग्दर्शनमें लवलीन रह जावे (शुद्ध दर्शन समं शुद्ध)
शुखसम्यग्दर्शनके समान शुद्धता भावोंकी रक्खी जावे (अब त्यक्तं निश्चयं) ब्रह्मके सिवाय अब्रह्म ॐ ध्यान छोडा जावे सो निश्चय ब्रह्मचर्य प्रतिमा है।
विशेषार्थ-ब्रह्मचर्य प्रतिमाको धारते हुए प्रावक स्वस्त्रीका भी राग छोड देता है। मन, वचन, कायसे शील धर्म पालता है। शील धर्मके विरोधी निमित्तोंको बचाता है। ब्रह्मचर्य व्रतकी पांचों
भावनाओंपर पूरा ध्यान रखता है। यह गृहस्थके राग योग्य वस्त्राभूषण त्याग देता है, उदासीन , कपडे वैराग्य वर्डक पहनता है, सादा वस्त्र, सादा शुद्ध भोजन जहांतक सम्भव हो एक दफे करता
है, एकांतमें शयन करता है, यदि घरमें रहे तो अलग कमरे में सोता बैठता है, जहां स्त्रियोंका आगमन व कोलाहल न सुन पडे, अन्यथा घर छोडकर वैराग्यभाव धार देशाटन करता है। व्यवहार ब्रह्मचर्यको भलेप्रकार पालता हुभा निश्चय ब्रह्मचर्यको भी अच्छी तरह पालता है। शुद्ध आत्मीक तत्व जो आप स्वयं ब्रह्म स्वरूप है उनका ध्यान करता है। आत्मीक तत्वके सिवाय और तत्वका राग छोड देता है। अंतरंग बाहर शांत भाव व वैराग्यकी छटाको प्रकाश करता है। ब्रह्मरसका प्यासा होता है। रत्नकरण्डमें कहा है
___ मलबी मलयोनि गलन्मकं पूतगन्धिबीभत्सम् । पश्यन्नंगमनंगाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥ १४३॥
भावार्थ-जो प्रावक अपने शरीरको व स्त्रीके शरीरको मलसे उत्पन्न, मलको उत्पन्न करनेवाला, मलोंको बहानेवाला, दुर्गंध व अशुचिसे भरा हुआ, ग्लानि योग्य विचारता है और काम भावसे विरक्त होता है वह ब्रह्मचारी है।
इस प्रतिमामें अभी आरंभका त्याग नहीं है। सातवी प्रतिमाका धारी श्रावक पहलेके सर्व नियम पालता हुआ देशाटन करता हुआ, धर्मका प्रचार सुगमतासे कर सका है। इसे वाहनका त्याग नहीं है। यह मध्यम पात्र में भी मध्यम पात्र है। पदि गृहस्थ भक्तिपूर्वक निमंत्रण करें तो
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श्रावकाचार
वारणतरण ॐ शांत भावसे जो कुछ मिले आहार करके संतोष मानता है। स्वयं भी भोजनका प्रबन्ध कर सक्ता ॥४१०॥ ४है व अपने घर में भी जीम सक्ता है।
श्लोक-यस्य चित्तं ध्रुवं निश्चय, ऊर्ध अधो च मध्ययं ।
यस्य वित्तं न रागादिः, प्रपंचं तस्य न पश्यते ॥ ४२१ ॥ अन्वयार्थ-(यस्य चित्तं ध्रुवं निश्चय) जिस ब्रह्मचर्य प्रतिमाके धारीके चित्तमें निश्चयतासे अपने स्वरूपका निश्चय होता है (यस्य चित्तं उर्व अधो च मध्ययं रागादिः न) जिसका चित्त ऊपर नीचे मध्यलोक तीनों लोकोमें राग देष मोहको प्राप्त नहीं होता है (तस्य प्रपंचं न पश्यते ) उसके मन में प्रपंच नहीं दिखलाई पडा है।
विशेषार्थ-ससम प्रतिमा घारीका चित्त वैराग्य में बहुत अधिक लवलीन रहता है, उसको इन्द्र, महमिंद्र, धरणेंद्र, चक्रवर्ती, नारायण, तिनारायण आदिक सर्व ही भोग रोगके समान दीखते हैं
जो तीन लोकमे किसी भी पदार्थकी इच्छा नहीं रखता है। केवल अपने शुद्ध आत्मीक स्वभावका पही प्रेमी है, वही मैं हूं ऐसा उसके दृढ अजान है, वह अंतरंगसे रागदेष मोह नहीं रखता है, बहुत
ही सरलतासे या मोह रहितपनासे यदि घरमें रहे तो घरमें, यदि परदंश घूमें तो लोकमें व्यवहार करता है, ब्रह्मचर्यकी दृढता रखता है।
श्लोक-विकहा व्यसन उक्तं च, चक्र धर्णेन्द्र इंद्र यं ।
नरेन्द्र विभ्रमं रूपं, वर्णत्व विकहा उच्यते ॥ ४२२॥ अन्वयार्थ-व्यसन उक्तं च विकहा ) मात व्यसनोंके सम्बन्ध रागवईक चर्चा विकथा है(चक्र षणेन्द्र इंद्रयं नरेन्द्र विभ्रम रूप वर्णत्व विकहा उच्यते) तथा चक्रवर्ती, धरणेंद्र.इंद्र,महाराजा आदिके मोहको उत्पन्न करने वाले भेगादिका वर्णन करना विकथा की जाती है।
विशेषार्थ-ब्रह्मवारी खोटी कथाओंसे विरत रहता है।जुआ खेलन, मांस भक्षण, मदिरा सेवन, वेश्या सेवन, चोरी, शिकार खेलना, परती सेवन, इन सात व्यसनोंमें राग बढानेवाली कथाओंको यह न तो करता है और न सुनता है। तथा इन्द्र, धणेन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, प्रति.
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चारणवरण
०४११॥
CHETE
नारायण महामंडलीक, मंडलीक, महाराजा, राजा, धनवान आदिकी मोहवर्द्धक कथाओंको भी विकथा कहते हैं उनसे विरक्त होता है । न कहता है, न सुनता है, ऐसे नाटक खेल तमाशे नहीं देखता है, न करता है, जिनसे राग बढे । परिणामोंमें वैराग्य बढे ऐसे निमित्तों को मिलाता है । स्त्री, भोजन, देश व राजाओं की ऐसी कथाएं जिनसे स्त्री में राग बढे, भोजन में राग बढे, जगत के आरंभ परिग्रह में राग बढे, राज्यलक्ष्मीका लोभ उत्पन्न हो, उनको न सुनना है और न करता है । प्रमादवर्द्धक वार्तालाप आत्मविचार में बाधक है, ऐसा जान उनसे विरत रहता है ।
श्लोक - व्रतभंगं राग चिंतते, विकहा मिथ्यातरंजितं ।
अभं व्यक्त बंभं च, बंभ प्रतिमा स उच्यते ॥ ४२३ ||
अन्वयार्थ – ( व्रतभंगं राग चिंते) ब्रह्मचर्य व्रतको भंग करनेवाले राग भावकी चिंताओंको (विकहा) चारों विकथाओं को ( मिथ्यात रंजित) मिध्यास्त्र में रंजायमान होनेको (अवंध) व अब्रह्मको (स्वतं च ) स्याग करके (मं) जहां ब्रह्मचर्य पाला जावे (बंम प्रतिमा स उच्यते ) वही ब्रह्मचर्य प्रतिमा कहलाती है। विशेषार्थ - ब्रह्मचारी श्रावकको काम भोग आदिकी ऐसी चिंताएं पिछले भोगोंकी व आगे के भोगोंकी बिलकुल न करनी चाहिये जिससे परिणाम ब्रह्मवर्षले डिंग जावे व ब्रह्मवर्षका भंग होने लगे और न चार विकथाओंको करना चाहिये और न संसार शरीर भोगों के मोहमें व मिध्या वासना वासित धर्म क्रियामें रंजायमान होना चाहिये तथा मन, वचन, कायसे कुशीलको त्याग देना चाहिये । निरंतर निर्विकार भावोंको रखते हुए वैराग्य भावना भाते हुए ब्रह्मचर्थ प्रतिमा पालनी चाहिये। पहली प्रतिमाओंके सर्व नियम यथेष्ट पालना चाहिये ।
श्लोक – यदि बंभचारिनो जीवो, भावशुद्धं न दिष्टते । राग रंजते, प्रतिमा बंभगतं पुनः ॥ ४२४ ॥
विकहा अन्वयार्थ – (यदि गंभचारिनो दिखलाई पडे (विकहा राग रंनंते ) प्रतिमा भंग हो गई ऐसा समझना चाहिये ।
वो ) यदि ब्रह्मचारी जीव में ( भावशुद्धं न दिष्टते) भावकी शुद्धता नहीं विकथाके रागमें रंजायमान हो ( पुनः प्रतिमा बंभग) तो उसको
श्रावकाचार
॥४११४
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वारणतरण
विशेषार्थ-ब्रह्मचारी प्रावकको वैराग्यवान व आत्मानुभवी व निर्मल भावधारी होना योग्य है।अंतरंग व बहिरंग दोनों प्रकारसे ब्रह्मचर्य पालना योग्य है।अंतरंग ब्रह्मचर्य, आत्म समाधि व शुकाम रहित शील भाव तथा बहिरंग शुद्धि वचनोंसे व कायसे कुशीलकी चेष्टाका सर्वथा त्याग, राग वर्द्धक कथाओंको न कभी करता है और न कभी सुनता है। यदि कोई ब्रह्मचारी
होकर भी शुर भाव न रक्खे, परिणामों में इंद्रिय विषयोंका राग रक्खै, राग सहित बात कहे, ॐ रागकी बातें सुने, जगतके प्रपंचोंमें अपनेको उलझावे, स्त्रियोंसे रागवर्डक वार्तालाप करे,
एकांतमें स्त्रीका संगम करे, काम विकार होनेका निमित्त लावे, आत्माकी शुद्धिका ध्यान न रक्खे तो वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाका खंडन करनेवाला होगया ऐसा समझना चाहिये।
श्लोक-चित्तं निरोधितं येन, शुद्ध तत्वं च सार्थयं ।
तस्य ध्यानं स्थिरीभृतं, बंभ प्रतिमा स उच्यते ॥ ४२५ ॥ अन्वयार्थ (येन चित्तं सार्थय शुद्ध तत्वं निरोषितं ) जिसने मनको यथार्थ शुद्ध आत्म तत्वके भीतर रोका हो (तस्य ध्यान खिरीभ) व जिसका ध्यान स्थिर रहता हो उसीके (बभ प्रतिमा स उच्यते) ब्रह्मवर्ष प्रतिमा कही जाती है।
विशेषा-सारांश यह है कि ब्रह्मचर्य प्रतिमामें अंतरंग शुद्धिकी मुख्यता है। अंतरंग परिणाम ४ यदिनिर्मल होंगे तो बाहरी क्रिया उसके विरुडनहीं होसकी है। वह ब्रह्म स्वरूप शुद्ध आत्मीक तत्वमें
अपने मनको रोकनेका अभ्यास करके आत्मध्यानकी विशेष थिरता करता है। निरंतर जिसकी ली या लगन शुख आत्माके स्वात्मानन्दके पाने में लगी रहे व जो जगत मात्रकी आत्माओंको निश्चय नयके द्वारा समभावसे समान देखे, राग द्वेषका त्याग करे, सर्वका बंधुत्वभाव रक्खे, जिसको परमात्माका दर्शन हरएक संसारी प्राणीके भीतर शुद्ध नयके प्रतापसे होता हो, ब्रह्ममय जिसका भाव होरहा हो, ब्रह्मविचारमें ही जो रंजायमान हो, जिसकी वचन व कायकी चष्टासे भी ब्रह्मरस टपकता हो, जो पांच इंद्रियोंका विजयी होकर वैराग्यवान हो, रस नीरस जो आहार प्रासो बसमें संतोषी हो, अल्पाहारी हो, आरंभ पद्यपि कुछ करता है परंतु त्यागके सम्मुख हो, निरंतर मोक्षकी भावनामें वर्तता हो, प्राणी मात्रका हितैषी हो, परोपकारमें लीन हो, आत्मधर्म व
॥१॥
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वारजवरण
श्रावकाचार
॥४१॥
शील धर्मकी प्रभावना करनेवाला हो, पैराग्यमय वस्त्रोंका धारी हो, अल्पसे अल्प वन धारता हो वही ब्रह्मचर्य प्रतिमाका धारी श्रावक कहा जाता है। ____ श्लोक-आरंभे मन पसरस्य, दिष्ट अदिष्ट संजुते ।
निरोधनं च कृतं येन, शुद्ध भावं च संजुतं ॥ ४२६ ॥ अन्वयार्थ ((येन) जिसने (दिष्ट अदिष्ट संजुते आरंभे) देखे हुए व सुने हुए व संयोग प्राप्त आरभों में (मन पसरस्य निरोधनं च कृतं ) फंसे हुए मनको निरोध किया हो (शुद्ध भावं च संजुतं) तथा शुद्ध ७ भावोंका धारी हो वह आरम्भ त्याग प्रतिमा धारी प्रावक है।
विशेषार्थ-अब यहां आठमी आरम्भ त्याग प्रतिमाको कहते हैं। यद्यपि अभी परिग्रहका त्यागी नहीं है तो भी अब यह अपने संयोगमें जो कुछ लौकिक आरम्भ करता था, व्यापार खेती लेनदेन, गृहारंभ आदि उन सबको त्याग करके संतोषी होजाता है। मनसे पैराग्यवान होकर देखे सुने व अनुभव किये हुए आरम्भों में भी मनको नहीं उलझाता है। पदि घरमें रहे तो एकांत में रहता है। अपने लिये कोई आरम्भ नहीं कराता है। जब भोजन के समय उसका कुटुम्बी पुत्र आदि कोई बुलाता है तष भोजन संतोषसे कर लेता है । वह स्वयं न बनाता है, न बनवाता है। दूसरे उमके कुटुम्बी उसकी आवश्यक्ताओंपर ध्यान रखकर उसको प्राशुक पानी आदि देते रहते हैं। यदि वह गृहत्यागी होता है तो दूसरे प्रावकगण उसकी सम्हाल रखते हैं। वह पहलेसे निमंत्रण तो मानता है परंतु मेरे लिये अमुक वस्तु बनाई जाय ऐसा जो सातमी प्रतिमा तक कह सका था सो अब नहीं कहता है। यदि कोई पूछे क्या त्याग है तो जिस किसी रस या वस्तुका त्याग होता है उसको बता देता है। संतोषसे जो मिले उसको अल्पाहार करके शरीर रक्षा करता है तथा निरंतर एकांतमें बैठकर शुद्ध भावोंके लिये सामाबिक, ध्यान, आध्यात्मिक ग्रंथोंका विचार व धर्म: ध्यान व धर्मोपदेश करता रहता है। परम वैराग्यवान हो आत्मीक उन्नतिका आरंभ करता रहता है। धर्म प्रभावनाका आरंभ करता है परंतु सांसारिक आरम्भसे पूर्णतया विरकहोजाता है। श्री रखकरंड श्रावकाचारमें इसका स्वरूप है
सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारमतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योसावारंभविनिवृत्तः ॥१४॥
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॥४१॥
भावार्थ-जो सेवा खेती व्यापारादि आरंभोंसे विरक्त होजाता है क्योंकि इन सबसे प्राणोंका श्रावकाचार घात होता है वह आरंभत्यागी श्रावक है। यहां वह उस स्थावर दोनोंकी हिंसासे विरक होजाता है। सातमी प्रतिमा तक आरंभी हिंसाका पूर्ण त्याग न था मात्र अभ्यास था, पही पूर्ण त्याग कर देता है। यहां सचित्त जल व वनस्पतिको स्वयं अचित्त भी न करेगा, यहां वह हिंसाकारी वाहनोंपर नहीं चढेगा। अपने न जानते हुए गाडी घोडे, पैल आदि द्वारा बहुतसे त्रस प्राणियोंकी जो मार्गमें चलते हैं हिंसा होजाती है इसलिये वह हिंसाकारी वाहनोंपर नहीं चढके पैदल ही भूमि निरखकर चलता है। आरंभी हिंसाके त्यागकी अपेक्षा ही यह आठमी श्रेणी है। यही गृह त्यागी श्रावक संतोषसे देशाटन करता है। जहां आसपास ग्रामों में प्रावकोंके घर होंगे उसी प्रदेशमें भ्रमण करेगा। आरंभ करानेवाली यात्राओंको स्वयं न करेगा। यदि कोई संघ अपनेआप किसी तीर्थयात्राको जाता हो व संघले साथ ले जानेकी प्रार्थना करें तो साथ हो लेता है व पैदल ही गमन करता है। आत्मरसका मगन रहनवाला परम संतोषी यह आवक होता है। यदि घरमें परिग्रहके भीतर है, पुत्रादि सब काम करते हैं, उनको वह किसी कामकी प्रेरणा नहीं करता है। जब वह किसी लौकिक कामकी सलाह पूछे तो उदासीन भावसे बता देता है।
श्लोक-अनृत अचेत असत्यं, आरंभं येन क्रीयते।
जिन उक्तंचन टिटते. जिनद्रोही मिथ्या तत्परा ॥ ४२७॥ ___ अन्वयार्थ-(थेन) जिसके द्वारा (अनृत अचेत असत्त्यं भारभ क्रीयते) मिथ्या, अज्ञानमय व पीडाकारी प्रारम्भ किया जाता है (च मिन उक्त न दिष्टते) व जो जिनेन्द्रकी आज्ञाका भी विश्वास नहीं रखता है वह (निनद्रोही मिथ्या तत्परा ) जिन आज्ञाका लोपी व मिथ्यास्तके आधीन है।
विशेषार्थ-यहां आरंभका स्वरूप कहते हैं। जो द्रव्य कमानेमें अति आशक्त होजाते हैं वे इस वातका विनार छोड देते हैं कि कौनसा आरंभ ठीक है या अयोग्य है, कौनसा मिथ्या वचनोंसे होता है, कौनसा सत्य वचनाम होता है। ज्ञानमय व अज्ञानमयका विचार नहीं रखना है। प्रति पीडाकारी आरभ भी कर लेता है जैसे लकडी कटवाना, मादक वस्तु पनवाना, पशुओं का विक्रय, शास्त्र विक्रय आदितथा आरंभमें सवाईसे नहीं वर्तता है। दूसरोंको ठग करके धन कमाता है।
४१४
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बारणवरण
४ श्रावकाचार
जिनेन्द्रकी आज्ञा तो यह है कि सत्यताके माथ परको दुःख न पहुंचे इस तरह प्राजीविकाका साधन करके गृहस्थका कर्तव्य पालो। यह आरंभासक्त होकर न्याय अन्यायको भूलकर जिसतरह
अधिक धन संचय हो वैण करता रहता है, विश्वासघात भी कर लेता है, भोलोंको समझाकर लूट १ लेता है। ऐसा आरंभी मियादृष्टी है, जिन भगवानकी 'ज्ञाको न पालनेवाला हिंसक व पापी है वनरकादि कुगतिका बांधनेवाला है। अतएव आरंभका मोह त्यागना ही हितकर है।
श्लोक-अदेवं अगुरं यस्य, अधर्म क्रियते सा ।
विश्वासं येन जीवस्य, दुर्गतिं दुःखभाजनं ॥ ४२८॥ अन्वयार्थ (यस्य सदा भदेवं अगुरं अवर्म क्रियते ) जो सदा ही मिथ्या देव, मिया गुरु, मिया * धर्मकी सेवा किया करता है (येन जीवस्य विश्वास ) जिस जीवका विश्वास हो ऐसा होता है (दुर्गति दुःखभाननं ) वह कुगतिमें जाकर दुःखोंका भाजन हो जाता है।
विशेषार्थ-आरंभ परिग्रहमें जो गृहस्थ आसक्त होजाता है, धनका लोलुरी हो जाता है वह वैराग्यवर्द्धक जिनदेव, जिनगुरु व जिनधर्मकी श्रद्धा नहीं करता हुआ रागी देषी देव, परिग्रहधारी गुरु, व हिंसाई धर्मकी भरा कर लेता है। उसको जब ऐसा उपदेश मिलता है कि अमुक देव देवीकी पूजा करनेसे धनलाभ पुत्रलाभ होगा, राज्यलाभ होगा। अमुक साधुकी भक्ति करनेसे धन, पुत्र, राज्यका संरक्षण रहेगा । अमुक पूजा पाठ, जप तप, यात्रा करनेसे धनादिका समागम होगा। तब यह आरंभी मोही जीव उनमें विश्वास करके उनहीकी भक्ति किया करता है तथा बहुधा मान्यता मानता है कि मेरा अमुक काम सिद्ध होजायगा तो मैं ऐसी भक्ति करूंगा, यह दान दूंगा इत्यादि । ऐसी मान्यता कर लेनेपर कदाचित् काम सिद्ध होगया तो यह ऐसा मान लेता है कि अमुक कुदेव, कुगुरु, व कुधर्मके प्रतापसे ही सिद्ध हुआ है। यद्यपि वह कार्य तो पुण्य के उदयसे हुआ है परंतु मिथ्यात्वीको मिथ्या मानने में कुछ संकोच नहीं होता है। ऐसा मानकर वह और 7 अधिक मिथ्या श्रद्धानी होजाता है। इसतरह धनका लोलुपी आरंभी होकर तीव्र पाप यांधकर
नरकादिमें जाकर घोर दुःख उठाता है। आरंभका मोह संसार दुःखोंका हेतु है।
॥४१५॥
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तारणतरण
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श्लोक-आरंभं परिग्रहं दिलं, अनंतानंत चिंतए ।
श्रावकाचर ते नरा ज्ञान हीनस्य, दुर्गतिगमनं न संशयः॥ ४२९ ॥ अन्वयार्थ (आरंभ परिग्रहं दिष्टं) भारंभ व परिग्रहको देखकर (अनंतानंत चिंतए) वह अनंतानंत परिग्रहकी प्राप्तिकी चिंता किया करता है (ते नरा ज्ञान हीनस्य) वे मानव सम्यग्ज्ञानसे शून्य हैं (दुर्गति गमनं न संशयः) उनका कुगतिमें गमन होगा इसमें कोई संशय नहीं है।
विशेषार्थ-अज्ञानी देखी सुनी परिग्रहको विचार कर व देखे सुने आरम्भको जानकर निरंतर अधिकाधिक धनकी प्राप्तिकी चिंता किया करता है । कथाओं में चक्रवर्तीकी सम्पदा पढकर व इंद्रकी विभूति जानकर व उनकी अमोघ शक्तिको सुनकर तथा परदेश या स्वदेशमें बडे २ कोट्याधीश, मानवोंकी सम्पत्ति सुनकर व उनका बड़ा भारी व्यापार जानकर यह चिंता किया करता है कि कब मैं ऐसा आरम्भ करूँ, कब मैं इतना बडा धनी होजाऊँ, क्या मैं ऐसा काम करूँ जिससे चक्रवर्ती नारायण, प्रतिनारायण, र जा, महाराजा, इन्द्र, धर्णेन्द्र आदिके भोग मामग्रीको प्राप्त कर सकूँ, इस तरह अनंतानुबंधी कषायके उदयसे आरंभ परिग्रहकी घोर चिंता करके कुभावोंके अनुसार धन अल्प रहते हुए व अल्पारम्भ करते हुए भी तीव्र कर्म बांध लेता है। बहुधा नर्क आयु बांधकर नर्क चला जाता है। अतएव आरम्भ महान दुखदाई है।
श्लोक-आरंभ शुद्ध दिष्टं च, सम्यक्तं शुद्धं ध्रुवं ।
दर्शनं ज्ञान चारित्रं, आरंभ शुद्ध शाश्वतं ॥ ४३० ॥ अन्वयार्थ-ज्ञानीके (शुद्ध आरंभ दिष्टं च) शुद्ध भावके पानेका आरंभ देखा जाता है उसके (शुद्धं ध्रुवं सम्यक्तं) शुद्ध निश्चय सम्यग्दर्शन होता है (दर्शन ज्ञान चारित्रं ) उसके सम्पग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र रत्नत्रयका (भारंभ शुद्ध शाश्वतं) आरंभ शुद्ध नित्य होता है।
विशेषार्थ-आरंभत्यागी श्रावक सम्यग्दृष्टी होता है वह सर्व लौकिक आरंभको महा पापका कारण समझकर त्याग देता है, मात्र शुद्धात्मीक भायोंकी प्राप्तिका आरंभ अर्थात् धर्मध्यानका आरंभ करता रहता है। अपने निर्मल सम्यक्त भाव के कारण वह रत्नत्रयकी शुद्धिका पस्न करता
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वारणवरण
॥४१७॥
रहता है । वह जानता है कि निश्चय रत्नत्रय स्वात्मानुभवको कहते हैं। उसके निरंतर स्वात्मानुभवका अभ्यास रहता है। जब आत्माके मननमें उपयोग नहीं लगाता है तब जिनवाणीका अभ्यास करता है - उसमें आध्यात्मीक शास्त्रोंपर विशेष लक्ष्य देता है, जो जो नियम पहले से हैं उनको भले प्रकार पालता है । व्यवहार सम्यग्दर्शनके द्वारा निश्चय सम्यग्दर्शनको व्यवचार सम्पज्ञान के द्वारा निश्चय सम्यग्ज्ञानको व व्यवहार सम्यक्चारित्र के द्वारा निश्चय सम्यक्चारित्रको दृढता से साधन करता है। शुद्ध नित्य आत्माके अनुभव में उपयोगको जमानेका मुख्य आरंभ करता है, हिंसामई आरंभसे बचता है, अहिंसा के आरंभ में प्रवर्तता है ।
श्लोक - आरंभं शुद्ध तत्वं च संसार दुःख व्यक्तयं । मोक्षमार्ग च दिष्टंते, प्राप्तं शाश्वतं पदं ॥ ४३१ ॥
अन्वयार्थ – ( शुद्ध तत्वं च आरंभ ) शुद्ध आत्मीक तत्वका विचार ( संसार दुःख व्यक्त ) संसारके दुःखों से छुड़ानेवाला है (मोक्षमार्ग च दिष्टंते ) मोक्षका मार्ग दिखानेवाला है (शाश्वतं पदं प्राप्तं ) व अविनाशी पदको प्राप्त कराने वाला है ।
विशेषार्थ – संसारीक कार्योंका आरम्भ संसारके भ्रमणका कारण है तब आत्म कार्यका आरंभ संम्रारके दुःखोंको छुडानेवाला है तथा मोक्ष प्राप्त करानेवाला है। अविनाशी निर्वाण पदका साधन स्वात्म ध्यान है, जहां शुद्ध आत्माका अनुभव है वहीं रत्नत्रय स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग है, आरंभ त्यागी श्रावक सर्व संकल्प विकल्प त्यागकर निश्चिंत होकर दिनरात आत्मा के उद्धार में ही दत्तचित्त रहता है। धार्मिक अंतरंगका इसके त्याग नहीं है इसलिये धर्मोन्नतिके कार्योंको करता रहता है, पूजा पाठ स्तुति करता रहता है। दानधर्म करता व कराता रहता है। अभी यह परिग्रहका स्वामी है, घनको शुभ कार्यों में लगाकर सफल करता है। ज्ञानकी उन्नतिमें विशेष लक्ष्य देता है । यह बडा दयालु है, दुःखी प्राणियोंके दुःख मेटता है, जगतमें जीवदयाका प्रचार करता है, सर्वसे प्रेम भाव रखता हुआ धर्मकी प्रभावना करता है ।
५३
श्लोक – परिग्रहं पुद्गलार्थं च परिग्रहं न चिंतए ।
ग्रहणं दर्शनं शुद्धं, परिग्रह न विदिष्टते ॥ ४३२ ॥
श्रावकाचार
॥ ४१७ ॥
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तारणतरण
॥४१८॥
अन्वया_पिरिम पदलाचा परिणाम आदि पद्धल जो शरीर उसके लिये होती है। श्राव यह श्रावक (परिग्रह न चिंतए) परिग्रहकी चिंता छोड देता है (शुद्ध दर्शनं ग्रहण) इसके शुद्ध सम्पग्दर्शनका ग्रहण है (परिग्रह न विदिष्टते) और परिग्रह नहीं दिखलाई पडता है।
विशेषार्थ-अब नौमी परिग्रह त्याग प्रतिमाको कहते हैं । इस श्रेणी में आकर वह श्रावक अपने पास सर्व सम्पत्तिको जिसे देना हो देदेता है। धर्मकार्यों में व दान धर्ममें लगा देता है। अब अवश्य नियमसे घरको त्याग कर धर्मशालामें व उपवनमें, सर्वसाधारणके उपयोग योग्य स्थानमें जहां अपना स्वामीपना नहीं है वहां रहता है। शरीरसे ममता छोड दी है। मात्र शरीर रक्षाके हेतु कुछ वस्त्र व वर्तन रखता है। रुपया पैसा कुछ नहीं रखता है। निमंत्रण किये जानेपर जो आहार करावे उसे संतोषसे कर लेता है। यह अपना स्वामीपना अपने ज्ञान दर्शन आत्माके स्वभावमें ही रखता है। और सर्व तरहसे ममता दूर कर देता है। इसके निरंतर भावना मुनिपद धारनेकी रहती है। रत्नकरंड श्रावकाचारमें कहा है
बासेषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः। स्वस्थः संतोषपरः परिचितपरिग्रहाद्विरतः ॥ १४५ ॥
भावार्थ-यह परिग्रह त्यागी श्रावक बाहरी १० प्रकारकी वस्तुओंसे ममता छोड देता है, उनका त्याग कर देता है, क्षेत्र, मकान, चांदी, सोना, धन, धान्य, दासी, दास, कपडे, वर्तन, इन सबसे स्वामीपना हटा लेता है। परम वैराग्यमें लीन होकर आत्माके ध्यानमें तिष्ठता है। परम संतोष रखता है। तत्वविचारमें लगा रहता है व धर्मके स्वामी साधुओंकी संगति रखता है। ग्रामादिमें विहार करता हुआ स्वपर कल्याण करता है। ___ श्लोक-अनुमति न दातव्यं, मिथ्यारागादिदेशनं ।
अहिंसा भावशुद्धं च, अनुमति न चिंतए ॥ ४३३ ॥ अन्वयार्थ-(मिथ्यारागादिदेशन अनुमति न दातव्यं) मिथ्या राग द्वेष सम्बन्धी भावको उपदेश करने वाली सम्मति न देना चाहिये (अनुमतिं न चिंतए) न ऐसी सम्मति देनेकी चिंता ही करनी चाहिये (महिंसा भावशुद्ध च) अहिंसाभाव व शुद्ध आत्मीक भाव सदा रखना चाहिये सो अनुमति त्याग
Vin भावक है।
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॥४१९॥
विशेषार्थ-दसमी प्रतिमा अनुमति त्याग है। इस श्रेणीमें श्रावक धर्म सम्बन्धी चर्चा श्रावकाचार सिवाय और कोई लौकिक चर्चा नहीं करता है। कोईलौकिक सम्मति गृहस्थके क्षणभंगुर मिथ्या कार्य सम्बन्धी व व्यापार सम्बन्धी व विवाहादि सम्बन्धी पूछे तो कुछ नहीं कहता है और न १ मनमें ही उस सम्बन्धी अच्छा या बुरा चिंतवन करता है। नौमी प्रतिमा तक तो यदि कोई सम्मति सांसारिक कार्य सम्बन्धी पूछता तो यह उदासीन भावसे मात्र उसके लाभ व हानि बता देता.प्रेरक रूपसे कुछ नहीं कहता । इस श्रेणी में वह इन बातोंसे भी विरक्त होजाता है। भात्मकल्याण सम्बन्धी व धर्मकी उन्नतिकारक बात ही कहता है व इसीमें सम्मति देता है। इसके परिपानी में हिंसा भाव बहुत अधिक है। किंचित् भी उसके निमित्तसे हिंसा हो यह इसे पसंद नहीं है। इसीलिये यह श्रावक पहले से निमंत्रण नहीं मानता है। भोजन के समय कोई बलावे चला जाता है, सदा शुद्ध आत्माके ध्यानका लक्ष्य रखता है। रत्नकरंडमें कहा है
अनुमतिरारम्ये वा परिग्रहे वैहिकेषु फर्मसु वा। नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ॥१६॥
भावार्थ-जो समभाव धारक ज्ञानी श्रावक बाहरी कार्योंके सम्बन्धमें आरम्भ करने व धनादि परिग्रह एकत्र करनेकी सम्मति नहीं देता है वह अनुमति त्याग श्रावक है ऐसा जानना चाहिये। यह मध्यम पात्रमें उत्तम गिना गया है।
श्लोक-उदिष्ठं उत्कृष्ट भावेन, दर्शन ज्ञान संयुतं ।
चरणं शुद्ध भावस्य, उदिष्ठं आहार शुद्धये ॥ ४३४ ॥ अंतराय मनं कृत्वा, वचनं काय उच्यते ।
मनशुद्धं वच शुद्धं च, उद्दिष्टं आहार शुद्धये ॥ ४३५ ॥ अन्वयार्थ (उत्कृष्ट मावेन) श्रेष्ठ भावोंके साथ (दर्शन ज्ञान संयुतं चरणं उद्दिष्टं ) सम्पदर्शन सम्य. जान सहित चारित्र पालनेका जिसके उद्देश्य हो ऐसे (शुद्ध भावस्य ) शुर भाव धारीके (उदिष्ट आहार शुद्धये) उरिष्टाहारका त्याग होता है। (मनं वचनं काय कृत्वा अंतराय उच्यते) मन, वचन, काय सम्बन्धी अंतरायको बचाना इसके लिये कहा गया है (मनशुद्ध व शुद्धंच) इसका मन र व वचन शर होता है सो (उदिष्टं आहार शुद्धये) अरिष्ट आहारका त्यागी आवक है।
॥१९॥
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वारणवरण
श्रावकाचार
॥४२॥
विशेषार्थ-ग्यारहवीं प्रतिमा उदिष्टाहार त्याग है, इस श्रेणीमें यह उत्कृष्ट आवक होजाता है, साधु समान वैराग्यके भाव रखता है। यह नहीं चाहता है कि इसके उद्देश्यसे व इसको लक्ष्य में लेकर कोई आहार बनाया गया हो उसे यह लेवे। जिस आहारको कुटुम्धी प्रावकने अपने ही कटम्बके लिये बनाया हो उसीमेंसे जो विभाग भिक्षावृत्तिसे जाते हुए मिले उसे ही लेकर यह संतष्ट रहता है। यह मनमें भोजनकी लालमा नहीं रखता है न पचन ऐसा कहता है जिससे भोजनकी लालसा व याचना प्रगट हो। इसका उद्देश्य या प्रयोजन रत्नत्रय धर्मको परम समता. भावसे पालना है। भोजनके अंतरायोंको मन, वचन, कायसे टालकर भोजन करता है। रत्नकरण्डमें कहा है
गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकंठे व्रतानि परिगृह्य । मैक्ष्याशनस्तपस्यनुत्कृष्टश्चेकखण्डधरः॥१७॥
भावार्थ-जो गृहवाससे उदास हो मुनिराजके पास जाकर वन में उनके समीप बनोको लेकर र उनके पास तपस्या करे व भिक्षासे भोजन करे व खंड वस्त्र रखे सो उत्कृष्ट प्रतिमाधारी है।
अनुमति त्याग प्रतिमा तक धर्मशालामें व एकांत घरमें व नसिया आदिमें ठहरकर धर्म साधन कर सक्ता था। ग्यारहवीं प्रतिमावाला मुनिराजकी संगतिमें रहेगा क्योंकि यह मुनि धर्म पालनका अभ्यास करनेवाला होजाता है। जैसे मुनि वर्षाके चार मास सिवाय विहार करते हैं, शेष नगरके पास पांच दिन व ग्रामके पास एक दिन ही ठहरते हैं, पगसे विहार करते हैं, वैसे ही या श्रावक करेगा। क्षुल्लक श्रावक एक खंड वस्त्र जिससे पगढके तो मस्तक खुला रहे, मस्तक ढका हो तो पग खुला रहे व एक लंगोट रखता है। शरदी गर्मी दस महादिकी वाघा सहनेका अभ्यास करता है। जीवदयाके लिये मोर पिच्छी व कमंडल में शौच के लिये जल रखना है व कोई२ भिक्षा लेनेका पात्र भी रखते हैं, मुनिवत् भिक्षाको जाते हैं। जहांतक मनाई नहीं है वहांतक गृहस्थीके घर जाते हैं। भिक्षा लेनेका जो पात्र रखते हैं वे पात्र में भोजन थोडासालेकर अन्य निकर घरमें जाते हैं। इसतरह पंक्तिबंध ५-७ घरोंसे भोजन एकत्र करके अंतिम घरमें बैठकर भोजनपान करके पात्रको शुद्ध करके बनमें चले जाते हैं। जो एक घर लेनेवाले होते हैं वे एकही घरमें बैठकर थाली में संतोषसे भोजन कर लेते हैं। २४ घंटे में एक ही दफे भोजन पान करते हैं, ये केशोंको कत.
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वारणतरण
श्रावकार
॥४२॥
र राते हैं। इनमें एक भेद ऐलकोंका है, ये ऐलक एक लंगोट मात्र रखते हैं। ये मुनिके समान केशोंका लोंच करते हैं, काष्टका कमंडल रखते हैं, भिक्षासे एक घर बैठकर अपने हाथ में ही भोजन ग्रास रूप लेकर करते हैं, मुनिधर्मका अभ्यास करते हैं। ये दोनों क्षुल्लक ऐलक ग्यारह प्रतिमाओंके निय. मोको जो उत्कृष्ट चारित्र में बाधक नहीं हैं सब पालते हैं, मुनिराज होनेकी भावना भाते हैं, आत्मध्यानका विशेष अनुराग रखते हैं। ऐलक विशेष विरक्त हैं, रात्रिको मौन रखकर ध्यान करते हैं, उद्दिष्टाहारके त्यागी इसीलिये होते हैं कि उनके आशयसे श्रावक कोई आरम्भ न करे । स्वयंके लिये आरम्भ करे उसीमेंसे दान रूप जो मिले उसी में यह संतोष करे। यहांतक प्रत्यारूपानावरण कषायका जितना जितना मंद उदय होता जाता है उतना उतना बाहरी व अंतरंग चारित्र बढता , जाता है।
श्लोक-प्रतिमा एकादशं येन, जिन उक्तं जिनागमे ।
पालंति भव्यजीवानां, मन शुद्धं स्वात्मचिंतनं ॥ ४३६ ॥ अन्वयार्थ-(मिन भागमे निन उक्त) जिनागममें जिनेन्द्र भगवानके कथन प्रमाण (येन एकादशं प्रतिमा) जो यह ग्यारह प्रतिमा (भव्य जीवानां पार्कति) भव्य जीव पालते हैं (मन शुद्ध) मनको शुद्ध रखते हैं (स्वात्मचिंतन) व अपने आत्माका ध्यान करते हैं।
विशेषार्ग-इन ग्यारह प्रतिमाओंका रूप जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदेशित व ऋषि प्रणीत जिनागममें जैसा कहा गया है वैसा जानकर श्रावकोंको उचित है कि शुद्ध भावोंके साथ माया, मिथ्या, निदान तीन शल्य छोडकर पालें, मुख्यतासे शुडात्माके चितवनकी भावना रक्खें । निश्चयधर्म आस्माका अनुभव है उसकी उन्नति करते जावें,मात्र बाहरी चारित्र कार्यकारी नहीं है। बाहरी चारित्र सहायकारी है, निश्चय चारित्र ही परोपकारी है।
श्लोक-अनुव्रतं पंच उत्पादंते, अहिंसानृत उच्यते ।
अस्तेयं ब्रह्म व्रतं शुद्ध, अपरिग्रहं स उच्यते ॥ ४३७॥ अन्वयार्थ-(अनुव्रतं पंच उत्पादते) ये ग्यारह प्रतिमाघारी प्रावक पांच अणुव्रतोंको पढाते जाते
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श्री
॥४२॥
ॐ हैं वे (अहिंसानृत उच्यते) अहिंसा व्रत है, अनृत त्याग ब्रत कहा जाता है (अस्तेयं ) चोरीका त्याग है (शुद्धं ब्रम व्रतं ) शुख ब्रह्मचर्य व्रत है (अपरिग्रहं स उच्यते ) वह परिग्रह त्याग व्रत कहा जाता है।
विशेषार्थ-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग इन पांच व्रतोंको एक देश पालनेका अभ्यास पहली दर्शनप्रतिमासे प्रारंभ होता है फिर बढता हुआ चला जाता है। महावतोंमें
कुछ ही कमी रह जाती है वहांतक उत्कृष्ट प्रावक ग्यारह प्रतिमाधारी होता है। ये पांच ब्रतही ॐ संवरके कारण हैं। अविरत भावसे जो कोका आस्रव बंध होता है वह इन ब्रतोंके पालनेसे बंद. होता जाता है, वीतरागता बढती जाती है।
श्लोक-हिंसा असत्य सहितस्य, रागदोष पापादिकं ।
थावरं त्रस आरंभ, त्यक्तते ये विचक्षनाः ॥ ४३८॥ अन्वयार्थ-(ये विचक्षनाः) जो चतुर श्रावक वे (हिंसा असत्य सहितस्य ) हिंसा व असत्य इन प्रयोजनोंको लेकर (रागदोष पापादिकं ) राग द्वेषको व पाप आदिको (थावरं त्रस आरंभ ) स्थावर व उसके आरम्भको (त्यक्तते) छोड देते हैं।
विशेषार्थ-अहिंसावत यह बताता है कि पर पीडाकारी भाव व मिथ्या वचनोंके द्वारा परको ठगनेका भाव दिलसे निकाल डाला जाने तथा भाव हिंसा व द्रव्य हिंसा दोनोंसे बचा जावे । राग द्वेष क्रोधादि भाव व पाप करनेके परिणाम भाव हिंसा है, क्योंकि उनसे आत्माके शुद्ध ज्ञानादिका व शांत भावका घात होता है। तथा स्थावर व त्रस छःकायके प्राणियोंका घात द्रव्यहिंसा है। श्रावकोंके भाव ये ही रहने चाहिये कि हम भाव हिंसा व द्रव्य हिंसा दोनोंसे बचे । इस पूर्ण अहिंसाव्रतकी भावनाको दृढतासे रखते हुए ये श्रावकगण ग्यारह श्रेणियोंके द्वारा इस अहिंसावतको यथाशक्ति प्रारंभ करते हुए अंतमें पूर्णताके निकट पहुंचा देते हैं, साधु होने तक पूर्ण अहिंसाके अभ्यासी होजाते हैं। अंतरंगमें वीतराग भाव बाहरमें आरंभकी कमी, ये ही उपाय अहिंसाके पालनेके हैं। धर्म अहिंसामय है, मेरे भाव भी निराकुल रहे व दूसरे भी प्राणी मेरे द्वारा कष्ट न पावे ऐसा दयाभाव श्रावकोंके भीतर रहना योग्य है।
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॥१२॥
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सारणतरण
॥४२॥
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श्लोक-अनृतं अनृतं वाक्यं, अनृत अचेत दिष्टते ।
श्रावकाचार अशाश्वतं वचन घोकं च,अनृतं तस्य उच्यते ॥ ४३९ ॥ अन्वयार्थ—(अनृतं) अमृत त्यागमें (अनृतं वाक्यं) मिथ्या वाक्योंका त्याग होता है। (अनृत, " अचेत दिष्टते) जो वचन मिथ्या है वे अज्ञानरूप कहे जाते हैं। (अशाश्वतं वचन प्रोक्तं च) जो नाशवंत पदार्थोको थिर रखनेका वचन कहता है (तस्य अनृतं उच्यते ) उसके भी असत्य वचन कहा जाता है।
विशेषार्थ-दूसरा व्रत असत्य त्याग है व सत्य व्रत है। इस व्रतमें श्रावकोंको न तो असत्य वचन कहना चाहिये न मिथ्यात्व पोषक बचन कहना चाहिये न अज्ञान भूलक वचन कहना चाहिये। माया भाव चित्तमेंसे निकाल कर सरलतासे वचन कहना चाहिये जिसमें दूसरोंको धोखा न दिया जावे । जो वस्तु जैसी है उसको वैसी कहा जावे । वस्तु अनेक धर्म स्वरूप है उसको एक ही धर्मरूप कहना असत्य है । जगतकी सर्व क्रियाएँ नाशवंत हैं उनको थिर कहना असत्य है । संसारमें राग बढानेवाला वचन व आरम्भ परिग्रह में प्रेरक वचन भी असत्य है। कठोर मर्म छेदक अप्रिय व हिंसाकारी सत्य वचन भी असत्य है। जिनवाणीके प्रतिकूल कोई वचन कहना भी असत्य है। हरएक वचन जिन सूत्रकी दृढता करानेवाला बोलना ही सत्यवत है। आरम्भी वचन भी असत्य है। इस मात्र असत्यका त्याग वहांतक नहीं बना सक्ता है जहांतक आरम्भका त्याग न हो। आरम्भ स्थागीके आरम्भ करने कराने सम्बन्धी वचन भी नहीं निकलता है। श्रावकोंको अधिकतर मौन रहना चाहिये । प्रयोजनवश कुछ वचन योग्यतासे विचार पूर्वक बोलना चाहिये।
श्लोक-अस्तेयं स्तेय कर्मस्य, चौर भावं न क्रीयते ।
जिन उक्तं वचनं शुद्धं, अस्तेयं लोप न कृतं ॥ ४४०॥ अन्वयार्थ—(अस्तेय) चोरीका त्याग अस्तेय व्रत यह है कि (स्तेय कर्मस्य चौर भावनं क्रीयते) चोरी कर्म व चोरीके भावको नहीं किया जावे। (मिन उक्तं वचनं शुद्ध लोप न कृतं अस्ते) जिनेन्द्र द्वारा कथित उपदेशको शुद्धतासे पाले व करे व कभी उसका लोप न करे सो अस्तेय व्रत है। विशेषार्थ-तीसरा अचौर्यव्रत यह है कि विना दिया हुभा किसीका गिरा पडा भूला विसरा
॥४२३॥
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कारणवरण
श्रावकार
॥४४॥
आदि मालको न लिया जावे। कभी भी चोरीका भाव दिलमें न लाया जाये न चोरी करने
करन कराने सम्बन्धी वचन बोलना चाहिये न चोरीकी अनुमोदना करनी चाहिये। नीतिसे धर्मानुकूल धनादि ग्रहण किया जावे व आरम्भ त्यागीको शुद्धताके साथ अन्तराय व दोष टालकर शुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिये । जो धर्म साधनकी वस्तु है उसमें अपनापना कभी न मानना चाहिये। जिनेंद्रकी आज्ञा प्रमाण वस्तुका स्वरूप विचारना चाहिये । वैसा ही कहना चाहिये व वैसा ही पालना चाहिये । जो जिनकी आज्ञाके विरुद्ध सोचते कहते व करते वे जिनाज्ञालोपी चोरीके दोषके भागी होते हैं। शुद्ध मन, वचन, काय रखके कपट त्यागके वर्तन करना ही अचौर्यव्रत है।
श्लोक-ब्रह्मचर्य च शुद्धं च, अबंभ भाव त्यक्तयं ।।
विकहा राग मिथ्यात्वं. त्यक्तं बंभ व्रतं ध्रुवं ॥४४१॥ अन्वयार्थ-( ब्रह्मचर्य च शुद्ध च) शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत पालना चाहिये ( अब भाव त्यक्त) अब्रह्म या कुशीलके भावको त्याग देना चाहिये। (विकहा राग मिथ्यात्वं त्यक्त) विकथाका राग व मिथ्यात्वको छोडना चाहिये । तब (बम व्रत ध्रुवं ) ब्रह्मचर्य व्रत निश्चल होता है।
विशेषार्थ-चौथा व्रत ब्रह्मचर्य है। छठी प्रतिमातक श्रावक एकदेश पालता है,सातमी प्रतिमासे फिर पूर्ण पालता है। कुशीलके भावकोत्यागना ब्रह्मचर्यव्रत है, स्पर्श इंद्रियके विषयकी चाहको रोकना, मनको ब्रह्म-स्वरूप आत्माके मननमें लगाना ब्रह्मचर्य व्रत है। स्त्री, भोजन, देश व राजाकी खोटी रागवडक कथाओंको त्यागना व संसारासक्ति रूप अग्रहीत मिथ्यात्वका भाव त्यागना व सदा वैराग्यकी भावना भाना । विषयोंको विषके समान समझना, ये सब साधन ब्रह्मचर्यकी रक्षाके हैं। बाहरमें सर्व स्त्री मात्रको माता, वहिन, पुत्रीके समान देखना । अंतरंगमें शुद्ध स्वरूपका मनन करना ब्रह्मचर्यव्रत है। यह ब्रह्मचर्यवत वीर्यका परम रक्षक है। मन, वचन, कायकी सर्व शकियोंका रक्षा करनेवाला है। आत्मध्यानका परम सहायक है। ध्यानका परम मित्र है। मोक्षमार्गमें बडा उपकारी है। श्रावकोंको उचित है कि इसके पालन में दृढतासे वर्तन करें।
श्लोक-मनवचन कार्य शुद्धं, शुद्धसमयं जिनागमं ।
विकहा काम सद्भावं, त्यक्तते ब्रह्मचारिना ॥ ४४२॥
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तारणतरण
श्रावकाचार
॥४२५॥
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अन्वयार्थ-(मनवचन कार्य शुद्धं ) ब्रह्मचारीको मन, वचन, कायको अनझके संसर्गमे शर रखना १ चाहिये । (शुद्ध समयं जिनागमं ) शुरु आत्मा व जिनवाणीका मनन करना चाहिये (ब्रह्मचारिना) ब्रह्म . चारीको (विकहा काम सदभाव) खोटी कथा जिनमें कामभावका अस्तित्व हो (त्यक्तते) छोड देना चाहिये।
विशेषार्थ-ब्रह्मचर्यको रक्षाके हेतु ब्रह्मचारीको मनमें भी कामभावको व रागभावको न लाना चाहिये । हास्यजनक, रागवईक, कामोत्पादक वचनोंको भी नहीं बोलना चाहिये, न शरीरकी कोई कुचेष्टा करना चाहिये, शुद्ध समय जो शुद्ध आत्मा उसपर लक्ष रखना चाहिये, उसका ध्यान करना
चाहिये । जब आत्माके स्वरूपमें उपयोग स्थिर न होसके तब जिनवाणीका अभ्यास पठन पाठन र मनन करना चाहिये । श्रुतका विचार मनको ज्ञान वैराग्यमें रमानेका बडा भारी अपूर्व आलम्बन है। काम भावको जागृति करनेवाली विकथा व काम कथा व शृंगार कथा न कभी करनी चाहिये और न कभी सुननी चाहिये । ब्रह्मचर्यकी रक्षाके साधनोंको जोडना चाहिये।
श्लोक-परिग्रहं प्रमाणं कृत्वा, पर द्रव्यं न दिष्टते ।
अमृत असत्य त्यक्तं च, परिग्रह प्रमाणं तथा ॥ ४४३॥ विशेषार्थ-(परिग्रहं प्रमाणं कृत्वा) इस प्रकारके परिग्रहका प्रमाण करके (पर द्रव्यं न दिष्टते) उसके सिवाय परके द्रव्यपर दृष्टि न डाले (अमृत असत्य त्यक्तं च) मिथ्या भाव व मिथ्या वचन व मिथ्या आचरण छोडे (तथा परिग्रह प्रमाणं) इस तरह परिग्रह प्रमाण व्रतको पाले।
विशेषार्थ-श्रावकोंका पांचवा व्रत परिग्रह प्रमाण है। इस व्रतको प्रारंभ करते हुए जन्मप. यतके लिये क्षेत्र मकान आदि परिग्रहका प्रमाण अपनी इच्छाके अनुसार करले। फिर आगे जितनी जितनी इच्छा घटे घटाता जावे। ११वी प्रतिमा तक सर्व इच्छा मिट जानेसे एक लंगोट मात्र परिग्रह रह जाती है। ऐसा प्रावक अपने पुण्य योगसे प्राप्त सम्पत्तिमें संतोष रखे, परके द्रव्यकी चाह न करे और न मिथ्या संकल्प धनके कमानेका करे न वचन कहकर धन कमावे न मिथ्या अन्यायरूप व्यवहार करके धन कमाये । परिग्रह प्रमाण व्रती बहुत ही संतोषसे रहे। अपने धनकी मर्यादा पूरी करनेके लिये अन्यायसे धन संग्रहका विचार भी न करे । आवश्यक्तानुसार परिग्रह रखते हुए भी अन्तःकरणसे निमोही रहे।
V॥२५॥
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वारणतरण
श्रावकाचा
॥४२६॥
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श्लोक-एता तु क्रिया संयुक्तं, सम्यक्तं साई ध्रुवं ।
ध्यानं शुद्ध समयस्य, उत्कष्टं श्रावकं ध्रुवं ॥ ४४४॥ अन्वयार्थ (एता तु क्रिया संयुक्त) इन ऊपर लिखित क्रियाओंको जो भलेप्रकार पालता हुआ उन्नति करे (धु सम्यक्तं साई) निश्चल सम्यग्दर्शन साथमें रक्खे (शुद्ध समयस्य ध्यानं ) तथा शुद्ध आत्माका ॐ ध्यान करे (भु उत्कष्टं श्रावकं ) वही निश्चयसे उत्कष्ट श्रावक होता है।
विशेषार्थ,-ग्यारह प्रतिमाओंकी क्रिया बताई हैं उन सबको यथायोग्य साधन करता हुआ 2 तथा पांच हिंसादि अणुव्रतोंकी भलेप्रकार उन्नति करता हुआ जो श्रावक शुद्ध सम्यग्दर्शन सहित
वर्ते। न सम्यक अतीचार लगावे, न बारह व्रतोंमें अतीचार लगावे। मुख्य लक्ष्य शुद्धात्माके ध्यान
पर रक्खे । वशी उत्कृष्ट श्रावक है। यही अडा रक्खे कि बाहरी चारित्र मोक्षमार्ग नहीं है किंतु ४ अंतरंग निश्चय मोक्षमार्गका निमित्त साधक होनेसे उसे भी व्यवहार मोक्षमार्ग कह देते हैं। वह
श्रावक शुभोपयोग रूप व्यवहार चारित्रको हेय समझता हुआ उपादेय न समझता हुआ मात्र आलम्बन जालके सेवता है परंतु जो निश्चय रत्नत्रय स्वरूप आत्मध्यानको ही मोक्षमार्ग समझ उसीका ही निरंतर अभ्यास रखता है। परिणामोंमें वीतरागता आवे शुद्वात्मानुभव हो उसीको समझता है कि मैंने जो कुछ मोक्ष मार्ग वास्तवमें साधन किया है। आत्मज्ञान व आगम ज्ञानकी निर्मलतासे ही उस्कृष्ट श्रावककी महिमा है। यह उत्कृष्ट श्रावक देशाटन करता हुआ अपने जीवनमें अनेक जीवोंको मोक्षमार्गका उपदेश देता हुआ मोक्षमार्गी बनाता है, धर्म रस आप पीता है तथा औरोंको पिलाता है, मुनि तुल्य भावना भाता है।
साधुका चारित्र। श्लोक-साधुओ साधयं लोके, रत्नत्रयं च संयुतं ।
ध्यानं तिअर्थ शुद्धं च, अबद्धं ते न दिष्टते ॥ ४४५॥
॥२६॥
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चारणवरण
श्रावकाचार
४२७॥
अन्वयार्थ—(साधुणो) साधु महाराज (लोके) इस लोकमें (रत्नत्रयं च संयुक्तं ) व्यवहार रत्नत्रय र सहित (ति अर्थ शुद्धं च व्यानं ) निश्चय रत्नत्रयमई शुद्ध ध्यानको (साधय ) साधन करते हैं (तेन ) इस कारणसे वे (अबढ़) बंध रहित व वीतरागी (दिष्टते) दिखाई पड़ते हैं।।
विशेषार्थ-जो व्यवहार सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान व सम्यक्चारित्रके द्वारा निश्चय रत्नत्रयमई शुद्ध आत्मध्यानका साधन करते हैं वे साधु हैं। ये साधु सर्व परिग्रह रहित होते हैं मात्र पीछी कमण्डल रखते हैं। वीतरागमय ही उनकी सर्व चेष्टा दिखलाई पडती है। वे समताभावसे वर्तन करते हैं। निंदा व प्रशंसाम सम भाव रखते हैं। उपसर्ग व परीषहोंको शांतभावसे सहते हैं। जगतके प्रपंचसे बिलकुल उदासीन हैं। ख्यातिलाभ पूजादिकी चाह रहिन शुद्ध धर्म पालते हैं। अवसर पाकर धर्मापदेश देकर भव्य जीवोंको सुमार्ग पर आरूढ करते हैं।
श्लोक-ज्ञान चारित्र संपूर्ण, क्रिया त्रेपन संजुतं ।
पंचव्रत पंच समति, गुति त्रय प्रतिपालकं ॥ ४४६ ॥ अन्वयार्थ (ज्ञान चारित्र संपूर्ण) साधु सम्यग्ज्ञान और सम्यकूचारिखसे परिपूर्ण हैं (पन किया संयुतं) त्रेपन श्रावककी क्रिया सहित हैं (पंचवत पंच समति) पांच महावत पांच समिति (गुप्ति त्रय प्रतिपालक) और तीन गुप्तिके पालनेवाले हैं।
विशेषार्थ-निग्रंथ जैन साधु शास्त्र ज्ञाता व आत्मज्ञानी होते हैं। पूर्ण चारित्रके अभ्यासी होते हैं। जहांतक श्रावक थे चारित्र अपूर्ण था । श्रावककी श्रेपन क्रिया साध चुके हैं, मुनिपद में भी जो जो योग्य हैं, उनको अब भी साधते हैं। वे ५३ क्रियाएँ ३८ मूलगुण + १२ व्रत + १२ तप + समताभाव+११ प्रतिमा+४ दान+जल गालन+रात्रि भोजन त्याग+ रत्नत्रय धर्म तीन कुल ५३॥
इनमें १२तप, समताभाव, रात्रिभुक्ति त्याग, रत्नत्रय इनका अभ्यास साधुपदमें भी रहता है। दानमें ज्ञानदान व अभयदान साधु देते हैं। शेष नियम आरम्भ त्याग होनेसे आवश्यक नहीं हैं। उनसे जो आवश्यक है, वे तेरहप्रकार साधुके चारित्रमें गर्मित हैं। पांच महाव्रत-अहिंसास्थावर व स सर्व जन्तुओंकी पूर्णपने रक्षा करना। कोई प्रारम्भी क्रिया भी नहीं करना। २सत्यं सदा शास्त्रोक्त वचन स्वपर हितकारी कहना । प्राण जानेपर भी असत्य न कहना । ३-
४
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कारणवरण
४४२८||
अचौर्य - विना दी हुई वस्तु जल आदि भी व वृक्षका पत्ता आदि भी कभी नहीं लेना । ४- ब्रह्मचर्य - मन, वचन, काय कृतकारित, अनुमोदनासे ९ प्रकार शीलव्रत पालना । देवी, तिर्थचनी, मनुष्यणी व काष्ट चित्रामकी स्त्रियोंसे पूर्णपने चैरागी रहना। उनकी संगतिसे बचना जिससे कामविकार हो । ५- परिग्रह त्याग — क्षेत्र, मकान, वस्त्रादि परिग्रहका त्याग कर नग्न होकर तप करना, मात्र धर्म साधक उपकरण रखना । जैसे जीव रक्षा हेतु मोरपिच्छिका, शौच के लिये काष्टके कमण्डल में जल व ज्ञानके लिये शास्त्र ।
पांच समिति - ईर्ष्या - चार हाथ भूमि निरखकर दिनमें रौंदे हुए मार्ग में समभावसे गमन करना । २- भाषा–शुद्ध मिष्ठ अल्प वचन कहना । ३ - एषणा- शुद्ध भोजन जो उनके उद्देश्य से न बनाया हो, गृहस्थने अपने लिये बनाया हो उसमेंसे भिक्षाविधिपूर्वक दिये जानेपर संतोष से दिन में एकवार लेना, हाथमें ही ग्रास लेना । ४ - आदाननिक्षेपण - अपना शरीर, पीछो, कमण्डल, शास्त्रादि देखकर उठाना व धरना । ५- प्रतिष्ठापना मल मूत्रादि शरीरका मल निर्जंतु भूमिपर क्षेपण करना । तीन गुप्ति- मन- में धर्मध्यान रखना, आर्त व रौद्रध्यानसे व सांसारिक चिंता से बचाना । वचन - मौन रहना, यदि कहना पड़े तो धर्म साधक वचन कहना । काय-शरीरका निश्चल रखना, देख करके व झाड करके आसन बदलना, आलस्यरूप न रहना, दो घडीसे अधिक लगातार न सोना इन ११ प्रकार चारित्रको साधुगण भलेप्रकार पालते हैं ।
श्लोक – चारित्रं चरणं शुद्धं, समय शुद्धं च उच्यते ।
संपूर्ण ध्यान योगेन, साधओ साधु लोकयं ।। ४४७ ॥
मन्वयार्थ - (साधु लोकमं) साधु महाराज ( शुद्धं चारित्रं चरणं ) शुद्ध निर्दोष व्यवहार व निश्चय चारित्रको पालते हैं (समय शुद्धं च उच्यते ) निश्चय चारित्र शुद्ध आत्मा रूप कहा जाता है (संपूर्ण ध्यान योगेन साधयो) उसे पूर्णपने ध्यान समाधि द्वारा साधन करते हैं।
विशेषार्थ – निर्भथ साधुगण तेरह प्रकार चारित्रको निर्दोष पालते हुए मुख्य शुद्ध आत्मा के अनुभव रूप स्वरूपाश्चरण या मिश्चप चारित्रपर ध्यान रखते हैं। पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत sulah अभ्यास से नाना प्रकार कठिन स्थानोंमें तिष्ठकर परम वैराज्यके साथ निज आत्माका अनु
॥ ४२८ ॥
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श्रावकाचार
पारणवरण
१४२९॥
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भव करते हैं। उपसर्ग परीषहोंको शांत भावसे सहन करते हैं। ध्यानके द्वारा निश्चय चारित्रकी ४ पूर्णता करते हैं ऐसा साधन करते हैं। धर्मध्यानको पूर्ण करके फिर श्रेणी चढनेकी योग्यता होनेपर उपशम था क्षपक श्रेणी पर चढके शुक्लध्यानका अभ्यास करते हैं। अरहंत पदपर जाकर सिद्ध होनेकी भावना साधुगण सदा रखते हैं।
श्लोक-सम्यग्दर्शनं ज्ञानं, चारित्रं शुद्ध संयमं ।
जिनरूपं शुद्ध द्रव्याथ, साधओ साधु उच्यते ॥ ४४८॥ अन्वयार्थ-जो (सम्यग्दर्शनं ज्ञानं चारित्रं ) सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यग्चारित्रको (शुद्ध संयम ) शुद्ध संयमको (जिनरूपं) जिनेन्द्र के स्वरूपको (शुद्ध द्रव्यार्थ) शुद्ध आत्म द्रव्यके भावको (साधओ) साधन करते हैं वे (साधु उच्यते) साधु कहलाते हैं।
विशेषार्थ—जो साधन करै वह माधु है। मोक्षकीपिद्धिके लिये जो मोक्षमार्ग साधै वह साधु है। जिसके और कोई तीन लोकके किमी पर्यायकी सिद्धिकी भावना नहीं है। इन्द्र अहमिंद्र चक्रवर्ती
आदि क्षणभंगुर पदोंसे जो उदास है। सिद्ध होनेके लिये वे साधु दृढतासे अपने श्रद्धानको शुद्ध * दोष रहित रखते हैं यह सम्यग्दर्शनका साधन है। शास्त्रोंका रहस्य बडे भावसे विचारते रहते हैं।
ज्ञानकी उन्नति करते रहते हैं। वह सम्यग्ज्ञानका साधन है। तेरह पकार चारित्रको दोष रहित
पालते हैं यह सम्यक्चारित्रका साधन है। पांच इंद्रिय व मनका दमनरूप इंद्रिय संयम तथा षट्र कायके जीवोंकी रक्षारूप प्राणि संयम इन दो प्रकार संयमको अथवा सामायिक, दोपस्थापना
आदि संयमको शुद्धताके साथ साधन करते हैं। जिनेन्द्रका स्वरूप ध्यानमें लेकर उसी तरह आप वर्तन करते हुए अरईत होने की भावना करते हैं तथा शुद्ध द्रव्यार्थिकनयके आलम्बनसे शुख आत्माका मनन करते करते शुद्धोपयोगमें जमनेका साधन करते हैं। जो इतनी क्रिया सावे वह साधु है।
श्लोक-ऊर्द्ध अधो मध्यं च, लोकालोक विलोकित ।।
आत्मानं शुद्धात्मानं, महात्मा महाव्रतं ॥ ४४९॥ अन्वयार्थ-ऊर्द्ध भयो मध्यं च) ऊपर नीचे व मध्यमें सपतीन लोकमें (लोकालोक विलोकित) लोका"
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व अलोकको देखनेवाले (वात्मानं) आत्माको (शुदात्मानं ) अर्थात गुडात्माको जो ध्यावे यही (महात्माँ महाव्रत) महान आत्मा साधुका महावत है।
विशेषार्थ-बत नाम प्रतिज्ञाका है। साधुओंके यही दृढ प्रतिज्ञा है कि वे शुखात्माको ध्यावे। जो सर्वज्ञ वीतराग प्रभु हैं, उस रूप अपने आत्माको द्रव्य दृष्टिसे जानकर निज आत्माकी एकाग्र हो ध्यान करे। तीन लोक भरे हुए सर्व आत्माओंको शुद्ध नयके पलसे जो शुखात्मा देखें । सर्व
जगतके जीवोंको एक आत्मामय देखें । परम समताभावमें लय होजावे यही परमसामायिक हैव * यही निश्चय महावत है। यदि यह महाब्रत न हुभा और मात्र बाहरी पांच महाव्रत पाले गए तो
मोक्षका साधन नहीं हुआ। वास्तवमें शुद्धात्माके अनुभवको ही मोक्षका साधन कहते हैं यही साधुका चारित्र है। इसको जो साधे वही साधु है।
श्लोक-धर्मध्यानं च संयुक्तं, प्रकाशनं धर्म शुद्धयं ।
जिन उक्तं यस्य सर्वज्ञ, वचनं तस्य प्रकाशनं ॥ ४५० ॥ अन्वयार्थ-(धर्मध्यानं च संयुक्तं) वे साधु धर्मध्यान सहित रहते हैं (शुद्धयं धर्म प्रकाशनं ) शुद्ध दोष रहित धर्मका प्रकाश करते हैं। ( सर्वज्ञं वचन) सर्वज्ञ भगवानका कथन (यस्य जिन उक्तं ) जिसको जिते. न्द्रिय साधुओंने कहा हो, गणधरोंने बताया हो (तस्य प्रकाशनं ) उसीका ही प्रकाश करते हैं।
विशेषार्थ-जैनके साधु बडे विनयवान हैं, वे जिनेन्द्रकी आज्ञानुसार चलनेवाले होते हैं। आप में स्वयं चार प्रकार धर्मध्यान ध्याते हैं।
-आज्ञा विचय-जिनेन्द्रकी आज्ञाके अनुसार छः द्रव्य पांच, अस्तिकाय, सात तत्व, नौ पदार्थका विचय करना । २-अपाय विचय-अपने रागादि दोषोंका व जगतके प्राणियोंके मिथ्यास्वादि दोषोंका किस तरह नाश हो यह विचारना। -विपाक विचय-अपनेमें व दूसरोंमें साता व असाताकारी अवस्थाओं को देखकर कौनसे कर्मका विपाक है या फल है ऐसा विचारना । ४संस्थान विचय-तीन लोकका स्वरूप, सिद्ध लोकका स्वरूप व अपने ही आत्माका ध्यान करना। पिंडस्थादि चार ध्यान इस संस्थानविचय धर्मध्यानमें गर्भित हैं। जैसे वे साधु स्वयं निर्दोष धर्मका साधन करते हैं वैसे ही वे जगतके प्राणियोंको प्रकाश करते हैं। जिन वचनोंपर उनका विश्वास है
॥३०॥
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वारणतरण
॥४३१७
कि यह श्री सर्वज्ञ वीतराग अईन भगवानकी परम्परासे कहा हुआ यथार्थ है उसी हीका वे उपदेश देते हैं । परम साम्यभावसे व मायाचार न करके जो जिनेन्द्रकी आज्ञा है उसीके अनुसार कथन करते हैं वे ही जैन के साधु हैं।
श्लोक – मिथ्यात्वं त्रय शव्यं च, कुज्ञानं त्रिति उच्यते ।
रागदोषादि येतानि, व्यक्तंते शुद्ध साधवः ॥ ४५१ ॥
अन्वयार्थ – ( मिथ्यात्वं ) मिथ्यादर्शनको (त्रय शल्यं च ) तीन शल्य, माया मिथ्या निदानको ( कुज्ञानं त्रिति उच्यते) तीन कुज्ञान कहे जाते हैं उनको ( रागदोषादि) रागद्वेषादि विभावोंको (येतानि ) इन सबको (शुद्ध साधवः) शुद्ध साधु महाराज (त्यचंते ) छोड देते हैं ।
विशेषार्थ – निर्दोष साधुका चारित्र पालने वाले के भीतर न तो बहिरंग न अंतरंग मिथ्यात्व है न वहां कोई मायाचार व निदानका भाव होता है। वह कपट रहित व भोगोंकी इच्छा रहित होकर साधु धर्म पालता है । कुमति, कुश्रुत, कुअवधि तीन कुज्ञान नहीं होते हैं । सम्यक्त के प्रभाव से उसका सब ज्ञान सुज्ञान रूप होता हैं, रागद्वेषादि भावोंको जीतता हुआ साधु जिनधर्मको पालकर आत्माकी उन्नति करता है।
श्लोक - अप्पं च तारणं शुद्धं, भव्यलोकै कतारणं ।
शुद्धं च लोक लोकांतं, ध्यानारूढं च साधवः ॥ ४५२ ॥
अन्वयार्थ—( अप्पं च तारणं शुद्धं ) अपने आपको शुद्धतासे जो तारनेवाले हैं ( भव्यलोकै कतारणं ) तथा भव्य जीवोंके भी वे तारनेवाले हैं (लोकांतं शुद्धं च लोकं ) लोक पर्यंत शुद्ध द्रव्यको ही देखनेवाले हैं (ध्यानारूढं च साघवः ) ऐसे साधु ध्यान में आरूढ रहते हैं ।
विशेषार्थ – निर्बंध साधु तारणतरण होते हैं। जैसे जहाज आप तैरता है व बैठने वालेको तार लेजाता है वैसे ही साधु स्वयं अपने आत्माका साधन करते हैं और अपने उपदेश व शिक्षासे अनेक भव्योंको मार्गमें लगा देते हैं, जो परम समताभावके धारी हैं, सर्व हो लोकमें भरो आत्माको शुद्ध रूपसे एकाकार देखनेवाले हैं तथा जो ध्यानका अभ्यास उत्तम प्रकारसे कहते रहते हैं ।
श्रावकाचार
LETETE
॥ ४३१
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वारणतरण
॥४३॥
शोक-मननं शुद्ध भावस्य, शुद्ध तत्वं च दिष्यते ।
श्रावकार सम्यग्दर्शनं शुद्धं, शुद्ध तिअर्थ संयुतं ॥ ४५३ ।। अन्वयार्थ (शुद्ध भावस्य मननं ) वे साधु शुद्ध आत्मीक भावका मनन करते हैं (शुद्ध तत्वं च विष्टते) शुद्ध आत्म तत्वका अनुभव करते हैं (सम्यग्दर्शनं शुद्ध) जिनके निर्दोष वीतराग सम्यग्दर्शन होता है। ४. (शुद्ध तिअर्थ संयुतं ) वे तीनों रत्नत्रय सहित शुद्ध भावके धारी होते हैं।
विशेषार्थ-निग्रंथ साधुका मुख्य ध्यान आत्माकी तरफ रहता है, वे अध्यात्मीक ग्रन्थोंका विशेष मनन करते रहते हैं तथा शुखात्माके ध्यानको भलेप्रकार अनुभवमें लाते हैं। शुद्ध सम्यक्तको रखते हुए शुद्ध रत्नत्रय स्वरूप आत्मीक भावको ध्याते हैं। जैनके साधु परम निस्पृही व परम वीतरागी होते हैं। शुडात्माकी चर्चा सिवाय और चर्चा जिनको नहीं सुहाती है। वे आत्मरसके रसीले होते हैं। वे भलेप्रकार मोक्षमार्गपर चलते हैं।
श्लोक-रत्नत्रय शुद्ध संपूर्ण, संपूर्ण ध्यानारूढयं ।
रिजु विपुलं उत्पादंते, मनःपर्ययज्ञानं ध्रुवं ॥ ४५४ ॥ अन्वयार्थ (रत्नत्रय शुद्धं संपूर्ण) वे साधु शुद्धतामे रत्नत्रय धर्मकी पूर्ति करते हैं। (संपूर्ण ध्यानारूढयं) ४ पूर्ण प्रकारसे ध्यानमें लगे रहते हैं। जिसके प्रतापसे (रिजु मनःपर्यय ज्ञानं ध्रुवं विपुलं उत्पादते ) साधु रिजु मनापर्यय ज्ञानको व निश्चल विपुल मति मनापर्यय ज्ञानको पालेते हैं।
विशेषार्थ-आत्मध्यानके प्रतापसे साधुको बडी बडी ऋडियां सिद्ध होजाती हैं। शुद्ध ध्यान जहां होता है वहां किसी माधुको ऋजुमति मनापर्यय ज्ञान पैदा होजाता है जिसके प्रतापसे साधु * प्रत्यक्ष रूपसे दूसरों के मन में तिष्ठे हुए वर्तमान के सूक्ष्म विषयको जान लेता है। यह मनःपर्यय ज्ञान ४
छूट भी सक्ता है। किसी साधुके ध्यानके बलसे विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान होजाता है यह छूटता नहीं है। केवलज्ञानको अवश्य उत्पन्न करता है। तद्भव मोक्षगामीके ही यह विपुलमति मनापर्यय ज्ञान होता है। यह दूसरेके मनमें तिष्टे हुए वर्तमान कालके व भूत व भविष्य कालके भी प्रदार्थोको ४ जान सक्ता है।
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वारणतरण
१४१७
श्लोक - वैराग्यं त्रितयं शुद्धं, संसारं त्यक्तयं तृणं ।
भूषण रत्नत्रयं शुद्धं, ध्यानारूढ स्वात्मदर्शनं ॥ ४५५ ॥
अन्वयार्थ – (वैराग्यं त्रितयं शुद्धं ) जिन साधुओंके वैराग्य संसार शरीर भोगों से तीन तरहका निर्मल है (संसारं तृणं त्यक्तयं ) संसारका मोह तृणके समान जानके जिन्होंने छोड दिया है (भूषण शुद्धं रत्नत्रयं ) जिनका आभूषण निर्दोष रत्नत्रयका सेवन है (ध्यानारूढ स्वात्मदर्शनं) ऐसे साधु ध्यानमें आरूढ रहते हुए अपने आत्माका अनुभव करते हैं ।
विशेषार्थ – संसार असार है दुःखोंका घर है, जन्म जरा रोग से पीडित है । शरीर अशुचि है । नाशवंत है, राग योग्य नहीं है, भोग रोगके समान आतापके बढानेवाले है कभी तृप्ति देनेवाले नहीं हैं। ऐसा समझकर जिनके भावोंमें इन तीनोंसे पूर्ण वैराग्य है तथा जो संमारके पदार्थों का सम्बन्ध तृणके समान तुच्छ समझते हैं, अकिंचित्कर जानते हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्पकुचारित्रको जिन्होंने अपने आत्माका आभूषण बनाया है जो निरन्तर ध्यानमें आरूढ होकर आत्माका आनन्द लेते हैं वे ही सच्चे साधु ।
श्लोक – केवलं भावनं कृत्वा, पदवी अर्हत् सार्थयं ।
चरणं शुद्ध समयं च, भावनानंत चतुष्टयं ॥ ४५६ ॥
अन्वयार्थ — ( केवळं भावनं कृत्वा ) साधु महाराज केवलज्ञानकी प्राप्तिकी भावना भाते हैं (भावनानन्त चतुष्टयं ) तथा अनन्त चतुष्टयको भावना करते हैं ( पदवी अर्हत् सार्थयं ) यथार्थ अत्पदका उद्देश्य रखते हैं इसीलिये (शुद्ध समयं च चरणं ) शुद्ध आत्माका अनुभव करते हैं ।
विशेषार्थ – साधुओंके मात्र यही भावना है कि हम अर्हत् परमात्माका पद प्राप्त करें। जिससे अनंत दर्शन, अनंतज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य इन चार अनंत चतुष्टयका प्रकाश होजावै । इसीलिये वे शुद्ध आत्माका निश्चय चारित्र पालते हैं । अर्थात् शुद्धोपयोगमें तल्लीन रहते हैं, धर्मध्यान करते हैं, फिर शुक्लध्यान ध्याते हैं जिससे चार घातीय कमौका नाश कर सकें ।
५५
HETETHE
॥ ४३३॥
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पारणवरण ॥१४॥
श्लोक-साधओ साधुलोकेन, तव व्रत क्रियासंजुतं ।।
श्रावकाचार साधओ शुद्ध ज्ञानस्य, साधओ मुक्तिगामिनो ॥ ४५७ ॥ अन्वयार्थ-(साधुलोकेन) साधु महाराज (क्रिया संजुतं तव व्रत साधओ) क्रिया सहित तप व ब्रतको साधनेवाले हैं व (शुद्ध ज्ञानस्य साधओ) शुर ज्ञानके माधनेवाले हैं।(साघओ मुक्तिगामिनो) ऐसे साधु मोक्षगामी हैं।
विशेषार्थ-निर्गय साधु शास्त्रोक्त मार्गसे विधि सहित अनशनादि बारह व्रतोंका तथा पंच महावतोंका साधन करते हैं। व्यवहार चारित्रके बलमे शुखात्माका ध्यान बढाते हैं। ध्यानके बलसे ज्ञानकी खन्नति करते चले जाते हैं। ऐसे ही मधु अवश्य मोक्षका लाभ करते हैं।
श्लोक-अहंतं अहं देवं, सर्वज्ञं केवलं ध्रुवं ।
नंतानंत दिष्टं च, केवल दर्शन दर्शनं ॥ ४५८॥ अन्वयार्थ (अर्हतं अहं देवं) अगन भगवान ही पूजने योग्य देव हैं (सर्वज्ञ केवलं ध्रुव) सर्वज्ञ हैं स्पधीन हैं, निश्चल हैं ( नन्तानन्त विष्टं च ) अनन्तान लाकालोकके सर्व पदार्थों को जाननेवाले हैं। (केवल दर्शन वर्शनं ) केवल दर्शन व सम्यक्त धारी हैं।
विशेषा-माधु महाराज जिस पदकी भावन भाते हैं वह शरीर सहिन जीवन्मुक्त परमा. साका पद अनपद है। जहां निर्मल ज्ञान स्वाधीन लोकालोक प्रकाशक व निर्मल दर्शन स्वाधीन १ लोकालोक दर्शक गट जाता है। मीणघर व, मुनिराज व चक्रवर्ती. महाराजा, राजा इन्द्र धरणेन्द्र उन ही की भक्ति करने हैं उन मामाक गुण अनंतकाल के लिये प्रगट होगए नपर पुन: आरण न आनेहै। आयुग्माण शरीरमें है फिर अवश्य सिद्ध होजायेंगे।
श्लोक-मिद्धं मिद्धि संयुक्तं, अष्ट गुणं च संयुतं ।
अनाहतं त्यक्तरूपेण, सिद्धं शाश्वतं ध्रुवं ॥ ४५९ ॥ अन्वयार्व-(सिद्ध) मिड भगवान (सिद्ध संयुकआत्माकी सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं (अष्ट गुणं च संयुतं) आठ गुणों काके भूषित अनाहत) अव्यावाध (त्यक्तरूपेण सिद्धं) त्यक्त रूपसेपगटपने सिख हैं (शाश्वतं) अविनाशी (ध्रुवं निबल हैं।
॥४२४
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Reccccckerelerk ELECRELEGEGEGEGarekkerse
विशेषार्थ-अहित भगवानके चार अघातीय कर्म, नाम, गोत्र, वेदनी. आयु शेष रहते हैं वे इन कर्माको नाश करके सर्व देहादिरहित मात्र शुद्ध आत्मा रूप रह जाते हैं। उनके आठ प्रसिद्ध
श्रावसाचार गुण प्रगट होजाते हैं। सम्यग्दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अन्यायाध पना, सूक्ष्मत्व, अवगाइना. गुरुलधु । इमके सिवाय वचनातीत अनन्लगुण धारी सिद्ध है। कोई प्रकास्की पाधा जिनको नहीं होसकी है। जिनकी आत्मा प्रकाशमान होगई है। फिर कभी उनकी आत्मापर परदा नहीं आएगा। वे सदा ही शुद्ध रहेंगे। व आवागमन रहित सिद्धालयमें लोकके अग्रभागमें विराजमान रहेंगे। साधु महाराज ही ध्यानके बलसे ऐसे सिर पदको पासक्के हैं।
श्लोक-परमेष्ठी शरणं कृत्वा, शुद्ध सम्यक्त धारिनः।
ते नरा कर्म क्षपयंति, मुक्तिगामी न संशयः ॥१६॥ बन्धयार्थ—(परमेष्ठी शरणं कृत्वा ) जो पांच परमेष्ठीका शरण ग्रहण करके (शुद्ध सम्यक्त धाग्निः). शुर सम्यग्दर्शनके धारी हैं (ते नरा) वे मानव (कर्म क्षपयंति) काँका नाश करते हैं। (मुक्तिगामी न संशयः) व मोक्ष जानेवाले हैं इसमें संशय नहीं है।
विशेषा-मोक्ष प्राप्तिका मुख्य मूल साधन यह है कि अति सिद्ध आचार्य उपाध्याय तथा साधु इन पांच परमेष्ठीकी भक्ति पूजा वंदना स्तुति व उनके गुणोंका मनन भलेप्रकार किया जावे तथा शुखात्माका पक्का रान करके शुर सम्पत प्राप्त किया जावे। शुद्ध सम्यक्त ही आस्मध्यानको बढानेवाला है और शनैः शनैः गुणस्थानोंके क्रमसे शुद्ध करता हुआ सिद्ध परमात्मा बना देता है, यह नि:संदेह है।
लोक-त्रिविधि ग्रंथं च प्रोक्तं च, साथ ग्यानमयं ध्रुवं ।
धर्मार्थ काम मोक्षं च, प्राप्तं परमेष्ठिनं नमः ॥ ४६१ ॥ जन्ववा-(त्रिविषि ग्रंथं च प्रोक्तं च) तीन प्रकार ग्रंथ कहा गया है ( साथै ग्यानमयं ध्रुवं) शब्द रूप अर्थरूपवज्ञानमय सो ध्रुव है (धर्मार्थ काम मोक्षं त्र) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थोकी सिरिका बतानेवाला(प्राप्तं परमेष्ठिन) व पांच परमेष्ठी पदको प्राप्त करानेवाला है (नमः) उसको नमस्कार हो।
॥५॥
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वारणवरण
४४३६।।
विशेषार्य-प्रन्थकर्ता प्रवाहरूपसे अनादिसे चले आए हुए जिन आगमको नमस्कार करते हैं । जिन आगम तीन प्रकार है-शब्दागम, अर्थागम, ज्ञानागम । अक्षरोंका समूह जिनमें पदार्थोंका स्वरूप लिखा गया हो वह शब्दागम है। इनमें जो पदार्थ समूह वर्णित है वह अर्थागम है। उन पदाचौका जो ज्ञान है वह ज्ञानागम है। ऐसे जिन आगमके द्वारा धर्मका उपाय मालूम होता है जिस धर्मकी सहायता से ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थोंकी सिद्धि होती है तथा अरहंत, सिख, आचार्य, उपाध्याय, साधुके पद भी इसी आगमके अनुसार चलने से प्राप्त होते हैं। यह जिनागम परम कल्याणकारी है। जिनको सुख की इच्छा हो व मानव जन्मको सफल करना हो उनके लिये उचित है कि वे चित्त लगाकर जिनागमका भलेप्रकार अभ्यास करें ।
श्लोक - परमानंद आनंदं, जिन उक्तं शाश्वतं पदं ।
एकोदेश उपदेश च, जिनतारण पंथं श्रुतं ॥ ४६२ ॥
मन्वयार्थ (जिन उक्तं शाश्वतं पदं ) जिनेन्द्र भगवान कथित अविनाशी मिड पद ( परमानंद आनंद ) परमानन्दसे भरपूर है (एकोदेश उपदेश च) उसको एकदेश किंचित् उपदेश करनेवाला (निवारण पंथ श्रुतं) यह संसारखे तारनेवाला जिन मार्ग रूपी शास्त्र है अथवा जिन भक्त तारणतरण रचित यह शास्त्र है। विशेषार्थ - शास्त्र के कहनेका उद्देश्य यही है कि प्राणियों को अविनाशी सिद्ध पदकी प्राप्ति हो, उसीका जिसमें उपदेश हो वही शास्त्र है। जिन तारणतरण स्वामी रचित यह शास्त्र है इसमें थोडासा उपदेश मोक्षप्राप्तिका कहा गया है। जो कोई भव्य जीव इस शास्त्रको पढेंगे, मनन करेंगे उनको संसारसे उद्धारक मोक्षमार्गका ज्ञान होगा । इस ग्रंथ में मुख्यता से श्रावकाचारका कथन है इसी कारण इसमें एकोदेश मार्गका या अणुव्रतोंका उपदेश है। मोक्षका पूर्ण साधक साधुधर्मका उपदेश है उसकी इसमें गौणता है ।
• इति श्रावकाचार ग्रंथकी जिन तारणतरण र सं० २४९८ विक्रम सं०
बिरचित हिन्दी टीका पूर्ण की, मिती आश्विन सुदी १० रविवार १९८८ वा ९ अक्टूबर १९३२ सागर (सी० पी०) ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद |
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श्रावकाचार
॥४३६॥
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पावसाचार
३n
टीकाकारका परिचय। अग्रवाल कुल वैश्यमें, गोयल गोत्र महान ।
लक्ष्मणपुर अवधहि वसे, नगर सुमृत धन धान॥१॥ लाला मक्खनलालजी, पुत्र तृतीय जिनदास ।
विक्रम मिस पैनिसा, जन्म सुकार्तिक मास ॥२॥ सीतल नाम धरै सुभग, करै सुविद्याभ्यास।
बत्तिस वय अनुमानमें, तज ग्रहहो वृषदास ॥३॥ भ्रमत धरत मावक सुबत,पालत चित खमणाय ।
जैन शासको पढत नित, धर्म ध्यान पर ध्याय ॥४॥ विक्रम सनिस शतक पर, मम्वासी शुभ जान ।
वर्षाकाल विताइयो, सागर नगर महान ॥५॥ मध्य प्रान्त विच राज ही, गिरि मंडल दरम्यान ।
। सागर सम सर शोभता, ता तट पुर पहजान ॥६॥ जैनी जन बहुवसत कर वाणिज्य प्रधान ।
जिन मंदिर शोमैं महा, शिषरवंद बहु जान ॥७॥ आठ बखे बाजारमें, कटरामें त्रय जान ।
काका गंज शनीचरी, निली माहिंजय मान ॥८॥ सारणतरण समाज कृत, चैत्यालय सुखदाय ।
धरत शास्त्र वेदीन पर, पूजत पढत स्वाध्याय ॥९॥ मोराजी पर राजती, संस्कृत शाला एक।
. परदेशी बहु छात्र तई, पंडित बनत अनेक ॥१०॥
I
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४४३८॥
वर्णी न्यायाचार्य हैं, नाम .. गणेशमसाद ।
दयाचन्द पंडित प्रवर, देत ज्ञान अप्रमाद ॥११॥ मोलापूरव तीनसो, परवारोंके साठ।
जाति समैया तीस घर, गोलालारे आठ ॥१२॥ पन्द्रह विनैकवालके, जैन दिगम्बर धर्म।।
सेवत शक्ति प्रमाण जानत धर्म अधर्म ॥१६॥ सिंघई कुन्दनलालजी, रतनलाल सुवकील।
पण्डित मुन्नालालजी, हुकमचन्द बनवीर ॥१४॥ धर्मचन्द मोदी लसै, मुन्शी भयालास। ..
पूरणचन्द बजाज हैं, सिंघई झुन्नीलाल ॥१५॥ नाथूलाल विशाखिया, मूलचन्द सुखवान ।
नन्हेंलाल बजाज हैं, मोहनलाल सुजान ॥१७॥ हुकमचन्द हैं जौहरी, पण्डित हैं मूलचन्द ।
डालचन्द सिंर्घा खस, शिक्षक हैं मूलचन्द ॥१७॥ परोपकार व्रत धारते, हैं मथुराः परसाद ।
बालचन्द कोछल बसें, और गणेशप्रसाद ॥१८॥ भजनानन्दी आत्म-प्रिय, नाथूराम गृहस्थ। '
वृषधारीके संगमें, रहा सदा हो स्वस्थ ॥१९॥ भविजिन तारणतरण कृत, श्रावकाचार महान।
ताकी भाषा बचानका, लिखी धर्म कचि आन ॥२०॥ पढो विचारो जैनगण, शुर कथन सुखकार ।
जैन दिगम्बर धर्मधर, मुनिवर पच अनुसार ॥२१॥
Ivaca
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श्रावकाचार
॥९॥
अध्यातम रस पूर्ण है, मिथ्यात्व कृपान ।
जो बांचें मन लायके, पावै आतमध्यान ॥२२॥ बुद्धि नहीं पर धर्म रुचि, तावश टीका कीन ।
भूलचुक जो हो सुधी, करौ शुद्ध रुषहीन ॥२३॥ मंगल श्री अरहन्त है, मंगल मिर महान ।
मंगल श्री प्राचार्य हैं, मंगल उवज्ञान ॥४॥ मंगल साधु महंत हैं, मंगल है जिनधर्म ।
- मन पच तन सेवा करत, भागत है सब भर्म ॥ २५ ॥ मङ्गल हो या नगरको, सुखी रहें सब लोक ।
आत्म ज्ञानको पायके, करें स्वहित परलोक ॥२६॥ सब साधी जननी, यादै म अपार ।
धर्म अहिंसा जगमगै, हो प्रभावना सार ॥२७॥ विद्याका विस्तार हो, अर्थ काम वृष पाल।
"सुखसागर" में लीन हों, करें दुस-जंजाल ॥२८॥ आश्विन सुद दशमी दिना, है रविवार महान ।
ग्रन्थ पूर्ण तादिन कियो, श्री जिनवर कर ध्यान ॥२९॥
समाप्त।
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-
श्री तारणतरण श्रावकाचार ।
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स्वर्गीय पण्डित शिरोमणि टोडरमल्ल जी
विरचित ।
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श्री मोक्ष मार्ग प्रकाशक।
श्री वीर निर्वाण संवत् २४५१ ।
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न्यौछावर-पाँच रुपया।
प्रकाशक-पन्नालाल चौधरी ।
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पं0 जानकी शरण त्रिपाठी द्वारा, "सूर्य' प्रेस, काशी में मुद्रित ।
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प्रकाशक का निवेदन । श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ का प्रथम संस्करण वीर निर्वाण सम्बत् २४२४ के लगभग श्रीयुत बोबू ज्ञानचन्द जी जैनी लाहौर ने और दूसरा संस्करण वीर निर्वाण सम्वत् २४३८ में बम्बई के सुप्रसिद्ध जैन ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय से श्रीयुत् पं० नाथूराम जी प्रेमी ने प्रकाशित किया था। ग्रन्थ की महती उपयोगिता के कारण सब प्रतियां शीघ्र ही समाप्त होगई। और समाज में इसकी मांग बहुत हुई। अतः इस ग्रंथ का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया। और यह ग्रंथ अब तैयार होकर आपके सन्मुख है।
यह मेरा प्रथम प्रयास है। इसलिये इसमें त्रुटियें होना अवश्यंभावी है। विद्वज्जन कृपया सुधार ले। और मुझे भी सूचित करें ताकि यदि चौथा संस्करण हो तो उसमें वे अशुद्धियां न रहे। - ग्रंथकर्ता स्वर्गीय विद्वद्वर पं० टोडरमल जी का जीवनचरित्र इस ग्रंथ के साथ प्रकाशित करने का प्रयत्न हमने भी बहुत किया परन्तु बहुत खोज करने पर भी प्राप्त नहीं हो सका । जो महानुभाव भेजेंगे उनका हम आभार मानेंगे। और प्रथक पुस्तकाकार प्रकाशित करेंगे।
तो भी ग्रंथ पढ़ने से पाठकों को विदित होगा कि ग्रंथकर्ता ने अनेक ग्रंथों के स्वाध्याय और मनन करने के पश्चात सब ग्रंथों का सार खींच कर इस ग्रंथ में रखने का उद्योग किया है। हर एक विषय पर शंका-प्रशंकाएँ स्वयं ही उठाकर छोटी से छोटी शंका का भी विस्तार पूर्वक समाधान इस रीति से इस ग्रंथ में किया है कि वह सर्वसाधारण की समझमें भली भांति उतर जाता है। जो पाठक इस गन्थ का स्वाध्याय करेंगे उन्हें जैन धर्म का यथार्थ रहस्य ज्ञात होगा और वे गन्थकर्ता की मुक्त कंठ से प्रशंसा किये बिना नहीं रहेंगे।
परन्तु शोक है कि ग्रन्थकर्ता इस ग्रन्थ को पूर्ण नहीं कर सके। और काकाल में काल के कोप भाजन हुए। यदि यह गन्थ पूर्ण होता तो परम-पावन जैन धर्म के रहस्य को पूर्ण रीति से स्पष्ट करने में अपने ढंग का एक ही गन्थ होता।
ऐसे सर्वसाधारणोपयोगी गन्थों का प्रकाशित होना आवश्यक समझ कर हमने अब इसी कोटि के सर्वाङ्गपूर्ण गन्थ पंडित प्रवर टेकचन्द जी कृत "श्री सुदृष्टि तरंगणी" के प्रकाशित करने का विचार किया है। यदि श्री जी की कृपा हुई तो यह गन्थ भी शीघ्र ही पाठकों के सम्मुख उपस्थित होगा।
इस गन्थ के प्रकाशन में हमारे परम प्रिय भाग्नेय पं०आनन्द कुमार जी नायक ने हमारी बड़ी सहायता की है। अतएव मैं उनका आभारी हूँ। भदैनीघाट-काशी।।
निवेदकश्रुतपश्चमी वी० सं० २४५१ ।।
पम्नालाल-चौधरी।
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मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्धकी विषय सूची।
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- प्रथम अधिकार--
संयोग कैसे कर सकते हैं ।
... ... ... ३० १ मंगलाचरण . ... ... ... ... १
नवीन बंध कैसे होता है
शान हीन जड़ परमाणु यथायोग्य प्रकृतिरूप होकर अरहंतदेवका स्वरूप
परिणमन कैसे करते है ... ... ... ४२ सिद्धोंका स्वरूप
कर्मों की बंध उदय सत्ता रूप अवस्था ... श्राचार्य उपाध्याय और साधुओका स्वरूप
द्रव्यकर्म और भावकर्म ... ... वर्तमान कालके चौवीस तीर्थंकरोंको, विदेह क्षेत्रके ती
नोकर्मका स्वरूप और उसकी प्रवृत्ति ... थंकरोको, कृत्रिमाकृत्रिम जिनविम्बों को और जैनग्रन्थों
नित्यनिगोद और इतरनिगोद ... ... ... ४७ को नमस्कार
= कर्मवन्धनरूपरोगके निमित्तसे जीवकी अवस्था... ४८ श्ररहंतादि इष्ट क्यों हैं? उनसे जीव का कल्याण किस।
शाजावरण दर्शनावरण कर्म निमित्तक अवस्था, मतिप्रकारहोता है? ... ... ... ...
शानकी पराधीन प्रवृत्ति, श्रुतज्ञान अवधिज्ञान चक्षुदर्शमंगलाचरण करने का कारण ...
न, अचक्षुदर्शनकी प्रवृत्ति, ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोग २ यह ग्रन्थ प्रमाण क्यों है? ...
आदिकी प्रवृत्ति ... ... ... ... ४६ ३ कैसे शास्त्र यांचने सुनने योग्य हैं ?
दर्शनमोहके उदयसे जीवकी अवस्था ... ... ४ यताका स्वरूप ... ... ...
चारित्रमोहके तथा अन्तरायके उदयसे जोधकी अवस्था ५५ ५ श्रोतका स्वरूप ...
4: वेदनीयादि अघाति कर्मजनित अवस्था... ... ६२ ६ मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थकी सार्थकता ...
तीसरा अधिकारद्वितीय अधिकार
1 संसार अवस्थाके नानाप्रकारके दुःखोका वर्णन ६७ ७,कर्मबन्धन रोगका निदान ... ... ... ३२ दुःखके कारण मिथ्यावर्शन अज्ञान छासंयम ... कर्मका सम्बन्ध अनादिकालसे है ... ...
दुःख दूर करने के लिये जीव क्या उपाय करता है रागादि निमित्तक कर्मों के अनादिपनेकी सिद्धि ..... वे उपाय भूठे क्यों हैं ? सांचे उपाय ... अमूर्तीक आत्मासे मूर्तीक कोका बन्ध कैसे होता है ३५ एकेन्द्रिय पर्यायके दुःख ... घातिया अघातिया कर्म और उनके कार्य ...
द्वीन्द्रियादि पर्यायों के दुःख ... जड़फर्म जीवके स्वभावका घात और बाह्य सामग्री का नरकगतिके दु.ख ... ... ...
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१६०
...
... १०४
१६६
२०३
२१६
तियंचगतिके दुःख ...
नैयायिकमत निराकरण
१६१ मनुष्यगतिके दुःख ... ... ... ... १००
वैशेषिकमत निराकरण
१६४ देवगतिके दुःख ... ... ... ... १०२
मीमांसकमत निराकरण दुःखका सासास्यस्वरूप
जैमिनीयमत निराकरण सिद्ध अवस्थामै दु.खों के कारणों का अभाव होनसे वौद्धमत निराकरण
२०० दुःखौका अभाव ... ... ... ... १०७ चार्वाकमत निराकरण चौथा अधिकार
अन्यमतके ग्रन्थोंसे जैनमतकी समीचीनता २०६ १० मिथ्यादर्शन मिथ्याशान और मिथ्याचारित्रका स्वरूप ११३ । श्वेताम्बरमत निराकरण मिथ्यादर्शनका स्वरूप ... ... ... ११३ ढूंढकमत निराकरण
... ... २४० मिथ्याशान का स्वरूप ... ... ... १२६ | छठा अधिकारमिथ्याचारित्रका स्वरूप ... ... ... १६२ १२ कुदेवादिकका निरूपण और निषेध
२५५ रागद्वेषका विधान श्रीर विस्तार ... ... १३३ १३ कुगुरुके श्रद्धातादिका निषेध ... ... २६६ पांचठा अधिकार
२४ कुधर्मका निरूपण ११ गृहीत मिथ्यात्वका निरूपण
१४३ साता अधिकारअद्वैत ब्रह्मवादी के सर्वव्यापकत्व का निराकरण १४३ | १५ जैनमतानुयायी मिथ्यातियोका स्वरूप ... २६३ सष्टिकर्तृत्ववादका निराकरण ... ... १४% केवल निश्चय नयावलम्बी जैनाभासोंका निरूपण २६४ ब्रह्माके सृष्टिकर्तृत्व, विष्णु के रक्षकत्व और महेशके
केवल व्यवहारावलम्बी जैनाभासोंका निरूपण ... ३२४ संहारकर्तृत्वका निराकरण
१५७ कुलप्रवृत्ति श्रादिस जैनधर्मको धारण करनेवाले मि. लोकके अनादि निधनपने की पुष्टि ... .
थ्यादृष्टियोकी धर्मसाधना गुरुभक्ति शास्त्रभक्ति तत्वाअवतार मीमांसा
....... र्थ श्रद्धा चारित्रधारणा आदि
... ३३४ यज्ञ सम्बन्धी पशुहिंसाका विचार ..........
निश्चय और व्यवहार दोनोंका अवलम्बन करनेवाले निगुण और सगुण भक्तिकी मीमांसा.... १७३ मिथ्यादृष्टियोंका निरूपण ... ... ३७७ शानयोगसे मुक्ति माननेका विचार ....
सम्यक्त्वके सम्मुख मिथ्याष्टियोंका निरूपण ३१२ अन्यमतकल्पित मोक्षमार्गकी मीमांसा .... १८४ पाठमां अधिकार-- मुसलमानोंके मत विषयक विचार ...
१६ उपदेशका स्वरूप
... ४०७ सांख्यमत निराकरण १८ प्रथमानुयोगका प्रयोजन
४०E
१६६
१७२
१७८
१८६
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करणानुयोगका प्रयोजन
४०४। राकरण अपेक्षादिका शान न होनेसे शास्त्रों में जो परचरणानुयोगका प्रयोजन
४११ स्पर घिसद्धता दिखती है, उसका निराकरण ... " द्रव्यानुयोगका प्रयोजन
४१२ ना घधिकार-- प्रथमानुयोगके व्याख्यानकी पद्धति ४१२, १८ मोक्षमार्गका स्वरूप
... ४६ करणानुयोगके व्याख्यानकी पद्धति '४१% मात्माका हित मोक्ष ही है, इसका निश्चय
४६७ चरणानुयोगके व्याख्यानकी पद्धति .. ...... ४२२ | सांसारिक सुख दुःख ही है द्रव्यानुयोगके व्याख्यानकी पद्धति ........ ४३३ मोक्षसाधनमें पुरुषार्थकी मुख्यता ...
४७४ अनुथोगोंमें किस पद्धतिकी मुख्यता है .... ४३७ मोक्षमार्गका खरूप :
४८१ २७ अनुयोगोंमें जो दोष कल्पना की जाती है, उनका नि- सम्यग्दर्शनका लक्ष्य
४८४
४७१
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भूल सुधार । इस ग्रन्थ में निम्नलिखित मानोंमें निम्नलिखित पंक्तियां छूर गई हैं। पाठक महाशयोको चाहिए कि, स्वाध्याय करने के पहिले इन पंक्तियों को अपनी प्रवियोंमें यथास्थान.बढ़ा लेवेंपृष्ठ. पंक्ति. जिसके मागेछूटा है, वहवाक्य..
छूटे हुए वाक्य. २. १ चितवना कीजिए है- जासे स्वरूप जाने बिना ग्रह जाण्या नहीं जाय जो मैं कौनकी नम
सकार करू तब उत्तम फल की प्राप्ति कैसे होय। । २ जिनके दर्शनादिकतै- स्वपरभेद विज्ञान हो है, कयायमंद होय शान्त भाव हो है। १५ . १३ थोरे अंगनिके पाठी रहे- तिनने यह जानकरि जो भविष्यत कालमैं हम सारिखेभी शानी न
रहेंगे, तातै गन्धरचना शारंभ करी भरद्वादशांगानुकूल प्रथमानुयो।
ग, करणामुयोग, चरणामुयोग, द्रव्यानुयोगके अनेक गून्थ रचे । २३७ मोकौं धान नाही- किसी विशेष हानी सौ पूछकर मैं तिहारताई उत्तर दूंगा । अथवा
कोई समय पाय विशेष मानी तुमसौं मिलै, तौ पूछकर अपना संवेद दूर करना पर मोकी हवलय देना । जातें ऐसा न होय तो अभिः मानके वशतें अपनी पंडिताई जनावनेकौं प्रकरण विरुद्ध अर्थ उपदेशै । तातै श्रोतानिका विरुद्ध श्रद्धान करमेत घुराहोय जैनधर्म
की निंदा होय । मैं कौन हौं
पर कहांत पाकर वहां जन्मे धारया है और मरकरि कहां जाऊंगा। परमाणु भिन्न हो हैं- भर केई मये मिले हैं। आपही मिले हैं- '
अर सूर्यास्तका निमित्त पाय बापही बिछरै है। मनरूप परमाणनि- के परिणमनिकै पर मतिशानकै निमिस नैमित्तिक सम्बन्ध है. सो
तिनकै
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५.
मनकै भो यथासंभव- निमित्त नैमित्तिकपणा ...
परन्तु ताका मूल कारण जान नाहीं । याका वध दुःखका मूल कारः •ण चताई, दुःखका स्वरूप बताई, याके किए उपायनिकी झूठा दिखा तब सांचा उपाय करनेकी रुचि होय, तैसे ही यह संसारी संसारमैं तुःखी खेय रह्या है, परन्तु तिसका मूल कारण जान नाही पर सांचा उपाय जाने नाही पर दुख भी सह्या जाय माही तव आपकी भासै सोही उपाय कर है । तातै दुस्ख दूर होय नाही। तब
तड़पि तड़पि परवश हुमा दुःखनिकी सहै है। दुखमिटे सुखीहोय-- तात. सम्यग्दर्शन ही दुख मेटनैकाभर सुख करनेका सांचा उपाय है। उत्कृष्टःरहनेका काल- । असंख्यात पुद्गल परावर्तन मात्र है पर पुद्गल परावर्तन काल आत्रका तौ संवर करै
अर तिनि अन्य पदार्थ निकी दुखदायक मान है। तिनिहीकै न होने नाही
का उपाय करै है सो अपने आधीन नाही। तामै कडू विशेष नाही- र यह शान केवल शारीविषै भी जाय मिले है,जैसे नदी समुद्रवि
मिले है । यामैं कछू दोष माहीं। चारित्रमोहके उदयतें कषायभाव होय, तिसका नाम मिथ्याचारित्र
है। यहां अपनी स्वभावरूप प्रवृत्ति नाही। यह सुखी है, ऐसी मिथ्या चारित्र कहिए है- अर कषायभाव हो हैं, सो पदार्थनिकै इष्ट अनिष्ट माननेते हो हैं. लो .
इष्ट अनिष्ट मानना मिथ्या है। . से सो कहिए है-...जो भापको सुखदायक उपकारी होय ताकत कहिए, अर जो कर्तव्य नाही-
कर्मका कर्तव्य है। रागद्वेष करना मिथ्या है- जो परद्रव्य इष्ट अनिष्ट होता भर तहां रागद्वेष करता, तो मिथ्या
नाम न पावता । वह तौर अनिष्ट नाहीं।
१२
१३२
५
१३३ , १३४. . १३५
६ १४
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१६३
५
मरा है। कैसैसंहार करै है।
जो अपने अंगनिकरि संहार करै है, तो अपने अंगभिकरि संहार करै है कि इच्छा होते स्वयमेव ही संहार
२२० तैसें यह कार्य भया । यह सांचा तो तब होता, जैसे दिगम्बर आचार्यनिने अनेक ग्रन्थ
रचे, सो सर्व गणधरकरि भाषित अंगप्रकीर्णक ताके अनुसार रचे भर तिनि सवनिमें ग्रन्थ कर्ताका नाम सर्घ आचार्यनिने अपना भिन्न भिन्न रक्खा र तिनि ग्रन्थनिके नामहू भिन्न भिन्न रक्खे किसी गन्थकाभी नाम अंगादिक नहीं रक्खा पर न यह लिख्या,
जो ये गणधर देवने रचे हैं।
परिशिष्ट । मोक्षमार्गप्रकाशकके पांचवें अध्यायमें जो वेदादि ग्रन्थोंके प्रमाण उद्धृत करके जैनधर्मकी प्राचीनता प्रगट की है, उसीके सम्बन्धमें जैनसमाजके सुपरिचित विद्वान् कुंवर दिग्विजयसिंहजी द्वारा निम्नलिखित प्रमाण और भी संग्रह किये गये हैं, जो यहां प्रकाशित किये जाते हैं
अहन्धिमर्षि सायकानि धन्वाहभिकं यजतंविश्वरूपम् । अहमिदं दयसे विश्पं भवभुषं न वा प्रोजीयो रुद्र त्वदस्ति ॥
[ऋग्वेद अष्टक २ अं०७ वर्ग १७] व्याख्या-(अर्हन् ) हे अरहंतदेव आप अज्ञाननाशार्थ (सायकानि) वस्तुस्वरूप धर्मरूपीवाणीको तथा (धन्य) उप. देशरूप धनुषको तथा (निष्क) आत्मचतुष्टय अर्थात् अनन्तशान अमंतदर्शन अनंतवीर्य और अनन्तसुखरूप आभूषणोंको (बिभर्षि) धारण किये हो, तथा (अर्हन् ) हे अरहंतदेव श्राप (विश्वरूपं)विश्वखरूप अर्थात् जिसमें समस्तविश्व प्रतिभासित होता है (तं) उस केवलज्ञानको (यज) यजन किये अर्थात् प्राप्त कियेहो। (अर्हन्) हे अर्हन्तदेव श्राप (इदं) इस (विश्वं) संसारके (भवभुवं) समस्तजीवों की (दयसे रक्षा करतेहो (रुद्र)हे काम क्रोधादि बड़े बड़े प्रबल शत्रुओंको रुलानेवाले (स्वद) आपके समान भीर कोई भी (भोजीयो) बलवान (नषा अस्ति) नहीं है।
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बाज्यस्तु प्रसवं आवभूषेमाचं विश्व भवानि सर्वतः। स नेमि राजा परियाति विद्वान् प्रजा पुष्टि वर्धयमानो। .
. .:(अस्मेस्वाहा यजुर्वेद अध्याय मंत्र २५]. व्याख्या-(वाजस्य ) भावयज्ञ अर्थात् आत्मखरूपको (प्रसवः ) प्रगट करदेनेवाले ध्यानको (इमा ) इस (विश्व ) संसारके (भुवनानि) सर्वभूतजीवोंको (सर्वतः) सर्व प्रकारसे (श्रीवभूष) यथार्थरूप कथनकरके (स)जो (नेमि) श्रीनेमिनाथजी बाईसवें तीर्थकर (राजा) अपने फेवल ज्ञानादि आत्म चतुष्टयके खामी (च) और (विद्वान् ) सर्वश (परियाति) प्रगट करते हैं जिनके दयामय उपदेशसे (प्रजां ) जीवोंको (पुष्टि) अात्मस्वरूपकी पुष्टता (नु) शीघ्र (वर्धयमानी) बढ़तीहै (अस्मै) उस श्रीनेमिनाथजीको (स्वाहा) आहुति प्रदान हों।
पातिकमासरं महावीरस्य नग्न रूपमुपासदामेतत्तिस्रो रात्री मुरासुता।
[यजुर्वेद, श्रध्याय १६ मंत्र १४] व्याख्या-(आतिथ्यरूप) अतिथि स्वरूप पूज्य (माकर) महिना आदिके उपवास करनेवाले (महावीरस्य) कामादिक प्रबल शत्रुओंके जीतनेवाले वीर अर्थात् महावीर तीर्थंकर देवके (नग्नहुः) नग्न (रूपम् ) स्वरूपकी (उपासदाम् ) उपासना करो किससे ( एतत् )ये (तिस्रो)तीनों (रात्रोः) अज्ञान अर्थात् संशय विपर्यय और अनध्यवसाय और (सुराः) मद अर्थात् धनमद शरीरमद और विद्यामदकी (असुता) उत्पत्ति नहीं होती है।
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नमः सिद्धेभ्यः ।
मोक्षमार्गप्रकाश |
दोहा ।
मंगलमय मंगलकरण, वीतरागविज्ञान । नमीं ताहि जातें भये, अरहंतादि महान ॥ १ ॥ करि मंगल करिहौं महा, ग्रंथकरनको काज । जातें मिले समाज सब, पावै निजपदराज ॥२॥ अथ मोक्षमार्गप्रकाशनाम शास्त्रका उदय हो है । तहां मंगल करिये है, — णमो अरहंताणं । णमो सिद्धाणं । रामो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्व साहूणं । यह प्राकृतभाषामय नमस्कारमंत्र है, सो महामंगलस्वरूप है। बहुरि याका संस्कृत ऐसा हो हैनमोऽर्हद्भ्यः। नमः सिद्धेभ्यः । नमः आचार्येभ्यः । नमः उपाध्यायेभ्यः । नमोलोके सर्व | साधुभ्यः । बहुरि याका अर्थ ऐसा है, नमस्कार अरहंतनिके अर्थ, नमस्कार सिद्धनिके अर्थ, | नमस्कार आचार्यनिके अर्थ, नमस्कार उपाध्यायनिके अर्थ, नमस्कार लोकविषै सर्वसाधुनि के अर्थ, ऐसे याविषै नमस्कार किया, तातैं याका नाम नमस्कार मंत्र है । अथ इहां जिनकूं नम
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मो.मा.
स्कार किया तिगका स्वरूप चिंतवन कीजिये है । सहाँ प्रथम अरहंतनिका स्वरूप विचारिये है,प्रकाश
जे गृहस्थपनौ त्यागि मुनिधर्म अंगीकार करि निजस्वभाव साधनतें च्यारि घातिया कर्मनिकों खिपाय अनन्तचतुष्टय विराजमान भये । तहां अनन्तज्ञानकरि तो अपने-अपने अनन्त गुणपर्याय M सहित समस्त जीवादि द्रव्यनिकौं युगपत् विशेषपनेकरि प्रत्यक्ष जाने हैं। अनन्तदर्शनकरि । तिनकों सामान्यपनै अवलोके हैं । अनन्तवीर्यकरि ऐसी (उपर्युक्त) सामर्थ्यको धारै हैं । अनन्त। सुखकरि निराकुल परमानन्दको अनुभव हैं। बहुरि जे सर्वथा सर्वरागद्वेषादिविकारभावनिकरि | रहित होइ शान्तरसरूप परिणए हैं। बहुरि क्षुधा, तृषा आदिसमस्तदोषनितें मुक्त होय | देवाधिदेवपनाकों प्राप्त भये हैं। बहुरि आयुध अंबरादिक वा अंग विकारादिक जे काम | क्रोधादिक निन्यभावनिके चिन्ह, तिनकरि रहित जिनका परम औदारिक शरीर भया है। बहुरि जिनके वचनितें लौकविर्षे धर्मतीर्थ प्रवत्र्ते है, ताकरि जीवनिका कल्याण हो है। बहुरि जिनकै लौकिक जीवनिकं प्रभुत्व माननेके कारण अनेक अतिशय अर नानाप्रकार विभव तिनका । संयुक्तपणा पाइये है । बहुरि जिनको अपना हितके अर्थि गणधर इन्द्रादिक उत्तम जीव सेवे
हैं। ऐसे सर्वप्रकार पूजने योग्य श्री अरहंतदेव हैं, तिनकों हमारा नमस्कार होहु । अब | सिद्धनिका स्वरूप ध्याइये है,
जे गृहस्थअवस्था त्यागि मुनिधर्म साधनतेंच्यारि घातिकर्मनिका नाश भये अनन्तचतुष्टय
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मो.मा.
भाव प्रगट करि केतेक काल पीछे च्यारि अघाति कर्मनिका भी भस्म होते परमऔदारिक प्रकाश || शरीरकौं भी छोरि ऊर्ध्वगमन स्वभावते लोकके अग्रभागवि जाय विराजमान भये । तहां ||
1 जिनकै समस्त परद्रव्यनिका संबंध छूटनैतें मुक्त अवस्थाकी सिद्धि भई, बहुरि जिनके चर्म-11
शरीरतें किंचित् ऊन पुरुषाकारवत् आत्मप्रदेशनिका आकार अवस्थित भया, बहुरि जिनकै। प्रतिपक्षी कर्मनिका नाश भया तातें समस्त सम्यक्त्व ज्ञान दर्शनादिक आत्मीक गुण संपूर्णपने ।
स्वभावकों प्राप्त भये हैं, बहुरि जिनकै नोकर्मका संबन्ध दूर भया तातें समस्त अमूर्तत्वादिक । आत्मीकधर्म प्रगट भये हैं । बहुरि जिनकै भावकर्म का अभाव भया तातें निराकुल आनन्दमय |
शुद्धस्वभावरूप परिणमन हो है । बहुरि जिनका ध्यानकरि भव्य जीवनिकै स्वद्रव्य-परद्रव्यका । अर उपाधिक भाव स्वभावनिका विज्ञान हो है, ताकरि सिद्धनिकै समान आप होनेका साधन | हो है। तातें साधनयोग्य जो अपना शुद्धस्वरूप ताके दिखावनेकौं प्रतिबिंब समान हैं । बहुरि ।। जे कृतकृत्य भये हैं तातें ऐसे ही अनंत कालपर्यंत रहें हैं ऐसे निष्पन्न भये सिद्ध भगवान तिनकों हमारा नमस्कार होहु । अब आचार्य उपाध्याय साधुनिका स्वरूप अवलोकिये है,
जे विरागी होय समस्त परिग्रहकों त्यागि शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अङ्गीकार करि अंतरंग विषै तो तिस शुद्धोपयोगकरि आपकों आप अनुभवै हैं परद्रव्यविषै अहंबुद्धि नाहीं धारै हैं । बहुरि अपने ज्ञानादिकस्वभावनिहीकों अपने मान हैं। परभावनिविषै ममत्व न करै हैं।
ORIGMOONMOHIBGookifokECrookEETookDCPROREGAORECRoo-Crookachoroprooo-EcookGOOTXCMONOMICROOMSAtroce
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मो.मा.
प्रकाश
बहुरि जे परद्रव्य वा तिनके स्वभाव ज्ञानविष प्रतिभास हे तिनकों जान तो हैं परन्तु इष्ट अनिष्ट मानि तिनविर्षे रागद्वेष नाहीं करें हैं। शरीरकी अनेक अवस्था हो है, बाह्य नाना निमित्त बने । हैं परंतु तहां किछू भी सुखदुःख मानते नाहीं । बहुरि अपने योग्य बाह्यक्रिया जैसें बने हैं तैसें । बने हैं, वंचिकरि तिनिकौं करते नाहीं । बहुरि अपने उपयोगकौं बहुत नाहीं भ्रमावे हैं। उदासीन होय निश्चल वृत्तिकौं धारै हैं । बहुरि कदाचित् मंदरागके उदयतें शुभोपयोग भी हो है। तिसकरि जे शुद्धोपयोगके बाह्य साधन हैं तिनिविषै अनुराग करै हैं परंतु तिस रागभावकों हेय जानिकरि दूरि कीया चाहै हैं । बहुरि तीब कषायके उदयका अभावतें हिंसादिरूप अशुभोपयोग परिणतिका तौ अस्तित्व ही रह्या नाहीं। बहुरि ऐसी अंतरंग अवस्था होते बाह्य दिगम्बर सौम्यमुद्राके धारी भये हैं । शरीरका सँवारना आदि विक्रियानिकरि रहित भये हैं । बनखंडादि विष बसे हैं। अठाईस मूलगुणनिकौं अखंडित पाले हैं। बाईस परीसहनिकौं सहै हैं । बारहप्रकार तपनिको आदरै हैं । कदाचित् ध्यानमुद्राधारि प्रतिमावत् निश्चल हो हैं । कदाचित् अध्य| यनादि बाह्य धर्मक्रियानिविर्षे प्रवर्ते हैं। कदाचित् मुनिधर्मका सहकारी शरीरकी स्थितिके अर्थि | योग्य आहार-विहारादि क्रियानिविणे सावधान हो हैं । ऐसे जैनी मुनि हैं तिन सबनिकी ऐसी ही अवस्था हो है। तिनविषै जे सन्य ज्ञान सम्यकचारित्रकी अधिकता करि प्रधानपदकों पाय संघविर्षे नायक भये हैं। बहुरि जे मुख्यपनै तौ निर्विकल्प स्वरूपाचरण विष ही मग्न हैं अर
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मो.मा.
प्रकाश
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जो कदाचित् धर्मके लोभी अन्य जीवादिकनिकौं देखि रागअंशके उदयतें करुणाबुद्धि होय। तो तिनिकों धर्मोपदेश देते हैं । जे दीक्षाग्राहक हैं तिनकौं दीक्षा देते हैं । जे अपने दोष प्रगट | करैं हैं तिनकौं प्रायश्चित्त विधिकरि शुद्ध करै हैं । ऐसें प्राचार अचरावनवाले आचार्य, तिनकौं
हमारा नमस्कार होहु । बहुरि जे बहुत जैनशास्त्रनिके ज्ञाता होय संघविषै पठन-पाठनके अधि| कारी भये हैं, बहुरि जे समस्त शास्त्रनिका प्रयोजनभूत अर्थ जानि एकाग्र होय अपने स्वरूपकौं । ध्यावे हैं । अर जो कदाचित् कषाय-अंश-उदयतें तहां उपयोगनाहीं भै है तौ तिन शास्त्रनिकों आप पढ़े हैं वा अन्य धर्मबुद्धीनिको पढ़ावै हैं । ऐसें समीपवर्ती भव्यनिको अध्ययन करावनहारे उपाध्याय तिनिकौं हमारा नमस्कार होहु । बहुरि इन दोय पदवीधारक बिना अन्य समस्त जे मुनिपदके धारक हैं बहुरि जे आत्मस्वभावकौं साधै हैं । जैसें अपना उपयोग परद्रव्यनिविषै | इष्ट अनिष्टपनौं मानि फँसें नाहीं वा भागै नाहीं तैसे उपयोगको सधावे हैं । बहुरि बाह्यताके
साधनभूत तपश्चरण आदि क्रियानिविषै प्रवत्र्ते हैं वा कदाचित् भक्तिवंदनादि कार्यनिविर्षे प्रवत्त | हैं। ऐसे आत्मखभावके साधक साधु हैं तिनकों हमारा नमस्कार होहु । ऐसें इन अरहंतादि
कनिका स्वरूप है सो बीतराग विज्ञानमय है। तिसहीकरिअरहंतादिक स्तुति योग्य महान भये " हैं तातें जीव तत्त्वकरि तौ सर्व जीव समान हैं परंतु रागादिक विकारनिकरि वा ज्ञानकी हीनता। करि जीव निंदा योग्य हो हैं । बहुरि रागादिककी हीनताकरि वा ज्ञानकी विशेषताकरि स्तुति
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प्रकाश
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मो.मा.
। योग्य हो हैं । सो अरहंत सिद्धनिकै तो संपूर्ण रागादिककी हीनता अर ज्ञानको विशेषता होने। करि संपूर्ण वीतरागविज्ञानभाव संभ है। अर आचार्य उपाध्याय साधूनिकै एकोदेश रागा
दिककी हीनता अर ज्ञानकी विशेषता होनेकरि एकोदेश वीतरागविज्ञान भाव संभव है। तातें ते अरहंतादिक स्तुतियोग्य महान जानने । वहुरि ए अरहंतादिक पद हैं तिनविषं ऐसा जानना। जो मुख्यपनै तो तीर्थंकरका अर गौणपनैसर्वकेवलीका अधिकार है। प्राकृतभाषाविषै अरहंत, अर संस्कृत विष अर्हत् ऐसा नाम जानना।बहुरि चौदहवां गुणस्थान कैअनंतर समयतें लगाय सिद्ध | नाम जानना । बहुरि जिनकों आचार्यपद भया होय ते संघविष रहो वा एकाकी आल्मध्यान | | करो वा एकाविहारी होहु वा आचार्यनिविय भी प्रधानताकों पाय गणधर पदवीके धारक होहु | | तिन सबनिका नाम आचार्य कहिये हैं । बहुरि पठनपाठन तो अन्यमुनि भी करै हैं परंतु जि
नकै आचार्यनिकरि उपाध्यायपद भया होय सो आत्मध्यानादिक कार्य करतें भी उपाध्याय ही | | नाम पावै हैं । बहुरि जे पदवीधारक नाही ते सर्व मुनि साधुसंज्ञाके धारक जानने । इहां ऐसा ।। नियम नाहीं है जो पंचाचारनिकरि आचार्यपद हो है, पठनपाठनकरि उपाध्यायपद हो है, मूल- | गुण साधनकरि साधुपद हो है । जातें ए तो क्रिया सर्व मुनिनिकै साधारण हैं परंतु शब्द नयकरि । तिनका अक्षरार्थ तैसें करिये है । साभिरूढनयकरि पदवीकी अपेक्षा ही आचार्यादिक नाम । जानने । जैसे शब्द नयकरि गमन करे सो गऊ कहिये, सो गमन तौ मनुष्यादिक भी करै हैं परंतु
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मो.मा.
प्रकाश
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समभिरूदनयकरि पर्याय अपेक्षा नाम है । तैसें ही इहां समझना । इहां सिद्धनिके पहिले अरहंतनिकों नमस्कार किया सो कौन कारण ? ऐसा संदेह उपजै है । ताका समाधान,--
नमस्कार करिये है सो अपने प्रयोजन सधनेकी अपेक्षातें करिये है सो अरहंत नितें उपदेशादिकका प्रयोजन विशेष सिद्ध हो है तातें पहले नमस्कार किया है। या प्रकार अरहंतादिकनिका स्वरूप चिंतवन किया । जातै स्वरूप चिंतवन किये विशेष कार्यसिद्धि हो है । बहुरि इन अरहंतादिकनिक पंचपरमेष्ठी कहिये है । जातें जो सर्वोत्कृष्ट होय ताका नाम परमेष्ठी है। पं. जो परमेष्ट तिनिका समाहार समुदायका नाम पंचपरमेष्ठी जानना । बहुरि वृषभ, अजित, शंभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयान्, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व, वर्द्धमान नामधारक चौबीस तीर्थंकर इस भरतक्षेत्रविषै वर्त्तमान धर्मतीर्थ के नायक भये, गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण कल्याणकनिविषै इंद्रादिकनिकरि विशेष पूज्य होइ अब सिद्धालयविषै विराजे हैं तिनकों हमारा नमस्कार होहु । बहुरि सीमंधर, युग्मंधर, बाहु, सुबाहु, संजातक, स्वयंप्रभ, वृषभानन, अनंतवीर्य, सूरप्रभ, विशालकीर्त्ति, बज्रधर, चंद्रानन, चंद्रवाहु, भुजंगम, ईश्वर, नेमिप्रभु, वीरसेन, महाभद्र, देवयश, अजितवीर्य नामधारक बीस तीर्थंकर पंचमेरु संबंधी विदेहक्षेत्रनिविषै अबार केवलज्ञानसहित विराजमान हैं तिनकों हमारा नमस्कार होहु । यद्यपि परमेष्टी पदविषै इनका गर्भित
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| पना है तथापि विद्यमान कालविषै इनकों विशेष जानि जुदा नमस्कार किया है । बहुरि त्रिलोक-12
विषै जे अकृत्रिम जिनबिंब बिराजै हैं मध्यलोकवि विधिपूर्वक कृत्रिम विराजै हैं जिनके दर्श| नादिकतें एक धर्मोपदेश बिना अन्य अपने हितकी सिद्धि जैसें तीर्थंकर केवलीके दर्शनादिकतें | | | | होय तैसें ही हो है, तिनि जिनबिंबनिकों हमारा नमस्कार होहु । बहुरि केवलीका दिव्यध्वनिA करि दिया उपदेश ताके अनुसार गणधरिकरि रचित अंगप्रकीर्णक तिनके अनुसार अन्य || आचार्यादिकनिकरि रचे ग्रंथादिक हे ते सर्व जिनवचन हैं स्याद्वादचिन्हकरि पहचानने यो य हैं
न्यायमार्गते अविरुद्ध हैं तात प्रमाणीक हैं । जीवनिकों तत्वज्ञानके कारण हैं तातें उपकारी हैं| | तिनिकों हमारा नमस्कार होहु । बहुरि चैत्यालय, अर्जिका, उत्कृष्ट श्रावक आदि द्रव्य, अर | तीर्थक्षेत्रादि क्षेत्र, अर कल्याणककाल आदि काल, रत्नत्रय आदि भाव, जे मुझकरि नमस्कार | करने योग्य हैं तिनकों नमस्कार करौं हौं । अर जे किंचित् विनय करने योग्य हैं तिनिका यथा-|| | योग्य विनय करौं हौं। ऐसें अपने इष्टनिका सन्मान करि मंगल किया है। अब ए अरहंतादिक | इष्ट कैसै हैं सो विचार करिए हैं,
जा करि सुख उपजै वा दुःखविनसैतिस कार्यका नाम प्रयोजन है। बहुरि तिस प्रयोजनकी जाकरि सिद्धि होय सो ही अपना इष्ट है। सो हमारे इस अवसरविषै वीतरागविशेष ज्ञानका होना सो ही प्रयोजन है जाते याकरि निराकुल सांचे सुखकी प्राप्ति हो है। अर सर्व
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सांचे सुखकी प्राप्ति हो है । अर सर्व आकुलतारूप दुःखका नारा हो है । बहुरि इस प्रयोजन की सिद्धि अरहंतादिकनिकरि हो है । कैसें सो विचारिए हैं, -
आत्मा के परिणाम तीन प्रकार हैं, संक्लेश, विशुद्ध, शुद्ध । तहां तीव्रकषायरूप संक्लेश हैं, मंदकषायरूप विशुद्ध हैं, कषायरहित शुद्ध हैं। तहां वीतराग विशेष ज्ञानरूप अपने स्वभाव के घातक जो हैं ज्ञानावरणादि घातियाकर्म, तिनिका संक्लेश परिणामकरि तौ तीव्रबंध हो है अर विशुद्ध परिणामकरि मंदबंध हो है वा विशुद्ध परिणाम प्रबल होय पूर्वे जो तीव्र बंध भया था ता भी मंद करे है । अर शुद्धपरिणामकरि बंध न हो है । केवल तिनकी निर्जरा ही हो है । सो अरहंतादिविषै स्तवनादि रूप भाव हो है सो कषायकी मंदता लिये हो है तातें विशुद्ध परिणाम हैं । बहुरि समस्त कषायभाव मिटावनैका साधन है, तातें शुद्धपरिणामका कारण है सो ऐसा परिणाम कर अपना घातक घातिकर्मका हीनपनाके होनेतें सहज ही वीतराग विशेषज्ञान प्रगट हो है । जितने अंशनिकरि वह हीन होय तितने अंशनिकर यह प्रगट हो है । ऐसें अरहंतादिक कार अपना प्रयोजन सिद्ध हो है । अथवा अरहंतादिकका आकार अवलोकना वा स्वरूप विचार करना वा बचन सुनना वा निकटवर्त्ती होना वा तिनकै अनुसार प्रवर्त्तना इत्यादि कार्य तत्काल ही निभिभृत होय रागादिकनिकों हीन करे है । जीव अजीवादिकका विशेषज्ञानको उपजावै है तातें ऐसें भी अरहंतादिक करि वीतराग विशेषज्ञानरूप प्रयोजनकी सिद्धि हो है । इहां कोऊ क
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कि इनिकरि ऐसे प्रयोजनकी तो सिद्धि ऐसे हो है परंतु जाकरि इंद्रियजनित सुख उपजै दुःख | प्रकाश विनशै ऐसे हु प्रयोजनकी सिद्धि इनिकरि हो है कि नाहीं। ताका समाधान,
जो अरहंतादिविषै स्तवनादिरूप विशुद्ध परिणाम हो है ताकरि अघातिया कर्मनिकी साता आदि पुण्यप्रकृतिनिका बंध हो है। बहुरि जो वह परिणाम तीव्र होय तो पूर्वे असाता |
आदि पापप्रकृति बँधी थीं तिनिकों भी मंद करै है अथवा नष्ट करि पुण्यप्रकृतिरूप परिणमावे | है । बहुरि तिस पुण्यका उदय होतें खयमेव इन्द्रियसुखकों कारणभूत सामग्री मिले है। अर | पापका उदय दूरि होते स्वयमेव दुःखकों कारणभूत सामग्री दूर हो है। ऐसें इस प्रयोजनकी
भी सिद्धि तिनकरि हो है । अथवा जैनशासनके भक्तदेवादिक हैं ते तिस भक्तपुरुषकै अनेक 1 इंद्रियसुखकों कारणभूत सामग्रीनका संयोग करावै हैं । दुःखकों कारणभूत सामग्रीनिकों दूरि 1 करै हैं । ऐसें भी इस प्रयोजनकी सिद्धि तिन अरहतादिकनिकरि हो है। परन्तु इस प्रयोजन
ते किछु अपना हित होता नाहीं जातें यह आत्मा कषायभावनितें बाह्य सामग्रीनविषे इष्ट अनिष्टपनों मानि आपही सुखदुःखकी कल्पना करै है । बिना कषाय बाह्य सामग्री किछू सुखदुःख | की दाता नाहीं । बहुरि कषाय हैं सो सर्व आकुलतामय हे तातें इंद्रियजनितसुखकी इच्छा
करनी दुःखतें डरना सो यह भ्रम है। बहुरि इस प्रयोजनके अर्थि अरहंतादिककी भक्ति किए। 1 भी तीवकषाय होनेकरि पापबंध ही हो है तातें आपकौं इस प्रयोजनका अर्थी होना योग्य नाहीं
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मो.मा. जातें अरहंतादिक की भक्ति करते ऐसे प्रयोजन तो स्वयमेव ही सधै हैं। ऐसें अर-। प्रकाश । हतादिक परम इष्ट मानने योग्य हैं। बहुरि ए अरहंतादिक ही परममंगल हैं। इन
विर्षे भक्तिभाव भये परममंगल हो है । जातें “मंग” कहिये सुख ताहि “लाति” कहिये देवै । अथवा “मं” कहिये पाप ताहि “गालयति” कहिये गाले ताका नाम मंगल है सो तिनकरि पूवोक्त प्रकार दोऊ कार्यनिकी सिद्धि हो है । तातें तिनकै परममंगलपना संभव है । इहां कीऊ || पूछे कि प्रथम ग्रंथकी आदिविषै मंगल कीया सौ कौन कारण ? ताका उत्तर,
जो सुखस्यों ग्रंथकी समाप्तिता होइ पापकरि कोऊ विघ्न न होइ या कारण इहां प्रथम | | मंगल कीया है । इहां तर्क-जो अन्यमती ऐसें मंगल नाहीं करै हैं तिनकै भी ग्रंथकी समाप्तता || अरि बिघ्नका नाश होना देखिये है तहां कहा हेतु है । ताका समाधान,
जो अन्यमती ग्रंथ करें हैं तिसविर्षे मोहका तीव्र उदयकरि मिथ्यात्व भावनिकों पौषते । | विपरीत अर्थनिकों धरै हैं तातें ताकी निर्विन समाप्तता तो ऐसे मंगल किये बिना ही होइ ।।
जो ऐसे मंगलनिकरि मोह मंद होजाय तो वैसा विपरीत कार्य कैसे बने ? । बहुरि हम यह ग्रंथ करें हैं तिसविषै मोहकी मंदता करि वीतराग तत्वज्ञानकों पौषते अर्थनिकौं धरेंगे ताकी निर्विघ्न || समाप्तता ऐसें मंगल कीये ही होय । जो ऐसे मंगल न करें तो मोहका तीव्रपना रहै, तब ऐसा उत्तम कार्य कैसे बने ? बहुरि वह कहै है जो ऐसे तो मानेंगे परंतु ऐसा मंगल न करे ताकै
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సురవరం పోలంపులు వంటివి నిరం*
भी सुख देखिए है पापका उदय न देखिए है । भर कोऊ ऐसा मंगल करें है ताकै भी सुख न देखिये है पापका उदय देखिये है तातें पूर्वोक्त मंगलपना कैसे बने ? ताकौं कहिये है,
जो जीवनिकै संक्लेश विशुद्धः परिणाम अनेक जातिके हैं सिनिकरि अनेक कालनिविषै। पूर्वे बंधे कर्म एक कालविषै उदय आवै हैं । तातें जैसें जाकै पूर्वे बहुत धनका संचय होइ ताकै | बिनाकुमाए भी धन देखिये अर देणा न देखिए है । अर जाकै पूर्वे ऋण बहुत होय ताकै धन | कुमावत भी देणा देखिये है धन न देखिये है परन्तु विचार कीएतें कुमावना धन होनेहीका | कारण है ऋणका कारण नाहीं । तैसें ही जाकै पूर्वे बहुत पुण्य बंध्या होइ ताकै इहां ऐसा मंगल विना किए भी सुख देखिये है। पापका उदय न देखिए है । बहुरि जाकै पूर्वे बहुत पाप बंध्या होइ ताकै इहां ऐसा मंगल किये भी सुख न देखिये है पापका उदय देखिये है। परन्तु
विचार किएतें ऐसा मंगल तौं सुखका ही कारण है पापउदयका कारण नाहीं । ऐसें पूर्वोक्त मं। गलका मंगलपना बने है । बहुरि वह कहै है कि यह भी मानी परंतु जिनशासनके भक्त देवा
दिक हैं तिनि तिस मंगल करनेवालेकी सहायता न करी मंगल न करनेवालेको दंड न दीया | सो कौन कारन ? ताका समाधान,
जो जीवनिकै सुख-दुःख होनेका कारण अपना कर्मका उदय है ताहीकै अनुसार बाह्य निमित्त बनै है तातें पापका जाकै उदय होइ ताकै सहायताका निमित्त न बने है। अर
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ath yount उदय होइ ताकै दंडका निमित्त न बने है । यह निमित्त कैसें बने है सो क-हिये है,
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जे देवादिक हैं ते क्षयोपशम ज्ञानतैं सर्वकौं युगपत् जानि सकते नाहीं तातें मंगल करनेवालेका जानना किसी देवादिककै काहू कालविषै हो है तातें जो तिनिका जानपना न होइ तो कैसें सहाय करें वा दंड दें । अर जानपना होय तब आपकै जो अति मंदकषाय होइ तौ सहाय करनेके वा दंड देनेके परिणाम ही न होंइ । अर तीव्रकषाय होइ तौ धर्मानुराग होइ सके नाहीं । बहुरि मध्य कषायरूप तिस कार्य करनेके परिणाम भये अर अपनी शक्ति नाहीं कहा करें ? ऐसें सहाय करने वा दंड देनैका निमित्त नाहीं बने है। जो अपनी शक्ति होय अर आपके धर्मानुरागरूप मंद कषायका उदयतें तैसे ही परिणाम होंइ अर तिस समय
जीविका धर्म धर्मरूप कर्त्तव्य जानै तब कोई देवादिक किसी धर्मात्माकी सहाय करें या किसी अधर्मीकौं दण्ड दे हैं । ऐसें कार्य होनेका किछू नियम तो है नाहीं । ऐसें समाधान कीया । इहाँ इतना जानना कि सुख होनेकी दुःख होनेकी सहाय करावनेकी दुःख धावनेकी ओ इच्छा है सो कषायमय है तत्काल विषै वा आगामी कालविषै दुःखदायक है । तातें ऐसी इच्छाकू छोरि हम तो एक वीतराग विशेष ज्ञान होनेके अर्थी होइ अरहंतादिककौं नमस्कारादिरूप मंगल कीया है । ऐसें मङ्गलाचरण करि अब सार्थक मोक्षमार्गप्रकाश नाम ग्रंथका उ
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मो.मा.|| द्योत करै हैं । तहां यह ग्रंथ प्रमाण है ऐसी प्रतीति अनायनेके अर्थि पूर्व अनुसारका स्वरूप | प्रकाश निरूपण करै हैं,
अकारादि अक्षर हे ते अनादिनिधन हैं काहूके किए नाही, इनिका आकार लिखना तो अपनी इच्छाके अनुसारि अनेक प्रकार है परन्तु बोलनेमैं आवै हैं ते अक्षर तो सर्वत्र सवंदा ऐसे ही प्रवर्ते हैं सोई कह्या है,-सिद्धो वर्णसमाम्नायः । याका अर्थ यह जो अक्षरनिका | संप्रदाय है सो स्वयंसिद्ध है । बहुरि जिन अक्षरनिकरि निपजे सत्यार्थके प्रकाशक पद तिनके
समूहका नाम श्रुत है सो भी अनादिनिधन है ।जैसे “जीव” ऐसा अनादिनिधन पद है सो | जीवका जनावनहारा है । ऐसें अपने-अपने सत्य अर्थके प्रकाशक अनेक पद तिनका जो समुदाय सो श्रुत जानना । बहुरि जैसें मोती तो स्वयंसिद्ध हैं तिनविर्षे कौऊ थोरे मोतीनके कोऊ | घने मोतीनके, कोऊ किसी प्रकार कोऊ किसी प्रकार गंथिकरि गहना बनावै हैं । तैसें पद तो | स्वयंसिद्ध हैं तिनविर्षे कोऊ थोरे पदनिकों, कोऊ घने पदनिकों कोऊ किसीप्रकार कोऊ किसी-। | प्रकार गुथि ग्रंथ बनावै हैं यहां में भी तिनि सत्यार्थ पदनिकों मेरी बुद्धि अनुसारि ग्रंथि ग्रंथ | | बनाऊँ हूं सो में मेरी मतिकरि कल्पित झूठे अर्थक सूचक पद याविषं नाहीं गूंथं हूं । तातें | | यह ग्रंथ प्रमाण जानना । इहां प्रश्न-जो तिनि पदनिकी परंपराय इस ग्रंथ पर्यंत कैसे प्रवः | | है-ताका समाधान,
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अनादितें तीर्थंकर केवली होते आये हैं तिनिकै सर्वका ज्ञान हो है तातें तिनि पद-11 निका वा तिनिके अर्थनिका भी ज्ञान हो है । बहुरि तिनि तीर्थंकर केवलीनिका जाकरि अन्य। जीवनिक पदनिका अर्थनिका ज्ञान होय ऐसा दिव्यध्वनिकरि उपदेश हो है। ताके अनुसार गणधरदेव अंग प्रकीर्णकरूप ग्रंथ गूंथें हैं । बहुरि तिनिकै अनुसारि अन्य आचार्यादिक नाना | |प्रकार ग्रंथादिककी रचना करे हैं। तिनिकू केई अभ्यासें हैं केई कहै हैं केई सुने हैं ऐसें परं-1 पराय मार्ग चल्या आवै है । सो अब इस भरतक्षेत्र विषै वर्तमान अवसर्पिणी काल है। तिस| विषे चौबीस तीर्थंकर भए तिनिविर्षे श्रीवर्द्धमान नामा अंतिम तीर्थंकर देव भया । सो केवलज्ञान विराजमान होइ जीवनिकों दिव्यवनिकरि उपदेश देता भया। ताके सुननेका निमित्त पाय गौतम नामा गणधर अगम्य अर्थनिकों भी जानि धर्मानुरागके वशतें अंग प्रकीर्णकनिकी | | रचना करता भया । बहुरि वर्द्धमान स्वामी तौ मुक्त भए सहां पीछे इस पंचम कालविणे तीन | केवली भए गोतम १, सुधर्माचार्य २, जंबूस्वामी ३॥ तहां पीछे कालदोषतें केवलज्ञानी होनेका तौ अभाव भया । बहुरि केतेक काल तांई द्वादशांगके पाठी श्रुतकेवली रहे पीछे तिनिका भी अभाव भया । बहुरि केतक काल तांई थोरे अंगनिके पाठी रहे पी तिनिका भीअभाव भया। तब आचार्यादिकनिकरि तिनिके अनुसारि बनाए ग्रंथ वा अनुसारी ग्रंथनिके अनुसारि बनाए ग्रंथ तिनिहीको प्रवृत्ति रही।तिनिविष कालदोषतेंदुष्टनिकरि कितेक ग्रंथनिकी व्युच्छित्ति भई वा महान् ग्रंथनि
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का अभ्यासादि न होनेते व्युच्छित्ति भई । बहुरि कितेक महान् ग्रंथ पाइये हैं तिनिका बुद्धिकी। मंदतात अभ्यास होता नाहीं । जैसे दक्षिणमें गोमट्टस्वामीके निकटि मूलविद्री नगरविर्षे धवल || महाधवल जयधवल पाइये हैं । परन्तु दर्शन मात्र ही हैं । बहुरि कितेक ग्रंथ अपनी बुद्धिकरि ।। अभ्यास करने योग्य पाइये हैं । तिनि विर्षे भी कितेक ग्रंथनिका ही अध्यास बने है । ऐसें इस निकृष्ट कालविर्षे उत्कृष्ट जैनमतका घटना तो भया परंतु इस परंपरायकरि अब भी जैन शास्त्रविषे सत्य अर्थके प्रकाशनहारे पदनिका सद्भाव प्रवर्ते है । बहुरि हम इस कालविषै इहां अब मनुष्यपर्याय पाया सो. इसविषै, हमारे पूर्व संस्कार” वा भला होनहारतें जैनशास्त्रनिविषे अभ्यास करनेका उद्यम होत भया । तातै व्याकरण न्याय गणित आदि उपयोगी ग्रंथनिका किंचित् । अभ्यास करि टीकासहित समयसार पंचास्तिकाय प्रवचनसार नियमसार गोमट्टसार लब्धिसार त्रिलोकसार तत्त्वार्थसूत्र इत्यादि शास्त्र अर क्षपणासार पुरुषार्थसिद्धयु पाय अष्टपाहुड़ आत्मानुशासन आदि शास्त्र अर श्रावक मुनिका आचारके प्ररूपक अनेक शास्त्र अर सुष्टुकथासहित || पुराणादि शास्त्र इत्यादि अनेक शास्त्र हैं तिनिविष हमारै बुद्धि अनुसारि अभ्यास वर्ते है। तिसकरि हमारै हू किंचित् सत्यार्थ पदनिका ज्ञान भया है । बहुरि इस निकृष्ट समयविषै हम सारिखे मंदबुद्धीनितें भी हीनबुद्धि के धारक घने जन अवलोकिये है । तिनिकों तिनि पदनिके अर्थका ज्ञान होनेके अर्थि, धर्मानुरागके वश” देशभाषामय ग्रंथ करनेकी हमारै इच्छा भई है ।
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मो.मा.|| ताकरि हम यह ग्रंथ बनावे हैं सो याविषै भी अर्थसहित तिन ही पदनिका प्रकाशन हो है ।
| इतना तो विशेष है जैसे प्राकृत संस्कृत शास्त्रनिविषै प्राकृत संस्कृत पद लिखिए है तैसैं इहां । | अपभ्रंश लिए वा यथार्थपनेकूलिए देशभाषारूप पद लिखिए है परन्तु अर्थविषै व्यभिचार किछु ।
नाहीं है । ऐसें इस ग्रंथपर्यंत तिनि सत्यार्थपदनिकी परंपराय प्रवर्ते है। इहां कोऊ पूछे कि । परम्पराय तौ हम ऐसे जानी परन्तु इस परंपरायविर्षे सत्यार्थ पदनिहीकी रचना होतो आई | असत्यार्थ पद न मिले, ऐसी प्रतीत हमकों कैसे होय । ताका समाधान- असत्यार्थ पदनिकी रचना अति तीव्र कषाय भए बिना बने नाहीं । जातें जिस असत्य रचनाकरि परंपराय अनेक जीवनिका महा बुरा होय आपकों ऐसी महा हिंसाका फलकरि | नर्क निगोदविषै गमन करना होइ सो ऐसा महाविपरीत कार्य तो क्रोध, मान, माया, लोभ, अत्यन्त तीव्र भये ही होय । सो जैन धर्मविषै तो ऐसा कषायवान होता नाहीं । प्रथम मूल | उपदेशदाता तौ तीर्थंकर केवली भये सो तौ सर्वथा मोहके नासतें सर्व कषायनि करि रहित ही हैं । बहुरि ग्रंथकर्ता गणधर वा आचार्य ते मोहका मन्द उदयकरि सर्व बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहकों त्यागि महा मंदकषायी भए हैं, तिनिकै तिस मंदकषायकरि किंचित् शुभोपयोगहीकी प्रवृत्ति पाइए है और किछू प्रयोजन है नाहीं। बहुरि श्रद्धानी गृहस्थ भी कोऊ ग्रंथ बना है सो भी तीवकषायी नाहीं है जो वाकै तीवकषाय होय तौ सर्वकषायनिका जिस-तिस प्रकार
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नाश करणहारा जो जिनधर्म तिसर्विषे रुचि कैसे होय अथवा जो मोहके उदयतें अन्य कार्यनिकर कषायपो है तौ पोषौ परन्तु जिनश्राज्ञा भंगकर अपना कषाय पोषै तौ जैनीपना रहता नाहीं, ऐसें जिनधर्म्मविषै ऐसा तीव्रकषायी कोऊ होता नाहीं जो असत्य पदनिकी रचना - करि परका अर अपना पर्याय पर्यायविषै बुरा करे । इहां प्रश्न, जो कोऊ जैनाभास तीव्र - कषायी होय असत्यार्थ पदनिकों जैन शास्त्रनिविषै मिलावे पीछें ताकी परंपरा चली जाय तौ कहा करिये । ताका समाधान
जैसे कोऊ सांचे मोतीनिके गहनेविषै झूठे मोती मिलाबै परन्तु झलक मिलै नाहीं तातें परीक्षाकरि पारखी ठिगावै भी नाहीं, कोई भोला होय सो ही मोती नामकरि ठिगावै है । | बहुरि ताकी परंपरा भी चलें नाहीं, शीघ्र ही कोऊ झूठे मोतीनिका निषेध करें है । तैसें कोऊ सत्यार्थ पदनिके समूहरूप जैनशास्त्रनिविषे असत्यार्थ पद मिलावे परंतु जिनशास्त्र के पदनिविषै तौ कषाय मिटावनेका वा लौकिककार्य घटावनेका प्रयोजन है और उस पापीनै जे असत्यार्थ पद मिलाए हैं तिनिविषै कषाय पोषनेका वा लौकिक कार्य साधनेका प्रयोजन है ऐसें प्रयोजन मिलता नाहीं तातैं परीक्षाकरि ज्ञानी ठिगावते भी नाहीं, कोई मूर्ख होय सो ही जैनशास्त्र नामकरि ठिगावै है बहुरि ताकी परंपरा भी चाले नाहीं, शीघ्र ही कोऊ तिनि असत्यार्थ पदनिका निषेध करें है । बहुरि ऐसे तीव्रकषायी जैनाभास इहां इस निकृष्ट कालविषै ही होय हैं
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मो.मा.
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उत्कृष्ट क्षेत्र काल बहुत हैं तिस विषै तो ऐसे होते नाहीं । तातें जैनशास्त्रनिविषै सत्यार्थ | पदनिकी परम्परा चलै नाहीं ऐसा निश्चय करना । बहुरि वह कहै है कि कषायनिकरि तौ | सत्यार्थ पद न मिलावे परन्तु ग्रंथ करनेवालेकै क्षयोपशम ज्ञान है तातें कोई अन्यथा अर्थ भासै ताकर सत्यार्थ पद मिलावे ताकी तौ परंपरा चले; ताका समाधान, -
मूलग्रंथकर्ता तौ गणधरदेव हैं ते आप च्यारिज्ञानके धारक हैं और साक्षात् केवलीका दिव्यध्वनि उपदेश सुने हैं ताका अतिशयकरि सत्यार्थ ही भासे है । ताही अनुसार ग्रंथ बनावें हैं । सो उन ग्रंथनिविषै तो असत्यार्थ पद कैसे गूंथे जांय अर अन्य आचार्यादिक ग्रंथ बनावें हैं ते भी यथायोग्य सम्यग्ज्ञानके धारक हैं । बहुरि ते तिनि मूल ग्रंथनिका परंपरा| करि ग्रंथ बनावै हैं । बहुरि जिन पदनिका आपकौं ज्ञान न होइ तिनकी तो आप रचना करें नाहीं, अर जिन पदनिका ज्ञान होय तिनिकों सम्यग्ज्ञान प्रमाणतें ठीक ग्रंथ हैं सो प्रथम तौ ऐसी सावधानीविषै असत्यार्थ पद गूंथे जाय नाहीं, अर कदाचित् आपकों पूर्व ग्रंथनिके पदनिका अर्थ अन्यथा ही भासै अर अपने प्रमाणतामें भी तैसें ही प्राय जाय तो याका किछू सारा नहीं । परन्तु ऐसें कोईको भासे, सबहीकों तौ न भासै । तातैं जिनकों सत्यार्थ भास्या | होय ते ताका निषेधकरि परंपरा चलने देते नाहीं । बहुरि इतना जानना, जिनकौं अन्यथा जाने जीवका बुरा होय ऐसा देव गुरु धर्मादिक वा जीवादिक तत्त्वनिकों तौ श्रद्धानी जैनी अन्यथा
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जान ही नाही इानका तौ जैनशास्त्रनिविणे प्रसिद्ध कथन है अर जिनिकौं भ्रमकरि अन्यथा ।। जाने।भी जिनकी आज्ञा माननेते जीवका बुरा न होय ऐसा कोई सूक्ष्म अर्थ हो तिनिविप्रै ।। किसीकौं कोई अर्थ अन्यथा प्रमाणतामें ल्यावै तो भी ताका विशेष दोष नाहीं सो गोमट्टसार| विषै कह्या है,
सम्माइट्ठी जीवो,उवइटुं पवयणं तु सद्दहदि। सदहदि असब्भावं,अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥१॥
___ याका अर्थ-सम्यग्दृष्टी जीव उपदेश्या सत्य प्रवचनों श्रद्धान करै है अर अजाण| माण गुरुके नियोगः असत्यकों भी श्रद्धान करै है ऐसा कह्या है। बहुरि हमारे भी विशेष | ज्ञान नाहीं है । अर जिनाज्ञा भंग करनेका बहुत भय है परन्तु इसही विचारके बलते ग्रंथ | करनेका साहस करते हैं सो इस ग्रंथविर्षे जैसे पूर्व ग्रंथनिमें वर्नन है तैसें ही वर्नन करेंगे। अथवा कहीं पूर्व ग्रंथनिविषै सामान्य गूढ़ वर्नन है ताका विशेष प्रगटकरि वर्नन इहां करेंगे सो । | ऐसें वर्नन करनेविषे में तो बहुत सावधानी राखंगा अर सावधानी करते भी कहीं सूक्ष्म अर्थ-||
का अन्यथा वर्नन होयं जाय तौ विशेष बुद्धिमान् होय सो सँवारिकरि शुद्ध करियो । यह मेरी प्रार्थना है । ऐसें शास्त्र करनेका निश्चय किया है। अब इहां कैसे शास्त्र बांचने सुनने योग्य
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.. जे शास्त्र मोक्षमार्गका प्रकाश करें तेई शास्त्र वांचने सुनने योग्य हैं । जातें जीव सं- | प्रकाश । सारविषे नाना दुःखनिकरि पीड़ित है सो शास्त्ररूपी दीपककरि मोक्षमार्गको पावै तो उस |
मार्गविषै आप गमनकरि उन दुःखनितें मुक्त होइ । सो मोक्षमार्ग एक वीतरागभाव है तातें जिन शास्त्रनिविष काहूप्रकार रागद्वेष मोह भावनिका निषेध करि वीतराग भावका प्रयोजन प्रगट किया होय तिनिही शास्त्रनिका बांचना सुनना उचित है। बहुरि जिन शास्त्रनिविर्षे | श्रृंगार भोग कौतूहलादिक पोषि रागभावका, अर हिंसायुद्धादिक पोषि द्वेषभावका अर अतस्वश्रद्धान पोषि मोहभावका प्रयोजन प्रगट किया होय ते शास्त्र नाही, शस्त्र हैं । जातें जिन राग द्वेष मोह भावनिकरि जीव अनादितै दुःखी भया तिनकी वासना जीवकै बिना सिखाई। ही थी। बहुरि इन शास्त्रनिकरि तिनहीका पोषण किया, भले होनेकी कहा शिक्षा दीनी ? | जीवका स्वभाव घात ही किया तातै ऐसे शास्त्रनिका बांचना सुनना उचित नाहीं है । इहां | बांचना सुनना जैसे कह्या तैसें ही जोड़ना सीखना सिखावना विचारना लिखावना आदि कार्य | भी उपलक्षणकरि जानि लेनें। ऐसें साक्षात् वा परंपरायकरि वीतरागभावकों पोर्षे ऐसे शास्त्र ही अभ्यास करने योग्य हैं।
. अब इनिके वक्ताका स्वरूप कहिये है । प्रथम तो वक्ता कैसा चाहिये जो-जैन श्रद्धा# नविषे दृढ़ होय, जाते जो आप अश्रद्धानी होय तो औरकों श्रद्धानी कैसे करै । श्रोता तो
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मा.मा. आपहीत हीनबद्धिके धारक हैं तिनिकों कोऊ युक्तिकरि श्रद्धानी कैसे करै । अर श्रद्धान ही प्रकाश सर्व धर्मका मूल है । बहुरि वक्ता कैसा चाहिये जाकै विद्याभ्यास करनेते शास्त्र बांचने योग्य ||
बुद्धि प्रगट भई होय, जाते ऐसी शक्ति बिना वक्तापनीका अधिकारी कैसे होय। बहुरि वक्ता | कैसा चाहिये जो सम्यग्ज्ञानकरि सर्व प्रकारके व्यवहार निश्चयादिरूप व्याख्यानका अभिप्राय पिछानता होय, जाते जो ऐसा न होय तो कहीं अन्य प्रयोजन लिए व्याख्यान होय ताका |||
अन्य प्रयोजन प्रगटकरि विपरीत प्रवृत्ति करावै । बहुरि वक्ता कैसा चाहिये जाकै जिनआज्ञा || । भंग करनेका बहुत भय होय। जाते जो ऐसा न होय तो कोई अभिप्राय विचारि सूत्रविरुद्ध 1 उपदेश देय जीवनिका बुरा करै । सो ही कह्या है
बहुगुणविजाणिलयो, असुत्तभासी तहावि मुत्तव्यो। ___जह वरमणिजुत्तो वि हु विग्घयरो विसहरो लोए ॥१॥
याका अर्थ-जो बहुत क्षमादिक गुण अर व्याकरण आदि विद्याका स्थान है तथापि उत्सूत्रभाषी है तो छोड़ने योग्य ही है जैसे उत्कृष्टमणिसंयुक्त है तो भी सर्प है सो लोकवि विनका ही करणहारा है। बहुरि वक्ता कैसा चाहिये जाकै शास्त्र बांचि आजीवका आदि लौकिक कार्य साधनेकी इच्छा न होय । जातें जो आशावान् होय तौ यथार्थ उपदेश देय सकै नाहीं, वाकै तौ किछु श्रोतानिका अभिप्रायके अनुसारि व्याख्यानकरि अपने प्रयोजन
ఆంతరంగం
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मो. मा
प्रकाश
साधने का ही साधन रहै अर श्रोतानितें वक्ताका पद ऊंचा है परंतु वक्ता लोभी होय तौ वक्ता आधीन हो जाय, श्रोता ऊंचे होंय । बहुरि वक्ता कैसा चाहिये जाकै ती क्रोध मान न होय जातै तीव्र क्रोधी मानीकी निंदा होय, श्रोता तिसतैं डरते रहैं तब तिसतें अपना हित कैसे करे | बहुरि वक्ता कैसा चाहिए जो आप ही नाना प्रश्न उठाय आप ही उत्तर करै अथवा अन्य जीव अनेक प्रकारकरि बहुत विचारि प्रश्न करें तो भिष्टवचनकरि जैसे उनका संदेह दूरि होय तैसें समाधान करें । जातें जो आपके उत्तर देनेकी सामर्थ्य न होय तौ या कहै याका मोकौं ज्ञान नाहीं जातें जो ऐसा न होय तौ श्रोतानिका संदेह दूरि न होय तब कल्याण कैसे हो अर जिनमतकी प्रभावना होय सकै नाहीं । बहुरि वक्ता कैसा चाहिये जाकै अनीतिरूप लोकनिंद्य कार्यनिकी प्रवृत्ति न होय जातै लोकनिंद्य कार्यनिकरि हास्यका स्थान होय जाय तब ताका वचन कौन प्रमाण करें, जिनधर्मकों लजावै । बहुरि वक्ता कैसा चाहिये जाका कुल हीन न होय अंगहीन न होय स्वरभंग न होय मिष्टवचन होय प्रभुत्व होय तातैं लोकविषै मान्य होय, जातैं ऐसा न होय तो ताक वक्तापनाकी महंतता सोभै नाहीं ऐसा वक्ता होय । वक्ताविषै ये गुण तौ अवश्य चाहिये सो ही आत्मानुशासनविषै कला है—
प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः, प्रव्यक्तलोकस्थितिः
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मो.मा. प्रकाश
प्रास्ताशः प्रतिभापरःप्रशमवान् ,प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परनिन्दया
ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः, प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ॥१॥ याका अर्थ-बुद्धिमान होय, जाने समस्त शास्त्रनिका रहस्य पाया होय, लोकमर्यादा जाकै प्रगट भई होय, आशा जाकै अस्त भई होय, कांतिमान् होय, उपशमी होय, || है प्रश्न किए पहले ही जाने उत्तर देख्या होय, बाहुल्यपने प्रश्ननिका सहनहारा होय, प्रभु होय,
परकी वा परकरि आपकी निन्दारहितपनाकरि परके मनका हरनहारा होय, गुणनिधान होय, | स्पष्ट मिष्ट जाके वचन होंय, ऐसा सभाका नायक धर्मकथा कहै । बहुरि वक्ताका विशेष लक्षण |
ऐसा है जो याकै व्याकरण, न्यायादिक वा बड़े बड़े जैनशास्त्रनिका विशेष ज्ञान होय तो | विशेषपनै ताकौं वक्तापनों सोभै। बहुरि ऐसा भी होय अर अध्यात्मरसकरि यथार्थ अपने || | स्वरूपका अनुभवन जाकै न भया होय सो जिनधर्मका मर्म जानें नाही,पद्धतिहीकरि वक्ता होय || | है । अध्यात्मरसमय सांचा जिनधर्मका स्वरूप वाकरि कैसें प्रगट किया जाय तातें आत्मज्ञानी | होय तो सांचा वक्तापनों होय जातै प्रवचनसारविषै ऐसा कह्या है। आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान संयमभाव ये तीनों आत्मज्ञानकरि शून्य कार्यकारी नाहीं । बहुरि दोहापाहुविषै ऐसा कह्या है
पंडिय पंडिय पंडिय, कण छोड़ि वितुस कंडिया।
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तुट्टोस, परमस्थ ण जाणइ मूदोसि ॥ श याका अर्थ- हे पांडे हे पांडे हे पांडे ! तैं कणछोड़ि तुस ही खोटे है अर्थ अ शब्द विषै संतुष्ट है, परमार्थ न जाने है तातैं मूर्ख ही है ऐसा कया है । अर चौदह विद्यानिविषै भी पहले अध्यात्मविद्या प्रधान कही है तातें अध्यात्मरसका रसिया वक्ता है सो जिनधके रहस्यका वक्ता जानना । बहुरि जे बुद्धिऋद्धिके धारक हैं अवधि मनःपर्यय केवलज्ञानके धनी का हैं ते महावका जानने । ऐसें वक्तानिके विशेष गुण जानने । सो इन विशेष गुणनिका धारी वक्ताका संयोग मिलै तौ बहुत ही भला है अर न मिलै तौ श्रद्धानादिक गुणनिके धारी वक्तानिहीके मुखतै शास्त्र सुनना । याप्रकार गुनके धारी मुनि वा श्रावक तिनिके मुखतें। तौ शास्त्र सुनना योग्य है अर पद्धतिबुद्धिकरि वा शास्त्र सुननेके लोभकरि श्रद्धानादि गुणरहित पापी पुरुषनिके मुखतै शास्त्र सुनना उचित नाहीं । उक्तं च
तं जिचणपरेण, धम्मो सो यच्च सुगुरुपासम्मि । अह उचिओ सद्धाओ, तस्सुवएसस्सकहगाओ ॥१॥
याका अर्थ — जो जिन आज्ञा माननेविषै सावधान है ताकरि निर्ग्रन्थ सुगुरुही के निकटि धर्म सुनना योग्य है अथवा तिस सुगुरुहीके उपदेशका कहनहारा उचित श्रद्धानी श्रावक | तातें धर्म सुनना योग्य है । ऐसा जो वक्ता धर्म्मबुद्धिकरि उपदेशदाता होइ सो ही अपना
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मो.मा.
अर अन्य जीवनिका भला करै है । अर जो कषायबुद्धिकरि उपदेश दे है सो अपना अर अन्य जीवनिका बुरा करै है ऐसा जानना । ऐसें वक्ताका स्वरूप कह्या, अब श्रोताका स्वरूप
प्रकाश
भला होनहार है तातें जिस जीवकै ऐसा विचार आवै मैं कौन हौं मेरा कहा स्वरूप । है यह चरित्र कैसे बनि रह्या है ए मेरै भाव हो हैं तिनिका कहा फल लागैगा जीव दुःखी हो
रहा है सो दुःख दूरि होनेका कहा उपाय है मुझकों इतनी बातनिका ठीककरि किछु मेरा हित हो सो करना ऐसा विचारतें उद्यमवंत भया है । बहुरि इस कार्यकी सिद्धि शास्त्र सुन
नेते होती जानि अतिप्रीतिकरि शास्त्र सुनें है किछु पूछना होइ सो पूछ है बहुरि गुरुनिकर H कह्या अर्थकों अपने अंतरंगविषै वारंवार विचार है बहुरि अपने विचारतें सत्य अर्थनिका निश्चयकरि जो कर्तव्य होय ताका उद्यमी होय है ऐसा तो नवीन श्रोताका स्वरूप जानना। बहुरि जैनधर्मके गाढ़े श्रद्धानी हैं अर नाना शास्त्र सुननेकरि जिनकी बुद्धि निर्मल भई है बहुरि व्यवहार निश्चयादिकका स्वरूप नीकै जानि जिस अर्थकों सुने हैं ताकों यथावत् निश्चय | जानि अवधारै हैं । बहुरि जब प्रश्न उपजै है तब अति विनयवान होय प्रश्न करै हैं अथवा परस्पर अनेक प्रश्नोत्तरकरि वस्तुका निर्णय करै हैं शास्त्राभ्यासविषै अति आसक्त हैं धर्मबुद्धिकरि निंद्यकार्यनिके त्यागी भए हैं ऐसे शास्त्रनिके श्रोता चाहिए । बहुरि श्रोतानिके विशेष
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प्रकारा
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लक्षण ऐसे हैं । जाकै किछ व्याकरण न्यायादिकका वा बड़े जैन शास्त्रनिका ज्ञान होइ तौ श्रोतापनौ विशेष सोभै है । बहुरि ऐसा भी श्रोता है अर जाकै आत्मज्ञान न भया होय तौ | | उपदेशका मरम समझि सकै नाही, तातै आत्मज्ञानकरि जो स्वरूपका आस्वादी भया है सो |
जिनधर्मके रहस्यका श्रोता है। बहुरि जो अतिशयवंत बुद्धिकरि वा अवधि मनः पर्यय करि | । संयुक्त होय तौ वह महान् श्रोता जानना । ऐसें श्रोतानिके विशेष गुण हैं । ऐसे जिनशा
स्त्रनिके श्रोता चाहिये । बहुरि शास्त्र सुननेतें हमारा भला होगा ऐसी बुद्धिकरि जो शास्त्र | सुनै है परन्तु ज्ञानकी मन्दताकरि विशेष समझे नाही तिनिकै पुण्यबंध हो है , कार्य सिद्ध
होता नाहीं। बहुरि जे कुलवृत्तिकरि वा सहज योग बननेकरि शास्त्र सुने हैं, वा सुने तो हैं । परन्तु किछू अवधारण करते नाही, तिनकै परिणाम अनुसारि कदाचित् पुण्यवन्ध हो है | कदाचित् पापबन्ध हो है । बहुरि जे मद मत्सर भावकरि शास्त्र सुनें है वाद तर्क करनेंहीका जिनका अभिप्राय है । बहुरि जे महंतताके अर्थि वा किसी लोभादिकका प्रयोजनके अर्थि | शास्त्र सुनै हैं । बहुरि जोशास्त्र तो सुनै है .परंतु सुहावता नाहीं ऐसे श्रोतानिके केवल पाप-10 बन्ध ही हो है । ऐसा श्रोतानिका स्वरूप जानना । ऐसे ही यथासंभव सीखना सिखावना |
आदि जिनिकै पाइये तिनिका भी स्वरूप जानना । या प्रकार शास्त्रका अर वक्ता श्रोताका स्वरूप कह्या सो उचित शास्त्रको उचित वक्ता होय बांचना, उचित श्रोता होय सुनना योग्य
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प्रकाश
है। अब यह मोक्षमार्गप्रकाश नाम शास्त्र रचिए है ताका सार्थकपना दिखाइये है
इस संसार अटवीविङ्ग समस्त जीव हैं ते कर्मनिमित्ततै निपजे जे नानाप्रकार दुःख | तिनकरि पीड़ित हो रहे हैं । बहुरि तहां मिथ्या अन्धकार व्याप्त होय रहा है। ताकरि तहांतें मुक्त होनेका मार्ग पावते नाही, तड़फि-तड़फि तहां ही दुखकौं सहें हैं । बहुरि ऐसे जीवनिका भला होनेकौं कारण तीर्थंकर केवली भगवान् सो ही भया सूर्य ताका भया उदय ताकी दिव्यध्वनिरूपी किरणनिकरि तहांत मुक्तहोनेका मार्ग प्रकाशित किया ।जैसे सूर्यकै ऐसी इच्छा नाहीं जो मैं मार्ग प्रकाशं परन्तु सहज ही वाकी किरण फैले हैं ताकरि मार्गका प्रकाशन हो है तैसें ही केवली वीतराग हैं तातै ताकै ऐसी इच्छा नाहीं जो हम मोक्षमार्ग प्रगट करैं परंतु सहज ही अघातिकर्मनिका उदयकरि तिनिका शरीररूप पुद्गल दिव्यध्वनिरूप परिणम है ता-IN करि मोक्षमार्गका प्रकासन हो है। बहुरि गणधर देवनिकै यह विचार आया जहां केवली सूर्यका अस्तपना होइ तहां जीव मोक्षमार्गकौं कैसे पावै, अर मोक्षमार्ग पाए बिना जीव दुःख सहेंगे ऐसी करुणाबुद्धिकरि अंग प्रकीर्णकादिरूप ग्रन्थ तेई भए महान् दीपक तिनिका उद्योत | किया। बहुरि जैसे दीपकरि दीपक जोवनेते दीपकनिकी परंपरा प्रवत्र्ते तैसें आचार्यादिकनिकरि तिन ग्रंथनितै अन्य ग्रंथ बनाए । बहुरि तिनिहर्ते किनिहू अन्य ग्रंथ बनाए ऐसे ग्रंथनि ग्रंथ होनेते ग्रंथनिकी परंपरा वर्ते है । मैं भी पूर्वग्रंथनितें इस ग्रंथकों बनाऊं हूं। बहुरि जैसे
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। सूर्य वा सर्व दीपक हैं ते मार्यों एकरूप ही प्रकारों से तैसें दिव्यध्वनि वा सर्व ग्रंथ हैं ते 1 प्रकाश । मोक्षमार्गकों एकरूप ही प्रकाशै हैं । सो यह भी ग्रंथ मोक्षमार्गकौं प्रकासे है। बहुरि जैसें ।
प्रकाशे भी नेत्ररहित वा नेत्रविकार सहित पुरुष हैं तिनिकू मार्ग सूझता नाहीं तो दीपककै तौ मार्गप्रकाशकपनेका अभाव भया नाही, तैसैं प्रगट कीए भी जे मनुष्य ज्ञान रहित हैं वा मिथ्यात्वादि विकारसहित हैं तिनिकू मोक्षमार्ग सूझता नाहीं तौ ग्रंथकै तौ मोक्षमार्गप्रकाशपनेका अभाव भया नाहीं । ऐसें इस ग्रंथका मोक्षमार्गप्रकाशक ऐसा नाम सार्थक जानना। इहां प्रश्न जो मोक्षमार्गके प्रकाशक पूर्व ग्रंथ तो थे ही, तुम नवीन ग्रंथ काहेकों बनावो हो । ताका समाधान
जैसे बड़े दीपकनिका तौ उद्योत बहुत तैलादिकका साधनते रहै है जिनिकै बहुत | तैलादिककी शक्ति न होइ तिनिकों स्तोक (छोटा) दीपक जोइ दीजिए तो वै उसका साधन राखि | | ताके उद्योतते अपना कार्य करें, तैसें बड़े ग्रंथनिका तौ प्रकाश बहुत ज्ञानादिकका साधनते | रहै है. जिनिकै बहुत ज्ञानादिककी शक्ति नाहीं तिनिक स्तोक ग्रंथ बनाय दीजिए तौ वै वाका | साधन राखि ताके प्रकाशतें अपना कार्य करें। तातै यह स्तोक सुगम ग्रंथ बनाइये है। | बहुरि इहां जो मैं यह ग्रंथ बनाऊँ हूँ सो कषायनितें अपना मान बधावनेकौं वा लोभ साधनेकौं वा यश होनेकौं वा अपनी पद्धति राखनेकों नाहीं बनावौं हों। जिनिकै व्याकरण न्याया
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दिकका चा नयप्रमाणादिकका वा विशेष अर्थनिका ज्ञान नाहीं तातें तिनिकै बड़े ग्रंथनिका ||
अभ्यास तो बनि सके नाहीं । बहुरि कोई छोटे ग्रंथनिका अभ्यास बनै तो भी यथार्थ अर्थ | भास नाहीं । ऐसें इस समयविषै मंदज्ञानवान् जीव बहुत देखिये है तिनिका भला होने के
अर्थि धर्मबुद्धि” यह भाषामय ग्रंथ बनावौं हौं, बहुरि जैसे बड़े दरिद्रीकौं अवलोकनमात्र चिंतामणिकी प्राप्ति होइ अर वह न अवलोकै बहुरि जैसे कोढ़ीकू अमृत पान करावै अर वह न करै तैसें संसारपीड़ित जीवकौं सुगम मोक्षमार्गके उपदेशका निमित्त बनै अर वह अभ्यास ] न करै तौ बाके अभाग्यकी महिमा कौन करि सके। वाका होनहारहको विचारे अपने समता आवै । उक्तं च
__ साहीणे गुरुजोमे, जे ण सुणन्तीह धम्मवयणाई ।
ते धिट्ठदुद्दचित्ता, अह सुहडा भवभयविहणा ॥१॥ - खाधीन उपदेशदाता गुरुका योग जुड़ें भी जे जीव धर्म वचननिकों नाहीं सुनें हैं ते धीठ हैं अर उनका दुष्टचित्त है अथवा जिस संसारभयतें तीर्थकरादिक डरे तिस संसार भयतै रहित हैं ते बड़े सुभट हैं । बहुरि प्रवचनसारविषै भी मोक्षमार्गका अधिकार किया तहां |
प्रथम आगमज्ञान ही उपादेय कह्या सो इस जीवका तो मुख्य कर्त्तव्य आगमज्ञान है । याकों A होते तत्वनिका श्रद्धान हो है तत्वनिका श्रद्धान भए संयमभाव हो है अर तिस आगमते
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आत्मशामकी भी प्राप्ति हो है तब सहज ही मोक्षकी प्राप्ति हो है । बहुरि धर्मके अनेक अंग हे तिनिविषै एक ध्यान बिना यातें ऊँचा और धर्मका अंग नाहीं है तातें जिस-तिस प्रकार आगम अभ्यास करना योग्य है । बहुरि इस ग्रंथका तो बांचना सुनना विचारना घना सुगम है कोऊ ठ्याकरणादिकका भी साधन न चाहिए तातें अवश्य याका अभ्यासविषै प्रवर्ती | तुम्हारा कल्यान होइगा। इति श्रीमोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्रविषै पीठबंधप्ररूपक प्रथम अधिकार
समाप्त भया ॥१॥
® दोहा । मिथ्याभाव अभावतें, जो प्रगटै निजभाव।
सो जयवंत रहौ सदा, यह ही मोक्षउपाव ॥१॥ अब इस शास्त्रविषै मोक्षमार्गका प्रकाश करिए है। तहां बन्धनतें छूटनेका नाम मोक्ष है । सो इस आत्माकै कर्मका बन्धन है तिस बन्धनकरि आत्मा दुःखी होय रह्या है। बहुरि याकै दुःख दूरि करनेहीका निरन्तर उपाय भी रहै है परन्तु सांचा उपाय पाए बिना दुःख दूरि होता नाहीं अर दुःख सह्या भी जाता नाहीं तातें यह जीव व्याकुल होय रह्या है
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ऐसे जीवकों समस्त दुःखका मूल कारन कर्म्मबन्धन है ताका अभावरूप मोच है सोई हित है । बहुरि याका सांचा उपाय करना सो ही कर्त्तव्य है तातैं इसही का याक उपदेश दीजिए है । तहां जैसें वैद्य है सो रोगसहित मनुष्यकौं प्रथम तौ रोगका निदान बतावै ऐसें यह रोग भया है । बहुरि उस रोगके निमित्ततै वाकै जो जो अवस्था होती होइ सो बतावै ताकरि वाकै निश्चय होइ जो मेरे ऐसा ही रोग है । बहुरि तिस रोगके दूरि करने का उपाय अनेक प्रकार बतावै अर तिस उपायकी प्रतीति अनावै । इतना तौ वैद्यका बतावना है। बहुरि जो वह रोगी ताका साधन करै तौ रोग मुक्त होय अपना स्वभावरूप प्रवर्त्ते सो यह रोगीका कर्त्तव्य है । तैसें ही इहां कर्मबंधनयुक्त जीवकों प्रथम तौ कर्मबंधनका निदान बताइये है ऐसें यह कर्मबंधन भया है । बहुरि उस कर्मबंधनके निमित्ततै याकै जो-जो अवस्था होती है सो बताइये है । ताकरि जीवकै निश्चय होइ जो मेरे ऐसें ही कर्मबंधन है । बहुरि तिस कर्मबंधनके दूरि होनेका उपाय अनेक प्रकार बताइये है अर तिस उपायकी याकौं प्रतीति अनाइए है इतना तौ शास्त्रका उपदेश है । बहुरि यह जीव ताका साधन करै तौ कर्मबंधनते | मुक्त होइ अपना स्वभावरूप प्रवर्त्ते सो यह जीवका कर्त्तव्य है सो इहां प्रथम ही कर्मबंधनका निदान बताइए है । बहुरि कर्मबंधन होनेते नाना उपाधिक भावनिंविषै परिभ्रमणपन पाइये है एक रूप रहनौं न हो है तातै कर्मबंधन सहित अवस्थाका नाम संसार अवस्था है । सो
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इस संसार अवस्थाविषै अनन्तानन्त जीव हैं ते श्रनादिही तैं कर्मबंधन सहित हैं ऐसा नाहीं है जो जीव पहले न्यारा था अर कर्म न्यारा था पीछे इनिका संयोग भया । तौ कैसें है - जैसें, | मेरुगिरि आदि अकृत्रिम स्कंधनिविषै अनंते पुदगल परमाणु अनादितैं एक बन्धनरूप हैं । | पीछे तिनमें केई परमाणु भिन्न हो हैं केई नए मिलें हैं । ऐसें मिलना बिछुरना हुआ करें है । | तैसें इस संसारविषै एक जीव द्रव्य अर अनंते कर्मरूप पुदगलपरमाणु तिनिका अनादितै एक बंधनरूप है पीछें तिनिमैं केई कर्मपरमाणु भिन्न हो हैं ऐसें मिलना विलुरना हुआ करै है । बहुरि इहां प्रश्न — जो पुद्गलपरमाणु तौ सगादिकके निमित्ततैं कर्मरूप हो हैं अनादि कर्मरूप कैसे हैं ? ताका समाधान
निमित्त तौ नवीन कार्य होय तिसविषै ही संभव है । अनादि अवस्थाविषै निमित्तका किछू प्रयोजन नाहीं । जैसें नवीन पुद्गलपरमाणुनिका बंधान तौ स्निग्ध रूक्ष गुणकेशनकरि ही हो है अर मेरुगिरि आदि स्कन्धनिविषै अनादि पुद्गलपरमाणुनिका बंधान है तह निमित्तका कहा प्रयोजन है । तैसें नवीन परमाणुनिका कर्मरूप होना तौ रागादिक हो है र अनादि पुद्गलपरमाणुनिकी कर्मरूप ही अवस्था है। तहां निमित्तका कहा प्रयोजन है ? बहुरि जो अनादिविषै भी निमित्त मानिए तौ अनादिपना रह नाहीं । तातें कर्मका सम्बन्ध अनादि मानना । सो तत्त्वप्रदीपिका प्रवचनसार शास्त्रकी व्याख्याविषै जो सामान्य
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ज्ञेयाधिकार है तहां कह्या है। रागादिकका कारण तौ द्रव्य कर्म है, अर द्रव्यकर्मका कारण रागादिक है । तब उहां तर्क करी जो ऐसे इतरेतराश्रयदोष लागै वह वाकै आश्रय वह वाके आश्रय कहीं भाव नाहीं है, तव उत्तर ऐसा दिया है
नैवं अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्मसम्बन्धस्य तत्र हेतुत्वेनोपादानात् ।
याका अर्थ-ऐसे इतरेतराश्रय दोष नाहीं है। जाते अनादिका खयंसिद्ध द्रव्य| कर्मका संबंध है ताका तहां कारणपनाकरि ग्रहण किया है । ऐसें आगममें कह्या है। बहुरि | । युक्तिते भी ऐसे ही संभव है जो कर्मनिमित्त विना पहले जीवकै रागादिक कहिए तौ रागादिक जीवका निज खभाव होय जाय जाते परनिमित्त बिना होइ ताहीका नाम स्वभाव है। तातें | कर्मका संबंध अनादि ही मानना । बहुरि इहां प्रश्न जो न्यारे-न्यारे द्रव्य अर अनादित | तिनिका संबंध कैसे संभवै । ताका सभाधान,
जैसे ठेठिहीसूं जल दूधका वा सोना किट्टिकका वा तुष कणका वा तैल तिलका संबंध देखिये है नवीन इनिका मिलाप भया नाहीं तैसें अनादिहीसौं जीवकर्मका संबंध | जानना, नवीन इनिका मिलाप नाहीं भया । बहुरि तुम कही कैसे संभवै ? अनादितै जैसे केई जुदे द्रव्य है तैसें केई मिले द्रव्य हैं इस संभवनेंविणे किछ विरोध तौ भासता नाहीं। बहुरि प्रश्न जो सम्बन्ध वा संयोग कहना तौ तब संभवै जब पहले जुदे होइ पीछे मिलें । इहां
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अनादि मिले जीव कर्मनिका संबंध कैसे कया है । ताका समाधान
- अनादित तो मिले थे परन्तु पीछे जुदे भए तब जान्या जुदे थे तो जुदे भये । तातें | पहले भी भिन्न ही थे। ऐसे अनुमानकरि वा केवलज्ञानकरि प्रत्यक्ष भिन्न भासे हैं । तिसकरि | तिनिका बंधान होते भिन्नपणा पाइये है । बहुरि तिस भिन्नताकी अपेक्षा तिनिका सम्बन्ध | वा संयोग कह्या है जाते नए मिलो वा मिले हो होहु, भिन्न द्रव्यनिका मिलापविषे ऐसे ही | कहना संभव है । ऐसें इनि जीवनिका अर कर्मका अनादिसम्बन्ध है। तहां जीव द्रव्य तौ । | देखने जाननेरूप चैतन्यगुणका धारक है । अर इंद्रियगम्य न होने योग्य अमूर्तीक है । सङ्कोच विस्तारशक्तिकों लिए असंख्यातप्रदेशी एकद्रव्य है । बहुरि कर्म है सो चेतनागुणरहित जड़ है
अर मूर्तीक है अनन्त पुद्गल परमाणनिका पुञ्ज है। ता एक द्रव्य नाहीं है। ऐसे ए जीव |अर कर्म हैं सो इनिका अनादिसम्बन्ध है तो भी जीवका कोई प्रदेश कर्मरूप न हो है अर कर्मका कोई परमाणु जीवरूप न हो है । अपने-अपने लक्षणकों धरें जुदे-जुदे ही रहें हैं । जैसे सोना रूपाका एक स्कंध होइ तथापि पीतादि गुणनिकों धरें सोना जुदा रहै है स्वेततादि | गुणनिकों धरें रूपा जुदा रहै है, तैसें जुदे जानने। इहां प्रश्न-जो मूर्तीक मूर्तीकका तो | बंधान होना बनै अमूर्तीक-मूर्तीकका बंधान कैसे बने। ताका समाधान
. जैसे अव्यक्त इंद्रियगम्य नाहीं ऐसे सूक्ष्मपुद्गल अर व्यक्त इंद्रियगम्य हैं ऐसे स्थूल
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| पुद्गल तिनका बंधान होना मानिए है तैसें इंद्रियगम्य होने योग्य नाहीं ऐसा अमूर्तीक |
आत्मा अर इंद्रियगम्य होने योग्य मूर्तीककर्म इनिका भी बंधान होना मानना। बहुरि इस बंधानविषै कोऊ किसीकों करै तौ है नाहीं । यावत् बंधान रहै तावत् साथि रहै बिछुरै नाहीं अर कारणकार्यपना तिनिकै बन्या रहै इतना ही यहां बंधान जानना । सो मूर्तीक अमूर्तीककै ऐसें बंधान होनेविर्षे किछू विरोध है नाहीं। या प्रकार जैसें एक जीवकै अनादिकर्मसम्बन्ध कह्या तैसें ही जुदा-जुदा अनन्त जीवनिकै जानना । बहुरि सो कर्म ज्ञानावरणादि भेदनिकरि आठ प्रकार है तहां च्यारि घातियाकर्मनिके निमित्ततें तो जीवके स्वभावका घात हो है। तहां ज्ञानावरण दर्शनावरणकरि तौ जीवके स्वभाव दर्शन ज्ञान तिनिकी व्यक्तता नाहीं हो है। तिनि कर्मनिका क्षयोपशमके अनुसारि किंचित् ज्ञान दर्शनकी व्यक्तता रहै है। बहुरि मोहनीयकरि जीवके स्वभाव नाहीं ऐसे मिथ्याश्रद्धान वा क्रोध मान माया लोभादिक कषाय || तिनिकी व्यक्तता हो हैं । बहुरि अंतरायकरि जीवका खभाव दीक्षा लेनेकी समर्थतारूप वीर्य || साकी व्यक्तता न हो है ताका क्षयोपशमकै अनुसार किंचित् शक्ति रहै है ऐसा घातिकर्मनिके निमित्ततै जीवके स्वभावका घात ‘अनादिहीतै भया है ऐसें नाहीं जो पहले तो स्वभावरूप शुद्ध आत्मा था पीछे कर्मनिमित्तते खभाव घातकरि अशुद्ध भया । इहां तर्क,—जो घात नाम तौ अभावका है सो जाका पहलै सद्भाव होय ताका अभाव कहना बनैं इहां खभावका
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तो सद्भाव है ही नाही. घात किसका किया। ताका समाधान
जीवविर्षे अनादिही तें ऐसी शक्ति पाइए है जो कर्मका निमित्त न होइ तौ केवल-11 || ज्ञानादि अपने स्वभावरूप प्रवर्ते परन्तु अनादिही ते कर्मका सम्बन्ध पाइये है। तातै तिस ॥ शक्तिका व्यक्तपना न भया सो शक्तिअपेक्षा स्वभाव है ताका व्यक्त न होने देनेकी अपेक्षा | घात किया कहिए है । बहुरि च्यारि अघातिया कर्म हैं तिनिके निमित्तते इस आत्माकै बाह्य सामग्रीका सम्बन्ध बने है तहां वेदनीयकरि तो शरीरविषै वा शरीरतें बाह्य नानाप्रकार सुख | दुःखकों कारण परद्रव्यनिका संयोग जुरै है अर आयुकरि अपनी स्थितिपर्यंत पाया शरीरका | | सम्बन्ध नाहीं छुटि सके है । अर नामकरि गति जाति शरीरादिक निपजें हैं अर गोत्रकरि । | ऊँचानीचा कुलकी प्राप्ति हो हे ऐसे अघातिकर्मनिकरि बाह्य सामग्री भेली होय है ताकरि । | मोहके उदयका सहकार होते जीव सुखी दुःखी हो है। अर शरीरादिकनिके सम्बन्धते ।
जीवकै अमूर्त्तत्वादि खभाव अपने स्वार्थकों नाहीं करें है। जैसे कोऊ शरीरकौं पकरै तौ आत्मा | भी पकरया जाय । बहुरि यावत् कर्मका उदय रहे तावत् बाह्य सामग्री तैसें ही बनी रहै | अन्यथा न होय सकै ऐसा इनि अघातिकर्मनिका निमित्त जानना । इहां कोऊ प्रश्न करै कि कर्म तो जड़ हैं किछू बलवान नाहीं तिनिकरि जीवके स्वभावका घात होना वा बाह्य सामग्री | का मिलना कैसे संभव है । ताका समाधान
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जो कर्म आप कर्त्ता होय उद्यमकरि जीवके स्वभावकों घातै बाह्य सामग्रीकों मिलावै तब तो कर्मके चैतन्यपनों भी चाहिये अर बलवानपनों भी चाहिये सो तो है नाही, सहज ही निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । जब उन कर्मनिका उदयकाल होय तिस कालविणे आप ही
आत्मा स्वभावरूप न परिणमै विभावरूप परिणमै वा अन्य द्रव्य हैं से तैसे ही सम्बन्धरूप होय परिणमें । जैसें काहू पुरुषकै सिरपरि मोहनधूलि परी है सिसकरि सो पुरुष बावला भया तहां । उस मोहनधूलिकै ज्ञान भी न था अर बलवानपना भी न था अर बावलापना तिस मोहनधूलि
ही करि भया देखिए है । मोहनधूलिका तौ निमित्त है अर पुरुष भापही घावला हुआ परिणम है । ऐसा ही निमित्त नैमितिक बनि रहा है। बहुरि जैसे सूर्यका उदयका कालविणे चकवा चकवीनिका संयोग होय तहां रात्रिविषै किसीने दोषबुद्धितै जोरावरीकरि जुदे किये। नाहीं । दिवसत्रि काहूकरुणाबुद्धिकरि मिलाए नाहीं सूर्य उदयका निमिन्नपाय आप ही मिले हैं ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक बनि रह्या है । तैसें ही कर्मका भी निमित्तनैमित्तिकभाव || जानना । ऐसें कर्मका उदयकरि अवस्था होय है। बहुरि तहां नवीन बंध कैसे होय है सो | कहिए है,
' जैसे सूर्यका प्रकाश है सो मेघपटलतें जितना व्यक्त नाही तितनेका तो तिसकाल | | विषे अभाव है बहुरि तिस मेघपटलका मंदपनाते जेता प्रकाश प्रगटै है सो तिस सूर्यके ख
అంగం నుంచి నిరంతరం
సురNaa 500090
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मो.मा भावका अंश है मेघपटलजनित नाही है । तैसें जीवका ज्ञान दर्शन वीर्य स्वभाव है सो ज्ञानाप्रकाश | | वरण दर्शनावरण अन्तरायके निमित्ततें जितने व्यक्त नाही तितनेंका तो तिसकालविर्षे अ-
भाव है । बहुरि तिन कर्मनिका क्षयोपशमते जेता ज्ञान दर्शन वीर्य प्रगट है सो तिस जीवके । । स्वभावका अंश ही है कर्मजनित उपाधिक भाव नाहीं है । सो ऐसे स्वभावके अंशका अनादितें ।
लगाय, कबहूँ अभाव न हो है । याहीकरि जीवका जीवत्वपना निश्चय कीजिए है। जो यह । देखनहार जाननहार शक्तिकों धरें वस्तु है सो ही आत्मा है। बहुरि इस स्वभावकरि नवीन
कर्मका बंध नाहीं है जातें निज स्वभाव हो बंधका कारन होय तो बंधका छूटभा कैसे होय ।। | बहुरि तिन कर्मनिके उदयते जेता ज्ञान दर्शन वीर्य अभावरूप है ताकरि भी बंध नाहीं है
जातें आपहीका अभाव होते अन्यकों कारन कैसे होय । तातें ज्ञानावरण दर्शनावरण अंतराय A के निमित्त उपजे भाव नवीनकर्मबंधके कारन नाहीं । बहुरि मोहनीय कर्मकरि जीवकै अय
थार्थश्रद्धानरूप तो मिथ्यात्वभाव हो है वा क्रोध मान माया लोभादिक कषाय हो हैं ते । यद्यपि जीवके अस्तित्वमय हैं जीवतें जुदे नाहीं, जीव ही इनिका कर्ता है जीवके परिणमनरूप
ही ये कार्य में तथापि इनिका होना मोहकर्मके निमित्ततें ही है कर्मनिमिस दूरि भए इनिका अभाव ही है तातें ए जीवके निजस्वभाव नाही उपाधिकभाव हैं। बहुरि इनि भावनिकरि नवीनबंध हो है तातें मोहके उदयतें निपजे भाव बंधके कारन हैं। बहुरि अघातिकर्मनिके
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| उदय बाह्य सामग्री मिले है तिनिविषे शरीरादिक तो जीवके प्रदेशनिसों एक क्षेत्रावगाही | । होयं एकबंधानरूप ही हो हैं । अर धन कुटुम्बादिक आत्माते भिन्नरूपहें सो ए सर्व बंधके कारन नाहीं हैं जाते परद्रव्य बंधका कारन न होय । इनिविषै आत्माकै ममत्वादिरूप मिथ्यास्वादिभाव हो हैं सो इसका कारन जानना । बहुरि इतना जानना जो नामकर्मके उदयतें | शरीर वा वचन वा मन निपजे हैं तिनिकी चेष्टाके निमित्त आत्माके प्रदेशनिका चंचलपना हो है । ताकरि आत्माकै पुद्गलवर्गणासों एक बंधान होनेकी शक्ति हो है ताका नाम योग है। साके निमित्ततें समय-समय प्रति कर्मरूप होनेयोग्य अनंत परमाणनिका ग्रहण हो है। तहां | अल्पयोग होय तो थोरे परमाणनिका ग्रहण होय, बहुत योग होय तो घनें परमाणनिका ग्रहण | होय । बहुरि एक समय जे पुद्गलपरमाण आहे तिनिविष ज्ञानावरणादि मूलप्रकृति वा तिनिकी | उत्तर प्रकृतीनिका जैसे सिद्धान्तविषै कह्या है तैसें बटवारा हो है तिस बटवारा माफिक परमाण तिनि प्रकृतीनिरूप आप हो परिणमै हैं। विशेष इतना कि योग दोय प्रकार है शुभयोग | अशुभयोग । तहां धर्मके अंगनिविष मनवचनकायकी प्रवृत्ति भए तौ शुभयोग हो है अर | अधर्म अंगनिविषै तिनिकी प्रवृत्ति भए अशुभयोग हो है। सो शुभयोग होहु वा अशुभयोग | होहु सम्यक्त्व पाए बिना घातियाकर्मनिका तौ सर्व प्रकृतीनिका निरन्तर बंध हुआ ही करै है। कोई समय किसी भी प्रकृतीका बंध हुआ बिना रहता नाहीं । इतना विशेष है जो मोहनीयको
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हास्थ शोक युगलविषे रति अरति युगलविणे तीनों वेदनिविष एकै काल एक-एक ही प्रकृति| का बंध हो है । अघातियानिकी प्रकृतिविषे शुभोपयोग होते सातावेदनीय आदि पुण्यप्रक-|| | तीनिका बंध हो है । अशुभयोग होते असातावेदनीय आदि पाप प्रकृतीनिका बंध हो है। मिश्रयोग होते कैई पुण्यप्रकृतीनिका कैई पापप्रकृतीनिका बंध हो है । ऐसें योगके निमित्त | कर्मका आगमन हो है। तातें योग है सो आस्रव है। बहुरि याकरि ग्रहे कर्मपरमाणनिका | नाम प्रदेश है तिनिका बंध भया अर तिनिविषै मूल उत्तरप्रकृतीनिका विभाग भया ताते योगनिकरि प्रदेशबंध वा प्रकृतिबंधका होना जानना । बहुरि मोहके उदयतें मिथ्यात्व क्रोधा-11 दिक भाव हो हैं, तिनि सबनिका नाम सामान्यपनै कषाय है । ताकरि तिनि कर्मप्रकृतिनिकी | स्थिति बंधे है सो जितनी स्थिति बंधै तिसविषै आवाधा काल छोड़ि तहां पीछे यावत् बंधी
स्थिति पूर्ण होय तावत् समय-समय तिस प्रकृतिका उदय माया ही करै । सो देव मनुष्य | तिर्यंचायु बिना अन्य सर्वघातिया-अघातिया प्रकृतीनिका अल्पकषाय होते थोरा स्थितिबंध होय, बहुत कषाय होते घना स्थिति बंध होय । इनि तीन आयूनिका अल्पकषायतें बहुत,अर बहुत कषायतें अल्प स्थितिबंध जानना। बहुरि तिस कषायहीकरि तिनि कर्मप्रकृतीनिविणे अनुभागशक्तिका विशेष हो है सो जैसा अनुभाग बँधै तैसा ही उदयकालविषै तिनि प्रकृतीनिका घना वा थोरा फल निपजै है । तहां घाति कर्मनिकी सर्व प्रकृतीनिविषै वा अघाति क
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मनिकी पाप प्रकृतीनिविषै तो अल्पकषाय होते थोरा अनुभाग बंधे है। बहुत कषाय होते, घना अनुभाग बंधै है । बहुरि पुण्यप्रकृतीनिविषे अल्पकषाय होते घना अनुभाग बंधै है। | बहुत कषाय होते थोरा अनुभाग बंध है । ऐसें कषायनिकरि कर्मप्रकृतिनिकै स्थिति अनुभाग का विशेष भया तातें कषायनिकरि स्थितिबंध अनुभागबंधका होना जानना। इहां जैसे बहुत । भी मदिरा है अर ताविषै थोरे कालपर्यंत थोरी उन्मत्तता उपजावनेकी शक्ति है तो वह मदिरा हीनपनाको प्राप्त है । बहुरि थोरी भी मदिरा है ताविषे बहुत कालपर्यंत घनी उन्मत्तता उपजावनेकी शक्ति है तो वह मदिरा अधिकपनाकौं प्राप्त है । तैसें घने भी कर्मप्रकृतीनिके परमाण हैं अर तिनिविणे थोरे कालपर्यंत थोरा फल देनेकी शक्ति है तो ते कर्मप्रकृति हीनताकौं प्राप्त | हैं। बहुरि थोरे भी कर्मप्रकृतिनिके परमाण हैं अर तिनिविषै बहुत कालपर्यंत बहुत फल देनेकी
शक्ति है तो ते कर्मप्रकृति अधिकपनाको प्राप्त हैं तात योगनिकरि भया प्रकृतिबंध प्रदेशबंध | | बलवान नाहीं । कषायनिकरि किया स्थितिबंध अनुभागबंध ही बलवान है तातें मुख्यपनै कषाय ही बंधका कारन जानना । जिनिकों बंध न करना होय ते कषाय मति करौ। बहुरि इहां कोऊ प्रश्न करै कि पुद्गलपरमाणू तो जड़ हैं उनकै किछू ज्ञान नाहीं, कैसे यथायोग्य प्रकृतिरूप होय परिणमें हैं ताका समाधान
जैसें भूखा होते मुखद्वारकरि ग्रह्याहुआ भोजनरूप पुदगलपिंड सो मांस शुक्र शो
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णित आदि थातुरूप परिणमै है। बहुरि तिस भोजनके परमाणनिधि यथायोग्य कोई धातुरूप थोरे, कोई धातुरूप घने परमाणू हो हैं। बहुरि तिनिविषै कोई परमाणनिका संबंध घने काल रहै कोईनिका मेरे काल रहै । बहुरि तिनिपरमाणूनिविषै कोई तो अपने कार्य निपजाबनेको शक्तिकों बहुत धारै हैं कोई स्तोकशक्तिकों धरै हैं । सो ऐसे होनेविष कोऊ भोजनरूप पुग़लपिंडकै ज्ञान तौ नाहीं है जो मैं ऐसे परिणमौं अर और भी कोऊ परिणमावनहारा, नाहीं है, ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक भाव बनि रह्या है ताकरि तैसें ही परिणमन पाइये है। तैसें ही कषाय होते योगद्वारिकरि ग्रह्याहुआ कर्मवर्गणारूप पुदगलपिंड सो ज्ञानावरणादि प्रकृतिरूप परिणमै है । बहुरि तिनि कर्मपरमाणू निविर्षे यथायोग्य कोई प्रकृतिरूप थोरे, कोई प्रकृतिरूप घने परमाणु होय हैं। बहुरि तिनिधिषे कोई परमाणनिका संबंध घने काल रहै कोईनिका थोरे काल रहै । बहुरि तिनिपरमाणनिविषै कोऊ तो अपने कार्य निपजावनेकी बहुत शक्ति धरै हैं कोऊ थोरी शक्ति धरै हैं सो ऐसे होनेविष कोऊ कर्मवर्गणारूप पुद्गलपिंडकै | ज्ञान तौ नाहीं है जो मैं ऐसे परिणमौं अर और भी कोई परिणमावनहारा है नाही, ऐसा ही निमित्सनैमित्तिकभाव बनि रह्या है ताकरि तैसें ही परिणमन पाइए है। सो ऐसे तो लोकविर्षे निमित्त नैमित्तिक घने ही बनि रहे हैं। जैसे मंत्रनिमित्तकरि जलादिकवि रोगादिक दूरिकरने की शक्ति हो है वा कांकरी आदिविषै सर्पादि रोकनेकी शक्ति हो है तैसे ही जीवभावके निमि
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तकरि पुद्गलपरमाणू निविषै ज्ञानावरणादिरूप शक्ति हो है । इहां विचारकरि अपने उद्यमतें | प्रकाश
कार्य करै तौ ज्ञान चाहिए अर तैसा निमित्त बने स्वयमेव तैसें परिणमन होय तौ तहां ज्ञानका | | किछु प्रयोजन नाहीं । या प्रकार नवीनबंध होनेका विधान जानना । अब जे परमाणु कर्मरूप || | परिणमैं तिनका यावत् उदयकाल न आवै तावत् जीवके प्रदेशनिसौं एक क्षेत्रावगाहरूप बंधान रहे है। तहां जीवभावके निमित्तकरि केई प्रकृतिनिकी अवस्थाका पलटना भी होय | | जाय है । तहां केई अन्य प्रकृतिनिके परमाणू थे ते संक्रमणरूप होय अन्य प्रकृतीके परमाणू | हो जाएँ । बहुरि केई प्रकृतीनिका स्थिति वा अनुभाग बहुत था सो अपकर्षण होयकरि थोरा हो जाय । बहुरि केई प्रकृतीनिका स्थिति वा अनुभाग थोरा था सो उत्कर्षण होयकरि बहुत हो जाय सो ऐसे पूर्वे बंधे परमाणूनिकी भी जीवभावका निमित्त पाय अवस्था पलटे है अर | निमित्त न बनें तो न पलटै,जैसैके तैसे रहैं । ऐसें सत्तारूप कर्म रहै हैं । बहुरि जब कर्मप्रकृती| निका उदयकाल आवै तब स्वयमेव तिनि प्रकृतीनिका अनुभागके अनुसार कार्य बने। कर्म | | तिमिका कार्यको निपजावता नाहीं। याका उदयकाल आए वह कार्य बने है। इतना ही | | निमित्तनैमित्तिक संबंध जानना । बहुरि जिस समय फल निपज्या तिसका अनन्तर समयविषै । तिनि कर्मरूप पुद्गलनिकै अनुभाग शक्तिका अभाव होनेते कर्मस्वपनाका अभाव हो है। ते
पुदगल अन्यपर्यायरूप परिणमै हैं । याका नाम सविपाकनिर्जरा है । ऐसें समय-समय प्रति
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उदय होय कर्म खिरे हैं कर्मवपना नास्ति भए पीछे ते परमाण तिस ही स्कंधविषै रहो वा | जुदे होइ जाहु किछु प्रयोजन नाहीं। इहां इतना नानना,—इस जीवकै समय-समय ||| प्रति अनंत परमाण बंधे हैं तहां एक समयविणे बंधे परमाण ते आवाधाकाल छोड़ि अपनी स्थितिके जेते समय होंहिं तिनिविषै क्रमतें उदय आवै हैं । बहुरि बहुत समयवि बंधे परमाण जे एक समयविषै उदय आवने योग्य हैं ते एकठे होय उदय प्रावै हैं। तिनि सब परमाण- | निका अनुभाग मिले जेता अनुभाग होय तितना फल तिस कालविणे निपजै है । बहुरि अनेक || | समयनिविणे बंधे परमाण बंधसमयतें लगाय उदयसमयपर्यंत कर्मरूप अस्तित्वौं धरे जीव || | सौं संबंधरूप रहैं । ऐसें कर्मनिकी बंध उदय सत्तारूप अवस्था जाननी। तहां समय-समय
प्रति एक समय प्रबद्ध मात्र परमाणु बंधे हैं एक समयप्रबद्ध मात्र निर्जरै हैं । ड्योढ़गुणहा| निकरि गुणित समयप्रबद्ध मात्र सदा काल सत्ता रहै है। सो इनि सबनिका विशेष आर्गे कर्म अधिकारविषै लिखेंगे तहां जानना । बहुरि ऐसे यह कर्म हैं सो परमाणुरूप अनन्त पुदगलद्रव्यनिकरि निपजाया कार्य है तातें याका नाम द्रव्यकर्म है। बहुरि मोहके निमित्तते मिथ्यात्वक्रोधादिरूप जीवका परिणाम हो है सो अशुद्ध भावकरि निपजाया कार्य है तातेंयाका नाम भावकर्म है । सो द्रव्यकर्मके निमित्त भावकर्म होय अर भावकर्मके निमित्ततै द्रव्यकर्म का बंध होय । बहुरि द्रव्यकर्म भावकर्म, भावकर्मते द्रव्यकर्म ऐसे ही परस्पर कारणकार्य
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भावकरि संसारचक्रविय परिभ्रमण हो हैं। इतना विशेष जानना तीब्रमंदबंध होने वा संक्रमणादि होने वा एक कालविणे बँध्या अनेककालविषै वा अनेककालविणे बँधे एककालविषे उदय भावनेते काहू कालविणे तीब्रउदय आवै तब तीवकषाय होय तब तीव्र ही नवीन| बंध होय अर काहूकालविणे मंद उदय आवै तब मंदकषाय होय तब मंद ही नवीनबंध होय । बहुरि तिनि तीवमंदकषायनिहीके अनुसार पूर्वबंधे कर्मनिका भी संक्रमणादिक होय तौ होय। या प्रकार अनादितें लगाय धाराप्रवाहरूप द्रव्यकर्म वा भावकर्मकी प्रवृत्ति जाननी,बहुरि नाम| कर्मके उदयतें शरीर हो है सो द्रव्यकर्मवत् किंचित् सुख दुःखकों कारण है। तातै शरीरकों | नोकर्म कहिए है । इहां नो शब्द ईषत्वाचक जानना । सो शरीर पुद्गलपरमाणनिका पिंड है | अर द्रव्यइंद्रिय वा द्रव्यमन अर श्वासोश्वास वचन ए भी शरीरहीके अंग हैं सो ए भी पुदगलपरमाणूनिके पिंड जानने । सो ऐसे शरीरकै अर द्रव्यकर्मसंबंधसहित जीवकै एक क्षेत्रावगाहरूप बंधान हो है । जो शरीरका जन्म समयतें लगाय जेती आपकी स्थिति होय तितने काल पर्यंत शरीरका संबंध रहै है । बहुरि आयु पूरण भए मरण हो है। तब तिस शरीरका | सम्बन्ध छूट है । शरीर आत्मा जुदे-जुदे हो जाय हैं । बहुरि ताके अनन्तर समयविषे वा। दूसरै तीसरै चौथै समय जीव कर्मउदयके निमित्ततें नवीन शरीर धारे है तहां भी अपने / आयुपर्यंत तैसें ही सम्ब-ध रहै है । बहुरि मरण हो है तब तिससौं सम्बध छूट है। ऐसे ही
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पूर्व शरीरका छोड़ना नवीन शरीरका ग्रहण करना अनुक्रमतें हुआ करै है । बहुरि यह आत्मा । यद्यपि असंख्यात प्रदेशी है तथापि संकोचविस्तारशत्ति.तें शरीर प्रमाण ही रहै है, विशेष | इतना, समुद्घात होते शरीरनै बाह्य भी आत्माके प्रदेश फैले हैं। बहुरि अंतराल समयविषै पूर्वे शरीर छोड़या था तिस प्रमाण रहै हैं । बहुरि इस शरीरके अंगभूत द्रव्य इंद्रिय मन || तिनिके सहायतै जीवके जानपनाकी प्रवृत्ति हो है। बहुरि शरीरकी अवस्थाकै अनुसारि मोहके ||
उदय सुखी दुःखी हो है । कबहूं तो जीवकी इच्छाकै अनुसार शरीर प्रवर्ग है कबहूं शरीर | | की अवस्थाकै अनुसार जीव प्रवते है कबहूं जीव अन्यथा इच्छारूप प्रवर्ते है पुद्गल अन्यथा
अवस्थारूप प्रवर्ते है ऐसें इस नोकर्मकी प्रवृत्ति जाननी। तहां अनादितै लगाय प्रथम तौ | | इस जीवकै नित्यनिगोदरूप शरीरका सम्बन्ध पाइये है । तहां नित्यनिगोदशरीरकौं धरि आयु | पूर्ण भए मरि बहुरि नित्यनिगोदशरीरकों धारै है । बहुरि आयु पूर्ण करि मरि नित्यनिगोदशरीरहीकौं धार है । याही प्रकार अनंतानंत प्रमाण लिये जीवराशि हैं सो अनादितै तहां ही जन्ममरण किया करै हैं । बहुरि तहांत छै महीना अर आठ समयविषे छस्सै आठ जीव निकसै हैं ते निकसि अन्य पर्यायनिकौं धारै हे। सो पृथ्वी जल अग्नि पवन प्रत्येकवनस्पतीरूप एकेंद्रिय पर्यायनिविषे वा बेंद्रिय तेइंद्रिय चौइंद्रियरूप पर्यायनिविर्षे वा नरक तिर्यंच मनुष्य | देवरूप पंचेंद्रिय पर्यायनिवि भ्रमण करें हैं। बहुरि तहां कितेक काल भ्रमणकरि बहुरि
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निगोदपर्यायकों पावै सो वाका नाम इतरनिगोद है। बहुरि तहां कितेक काल रहै तहांतें प्रकाश
निकसि अन्य पर्यायनिविषै भ्रमण करै है। तहां परिभ्रमण करनेका उत्कृष्ट काल पृथ्वी आदि | स्थावरनिविर्षे असंख्यात कल्पमात्र है। बहुरि द्वींद्रियादि पंचेंद्रियपर्यंत त्रसनिविषै साधिक W दोयहजार सागर है । अर इतरनिगोदविषै अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तनमात्र है सो यह अनंतकाल
है । बहुरि इतरनिगोदतें निकसि कोई स्थावरपर्याय पाय बहुरि निगोद जाय ऐसे एकेंद्रियपर्यायनिविषे उत्कृष्ट परिभ्रमण काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है। बहुरि जघन्य | सर्वत्र एक अंतर्मुहूर्तकाल है । ऐसें घना तो एकेंद्रियपर्यायनिका ही धरना है। अन्य पर्याय
पावना काकतालीय न्यायवत् जानना । याप्रकार इस जीवकै अनादिही ते कर्मबंधनरूप रोग | भया है।
इति कर्मबंधननिदान वर्णनम् ।
अब इस कर्मबंधनरूप रोगके निमित्ततें जीवकी कैसी अवस्था होय रही है सो क|हिए है। प्रथम इस जीवका खभाव चैतन्य है सो सबनिका सामान्यविशेषस्वरूपका प्रकारान| हारा है। जो उनका स्वरूप होय सो आपकों प्रतिभासै है । तिसहीका नाम चैतन्य है। तहां सामान्यस्वरूप प्रतिभासनेका नाम दर्शन है । विशेष स्वरूप प्रतिभासनेका नाम ज्ञान है। सो
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ऐसे स्वभावकरि त्रिकालवर्ती सर्वगुणपर्यायसहित सर्व पदार्थनिकौं प्रत्यक्ष युगपत् चिना सहाय देखे जाने ऐसी आत्माविषे शक्ति सदा काल है। परन्तु अनादितें ज्ञानावरण दर्शनावरणका सम्बन्ध है ताके निमित्ततें इस शक्तिका व्यक्तपना होता नाहीं तिनि कर्मनिका क्षयोपशमतें किंचित् मतिज्ञान वा श्रुतज्ञान पाइये है। भर कदाचित् अवधिज्ञान भी पाइये है । बहुरि अच-|| खुदर्शन पाइये है अर कदाचित् चक्षुदर्शन वा अवधिदर्शन भी पाइये है। सो इनिकी भी। प्रति कैसे है लो दिखाइये है । प्रथम तो मतिज्ञान है सो शरीरके अंगभूत जे जीभ नासिका।। नेत्र कान स्पर्शन ए द्रव्यइंद्रिय अर हृदयस्थानविषै आठ पाँखडीका फुल्या कमलकै आकार द्रव्यमन तिनिके सहायही ते जाने है । जैसें जाकी दृष्टिमंद होय सो अपने नेत्रकरि ही देखें। है परंतु चसमा दीए ही देखें, बिना चसमैके देखि सकै नाहीं । तैसें आत्माका ज्ञान मंद है।
सो अपने ज्ञामहीकरि जाने है परन्तु द्रव्यइंद्रिय वा मनका सम्बन्ध भए ही जाने, तिनि बिना। | जानि सके नाहीं । बहुरि जैसे नेत्र तो जैसाका तैसा है अर चसमावि किछु दोष भया होय । | तो देखि सकै नाहीं अथया थोरा दीसै अथवा औरका और दीसे सैसैं अपना क्षयोपशम तौ || नेसाका तैसा है अर द्रव्यइंद्रिय मनके परमाणु अन्यथा परिणमे होंय तो जानि सकै नाहीं । अथवा थोरा जाने अथवा औरका और जाने। जाते द्रव्यइंद्रिय वा मनरूप परिमाणनिका | परिणमनकै अनुसार ज्ञानका परिणमन होय है । ताका उदाहरण-जैसे मनुष्यादिककै बाल
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वृद्ध अवस्थाविप द्रव्यइंद्रिय वा मन शिथिल होय तब जानतना भी शिथिल होय। बहुरि । जैसे शीत वायु आदिके निमित्तते स्पर्शनादि इंद्रियनिके वा मनके परमाणु अन्यथा होंय तब जानना न होय वा थोरा जानना होय वा अन्यथा जानना होय । बहुरि इस ज्ञानकै अर वाद्य द्रव्यनिके भी निमितनैमितिक सम्बन्ध पाइये है ताका उदाहरण-जैसे नेत्रइंद्री के अंधकार | के परमाणु वा फूला आदिकके परमाणु पापाणादिके परमाणु आदि आड़े आय जाएँ तो देखि न सके। बहुरि लालकाच आड़ा आवै तौ सब लाल ही दीसै, हरितकाच आड़ा आवै तो हरित दीखै ऐसें अन्यथा जानना होय । बहुरि दूरीणि चसमा इत्यादि आड़ा आवे तो बहुत दीखने लगि जाय । प्रकाश जल काच इत्यादिकके परमाण आड़े आवे तो भी जैसाका | तैसा दीखे ऐसे अन्य इंद्रिय वा मनकै भी यथासंभव जानना। बहुरि मंत्रादिक प्रयोगते या मदिरापानादिकतै वा भूतादिकके निमित्तते न जानना वा थोरा जानना वा अन्यथा जानना हो है । ऐसें यह ज्ञान बाह्यद्रव्यके भी आधीन जानना। बहुरि इस ज्ञानकरि जो जानना हो। है सो अस्पष्ट जानना हो है । दूरित केसा ही जानै, समीपते कैसा ही अने, तत्काल कैसा ही | जाने, जानते बहुत बार होजाय तव कैसा ही जाने, काहूकों संशयलिये जाने, काहूकौं अन्यथा जाने, काहूकौं किंचित् जानें इत्यादि रूपकरि निर्मल जानना होय सकै नाहीं । ऐसें यह मतिज्ञान पराधीनतालिये इंद्रियमनद्वा करि प्रवर्ते है। तहां इंद्रियनिकरि तौ जितने क्षेत्रका विषय
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होय तितने क्षेत्रविषे जे वर्तमान स्थूल अपने जानने योग्य पुद्गलस्कंध होय तिनहीकों जाने।। |तिनिधिय जुदे-जुदे इंद्रियनिकरि जुदे-जुदे कालविषै कोई स्कंधके स्पर्शादिकका जानना हो है। बहुरि मनकरि अपने जानने योग्य किंचिन्मात्र त्रिकालसम्बन्धी दूरिक्षेत्रवर्ती वा समीपक्षेत्रवर्ती रूपी अरूपी द्रव्य वा पर्याय तिनिकों अत्यन्त अस्पष्टपनै जाने है सो भी इंद्रियनिकरि जाका ज्ञान न भया होय वा अनुमानादिक जाका किया होय तिसहीकों जानि सबै है। बहुरि कदाचित् अपनी कल्पनाहीकरि असतकों जाने है। जैसे सुपनेविषै वा जागतें भी जे कदाचित कहीं न पाइये ऐसे आकारादिक चिंतवै वा जैसें नाहीं तैसैं माने। ऐसें मनकरि जानना होय । सो यह इंद्रिय वा मनद्वारकरि जो ज्ञान होय है ताका नाम मतिज्ञान है । तहां | पृथ्वी जल अस्नि पचन वनस्पतीरूप एकेंद्रियनिकै स्पर्शहीका ज्ञान है। लटशंख आदि बेइंद्रिय जीवनिकै स्पर्श रसका ज्ञान है। कीड़ी मकोड़ा आदि तेइंद्रिय जीवनिकै स्पर्श रस गंधका। | ज्ञान है। अमर मक्षिका पतंगादिक चौइंद्रिय जीवनिके स्पर्श रस गंध वर्णका ज्ञान है। मच्छ | गऊ कबूतर इत्यादिक तिर्यंच अर मनुष्य देव नारकी यह पंचेंद्रिय हैं तिनिकै स्पर्श रस गंध। वर्ण शब्दनिका ज्ञान है । बहुरि तिर्यचनिवि केई संज्ञी हैं केई असंज्ञी हैं। तहां संज्ञीनिकै मनजनित ज्ञान है असंझीनिकै नाहीं है। बहुरि मनुष्य देव नारकी संज्ञी हैं तिनि सबनिकै मनजनित ज्ञान पाइये है ऐसें मतिज्ञानकी प्रवृत्ति जाननी । बहुरि मतिज्ञानकरि जिस अर्थको
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जान्या होय ताके सम्बन्ध अन्य अर्थको जाकरि जानिये सो श्रुतज्ञाम है सो दोय प्रकार है । अक्षरात्मक १ अनबरात्मक २ । तहां जैसें 'घट' ए दोष अक्षर सुने वा देखे सो तौ मतिज्ञान भया तिनिके सम्बन्ध घटपदार्थका जानना भया सो श्रुतज्ञान भया । ऐसें अन्य भी जानना सो यह तो अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । बहुरि जैसें स्पर्शकरि शीतका जानना भया सो तौ मतिज्ञान है ताके सम्बन्ध यह हितकारी नाहीं यातै भागि जाना इत्यादिरूप ज्ञान भया सो श्रुतज्ञान है । ऐसें अन्य भी नामना । यह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । तहां एकेंद्रियादिक संज्ञी जीवनकै तौ अनक्षरात्मक ही श्रुतज्ञान है अवशेष संज्ञी पंचेद्रियकै दोऊ हैं । सो यह भुतज्ञान है, सो अनेक प्रकार पराधीन जो मतिज्ञान ताकै भी आधीन है । वा अन्य अनेक कारखनिकै चाधीन है तातें महापराधीन जानना । बहुरि अपनी मर्यादाकै अनुसार क्षेत्रकाल का प्रमाण लिए रूपी पदार्थनिकों स्पष्टपनें जाकरि जानिये सो अवधिज्ञान है सो यह देव मारकीनिकै तौ सर्व कै पाइये है । अर संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच अर मनुष्यनिकै भी कोई कै पाइये है । असंज्ञीपर्यंत जीवनिकै यह होता ही नाहीं सो यह भी शरीरादिक पुद्गलनिकै अधीन है । बहुरि अवधि तीन भेद हैं देशावधि १ परमावधि २ सर्वावधि ३ । सो इनिविषै थोरा क्षेत्रकालकी मर्यादालिए किंचिन्मात्र रूपी पदार्थको जाननहारा देशावधि है सो कोई जीवकै होय | हैं | बहुरि परमावधि सर्वावधि अर मनःपर्यय ए ज्ञान मोक्षमार्गविषे प्रगटे हैं । केवलज्ञान
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| मोक्षमार्गखरूप है । तातें इस अनादिसंसार अवस्थाविषे इनिका सद्भाव ही नाहीं है ऐसे ज्ञानकी प्रवृत्ति पाइये है। बहुरि इन्द्रिय वा मनके स्पर्शादिकविषय तिनिका सम्बन्ध होते। प्रथमफालविषै मतिज्ञानकै पहले जो सत्तामात्र अवलोकनेरूप प्रतिभास हो है ताका नाम | चक्षुदर्शन वा अचक्षुदर्शन है। तहां नेत्र इन्द्रियकरि दर्शन होय ताका नाम तो चक्षुदर्शन, है सो तौ चौइन्द्रिय पंचेंद्रिय जीवनिही के हो है । बहुरि स्पर्शन रसन घ्राण श्रोत्र इन च्यारि। इन्द्रिय अर मनकरि दर्शन होय ताका नाम अचक्षदर्शन है सो यथायोग्य एकेंद्रियादि जीवनिकै हो है। बहुरि अवधि के विषयनिका सम्बन्ध होते अवधिज्ञानके पहलै जो सत्तामात्र अवलोकनेरूप प्रतिभास होय ताका नाम अवधिदर्शन है सो जिनिकै अवधिज्ञान संभवै तिनिही कै । वह हो है । जो यह चनु अचनु अवधिदर्शन है सो मतिज्ञान अवधिज्ञानवत् पराधीन जानना । बहुरि केवलदर्शन मोक्षखरूप है ताका यहां सद्भाव ही नाहीं। ऐसें दर्शनका सद्भाव पाइये है। या प्रकार ज्ञान दर्शनका सद्भाव ज्ञानावरण दर्शनावरणका क्षयोपशमके अनुसार हो है। जब क्षयोपशम थोरा हो है तब ज्ञानदर्शनकी शक्ति भी थोरी हो है । जब बहुत होय तब बहुत हो है । बहुरि क्षयोपशमतें शक्ति तो ऐसी बनी रहै अर परिणमनकरि एक जीव के एक कालविषै एक विषयहीका देखना वा जानना हो है। इस परिणमनहीका नाम उपयोग है । तहां एक जीव एक कालविषै तौ ज्ञनोपयोग हो है बा दर्शनोपयोग हो है बहुरि एक
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उपयोगकी भी एक ही भेदकी प्रवृत्ति हो है जैसे मतिज्ञान होय तब अन्यज्ञान न होय । बहुरि । एक भेदविष भी एक विषयविषे ही प्रवृत्ति हो है। जैसे स्पर्शकों जानै तव रसादिककों न जाने बहुरि एक विषयविषै भी ताके कोऊ एक अंगहीविषै प्रवृत्ति हो है.जैसे उष्णस्पर्शकों जाने। तब रूचादिककौं न जानै ऐसे एक जीवकै एक कालविषै एक ज्ञेय वा दृश्यविष ज्ञाम वा | दर्शनका परिणमन जानना । सो ऐसे ही देखिए है। जब सुननेविर्षे उपयोग लग्या होय तब | नेत्रके समीप तिष्ठता भी पदार्थ न दीसे ऐसे ही अन्य प्रवृत्ति देखिये है । बहुरि परिणमनविषै
शीघ्रता बहुत है ताकरि काहू कालविषै ऐसा मानिए है युगपत् भी अनेक विषयनिका जानना वा देखना हो है सो युगपत् होता नाहीं क्रमहीकरि हो है संस्कारवश तिनिका साधन रहै है । जैसे कागलेकै नेत्रके दोय गोलक हैं फूलरी एक है सो फिरै शीघ्र है ताकरि दोऊ गोलकनिका साधन कर है । तैसें ही इस जीवकै द्वार तो अनेक हैं अर उपयोग एक है सो फिरै
शीब है ताकरि सर्व द्वारनिका साधन रहै है । इहां प्रश्न-जो एक कालविणे एक विषयका | जानना वा देखना हो है तौ इतना ही क्षयोपशम भया कहौ, बहुत काहेकौं कहौ । बहुरि तुम कहो हौ क्षयोपशमतें शक्ति हो है तौ शक्ति तो आत्माविषे केवलज्ञानदर्शनकी भी पाइये है। ताका समाधान
जैसे काहू पुरुषकै बहुत ग्रामनिविषै गमनकरनेकी शक्ति है। बहुरि ताकौं काहूनै ।। ५४
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रोक्या अर यह कह्या पांच ग्रामनिविषै जावो परन्तु एक दिनवि एक ही ग्रामों जावो । । तहां उस पुरुषकै बहुत ग्राम जानेकी शक्ति तो द्रष्य अपेक्षा पाइये है अन्य कालविषै सामर्थ्य
होय, वर्तमान सामर्थ्यरूप नाहीं है । परन्तु वर्तमान पांच ग्रामनितें अधिक ग्रामनिविष गमन । करि सके नाहीं । बहुरि पांच ग्रामनिविषै जानेकी पर्यायअपेक्षा वर्तमान सामर्थ्यरूप शक्ति है ताते इनिवि गमन करि सके है । बहुरि व्यक्तता एक दिनविषे एक ग्रामकों गमन करनेही || की पाइये है तैसें इस जीवकै सर्वकौं देखनेकी जाननेकी शक्ति है । बहुरि याकौं कर्मने रोक्या अर इतना क्षयोपशम भया कि स्पर्शादिक विषयनिकों जानो घा देखो परंतु एक कालविषे एकहीकौं जानौ वा देखो। वहाँ इस जीवकै सर्वके देखने जाननेकी शक्ति तौ द्रव्यअपेक्षा | पाइये है अन्यकालविणे सामर्थ्य होय परम्तु वर्तमान सामर्थ्यरूप नाहीं जातें अपनेयोग्य विषय- 11 || नितें अधिक विषयनिकों देखि जानिसकै माहीं। बहुरि अपने योग्य विषयनिकों देखने जाननेकी ॥ | पर्याय अपेक्षा वर्तमान सामर्थ्यरूप शक्ति है सातें इनिकौं देखि जानि सके है । बहुरि व्यक्तता | एक कालविणे एकहीकों देखनेकी वा जाननेकी पाइये है । बहुरि इहां प्रश्न-जो ऐसें तो जान्या परन्तु क्षयोपशम तौ पाइये अर बाह्य इंद्रियादिकका अन्यथा निमित्त भए देखना जानमा न होय वा थोरा होय वा अन्यथा होय सो ऐसे होते कर्महीका निमिस तौ न रह्या ? ताका समाधान
जैसे रोकनहारानें यह कह्या जो पांच ग्रामनिविवे एक ग्रामकों एक दिनविषै जावो
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परन्तु इन किंकरनिकों साथ लेकें जावो तहां वे किंकर अन्यथा परिणमें तौ जाना न होय वा थोरा जाना होय वा अन्यथा जाना होय तैसें कर्मका ऐसा ही क्षयोपशम भया है जो इतने विषयनिविषै एक विषयको एक कालविषै देखो वा जानौ परन्तु इतने बाह्य द्रव्यनिका निमित्त भए देखौ जानौ । तहां वै बाह्य द्रव्य अन्यथा परिणमें तौ देखना जानना न होय वा थोरा होय वा अन्यथा होय ऐसें यह कर्मके क्षयोपशमके विशेष हैं तातैं कर्महीका निमित्त जानना जैसें काहूकै अंधकारके परमाणु आड़े आए देखना न होय । घूघू मार्जारादिक निकै तिनिकों आड़े आए भी देखना होय सो ऐसा यह क्षयोपशमहीका विशेष है। जैसे-जैसें क्षयोपशम होय तैसें तैसें ही देखना जानना होय । ऐसें इस जीवकै क्षयोपशमज्ञानकी प्रवृत्ति पाइये है । बहुरि मोक्षमार्ग विषे अवधि मनःपर्यय हो हैं सो भी क्षयोपशमज्ञान ही हैं तिनिकी भी ऐसें ही एक कालविषै एकक प्रतिभासना वा परद्रव्यका आधीनपना जानना । बहुरि विशेष है। सो विशेष जानना । या प्रकार ज्ञानावरण दर्शनावरणका उदयके निमित्ततैं बहुत ज्ञान दर्शनके अंशनिका तौ अभाव है अर तिनिके क्षयोपशमतें थोरे श्रंशनिका सद्भाव पाइये है । बहुरि इस जीवकै मोहके उदयतै मिथ्यात्व वा कषायभाव हो हैं तहां दर्शनमोहके उदयतै तौ मिथ्यात्वभाव हो है ताकरि यह जीव अन्यथा प्रतीतिरूप श्रद्धान करे है । जैसें है तैसें तो नाहीं माने है अर जैसें नाहीं है तैसें माने है । अमू
ॐ००००
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तक प्रदेशनिका पुञ्ज प्रसिद्ध ज्ञानादिगुणनिका धारी अनादिनिधन वस्तु आप है अर मूर्तीक पुद्गलद्रव्यनिका पिंड प्रसिद्ध ज्ञानादिकनिकरि रहित जिनका नवीनसंयोग भया ऐसें शरीरादिक पुल पर हैं इनिका संयोगरूप नानाप्रकार मनुष्य तिर्यंचादि पर्याय हो हैं, तिन पर्यायनिविषै अहंबुद्धिधारे है, स्वपरका भेद नाहीं करि सकै है जो पर्याय पावै तिसही आप मा है । बहुरि तिस पर्यायविषै ज्ञानांदिक हैं ते तो आपके गुण हैं अर रागादिक हैं ते आपके कर्मनिमित्ततै उपाधिक भाव भए हैं अर वर्णादिक हैं ते आपके गुण नाहीं हैं शरीरादिक पुद्गल गुण हैं अर शरीरादिकविषै वर्णादिकनिकी वा परमाणूनिकी नानाप्रकार पलटन हो | है सो पुगलकी अवस्था है सो इन सबनिहीक अपनों स्वरूप जाने है स्वभाव परभावका विवेक नाहीं होय सकै है । बहुरि मनुष्यादिक पर्यायनिविषै कुटुम्ब धनादिकका सम्बन्ध हो है प्रत्यक्ष आपतें भिन्न हैं अर ते अपने आधीन होय नाहीं परणमै हैं तथापि तिनिविषै ममकार करै है ए मेरे हैं वैं काहू प्रकार भी अपने होते नाहीं, यह ही अपनी मानितें अपने माने है । बहुरि मनुष्यादि पर्यायनिविषै कदाचित् देवादिकका तत्त्वनिका अन्यथा स्वरूप जो कल्पित किया ताकी तौ प्रतीति करे है और यथार्थस्वरूप जैसे हैं तैसें प्रतीत न करें है । ऐसें दर्शनमोहके उदयकरि जीवकै तत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्वभाव हो है । जहां तीव्र उदय होय है तहां श्रद्धा से घना विपरीत श्रद्वान होय है जब मन्द उदय होय है, तब सत्यश्रद्धानतै थोरा
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|| विपरीतश्रद्धान हो है । बहुरि चारित्रमोहके उदयतें इस जीवकै कषायभाव हो हैं तब यह | देखता जानतासंता परफ्दार्थनिविणे इष्ट अनिष्टपनौ मानि क्रोधादिक करै है। तहां क्रोधका | उदय होते पदार्थनिविर्षे अनिष्टपनौ वा ताका बुरा होना चाहै, कोऊ मंदिरादि अचेतन पदार्थ | बुरा लागै तब फोरना तोरना इत्यादि रूपकरि वाका बुरा चाहै। बहुरि शत्रुआदि अचेतन सचेतन पदार्थ बुरा लागे तब वाकों बध बंधादिकरि वा मारनेकरि दुःख उपजाय ताका बुरा
चाहै । बहुरि श्राप वा अन्य सचेतन अचेतन पदार्थ कोई प्रकार परिणये, आपकों सो परिणall मन बुरा लागै तब अन्यथा परिणमाबनेकरि तिस परिणमनका बुरा चाहै, याप्रकार क्रोधकरि ।। | बुरा चाहनेकी इच्छा तो होय, बुरा होना भवितव्य आधीन है। बहुरि मानका उदय होते। पदार्थविणे अनिष्टपनौं मानि ताकौं नीचा किया चाहै आप ऊँचा भया चाहे, मल धूलिआदि || अचेतन पदार्थनिविष घृणा वा निरादरादिककरि तिनिकी हीनता आपकी उच्चता चाहे बहुरि | पुरुषादिक सचेतन पदार्थनिकों नमावना,अपने आधीन करना इत्यादि रूपकरि तिनिकी हीनता || आपकी उच्चता चाहै । बहुरि आप लोकविर्षे जैसे ऊँचा दीसै तैसैं श्रृंगरादि करना वा धन || खरचना इत्यादि रूपकरि औरनिकौं हीन दिखाय आप ऊँचा होना चाहै । बहुरि अन्य कोई | आपते ऊँचा कार्य करै ताकों कोई उपायकरि नीचा दिखावै अर आप नीचा कार्य करै ताों ऊँचा दिखावे या प्रकार सानकरि अपनी महन्तताक़ी इच्छा तो होय, महन्तता होनी भवितव्य
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प्राधीन है । बहुरि मायाका उदय होते कोई पदार्थकों इष्ट मानि नानाप्रकार छलनिकरि ताकी सिद्धि किया चाहै रत्न सुवर्णादिक अचेतन पदार्थनिकी वा स्त्री दासी दासादि सचेतन | | पदापिकी सिद्धि के अर्थि अनेक छल करै ठिगनैके अर्थि अपनी अनेक अवस्था करै वा । | अम्य अचेतन सचेतन पदार्थनिकी अवस्था पलटावे इत्यादिरूप छलकरि अपना अभिप्राय | सिद्ध किया चाहे या प्रकार मायाकरि इष्टसिद्धिके अर्थि छल तो करै अर इष्टसिद्ध होना | भवितव्य प्राधीन है। बहुरि लोभका उदय होते पदार्थनिकों इष्ट मानि तिनकी प्राप्ति चाहै | वस्त्राभरण धनधान्यादि अचेतन पदार्थनिकी तृष्णा होय, बहुरि स्त्री पुत्रादि सचेतन पदार्थनिकी तृष्णा होय। बहुरि आपकै वा अन्य सचेतन अचेतन पदार्थ के कोई परिणमन होना इष्ट । मानि तिनिकों तिस परिणमनरूप परिणमाया चाहै या प्रकार लोभकरि इष्टप्राप्तिकी इच्छा तो होय अर इष्टप्राप्ति होनी भवितव्य आधीन है। ऐसे क्रोधादिकका उदयकरि आत्मा परिणम है, तहां । एक एक कषाय घ्यार-प्यार प्रकार हैं अनंतानुबन्धी १,अप्रत्याख्यानावरण २,प्रत्याख्यानाधरण ३, | संज्वलन ४, तां जिनका उदयतें आत्माकै सम्यक्त्व न होय स्वरूपाचरण चारित्र न होय सकै ते अनंतानुबंधीकषाय हैं। जिनका उदय होतें देशचारित्र न होय तातें किंचित् त्याग भी न होय सके ते अप्रत्याख्यानावरण कषाय हैं। बहुरि जिनिका उदय होते सकलचारित्र न होय तातै सर्वका त्याग न होय सकै ते प्रत्याख्यानावरण कषाय हैं। बहुरि जिनिका उदय होते सकलचा
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रित्रौं दोष उपज्या करै तातें यथाख्यातचरित्र न होय सके ते संज्वलन कषाय हैं । सो अनादि | संसारअवस्थाविषै इनि च्यास्यूं ही कषायमिका निरन्तर उदय पाइये है। परम कृष्णलेश्यारूप तीवकषाय होय तहां भी अर शुक्ललेश्यारूप मंदकषाय होय तहां भी निरन्तर च्यात्योंहीका उदय रहै है । जाते तीवमंदकी अपेक्षा अनन्तानुषन्धी भेदआदि भेद नाहीं हैं सम्यक्त्वादि | घातनेकी अपेक्षा ए भेद हैं इनिकी प्रकृतिनिका तीन अनुभाग उदय होते तीन क्रोधादिक हो है मंद अनुभाग उदय होते मन्द उदय हो है । बहुरि मोक्षमार्ग भए इनि च्यारौं विषै तीन दोय एकका उदय हो है पीछे च्यारयोंका अभाव हो है बहुरि क्रोधादि च्यास्थों कषायनिविषै एकैकाल एकहीका उदय हो है । इनि कषायनिकै परस्पर कारणकार्यपनो है । क्रोधकरि मानादिक हो जाय,मानकरि क्रोधादिक हो जाय ताते काहूकाल भिन्नता भासे, काहूकाल न भासै | है ऐसे कषायरूप परिणमन जानना। बहुरि चारित्रमोहहीके उदयतें नोकषाय होय है तहां । | हास्यका उदयकरि कहीं इष्टपनो मानि प्रफुल्लित हो है हर्ष माने है बहुरि रतिका उदयकरि काहकों इष्ट मानि प्रीति करै है तहां आसक्त हो है । बहुरि अरतिका उदयकरि काहूकौं अनिष्ट मानि अप्रीति करे है तहां उद्वेगरूप हो है। बहुरि शोकका उदयकरि कहीं अनिष्टपनौ | मानि दिलगीर हो है विषाद माने है । बहुरि भयका उदयकरि किसीकौं अनिष्ट मानि तिसत डरै है वाका संयोग न चाहै है । बहुरि जुगुप्साका उद्यकरि काहू पदार्थकों अनिष्ट मानि
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ताकी घृणा करै है वाका वियोग चाहै है । ऐसें ए हास्यादिक छह जानने । बहुरि वेदके उद| यतें याकै कामपरिणाम हो है तहां स्त्रीवेदके उदयकरि पुरुषसौं रमनेकी इच्छा हो है पुरुषवेद के उदयकरि स्त्रीसौं रमनेकी इच्छा हो है नपुन्सकवेदके उदयकरि युगपत् दोऊनिसौं रमनेकी इच्छा हो है ऐसे ए नव तौ नो कषाय हैं। क्रोधादिसारिखे बलवान ए नाहीं तातें इनौं । | ईषत्कषाय कहें हैं। यहां नोशब्द ईषत्वाचक जानना । इनिका उदय तिनि क्रोधादिकनिकी
साथि यथासंभव हो है। ऐसे मोहके उदयतें मिथ्यात्व वा कषायभाव हो हैं सो एही संसारके | मूल हैं । इनिहीकरि वर्तमानकालविषै जीव दुखी है अर अगामी कर्मबन्धनके भी कारन एही। | हैं । बहुरि इनहीका नाम राग द्वेष मोह है। तहां मिथ्यात्वका नाम मोह है जातें तहां साबधानीका अभाव है। बहुरि मायालोभकषाय अर हास्य रति तीन वेदनिका नाम राग है। जातें तहां इष्टबुद्धिकरि अनुराम पाइए है । बहुरि क्रोधमानकषाय अर अरति शोक भय जुगुप्सानिका नाम द्वेष है जातें तहां अनिष्टबुद्धिकरि द्वेष पाइए है। बहुरि सामान्यपनै सबहीका नाम मोह है। जातें इनिविषै सर्वत्र असावधानी पाइए है । बहुरि अन्तरायके उदयतें जीव | चाहै सो न होय । दान दिया चाहै देय न सके। वस्तुकी प्राप्ति चाहै सो न होय । भोग किया चाहै सो न होय । उपभोग किया चाहै सो न होय। अपनी ज्ञानादि शक्तिकौं प्रगट किया चाहै सो प्रगट न होय-ऐसें अन्तरायके उदयतें चाहै सो होय नाहीं । बहुरि तिसही
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का क्षयोपशमतें किंचिन्मात्र चाह्या भी हो है । चाहिये तो बहुत है परंतु किंचिन्मात्र चाह्या हुआ होय है। बहुत दान देना चाहै है, परन्तु थोड़ा ही दान देय सके है। बहुत लाभ चाहै है परन्तु थोड़ाही लाभ हो है। ज्ञाचादिक शक्ति प्रगट हो है तहां भी अनेक बाह्य कारन चाहिए। या प्रकार घातिकर्मनिके उदयतें जीवकै अवस्था हो है। बहुरि अघातिकर्मनिविषै वेदनीयके उदयकरि शरीरवि बाह्य सुख दुःखका कारन निपजै है। शरीरविषै आरोग्यपनौ रोगीपनौ शक्तिवानपनौ दुर्बलपनौ इत्यादि अर क्षुधा तृषा रोग खेद पीड़ा इत्यादि सुख दुःखनिके कारन हो हैं । वहुरि बाह्यविषै सुहावना ऋतु पवनादिक वा इष्टस्त्री पुत्रादिक वा मित्र धनादिक, असुहावना ऋतु पवनादिक वा अनिष्टस्त्रीपुत्रादिक वा शत्रु दरिद्र बध-बन्धनादिक सुखदुःखके कारन हो हैं। ए बाह्यकारन कहे तिनिविषै केई कारन तो ऐसे हैं जिनिके निमि
तसौं शरीरकी अवस्था ही सुखदुःखकों कारन हो है अर वै ही सुखदुःखकों कारण हो हैं। | बहुरि केई कारन ऐसे हैं जे आप ही सुखदुःखकौं कारन हो हैं ऐसे कारनका मिलना वेदनीय के उदयतें हो है। तहां सातवेदनीयतें सुखके कारन हो हैं अर असातावेदनीयतें दुखके कारन मिलें । सो यहां ऐसा जानना-ए कारन ही तो सुखदुःखकों उपजावै नाहीं, आत्मा मोहकर्म | का उदयतें आप सुखदुःख माने है। तहां वेदनीयकर्मका उदयकै अर मोहकर्मका उदयकै ऐसा ही संबंध है। जब सातावेदनीयका निपजाया बाह्य कारन मिलै तव तौ सुखमाननेरूप
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मोहकर्मका उदय होय अर जब असातावेदनीयका निपजाया बाह्यकारन मिले तब दुःखमाननेरूप मोहकर्मका उदय होय । बहुरि एक ही कारन काहूकों सुखका, काहूकों दुःखका कारन हो है । जैसे काढूकै सतावेदनीयका उदय होतें मिल्या जैसा वस्त्र, सुखका कारन हो है तैसा ही वस्त्र काहूक असातावेदनीयका उदय होतें मिल्या सो दुःखका कारन हो है । तातै बाह्यवस्तु सुखदुःखका निमित्तमात्र ही है । सुख दुःख हो है सो मोहके निमित्ततें हो है । निर्मोही मुनिनिकै अनेक ऋद्धियादि परीसहादि कारन मिलें तौ भी सुख दुःख न उपजै । मोही जीव के कारन मिले वा विनाकारन मिले भी अपने संकल्पहीतें सुखदुःख हुवा ही करै है । तहां भी तीव्रमोहीकै जिस कारनकौं मिले तीव्र सुखदुःख होय तिसही कारनकौं मिलें मन्दमोही कै मन्द सुखःदुख होय । तातें सुखदुःखका मूल बलवान कारन मोहका उदय है । अन्यवस्तु हैं सो बलवान कारन नाहीं । परन्तु अन्यवस्तुकै र मोही जीवकै परिणामनिके निमित्तनैमित्तिककी मुख्यता पाइए है। ताकरि मोहीजीव अन्य बस्तुहीक सुखदुखका कारन माने है । ऐसें वेदनीयकरि सुखदुःखका कारन निपजै है बहुरि आयुकर्मके उदयकरि मनुष्यादिपर्यायनि की स्थिति रहै है । यावत् प्रयुका उदय रहे तावत् अनेक रोगादिक कारन मिलौ शरीरसौं संबंध न छूटै । बहुरि जब आयुका उदय न होय तब अनेक उपाय किए भी शरीरसौं संबंध रहै नाहीं, तिसहीकाल आत्मा र शरीर जुदा होय । इस संसारविषै जन्म जीवन मरनका
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कारन आयुकर्म ही है । जब नवीन आयुका उदय होय तब नवीनपर्यायविषै जन्म हो है । बहुरि यावत् आयुका उदय रहै तावत् तिस पर्यायरूप प्राणनिके धारनतें जीवना हो है । बहुरि आयुका क्षय होय तब तिस पर्यायरूप प्राण छूटनें मरण हो है । सहज ही ऐसा आयुकर्मका निमित्त है और कोई उपजावनहारा क्षपावनहारा रक्षाकरनेहारा है नाहीं ऐसा निश्चय करना । बहुरि जैसें नवीन वस्त्र पहरै कितेक काल पहरें रहे पीछे ताक छोड़ि अन्यवस्त्र पहरे तैसें जीव नवीन शरीर धरै, कितेक काल धरै रहै पीछे ताक छोड़ि अन्य शरीर धरै | है । तातें शरीरसंबंधापेक्षा जन्मादिक हैं, जीव जन्मादिरहित नित्य ही है । तथापि मोही जीवकै अतीत अनागतका विचार नाहीं तातें पर्यायपर्याय मात्र ही अपना अस्तित्व पर्यायसंबंधी कार्यनिविषै ही तत्पर होय रह्या है । ऐसें आयुकरि पर्यायकी स्थिति जाननी । बहुरि नामकर्मकरि यह जीव मनुष्यादिगतिनिविषै प्राप्त हो है तिस पर्यायरूप अपनी अवस्था हो है । बहुरि तहां त्रस स्थावरादि विशेष निपजै हैं । चहुरि तहां एकेंद्रियादि जातिको धारै | है इस जातिकर्मका उदयकै अर मतिज्ञानावरणका क्षयोपशमकै निमित्तनैमित्तिकपना जानना, जैसा क्षयोपशम होय तैसी जाति पावै । बहुरि शरीरका संबंध हो है तहां शरीरके परमाणू अर आत्मा प्रदेशनिका एक बन्धान हो है अर संकोच विस्ताररूप होय शरीरप्रमाण आत्मा रहे है । बहुरि नोकर्मरूप शरीरविषै अंगोपांगादिकका योग्य स्थान परिमाण लिए हो है ।
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| इसहीकरि स्पर्शन रसन आदि द्रव्यइन्द्रिय निपजें हैं वा हृदयस्थानविर्षे आठ पांखड़ीका फल्या-| | कमलके आकार द्रव्यमन हो है। बहुरि तिस शरीरहीविषै आकारादिकका विशेष होना अर वर्णादिक |
का विशेष होना अरस्थूलसूक्ष्मवादिकका होना इत्यादि कार्य निपजै हैं सोए शरीररूप परणए परमा-1 | णु ऐसे परिणमें हैं। बहुरि श्वासोच्छ्वास वा खर निपजें हैं सोए भी पुद्गलके पिंड हैं अर शरीरकों। एक बन्धानरूप हैं । इनविषै भी आत्माके प्रदेश व्याप्त हैं। तहां श्वासोच्छ्वास तौ पवन है सो | जैसें आहारकों ग्रहै नीहार को निकासै तब ही जीवनौ होय तैसें बाह्यपवनकों ग्रहै अर अभ्यंतरपवनको निकासैतब ही जीवितव्य रहै। तातॆश्वासोच्छ्वास जीवितव्यका कारन है इस शरीरविषै जैसे हाड़ मांसादिक हैं तैसें ही पवन जानना। बहुरि जैसे हस्तादिकसौं कार्य करिए तैसें ही पवनतें कार्य करिए है। मुखमैं ग्रास धरथा ताकौं पवनतें निगलिए है, म्लादिक पवनते ही बाहरि | | काढ़िए है तैसे ही अन्यजानना । बहुरि नाड़ी वा वायुरोग वा बायगोला इत्यादि ए पवनरूप शरीरके अंग जानने । बहुरि स्वर है सो शब्द है, सो जैसें बीणाकी तांतिकू हलाए भाषारूप होने योग्य पुद्गलस्कन्ध हैं ते साक्षर वा अनक्षर शब्दरूप परिणमें हैं तैसें तालवा होठ | | इत्यादि अंगनिकों हिलाएं भाषापर्याप्तिविषै ग्रहे पुद्गलस्कन्ध हैं ते साक्षर वा अनक्षर शब्दरूप परिणमै हैं । बहुरि शुभ अशुभ गमनादिक हो हैं। इहां ऐसा जानना जैसें दोयपुरुषनिके इकदंडी बेड़ी है । तहां एक पुरुष गमनादि किया चाहै अर दूसरा भी गमनादि करै तौ
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गमनादि होय सके । दोऊनिविषै एक बैठि रहे तो गमनादि होय सकै नाहीं अर दोऊनिविषै एक बलवान होय तौ दूसरेकौं भी घीसि ले जाय तैसें आत्माकै अर शरीरादिकरूप पुदगलकै एक क्षेत्रवगाहरूप बंधान है तहां आत्मा हलन चलनादि किया चाहै अर पुद्गल तिस शक्तिकरि रहित हुवा हलन चलन न करै वा पुद्गलविषे शक्ति पाइए है आपकी इच्छा न होय तौ हलनचलनादि न होय सकै । बहुरि इनिविषै पुद्गल बलवान होय हाले चाले तो ताकी साथि विना इच्छा भी आत्मा आदि हालै चाले । ऐसें हलन चलनादि होय सके । बहुरि याका अपजस आदि (?) बाह्य निमित्त बने है । ऐसें ए कार्य निपजै हैं, तिनिकरि मोहके अनुसार | आरसा सुखी दुःखी भी हो है । नामकर्मके उदयते स्वयमेव ऐसे नानाप्रकार रचना हो है और | कोई कर नहारा नाहीं है । बहुरि तीर्थंकरादि प्रकृति यहां है ही नाहीं । बहुरि गोत्रकर्मकरि ऊंचा नीचाकुलविषै उपजना हो है तहां अपना अधिकहीनपना प्राप्त हो है मोहके निमित्ततें | तिनिकरि आत्मा सुखदुखी भी हो है । ऐसें अघातिकर्मनिका निमित्त अवस्था हो है । या प्रकार इस अनादि संसारविषै घाति अघातिक कर्मनिका उदयकै अनुसार आत्माकै अवस्था हो है सो हे भव्य ! अपने अंतरंग विषै विचारि देखि, ऐसें ही है कि नाहीं सो ऐसा विचार | किए ऐसा ही प्रतिभास है । बहुरि जो ऐसें है तो तू यह मानि मेरै अनादि संसार रोग पाइए है, ताके नाशका मोकों उपाय करना । इस विचारतें तेरा कल्यण होगा ।
इति श्रीमोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्रविषै संसार अवस्थाका निरूपक द्वितीया अधिकार सम्पूर्ण भया ॥ २ ॥
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दोहा ।
सो निजभाव सदा सुखद, अपन करो प्रकाश ॥ जो बहुविधि भवदुखनिकौ, करि है सत्तानाश ॥ १ ॥
अथ इस संसारअवस्थाविषै नानाप्रकार दुःख हैं तिनिका वर्णन करिए है — जातें जो संसारविषै भी सुख होय तौ संसारतें मुक्त होनेका उपाय काहेकौं करिए। इस संसारविषै अनेक दुःख हैं, तिसहीतें संसारतें मुक्त होनेका उपाय कीजिए है । बहुरि जैसें वैद्य है सो | रोगका निदान अर ताकी अवस्थाका वर्णनकरि रोगीको संसाररोगका निश्चय कराय पीछे तिसका इलाज करनेकी रुचि करावे है तैसें यहां संसारका निदान वा ताकी अवस्थाका वर्णनकरि संसारीक संसार रोगका निश्चय कराय अब तिनिका उपाय करनेकी रुचि कराइए है । जैसें रोगी रोगतें दुखी होय रह्या है परन्तु ताका मूलकारण जानें नाहीं, सांचा उपाय जानें नाहीं अर दुःख भी सह्या जाय नाहीं तब आपकों भासै ही उपाय करै तातें दुःख दूरि होय नाहीं । तब तड़फ तड़फ परवशहुवा तिनि दुःखनिकों सहै है । याक यहां दुःखका मूलकारन बताइए अर दुःखका स्वरूप बताइए अर तिनि उपायनिकूंकूंठे दिखाइए तौ सचे उपाय करनेकी रुचि होय तातें यह वर्णन इहां करिये है । तहां सर्व दुःखनिका मूलकारन मिथ्यादर्शन अज्ञान असंयम है । जो दर्शनमोहके उदयतें भया अतत्त्वश्रद्धान मिथ्यादर्शन
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ताकरि वस्तुस्वरूपकी यथार्थ प्रतीति न होय सकै है अन्यथा प्रतीति हो है । बहुरि तिस मिथ्यादर्शनही निमित्ततें क्षयोपशमरूपज्ञान है सो अज्ञान हो रहा है । ताकरि यथार्थ वस्तुस्वरूपका जानना न हो है अन्यथा जानना हो है । बहुरि चरित्रमोहके उदयतें भया कषायभाव ताका नाम असंयम है ताकरि जैसा वस्तुका स्वरूप है तैसा नाहीं प्रवर्त्ते है । ऐसें ये मिथ्यादर्शनादिक हैं तेई सर्व दुःखनिका मूलकारन हैं । कैसें सो दिखाइए है - मिथ्यादर्शनादिककर जीवकै स्वपरविवेक नाहीं होय सकै है एक आप आत्मा र अनन्त पुद्गलपरमाणुमय शरीर इनिका संयोगरूप मनुष्यादिपर्याय निपजै है तिस पर्यायहीकों आप माने है । बहुरि आत्माका ज्ञानदर्शनादि स्वभाव है ताकरि किंचित् जानना देखना हो है । अकर्मउपाधित भए क्रोधादिकभाव तिनिरूप परिणाम पाइए है । बहुरि शरीरका स्पर्श रस गंध व स्वभाव है सो प्रगट है अर स्थूल कृषादिक होना वा स्पर्शादिकका पलटना इत्यादि अनेक | अवस्था हो हैं । इन सबनिकों अपना स्वरूप जाने है । तहां ज्ञानदर्शनकी प्रवृत्ति इन्द्रिय मनके द्वारा हो है तातें यह माने है त्वचा जीभ नासिका नेत्र कान मन ए मेरे अंग हैं । इनक | मैं देखों जानों हों ऐसी मानितें इन्द्रियनिविषै प्रीति पाइए है । बहुरि मोहके इन्द्रियनिकै द्वारा विषय ग्रहणकरनेकी इच्छा हो है । बहुरि तिनिविषै इनिका ग्रहण भए ति | इच्छाके मिटनेंतें निराकुल हो है तब आनन्द माने है । जैसे कूकरा हा चाबै ताकर अपना
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लोही निकसै ताका स्वाद लेय ऐसे मानै यह हाड़का स्वाद है। तैसें यह जीव विषयतिको जानै ताकरि अपना ज्ञान प्रवत ताका स्वाद लेय ऐसैं मानै यह विषयका स्वाद है सो विषय मैं तो स्वाद है नाहीं, आप ही इच्छाकरी थी आप ही जानि आप ही आनन्द मान्या । परन्तु में अनादि अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा हों, ऐसा निःकेवलज्ञानका तो अनुभवन है। नाहीं । बहुरि में नृत्य देख्या राग सुन्या फूल सूंध्या पदार्थ स्पर्ध्या खाद जान्या मोकों यह जानना इस प्रकार ज्ञेयमिश्रित ज्ञानका अनुभवन है ताकरि विषयनिकरि ही प्रधानता भासै है। ऐसे इस जीवकै मोहके निमित्तते विषयनिकी इच्छा पाइए है सो इच्छा तो त्रिकालवर्ती सर्वविषयनिके ग्रहण करनेकी है में सर्वकौं स्पर्शों सर्वकों वादों सर्वकौं संघौं सर्वकों | देखौं सर्वकौं सुनौं सर्वको जानौं सो इच्छा तौ इतनी है अर शक्ति इतनी ही है जो | इंद्रियनिकै सन्मुख भया वर्तमान स्पर्श रस गंध वर्ण शब्द तिनिविणे काहूकौं किंचिन्मात्र
ग्रहै वा स्मरणादिकतै मनकरि किछू जानै सो भी बाह्य अनेक कारन मिले सिद्ध होय ! ताते। | इच्छा कबहुं पूरन होय नाहीं। ऐसी इच्छातौ केवलज्ञान भए सम्पूर्ण होय। क्षयोपशमरूप | इंद्रियकरि तो इच्छा पूर्ण होय नाहीं तातें मोहके निमित्तते इंद्रियनिकै अपने अपने विषय ग्रहणकी निरन्तर इच्छा रहिबो ही करै ताकरि आकुलित हुवा दुःखी हो रहा है। ऐसा दुःखी हो रहा है जो एक कोई विषयका ग्रहणकै अर्थ अपना मरनको भी नाहीं गिनै है । जैसे
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| हाथीकै कपटकी हथनीका शरीर स्पर्शनेकी अर मच्छकै बड़सी के लग्या मांस स्वादनेकी अर भ्रमरकै कमलसुगन्ध सूंघनेकी अर पतंगकै दीपकका वर्ण देखनेकी अर हिरणकै राग सुननेकी इच्छा ऐसी हो है जो तत्काल मरन भासै तो भी मरनकों गिने नाही विषयनिका ग्रहण || करे । जाते मरण होनेते इंद्रियनिकरि विषयसेवनकी पीड़ा अधिक भासे है। इनि इंद्रिय- | निकी पीड़ाकरि सर्व जीव पीडितरूप निर्विचार होय जैसे कोऊ दुःखी, पर्वतते गिरि पड़े तैसें | | विषयनिविषे झपापात ले हैं। नानाकष्टकरि धनकों उपजावें तार्को विषयके अर्थि खोवें। बहुरि विषयनिके अर्थि जहां मरन होता जाने तहां भी जाय नरकादिककौं कारन जे हिंसादिक कार्य तिनिकों करें वा क्रोधादि कषायनिकों उपजागे सो कहा करें इंद्रियनिकी पीड़ा सही न जाय तातै अन्यविचार किछू आवना नाहीं । इस पीड़ाहीकरि पीड़ित भये इंद्रादिक हैं ते भी विषयनिविषै अति आसक्त हो रहे हैं। जैसे खाजि रोगकरि पीड़ित हुवा पुरुष आसक्त होय |
खुजावे है पीड़ा नहोय तो काहेकौं खुजाने, तैसें इंद्रियरोगकरि पीड़ित भए इंद्रादिक आसक्त । | होय विषय सेवन करे हैं। पीड़ा न होय तो काहेकौं विषय सेवन करें ? ऐसें ज्ञानावरण
दर्शनावरणका क्षयोपशमतें भया इन्द्रियादिजनित ज्ञान है सो मिथ्यादर्शनादिकके निमित्त | इच्छासहित होन दुःखका कारन भया है। अब इस दुःखदूरि होनेका उपाय यह जीव कहा करें है सो कहिए है,
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इन्द्रियनिक विषयनिका ग्रहण भए मेरी इच्छा पूरन होय ऐसा जानि प्रथम तौ नानाप्रकार भोजनादिकनिकरि इन्द्रियनिकौं प्रबल करे है अर ऐसें ही जाने है जो इन्द्रिय प्रवल रहें मेरे विषय ग्रहणकी शक्ति विशेष हो है । बहुरि तहां अनेक बाह्यकारन चाहिए है तिनका निमित्त मिला है । बहुरि इन्द्रिय हैं ते विषयक सन्मुख भए ग्रहैं तातें अनेक बाह्य उपायकरि विषयनिका र इन्द्रियनिका संयोग मिला है नानाप्रकार वस्त्रादिकका वा भोजनादिकका वा पुष्पादिकका वा मन्दिर आभूषणादिकका वा गायक वादित्रादिकका संयोग मिलावनेके अर्थ बहुत खेदखिन्न हो है । बहुरि इन इन्द्रियनिके सन्मुख विषय रहै तावत् तिस विषयका किंचित्स्पष्ट जानपना रहै । पीछें मनद्वारे स्मरणमात्र रहता जाय । कालव्यतीत होते स्मरण भी मंद होता जाय तातें तिनिविषयनिकों अपने अधीन राखनेका उपाय करे । अर शीघ्र शीघ्र तिनिका ग्रहण किया करै बहुरि इन्द्रियनिकै तौ एककालविषै एक विषयहीका ग्रहण होय अर यह बहुत बहुत ग्रहण किया चाहै, तातें आखता ( उतावला ) होय शीघ्र शीघ्र एक विषयक छोड़ि और है । बहुरि वाकों छोड़ि औरकों ग्रहै । ऐसें हापटा मारै है । बहुरि जो उपाय याक भासै है सो करै है सो यह उपाय झूठा है जातें प्रथम तो इनि सबनिका ऐसैंही होना अपने आधीन नाहीं, महाकठिन है । बहुरि कदाचित् उदय अनुसारि ऐसें ही विधि मिले तौ इन्द्रियनिकों प्रबल किए किछू विषयग्रहणकी शक्ति वधै नाहीं । यह शक्ति तौ ज्ञानदर्शन बधे (बढ़ने पर ) बधै (बदै)
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सो यह कर्मका क्षयोपशमकै आधीन है । किसीका शरीर पुष्ट है ताकें ऐसी शक्ति घाटि देखिए है । काहुकें शरीर दुर्बल है ताकै अधिक देखिए है । तातें भोजनादिककरि इन्द्रिय पुष्ट किए किछू सिद्धि है नाहीं । कषायादि घटनेंतें कर्मका क्षयोपशम भए ज्ञानदर्शन बधै तब विषयग्रहणकी शक्ति बधै है । बहुरि विषयनिका संयोग मिलावै सो बहुतकालाई ह नाहीं अथवा सर्व विषयनिका संयोग मिलता ही नाहीं । तातें यह आकुलता रहिबो ही करै । बहुरि तिनिविषयनिकों अपने अधीन राखि शीघ्र शीघ्र ग्रहण करै सो वे आधीन रहते नाहीं । तौ जुड़े द्रव्य अपने अधीन परिणमै हैं, वा कर्मोदयके आधीन हैं । सो ऐसा कर्मका बन्ध यथायोग्य शुभभाव भए होय । फिर पीछे उदय आवे सो प्रत्यक्ष देखिए है । अनेक प करतें भी कर्मका निमित्त बिना सामग्री मिले नाहीं । बहुरि एक विषयकों छोड़ि अन्यका ग्रहणकौं ऐसें हापटा मारै है सो कहा सिद्ध हो है । जैसे मणकी भूखवालेकों का मिल्या त भूख कहा मिटै, तैसें सर्वका ग्रहणकी जाकेँ इच्छा ताकै एक विषयका ग्रहण भए इच्छा कैसे मिटै ? इच्छा मिटे बिना सुख होता नाहीं । तातें यह उपाय झूठा है । कोऊ पूछे कि इस उपाय केई जी सुखी होते देखिए है सर्वथा झूठ कैसे कहो हो ताका समाधान, सुखी तौ न हो है भ्रमतें सुख माने है । जो सुखी भया तो अन्य विषयनिकी इच्छा कैसे रहैगी। जैसैं रोग मिटे अन्य औषध काहेकौं चाहै तैसें दुःखमिटे अन्य विषयकों का कौं चाहे ।
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मो.मा.|| तातै विषयका ग्रहणकरि इच्छा थुभि जाय तो हम सुख माने, सो सौ यावत् जो विषय ग्रहण प्रकाश
|| न होय तावत् काल तो तिसकी इच्छा रहै अर जिससमय ताका ग्रहण भया तिस ही समय
अन्यविषय ग्रहणकी इच्छा होती देखिए है तो यह सुख मानना कैसे है जैसे कोऊ महा | क्षधावान् रंक ताको एक अन्नका कण मिल्या ताका भक्षणकरि चैन मानें तैसें यह महा
तृष्णावान् याकों एक विषयका निमित्त मिल्या ताका ग्रहणकरि सुख माने है। परमार्थते || सुख है नाहीं कोऊ कहै जैसे कणकणकरि अपनी भूख मेटे तैसें एक एक विषयका ग्रहणकरि | अपनी इच्छा पूरण करे तो दोष कहा ? ताका समाधान,
... जो कण भेले होंय तो ऐसे ही मानें, परन्तु जब दूसरा कण मिले तब तिस कणका निर्गमन होय जाय तो कैसे भूख मिटै। तैसे ही जाननेविष विषयनिका ग्रहण भेले होता || जाय तो इच्छा पूरन होय जाय परन्तु जब दूसरा विषय ग्रहण करें तब पूर्वविषय ग्रहण | किया था ताका जानना रहे नाही, तो कैसे इच्छा पूरन होय ? इच्छा पूरन भए बिना आकु-|
लता मिटे नाही, आकुलता मिटे बिना सुख कैसे कह्या जाय । बहुरि एक विषयका ग्रहण भी | मिथ्यादर्शनादिकका सदभावपूर्वक करै है । तातै आगामी अनेक दुखका कारन कर्म बँधै है । जाते यह वर्तमानविणे सुख नाहीं, आगामी सुखका कारन नाहीं तातै दुःख ही है । सोई प्रवचनसारविर्षे कह्या है,
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"सपरं बाधा सहिदं बुच्छीणं वंधकारणं विसमं 1
जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव बद्धाधा (?) ॥१॥
जो इंद्रियनिकर पाया सुख सो पराधीन है बाधासहित है विनाशीक है बन्धका कारण है, विषम है सो ऐसा सुख तैसा दुःख ही है । ऐसें इस संसारीकरि किया उपाय झूठा जानना । तौ सांचा उपाय कहा ? जब इच्छा तौ दूरि होय अर सर्व विषयनिका युगपत् ग्रहण रह्या करै तब यह दुख मिटै ! सो इच्छा तौ मोह गए मिटै और सबका युगपत् ग्रहण केवलज्ञान भए होइ । सो इनका उपाय सम्यग्दर्शनादिक है सोई सांचा उपाय जानना । ऐसें तौ मोहके निमित्त ज्ञानावरण दर्शनावरणका क्षयोपशम भी दुःखदायक है ताका वर्णन क्रिया । इहां कोऊ कहै, ज्ञानावरण दर्शनावरणका उदयतै जानमा न भया ताकूं दुःखका कारण कहौ क्षयोपशमकौं काहेकौं कहौ । ताका समाधान -
जो जानना न होना दुःखका कारन होय तौ पुद्गलकै भी दुःख ठहरै । तातें दुःखका मूलकारण तौ इच्छा है सो इच्छा चयोपशमहीतै हो है, तातै क्षयोपशमकौं दुःखका कारन कया है परमार्थ क्षयोपशम भी दुःखका कारन नाहीं । जो मोह विषयग्रहणकी इच्छा है। सोई दुःखका कारन जानना । बहुरि मोहका उदय है सो दुःखरूप ही है । कैसें सो कहिए है, प्रथम तौ दर्शनमोहके उदयतें मिथ्यादर्शन हो है ताकरि जैसें याकै श्रद्वान है,
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तैसें तो पदार्थ है नाहीं, जैसें पदार्थ है तैसें यह माने नाहीं, तातें याके आकुलता ही रहै 1 जैसे बाउलाकों काहूनै वस्त्र पहराया । वह बाउला तिस वस्त्रकों अपना अंग जानि आपकूं र शरीरको एक मानै । वह वस्त्र पहरावनेवालेकै आधीन है, सो वह कबहू फारे, कबहू जोरे, कबहू खोसे, कबहू नवा पहरावे इत्यादि चरित्र करै । यह बाउला तिसकों अपने अधीन वाकी पराधीन क्रिया होड़ तातें महाखेदखिन्न होय तैसें इस जीवक कर्मोदयनें शरीरसंबंध कराया । यह जीव तिस शरीरकों अपना अंग जानि आपकों अर शरीरकों एक मानें, सो शरीर कर्मके आधीन कबहू कृष होय कबहू स्थूल होय कबहू नष्ट होय कबहू नवीन निपजै इत्यादि चरित्र होय । यह जीव तिसकों आपके आधीन जाने, वाकी पराधीन क्रिया होय तातें महादखिन्न हो है । बहुरि जैसें जहां बाउला तिष्ठे था तहां मनुष्य अनि उतरें यह बाला तिनकौं अपने जानें। वे तो उनहीके आधीन कोऊ अनेक अवस्थारूप परिणमै । यह बाउला तिनकौं अपने आधीन क्रिया हो तब खेदखिन्न होइ । तैसें यह जीव जहां पर्याय धरै तहां स्वयमेव पुत्र घोटक धनादिक कहीं न प्राप्त भए, यह जीव तिनिकों अपने जानें सो वे तो उन्ही के आधीन कोऊ आवें कोऊ जावें कोऊ अनेक अवस्थारूप परिणमैं । यह जीव तिनकौं अपने आधीन मान उनकी पराधीन किया हो तब खेदखिन्न होय । इहां कोऊ कहै काहूकालविषै शरीरकी वा
घोटक धनादिक कहींतें कोऊ आवे कोऊ जावै
मानें उनकी पराधीन
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001001/10000
त्रादिककी इस जीवकै श्राधीन भी तो किया होती देखिए है तब तो सुखी हो है । ताका समाधान, 7
शरीरादिककी भवितव्यकी कार नीवकी इच्छाकी विधि मिलै कोई एक प्रकार जैसे यह चाहे तैसें परिणमें तारों काहू कालविषै बाहीका विचार होते सुखकी सी आभासा होइ परन्तु सर्व ही तो सर्वप्रकार यह चाहै तैसें न परिममें । तातें अभिप्रायविषै तो अनेक कुलता सदाकाल रहबो ही करै बहुरि कोई कालविषै कोई प्रकार इच्छाअनुसारि परिणमता देखिकरि यह जीव शरीर पुत्रादिकविषै अहंकार ममकार करै है । सो इस बुद्धिकरि तिनिके उपजाधनेकी वा बधावनेकी वा रक्षा करनेकी चिंताकरि निरन्तर व्याकुल रहै है । नानाप्रकार कष्ट सहकरि भी तिनिका भला चाहे है । बहुरि जो विषयनिकी इच्छा हो है कषाय हो है बाह्य सामग्रीविषै इष्ट अनिष्टपनों माने है उपाय अन्यथा करे है सांचा उपायकों न श्रद्धहै है अन्यथा कल्पना करे है सो इनि सबनिका मूलकारन एक मिथ्यादर्शन है । याका नाश भए सबनिका नाश होइ जाय तातैं सब दुखनिका मूल यह मिथ्यादर्शन है । बहुरि इस मिथ्यादर्शनके नाशका उपाय भी नाहीं करे है । अन्यथा श्रद्धानकों सत्यश्रद्धान मानै उपाय काहेकौं करै । बहुरि संज्ञी पंचेंद्रिय कदाचित् तत्त्वनिश्चय करनेका उपाय विचारै । तहां अभाग्यतें कुदेव गुरु कुशास्त्रका निमित्त बने तो अतत्वश्रद्धान पुष्ट होइ जाय । यह तो जाने इनतें मेरा भला
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यह अचेत होजाय । वस्तु स्वरूपका विचार करने का
होगा, वे ऐसा उपाय करें जाकर उद्यमी भया सो विपरीत विचार विषै दृढ़ होइ जाय तब विषयकषायकी वासना बघतें अधिक दुःखी होय । बहुरि कदाचित् सुदेव सुगुरु सुशास्त्रका भी निमित्त बनि जाय तौ तहां तिनिका निश्चय उपदेशकों तौ श्रद्धहै नाहीं, व्यवहारश्रद्धानकरि अतत्त्वश्रद्धानी ही रहै । तहां मंदकषाय वा विषय इच्छा घटै तौ थोरा दुखी होय पीछें बहुरि जैसाका तैसा होइजाय तातें यह संसारी उपाय करै सो भी झूठा ही होय । बहुरि इस संसारीकै एक यह उपाय है जो आपके जैसा श्रद्धान है तैसें पदार्थनिकों परिणमाया चाहेसो वै परिणमै तौ याका सांचा श्रद्धान होइजाय । परंतु अनादिनिधन वस्तु जुदे जुदे अपनी मर्यादा लिये परिणमै हैं । कोऊ कोऊ कै आधीन नाहीं | कोऊ किसीका परिणमाया परिणमै नाहीं । तिनिकौं परिणमाया चाहै सो उपाय नाहीं । यह तौ मिथ्यादर्शन ही है । तौ सांचा उपाय कहा है? जैसें पदार्थनिका स्वरूप है तैसे श्रद्धान होइ त सर्ब दुःख दूरि होइ जाय । जैसें कोऊ मोहित होय मुरदाकों जीवता मानै वा जिवाया चाहे सोम्याप ही दुःखी हो है । बहुरि वाकौं मुरदा मानना और यह जिवाया जीवैगा नाहीं ऐसा मानना सो ही तिस दुःख दूरि होने का उपाय है । तैसें मिथ्यादृष्टी होइ पदार्थनिकों अन्यथा मानें अन्यथा परिणामाया चाहे तो आप ही दुखी हो है । बहुरि उनको यथार्थ मानना, अर ए परिणमाए अन्यथा परिणमेंगे नाहीं, ऐसा मानना सो ही तिस दुःखके दूरि होने का उपाय है ।
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मो.पा.
प्रकारा
मजनित दुःखकाउपाय भ्रम दूरि करना ही है । सो भ्रम दूरि होनेते सायशद्धान होय सो ही सत्य उपाय जानना । बहुरि चारित्रमोहके उदयतें क्रोधादि कषायरूप वा हास्यादि नोकषायरूप जीवके भाव हो हैं । तब यह जीव क्लेशवान् होइ दुःखी होला संता विह्वल होइ नाना कुकार्यनिविषे प्रवर्ते है। सोई दिखाइए है-जब याकै क्रोधकषाय उपजे, तब अन्यका बुरा करनेकी इच्छा होइ । बहुरि ताकेअर्थि अनेक उपाय विचारै। मरमच्छेद गालीप्रदानादिरूप वचन बोले। अपने अंगनिकरि वा शस्त्रपाषाणादिकरि घात करै।अनेक कष्ट सहनेकरि वा धनादि खर्चनेकरि वा मरणादिकरि अपना भी बुरा करि अन्यका बुरा करनेका उद्यम करै अथवा औरनिकरि बुरा होता जानै तौ औरनिकरि बुरा करावै । वाका स्वयमेव बुरा होय तो अनुमोदना करै। वाका बुरा भए अपना किछू भी प्रयोजनसिद्धि न होय तो भी वाका बुरा करै । बहुरि क्रोध | होते कोई पूज्य वा इष्ट भी बीचि आवै तौ उनको भी बुरा कहै । मारने लगि जाय,किछू विचार रहता नाहीं । बहुरि अन्यका बुरा न होइ तो अपने अंतरंगविणे आप ही बहुत संतापवान होइ वा अपने ही अंगनिका घात करै वा विषादिकरि मरि जाय ऐसी अवस्था क्रोध होते हो है। बहुरि जब याकै मानकषाय उपजै तब औरनिकों नीचा वा आपकों ऊंचा दिखावनेकी इच्छा होइ। बहुरि ताके अर्थि अनेक उपाय विचारै अन्यकी निंदा करै आपकी प्रशंसा करै । वा अनेक प्रकारकरि औरनिकी महिमा मिटावें आपकी महिमा करै।महाक टकरि धनादिकका संग्रह किया
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प्रकारा
ताको विवाहादि क.यनिविषे खरचै वा देना करि भी खर्चे । मूए पीछे हमारा जस रहेगा। ऐसा विचारि अपना मरन करिके भी अपनी महिमा बधावै । जो अपना सन्मानादि न करें ताको भयादिक दिखाय दुःख उपजाय अपना सन्मान करावै । बहुरि मान होते कोई पूज्य बड़े | होहिं तिनिका भी सन्मान न करै, किछू विचार रहता नाहीं । बहुरि अन्य नीचा आप ऊंचा न दीसै तो अपने अंतरंगविणे आप बहुत संतापवान् होय वा अपने अंगनिका घात करै वा | विषादिकरि मरि जाय ऐसी अवस्था मान होते हो है । बहुरि जब याकै मायाकषाय उपजै, | तष छलकरि कार्य सिद्ध करनेकी इच्छा होय । बहुरि ताके अर्थि अनेक उपाय विचारे, नानाप्रकार || कपटके वचन कहै, कपटरूप शरीरकी अवस्था करे, बाह्य वस्तुनिकों अन्यथा दिखावै, बहुरि जिनविणे अपना मरन जाने ऐसे भी छल करै बहुरि कपट प्रगट भए अपना बहुत बुरा | होइ मरनादिक होइ तिनिकों भी न गिनै । बहुरि माया होते कोई पूज्य वा इष्टका भी संबंध | बनें तो उनस्यौं भी छल करै, किछू बिचार रहता नहीं । बहुरि छलकरि कार्यसिद्धि न होइ तो आप बहुत संतापवान होय, अपने अंगनिका घात करै, वा विषादिकरि मरि जाय। ऐसी अवस्था माया होते हो है । बहुरि जब याकै लोभ कषाय उपजै तब इष्टपदार्थका लाभकी इच्छा होय ताकै अर्थि अनेक उपाय विचारै। ताके साधनरूप वचन बोले । शरीरकी अनेक चेष्टा करै । बहुत कष्ट सहै । सेवा करै विदेशगमन करै जाकरि मरन होता जानै सो भी कार्य करै । घना
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प्रकाश
| दुःख जिन विषै उपजै ऐसा प्रारंभ करै । बहुरि लोभ होतें पूज्य वा इष्टका भी कार्य होय तहां भी । अपना प्रयोजन साथै, किछू विचार रहता नाहीं। बहुरि तिस इष्टवस्तुकी प्राप्ति भई है ताकी || अनेकप्रकार रक्षा करै है। बहुरि इष्ट वस्तुको प्राप्ति न होइ वा इष्टका वियोग होइ तो आप || बहुत संतापमान होइ अपने अंगनिका घात करै वा विषादिकरि मरि जाय । ऐसी अवस्था लोभ | होते हो है । ऐसें कषायनिकरि पीड़ित हूवा इन अवस्थानिविणे प्रवर्ते है । बहुरि इनि कषायनिकी | साथि नोकषाय हो हैं। जहां जब हास्य कषाय होइ तब आप विकसित होइ प्रफुल्लित होइ सो यह ऐसा जानना जैसा बायवालेका हँसना नाना रोगकरि आप पीड़ित है, कोई कल्पनाकरि हँसने लागि जाय है। ऐसे ही यह जीव अनेक पीडासहित है कोई झूठी कल्पनाकरि || आपका सुहावताकार्य मानि हर्ष माने है। परमार्थतें दुःखी ही है। सुखी तौ कषायरोग मिटें || होगा । बहुरि जब रति उपजै है, तब इष्ट वस्तुविष अतिआसक्त हो है ! जैसे बिल्ली मूंसाकौं |
पकरि आसक्त हो है । कोऊ मारै तौ भी न छोरै । सो इहां इष्टपना है। बहुरि वियोग होनेI का अभिप्रायलिये आसक्तता हो है तातें दुःख ही है। बहुरि जब अरति उपजै तब अनिष्ट | वस्तुका संयोग पाय महा व्याकुल हो है । अनिष्टका संयोग भया सो आपकू सुहावता नाहीं । । सो यह पीड़ा सही न जाय तातें ताका वियोग करनेको तड़फड़े है सो यह दुःख ही है । बहुरि
जब शोक उपजै है तब इष्टका वियोग वा अनिष्टका संयोग होते अतिव्याकुल होइ संताप
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उपजावै रोवै पुकारै असावधान होइ जाय अपना अंगघात करै मरि जाय । किछू सिद्धि नाहीं | तो भी आप ही महादुःखी हो है। बहुरि जब भय उपजै है तब काहूको इष्टवियोग अनिष्ट
संयोगका कारन जानि डरै अतिविह्वल होइ भागै वा छिपै वा सिथिल होइ जाइ कष्ट होनेके ठिकाने प्राप्त होइ वा मरि जाय सो यह दुःखरूप ही है । बहुरि जुगुप्सा उपजै है तब अनिष्ट वस्तुकौं घृणा करै । ताका तौ संयोग भया आप घृणाकरि भाग्या चाहै खेदखिन्न होइ महादुःखकौं पात्र है । बहुरि तीनूं वेदनिकरि जब काम उपजे है तब पुरुषवेदकरि स्त्रीसहित रमने की अर स्त्रीवेदकरि पुरुषसहित रमनेकी अर नपुन्सकवेदकरि दोऊनिस्यों रमनेकी इच्छा हो है । तिसकरि अति व्याकुल हो है । आताप उपजै है। निर्लज्ज हो है धन खर्चे है । अपजसकौं न गिनै है । परंपरा दुःख होइ वा दंडादिक होइ ताकौं न गिनै है। काम पीड़ातें बाउला हो है । मरि जाय है । सो रसग्रंथनिविषे कामकी दश दशा कही हैं । तहां बाउला होना मरन | होना लिख्या है। वैद्यकशास्त्रनिमें ज्वरके भेदनिविषै कामज्वर मरनका कारन लिख्या है। प्रत्यक्ष कामकरि मरनपर्यन्त होते देखिए है। कामान्धकै किछ विचार रहता नाहीं । पिता, पुत्री वा मनुष्य तिर्यंचणी इत्यादितें रमने लगि जाय है । ऐसी कामकी पीड़ा महादुःखरूप है। या प्रकार कषाय वा नोकषायनिकरि अवस्था हो है । इहां ऐसा विचार आवै है जो इनि अवस्थानिविषै न प्रवत्त तो क्रोधादिक पी . अर इनि अश्स्थानिविषै प्रवत्र्ते तो मरनपर्यन्त कष्ट
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होइ तहां मरनपर्यन्त कष्ट तौ कबूल करिए है, अर क्रोधादिककी पीड़ा सहनी कबूल न करिए है । तातें यह निश्चय भया जो मरनादिकतें भी कषायनिकी पीड़ा अधिक है । बहु जब याकै कषायका उदय होइ, तब कषाय किए बिना रह्या जाता नाहीं । बाह्य कषायनिके कारन आय मिलें तौ उनकै आश्रय कषाय करै, न मिलें तो आप कारन बनावें । जैसें व्यापारादि कषायनिका कारन न होइ तौ जुआ खेलना वा अन्य कोधादिकके कारन अनेक ख्याल | खेलना वा दुष्टकथा कहनी सुननी इत्यादिक कारन बनाये है । बहुरि काम क्रोधादि पीड़ें शरीरविषै तिनिरूप कार्य करनेकी शक्ति न होइ तौ औषधि बनावै अन्य अनेक उपाय करै । बहुरि कोई कारन बने नहीं तो अपने उपयोगविषै कषायनिकों कारणभृत पदार्थनिका चिंतवनिकरि - आप ही कषायरूप परिणमें । ऐसें यह जीव कषायभावनिकरि पीड़ित हुवा महान् दुःखी हो है । बहुरि जिस प्रयोजनकों लियें कषायभाव भया है तिस प्रयोजनकी सिद्धि होय तो यह मेरा दुःख दूरि होय अर मोकूं सुख होइ । ऐसें विचारि तिस प्रयोजनकी सिद्धि होने अनेक उपाय करना सो तिस दुःख दूरि होनेका उपाय माने है । सो इहां कषायभावनितें जो दुःख हो है, सो तो सांचा ही है । प्रत्यक्ष आप ही दुखी हो है । बहुरि यह उपाय करे है सो कंठा है । कातें सो कहिए है— क्रोधविषै तो अन्यका बुरा करना, मानविषै औरनिकूं नीचा करि आप ऊंचा होना, मायाविषै छलकार कार्यसिद्धि करना, लोभविषै इष्टका पावना, हास्य
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विषै विकसित होनेका कारन बन्या रहना, रतिविषै इष्टसंयोगका बन्या रहना, अरतिविषै अनिटका दूरि होना, शोकविषै शोकका कारन मिटना, भयविषै भयका मिटना, जुगुप्साविषै जुगुप्सा ||
का कारन दूरि होना, पुरुषवेदविषे स्त्रीस्यों रमना, स्त्रीवेदविषे पुरुषस्यों रमना, नपुसकवेद| विषे दोऊनिस्यों रमना, ऐसे प्रयोजन पाइए है । सो इनिकी सिद्धि होय तो कषाय उपशमनेते। दुःख दूरि होइ जाइ सुखी होइ परन्तु इनिकी सिद्धि इनके किए उपायनिके आधीन नाही, भवितव्यके आधीन है। जाते अनेक उपाय करते देखिये है अर सिद्धि न हो है। बहुरि । उपाय बनना भी अपने आधीन नाहीं, भवितव्यके आधीन है। जाते अनेक उपाय करना || विचार और एक भी उपाय न होता देखिए है । बहुरि काकतालीय न्यायकरि भवितव्य ऐसा ही होइ, जैसा आपका प्रयोजन होइ तैसा ही उपाय होइ अर तातें कार्यकी सिद्धि भी होइ जाइ, तौ तिस कार्यसंबंधी कोई कषायका उपशम होइ परंतु तहां भाव होता नाहीं । यावत् | कार्यसिद्ध न भया तावत् तौ तिसकार्यसंबंधी कषाय' था। जिस समय कार्यसिद्ध भया तिस | ही समय अन्य कार्यसंबंधी कषाय होइ जाय । एक समयमात्र भी निराकुल रहै नाहीं । जैसे कोऊ क्रोधकरि काहूका बुरा विचारै था वाका बुरा होय चुक्या, तब अन्यस्यों क्रोधकरि वाका | बुरा चाहनै लग्या अथवा थोरी शक्ति थी तब छोटेनिका बुरा चाहै था, घनी शक्ति भई तब बड़ेनिका बुरा चाहने लग्या। ऐसे ही मानमायालोभादिककरि जो कार्य विचारै था सो सिद्ध
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हो क्या, तब अन्यविषै मानादिक उपजाय तिसकी सिद्धि किया चाहै । थोरी शक्ति थी तब छोटे कार्यकी सिद्धि किया चाहे था, घनी शक्ति भई तब बड़े कार्यकी सिद्धि करनेका अभिलाष भया । कषायनिविषै कार्यका प्रमाण होइ तौ तिसकार्यकी सिद्धि भए सुखी होइ जाय, सो प्रमाण है नाहीं । इच्छा बधती ही जाय । सोई आत्मानुशासनविषै कला है“आशागर्त्तः प्रतिप्राणि, यस्मिन्विश्वमपमम् ।
कस्मिन् किं कियदायाति, वृथा यो विषयैषिता ॥ १ ॥”
याका अर्थ — आशारूपी खाड़ा प्राणी प्राणी प्रति पाइए है । अनन्तानन्त जीव बहुरि वह आशारूपी खाड़ा कैसा है, जिस एक
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अर लोक
आवै ।
हैं तिनि सबनिकै ही आशा पाइये है ही खाड़ेविषै समस्तलोक असमान है एक ही, सो अब इहां कौन कौन के कहा कितना बटवारे ( हिस्से में ) तुम्हारे यह विषयनिकी इच्छा है सो वृथा ही है । इच्छा पूर्ण तो होती ही नाहीं । तातें कोई कार्यसिद्धि भए भी दुःख दूर न अथवा कोई कषाय मिटै तिस ही समय अन्य कषाय होइ जाय । जैसें काहूक मारनेवाले बहुत होंय, जब कोई वाकूं न मारै तब अन्य मारने लगि जाय । तैसें जीवकों दुःख यावनेवाले अनेक कषाय हैं । जब क्रोध न होय, तब मानादिक होइ जांय । जब मान न होइ, तब क्रोधादिक होइ जांय । ऐसें कषायका सद्भाव रह्या ही करै । कोई एक समय भी कषायरहित
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होय नाहीं । तातें कोई कषायका कोई कार्य सिद्ध भए भी दुःख दूर कैसे होइ । बहुरि याकै । अभिप्राय तौ सर्वकषायनिका सर्व प्रयोजन सिद्ध करनेका है। सो होइ तौ सुखी होइ । सो तो कदाचित् होइ सकै नाहीं । तातें अभिप्रायविर्षे शास्वता दुःखी ही रहै है। तातें कषायनिका प्रयोजनकौं साधि दुःख दूरि करि सुखी भया चाहै है, सो यह उपायं झूठा ही है । तौ । सांचा उपाय कहा है ? सम्यग्दर्शनज्ञानतें यथावत् श्रद्धान वा जानना होइ, तब इष्ट अनिष्ट-11 बुद्धि मिटै । बहुरि तिनहीके बलकरि चारित्रमोहका अनुभाग हीन होई । ऐसे होते कषायनिका। |अभाव होई, तब तिनिकी पीड़ा दूरि होय तब प्रयोजन भी किछ रहे नाहीं। निराकुल होनेत | महासुखी होइ । तातें सम्यग्दर्शनादिक ही इस दुःख मेटनेका सांचा उपाय है । बहुरि अंतरायका उदयतें जीवके मोहकरि दान लाभ भोग उपभोग वीर्य शक्तिका उत्साह उपजै, परन्तु | होइ सके नाहीं । तब परम आकुलता होइ सो यह दुःखरूप है ही। याका उपाय यह करै है,। | जो विघ्नके बाह्य कारन सूझै तिनिके दूरि करनेका उद्यम करै सो यह झूठा उपाय है । उपाय || | किये भी अन्तरायका उदय होते विघन होता देखिए है। अन्तरायका क्षयोपशम भये, बिना
उपाय भी विघन न हो है। तातें विधनका मूलकारन अन्तराय है। बहुरि जैसें कूकराकै | पुरुषकरि बाही हुई लाठीको लागी । वह कूकरा लाठीस्यों वृथा ही द्वेष करै है। तैसें जीवकै अन्तरायकरि निमित्तभूत किया बाह्य चेतन अचेतन द्रव्यकरि विघन भया। यह जीव तिनि
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बाह्य द्रव्यनिस्यों वृथा खेद करे है। अन्य द्रव्य याकै विघन किया चाहै अर याकै न होइ । प्रकारा
| बहुरि अन्य द्रव्य विघन किया न चाहै अर याकै होइ । तातें जानिए है अन्यद्रव्यका किछु |
वश नाही, तिनिस्यों काहेको लरिये । तातें यह उपाय झूठा है। तो सांचा उपाय कहा है ? || मिथ्यादर्शनादिकतें इच्छाकरि उत्साह उपजे था सो सम्यग्दर्शनादिककरि दूरि होय । अर सम्यग्दर्शनादिकहीकरि अंतरायका अनुभाग घटै तब इच्छा तो मिटि जाय शक्ति बधि जाय तब
वह दुःख दूरि होइ निराकुलसुख उपजै । तातें सम्यग्दर्शनादिक ही सांचा उपाय है। बहुरि - वेदनीयके उदयतें दुखसुखके कारनका संयोग हो है। तहां केई तो शरीरविषै ही अवस्था हो | है केई शरीरकी अवस्थाकों निमित्तभूत बाह्य संयोग हो है। केई बाह्य ही वस्तूनिका संयोग
हो है । तहां असाताके उदयकरि शरीरविषै तो क्षुधा तृषा उच्छ्वास पीड़ा रोग इत्यादि हो है। बहुरि शरीरकी अनिष्ट अवस्थाको निमित्तभूत बाह्य अतिशीत उष्ण पवन बन्धनादिकका । संयोग हो है। बहुरि बाह्य शत्रु कुपुत्रादिक वा कुवर्णादिक सहित स्कन्धनिका संयोग हो है ।।
सो मोहकरि इनविषै अनिष्टबुद्धि हो है। जब इनिका उदय होय तब मोहका उदय ऐसा ही | आवे जाकरि परिणामनिमें महाव्याकुल होइ इनिको दूर किया चाहै। यावत् ए दूरि न होय तावत् दुखी हो है सो इनिकों होतें तौ सर्व ही दुःख माने हैं । बहुरि साताके उदयकरि शरीरविष आरोग्यवानपनौ बलवानपनौ इत्यादि हो है। बहुरि शरीरकी इष्ट अवस्थाको निमित्तभूत
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बाह्य खानपानादिक वा सुहावना पवनादिकका संयोग हो है। बहुरि बाह्य मित्र सुपुत्र स्त्री | किंकर हस्ती घोटक धन धान्य मन्दिर वस्त्रादिकका संयोग हो है सो मोहकरि इनिविणे इष्ट| बुद्धि हो है। जब इनिका उदय होय तब मोहका उदय ऐसा ही आवै जाकरि परिणामनिमें || | चैन मानै । इनिकी रक्षा चाहै । यावत् रहै तावत् सुख माने। सो यह सुख मानना ऐसा है | जैसे कोऊ घनें रोमनिकरि बहुत पीड़ित होय रह्या था ताकै कोई उपचारकरि कोई एक रोगकी | कितेक काल किछू उपशान्तता भई तब वह पूर्व अवस्थाकी अपेक्षा आपकों सुखी कहै, परमा| र्थतें सुख है नाहीं। बहुरि याकों असाताका उदय होतें जो होय ताकरि तो दुःख भासै है । | तातें ताके दूरि करनेका उपाय करै है। अर साताका उदय होते जो होइ ताकरि सुख भासै | है तातें ताों होनेका उपाय करै है। सो यह उपाय झूठा है। प्रथम तौ याका उपाय याकै
आधीन नाहीं वेदनीयकर्मका उदयकै आधीन है । असाताके मेटनैके अर्थि साताकी प्राप्तिके अर्थि तो सर्वहीकै यत्न रहै है परन्तु काहूकै थोरा यत्न किए भी वा न किए भी सिद्धि होइ जाय, काहूके बहुत यत्न किए भी सिद्धि न होइ तातें जानिए है याका उपाय याकै आधीन नाहीं। बहुरि कदाचित् उपाय भी करै अर तैसा ही उदय आवै तौ थोरै काल किंचित् काहू प्रकार की असाताका कारन मिटै अर साताका कारन होइ तहां भी मोहके सद्भावतें तिनिकों भोगनेकी इच्छाकरि आकुलित होइ । एक. भोग्यवस्तुकों भोगनेकी इच्छा होइ, वह यावत् न
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920010300300-360000000%acrobia:00-1900-00-2600-3600100013000-3600-8000RICORacroacroorgaral
| मिले तावत् तो वाकी इच्छाकरि आकुंल होई। अर वह मिल्या अर उसही समय अन्यकों भोगनेकी इच्छा होई जाय, तब ताकरि आकुल होइ । जैसैं काहूको स्वाद लेनेकी इच्छा भई । थी वाका आखाद जिस समय भया तिस ही समय अन्य वस्तुका खाद लेनेकी वा स्पर्शनादि | करनेकी इच्छा उपजै हैं । अथवा एक ही वस्तुको पहिले अन्य प्रकार भोगनेकी इच्छा होइ वह यावत् न मिले तावत् वाकी आकुलता रहै । अर वह भोग भया अर उस ही समय अन्यप्रकार भोगनेकी इच्छा होइ । जैसें स्त्रीको देख्या चाहै था जिस समय अवलोकन भया उसही समय है। | रमने की इच्छा हो है। बहुरि ऐसें भोग भोगतें भी तिनिके अन्य उपाय करनेकी आकुलता हो |||
है तो तिनिकों छोरि अन्य उपाय करनेकौं लागै है। तहां अनेक प्रकार आकुलता हो है । देखो | एक धनका उपाय करनेमें व्यापारादिक करतें बहुरि वाकी रक्षा करनेमें सावधानी करतें केती |
आकुलता हो हैं । बहुरि क्षुधा तृषा शीत उष्ण मल श्लेष्मादि असाताका उदय आया ही करें। | ताका निराकरणकरि सुख माने सो काहेका सुख है। यह तो रोगका प्रतीकार है। यावत् चुधादिक रहै तावत् तिनिका मिटावनेकी इच्छाकरि आकुलता होइ, वह मिटै तब कोई अन्य इच्छा उपजै ताकी आकुलता होइ । बहुरि क्षुधादिक होइ तब उनकी आकुलता होइ आवै ।। ऐसें याकै उपाय करतें कदाचित् असाता मिटि साता होइ तहां भी आकुलता रह्या ही करै तातें दुःख ही रहै है । बहुरि ऐसे भी रहना तो होता नाहीं आपकों उपाय करते करतें ही कोई।
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असाताका उदय ऐसा आवै ताका किछु उपाय बनि सकै नाहीं । अर ताकी पीड़ा बहुत होय सही जाय नाहीं। तब ताकी आकुलताकरि विह्वल होइ जाइ तहां महादुखी होय । सो इस संसारमें साताका उदय तो कोई पुण्यका उदयकरि काहूकै कदाचित् ही पाइए है घणे जीव| निकै बहुत काल असाताहीका उदय रहे है । तातें उपाय करे सो झूठा है। अथवा बाह्य | सामग्रीत सुख दुख मानिए है सो ही भ्रम है। सुख दुख तो साता असाताका उदय होतें। मोहका निमित्ततें हो है। सो प्रत्यक्ष देखिये है। लक्षधमका धनीकै सहस्रधनका व्यय भया तब वह तो दुःखी हो है । अर शत धनका धनीकै सहस्रधन भया तब वह सुख माने है । बाह्य सामग्री तौ वाकै यातें निन्याणवें गुणी है। अथवा लक्षधनका धनीकै अधिक धनकी इच्छा है तो वह दुःखी है अर शत धनका धनीकै संतोष है तो वह सुखी है । बहुरि समान | वस्तु मिले कोऊ सुख माने है कोऊ दुःख माने है। जैसे काहूकौं मोटा वस्त्रका मिलना दुःख| कारी होइ काहूकौं सुखकारी होइ । बहुरि शरीरविणे दुधा आदि पीड़ा वा बाह्य इष्टका वियोग अनिष्टका संयोग भए काहूकै बहुत दुःख होइ काहूकै थोरा होइ काहूकै न होइ । तातें। सामग्रीकै आधीन सुख दुख नाहीं । साता असाताका उदय होते मोहपरिणामनके निमित्त ही सुख दुख मानिए है । इहां प्रश्न—जो बाह्य सामग्रीकी तो तुम कहो हो, तैसें ही है परंतु | शरीरविषै तौ पीड़ा भए दुखी ही होइ अर पीड़ा न भए सुखी होइ सो यह तो शरीरअवस्था
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दिकै आधीन सुख दुख भासै है । ताका समाधान,
___ आत्माका तौ ज्ञान इन्द्रियाधीन है। अर इन्द्रिय शरीरका अंग है सो यामैं जो अवस्था वीतै ताका जाननैरूप ज्ञान परिणमें ताकी साथि ही मोहभाव होइ । ताकरि शरीर अवस्थाकरि सुखदुःख विशेष जानिए है। बहुरि पुत्रधनादिकस्यों अधिक मोह होइ तो अपना शरीरका कष्ट सहै ताका थोरा दुःख मानै उनकों दुःख भये वा संयोग मिटें बहुत दुःख माने । अर मुनि हैं सो शरीरका पीड़ा होतें भी किछु दुःख मानते नाहीं । तातें सुख दुःख मानना तौ | | मोहहीकै आधीन है । मोहकै अर वेदनीयकै निमित्तनैमित्तिक संबंध है, तातें साता असावाका | उदयतें सुख दुःखका होना भास है। बहुरि मुख्यपने केतीक सामग्री साताके उदयतें हो है केतीक असाताका उदयतें हो है तातें सामग्रीनिकरि सुख दुःख भास है। परन्तु निर्धार किए | मोहहीतें सुख दुःखका मानना हो है औरनिकरि सुख दुःख होनेका नियम नाहीं । केवलीकै | साता असाताका भी उदय है अर सुख दुःखकों कारण सामग्रीका भी संयोग है । परन्तु मोह। का अभावतें किंचिन्मात्र भी सुख दुःख होता नाहीं तातें सुख दुःख मोहजनित ही मानना । | तातें तू सामग्रीके दूरकरनेका वा होनेका उपायकरि दुःख मेट्या चाहै सुखी भया चाहै सो यह उपाय झूठा है, तो सांचा उपाय कहा है ? सम्यग्दर्शनादिकर्ते भ्रम दूरि होय तब सामग्रीत सुख दुःख भासे नाहीं अपने परिणामहीते भासै । बहुरि यथार्थ विचारका अभ्यासकरि अपने
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परिणाम जैसे सामग्रीके निमित्त सुखी दुःखी न होइ तैसैं साधन करै । बहुरि सम्यग्दर्शनादि भावनाहीत मोह मन्द होइ जाय तब ऐसी दशा होइ जाय जो अनेक कारण मिलो आपकौं । सुखदुःख होइ नाहीं। जब एक शांतदशारूप निराकुल होइ सांचा सुखकौं अनुभवै तब सर्व | दुःख मिटै सुखी होइ । यह सांचा उपाय है । बहुरि आयुकर्मके निमित्त पर्यायका धारना सो जीवितव्य है पर्याय छूटना सो मरन है । बहुरि यह जीव मिथ्यादर्शनादिकतें पर्यायहीकों आपो | | अनुभवै है। तातें जीवितव्य रहै अपना अस्तित्व माने है। मरन भये अपना अभाव होना|
माने है । इसही कारण ते सदाकाल याकै मरनका भय रहे है। तिस भयकरि सदा आकुलता | रहे है। जिनिकौं मरनका कारन जानै तिनिस्यों बहुत डरै। कदाचित् उनका संयोग बणे | तौ महाविह्वल होइ जाय । ऐसे महा दुखी रहै है । ताका उपाय यह करै है जो मरनके कारननिकों दूर राखै है वा उनस्यों आप भागै है। बहुरि औषधादिकका साधन करै है गढ़ कोट आदिक बनावै है इत्यादि उपाय करै है। सो यह उपाय झूठा हैं जाते आयु पूर्ण भए तौ | अनेक उपाय करै है अनेक सहाई होंय तो भी मरन होइ ही होइ। एक समयमात्र भी न | जीव । अर यावत् आयु पूर्ण न होइ तावत् अनेक कारन मिलौ सर्वथा मरन न होइ ताते | उपाय किए मरन मिटता नाहीं । बहुरि आयुकी स्थिति पूर्ण होइ ही होइ। तातें मरन भी || होइ ही होइ । याका उपाय करना झूठा ही है। तो सांचा उपाय कहा है ? सम्यग्दर्शना
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| दिकतें पर्यायविर्षे अहंबुद्धि छटे अनादिनिधन आप चैतन्यद्रव्य है तिसविर्षे अहंबुद्धि आवै । पर्यायकों स्वांग समान जानै तब मरनका भय रहै नाहीं । बहुरि सम्यग्दर्शनादिकहीत सिद्धपद | | पावै सब मरनका अभाव ही होइ । तातै सम्बग्दर्शनादिक ही सांचा उपाय है।
बहुरि नामकर्मके उदयनै गति जाति शरीरादिक निपजे हैं तिनि विषै पुण्यके उदयते | जे हो हैं ते तो सुखके कारन हो हैं। पापके उदयतें हो हैं ते दुःखके कारण हो हैं । सो इहां | सुख मानना भ्रम है । बहुरि यह दुःखके कारन मिटावनेका सुखके कारन होनेका उपाय करें । सो झूठा है। सांचा उपाय सम्यग्दर्शनादिक हैं। सो जैसे वेदनीयका कथन करतें निरूपण |
| किया तैसे ही इहां भी जानना। वेदनीय अर नामकै सुख दुखका कारनपनाकी समानतात | निरूपणकी समानता जाननी बहुरि गोत्रकर्मके उदयतें नीच ऊंच कुलविणे उपजे है। तहां | ऊंच कुलविणे उपजें आपकौं ऊंचा मानै है भर नीच कुलविष उपजें आपकों नीचा मान है सो | । कुल पलटनेका उपाय तो याक भासै नाहीं। तातें जैसा कुल पाया तैसा ही कुलविषै आपो
माने है । सो कुल अपेक्षा आपकों ऊंचा नीचा मानना भ्रम है । ऊंचा कुलका कोई निंद्य कार्य करै तौ वह नीचा होइ जाय । अर नीचा कुलविर्षे कोई श्लाघ्य कार्य करै तौ वह ऊंचा होइ जाय । लोभादिकतें नीच कुलवालेकी उच्चकुलवाला सेवा करने लगि जाय। बहुरि कुल | कितेक काल रहै ? पर्याय छूट कुलकी पलटनि होइ जाय। तातै ऊंचा नीचा कुलकरि आपकं ।।।
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1 ऊंचा नीचा मानें। ऊंचाकुलवालाकों नीचा होनेके भयका अर नीचाकुलवालाकों पाएहुए नीच
पने का दुख ही है। तो याका सांचा उपाय कहा है ? सो कहिए है। सम्यग्दर्शनादिकतै ऊंच नीच कुलविष हर्ष विषाद न माने बहुरि तिनही जाकी बहुरि पलटनि न होय ऐसा । सर्वते ऊंचा सिद्ध पद पावै तब सर्व दुख मिटै सुखी होइ । या प्रकार कर्मके उदयकी अपेक्षा
मिथ्यादर्शनादिकके निमित्त संसारविषै दुख ही दुख पाइए है ताका वर्नन किया। अब इस । दुःखकों पर्याय अपेक्षाकरि वर्नन करिए है
इस संसारविषे बहुत काल तो एकेन्द्रिय पर्यायहीविषे बीते है। तातें अनादिही तो नित्यनिगोदविषै रहना, बहुरि तहांतें निकसना ऐसा जैसें भारभूनतें चणाका उछटि जाना सो| तहांतें निकसि अन्य पर्याय धरै तो त्रसविर्षे तो बहुत थोरे ही काल रहै। एकेन्द्रीहीविर्षे बहुत | काल व्यतीत करै है। तहां इतरनिगोदविषै बहुत रहना होइ । अर कितेक काल पृथिवी अप तेज वायु प्रत्येक वनस्पतिविषै रहना होय। नित्यनिगोदतें निकसे पीछे त्रसविषै तो रहनेका | उत्कृष्ट काल साधिक दोहजार सागर ही है । एकेन्द्रियविषै उत्कृष्ट रहनेका काल ऐसा है जाके | | अनन्तवाँ भागविणे भी अनन्ते सागर हो हैं । तातें इस संसारीक मुख्यपर्ने एकेन्द्रिय पर्यायविषे
ही काल व्यतीत हो है । तहां एकेन्द्रियकै ज्ञानदर्शनकी शक्ति तो किंचिन्मात्र ही रहे है । एक । स्पर्शन इन्द्रियके निमित्ततें भया मतिज्ञान अर ताके निमित्ततें भया श्रुतज्ञान अर स्पर्शनइंद्रिय
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जनित अचक्षुदर्शन जिनकर शीत उष्णादिकको किंचित् जानै देखे है। ज्ञानावरण दर्शनावरणके तीव्र उदयकरि यातें अधिक ज्ञानदर्शन न पाइए है। अर विषयनिकी इच्छा पाइए है तातें महा दुखी है। बहुरि दर्शनमोहके उदयतें मिथ्यादर्शन हो है तातें पर्यायहींकों आपो श्रद्दहै है। अन्यविचार करनेकी शक्ति ही नाहीं। बहुरि चारित्रमोहके उदयतै तीव्र क्रोधादि
कषायरूप परिणमै हैं जाते उनकै केवली भगवानने कृष्ण नील कापोत ए तीन अशुभ लेश्या 18 ही कही हैं। सो ए तीव्र कषाय होते ही हो हैं सो कषाय तो बहुत अर शक्ति सर्वप्रकारकरि
महा हीन तातें बहुत दुखी होय रहे हैं । किछू उपाय कर सकते नाहीं । इहां कोऊ कहै-ज्ञान तो किंचित् मात्र ही रह्या है वै कहा कषाय करें ? ताका समाधान
जो ऐसा तो नियम है नाहीं जेता ज्ञान होइ तेता ही कषाय होय । ज्ञान तौ क्षयोपशम जेता होय तेता हो है । सो जैसें कोऊ आंधा बहरा पुरुषकै ज्ञान थोरा होते भी बहुत कषाय होते देखिए है तैसें एकेन्द्रियकै ज्ञान थोरा होते भी बहुत कषायका होना माना है । बहुरि बाह्य कषाय प्रगट तब हो है जब कषायकै अनुसार किछु उपाय करें सो वै शक्तिहीन है तातें उपाय करि सकते नाहीं। ताते उनकी कषाय प्रगट नाहीं हो है। जैसे कोऊ पुरुष शक्तिहीन है ताकै कोई कारणते तीब कषाय होइ परंतु किछू करि सकै नाहीं। तातै वाका | कषाय बाह्य प्रगट नाही होय यूं ही अतिदुःखी होइ । तैसें एकेन्द्रिय जीव शक्तिहीन हैं।
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मा.मानसिनिकै कोई कारणते कषाय हो है परन्तु किछु कर सकते नाहीं सातै उनका कषाय बाह्य प्रकाश
प्रगट नाहीं हो है वै ही आप दुःखी हो हैं। बहुरि ऐसा जानना जहां कषाय बहुत होय अर शक्तिहीन होय तहां घना दुख हो है बहुरि जैसें कषाय घटता जाय शक्ति बधती जाय तैरों दुःख घटता हो है । सो एकेन्द्रियनिकै कषाय बहुत अर शक्तिहीन तातै एकेन्द्रिय जीव महा दुःखी हैं। उनके दुःख वै ही भोगवै हैं। अर केवली जाने हैं। जैसें सन्निपातीका ज्ञान घटि जाय अर बाह्य शक्तिके हीनपनैः अपना दुःख प्रगट भी न करि सके परन्तु वह महादुखी है, तैसें एकेन्द्रियका ज्ञान थोरा है अर बाह्य शक्तिहीनपनाने अपना दुखकों प्रगट भी न करि सके है परन्तु महादुखी है। बहुरि अन्तरायके तीत्र उदयकरि चाह्या होता नाहीं। ताते भी दुखी ही है । बहुरि अघातिकर्मनिविष विशेषपने पापप्रकृतिका उदय है तहां असातावेदनीयका | उदय होते तिसके निमित्ततै महादुखी हो है। पवन टूटै है। बहुरि वनस्पती है सो शीत | | उष्णकरि सूकि जाय है, जल न मिलै सूकि जाय है, अगनिकरि बले है ताकौं कोऊ छेदै है भेदै है मसले है खाय है तोरै है इत्यादि अवस्था हो है। ऐसे ही यथासंभव पृथ्वी आदिविषे | अवस्था हो है। तिनि अवस्थाकों होते वै महादुखी हो हैं जैसे मनुष्यकै शरीरविणे ऐसी अवस्था भए दुख हो है तैसे ही उनकै. हो है। जाते इनिका जानपना स्पर्शन इन्द्रियतै होइ सो वाके स्पर्शनइंद्रिय है ही, ताकरि उनकों जानि मोहके वशते महाव्याकुल हो है। परंतु
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भागनेकी वा लरनेकी वा पुकारनैकी शक्ति नाहीं तातें अज्ञानीलोक उनके दुखकौं जानते । नाहीं । बहुरि कदाचित् किंचित् साताका उदय होइ सो वह बलवान् होता नाहीं । बहुरि आयुकर्म इनि एकेन्द्रिय जीवनिविष जे अपर्याप्त हैं तिनकै तौ पर्यायकी स्थिति उश्वासके अठारहवें भाग मात्र ही है । अर पर्यातनिकी अन्तर्मुहुर्त आदि कितेकवर्ष पर्यन्त है । सो आयु थोरा
तातै जन्ममरण हुवा ही करै ताकरि दुखी हैं । बहुरि नामकर्मविष तिर्यंचगति आदि पापप्रकृति*निका ही उदय विशेषपनै पाइए है। कोई ही पुण्यप्रकृति का उदय होइ ताका बलवानपना
नाहीं तातै तिनिकरि भी मोहके वशतै दुखी हो है। बहुरि गोत्रकर्मविष नीच गोत्रहीका | उदय है ताकरि महंतता होय नाहीं । तातै भी दुखी ही है । ऐसें एकेन्द्रिय जीव महादुःखी है अर इस संसारविर्षे जैसे पाषाण आधारविर्षे तो बहुत काल रहै है निराधार आकाशविषे तौ कदाचित् किंचिन्मात्रकाल रहै, तैसें जीव एकेन्द्रिय पर्यायविषै बहुतकाल रहै है अन्य पर्यायविष | तो कदाचित् किंचिन्मात्र काल रहे है । तातै यह जीव संसारविषै महादुखी है । बहुरि वेन्द्रिय नेन्द्रिय चौइंद्रिय असंगीपंचेंद्रिय पर्यायनिकों जीव धरै तहां भी एकेंद्रियवत् दुख जानना । विशेष इतना-इहां क्रमते एक एक इंद्रियजनित ज्ञानदर्शनकी वा किछु शक्तिकी अधिकता | भई है बहुरि बोलने चालनेकी शक्ति भई है । तहां भी जे अपर्यात हैं वा पर्यात भी हीनशक्तिके | धारक हैं छोटे जीव हैं तिनिकी शक्ति प्रगट होती नाहीं । बहुरि केई पर्याप्त बहुत शक्तिके
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| धारक बड़े जीव हैं, तिनिकी शक्ति प्रगट हो है। ताते ते जीव विषयनिका उपाय करें हैं दुख दूरि होनैका उपाय करै हैं क्रोधादिककरि काटना मारना लरना छलकरना अन्नादिका संग्रह। करना भागना इत्यादि कार्य करे हैं। दुखकरि तड़फड़ाट करना पुकारना इत्यादि क्रिया करै | हैं । तातै तिनिका दुख किछु प्रगट भी हो है। सो लट कीड़ी आदि जीवनिकै शीत उष्ण छेदन भेदनादिकतै वा भूख तृषा आदितै परम दुख देखिए है। जो प्रत्यक्ष दीसै ताका | | विचार करि लैना, इहां विशेष कहा लिखें। ऐसें वेइन्द्रियादिक जीव भी महादुखी ही जानने ।
बहुरि संज्ञीपंचेंद्रियनिविषै नारकी जीव हैं ते तो सर्व प्रकार घने दुखी हैं। ज्ञानादिकी | शक्ति किछु है परन्तु विषयनिकी इच्छा बहुत अर इष्टविषयनिकी सामग्री किंचित् भी न मिले | तातै तिस शक्तिके होनैकरि भी घने दुखी हैं। बहुरि क्रोधादि कषायका अति तीव्रपना पाइए |
है। जातें उनकै कृष्णादि अशुभलेश्या ही हैं। तहां क्रोधनानकरि परस्पर दुख देनेका निरन्तर | कार्य पाइए है। जो परस्पर मित्रता करें तो यह दुख मिटि जाय। अर अन्यकों दुख दिए | किछू उनका कार्य भी होता नाहीं परन्तु क्रोधमानका अति तीबपना पाइए है ताकरि परस्पर दुख देनेहीकी बुद्धि रहै । विक्रियाकरि अन्यकों दुखदायक शरीरके अंग बना३ वा शस्त्रादि बनावें तिनिकरि अन्यकों आप पीड़ें अर आपको कोई अन्य पीडै । कदाचित् कषाय उपशांत होय नाहीं । बहुरि माया लोभकी भी अति तीव्रता है परंतु कोई इष्टसामग्री तहां दीखे नाहीं ।
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तातें तिनि कषायनिका कार्य प्रगट कर सकते नाहीं । तिनिकरि अंतरंगविषे महादुखी हैं । बहुरि कदाचित् किंचित् कोई प्रयोजन पाइ तिनिका भी कार्य हो है । बहुरि हास्य रति कषाय हैं परंतु बाह्यनिमित्त नाहीं तातैं प्रगट होते नाहीं कदाचित् किंचित् किंचित् किसी कारण हो हैं । बहुरि अरति शोक भय जुगुप्सा इनिके बाह्य कारण बनि रहे हैं तातें ए कषाय प्रगट तीव्र होइ हैं । बहुरि वेदनीविषै नपुन्सक, वेद है । सो इच्छा तौ बहुत और स्त्री पुरुषस्यों रमनेका निमित्त नाहीं तातैं महापीड़ित हैं । ऐसें कषायनिकरि श्रति दुखी हैं । बहुरि वेदनीयविषै साताहीका उदय है ताकरि तहां अनेक वेदनाका निमित्त है | शरीरविषै कोढ़ कास खासादि अनेक रोग युगपत् पाइए है अर क्षुधा तृषा ऐसी है जो सर्वका भक्षण पान किया है है । अर तहांकी माटीका भोजन मिले है सो माटी भी ऐसी है जो इहां आवै तो ताकी दुर्गंध केई कोशनिके मनुष्य मरि जाएं। अर शीत उष्ण तहाँ ऐसा है जो लक्षयोजनका लोहका गोला होइ सो भी तिनिकरि भस्म होइ जाय । कहीं शीत है कहीं उष्ण है । बहुरि पृथिवी तहां शस्त्रनितें भी महातीच्ण कंटकनिकरि सहित है । बहुरि तिस पृथिवीविषै वन हैं सो शस्त्रकी धार समान पत्रादि सहित हैं । नदी है सो ताका स्पर्श भये शरीर खंड खंड होइ जाय ऐसे जल सहित है । पवन ऐसा प्रचंड है जाकरि शरीर दग्ध हुवा जाय है । बहुरि नारकी नारकी अनेक प्रकार पीड़ें घारणीमें पेलें खंड खंड करें हांडीमें रांधे कोरडा मारैं तप्त लोहादिकका
हद
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स्पर्श करावें। इत्यादि वेदना उपजावें। तीसरी पृथिवी पर्यंत असुरकुमार देव जाएं ते आप पीड़ा दें वा परस्पर लरावें। ऐसी वेदना होते शरीर छूट नाहीं पारावत् खंड खंड होइ जाइ तो भी मिलि जाय। ऐसी महा पीड़ा है। बहुरि साताका निमित्त तो किछ है नाहीं । कोई अंश कदाचित् कोईकै अपनी मानितें कोई कारण अपेक्षा साताका उदय है सो बलवान् नाहीं। बहुरि आयु तहां बहुत, जघन्य दशहजार वर्ष उत्कृष्ट तेतीस सागर । इतने काल ऐसे दुख तहां सहनै होय। बहुरि नामकर्मकी सर्वपापप्रकृतिनिहीका उदय है एक भी पुन्यप्रकृतिका | उदय नाहीं तिनिकरि महादुखी हैं । बहुरि गोत्रविष नीच गोत्रहीका उदय है ताकरि महंतता न होइ तातै दुखी ही हैं । ऐसें नरकगतिविषे महादुख जाननै।
बहुरि तियंचगतिविषै बहुत लब्ध अपर्याप्त जीव हैं, तिनिका तौ उश्वासकै अठारवें भाग मात्र आयु है। बहुरि केई पर्याप्त भी छोटे जीव हैं। सो इनिकी शक्ति प्रगट भासै नाहीं । तिनिकै दुख एकेंद्रियवत् जानना । ज्ञानादिकका विशेष है सो विशेष जानना । बहुरि बड़े पर्यात जीव केई सम्मूर्छन हैं । केई गर्भज तिनिविषै ज्ञानादिक प्रगट हो है सो विषयनिकी | इच्छाकरि आकुलित हैं। बहुतकों तौ इष्टविषयकी प्राप्ति नाहीं है। काहूकों कदाचित् किंचित् हो है। बहुरि मिथ्यात्वभावकरि अतत्त्वश्रद्धानी होय रहे हैं। बहुरि कषाय मुख्यपनै तीव्र ही पाइए | है। क्रोध मानकरि परस्पर लरै हैं भक्षण करै हैं दुख दे हैं माया लोभकरि छल करै हैं वस्तुकों
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चुरावें हैं हास्यादिककरि तिनिकषायनिका कार्यनिविषै प्रवर्तें हैं । बहुरि काहूकै कदाचित् मन्द| कषाय हो है परन्तु थोरे जीवनिकै हो है तातें मुख्यता नाहीं । बहुरि वेदनीयविषै मुख्य असाताका उदय है ताकरि रोग पीड़ा क्षुधा तृषा छेदन भेदन बहुत भारवहन शीत उष्ण अंगभंगादि अवस्था हो है ताकरि दुखी होते प्रत्यक्ष देखिए है । तातैं बहुत न कया है । का कदाचित् किंचित् साताका भी उदय हो है परन्तु थोरे जीवनिकै हो है । मुख्यता नाहीं । बहुरि आयु अंतर्मुहूर्त्त आदि कोटिवर्ष पर्यंत है । तहां घने जीव स्तोक आयुके धारक हो हैं, तातैं जन्म मरनका दुःख पावें हैं । बहुरि भोगभूमियांकी बड़ी आयु है । र उनकै साताका भी उदय है सो वै जीव थोरे हैं । बहुरि नामकर्मकी मुख्यपनै तौ तियंचगति आदि पापप्रकृतिनिका ही उदय है । काहूकै कदाचित् केई पुण्यप्रकृतिनिका भी उदय हो है परन्तु थोरे जीवनिकै थोरा हो है मुख्यता नाहीं । बहुरि गोत्रविषै नीचगोत्रहीका उदय है तातें हीन होय रहे हैं । ऐसें तिर्यंचगतिविषै महादुःख जानने । बहुरि मनुष्यगतिविषै असंख्याते जीव तौ लब्धिअपर्याप्त हैं ते सम्मूर्छन ही हैं तिनिकी तो आयु उश्वासके अठारवें भागमात्र है । बहुरि केई जीव गर्भ में आय थोरै ही कालमें मरन पावै हैं । तिनिकी तौ शक्ति प्रगट भासै नाहीं है । तिनिकै दुख एकेन्द्रियवत् जानना । विशेष है सो विशेष जानना । बहुरि गर्भजनिके ि काल गर्भ में रहना पीछे वाह्य निकलना हो है । सो तिनिका दुखका वर्नन कर्मअपेक्षा पूर्वे
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Day-001000 ల సంత -
నివాసం ఉం ం ం
वर्नन किया है तैसें जानना । वह सर्व वर्नन गर्भज मनुष्यनिकै संभ है अथवा तिर्यंचनिका वर्णन किया है तैसें जानना । विशेष यह है इहां कोई शक्तिविशेष पाइए है वा राजादिकनिकै | विशेष साताका उदय है वा क्षत्रियादिकनिकै उच्चगोत्रका भी उदय हो है । बहुरि धन कुटुम्बादिकका निमित्त विशेष पाइए है इत्यादि विशेष जानना। अथवा गर्भ आदि अवस्थाके दुख प्रत्यक्ष भासे हैं । जैसे विष्टाविषे लट उपजै तैसें गर्भमें शुक्र शोणितका बिन्दुकों अपना शरीर-2 रूपकरि जीव उपजै। पीछे तहां क्रमतें ज्ञानादिककी वा शरीरकी वृद्धि होइ । गर्भका दुःख | बहुत है। संकोचरूप अधोमुख तुधातृषादिसहित तहां काल पूरण करै। बहुरि बाह्य निकसै || तब बाल्यअवस्थामें महादुख हो है। कोऊ कहै बाल्यअवस्था में दुख थोरा है, सो नाहीं है ।। | शक्ति थोरी है ताते व्यक्त न होय सके है। पीछे व्यापारादिक वा विषयइच्छा आदि दुखनिकी प्रगटता हो है । इष्ट अनिष्टजनित आकुलता रहबो ही करै। पीछे वृद्ध होइ तब शक्ति- | । हीन होइ जाइ । तब परमदुखी हो है । सो ए दुख प्रत्यक्ष होते देखिए है। हम बहुत कहा कहैं। प्रत्यक्ष जाकौं न भासै सो कह्या कैसैं सुनै। काहूकै कदाचित् किंचित् साताका उदय हो है सो आकुलतामय है । अर तीर्थंकरादि पद मोक्षमार्ग पाए बिना होंय नाहीं । ऐसे मनुष्य पर्यायविषै दुख ही है । एक मनुष्य पर्यायविर्षे कोई अपना भला होनैका उपाय करै तौ होय सके है। जैसे काणा सांठाको जड़ वा बांड तो चूसने योग्य हो नाहीं। अर बीचि
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की पेली कोणी सो भी चूसी जाय नाहीं। कोई स्वादका लोभी वाकू विगारौ तो विगारौ।अर जो काकों बोइ दे तो वाके बहुत सांठे होंइ तिनिका स्वाद बहुत मीठा आवै। तैसें मनुष्यपर्यायका बालवृद्धपना तो | सुख भोगने योग्य नाहीं।अर बीचिकी अवस्था सो रोग क्लेशादिकरि युक्त तहांसुख होइ सकै नाहीं।। कोई विषयसुखका लोभी याकौं विगारों तौ विगारो। अर जो याकौं धर्मसाधनविषै लगावै तौ बहुत ऊंचे पदकौं पावै । तहां सुख बहुत निराकुल पाइए । तातै इहां अपना हित साधना,सुख । होनैका भ्रमकरि वृथा न खोवना । बहुरि देवपर्यायविषै ज्ञानादिककी शक्ति किछु औरनिते विशेष है। मिथ्यात्वकरि अतत्त्वश्रद्धानी होय रहे हैं। बहुरि तिनिकै कषाय किछु मन्द हैं। तहां भवनवासी व्यंतर ज्योतिष्कनिकै कषाय बहुत मन्द नाहीं अर. उपयोग तिनिका चंचल बहुत अर किछु शक्ति भी है सो कषायनिके कार्यनिविषे प्रवर्ते हैं। कुतूहल विषयादि कार्यनिविषै लगि रहे हैं सो तिस आकुलताकरि दुखी ही हैं। बहुरि वैमानिकनिकै ऊपरिऊपरि विशेष मन्दकषाय है अर शक्ति विशेष है ताते आकुलता घटनैते दुख भी घटता है। इहां। देवनिकै क्रोधमान कषाय है परन्तु कारन थोरा है । तातै तिनिके कार्यकी गौणता है । काहूका बुरा करना काहूकौं हीन करना इत्यादि कार्य निकृष्ट देवनिकै तौ कौतूहलादिकरि हो है । अर उत्कृष्ट देवनिकै थोरा हो है मुख्यता नाहीं। बहुरि माया लोभ कषायनिके कारण पाइए हैं। ताते तिनिके कार्यकी मुख्यता है । तातै छल करना विषयसामग्रीकी चाहि करनी इत्यादि
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मो.मा.10 कार्य विशेष हो है । सो भी ऊंचे ऊंचे देवनिकै घााटे(कम) है । बहार हास्य रात कषायके कारन ||
| घने पाइए है । ताते इनिके कार्यनिकी मुख्यता है । बहुरि अरति शोक भय जुगुप्सा इनिके कारन थोरे हैं ताते इनिके कार्यनिकी गौणता है। बहुरि स्त्रीवेद पुरुषवेदका उदय है अर रमनेका भी निमित्त है सो कामसेवन करै हैं। ए भी कषाय ऊपरि ऊपरि मन्द हैं। अहमिंद्र-| | निके वेदनिकी मन्दताकरि काम सेवनका अभाव है। ऐसें देवनिकै कषायभाव हैं सो कषाय-|
हीत दुख है। अर इनिकै कषाय जेता थोरा है तितना दुख भी थोरा है ताते औरनिकी | | अपेक्षा इनिकों सुखी कहिए है। परमार्थते कषायभाव जीवे है ताकरि दुखी ही हैं । वहुरि | वेदनीयविष साताका उदय बहुत है। तहां भवनत्रिककै थोरा है। वैमानिकनिकै ऊपरि ऊपरि विशेष है । इष्ट शरीरकी अवस्था स्त्रीमन्दिरादि सामग्रीका संयोग पाइए है। बहुरि कदाचित् | | किंचित् असाताका भी उदय कोई कारणकरि हो है। तहां निकृष्टदेवनिकै किछु प्रगट भी है। अर उत्कृष्ट देवनिकै विशेष प्रगट नाहीं है। बहुरि आयु बड़ी है। जघन्य दशहजारवर्ष उत्कृष्ट तेतीस सागर है । याते अधिक आयुका धारी मोक्षमार्ग पाए बिना होता नाहीं । सो इतना काल विषयसुखमें मगन रहै हैं । बहुरि नामकर्मकी देवगति आदि सर्व पुण्यप्रकृतिनिहीका उदय है । तातै सुखका कारन है। अर गोत्रविषै उच्चगोत्रहीका उदय है तातै महंतपदको प्राप्त हैं ऐसें इनिकै पुण्यउदयकी विशेषताकरि इष्ट सामग्री मिली है । अर कषायनिकरि
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इच्छा पाइए है। ताते तिनिके भोगवनेविषै आसक्त होइ रहे हैं । परन्तु इच्छा अधिक ही रहै है तातें सुखी होते नाहीं । ऊंचे देवनिकै उत्कृष्ट पुण्यका उदय है कषाय बहुतमन्द है तथापि तिनिकै भी इच्छाका अभाव होता नाहीं तातै परमार्थते दुखी ही हैं। ऐसे सर्वत्र संसारविर्षे ।। | दुख ही दुख पाइए है । ऐसें पर्यायअपेक्षा दुख वर्नन किया, अब इस सर्व दुखका सामान्य
रूप कहिए है-दुखका लक्षण आकुलता है सो आकुलता इच्छा होते हो है । सोई संसारीके | इच्छा अनेक प्रकार पाइए है । एक तो इच्छा विषयग्रहणकी है सो देख्या जान्या चाहै । जैसे
वर्ण देखनेकी राग सुननेकी अव्यक्तकों जानने इत्यादिकी इच्छा हो है सो तहां अन्य किछु । | पीड़ा नाहीं । परन्तु यावत् देखै जाने नाहीं तावत् महाव्याकुल होइ। इस इच्छाका नाम विषय
है । बहुरि एक इच्छा कषायभावनिके अनुसार कार्य करनेकी है सो कार्य किया चाहै । जैसे | बुरा करनेकी हीन करनेकी इत्यादि इच्छा हो है। सो इहां भी अन्य कोई पीड़ा नाहीं । परन्तु | यावत् वह कार्य न होइ तावत् महा व्याकुल होय। इस इच्छाका नाम कषाय है । बहुरि एक
इच्छा पापके उदयतै शरीरविणे वा बाह्य अनिष्ट कारण मिलें तब उनके दूरि करनेकी हो है। | जैसे रोग पीड़ा क्षुधा आदिका संयोग भए उनके दूर करनेकी इच्छा हो है सो इहां यह ही। | पीड़ा माने है । यावत् वह दूरि न होइ तावत् महाव्याकुलता रहै । इस इच्छाका नाम पापका | उदय है । ऐसें इनि तीनप्रकारको इच्छा होते सर्व हो दुख मानें हैं सो दुख ही है। बहुरि एक
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इच्छा बाह्य निमित्ततें बने है सो इनि तीनप्रकार इच्छानिके अनुसारि प्रवर्त्तनेकी इच्छा हो है। सो तीनि प्रकार इच्छानिविषै एक एक प्रकारकी इच्छा अनेक प्रकार है। तहां केई प्रकारकी । इच्छा पूरन करनेका कारन पुण्यउदयतें मिले । तिनिका साधन युगपत् होइ सके नाहीं। ताते एकको छोड़ि अन्यकौं लागै, आगें भी वाकौं छोड़ि अन्यकौं लागे । जैसे काहुकै अनेक सामग्री मिली है । वह काहूकौं देखै है वाकौं छोड़ि राग सुनै है वाकों छोड़ि काहूका बुरा करने लगि जाय बाको छोड़ि भोजन करै है अथवा देखनेविषे ही एककौं देखि अन्यकों देखे है । ऐसे ही अनेक कार्यनिकी प्रवृत्तिविषै इच्छा हो है सो इस इच्छाका नाम पुण्यका उदय है। याकौं जगत सुख माने है सो सुख है नाही, दुख ही है। काहेते-प्रथम तौ सर्वप्रकार इच्छा | पूरन होनेके कारन काहूकै भी न बनें । अर केई प्रकार इच्छा पूरन करनेके कारन बनें तो
युगपत् तिनिका साधन न होइ। सो एकका साधन जावत् न होइ तावत् वाकी आकुलता रहै वाका साधन भए उसही समय अन्यका साधनकी इच्छा हो है तब वाकी आकुलता हो है । एक समय भी निराकुल न रहै, तातें दुखी ही है । अथवा तीनप्रकारके इच्छारोग मिटावनेका किंचित् उपाय करै है ताते किंचित् दुख घाटि हो है सर्व दुखका तौ नाश न होइ तातें दुख ही है । ऐसें संसारी जीवनिकै सर्व प्रकार दुख ही है । बहुरि इहां इतना जानना, तीनप्रकार इच्छानिकरि सर्व जगत पीड़ित है अर चौथी इच्छा है सो पुण्यका उदय आये
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हो सो पुण्यका बन्ध धर्मानुरागतैं होइ अर धर्मानुरागविषै जीव थोरालागे । जीव तौ बहुत पापक्रियानिविषै ही प्रवर्तें हैं । तातें चौथी इच्छा कोई जीवकै कदाचित् कालविषै हो है । बहुरि इतना जानना, जो समान इच्छावान् जीवनिकी अपेक्षा तो चौथी इच्छावालाकै किछू तीनप्रकार इच्छा घटनेते सुख कहिए है । बहुरि चौथी इच्छावालाकी अपेक्षा महान् इच्छावाला चौथी इच्छा होतें भी दुखी ही है । काहुकै बहुत विभूति है अर वाकै इच्छा बहुत है। तौ वह बहुत आकुलतावान् है । अर जाकै थोरी विभूति है अर वाकै इच्छा थोरी है तो वह थोरा चाकुलतावान् है अथवा कोऊकै अनिष्ट सामग्री मिली है वाकेँ उसके दूर करनेकी इच्छा थोरी है तो वह थोरा आकुलतावान् है । बहुरि काहूकै इष्ट सामग्री मिली है परन्तु ताकै उनके भोगनेकी वा अन्य सामग्री की इच्छा बहुत है तौ वह जीव घना आकुलतावान् है । तातैं सुखी दुखी होना इच्छा के अनुसार जानना बाह्य कारनकै प्राधीन नाहीं है । नारकी दुखी र देव सुखी कहिए है सो भी इच्छाहीकी अपेक्षा कहिए है । जातै नारकीनिकै तीव्रकषायतै इच्छा बहुत है । देवनिकै मन्द कषायत इच्छा थोरी है । बहुरि मनुष्य तिर्यंच भी सुखी दुखी इच्छाही की अपेक्षा जानना । तीव्रकषायतें जाकै इच्छा बहुत ताकौं दुखी कहिये है मंदकषायतें जाकै इच्छाथोरी ताकौं सुखी कहिए है । परमार्थ घना वा थोरा है सुख नाहीं है । देवादिककों भी सुखी माने हैं सो भ्रम ही है ।
दुख ही उनके चौथी
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इच्छाकी मुख्यता है ताते आकुलित हैं । या प्रकार जो इच्छा है सो मिथ्यात्व अज्ञान असंयमते हो है। बहुरि इच्छा है सो आकुलतामय है अर आकुलता है सो दुख है। ऐसे सर्व || जीव संसारी नानाप्रकारके दुखनिकरि पीड़ित ही होइ रहे हैं। अब जिन जीवनिकों दुखनिते। छटना होय सो इच्छा दूरि करनेका उपाय करो । बहुरि इच्छा दूरि तब ही होइ जब मिथ्यात्वअज्ञान असंजमका अभाव होइ अर सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्रकी प्राप्ति होय । ताते इस ही कार्य का उद्यम करना योग्य है । ऐसा साधन करते जेती जेती इच्छा मिटै तेता ही दुख दूरि होता | जाय । बहुरि जब मोहके सर्वथा अभावते सर्वथा इच्छाका अभाव होइ तब सर्व दुख मिटै |सांचा सुख प्रगटै। बहुरि ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तरायका अभाव होइ तब इच्छाका कारण क्षयोपशम ज्ञान दर्शनका वा शक्तिहीनपनाका भी अभाव होइ, अनन्तज्ञानदर्शनवीर्यकी प्राप्ति होइ । बहुरि केतेक काल पीछे अघाति कर्मनिका भी अभाव होइ तब इच्छाके बाह्य कारन तिनिका भी अभाव होइ । सो मोह गए पीछे एकै काल किछू इच्छा उपजावनेकौं समर्थ थे नाहीं, मोह होने कारण थे ताते कारन कहे हैं सो इनिका भी अभाव भया। तब सिद्धपदको प्राप्त हो हैं। तहां दुखका वा दुखके कारननिका सर्वथा अभाव होने सदाकाल अनौ| पम्य अखंडित सर्वोत्कृष्ट आनन्दसहित अनन्तकाल विराजमान रहै हैं । सोई दिखाइए है-ज्ञानावरण दर्शनावरणका क्षयोपशम होते वा उदय होते मोहकरि एक एक विषय देखने जाननेकी इच्छा
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करि महाव्याकुल होता था सो अब मोहका अभावतें इच्छाका भी अभाव भया । तातै दुखका अभाव भया है । बहुरि ज्ञानावरण दर्शनावरणका क्षय होनेते सर्व इन्द्रियनिकौं सर्वविषयनिका युगपत् ग्रहण भया तातै दुखका कारन भी दूरि भया है सोई दिखाइए है—जैसे नेत्रकरि एक | विषयकों देख्या चाहै था अब त्रिकालवी त्रिलोकके सर्व वर्णनिकों युगपत् देखे है। कोऊ विना देख्या रह्या नाहीं जाके देखनेकी इच्छा उपजै। ऐसे ही स्पर्शनादिककरि एक एक विषयकों ग्रह्या चाहै था अब त्रिकालवर्ती त्रिलोकके सर्व स्पर्श रस गंध शब्दनिकों युगपत् ग्रहै है कोऊ विना ग्रह्या रह्या नाहीं जाके ग्रहणकी इच्छा उपजै । इहां कोऊ कहै शरीरादिक विना ग्रहण || | कैसे होइ ? ताका समाधान
इन्द्रियज्ञान होते तो द्रव्यइन्द्रियादिविना ग्रहण न होता था। अब ऐसा स्वभाव प्रगट भया जो बिना ही इन्द्रिय ग्रहण हो है। इहां कोऊ कहै जैसें मनफरि स्पर्शादिकों
जानिए है तैसें जानना होता होगा त्वचा जीभ मादिकरि ग्रहण हो है तैसें न होता होगा। । सो ऐसें नाहीं है । मनकरि तौ स्मरणादि होते अस्पष्ट जानना किछू हो है। इहां तो स्पर्श-11 ॥ रसादिककों जैसें त्वचा जीभ इत्यादिकरि स्पर्श खादै सूंघे देखै सुनै जैसा स्पष्ट जानना हो है।
तिसतें भी अनन्त गुणा स्पष्ट जानना तिनिकै हो है। विशेष इतना भया है-वहां इन्द्रिय| विषयका संयोग होते ही जानना होता था इहां दूर रहे भी वैसा ही जानना हो है । सो यह
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शक्तिकी महिमा है । बहुरि मनकरि किछू अतीत अनागतों अव्यक्तकों जान्या चाहै था अब सर्व ही अनादितें अनन्तकालपर्यन्त जे सर्व पदार्थनिके द्रव्यक्षेत्र काल भाव तिनिकौं युगपत् || जाने है। कोऊ विना जान्या रह्या नाहीं जाके जानने की इच्छा उपजै । ऐसें इन दुख और । दुखनिके कारण तिनिका अभाव जानना । बहुरि मोहके उदयतें मिथ्यात्व वा कषायभाव होते थे तिनिका सर्वथा अभाव भया तातै दुखका अभाव भया । बहुरि इनिके कारणनिका अभाव । | तातै दुखके कारणका भी अभाव भया । सो कारणका प्रभाव दिखाइए है
सर्व तस्व यथार्थ प्रतिभासें अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्व कैसे होइ । कोऊ अनिष्ट रह्या || | नाहीं निंदक स्वयमेव अनिष्ट पावै ही हैं आप क्रोध कौनसों करे ? सिद्धनित ऊंचा कोई है।
नाहीं इन्द्रादिक मापहीते नमै हैं इष्ट पावें हैं कौनस्यों मान करे ? सर्व भवितव्य भास गया | कार्य रक्षा नाही काहस्यों प्रयोजन रह्या नाहीं काहेका लोभ करै ? कोऊ अन्य इष्ट रह्या नाहीं। | कौन कारनते हास्य होइ ? कोऊ अन्य इष्ट प्रीतिकरने योग्य है नाहीं। इहां कहा रति करै ? | कोऊ दुखदायक संयोग रह्या नाहीं, कहां परति करे ? कोऊ इष्टअनिष्ट संयोगवियोग होता नाहीं, काहेकौं शोक करै ? कोऊ अनिष्ट करनेवाला कारन रह्या नाहीं, कौनका भय करे ? सर्व वस्तु अपने खभाव लिए भासे आपको अनिष्ट नाहीं कहां जुगुप्सा करे ? कामपीड़ा दूर | होनेते स्त्रीपुरुष उभयस्यों रमनेका किछू प्रयोजन रह्या नाही, काहेकों पुरुष स्त्री नपुन्सकवेद ।।
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रूप भाव होइ ? ऐसें मोह उपजनैका कारणनिका प्रभाव जानना । बहुरि अन्तरायके उदय शक्ति हीनपनाकरि पूरन न होती थी । अब ताका अभाव भया तातै दुखका अभाव भया ! बहुरि अनन्त शक्ति प्रगट भई तातै दुःखके कारणका भी अभाव भया । इहां कोऊ कहैं, दान लाभ भोग उपभोग करते नाहीं इनकी शक्ति कैसें प्रगट भइ । ताका समाधान, -
ए कार्य रोग उपचार थे। जब रोग ही नाहीं तब उपचार काहेकौं करें। तातैं इनकार्यनिका सद्भाव तौ नाहीं । अर इनिका रोकनहारे कर्मका अभाव भया तातै शक्ति प्रगटी कहिए है । जैसें कोऊ नाहीं गमन किया चाहै ताकौ काढूने रोक्या था तब दुखी था। जब वाकै रोकना दूरि भया अर जिह कार्य के अर्थ गया चाहे था सो कार्य न रह्या तब गमन भी न किया। तब वाकै गमन न करते भी शक्ति प्रगटी कहिए। तैसें ही इहां जानना । बहुरि ज्ञानादिका शक्तिरूप अनन्तीर्य प्रगट उनकै पाइए है। बहुरि अधाति कर्मनिविषै मोह पापप्रकृतिनिका उदय होतैं दुख मानै था । पुण्यप्रकृतिका उदयकौं सुख मान था । परमार्थ आकुलताकरि सर्व दुख ही था । अब मोहके नाशर्तें सर्व श्राकुलता दूरि होनेते सर्व दुःखका नाश भया । बहुरि जिन कारननिकरि दुख मानै था ते तौ कारन सर्व नष्ट भये । अरजिनिकरि किंचित् दुख दूर होने सुख मानै था सो अब मूलही में दुख रह्या नाहीं । तातै तिनि दुख के उपचारनिका किछू प्रयोजन रह्या नाहीं जो तिनिकरि कार्यकी सिद्धि क्रिया चाहे । ताकी
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स्वयमेत्र ही सिद्धि होइ रही है । इसहीका विशेष दिखाइए है—वेदनियविषै असाताके उद| यतै दुखके कारन शरीरविषै रोग क्षुधादिक होते थे। अब शरीर ही नाहीं तब कहां होय । अर शरीर की अनिष्ट अवस्थाक कारन आतापादिक थे सो अब शरीर विना कौनकौं कारन होय ? अर बाह्य अनिष्ट निमित्त बनै था सो अब इनिकै अनिष्ट रह्या नाहीं । ऐसें दुखका कारनका तौ अभाव भया । बहुरि साताके उदयतै किंचित् दुख मेटनेके कारन औषधि भोजनादिक थे तिनिका प्रयोजन रह्या नाहीं । अर इष्ट कार्य पराधीन रह्या नाहीं तातैं बाह्य भी मित्रादिककौं इष्ट माननेका प्रयोजन रह्या नाहीं । इनिकरि दुख मेट्या चाहै था वा इष्ट किया चाहे था सो अब संपूर्ण दुख नष्ट भया अर संपूर्ण इष्ट पाया । बहुरि आयुके निमित्त मरण जीवन था तहां मरणकरि दुःख मानें था सो अविनाशी पद पाया तातें दुखका कारन रह्या नाहीं । बहुरि द्रव्य प्राणनिकों घरें कितेक काल जीवने मरनेते सुख मानै था तहां भी नरकपर्यायविषै दुखकी विशेषताकरि तहां जीवना न चाहै था सो अब इस सिद्धपर्यायविषै द्रव्यप्राण बिना ही अपने चैतन्य प्राणकरि सदाकाल जीवै है । अर तहां दुखका लवलेश भी न रह्या है । बहुरि नामकर्मतें अशुभ गति जाति आदि होतें दुख मानै था सो अत्र तिनि सबनिका अभाव भया, दुख कहांत होय ? अर शुभगति जाति आदि होते किंचित् दुख दूरि होनेते सुख मानै था, सो अब तिनि विना ही सर्व दूखका नाश अर सर्वसुखका प्रकाश पाई
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ए है । तातै तिनका भी किछू प्रयोजन रह्या नाहीं । बहुरि गोत्र के निमित्ततैं नीचकुल पाए दूख मानै था सो ताका अभाव होने दुखका कारन रह्या नाहीं । बहुरि उच्चकुल पाए सुख मानै था सो अब उच्चकुल विना ही त्रैलोक्यपूज्य उच्चपदकौं प्राप्त है । या प्रकार सिद्धनि सर्व कर्मके नाश होने सर्व दुखका नाश भया है। दुखका तौ लक्षण आकुलता है सो आकुलता तब ही हो है जब इच्छा होइ । सो इच्छाका वा इच्छाके कारणनिका सर्वथा अभाव भया तातें निराकुल होय सर्व दुखरहित अनन्त सुखको अनुभव है । जातैं निराकुलपना ही सुखका लक्षण है । संसारविषै भी कोऊ प्रकार निराकुल होइ तब ही सुख मानिए है। जहां सर्वथा निराकुल भया तहां सुख संपूरन कैसें न मानिए ? या प्रकार सम्यग्दर्शनादि साधनतें सिद्धपद पाए सर्व दुखका अभाव हो है । सर्व सुख प्रगट हो है ।
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अब इहां उपदेश दीजिए है - हे भव्य हे भाई जो तोकूं संसारकै दुख दिखाए ते तुझविषै बीतें हैं कि नाहीं सो विचारि । अर तू उपाय करे है ते झूठे दिखाए सो ऐसें ही है कि नाहीं सो विचारि । अर सिद्धपद पाए सुख होइ कि नाहीं सो विचारि । जो तेरै प्रतीति | जैसें कहिए है तैसें ही आवे है तो तूं संसारतें छूटि सिद्धपद पावनेका हम उपाय कहै हैं सो करि । विलम्ब मति करै । इह उपाय किए तेरा कल्यान होगा ।
इति श्रीमोक्षमार्गप्रकाशक नान शास्त्रविषै संसारदुखका वा मोक्षसुखका निरूपक तृतीय अधिकार सम्पूर्ण भया ||३||
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.. . दोहा। इस भवके सब दुखनिके, कारन मिथ्याभाव ।
तिनिकी सत्ता नाश करि, प्रगटै मोक्षउपाव ॥१॥ अब इहां संसार दुखनिके बीजभूत मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मि-याचारित्र हैं तिनिका || | स्वरूप विशेष निरूपण कीजिए है। जैसें वैद्य है सो रोगके कारननिका विशेष कहै तौ रोगी ।
कुपथ्य सेवन न करै तब रोगरहित होय, तैसें इहां संसारके कारननिका विशेष निरूपण करिए है । जातै संसारी मिथ्यात्वादिकका सेवन न करे तब संसाररहित होय तातै मिथ्यादर्शना| दिकनिका विशेष कहिए है,. यह जीव अनादित कर्मसंबंधसहित है । याकै दर्शनमोहके उदय भया जो अत| त्वश्रद्धान ताका नाम मिथ्यादर्शन है। जाते तद्भाव जो श्रद्धान करने योग्य अर्थ है ताका जो भाव स्वरूप ताका नाम तत्व है। अर तत्व नाहीं ताका नाम अतत्त्व है। अर अतत्व है सो| असत्य है ताते इसहीका नाम मिथ्या है। बहुरि यह ऐसे ही है, ऐसा प्रतीतिभाव ताका । नाम श्रद्धान है। इहां श्रद्धानहीका नाम दर्शन है । यद्यपि दर्शनशब्द का अर्थ सामान्य अवलोकन है तथापि इहां प्रकरणके वशते इस ही धातुका अर्थ श्रद्धान जानना । सो ऐसे ही | सर्वार्थसिद्धिनाम सूत्रकी टीकाविषै कह्या है । जातै सामान्य अवलोकन संसारमोक्षकों कारण
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होइ नाहीं । श्रद्धान ही संसार मोचकौं कारण है तातै संसारमोचका कारणविषै दर्शनका | अर्थ श्रद्धान ही जानना । बहुरि मिथ्यारूप जो दर्शन कहिए श्रद्धान ताका नाम मिथ्यादर्शन | है । जैसें वस्तुका स्वरूप नाहीं तैसें मानना, जैसे है तैसें न मानना ऐसा विपरीताभिनिवेश | कहिए विपरीत अभिप्राय ताकौं लिए मिथ्यादर्शन हो है । इहां प्रश्न, — जो केवलज्ञान विना स्वर्वपदार्थ यथार्थ भासें नाहीं र यथार्थ भासे विना यथार्थ श्रद्धान न होइ । तातैं मिथ्यादनका त्याग कैसे बने ? ताका समाधान -
पदार्थनिका जानना न जानना अन्यथा जानना तौ ज्ञानावरणके अनुसारि है । बहुरि प्रतीति हो है सो जाने ही हो है । विना जाने प्रतीति कैसें आवै ? यह तौ सत्य है । परंतु जैसे कोऊ पुरुष है सो जिनस्यौं प्रयोजन नाहीं तिनिकों अन्यथा जाने वा यथार्थ जाने बहुरि जैसें जानै तेरों हो मानै, किछू वाका बिगार सुधार है नाहीं, तातै बाउला स्याणा नाम पावै नाहीं । बहुरि जिनस्य प्रयोजन पाइये है तिनिकों जो अन्यथा जानै अर तैसें ही माने तो बिगाड़ होइ त वा बाउला कहिए। बहुरि तिनिकों जो यथार्थ जानै अर तैसें ही मान सुधार होइ । ता वाकौं स्याणा कहिए । तैसें ही जीव है सो जिनस्यों प्रयोजन नाहीं तिनिकौं अन्यथा जानौ वा यथार्थ जानौ । बहुरि जैसें जानौ तैसें विगार सुधार नाहीं । तातैं मिथ्यादृष्टी सम्यग्दृष्टी नाम पावे नाहीं
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श्रद्धान करो किछू याका बहुरि जिनिस्यों प्रयोजन
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प्रकारा
पाइये है तिनिकों जो अन्यथा जानै अर तैसे ही श्रद्धान करै तौ बिगाड़ होइ ताते याकों मिय्यादृष्टी कहिए । बहुरि तिनिकों जो यथार्थ जानै अर तैसें हो श्रद्धान करै तौ सुधार होइ। | ताते याकों सम्यग्दृष्टी कहिए । इहां इतना जानना कि अप्रयोजनभूत वा प्रयोजनभूत पदा| थनिका न जानना वा यथार्थ अयथार्थ जानना जो होइ तामै ज्ञानकी हीनता अधिकता होना
इतना जीवका बिगार सुधार है । ताका निमित्त तौ ज्ञानावरण कर्म है। बहुरि तहां प्रयोजन| भूत पदार्थनिकों अन्यथा वा यथार्थ श्रद्धान किए जीवका किछु और भी बिगार सुधार हो है।
ताते याका निमित्त दर्शनमोह नामा कर्म है। इहां कोऊ कहै कि जैसा जाने तैसा श्रद्धान | करै तातै ज्ञानावरणहीकै अनुसारि श्रद्धान भासै है इहां दर्शनमोहका विशेष निमित्त कैसें । || भासै ? ताका समाधान,
प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वनिका श्रद्धान करनेयोग्य ज्ञानावरणका क्षयोपशम तो सर्व | || संज्ञी पंचेंद्रियनिकै भया है। परन्तु द्रव्यलिंगी मुनि ग्यारह अंग पर्यंत पढ़ें वा ग्रैवेर क देव
अवधिज्ञानादियुक्त हैं तिनिकै ज्ञानावरणका क्षयोपशम बहुत होते भी प्रयोजनभूत जीवादिक का श्रद्धान न होइ । अर तिर्यंचादिककै ज्ञानावरणका क्षयोपपशम थोरा होतें भी प्रयोजनभूत जवादिकका श्रद्धान होइ तातै जानिए है ज्ञानावरणहीकै अनुसारी श्रद्धान नाहीं । कोऊ जुदा कर्म है सो दर्शनमोह है । याकै उदयतै जीवकै मिथ्यादर्शन हो है, तब प्रयोजनभूत जीवादि
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तत्त्वनिका अन्यथा श्रद्धान करै है। इहां कोऊ पूछे कि प्रयोजनभूत अप्रयोजनभूत तत्त्व कौन प्रकाश
हैं ? ताका समाधान,
____ इस जीवके प्रयोजन तो एक यह ही है कि दुख न होय सुख होय । अन्य किछू भी । || कोई ही जीवकै प्रयोजन है नाहीं । बहुरि दुखका न होना सुखका होना एक ही है जाते दुख | का अभाव सोई सुख है । सो इस प्रयोजनकी सिद्धि जीवादिकका सत्य श्रद्धान किए हो है। P कैसे सो कहिए है,
प्रथम तो दुख दुरि करनेविषै आपापरका ज्ञान अवश्य चाहिए । जो आपापरका ज्ञान नाहीं होय तो आपको पहिचाने विना अपना दुख कैसे दूरि करै । अथवा आपापरकौं एक | जानि अपना दुखदूरि करनेकै अर्थि परका उपचार करै तो अपना दुख दूरि कैसे हो । अथवा
आपते पर भिन्न अर यह परविर्षे अहंकार ममकार करै तातै दुख ही होय । आपापरका ज्ञान भए दुख दूरि हो है । बहुरि आपापरका ज्ञान जीव अजीवका ज्ञान भए ही होइ। तातें आप जीव है शरीरादिक अजीव हैं। जो लक्षणादिककरि जीव अजीवकी पहिचान होइ तो आपा-|| परको भिन्नपनौ भासै । तात जीव अजीवकों जानना अथवा जीव अजीवका ज्ञान भए जिन | पदार्थनिका अन्यथा श्रद्धान” दुख होता था तिनिका यथार्थ ज्ञान होनेते दुख दूरि होय । तातै जीव अजीवकों जानना । बहुरि दुखका कारन तौ कर्मबंधन है । अर ताका कारन मिया
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मो.मा. वादिक आस्रव है। सो इनिकों न पहिचाने इनिकौं दुखका मूलकारन न जानै तौ इनिका ।
| अभाव कैसे करें । अर इनिका अभाव न करै तब कर्मबन्ध होइ तातै दुख ही होइ । अथवा । । मिथ्यात्वादिक भाव हैं सो ए दुखमय हैं। सो इनकों जैसेके तैसे न जाने, तौ इनिका अभाव।
न करै । तब दुख ही रहै । तातें आस्रवकों जानना । बहुरि समस्त दुखका कारण कर्मबन्धन । । है सो याको न जानै तब याते मुक्त होनेका उपाय न करें। तब ताके निमित्ततै दुखी होइ ।।
तातै बन्धकों जानना । बहुरि आस्रवका अभाव करना सो संवर है । याका स्वरूप न जानै तौ ॥ याविषे न प्रवर्ते तब आस्तव ही रहै तातै वर्तमान वा आगामी दुख ही होइ । तातै संवरकों
जानना । बहुरि कथंचित् किंचित्कर्मबन्धका अभाव ताका नाम निर्जरा है सो याकौं न जाने | । तब याकी प्रवृत्तिका उद्यमी न होइ । तब सर्वथा बन्ध ही रहै तातें दुख ही होइ । तातै निर्ज
राकों जानना । बहुरि सर्वथा सर्व कर्मबन्धका अभाव होना ताका नाम मोक्ष है । सो याकों न है पहिचाने तो याका उपाय न करें तब संसारविषै कर्मबन्धत निपजे दुखनिहीकों सहै ताते
मोक्षकों जानना। ऐसें जीवादि सप्त तत्त्व जानने । बहुरि शास्त्रादिकरि कदाचित् तिनिकों || जानै अर ऐसें ही है ऐसी प्रतीति न आई तो जानें कहा होय तातै तिनिका श्रद्धान करना | कार्यकारी है । ऐसें जीवादि तत्त्वनिका सत्यश्रद्धान किए ही दुख होनेका अभावरूप प्रयोजनकी सिद्धि हो है । ताते जीवादिक पदार्थ हैं ते ही प्रयोजनभूत जानने । बहुरि इनिके विशेषभेद
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पुण्यपापादिकरूप तिनिका भी श्रद्धान प्रयोजनभूत है। जातें सामान्यतै विशेष बलवान् है। ऐसें ये पदार्थ तो प्रयोजनभूत हैं तातै इनका यथार्थ श्रद्धान किए तो दुख न होइ सुख होय । अर इनिकों यथार्थ श्रद्धान किए विना दुख हो है सुख न हो है । बहुरि इनि विना अन्य पदार्थ | हे ते अप्रयोजनभूत हैं। जाते तिनिकों यथार्थश्रद्धान करो वा मति करो उनका श्रद्धान किछु || सुखदुखकों कारन नाहीं। इहां प्रश्न उपजै है, जो पूर्व जीव अजीव पदार्थ कहे तिनिविय तो सर्व पदार्थ आय गए तिनि विना अन्य पदार्थ कौन रहे जिनिकों अप्रयोजनभूत कहे। ताका समाधान,
पदार्थ तौ सर्व जीव अजीवविषे ही गर्भित हैं परन्तु तिन जीव अजीवके विशेष बहुत हैं । तिनिविषै जिन विशेषनिकरि सहित जीव अजीवको यथार्थ श्रद्धान किए स्वपरका श्रद्धान | । होय रागादिक दूर करनेका श्रद्धान होय तातें सुख उपजै। अयथार्थ श्रद्धान किए स्वपरका । श्रद्धान न होइ रागादिक दूरि करनेका श्रद्धान न होइ तातै दुख उपजै। तिनिविशेषनिकरि । सहित जीव पदार्थ तौ प्रयोजनभूत जानने। बहुरि तिन विशेषनिकरि सहित जीव अजीवौं । यथार्थ श्रद्धान किए खपरका श्रद्धान न होय वा होय अर रागादिक दूर करनेका श्रद्धान होइ | वा न होइ किछ नियम नाहीं। तिनिविशेषनिकरि सहित जीव अजीव पदार्थ अप्रयोजनभूत जानने । जैसे जीव अर शरीरका चैतन्य मूर्तस्वादिविशेषनिकरि श्रद्धान करना तो प्रयोजनभूत
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है। अर मनुष्यादि पर्यायनिका वा घटपटादिका अवस्था आकारादिविशेषनिकरि श्रद्धान करना अप्रयोजनभूत है। ऐसे ही अन्य जानने । या प्रकार कहे जे प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्व | तिनिका अयथार्थ श्रद्धान ताका नाम मिथ्यादर्शन जानना। अब संसारी जीवनिकै मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति कैसे पाइए है सो कहिए है। इहां वर्णन तौ श्रद्धानका करना है परन्तु जानै तब श्रद्धान करै तातें जाननेकी मुख्यताकरि वर्णन करिए है।
अनादित जीव है सो कर्मके निमित्त अनेक पर्याय धरै है तहां पूर्व पर्यायकों छोड़े नवीन पर्याय धरै । बहुरि वह पर्याय है सो एक तो आप आत्मा अर अनन्त पुदगलपरमाणु-| मय शरीर तिनिका एक पिंड बंधानरूप है । बहुरि जीवकै तिसपर्यायविर्षे यह मैं हों ऐसे अहं- ।। बुद्धि हो है । बहुरि आप जीव है ताका स्वभाव तौ ज्ञानादिक है अर विभाव क्रोधादिक हैं। अर पुद्गल परमाणूनिके वर्ण गन्ध रस स्पर्शादि स्वभाव हैं तिनि सबनिकों अपना स्वरूप माने || है। ए मेरे हैं ऐसे ममबुद्धि हो है । बहुरि आप जीव है ताकौं ज्ञानादिककी वा क्रोधादिककी | अधिकहीनतारूप अवस्था हो है । अर पुद्गलपरमाणनिकी वर्णादि पलटनेरूप अवस्था हो है तिनि सबनिकों अपनी अवस्था माने है । ए मेरी अवस्था है । ऐसें ममबुद्धि करै है। बहुरि || जीवकै अर शरीरकै निमित्तनैमित्तिक संबंध है तातै जो क्रिया हो है ताकों अपनी मानै है। अपना दर्शनज्ञानस्वभाव है ताकी प्रवृत्तिको निमित्त मात्र शरीरका अंगरूपस्पर्शनादि द्रव्यइंद्रिय
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हैं। यह तिनिकों एकमानि ऐसें माने है जो हस्तादि स्पर्शनकरि में स्पशर्या, जीभकरि वाख्या, नासिकाकरि संध्या, नेत्रकरि देख्या, कानकरि सुन्या, ऐसें माने है । मनोवर्गणारूप आठपांखड्रीका फूल्या कमलकै आकारि हृदयस्थानविषै द्रव्य मन है दृष्टिगम्य नाहीं ऐसा है सो शरीर काग है ताका निमित्त भए स्मरणादिरूप ज्ञानकी प्रवृत्ति हो है । यह द्रव्य मनकौं अर | ज्ञानकों एक मानि ऐसें माने है कि मैं मनकरि जान्या । बहुरि अपने बोलने की इच्छा हो है अपने प्रदेशनिकों जैसें बोलना बनै तैसे हलावे तब एकक्षेत्रावगाहसंबंध शरीर के अंग ही ताके निमित्त भाषावर्गणारूप पुदुमलवचनरूप परिणमै । यह सबक एक मानि ऐसें माने जो मैं बोलों हों । बहुरि अपने गमनादिक क्रियाकी वा बस्तुग्रहणादिककी ईच्छा होय तब अपने प्रदेशनिकों जैसे कार्य बने तैसें हलावे तब एकक्षेत्रावगाहतै शरीरके अंग हालेँ तब वह कार्य बने । अथवा अपनी इच्छा विना शरीर हालै तब अपने प्रदेश भी हालेँ । यह सबक एक मानि ऐसें मानै, मैं गमनादिकार्य करों हौं वा वस्तु ग्रहौं हौं । वा में किया है इत्यादिरूप माने है । बहुरि जीवके कषायभाव होय तब शरीरकी चेष्टा ताकै अनुसार होय जाय । जैसें क्रोधादिक भए रक्त नेत्रादिक हो जांय । हास्यादि भए प्रफुल्लित वदनादि होय जाय । पुरुषवेदादि भए लिंगकाठिन्यादि होय जाय । यह सबक एक मानि ऐसा मान की ए कार्य सर्व मैं करौं हौं । बहुरि शरीरविषै शीतउष्ण क्षुधा तृषा रोग आदि अवस्था हो है ताकै निमित्त मोहभाव
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मो.मा. प्रकाश
ప్రాంతం రాం
करि आप सुखदुख माने इन सबनिकों एक जानि शीतादिककों वा सुखदुखकों अपने ही भए मान है बहुरि शरीरका परमाणूनिका मिलना विछुरनादि होनेकरि वा तिनिकी अवस्था पलटनेकरि वा शरीरस्कन्धका खंडादि होनेकरि स्थूल कृशादिक वा बाल वृद्धादिक वा अंगहीनादिक होय । अर ताकै अनुसार अपने प्रदेशनिका संकोच विस्तार होइ यह सबकौं एक मानि में स्थूल हों में कृश हों में बालक हों में वृद्ध हौं मेरे इनि अंगनिका भंग भया है इत्यादि रूप माने हैं। यह शरीरकी अपेक्षा गतिकुलादिक होइ तिनिकों अपने मानि में मनुष्य हों में तिर्यच हों में क्षत्रिय हों में वैश्य हों इत्यादिरूप मान है। बहुरि शरीर संयोग होने छूटनेकी अपेक्षा जन्म मरण होय तिनिकों अपना जन्म मरण मानि में उपज्या, में मरूंमा ऐसा माने है । बहुरि शरीरहीकी अपेक्षा अन्यवस्तुनिस्यों नाता माने है। जिनकरि शरीर निपज्या तिनिकों आपके माता पिता माने है। जो शरीरकू रमावै ताकौं अपनी रमणी मान है। जो शरीरकरि निपज्या ताकों अपना पुत्र माने है । जो शरीरकों उपगारी ताकौं मित्र माने है। जो शरीरका बुरा करै ताकौं शत्रु मान है इत्यादिरूप मानि हो है। बहुत कहा कहिए जिसतिसप्रकारकरि आप अर शरीरकों एक ही मान है । इन्द्रियादिकका नाम तो इहां कह्या है । याकू तो किछु गम्य नाहीं । अचेत हुवा पर्यायविर्षे अहंबुद्धि धारै है । सो कारन कहा है, सो कहिए है, इस आत्माकै अनादित इन्द्रियज्ञान है ताकरि आप अमूर्तीक है सो तो भासै नाहीं अर शरीर
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నిరంకం పోంగం సరిపోతుంది రంకుతం సంఘం
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मूर्तीक है सो ही भासै । अर आत्मा काहूकों आप जानि अहंबुद्धि धारै हो धारै सो जुदा न भास्या तब तिनिका समुदायरूप पर्यायविषै ही अहंबुद्धि धारै है । वहुरि आपके अ शरीरकै निमित्त नैमित्तिक संबंध घना ताकरि भिन्नता भासे नाहीं । बहुरि जिस विचारकरि भिन्नता भासै सो मिथ्यादर्शनके जोरतैं होइ सकै नाहीं । तातै पर्यायही विषै हंबुद्धि पाइए | है | बहुरि मिथ्यादर्शनकरि यह जीव कदाचित् बाह्यसामग्री का संयोग होते तिनिकों भी अपनी माने है । पुत्र स्त्री धन धान्य हाथी घोरे मन्दिर किंकरादि प्रत्यक्ष आप भिन्न अर सदाकाल अपने आधीन नाहीं ऐसे आपकों भासें तौ भी तिनविषै ममकार करे है । पुत्रादिकविषै | ए हैं, सो मैं ही हौं ऐसी भी कदाचित् भ्रमबुद्धि हो है । बहुरि मिथ्यादर्शन शरीरादिकका स्वरूप अन्यथा ही भासै है । अनित्यकौं नित्य माने है भिन्नक अभिन्न मानै दुखके कारनकों सुखके कारन माने दुखकों सुख माने इत्यादि विपरीत भासे है । ऐसें जीव जीवतत्त्वनिका यथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान हो है । तिनिकों अपना स्वभाव माने है । कर्म उपाधितै भए न जा है। दर्शन ज्ञान उपयोग अर ए आस्त्रव मात्र तिनकों एक माने है । जातैं इनका आधारभूत तौ एक आत्मा र इनिका परिणमन एकै काल होइ तातैं याकौं भिन्नपनौ न भासै अर भिन्नपनौ भासनेका कारन जो विचार है सो मिथ्यादर्शनके बलतें होइ सकै नाहीं । बहुरि एमिध्यात्व कषायभाव आकुलतालिए हैं, तातें वर्त्तमान दुखमय हैं । र कर्मबंध के कारन हैं, ता
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आगामी दुख उपजावेंगे तिनिकौं ऐसें न मानै है आप भला जानि इन भावनिरूप होइ प्रवः । है। बहुरि यह दुखि तो अपने इन मिथ्यात्वकषायभावनित होइ अर वृथा ही औरनिकों दुख उपजावनहारे मानै। जैसे दुखी तो मिथ्यात्वश्रद्धाननै होइ अर अपने श्रद्धानके अनुसार जो पदार्थ न प्रवर्ते ताको दुखदायक माने। बहुरि दुखी तो क्रोधते हो है अर जासों क्रोध || किया होय ताको दुखदायक मानै। दुखी तौ लोभतै होइ अर इष्ट वस्तुकी अप्राप्तिकों दुखदायक मानै ऐसे ही अन्यत्र जानना । बहुरि इनि भावनिका जैसा फल लागै तैसा न भास है। इनकी तीव्रताकरि नरकादिक हो है । मन्दताकरि स्वर्गादिक हो है। तहां घनी थोरी आकु- | | लता हो है सो भासे नाहीं तातै बुरे न लागे हैं। कारन कहा है कि ए आपके किए भासे | तिनकों बुरे कैसें माने। बहुरि ऐसे ही आस्रव तत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान | हो है । बहुरि इनि आस्रवभावनिकरि ज्ञानावरणादिकर्मनिका वन्ध हो है । तिनिका उदय होते ज्ञानदर्शनका हीनपना होना, मिथ्यात्वकषायरूप परिणमनि, चाह्य न होना सुखदुखका कारन मिलना, शरीरसंयोग रहना, गतिजातिशरीरादिकका निपजना, नीचा ऊंचा कुल पावना होइ । सो इमिके होनेविष मूलकारन कर्म है। ताकौ तौ पहिचान नाहीं जाते वह सूक्ष्म है याकौं | सूझता नाहीं। अर आपकौं इनि कार्यनिका कर्त्ता दीस नाहीं तातै इनिके हौनेविष के तौ आपकौं कर्ता माने के काहू औरकों कर्ता माने। सर आपका वा अन्यका कर्त्तापना न भासै
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| तो गहलरूप होय भवितव्य मानै । ऐसे ही बन्धतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान हो है । बहुरि आस्रवका अभाव होना सो संवर है। जो आस्रवौं यथार्थ न पहिचानै ताके | संवरका यथार्थश्रद्धान कैसे होइ ? जैसे काहूकै अहित आचरण है । वाकौं वह अहित न भासै | तौ ताके अभावकों हितरूप कैसे मान । तैसे ही जीवकै आस्रवकी प्रवृत्ति है। याकौं यह अ|हित न भासै तौ ताके अभावरूप संवरकों कैसे हित मान । बहुरि अनादित इस जीवकै प्रास्त्रवभाव ही भया संवर कबहू न भया तातै संवरका होना भास नाहीं। संवर होते सुख हो है।
सो भासै नाहीं । संवरतें आगामी दुख न होसी सो भासै नाहीं। तातै आस्रवका तो संवर | | करै नाहीं, वृथा ही खेदखिन्न होय । ऐसें संवरतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान
हो है । बहुरि बंधका एकदेश अभाव होना सो निर्जरा है। जो बन्धौं यथार्थ न पहिचान | ताकै निर्जराका यथार्थ श्रद्धान कैसे होय ? जैसे भक्षण किया हुवा विषयादिकतै दुःख होता
न जानै तौ ताकै उषालका उपायकों कैसें भला जानै । तैसें बन्धनरूप किए कर्मनितें दुख | होना न जानै तौ तिस निर्जराका उपायकों कैसे भला जानै। बहुरि इस जीवकै इन्द्रियनित | सूक्ष्मरूप कर्मनिका तौ ज्ञान होता नाहीं। बहुरि तिनविषै दुखकों कारनभूत शक्ति है ताका | ज्ञान नाहीं तातै अन्य पदार्थनिहीके निमित्तकौं दुखदायक जानि तिनिकेई अभाव करनेका | उपाय करै है। सो अपने आधीन नाहीं । बहुरि कदाचित् दुख दूरि करनेके निमित्त कोई इष्ट
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संयोगादि कार्य बने है सो वह भी कर्मके अनुसार बने है। तातै तिनिका उपायकरि वृथा । ही खेद करे है। ऐसें निर्जरातत्त्वका अयथार्थ श्रद्धान हो है। बहुरि सर्व कर्मबन्धका अभाव ताका नाम मोक्ष है। जो बन्धकौं वा बन्धजनित सर्व दुखनिकों नहीं पहिचानै ताकै मोक्षका यथार्थ श्रद्धान कैसे होइ। जैसे काहूकै रोग है वह तिस रोगकौं वा रोगजनित दुखनिकौं न । | जानै तौ सर्वथा रोगके अभावकों कैसें भला जाने ? बहुरि इस जीवके कर्मका वा तिनिकी | शक्तिका तौ ज्ञान नाहीं तानै बाह्यपदार्थनिकौं दुखका कारन जानि तिनकै सर्वथा अभाव करनेका उपाय करै है। अर यह तो जानै सर्वथा दुख दूरि होनेका कारन इष्ट सामग्रीनिकौं । मिलाय सर्वथा सुखी होना सो कदाचित् होय सकै नाहीं। यह वृथा ही खेद करै है । ऐसें । मिथ्यादर्शनतै मोक्षतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होनेते अयथार्थ श्रद्धान हो है । या प्रकार यह जीव मिथ्यादर्शन” जीवादि सप्त तत्त्वप्रयोजनभूत हैं तिनिका अयथार्थ श्रद्धान करै है। बहुरि पुण्य| पाप हैं ते इनिके विशेष हैं। सो इन पुण्य पापनिकी एक जाति है तथापि मिथ्यादर्शन | पुण्यकौं भला जाने है । पापकों बुरा जाने है । पुन्यकरि अपनी इच्छाके अनुसार किंचित् कार्य बने है, तार्को भला जाने है। पापकरि इच्छाके अनुसार कार्य न बनै ताकों बुरा जाने है सो दोन्यौं ही आकुलताके कारन हैं तातै बुरे ही हैं । बहुरि यह अपनी मानिनै तहां सुखदुख मान | है। परमार्थतें जहां आकुलता है तहां दुख ही है । तातै पुण्यपापके उदयौं भला बुर जानना
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भ्रम ही है बहुरि केई जीव कदाचित् पुण्यपापके कारन जे शुभ अशुभ भाव तिनिकौं भले । बुरे जाने हैं सो भी भ्रम है । जाते दोऊ ही कर्मबन्धके कारन हैं । ऐसें पुण्यपापका अयथार्थ
ज्ञान होते अयथार्थश्रद्धान हो है। या प्रकार अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यादर्शनका स्वरूप कह्या । यह असत्यरूप है तातें याह.का नाम मिथ्यात्व है। बहुरि यह सत्यश्रद्धान रहित है ताते याहीका नाम अदर्शन है । अब मिथ्याज्ञानका स्वरूप कहिए है,--
प्रयोजनभूत जीवादि तत्वनिका अयथार्थ जानना ताका नाम मिथ्याज्ञान है। ताकरि तिनिके जाननेवि संशय विपर्यय अनध्यवसाय हो है ।' तहां ऐसे है कि ऐसे है। ऐसा जो परस्पर विरुद्धता लिए दोयरूप ज्ञान ताका नाम संशय है। जैसें 'मैं आत्मा हौं कि शरीर हों। ऐसा जानना। बहुरि ‘ऐसे ही हैं' ऐसा वस्तुस्वरूपते विरुद्धतालिए एकरूप ज्ञान ताका नाम विपर्यय है। जैसें में शरीर हों' ऐसा जानना । बहुरि 'कछू हैं ऐसा निर्धाररहित विचार ताका नाम अनध्यवसाय है। जैसें 'मैं कोई हौं' ऐसा जानना। या प्रकार प्रयोजनभूत जीवादि | तत्त्वनिविषे संशय विपर्यय अनध्यवसायरूप जो जानना होय ताका नाम मिथ्याज्ञान है । बहुरि । अप्रयोजनभृत पदार्थनिकों यथार्थ जानै ताकी अपेक्षा मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम नाहीं है । जैसे मिथ्यादृष्टि जेवरीकौं जेवरी जानै तौ सम्यग्ज्ञान नाम न होय । अर सम्यग्दृष्टि जेवर कौं सांप जाने तो मियाज्ञान नाम न होय । इहां प्रश्न,-जो प्रत्यक्ष सांचा झूठा ज्ञानकौं सम्यग
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ज्ञान मिथ्याज्ञान कैसें न कहिए ? ताका समाधान,
जहां जाननेहीका-सांच झंठ निर्धार करनेही का प्रयोजन होय तहां तो कोई पदार्थ ।' ताका सांचा झूठा जाननेकी अपेक्षा ही मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम पावे है। जैसे प्रत्यक्ष परोक्ष-1||
प्रमाणका वर्णनविषै कोई पदार्थ होय ताका सांचा जाननेरूप सम्यग्ज्ञानका ग्रहण किया है। संशयादिरूप जाननेकौं अप्रमाणरूप मिथ्याज्ञान कह्या है। बहुरि इहां संसार मोक्षके कारणभूत सांचा झूठा जाननेका निर्धार करना है सो जेवरी सादिकका यथार्थ वा अन्यथा ज्ञान संसार मोक्षका कारन नाहीं । तातै तिनकी अपेक्षा इहां मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान न कह्या । इहां प्रयोजनभूत जीवादिक तत्वनिहीका जाननेकी अपेक्षा मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान कह्या है । इस ही अभिप्रायकरि सिद्धांतविषै मिथ्यादृष्टीका तौ सर्व जानना मिथ्याज्ञान ही कह्या अर सम्यग्दृष्टीका सर्व जानना सम्यग्ज्ञान कह्या । इहां प्रश्न,-जो मिथ्यादृष्टीकै जीवादि तत्वनिका अयथार्थ । जानना है ताकौं मिथ्याज्ञान कही। जेवरी सादिकके यथार्थ जाननेकौं तौ सम्यग्ज्ञान कहौ । ताका समाधान
मिथ्यादृष्टि जाने है तहां वाकै सत्ता असत्ताका विशेष नाहीं है। तातै कारणविपर्यय वा स्वरूपविपर्यय वा भेदाभेदविपर्ययकौं उपजावै है। तहां जाकौं जाने है ताका मूल कारनकों | न पहिचान । अन्यथा कारण मानै सो तो कारणविपर्यय है। बहुरि जाकौं जानै ताका मूल
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वस्तुस्वरूप स्वरूप ताक न पहिचानै अन्यथास्वरूप मानै सो स्वरूपविपर्यय है । बहुरि जाक इन भिन्न हैं ए इनतें अभिन्न हैं ऐसा न पहिचानै अन्यथा भिन्न भिन्नपनमा सो भेदाभेदविपर्यय है । ऐसें मिथ्यादृष्टी कै जाननेविषै विपरीतता पाइए है । जैसें मतवाला माताकों Hit भार्या माता माने तैसें मिथ्यादृष्टी कै अन्यथा जानना है । बहुरि जैसें काहूकालविषै मतवाला माताको माता वा भार्याकौं भार्या भी जानै तौ भी वाकै निश्चयरूप निर्द्धारकरि श्रद्धान लिए जानना न हो है । तातै ताकै यथार्थज्ञान न कहिए। तैसें मिथ्यादृष्टी काहूकालविषै किसी पदार्थों सत्य भी जानै तौ भी वाकै निश्चयरूप निद्धारकरि श्रद्धानलिए जानना न हो है । अथवा सत्य भी जानै परन्तु तिनकरि अपना प्रयोजन जो यथार्थ ही साधे है ता वाकै सम्यग्ज्ञान न कहिए। ऐसा मिथ्यादृष्टी कै ज्ञानकों मिथ्याज्ञान कहिए है । इहां प्रश्न, जो | इस मिथ्यातका कारन कौन है ? ताका समाधान,
मोहके उदयतै जो मिथ्यात्वभाव होय सम्यक्त्व न होय सो इस मिथ्याज्ञानका कारण है । जैसैं विषके संयोगतै भोजन भी विषरूप कहिए तैसें मिथ्यात्वके संबंध ज्ञान है सो मिथ्याज्ञान नाम पावै । इहां कोऊ कहै ज्ञानावरणका निमित्त क्यौं न कहौ ? ताका
समाधान, -
ज्ञानावरण के उदयतै तौ ज्ञानका अभावरूप अज्ञानभाव हो है । बहुरि क्षयोपशम तैं
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मो.मा. किंचित् ज्ञानरूप मतिज्ञानादि ज्ञान हो हैं। जो इनिविषै काइकों मिथ्याज्ञान काहूकौं सम्यग्प्रकाश
| ज्ञान कहिए तों दोऊहीका भाव मिथ्यादृष्टी वा सम्यग्दृष्टीकै पाइए है तातै तिनि दोऊनिके
मिथ्याज्ञान वा सम्यग्ज्ञानका सद्भाव होय जाय सो सिद्धांतविरुद्ध है। तातै ज्ञानावरणका | निमित्त बनै नाहीं । बहुरि इहां कोऊ पूछ कि जेवरी सादिकका अयथार्थज्ञानका कौन कारन
है तिसहीकों जीवादितत्त्वनिका अयथार्थ यथार्थज्ञानका कारन कही, ताका उत्तर,। जो जाननेविष जेता अयथार्थपना हो है तेता तो ज्ञानावरणका उदयतै हो है । अर1 | यथार्थपना हो है तेता ज्ञानावरणके क्षयोपशमते हो है। जैसे जेवरीकौं सर्प जान्या सो यथार्थ
जाननेकी शक्तिका कारन उदय है तातें अयथार्थ जाने है। बहुरि जेवरीकौं जेवरी जानी सो । यथार्थ जाननेकी शक्तिका कारन क्षयोपशम है ताते यथार्थ जाने है। तैसें ही जीवादि तत्त्व
निका यथार्थ जाननेकी शक्ति न होने वा होनेवि ज्ञानावरणहीका निमित्त है परन्तु जैसे काहू। पुरुषकै क्षयोपशम दुखकौं वा सुखकों कारणभूत पदार्थनिकों जाननेकी शक्ति होय तहां जाकै
असातावेदनीका उदय होय सो दुखकों कारनभूत जो होय तिसहीकों वेदै सुखका कारनभूत पदार्थनिकों न वेदै अर जो वेदै तौ सुखी हो जाय । सो असाताका उदय होते होय सकै नाहीं। तातै इहां दुखकौं कारनभूत अर सुखकौं कारनभूत पदार्थ वेदविषै ज्ञानावरणका निमित्त नाही असाता साताका उदय ही कारणभूत है। तैसे ही जीवकै प्रयोजनभूत जीवदि
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कतत्त्वं अप्रयोजनभूत अन्य तिनिकै यथार्थ जाननेकी शक्ति होइ । तहां जाकै मिथ्यात्वका || उदय होइ सो जे अप्रयोजनभूत होइ तिनिहीकों वेदै जाने प्रयोजनभूतकौं न जाने । जो प्रयो
जनभूतकों जाने तो सम्यग्ज्ञान होय जाय सो मिथ्यात्वका उदय होते होय सके नाहीं । तातें
इहाँ प्रयोजनभूत अप्रयोजनभूत पदार्थ जाननेविष ज्ञानावरणका निमित्त नाहीं। मिथ्यात्वका । उदय अनुदय ही कारनभूत है । इहां ऐसा जानना-जहां एकेंद्रियादिककै जीवादि तत्वनिका | यथार्थ जाननेकी शक्ति ही न होय तहां तौ ज्ञानावरणका उदय अर मिथ्यात्वका उदयतें भया मिथ्याज्ञान अर मिथ्यादर्शन इन दोऊनिका निमित्त है। बहुरि जहां संज्ञी मनुष्यादिकै | क्षयोपशमादि लब्धि होते शक्ति होय अर न जानै तहां मिथ्यात्वके उदयहीका निमित्त जानना। याहीतै मिथ्याज्ञानका मुख्य कारण ज्ञानावरण न कह्या मोहका उदयतें भया भाव सो ही कारन कह्या है । बहुरि इहां प्रश्न-जो ज्ञान भए श्रद्धान हो है ताते पहिलै मिथ्याज्ञान कहो पीछे मिथ्यादर्शन कहौ ? ताका समाधान,
है तो ऐसे ही, जाने विना श्रद्धान कैसें होय परन्तु मिथ्या अर सम्यक् ऐसी संज्ञा ज्ञानकै मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शनके निमित्ततै हो है । जैसें मिथ्यादृष्टी वा सम्यग्दृष्टी सुवर्णादि पदार्थकों जानै तौ समान है परंतु सो हो जानना मिथ्यादृष्टीकै मिथ्याज्ञान नाम पावै सम्यग्दृष्टीकै | सम्याज्ञान नाप्न पावै । ऐसे ही सर्व नियाज्ञान सम्यग्ज्ञानकों कारन मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शन
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जानना । तातै जहां सामान्यपने ज्ञान श्रद्धानका निरूपण होय तहां तो ज्ञान कारणभूत है ताको पहिले कहना अर श्रद्धान कार्यभूत है ताकौं पीछे। बहुरि जहां मिथ्या सम्यग्ज्ञान श्रद्धानका निरूपण होय तहां श्रद्धान कारनभूत है ताकौं पहिले कहना, ज्ञान कार्यभूत है ताकौं | पीछे कहना । बहुरि प्रश्न-जो ज्ञान श्रद्धान तो युगपत् हो हैं इनविषै कारण कार्यपना कैसे | कही हौ ? ताका समाधान,-:
... वह होय तो वह होय इस अपेक्षा कारणकार्यपना हो है। जैसे दीपक अर प्रकाश | युगपत् हो है तथापि दीपक होय तो प्रकाश होय तातै दीपक कारण है प्रकाश कार्य है। | तैसें ही ज्ञान श्रद्धान है वा मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञानकै वा सम्यग्दर्शन ज्ञानकै कारणकार्यपना
जाननां । बहुरि प्रश्न,-जो मिथ्यादर्शनके संयोगते ही मियाज्ञान नाम पावै है तो एक मिथ्या| दर्शन ही संसारका कारण कहना इहां मिथ्याज्ञान जुदा काहेकों कह्या ? ताका समाधान,... ज्ञानहींकी अपेक्षा तो मिथ्यादृष्टी वा सम्यग्दृष्टीकै क्षयोपशमते. भया यथार्थ ज्ञान तामें किछ विशेष नाहीं। परन्तु क्षयोपशम ज्ञान जहां लागै तहां एक ज्ञेयविषै लागै सो यह मिथ्यादर्शनके निमितै अन्य ज्ञेयनिविपै तौ ज्ञान लागै अर प्रयोजनभूत जीवादि तत्वनिका | | यथार्थ निर्णय करनेवि न लागै सो यह ज्ञानविषै दोष भया। याकों मिथ्याज्ञान कह्या । बहुरि जीवादितत्वनिका यथार्थ श्रद्धान न होय सो यह श्रद्धानवि दोष भया । याकौं मिथ्या
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दर्शन कह्या । ऐसे लक्षणभेदतै मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान जुदा कह्या । या प्रकार मिथ्याज्ञानका | स्वरूप कह्या। इसहीकों तत्त्वज्ञानके अभावतें अज्ञान कहिए है। अपना प्रयोजन न सधै ताते
याहीकों कुज्ञान कहिए है । अब मिथ्याचारित्रका स्वरूप कहिए है,| झूठी परस्वभावरूप प्रवृत्ति किया चाहै सो बनै नाहीं तात याका नाम मिथ्याचरित्र है । सो दिखाइए है-अपना स्वभाव तौ दृष्टा ज्ञाता है सो आप केवल देखनहारा जाननहारा तो रहे नाहीं। जिन पदार्थनिकों देखे जाने तिनविषै इष्ट अनिष्टपनों मानै तातें रागी द्वेषी होय काहूका सद्भावकौं चाहै काहूका अभावकों चाहै । सो उनका सद्भाव अभाव याका किया होता नाहीं। जातें कोई द्रव्यको कर्त्ता है नाहीं। सर्व द्रव्य अपने अपने स्वभावरूप परिणमै हैं। यह वृथा ही कषायभावकरि आकुलित हो है। बहुरि कदाचित् जैसे आप चाहै तैसें ही | पदार्थ परिणमें तो अपना परिणमाया तो परिणम्या नाहीं। जैसैं गाड़ा चालै है अर वाकों बालक धकोयकरि ऐसा माने कि याकों में चलाऊं हूं सो वह असत्य माने है ! जो वाका चलाया चाले है तो वह न चालै तब क्यों न चलावै ? तैसे पदार्थ परिणमें हैं अर उनकों यह जीव अनुसारि होयकरि ऐसा मानै जो याकों में ऐसे परिणमावों हौं सो यह अंसत्य मान है। | जो याका परिणामाया परिणमै तौ वै तैसें न परिणमें तब क्यों न परिणमावै ? सो जैसे आप चाहै तैसें तौ पदार्थका परिणमन कदाचित् ऐसे ही बनाव बनै तब हो है । बहुतपरिणमन तो
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आप न चाहे तैसें ही होते देखिए है । तातैं यह निश्चय है अपना किया काहूका सद्भाव अभाव | होता नाहीं । कषायभाव करने कहा होय ? केवल आप ही दुखी होय । जैसें कोऊ विवाहादि कार्यविषै जाका किछू कह्या न होय अर वह आप कर्त्ता होय कषाय करै तौ आपही दुखी होय तैसें जानना । तातै कषायभाव करना ऐसा है जैसा जलका बिलोवना किछु कार्यकारी नाहीं । तैं इनि कषायनिकी प्रवृत्तिकों मिथ्याचारित्र कहिए है । जातें कोई पदार्थ इष्ट अनिष्ट है नाहीं । कैसें सो कहिए है
आपकों दुखदायक अनुपकारी होय ताक अनिष्ट कहिए । सो लोकमें सर्व पदार्थ अपने २ स्वभावके कर्त्ता हैं कोऊ काहूकों सुखदायक दुखदायक उपकारी अनुपकारी है नाहीं । | यह जीव अपने परिणामनिविषै तिनिकों सुखदायक उपकारी जानि इष्ट जाने अथवा दुखदायक | अनुपकारी जानि अनिष्ट माने है । जातै एक ही पदार्थ काहूकों, इष्ट लागे है कहूक अनिष्ट लागे है । जैसें जाकौं वस्त्र न मिलै ताकौं मोटा वस्त्र इष्ट लागै अर जाकौं महीन वस्त्र मिलै ताक अनिष्ट लागे हैं । सूकरादिककौं विष्ठा इष्ट लागे है । देवादिककों अनिष्ट लागे है । काहूकों मेघवर्षा इष्ट लागे है काहूकों अनिष्ट लागे है । ऐसें ही अन्य जनिने । बहुरि याही प्रकार एक जीवकों भी एक ही पदार्थ काहूकालविषै इष्ट लागे है काहूकालविषै अनिष्ट लागे है | बहु यह जीव जाक मुख्यपने इष्ट माने सो भी अनिष्ट होता देखिए है । इत्यादि जानने । जैसे
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शरीर इष्ट है सो रोगादिसहित होय तब अनिष्ट होइ जाय । पुत्रादिक इष्ट हैं सो कारनपाय | अनिष्ट होते देखिए है । इत्यादि जानने । बहुरि यह जीव जाकों मुख्यपनै अनिष्ट मानै सो भी | इष्ट होता देखिये है। जैसे गाली अनिष्ट लागै है सो सासरैमें इष्ट लागै है । इत्यादि जानने।
ऐसे पदार्थनिविषै इष्ट अनिष्टपनौ है नाहीं । जो पदार्थविषै इष्ट अनिष्टफ्नौ होतो, तौ जो पदार्थ || | इष्ट होता सो सर्वको इष्ट ही होता। जो अनिष्ट होता सो अनिष्ट ही होता। सो है नाहीं। यह जीव आप ही कल्पनाकरि तिनिकों इष्ट अनिष्ट माने है । सो यह कल्पना झूठी है । बहुरि | पदार्थ है सो सुखदायक उपकारी वा दुखदायक अनुपकारी हो है सो आपही नाहीं हो है पुण्यपापका उदयके अनुसारि हो है । जाकै पुण्यका उदय हो है ताकै पदार्थनिका संयोग
सुखदायक उपकारी हो है । जाकै पापका उदय हो है ताकै पदार्थनिका संयोग दुखदायक । अनुपकारी हो है । सो प्रत्यक्ष देखिये है । काहूकै स्त्रीपुत्रादिक सुखदायक हैं काहूकै दुखदायक हे व्यापार कीए काहूकै नफा हो है काहूकै टोटा हो है। काहूकै शत्रु भी किंकर हो है ।। काहूकै पुत्र भी अहितकारी हो है । तातें जानिए है पदार्थ आप ही इष्ट अनिष्ट होते नाहीं। कर्म उदयके अनुसार प्रवर्ते हैं। जैसे काहूकै किंकर अपने स्वामीके अनुसारि किसी पुरुषकों इष्ट अनिष्ट उपजावें तौ किछू किंकरिनिका कर्त्तव्य नाहीं उनके स्वामीका कर्त्तव्य है जो किंकरनिहीकों इष्ट अनिष्ट मानै सोझठ है तैसें कर्मके उदयतें प्राप्त भए पदार्थ कर्मके अनुसार जीव
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को इष्ट अनिष्ट उपजावें तो किछु पदार्थनिका कर्त्तव्य नाहीं । जो पदार्थनिको इष्ट अनिष्ट माने
सो झूठ है तातें यह बात सिद्ध भई कि पदार्थनिकों इष्ट अनिष्ट मानि तिनविषै राग द्वेष | करना मिथ्या है । इहां कोऊ कहै कि बाह्य वस्तुनिका संयोग कर्मनिमित्ततै बने है तो कर्म| निविष तौ राग द्वेष करना। ताका समाधान,
कर्म तो जड़ हैं उनकै किछू सुखदुख देनैकी इच्छा नाहीं । बहुरि वै स्वयमेव कर्मरूप परिणमें नाहीं। याके भावनिका निमित्ततें कर्मरूप हो हैं। जैसे कोऊ अपने हाथ भाटा (पत्थर) लेय. अपना सिर फोरै तौ भाटाका कहा दोष है ? तैसें ही जीव अपना रागादिक भावनिकरि पुद्गलकों कर्मरूप परिणमाय अपना बुरा करै तौ कर्मके कहा दोष है। ताः कर्मसौं भी रागद्वेष करना मिथ्या है। या प्रकार परद्रव्यनिकौं इष्ट अनिष्ट मानि रागद्वेष करना मिथ्या है। अर || यह इष्ट अनिष्ट मानि रागद्वेष करै तातै इनि परिणामनिकौं मिथ्या कह्या है। मिथ्यारूप जो परिणमन ताका नाम मिथ्याचारित्र है। अब इस जीवकै रागद्वेष होय है, ताका विधान वा विस्तार दिखाइए है
प्रथम तो इस जीवकै पर्यायविर्षे अहंबुद्धि है सो पापकों वा शरीरको एक जानि प्रवः | है। बहुरि इस शरीरविषै आपको सुहावै ऐसी इष्ट अवस्था हो है, तिसविषै राग करै है। आपकौं न सुहावै ऐसी अनिष्ट अवस्था है तिसविषै द्वेष करै है। बहुरि शरीरकी इष्ट अवस्थाके कारण
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भूत बाह्य पदार्थ निविषै तौ रोग करै है अर ताके घातनिविषै द्वेष करे है । बहुरि शरीरकी अनिष्ट अवस्थाके कारणभूत बाह्य पदार्थनिविषै तौ द्वेष करै है अर ताके घातकनिविषै राग करे है । बहुरि इनिविषै जिन बाह्य पदार्थनिसों राग करे है तिनिके कारनभूत अन्य पदार्थनिविषै रा करे है तिनिके घातकनिविषै द्वेष करे है । बहुरि जिन वाह्य पदार्थनिसौं राग करै है तिनिके कारनभूत अन्य पदार्थनिविषै द्वेष करे है तिनिके घातकनिविषै राग करे है । बहुरि इनिविषै भी जिनस राग करै है तिनिके कारण वा घातक अन्य पदार्थ निविषै राग वा द्वेष करें है । श्रर जिनस द्वेष है तिनिके कारण वा घातक अन्य पदार्थनिविषै द्वेष वा राग करें है । ऐसें ही राग द्वेषकी परंपरा प्रवर्त्ते है । बहुरि केई बाह्यपदार्थ शरीरकी अवस्थाकों कारण नाहीं तिनिविषै भी रागद्वेष करै है । जैसें गऊ आदिके पुत्रादिकतैं किछू शरीरका इष्ट होय नाहीं तथापि तहां राग करे है । जैसें कूकरा आदिक कै बिलाई आवतैं किछू शरीरका अनिष्ट होय नाहीं तथापि तहां द्वेष करै है । बहुरि केई वर्ण गन्ध शब्दादिकके अवलोकनादिकतैं शरीरका इष्ट होता नाहीं तथापि तिनिविषै राग करें हैं। कई वर्णादिकके अवलोकनादिकतैं शरीरका अनिष्ट होता नाहीं तथापि तिनिविषै द्वेष करै है । ऐसै भिन्न भिन्न बाह्य पदार्थनिविषै रागद्वेष हो है । बहुरि इनविषै भी जिनस राग करै है तिनिके कारण अर घातक अन्यपदार्थनिविषै राग वा द्वेष करें है । अर जिनस्यों द्वेष करै है तिनिके कारण वा घातक अन्यपदार्थ तिनिविषै द्वेष वा राग करें है
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ऐसे ही इहाँ
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ऐसे ही इहां भी रागद्वेषकी परंपरा प्रवहै । इहां प्रश्न-जो अन्यपदार्थनिविष तौ रागद्वेष । करनेका प्रयोजन जान्या परंतु प्रथम तौ मूलभूत शरीरकी अवस्थाविषे वा शरीरकी अवस्थाकों कारण नाही तिन पदार्थनिविषै इष्ट अनिष्ट माननेका प्रयोजन कहा है ? ताका समाधान,
जो प्रथम मूलभूत शरीरकी अवस्था आदिक हैं तिनिविषै भी प्रयोजन विचारि राग करै है तो मिथ्याचारित्र काहेको नाम पावै । तिनिवि विना ही प्रयोजन रागद्वेष करै है । अर | तिनिहीके अर्थ अन्यसौं रागद्वेष करै ताते सर्व रागद्वेषपरिणतिका नाम मिथ्याचारित्र कह्या
है। इहां प्रश्न-जो शरीरकी अवस्था वा बाह्यपदार्थनिविणे इष्ट अनिष्ट माननेका प्रयोजन तो | भासे नाहीं अर इष्ट अनिष्ट मानेविना रह्या जाता नाहीं, सो कारण कहा है। ताका समाधान,
इस जीवकै चारित्रमोहका उदयते रागद्वेष भाव होय सो ए भाव कोई पदार्थका आश्रयविना होय सकें नाहीं । जैसे राग होय सो कोई पदार्थविणे होय । द्वेष होय सो कोई | पदार्थविष ही होय । ऐसें तिनिपदार्थनिकै अर रागद्वेषके निमित्तनैमित्तिक संबन्ध है । तहां विशेष इतना जो केई पदार्थ तो मुख्यपनै रागौं कारन हैं। केई पदार्थ मुख्यपनै द्वेषकों कारण हैं। केई | पदार्थ काहूकों काहूकालविषैरागके कारन हो हैं काहुकों काहूकालविषै द्वेषके कारण हो हैं। इहां इतना जानना,-एक कार्य होनैविषे अनेक कारण चाहिएसोरागादिक होनैविषअंतरंग कारण मोहका उदय
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है, सो बलवान् है । अर बाह्य कारण पदार्थ है सो बलवान् नाहीं है । महामुनिकै मोह मन्द होते | बाह्य पदार्थनिका निमित्त होते भी रागद्वेष उपजते नाहीं । पापी जीवनिकै मोह तीव्र होते बाह्यकारण न होतैं भी तिनिका संकल्पहीकरि रागद्वेष हो है । तातैं मोहका उदय होतैं रागदिक हो हैं । तहां जिस बाह्यपदार्थका आश्रयकरि रागभाव होना होय तिसविषै विना ही प्रयोजन वा किछू प्रयोजनलिए इष्टबुद्धि हो है । बहुरि जिस पदार्थका आश्रयकरि द्वेषभाव होना | होय तिसविषै विना ही प्रयोजन वा किछू प्रयोजनलिए अनिष्टबुद्धि हो है । तातै मोहका उदय पदार्थनिकों इष्ट अनिष्ट माने विना रह्या जाता नाहीं । ऐसें पदार्थनिकै विषै इष्टानिष्ट| बुद्धि हो रागद्वेषरूप परिणमन होय ताका नाम मिथ्याचारित्र जानना । बहुरि इनि रागद्वेषनिहीके विशेष क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, | पुरुषवेद, नपुन्सकवेदरूप कषायभाव हैं ते सर्व इस मिथ्याचारित्रके भेद जानने । इनिका बर्णन पूर्वे किया ही है । बहुरि इस मिथ्याचारित्रविषै स्वरूपाचरणरूप चारित्रका अभाव है। ता याका नाम अचारित्र भी कहिए । बहुरि इहां परिणाम मिटै नाहीं अथवा विरक्त नाहीं ता याहीका नाम असंयम कहिए है वा अविरत कहिए है । जातैं पांच इंद्रिय र मनके विषयनिविषै कटुरि पंचस्थावर सकी हिंसाविषै स्वच्छन्दपना हो है अर इनके त्यागरूप भाव न होय तो ही असंयम वा अविरत वारह प्रकार का है । सो कषायभाव भए ऐसे कार्य हो
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मो.मा. 1 है ताते मिथ्याचारित्रका नाम असंयम वा अविरत जानना। बहुरि इसहीका नाम अत्रत | प्रकाश
जानना । जाते हिंसा अनृत स्तेय अब्रह्म परिग्रह इनि पापकार्यनिविषै प्रवृत्तिका नाम अवत है। सो इनिका मूलकारण प्रमत्तयोग कह्या है। प्रमत्तयोग है सो कषायमय है तातै मिथ्या
चारित्रका नाम अव्रत भी कहिए है। ऐसें मिथ्याचारित्रका स्वरूप कह्या। या प्रकार इस ||| । संसारी जीवकै मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्ररूप परिणमन अनादितै पाइए है। सो| || | ऐसा परिणमन एकेंद्रिय आदि असंज्ञीपर्यन्त तौ सर्व जीवनिकै पाइए है। बहुरि संज्ञी पचेंद्रिय|| निविषै सम्यग्दृष्टी विना अन्य सर्व जीवनिकै ऐसा ही परिणमन पाइए है। परिणमनविषै जैसा
जहां संभौ तैसा तहां जानना । जैसे एकेंद्रियादिककै इन्द्रियाकनिकी हीनता अधिकता पाइए है वा धन पुत्रादिकका संबंध मनुष्यादिककै ही पाइए है सो इनिकै निमित्ततें मिथ्यादर्शना| दिकका वर्णनन किया है। तिसविर्षे जैसा विशेष संभवै तैसा जानना । बहुरि एकेन्द्रियादिक जीव इंद्रिय शरीरादिकका नाम जानें नाहीं है परन्तु तिस नामका अर्थरूप जो भाव है तिस| विषै पूर्वोक्त प्रकार परिणमन पाइए है। जैसे में स्पर्शकरि स्परस्यौं हौं शरीर मेरा है ऐसा नाम न जाने है तथापि इसका अर्थरूप जो भाव है तिस रूप परिणम है। बहुरि मनुष्यादिक केई नाम भी जाने हैं अर ताके भावरूप परिणम हैं। इत्यादि विशेष संभवै सो जान लेना । ऐसे ए मिथ्यादर्शनादिकभाव जीवकै अनादितै पाइए है नवीन ग्रहे नाहीं । देखो याकी महीमा कि
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जो पर्याय धरै है तहां विना ही सिखाए मोहके उदयतै स्वयमेव ऐसा ही परिणमन हो है। बहुरि मनुष्यादिककै सत्य विचार होनेके कारण मिले तो भी सम्यक् परिणमन होय नाहीं।। | श्रीगुरुके उपदेशका निमित्त बनै वह वारंवार समझावें यह कि विचार करै नाहीं । बहुरि ।।
आपकौं भी प्रत्यक्ष भासै तौ न मानै अर अन्यथा ही माने । कैसे, सो कहिए है—मरण होते शरीर आत्मा प्रत्यक्ष जुदा हो है। एक शरीरकों छोरि आत्मा अन्य शरीर धरै है सो व्यंतरादिक अपने पूर्व भवका संबंध प्रगट करते देखिए है। परंतु याकै शरीर” भिन्नबुद्धि न होय ||
सके। स्त्रीपुत्रादिक अपने स्वार्थके सगे प्रत्यक्ष देखिए है। उनका प्रयोजन न सधै तब ही। | विपरीत होते देखिए है । यह तिनिविषे ममत्व करै है । अर तिनिकै अर्थि नरकादिकवि गमनकौं |
कारण नाना पाप उपजावै है। धनादिक सामग्री अन्यकी अन्यकै होती देखिए है यह तिनकौं || | अपनी मानै है । बहुरि शरीरकी अवस्था वा बाह्यसामग्री स्वयमेव होती विनशती देखिए है ।। || | यह वृथा आप कर्ता हो है तहां जो अपने मनोरथ अनुसारी कार्य होय ताकों तो कहै मैं | | किया । अर अन्यथा होय ताकौं कहै मैं कहा करौं ? ऐसे ही होना था वा ऐसे क्यों भया। | ऐसा माने, सो के तौ सर्वका कर्ता ही होना था कै अकर्ता रहना था। सो विचार नाहीं ।
बहुरि मरण अवश्य होगा ऐसा जानै परंतु मरणका निश्चककरि किछु कर्त्तव्य कर नाहीं । इस पर्यायसंबंधी ही जतन करें है। बहुरि मरण का निश्चयकरि कबहू तो कहै, में मरूंगा शरीरकौं || १४०
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मो.मा. जलावैगे। कबहू कहै मोकौं जलावेंगे। कबहू कहै जस रह्या तौ हम जीवते ही हैं । कबहू कहे प्रकाश || पत्रादिक रहेंगे तो मैं ही जीवौंगा। ऐसें बाउलाकीसी नाई बकै है किछ साबधानी नाहीं।
|| बहरि आपकौंप रलोकविणे प्रत्यक्ष जाता जानै ताका तौ इष्ट अनिष्टका किछ उपाय नाहीं। अर
इहां पुत्र पोता आदि मेरी संततिविष घनेकाल ताई इष्ट रह्या करै अनिष्ट न होय । ऐसें अनेक | उपाय करै है। काइका परलोक भए पीछे इस लोककी सामग्रीकरि उपकार भया देख्या नाहीं | परन्तु याकै परलोक होनेका निश्चय भए भी इस लोककी सामग्रीहीका यतन रहे है । बहुरि विषयकषायकी प्रवृत्तिकरि वा हिंसादि कार्यकरि आप दुखी होय, खेदखिन्न होय, औरनिका वैरी होय, इस लोकविष निंद्य होय, परलोकविषै बुरा होय सो प्रत्यक्ष आप जाने तथापि तिनिहीविषै प्रवत् । इत्यादि कनेक प्रकार प्रत्यक्ष भासै ताकौं भी अन्यथा श्रद है जानै आचरै सो यह मोहका माहात्म्य है। ऐसे यह मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्ररूप अनादित जीव परिणमै है। इस ही परिणमनकरि संसारविषे अनेक प्रकार दुख उपजावनहारे कर्मनिका संबंध पाइए है । एई भाव दुःखनिके बीज हैं अन्य कोई नाहीं । ताते हे भव्य जो दुखते मुक्त भया चाहै तो इनि। मिथ्यादर्शनादिक विभावनिका अभाव करना यह ही कार्य है इस कार्यके किए तेरा परम कल्याण होगा। इति श्रीमोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्रविष मिथ्यादर्शनज्ञानचारत्रका निरूपणरूप
चौथा अधिकार सम्पूर्ण भया ॥४॥
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दोहा। बहुविधि मिथ्यागहनकरि, मलिन भए निज भाव । ... ताकौ हेतु अभाव है, सहजरूप दरसाव ॥१॥
अथ' यह जीब पूर्वोक्त प्रकारकरि अनादित मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणम है || ताकरि संसारविषै दुख सहतो संतो कदाचित् मनुष्यादिपर्यायनिविष विशेष श्रद्धानादि करनेकी शक्तिको पावै। तहां विशेष मिथ्याश्रद्धानादिकके कारणनिकरि तिनि मिथ्याश्रद्धानादिकको पोर्षे तो तिस जीवका दुख मुक्त होना अति दुर्लभ हो है। जैसे कोई पुरुष रोगी है किछ । सावधानीकौं पाय कुपथ्य सेवे तो उस रोगीका सुलजना कठिन ही होय । तैसें यह जीव मिथ्यात्वादि सहित है सो किछु ज्ञानादि शक्तिकों पाय विशेष विपरीत श्रद्धानादिककै कारणनिका सेवन करे तो इस जीक्का मुक्त होना कठिन ही होय । तातें जैसे वैद्य कुपथ्यनिका | विशेष दिखाय तिनिके सेवनकों निषेधे, तैसें ही इहां विशेष मिथ्याश्रद्धानादिकके कारणनिका विशेष दिखाय तिनिका निषेध करिए है। इहां अनादि जे मिथ्यात्वादि भाव पाइए है ते | तौ अगृहीतमिथ्यात्वादि जानने । जाते ते नवीन ग्रहे नाहीं। बहुरि इनके पुष्ट करनेके कारणनिकरि विशेष मिथ्यात्वादि भाव होय ते गृहीतमिथ्यात्वादि जानने । तहां अगृहीतमिथ्यात्वादि कका वर्णन तो पूर्व किया है सो हो जानना अर गृहीतमिथ्यात्वादिकका अब निरूपण करिए
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है सो जानना,
कुदेव कुगुरु कुधर्म अर कल्पित तत्त्वनिका श्रद्धान सो तो मिथ्यादर्शन है । बहुरि जिनिवि विपरीत निरूपणकरि रागादि पोषे होंय ऐसे कुशास्त्र तिनिविषे श्रद्धानपूर्वक अभ्यास सो मिथ्याज्ञान है । बहुरि जिस आचरणविर्षे कषायनिका सेवन होय अर ताकों धर्म-|| रूप अंगीकार करै सो मिथ्याचारित्र है। अब इनका विशेष दिखाइए है, इन्द्र लोकपालइत्यादि । अद्वैतब्रह्म राम कृष्ण महादेव बुद्ध पीर पैगम्बर इत्यादि । बहुरि हनुमान भैरूं क्षेत्र| पाल देवी दिहाड़ी सती इत्यादि । बहुरि शीतला चौथि सांझी गणगोरि होली इत्यादि । बहुरि | सूर्य चन्द्रमा ग्रह ऊत पितर व्यंतर इत्यादि । बहुरि गऊ सर्प इत्यादि । बहुरि अग्नि जल वृक्ष | | इत्यादि । बहुरि शास्त्र दवात बासण इत्यादि अनेक तिनिका अन्यथा श्रद्धानकरि तिनिकों | पूजै । बहुरि तिनकरि अपना कार्य सिद्ध किया चाहै सो वै कार्य सिद्धि के कारन नाहीं ताते ।। ऐसे श्रद्धानकौं गृहीतमिथ्यात्व कहिए है। तहां तिनिका अन्यथा श्रद्धान कैसे हो है सो कहिए है,
अद्वैतब्रह्मकों सर्वव्यापी सर्वका कर्त्ता मानै सो कोई है नाहीं। मिथ्या कल्पना करें हैं। प्रथम वाकों सर्वव्यापी मानै सो सर्व पदार्थ तौ न्यारे न्यारे प्रत्यक्ष हैं वा तिनिके स्वभाव न्यारे न्यारे देखिए है इनिकों एक कैसें मानिए है। एक मानना तो इनि प्रकारनिकरि है
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एक प्रकार तो यह है जो सर्व न्यारे न्यारे हैं तिनिके समुदायकों कल्पनाकरि ताका किछ | नाम धरिए । जैसें घोटक हस्ती इत्यादि भिन्न मिन्न हैं तिनिकै समुदायका नाम सेना है। तिनितें जुदा कोई सेना वस्तु नाहीं। सो इस प्रकार सर्वपदार्थनिका नाम ब्रह्म है तो ब्रह्म । कोई जुदा वस्तु तौ न ठहरया । बहुरि एक प्रकार यह है जो व्यक्ति अपेक्षा तौ न्यारे न्यारे | हैं तिनकों जाति अपेक्षा कल्पनाकरि एक कहिए है। जैसें सौ घोटक (घोड़ा) हैं ते व्यक्तिअपेक्षा तौ जुदे जुदे सौ ही हैं तिनिके आकारादिककी समानता देखि कल्पनाकरि एक जाति कहैं सो वह जाति तिनते जुदी तो कोई है नाहीं। सो इस प्रकारकरि जो सबनिकी कोई एक जाति अपेक्षा एक ब्रह्म मानिए है तो ब्रह्म जुदा सौ कोई न ठहरया। इहां भी कल्पनामात्र ही ठहरया। बहुरि ऐक प्रकार यह है जो पदार्थ न्यारे न्यारे हैं तिमिके मिलापते एक स्कन्ध । होय ताकौं एक कहिए । जैसें जलके परमाणु न्यारे न्यारे हैं तिनका मिलाप भए समुद्रादि कहिए अथवा जैसे पृथिवीके परमाणुनिका मिलाप भए घट आदि कहिए । सो यहां समुद्रादि । वा घटादिक हैं ते तिन परमाणनितै भिन्न कोई जुदा तो वस्तु नाहीं । सो इस प्रकारकरि जो सर्व पदार्थ न्यारे न्यारे हैं परन्तु कदाचित् मिलि एक हो जाय हैं सो ब्रह्म है, ऐसे मानिए तौ ।। इनितें जुदा तो कोई ब्रह्म न ठहरया। बहुरि एक प्रकार यह है कि अंग तो न्यारे न्यारे हैं अर जाके अंग है सो अंगी एक है। जैसे नेत्र हस्त पादादिक भिन्न भिन्न हैं अर जाकें ए हैं सो
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मनुष्य एक है। सो इस प्रकार जो सर्व पदार्थ तौ अंग हैं अर जाकै ए हैं सो अंगी ब्रह्म है। | यह सर्व लोक विराटस्वरूप ब्रह्मका अंग है, ऐसैं मानिए तौ मनुष्यकै हस्तपादादिक अंगनिकै परस्पर अन्तराल भए तो एकपना रहता नाहीं । जुड़े रहे ही एक शरीर नाम पावै । सो लोक-। विषै तो पदार्थनिकै अन्तराल परस्पर भासै है । याका एकत्वपना कैसैं मानिए ? अन्तराल भए । भी एकत्व मानिए तौ भिन्नपना कहां मानिए। इहां कोऊ कहै कि समस्त पदार्थनिके मध्यविष सूक्ष्मरूप ब्रह्मके अंग हैं तिनिकरि सर्व पदार्थ जुड़ि रहे हैं ताकौं कहिए है,
जो अंग जिस अंगते जुरथा है तिसहीत जुस्या रहै है कि टूटि टूटि अन्य अन्य अंगनिसौं जुरया करै है। जो प्रथम पक्ष ग्रहण करैगा तौ सूर्यादिक गमन करै हैं, तिनिके | साथि जिन सूक्ष्म अंगनित वे जुरे रहें ते भी गमन करें। बहुरि तिनिकौं गमन करते सूक्ष्म अंग अन्य स्थूल अंगनि जुरे रहैं ते भी गमन करे हैं सो ऐसे सर्व लोक अस्थिर हो जाय । जैसे शरीरका एक अंग खींचे सर्व अंग खींचे जाय, तैसें एक पदार्थकों गमनादि करते सर्व पदार्थनिका गमनादि होय सो भासै नाहीं। बहुरि जो द्वितीय पक्ष ग्रहैगा, तो अंग टूटनेते भिन्नपना होय जाय तब एकपना कैसे रह्या ? तातै सर्वलोकका एकत्वकौं ब्रह्म मानना भ्रम
ही है । बहुरि एक प्रकार यह है जो पहिले एक था पीछे अनेक भया बहुरि एक होय जाय । ताते एक है । जैसें जल एक था सो वासणनिमें जुदा भया । बहुरि मिले तब एक होय जाय
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तातें एक है । वा जैसें सोनाका गदा (पांसा) एक था सो कंकण कुंडलादिरूप भया बहुरि मिलिकरि । | सोनाका एक गदा होय जाय। तैसें ब्रह्म एक था पीछे अनेकरूप भया बहुरि एक होयगा| ताते एक ही है। इस प्रकार एकस्व मान है तौ जब अनेकरूप भया तब जुस्या रह्या कि भिन्न भया। जो जुस्या कहैगा तोपूर्वोक्त दोष आवैगा भिन्न भया कहेगा तौ तिसकाल तौ एकत्व न | रह्या। बहुरि जल सुवर्णादिककौं भिन्न भए भी एक कहिए है सो तो एकजातिअपेक्षा कहिए है। सर्व | | पदार्थनिकी एक जाति भासै नाहीं। कोऊ चेतन है कोऊ अचेतन है इत्यादि अनेकरूप हैं || तिनकी एक जाति कैसे कहिए । बहुरि जाति अपेक्षा एकत्व मानना कल्पनामात्र पूर्वं कह्या ही है । बहुरि पहिले एक था पीछे भिन्न भया मानै है तो जैसे एक पाषाणादि फूटि टुकड़े होय
जाय हैं तैसें ब्रह्मके खण्ड होय गए बहरि तिनिका एकठा होना माने है तौ तहां तिनिका स्वरूप || भिन्न रहै है कि एक होय जाय है। जो भिन्न रहै है तौ तहां अपने अपने स्वरूपकरि भिन्न
ही है। अर एक होय जाय तो जड़ भी चेतन होय जाय वा चेतन जड़ होय जाय । तहां अनेक वस्तूनिका एक वस्तु भया तब काहू कालविर्षे अनेक वस्तु काहू कालविषै एक वस्तु ऐसा कहना बने। अनादि अनन्त एक ब्रह्म है ऐसा कहना बनै नाहीं। बहुरि जो कहेगा लोकरचना होते वा न होते ब्रह्म जैसाका तैसा ही रहै है ताते ब्रह्म अनादि अनन्त है । सो हम पूछे हैं लोकविषै पृथिवी जलादिक देखिए है ते जुदे नवीन उत्पन्न भए हैं कि ब्रह्म ही इन
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स्वरूप भया है ? जो जुदे नवीन उत्पन्न भए हैं तो ए न्यारे भए ब्रह्म न्यारा रहा सर्वव्यापी अद्वैतब्रह्म न ठहरथा । बहुरि जो ब्रह्म ही इन स्वरूप भया तौ कदाचित् लोक भया कदाचित् ब्रह्म भया तो जैसाका तैसा कैसे रह्या ? बहुरि वै कहैं हैं जो सब ही ब्रह्म तौ लोकस्वरूप न हो है वाका कोई अंश ही है । ताकौं कहिए है, जैसें समुद्रका एक बिंदु विषरूप भया तहां स्थूलदृष्टिकरि तौ गम्य नाहीं परन्तु सूक्ष्मदृष्टि दिए तौ एकबिन्दुअपेक्षा समुद्रकै अन्यथापना भया । तैसें ब्रह्मका एक अंश भिन्न होय लोकरूप भया । तहां स्थूलविचारकरि तौ किछू गम्य नाहीं परन्तु सूक्ष्मविचार किया तो एक अंशअपेक्षा ब्रह्मकै अन्यथापना भया । यह अन्यथापना और तौ काहूकै भया नाहीं । ऐसें स्वरूप ब्रह्मकों मानना भ्रम ही है ।
बहुरि एक प्रकार यह है, — जैसें आकाश सर्वव्यापी है तैसें सर्व व्यापी है । सो इस प्रकार माने है तो आकाशवत् बड़ा ब्रह्मकौं मानि वा जहां घटपटादिक हैं तहां जैसे आकाश है तैसें तहां ब्रह्म भी है ऐसा भी मानि । परन्तु जैसें घटपटादिककौं अर आकाशकों एक ही कहिए तो कैसे बनें तैसें लोककौं र ब्रह्मकौं एक मानना कैसें संभवे ? बहुरि आकाशका तौ लक्षण सर्वत्र भासै है ता ताका तौ सर्वत्र सद्भाव मानिए है । ब्रह्मका तौ लक्षण सर्वत्र भासता नाहीं तातै ताका सर्वत्र सद्भाव कैसें मानिए ? ऐसें या प्रकारकरि भी सर्वरूप ब्रह्म नाहीं है । ऐसें ही विचारकर किसी भी प्रकारकरि एक ब्रह्म संभवे नाहीं । सर्व पदार्थ भिन्न
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भिन्न ही भासें हैं। इहां प्रतिवादी कहै है-जो सर्व एक ही है परन्तु तुम्हारे भ्रम है ताते तुमकों एक भासै नाहीं । बहुरि तुम युक्ति कही सो ब्रह्मका. स्वरूप युक्तिगम्य नाहीं । वचन || अगोचर है । एक भी है अनेक भी है है । जुदाभी है मिल्या भी है। वाकी महिमा ऐसी ही | है। ताकौं कहिए है,
जो प्रत्यक्ष तुजकों वा सबनिकों भासै ताकों तौ तू भ्रम कहै। अर युक्तिकरि अनु-/ मान करिए सो तू कहै है कि सांचा स्वरूप युक्तिगम्य है नाहीं । बहुरि कहै सांचास्वरूप वचनः | अगोचर है तो वचन विना कैसैं निर्णय करे ? बहुरि तू कहै एक भी है अनेक भी है जुदा भी । है मिल्या भी है सो तिनकी अपेक्षा बतावै नाहीं बाउलेकीसी नाईं ऐसे भी है ऐसे भी है ऐप्ता कही याकों महिमा बतावै सो जहां न्याय न होय है तहां झूठे ऐसे ही वाचालपना करै हैं सो करो । न्याय तो जैसे सांच है वैसे ही होगा। बहुरि अव तिस ब्रह्मकों लोकका कर्ता मान है। ताको मिथ्या दिखाइए है,
प्रथम तो ऐसा मान है जो ब्रह्मकै ऐसी इच्छा भई कि-'एकोऽहं बहुस्यां, कहिए मैं || | एक हौं सो बहुत होस्यों। तहां पूछिए है-पूर्व अवस्थामें दुखी होय, तब अन्न अवस्थाकों चाहै । सो ब्रह्म एकरूप अवस्थातै बहुतरूप होनेकी इच्छा करी सो तिस एकरूप अवस्थाविषै | कहा दुख था ? तब वह कहै है जो दुख तौ न था ऐसा ही कौतूहल उपज्या। ताकौं कहिए है- १४८
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जो पूर्व थोरा सुखी होय अर कुतूहल किए घना सुखी होय सो कुतूहल करना विचारे । सो ब्रह्मकै एक अवस्थातै बहुत अवस्थारूप भए घना सुख होना कैसे संभवै ? बहुरि जो पूर्व ही संपूर्ण सुखी होय, तौ अवस्था काहेकौं पलटै। प्रयोजन विना तो कोई किछु कर्त्तव्य करें। नाहीं । बहुरि पूर्व भी सुखी होयगा इच्छा अनुसार कार्य भए भी सुखी होगा परन्तु इच्छा भई तिसकाल तौ दुखी होय । तब वह कहै है ब्रह्मकें जिसकाल इच्छा हो है तिसकाल ही कार्य हो है तातै दुखी न हो है । तहां कहिए है, स्थूलकालकी अपेक्षा तो ऐसे मानौ परन्तु सूक्ष्म-! कालकी अपेक्षा तो इच्छाका ओर कार्यका होना युगपत् संभव नाहीं । इच्छा तौ तब ही होय, |
जब कार्य न होय । कार्य होय, तब इच्छा न होय । ताते सूक्ष्मकालमात्र इच्छा रही तब तो | | दुखी भया होगा। जाते इच्छा है सो ही दुःख है अर कोई दुःखका स्वरूप है नाहीं । ताते | ब्रह्मकै इच्छाकी कल्पना करिए है सो मिथ्या है।
बहुरि वह कहै है इच्छा होते ब्रह्मकी माया प्रगट भई सो ब्रह्मकै माया भई तब ब्रह्म भी मायावी भया शुद्धखरूप कैसे रह्या । बहुरि ब्रह्मकै अरमायाकै दंडी दंडवत् संयोगसंबंध है। कि अग्नि उष्णवत् समवायसंबंध है। जो संयोगसंबंध है तो ब्रह्म भिन्न है माया भिन्न है अद्वैत ब्रह्म कैसे रह्या ? बहुरि जैसें दंडी दंडकों उपकारी जानि ग्रहै है तैसें ब्रह्म मायाको उपकारी जान है तो ग्रहै है, नाहीं तो काहेकौं ग्रहै ? बहुरि जिस मायाकौं ब्रह्म ग्रहै ताका निषेध
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करना कैसे संधै वह तो उपादेय भई । बहुरि जो समवायसंबंध है तो जैसें अनि उ स्वभाव है मैं ब्रह्मका मायास्वभाव ही भया । जो ब्रह्मका स्वभाव है ताका निषेध करना कैसें संभवै । यह तौ उत्तम भई ।
बहुरि वह क है है कि- ब्रह्म तो चैतन्य है माया जड़ है सो समवायसंबन्धविषै ऐसे दोय स्वभाव संभवें नाहीं । जैसें प्रकाश और अंधकार एकत्र कैसें संभवें ? बहुरि वह क है है, - मायाकरि ब्रह्म आप तौ भ्रमरूप होता नाहीं ताकी मायाकरि जीव भ्रमरूप हो है । ताक कहिए है, जैसे कपटी अपने कपटकों आप जानै सो आप भ्रमरूपं न होय वाके कपटकरि अन्य भ्रमरूप होय जाय । तहां कपटी तौ वाहीकौं कहिए जानै कपट किया । ताकै कपटकरि अन्य भ्रमरूप भए तिनिकों तौ कपटी न कहिए । तैसें ब्रह्म अपनी मायाकों आप जानै सो आप तौ भ्रमरूप न होय वाकी मायाकरि अन्य जीव भ्रमरूप होय हैं । तहां मायावी तौ ब्रह्मकों कहिए ताकी मायाकरि अन्य जीव भ्रमरूप भए तिनकौं मायावी काहेकौं कहिए ।
बहुरि पूछिए है कि वे जीव ब्रह्मतैं एक हैं कि न्यारे हैं । जो एक हैं तो जैसें कोऊ आप ही अपने अंगनिकों पीड़ा उपजावै तौ ताकौं बाउला कहिए है । तैसें ब्रह्म आप ही आप भिन्न नाहीं ऐसे अन्य जीवनिकों मायाकरि दुखी करै है तौ यार्कों कहा कहोगे, बहुरि जो न्यारे हैं तो जैसे कोऊ भूत विना ही प्रयोजन औरनिकों भ्रम उपजावै पीड़ा देवै तौ ताकौ निकृष्ट ही
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कहिए। तैसें ब्रह्म विना ही प्रयोजन अन्य जीवनिकों नाया उपजावै तौ वाकों कहा कहोगे। | ऐसे माया ब्रह्मकी कहिए है, सो भी भ्रम ही है।
बहुरि वै कहै हैं-जुदे जुदे बहुत पात्रनिविषे जल भरया है तिन सबनिविषै चन्द्रमा | का प्रतिबिम्ब जुदा जुदा पड़े है । चन्द्रमा एक है। तैसें जुदे जुदे बहुत शरीरनिविषै ब्रह्मका || | चैतन्य प्रकाश जुदा जुदा पाइए है । ब्रह्म एक है। तातै जीवनिकै चेतना है सो ब्रह्महीकी है। | सो ऐसा कहना भी भ्रम ही है । जातें शरीर जड़ है याविणे ब्रहका प्रतिबिम्बतें चेतना भई | तो घटपटादि जड़ है तिनविष ब्रह्म का प्रतिबिम्ब क्यों न पड़या अर चेतना क्यों न भई ।। | बहुरि वै कहै है शरीरकों तौ चैतन्य नाहीं करै है जीवकों करे है। तब वाकों पूछिए है कि । | जीवका स्वरूप चेतन है कि अचेतन है। जो चेतन है तौ चेतनका चेतन कहा करेगा। जो
अचेतन है तो शरीरकी वा घटादिककी वा जीवकी एक जाति भई । बहुरि वाकौं पूछिए हैब्रह्मकी अर जीवनिकी चेतना एक है कि भिन्न है । जो एक है तो ज्ञानका अधिक हीनपना. | कैसें देखिए है । बहुरि ए जीव परस्पर वह वाकी जानीकों न जानै वह वाकी जानीकों न जाने | सो कारण कहा ? जो तू कहेगा यह घट उपाधिका भेद है तो चेतना भिन्न भिन्न ठहरी। घट उपाधि मिटे याकी चेतना ब्रह्ममें मिलेंगी कै नाश हो जायगी? जो नाश हो जायगी तो यह जीव अचेतन रह जायगा अर तू कहेगा जीव ही ब्रह्ममें मिलि जाय है तौ तहां ब्रह्मविषै
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मिलें याका अस्तित्व रहै है कि नाहीं रहै है। जो अस्तित्व रहै है तो यह रह्या याकी चेतना वाकै रही ब्रह्मविषे कहा मिल्या ? अर जो अस्तित्व न रहै है तौ याका नाश भया ब्रह्मविर्षे | कौन मिल्या ? बहुरि जो तू कहेगा ब्रह्मकी अर जीवकी चेतना भिन्न भिन्न है तो ब्रह्म अर सर्वजीव आप ही भिन्न भिन्न ठहरे। ऐसें जीवनिकै चेतना है सो ब्रह्मकी है ऐसा मानना भ्रम है।
शरीरादि मायाके कहो सो माया ही हाड मांसादिरूप हो है कि मायाके निमित्त और कोई तिनरूप हो है। जो माया ही होय है तो मायाकै वर्ण गन्धादिक पूर्व ही थे कि नवीन भए। जो पूर्वं थे तो पूर्वै तौ माया ब्रह्मकी थी अर ब्रह्म अमूर्तिक है तहां वर्णादि कैसे संभवें। बहुरि जो नवीन भए तौ अमूर्तीकका मूर्तिक भया तब अमूर्तीक स्वभाव शाश्वता न ठहरया। बहुरि जो कहैगा मायाके निमित्तते और कोई हो है तौ अर पदार्थ तौ तू ठहरावता ही नाहीं भया कौन । जो तू कहैगा नवीन पदार्थ निपजे । तौ ते मायाते भिन्न निपजे कि अभिन्न निपजे । मायात भिन्न निपजे तो मायामयी शरीरादिक काहेकों कहौ। ते तो तिन| पादर्थमय भये । अर अभिन्न निपजे तौ माया ही तद्रूप भई नवीन पदार्थ निपजे काहेकौं कही। ऐसे शरीरादिक मायास्वरूप हैं ऐसा कहना भ्रम है।
बहुरि वह कहै है माया तीन गुण निपजे-राजस तामस साविक । सो यह भी । १५२
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कहना मिथ्या है । जातैं मानादि कषायरूप भावको राजस कहिए है, क्रोधादिकषायरूप भावकों तामस कहिए है, मन्दकषायरूप भावकौं सात्विक कहिए है । सो ए तौ भाव चेतनामई प्रत्यक्ष देखिए है । र मायाका स्वरूप जड़ कहो हौं, सो जड़तै ए भाव कैसें निपजैं । जो जड़कें भी हों तो पाषाणादिकके भी होंय । सो तो चेतनास्वरूप जीव तिनिहीकै ए भाव दीस हैं। तातै ए भाव मायातैं निपजे नाहीं । जो मायाकौं चेतन ठहरा वै तौ मानें। सो मायाकों चेतन ठहराए शरीरादिक मायातै भिन्न भिन्न निपजे कहैगा तौ न मानेंगे। तातैं निर्द्धार कर, भ्रमरूप मानें नफा कहा है ।
बहुरि वह है है तिनिगुणनितैं ब्रह्मा विष्णु महेश ए तीन देव प्रगट भए सो यह भी मिथ्या ही है । जातैं गुणी तैं तो गुण होय गुण गुणी कैसें निपजै । पुरुषतै तौ क्रोध होय क्रोध पुरुष कैसें निपजै । बहुरि इनि गुणनिकी तौ निन्दा करिए है । इनिकरि निपजे ब्रह्मादिक तिनिकों पूज्य कैसैं मानिए है । बहुरि · गुण तौं मायामय अर इनकों ब्रह्मके अवतार कहिए है सो एतौ मायाके अवतार भए इनको ब्रह्मके अवतार कैसें कहिए है । बहुरि ए गुण जिनमें थोरे भी पाइए तिनिकों लौ छुड़ाबनेका उपदेश दीजिए अर जो इनिहीकी मूर्ति तिनिकों पूज्य मानिए । यह तो बड़ा भ्रम है । बहुरि तिनिका कर्त्तव्य भी इनमयी भासे है । कुतूहलादिक वा युद्धादिक वा स्त्रीसेवनादिक कार्य करें हैं सो तिनि राजसादि गुणनिकर ही ए क्रिया
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। हो हैं । सो इनिकै राजसादिक पाइए है ऐसे कहो। उनिकों पूज्य कहना परमेश्वर कहना तो ।।
बने नाहीं । जैसे अन्य संसारी हैं तैसें ए भी हैं। बहुरि कदाचित् तू कहेगा संसारी तो माया के आधीन हैं सो विना जाने तिन कार्यनिकौं करें हैं । ब्रह्मादिककै माया आधीन है सो ए | जानकर इनि कार्यनिकों करे हैं। सो यह भी भ्रम है। जानै मायाके आधीन भए तौ काम | क्रोधादि निपजै हैं और कहा हो है। सो इन ब्रह्मादिकनिकै तो कामक्रोधादिककी तीव्रता पाइए है । कामकी तीव्रताकरि स्त्रीनिके वशीभूत भए नृत्य गानादि करते भए, विह्वल होते भए, नानाप्रकार कुचेष्टा करते भए, बहुरि क्रोधके वशीभूत भए अनेक युद्धादि कार्य करते । भए, मानके वशीभूत भए आपकी उच्चता प्रगट करनेके अर्थि अनेक उपाय करते भए, मायाके |
वशीभूत भए 'अनेक छल करते भए, लोभके वशीभूत भए परिग्रहका संग करते भए इत्यादि || ।। बहुत कहा कहिए । ऐसें वशीभूत भए चीरहरणदि निर्लज्जनिकी क्रिया और दधि लूटनादि |
चोरनिकी क्रिया अर रुंडमाला धारणादि बाउलेनिकी क्रिया, बहुरूपधारणादि भूतनिकी क्रिया, गौचरावणादि नीच कुलवालोंकी क्रिया इत्यादि जे निन्यक्रिया तिनिकों तौ करत भए, याते।। अधिक मायाके वशीभूत भए कहा क्रिया हो है सो जानि न परी । जैसें कोऊ मेघ पटलसहित अमावस्याकी रातकों अंधकार रहित माने तैसें बाह्य कुचेष्टासहित तीव्र काम क्रोधादिकनिके धारी ब्रह्मादिकनिकों माया रहित मानना है।
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. बहुरि वह कहै कि इनको कामक्रोधादि व्याप्त नहीं होता यह भी परमेश्वरको लीला है । ताकों कहिए है-ऐसे कार्य करै हैं ते इच्छाकरि करें हैं कि विना इच्छा करें हैं । जो इच्छा| करि करै हैं तो स्त्रीसेवनकी इच्छाहीका नाम काम है युद्ध करनेकी इच्छाहीका नाम क्रोध है । इत्यादि ऐसे ही जानना । बहुरि जो विना इच्छा हो है तो आप जाकौं न चाहै ऐसा कार्य तौ। परवश भए ही होय सो परव रापना कैसे संभवै । बहुरि तू लीला बतावै है सो परमेश्वर अवतार धरि इन कार्यनिविषे लीला करै है तौ अन्य जीवनिकों इनि कार्यनितें छुड़ाय मुक्त करनेका उपदेश काहेकों दीजिए है । क्षमा संतोष शील संयमादिकका उपदेश सर्व झूठा भया।
- बहुरि वै कहें हैं कि परमेश्वरकों तौ किछु प्रयोजन नाहीं। लोकरीतिकी प्रवृत्तिके | अर्थि वा भक्तनिकी रक्षा दुष्टनिका निग्रह तिनिके अर्थि अवतार धरै है। याकों पूछिए हैप्रयोजन विना चिंवटी हू कार्य न करै परमेश्वर काहेकौं करै। बहुरि प्रयोजन भी कहा लोक- | रीतिकी प्रवृत्तिके अर्थि करै है। सो जैसे कोई पुरुष आप कुचेष्टाकरि अपने पुत्रनिकों सिखावै । बहुरि वै तिस चेष्टारूप प्रवत्त तब उनको मारै तो ऐसे पिताकों भला कैसे कहिए । तैसें ब्रह्मादिक आप कामझौधरूप चेष्टाकरि अपने निपजाए लोकनिकै प्रवृत्ति करावें। बहुरि वे लोक तैसें |
प्रवर्त तब उनकों नरकादिकविषे डारें । नरकादिक इनिही भावनिका फल शास्त्रविष लिख्या है | | सो ऐसे प्रभुकों भला कैसैं मानिए । बहुरि नै यह प्रयोजन कह्या कि भक्तनिकी रक्षा दुष्टनिका
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| निग्रह करना सो भक्तनिकों दुखदायक जे दुष्ट भए ते परमेश्वरकी इच्छाकरि भए कि विना इच्छाकरि भए । जो इच्छाकरि भए तो जैसे कोऊ अपने सेवककों आप की काहूकों कहकरि मरावै बहुरि तिस मारनेवालेकों आप मारै सो ऐसे स्वामीकौं भला कैसैं कहिए । तैसें ही जो अपने भक्तनिकों आप ही इच्छाकरि दुष्टनिकरि पीड़ित करावै। अर पीछे तिनि दुष्टनिकों आप अवतार धारि मारै तौ ऐसे ईश्वरकों भला कैसैं मानिए । बहुरि जो तू कहैगा कि विना इच्छा | दुष्ट भए तो कै तौ परमेश्वरकै ऐसा आगामी ज्ञान न होगा जो दुष्ट मेरे भक्तनिकों दुख देवेंगे | के पहले ऐसे शक्ति न होगी जो इनिकों ऐसे न होने देता। बहुरि वाकों पूछिए है जो ऐसे | | कार्यके अर्थि अवतार धारथा, सौ कहा विना अवतार धारे शक्ति थी कि नाहीं। जो थी तो
अवतार काहेकों धारे अर न थी तो पीछे सामर्थ्य होनेका कारण कहा भया । तब वह कहै है ऐसे किए विना परमेश्वरकी महिमा कैसे प्रगट होय । वाँकौं पूछिये है कि अपनी महिमाके अर्थि अपनेअनुचरनिका पालन करै प्रतिपक्षीनिका निग्रह करै सो ही रागद्वेष है । सो रागद्वेष तो संसारी जीवका लक्षण है । जो परमेश्वरकै भी रोगद्वेष पाइए है तो अन्य जीवनिकौं रागद्वेष छोरि समता भाव करनेका उपदेश काहेकों दीजिए । बहुरि रागद्वेषकै अनुसार कार्य करना विचारथा सो कार्य थोरे वा बहुत काल लागे विना होय नाहीं तावत् काल आकुलता भी परभेश्वरकै होती होसी। बहुरि जैसें जिस कार्यकौं छोटा आदमी ही कर सकै तिस कार्यकों राजा
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आप करै तौ किछू राजाको महिमा होती नाहीं निन्दा ही होय । तैसें जिस कार्यकौं राजा वा व्यन्तरदेवादिक करि सकें तिस कार्यको परमेश्वर आप अवतार धारि करे ऐसा मानिए तौ किछ परमेश्व की महिमा होती नाहीं निन्दा ही है। बहुरि महिमा तो कोई और होय ताको || दिखाइए है तू तो अबैत ब्रह्म माने है कौनकौं महिमा दिखावै है। अर महिमा दिखानेका | फल तौ स्तुति कराधना है तो कौनपै स्तुति कराया चाहै है। बहुरि तू तो कहै है सर्व जीव परमेश्वरकी इच्छा अनुसार प्रवते हैं अर आपकै स्तुति करावनेकी इच्छा है. तो सबकों अपनी ।। स्तुतिरूप प्रवर्तावै तो काहेकों अन्य कार्य करना परे । तातै महिनाके अर्थि भी कार्य करना | न बने।
बहुरि वे कहै है-परमेश्वर इनि कार्यनिकों करता सन्ता भी अकर्ता है याका निर्धार होता नाहीं। याकों कहिए है-तू कहेगा इह मेरी माता भी है अर बांझ भी है तो तेरा कह्या कैसें मानेगे । जो कार्य करै ताकों अकर्ता कैसे मानिए । अर तू कहै निर्धार होता नाही। सो निर्धार विना मान लेना ठहरथा तो आकाशके फल गधेके सींग भी मानौ सो ऐसा कहना युक्त नाहीं ऐसें ब्रह्मा विष्णु महेराका होना कहै हैं, सो मिथ्या जानना ।
बहुरि वै कहै हैं—ब्रह्मा तो सृष्टिकों उपजावै है, विष्णु रक्षा करै है, महेश संहार करे। है। सो ऐसा कहना भी मिथ्या है । जाते इनि कार्यनिकों करते कोऊ किछू कीया चाहे कोऊ
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किछु किया चाहै तब परस्पर विरोध होय । अर जो तू कहेगा ए तो एक परमेश्वरका ही स्वरूप है विरोध काहेकों होय । तो आप ही उपजावै आप ही क्षिपावै ऐसे कार्य में कौन फल है । जो सृष्टि आपकों अनिष्ट है तो काहेकौं उपजाई । अर इष्ट है तो काहेको खपाई । जो
पहले इष्ट लागी तष उपजाई पीछे अनिष्ट लागी तब खपाई ऐसें है तो परमेश्वरका खभाव । अन्यथा भया कि सृष्टिका स्वरूप अन्यथा भया । जो प्रथम पक्ष ग्रहैगा तो परमेश्वरका एक
खभाव न ठहरथा । सो एक स्वभाव न रहनेका कारण कौन है सो बताय, विनाकरण स्वभाव की पलटनि काहेको होय । अर द्वितीय पक्ष ग्रहैगा तो सृष्टि तो परमेश्वरके आधीन थी वाकों ऐसी काहेकौं होने दीनी जो आपकौं अनिष्ट लागे।
__ बहुरि हम पूछे हैं-बह्मा सृष्टि उपजावै है सो कैसे उपजावे है। एक तो प्रकार यह है जैसे मन्दिर चुननेवाला चूनापत्थर आदि सामग्री एकठी करि आकारादि बनावै है । तैसें ही ब्रह्मा सामग्री एकठीकरि सृष्टि रचना करें है तौ ए सामग्री जहाते ल्याय एकटी करी सो | ठिकाना बताय । अर एक ब्रह्मा ही एती रचना बनाई सो पहिले पीछे बनाई होगी के अपने
शरीरकै हस्तादि बहुत किए होंगे सो कैसे है सो बताय। जो बतावेगा तिसही में विचार किए। विरुद्ध भासँगा।
बहुरि एकप्रकार यह है जैसे राजा आज्ञा करै ताके अनुसार कार्य होय तैसें ब्रह्माकी
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आज्ञाकरि सृष्टि निपजै है तो आज्ञा कौनकों दई । अर जिनकों यह आज्ञा दई वे कहांते ।। सामग्री ल्याय कैसे रचना करै हैं, सो बताय।
बहुरि एक प्रकार यह है जैसे ऋद्धिधारी इच्छा करै ताके अनुसार कार्य स्वयमेव बने । तैसें ब्रह्मा इच्छा करै ताके अनुसारि सृष्टि निपजै है, तो ब्रह्मा तौ इच्छाहीका कर्ता | भया । लोक तौ खयमेव ही निपज्या। बहुरि इच्छा तो परमब्रह्म कीन्ही थी ब्रह्माका कर्त्तव्य कहा भया जातें ब्रह्माकों सृष्टिका निपजावनहारा कह्या । बहुरि तू कहेगा परमब्रह्म भी इच्छा करी अर ब्रह्मा भी इच्छा करी तब लोक निपज्या तौ जानिए है केवल परमब्रह्मकी इच्छा | कार्यकारी नाहीं । तहां शक्तिहीनपना आया।
बहुरि हम पूछे हैं जो केवल बनाया हुवा लोक बने है तो बनावनहारा तो सुखके अर्थि बनावै सो इष्ट ही रचना करै । इस लोकविषै तो इष्ट पदार्थ थोरे देखिए है अनिष्ट घने देखिए है। जीवनिविषै देवादिक बनाए सो तो रमनेके अर्थि वा भक्ति करावनेके अर्थि बनाए परन्तु लट कीड़ी कूकरे सूअर सिंहादिक बनाये सो किस अर्थि बनाए । ए तो रमणीक नाहीं।। सर्व प्रकार अनिष्ट ही हैं । बहुरि दरिद्री दुखी नारकीनिकौं देखे आपकों जुगुप्सा ग्लानि आदि। दुख उपजै ऐसे अनिष्ट काहेकौं बनाए । तहां वह कहै है,-ए जीव अपने पापकरि लट कीड़ी दरिद्री नारकी आदि पर्याय भुगतै है । याकौं पूछिए है कि पीछे तो पापहीका फलते ए पर्याय
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भए कहो परन्तु पहिले लोकरचना करते ही इनकों बनाए सो किस अर्थि बनाए । बहुरि जीव पीछे पापरूप परिणए तो कैसें परिणए । जो आप ही परिणए कहोगे तो जानिए है ब्रह्मा पहिलै । | तौ निपजाए पीछे वाकै आधीन न रहे इसकारणनै ब्रह्माकौं दुख ही भया । बहुरि कहोगे| ब्रह्माके परिणमाए परिणमे हैं तो तिनिकों पापरूप काहेकौं परिणमाए ।' जीव तो आपके निप
जाए थे उनका बुरा किस अर्थि किया। ताते ऐसे भी न बने। बहुरि अजीवनिविषे सुवर्ण | | सुगन्धादि सहित वस्तु बनाए, सो तो रमणे के अर्थि बनाए कुवर्ण दुर्गन्धादिसहित दुखदायक वस्तु बनाए सो किस अर्थि बनाए । इनिका दर्शनादिकरि ब्रह्माकै किछू सुख तो नाही उपजता होगा। बहुरि तू कहेगा, पापी जीवनिकों दुख देनेके अर्थि बनाए, तो आपहीके निपजाए जीव तिनिस्यों ऐसी दुष्टता काहेको करी जो तिनिकों दुखदायक सामग्री पहिले ही बनाई। | बहुरि धूलि पर्वतादिक केतीक वस्तु ऐसी हैं जे रमणीक भी नाहीं अर दुखदायक भी नाहीं । तिनिकों किस अर्थि बनाए । स्वयमेव तो जैसे तैसें ही होय अर बनावनहारा बनावे सो प्रयोजनलिए ही बनावै । तातै 'ब्रह्म सृष्टिका कर्ता है ।' यह मिथ्यावचय है।
बहुरि विष्णुको लोकका रक्षक कहै हैं सो भी मिथ्या है। जाते रक्षक होय सो तौ दोय ही कार्य करें । एक तो दुख उपजावनेके कारण न होने दे अर एक विनसनेका कारण न होने दे । सो तो लोकविषे दुखहीके उपजनके कारण जहां तहां देखिए है। अर तिनिकरि
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जीवनिकों दुख ही देखिए है । क्षधा तृषादिक लग रहे हैं । शीत उष्णादिक करि दुख हो है।। जीव परस्पर दुख उपजावै हैं। शस्त्रादि दुखके कारण बनि रहे हैं। बहुरि विनसनेके कारण अनेक बनि रहे हैं। जीवनिकै रोगादिक वा अग्नि विष शस्त्रादिक पर्यायके नाशके कारण || देखिए है । अर जीवनिकै भी परस्पर विनसनेका कारण देखिए है। सो ऐसे दोय प्रकारही । रक्षा की नाहीं तो विष्णु रक्षक होय कहा किया। वै कहै हैं-विष्णु रक्षक ही है। देखो क्षुधा। तृषादिकके अर्थि अन्न जलादिक किए हैं । कीडीकों कण कुंजरों मण पहुचावै है। संकटमें | सहाय करें है । मरणके कारण बने (१)टीटोड़ीकी नाईं उवारे है । इत्यादि प्रकारकरि विष्णु रक्षा | करे है । याकौं कहिए है, ऐसे है तो जहां जीवनिकों तुधातृषादिक बहुत पीड़ें अर अन्न ||
जलादिक मिले नाहीं संकट पड़े सहाय न होय किंचित् कारण पाय मरण होय जाय, तहां | विष्णुकी शक्ति ही न भई कि वाकों ज्ञान न भया । लोकविर्षे बहुत ऐसे ही दुखी हो हैं मरण | | पावे हे विष्णु रक्षा काहेकौं न करी। तब वै कहै हैं, यह जीवनिके अपने कर्त्तव्यका फल है । | तब वाकों कहिए है कि, जैसे शक्ति हीन लोभी झूठा वैद्य काहूके किछु भला होइ ताकौं तौ | कहै मेरा किया भया है। अर जहां बुरा होय मरण होय, तब कहै याका ऐसा ही होनहार था। तैसें ही तू कहै है कि, भला भया तहां तो विष्णुका किया भया अर बुरा भया सो
(१) नोट-टिटहरी एक प्रकारका पक्षी एक समुद्र किमारे रहती थी। उसके अंडे समुद्र बहा ले जाता था, सो उसने दुखी होकर गरुड़ पक्षी की मारफत विष्णुसे अर्ज की, तो उन्होंने समुद्रसे अंडे दिलवा दिये। ऐसी पुराणों में कथा है।
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जीवनिके कर्तव्यका फल भया। ऐसें झूठी कल्पना काहेकौं कीजिए। के तौ बुरा भला दोऊ विष्णुका किया कही के अपने कर्त्तव्यका फल कहो । जो विष्णुका किया भया तौ घने जीव दुखी अर शीघ्र मरते देखिए है सो ऐसा करै ताकौं रक्षक कैसें कहिए । बहुरि अपने कर्त्तव्यका || फल है तो करेंगा सो पावैगा विष्णु कहा रक्षा करेगा। तब वै कहै हैं, जे विष्णुके भक्त हैं तिनिकी रक्षा करै है। वाकौं कहिए कि जौ ऐसा है तौ कोड़ी कुंजर आदि भक्त नाहीं उनकै अन्नादिक पहुंचावनैविषे वा संकटमें सहाय होनैविषे वा मरण होनैविष विष्णुका कर्त्तव्य मानि सर्वका रक्षक काहेकौं मा । भक्त भक्तहीका रक्षक मानि । सो भक्तनिका भी रक्षक दीसता नाहीं । जाते अभक्त भी भक्त पुरुषनिकौं पीड़ा उपजावते देखिए है। तब वह कहै है, घनी ही जागा (जगह) प्रह्लादादिककी सहाय करी है । वाकों कहै है,,-जहां सहाय करी तहां तो | तू तैसें ही मानि । परंतु हम तो प्रत्यक्ष म्लेच्छ मुसलमान आदि अभक्त पुरुषनिकरि भक्त, पुरुष पीड़ित होते देखि वा मन्दिरादिकौं विघ्न करते देखि पूछे हैं कि इहां सहाय न करै है। सो विष्णुकी शक्ति ही नाहीं कि खबरि नाहीं । जो शक्ति नाहीं तौ इनतें भी हीनशक्तिका धारक भया । जो खबरि नाहीं तो जाकौं एती भी खबर नाहीं, सो अज्ञान भया । अर जो तू. कहैगा, शति भी है अर जान भी है इच्छा ऐसी ही भई, तो फिर भक्तवत्सल काहेकौं कहै ।। ऐसे विष्णुको लोकका रक्षक मानना मि-या है ।
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" बहुरि क है है— महेश संहार करे है, सो भी मिथ्या है। प्रथम तौ महेश संहार करै है सो सदा ही करे है कि महाप्रलय हो है तब ही करें है । जो सदा करे है तो जैसे | विष्णुकी रक्षा करनेकरि स्तुति कीनी तैसें याकी संहार करनेकरि निंदा करो । जातैं रक्षा अर संहार प्रतिपक्षी हैं । बहुरि यह संहार कैसें करें है । जैसें पुरुष हस्तादिककरि काहूकों मारै वा काहूकरि मरावे तैसें महेश अपने अंगनिकरि संहार करै है वा काहूकों आज्ञाकरि मरावे है । क्षण क्षणमै संहार तौ घने जीवनिका सर्व लोकमैं हो है यह कैसें अंगनिकरि वा कौन कौनकौं आज्ञा देय युगपत् कैसें संहार करे है । जो कहै कि महेश तौ इच्छा ही करै अर याहीकी इच्छा स्वयमेव उनका संहार हो है । तौ याकै सदा काल मारनेरूप दुष्टपरिणाम ही रह्या करते होंगे। अर अनेकजीवनिकों युगपत् मारनेकी इच्छा कैसें होती होगी । बहुरि जो महाप्रलय होते संहार करें है तो परमब्रह्मकी इच्छा भए करे है कि बाकी बिना इच्छा ही करै है । जो इच्छा भए करें है तो परमब्रह्मकै ऐसा क्रोध कैसें भया जो सर्वका प्रलय करनेकी इच्छा भई । तैं कोई कारण विना नाश करनेकी इच्छा होय नाहीं । अर नाश करनेकी इच्छा ताहीका नाम क्रोध है, सो कारन बताय । बहुरि विनाकारण इच्छा हो है, तौ बावलेकीसी इच्छा भई । बहुरि तू कहैगा परमब्रह्म यह ख्याल (खेल) बनाया था बहुरि दूरि किया कारन किछू भी नाहीं, तो ख्याल बनानेवालाकों भी ख्याल इष्ट लागे है तब बनाये है । अनिष्ट लागे है
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|| तब दूरि करै है । जो थाकों यह लोक इष्ट अनिष्ट लागें है, तो याके लोकसौं रागद्वेष तौ भया।।
साक्षीभूत परब्रह्मका स्वरूप काहेकों कहो । साक्षीभूत तौ वाका नाम है जो स्वयमेव जैसें होय || | तैसे देख्या जान्या करै । जो इष्ट अनिष्टमानि उपजावै नष्ट करै ताकों साक्षीभूत कैसें कहिए, | जाते साक्षीभूत रहना अर कर्ता हर्ता होना ए दोऊ परस्पर विरोधी हैं। एककें दोऊ संभवै । | नाहीं । बहुरि परमब्रह्मकै पहिले तो इच्छा यह भई थी कि में एक हों सो बहुत होस्यों तब है
बहुत भया था। अब ऐसी इच्छा भई होगी जो “मैं बहुत ही सो एक होस्यों' सो जैसे कोऊ | | भोलपते कारज करि पीछे तिस कार्यकों दूरि किया चाहै तैसें परमब्रह्म भी बहुत होय एक | होनेकी इच्छा करी सो जानिये है कि बहुत होनेका कार्य किया सो भोलपहीत किया था | | आगामी ज्ञानकरि किया होता तो काहेकौं ताके दूरि करनेकी इच्छा होती।
बहुरि जो परमब्रह्मकी इच्छा बिना ही महेश संहार करै है तो यह परमब्रह्मका वा | ब्रह्माका विरोधी भया। बहुरि पूछे हैं कि महेश लोककों कैसे संहार करै है। जो अपने अंग- | | निकरि संहार करै है तो सर्वका युगपत् संहार कैसे करे है। बहुरि याकी इच्छा होते स्वयमेव | संहार हो है तो इच्छा तो परमब्रह्म कीन्ही थी यानें संहार कहा किया।
बहुरि हम पूछे हैं कि संहार भए सर्व लोकविर्षे जीव अजीव थे ते कहां गए । तब वे कहै है-जीवनिविषै भक्त तो ब्रह्मविषै मिले, अन्य मायाविषै मिले । अब याकू पूछिए है कि
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माया ब्रह्मते जुदी रहै है कि पीछे एक होय जाय है। जो जुदी रहै तो ब्रह्मवत् माया भी। नित्य भई । तब अद्वैतब्रह्म न रह्या । अर माया ब्रह्म में एक होय जाय है तौ जे जीव मायामें || मिले थे ते भी मायाकी साथि ब्रह्ममें मिलि गए। जब महा प्रलय होते सर्वका परमब्रह्ममें मिलना ठहरथा ही तो मोक्षका उपाय काहेकौं करिए । बहुरि जे जीव मायामें मिले ते बहुरि । लोकरचना भए वै ही जीव लोकविणे आवेंगे कि वै तो ब्रह्ममें मिलगए थे नए उपजेंगे। जो 1 वे ही आवेंगे तो आनिए है जुदे जुदे रहे हैं मिले काहेकौं कहे । अर नए उपजेंगे तो जीवका || अस्तित्व थोरा कालपर्यंत ही रहै है काहेको मुक्त होमेका उपाय कीजिए है । बहुरि वै कहै हैं कि पृथिवी आदिक हैं ते मायाविषै मिलें हैं सो माया अमूर्तीक सचेतन है कि मूर्तीक अचेतन । है। जो अमूर्तीक सचेतन है तो यामें मूर्तीक अचेतन कैसे मिलें। अर मूर्तीक अचेतन है तो यह ब्रह्ममें मिले है कि नाहीं । जो मिले है तो याके मिलनेते ब्रह्म भी मूर्तीक अचेतनकरि मिश्रित भया । अर न मिले है तो अद्वैतता न रही। अर तू कहेगा ए सर्व अमूर्तीक चेतन | होइ जाय हैं तो आत्मा अर शरीरादिककी एकता भई सो यह संसारी एकता माने ही है || | याकौं अज्ञानी काहेकौं कहिए । बहुरि पूछे हैं, लोकका प्रलय होते महेशका प्रलय हो है कि
नाहीं । जो हो है तौ युगपत् हो है कि आगे पीछे हो है। जो युगपत् हो है तो पाप नष्ट | | होता लोककों नष्ट कैसे करै । अर आगें पीछे हो है तौ महेश लोककौं नष्टकरि आप कहां रह्या
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आप भी तो सृष्टिविषे ही था, ऐसे महेशको सृष्टिका संहारकर्त्ता माने है सो असंभव है । या प्रकारकरि वा अन्य अनेकप्रकारकरि ब्रह्मा विष्णु महेशकों सृष्टिका उपजावनहारा, रक्षा करनेवाला, संहार करनेहारा मानना मिथ्या जानि लोककौं अनादिनिधन मानना । इस लोकविषै जै जीवादि पदार्थ हैं ते न्यारे न्यारे अनादिनिधन हैं । बहुरि तिनिकी अवस्थाकी पलटन हूवा | करे है तिस अपेक्षा उपजते विनशने कहिए है । बहुरि स्वर्ग नरक द्वीपादिक हैं ते अनादितै ऐसें ही हैं अर सदाकाल ऐसें ही रहेंगे । कदाचित् तू कहैगा बिना बनाए ऐसे अकारादिक कैसे संभव हो तो बनाए ही होंय । सो ऐसा नाहीं है जातै अनादितैं ही जे पाइए तहां तर्क कहा । जैसें तू परब्रह्मका स्वरूप अनादिनिधन माने है तैसें ए भी हैं । तू कहैगा जीवादिक वा स्वर्गादिक कैसैं भए । हम कहेंगे परब्रह्म कैसें भया । तू कहैगा इनकी रचना ऐसी कौंन करी । हम कहेंगे परब्रह्मकों ऐसा कौन बनाया । तू कहैगा परमब्रह्म स्वयंसिद्ध है । हम कहेंगे जीवादिक वा खर्गादिक स्वयंसिद्ध है । तू कहैगा इनकी अर परब्रह्मकी समानता कैसें संभवे । तौ संभवनेविषै दूषण बताय । लोककौं नवा उपजावना ताका तौ हम अनेक दोष दिखाए। लोककौं अनादिनिधन माननेते कहा जो तू परमब्रह्म माने है सो जुदा ही कोई है नाहीं । ए संसारविषै ज्ञानकरि मोक्षमार्ग साधनतै सर्वज्ञ वीतराग हो हैं ।
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नाश करना तिसविषै
दोष है सो तू बताय ।
जीव हैं ते ही यथार्थ
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इहां प्रश्न - जो तुम तौ न्यारे न्यारे जीव अनादिनिधन कहो हौ । मुक्त भए पीछे तो निराकार हो हैं तहां न्यारे न्यारे कैसें संभवें । ताका समाधान — जो मुक्त भए पीछे सर्वज्ञकौं | दी है कि नाहीं दी है । जो दीसे है तौ किछू आकार दीसता ही होगा । बिना आकार देखें कहा देख्या । अर न दीसै है तौ कै तौ वस्तु ही नाहीं, कै सर्वज्ञ नाहीं । तातै इंद्रियगम्य आकार नाहीं तिस अपेक्षा निराकार हैं, अर सर्वज्ञ ज्ञानगम्य है तातैं आकारवान् हैं । जब आकारवान् ठहरथा तब जुदा जुदा होय तौ कहा दोष लागे । बहुरि जो तू जाति अपेक्षा एक कहै तो हम भी मानें हैं। जैसें गेहूं भिन्नभिन्न हैं तिनकी जाति एक है ऐसें एक मानें तो किछू दोष है नाहीं । या प्रकार यथार्थ श्रद्धानकरि लोकविषै सर्व पदार्थ अकृत्रिम जुदे जुदे अनादिनिधन मानने, बहुरि जो वृथा ही भ्रमकरि सांच मूंठका निर्णय न करै तौ तू जाने, तेरे श्रद्धानका फल तू पावैगा ।
बहुरि वै ही ब्रह्मा पुत्रपौत्रादिकरि कुलप्रवृत्ति कहैं हैं । बहुरि कुलनिविषै राक्षस मनुष्य देव तिर्यंच निकै परस्पर प्रसूतिभेद बतावै हैं । तहां देवतैं मनुष्य वा मनुष्यतै देव वा तिर्यंच मनुष्य इत्यादि कोई माता कोई पिता पुत्रपुत्रीका उपजना बतावें सो कैसें संभवे । बहुरि मनहीकरि वा पवनादिकरि वा वीर्य सूंघने आदिकर प्रसूति होनी बतावै हैं, सो प्रत्यक्षविरुद्ध भास है । ऐसें होतें पुत्रपौत्रादिकका नियम कैसे रह्या । बहुरि बड़ेबड़ेनिकों अन्य अन्य
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मातापिता भए कहैं हैं । सो महंतपुरुष कुशीली मातापितातें कैसें उपजें । यह तो लोकविषै गालि है । ऐसा कहिँ उनकी महंतता काहेकौं कहिए है । बहुरि गणेशादिककी मैल आदि कर उत्पत्ति बतावें हैं । वा काहूका अंग काहूकै जुरै बतावे हैं । इत्यादि अनेक प्रत्यक्ष विरुद्ध क हैं । बहुरि चौबीस अवतार भए कहैं हैं, तहां केई अवतारनिकों पूर्णावतार कहे हैं। केईनिकों अंशावतार कहे हैं । सो पूर्णावतार भए तब ब्रह्म अन्यत्र व्यापि रह्या कि न रह्या । जो रह्या तौ इनि अवतारनिकों पूर्णावतार काहेकौं कहौ । जो व्यापि न रह्या तौ एतावन्मात्र ही ब्रह्म रह्या । अंश अवतार भए तहां ब्रह्मका अंश तो सर्वत्र कहौ हौ इनविषै कहा अधिकता भई । बहुरि कार्य तौ तुच्छ तिसके वास्ते आप ब्रह्म अंशावतार धारया कहै सो जामिये है बिना अवतार धारे ब्रह्मकी शक्ति तिस कार्यके करनेकी न थी । जातैं जो कार्य स्तोक उद्यमतैं होइ तहां बहुत उद्यम का करिए । बहुरि अवतारनिविषै मच्छ कच्छादि अवतार भए सो किंचित् करनेके अर्थहीन तिर्यंचपर्यायरूप भए सो कैसे संभवे । बहुरि प्रहलाद के अर्थ नरसिंह - तार भए सो हरिणाकुशकों ऐसा काहेकौं होने दिया । अर कितनेक काल अपने भक्तकौ काहेकौं दुख याया । बहुरि विरूप स्वांग काहेकौं धरथा । बहुरि नाभिराजाकै वृषभावतार भया बतावे हैं सों नाभिकौं पुत्रपनेका सुख उपजावनेकौं अवतार धरया । घोर तपश्चरण किस अर्थ किया । उनको तौ कुछ साध्य था ही नहीं, अर कहैगा जगतके दिखावनेकौं किया तो कोई अवतार तौ
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সাহা
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तपश्चरण दिखावै । कोई अवतार भोगादिक दिखावै । जगत किसकौं भला जानि लागे। यह ।। तो बहुरूपियाकासा खांग किया । .. ... बहुरि वह कहै है-एक 'अरहंत नामका राजा भया, सो दृषभावतारका मत अंगीकार|| करि जैनमत प्रगट किया, सोजैनविर्षे कोई एक अरहंत भया नाहीं । जो सर्पज्ञपद पाय पूजने | योग्य होय ताहीका नाम अर्हत् है । बहुरि राम कृष्ण इनि दोय अबतारनिको मुख्य कहै हैं सो रामावतार कहा किया। सीताके अर्थि विलापकरि रावमसौं लरि वाकू मारि राज किया। अर कृष्णावतार पहिले गुवालिया होय परस्त्री गोपकानिके अर्थि नाना विपरीत चेष्टाकरि पीछे जरासिंधु आदिकों मारि राज किया।सो ऐसे कार्य करनेमें कहा सिद्धि भई । बहुरि रामकृष्णादिकका एक स्वरूप कहें । सो बीचमैं इतनेकाल कहां रहै । जो ब्रह्मविषे रहे तो जुदे रहे कि एक रहे, जुदे रहे सौ जानिए है ए ब्रह्मते जुदे रहे । एक रहे तो राम ही कृष्ण भया, सीताही. | रुक्मिणी भई इत्यादि कैसे कहिए है । बहुरि रामावतारविषे तौसीताको मुख्य कहै अर कृष्णा| वतारविषै सीताकौं रुक्मिणी भई कहै ताळू तौ प्रधान न कहें राधिका कुमारी ताळू मुख्य कहें ।
बहुरि पूछे तब कहै कि राधिका भक्त थी, सो निजस्त्रीकी छोरि दासीका मुख्य करना कैसे बने।। | बहुरि कृष्णकै तौ राधिकासहित परस्त्री सेवनके सर्व विधान भए । सो यह भक्ति कैसी करी।। | ऐसे कार्य तौ महानिंद्य हैं । बहुरि रुक्मिणीकू छोरि राधाकौं मुख्य करी सो परस्त्रीसेवनकों भला १६६
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मोमा । नानि करी होसी । बहुरि एक राधाहीविय आसक्त न भया अन्य गोपिका कुब्जा आदि अनेक प्रकाश
परस्त्रीनिविषै भी आसक्त भया । सो यह अवतार ऐसे ही कार्यका अधिकारी भयो । बहुरि । कहें-- लक्ष्मी थाकी स्त्री है बहुरि धनादिकको लक्ष्मी कहें सो ए तो पृथ्वी आदिविषै जैसैं|
पाषाण धूलि है तैसें ही रत्न सुवर्णादि देखिए है। जुदी ही लक्ष्मी कौन जाका भर्तार नारा
यण है । बहुरि सीतादिको मायाका स्वरूप कहें सो इनिविर्षे आसक्त भए तब मायाविषै आ।। सक्त कैसे न भए। कहां तांई कहिए जो निरूपस करें सो विरुद्ध करें । परन्तु जीवनिकों भोगा
| दिककी वार्ता सुहावै ताते तिनिका कहना बल्लभ लागे है । ऐसें अवतार कहे हैं इनिकों ब्रह्म। स्वरूप कहै हैं । बहुरि औरनिकों भी ब्रह्मस्वरूप कहै हैं । एक तौ महादेवकों ब्रह्मस्वरूप माने |
हैं। ता• योगी कहै हैं, सो योग किस अर्थि ग्रह्या । बहुरि मृगछाला भस्मी धारै है सो किस | । अथि धारी है। बहुरि रुंडमाला पहरे है सो हाड़ांका छीवना भी निंद्य है ताकू गलेमें किस अर्थि | । धारै है। सर्पादि सहित है सो यामैं कौन बड़ाई है । आक धतारू खाय है सो यामें कोन भलाई |
है। त्रिशूलादि राखै है सो कौनका भय है । बहुरि पार्वती संग लिए है सो योगी होय स्त्री | राखै है सो ऐसा विपरीतपना काहेकौं किया। कामासक्त था तो घरहीमें रह्या होता । बहुरि वानै नामाप्रकार विपरीत चेष्टा कीन्हीं ताका प्रयोजन तौ किछू भासै नाहीं । बाउलेकासा कर्त्तव्य भास, ताकौं ब्रह्मस्वरूप कहें।
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ఆరు ఆనింసుంకం 10000000000 నుంచి నిరంతరం
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बहुरि कृष्ण याका सेवक कहै हैं कबहूं याकों कृष्णका सेवक कहैं कबहू दोऊनिकों एक ही कहें सो किछू ठिकाना नाहीं । बहुरि सूर्य्यादिककौं ब्रह्मका स्वरूप कहें । बहुरि ऐसा कहैं जो विष्णु कह्या सो धातूनिविषै सुवर्ण, वृक्षनिविषै कल्पवृक्ष, जूवाविषै मूंठ इत्यादिमें में ही हौं सो किछू पूर्वापर विचार नाहीं । कोई एक अंगकरि संसारी जीवकों महन्त मानै ताहीकों ब्रह्मका स्वरूप कहें । सो ब्रह्म सर्वव्यापी है ऐसा विशेषण काहेकौं किया । अर सूर्यादिविषै वा सुवर्णादिविषै ही ब्रह्म है तौ सूर्य उजाला करै है सुवर्ण धन है इत्यादि गुणनिकरि ब्रह्म मान्या सो सूर्यवत् दीपादिक भी उजाला करें हैं सुवर्णवत् रूपा लोहा आदि भी धन हैं इत्यादि गुण अन्य पदार्थनिविषै भी हैं तिनिक भी ब्रह्म मानै । बड़ा छोटा मानौ परंतु जाति तो एक भई । सो मूंठी महन्तता ठहराव के अर्थ अनेकप्रकार युक्ति बनाने हैं ।
बहुरि अनेक ज्वालामालिनी आदि देवीनिकों मायाका स्वरूप कहि हिंसादिक पाप उपजाय पूजना ठहरावे हैं सो माया तौ निंद्य है ताका पूजना कैसे संभवै । र हिंसादिक करता कैसें भला होय । बहुरि गऊ सर्पादि पशु अभक्ष्यभक्षणादिसहित तिनिकों पूज्य कहैं 1 अग्नि पवन जलादिककौं देव ठहराय पूज्य कहें । वृक्षादिककों युक्ति बनाय पूज्य कहैं । बहुरि कहा कहिए पुरुषलिंगी नाम सहित जे होंय तिनिविषै की कल्पना करें अर स्त्रीलिंगी नाम सहित होंय तिनिविषै मायाकी कल्पनाकरि अनेक वस्तूनिका पूजन ठहरावें है । इनके पूजे
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कहा होयगा सा विचार किछु नाहीं । झूठे लौकिक प्रयोजनके कारन ठहराय जगतकों भ्रमावै| हैं। बहुरि कहै हैं-विधाता शरीरकों घड़े है, यम मार है, मरते समय यमके दूत लैनै आवै | हैं, मूए पीछे मार्गविषै बहुतकाल लागै है, तहां पुण्य पापका लेखा हो है, तहां दंडादिक देवै | हैं । सो ए कल्पित झूठी युक्ति हैं । जीव तो समय समय अनन्ते उपजें मरें हैं तिनिका युगपत् | || कैसे इसप्रकार संभवै अर ऐसे माननेका कोई कारण भी भासे नाहीं । बहुरि मूए पीछे श्राद्धा| दिककरि वाका भला होना कहें सो जीवतां तो काहूके पुण्यपापकरि कोई सुखी दुखी होता | दीखै ही नाहीं, मूए पीछे कैसे होय । ए युक्ति मनुष्यनिकों भ्रमाय अपने लोभ साधनेके अर्थि | बनावे हैं । कीड़ी पतंग सिंहादिक जीव भी तो उपजै मरे हैं सो उनकौं प्रलयके जीव ठहरावै । | तहां जैसें मनुष्यादिककै जन्म मरण होते देखिए है, वैसे ही उनके होते देखिए है। झूठी कल्पना किए कहा सिद्धि है । बहुरि वै शास्त्रनिविषै कथादिक निरूपै हैं तहां विचार किए विरुद्ध भास है । बहुरि यज्ञादिक करना धर्म ठहरावै हैं । तहां बड़े जीवनिका होम करे हैं, अन्नादिक का महा आरंभ करै हैं, तहां जीवघात हो है सो उनहीके शास्त्रविषैवा लोकविष हिंसाका निषेध | है परंतु ऐसे निर्दय हैं किछु गिनै नाहीं । अर कहें-"यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः" ए यज्ञहीकै अर्थि | पशु बनाए हैं। तहां घातकरनेका दोष नाहीं । बहुरि मेघादिकका होना शत्रु आदिका विनशना | इत्यादि फल दिखाय अपने लोभके अर्थि राजादिकनिकों भ्रमावै । जैसे कोई विषत जीवना| १७२
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कहै सो प्रत्यक्ष विरुद्ध है तैसें हिंसा किए धर्म अर कार्यसिद्धि कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है । परन्तु जिनिकी हिंसा करनी कही, तिनिकी तौ किछू शक्ति नाहीं, और उनकी काहूकों पीरि नाहीं । जो किसी शक्तिवानका इष्टका होम करना ठहराया होता, तौ ठीक पड़ता ।। पापका भय नाहीं, तातें दुर्बलका घातक होय अपने लोभके अर्थ अपना वा अन्यका बुरा करनेविषै तत्पर भये हैं । बहुरि मोक्षमार्ग भक्तियोग ज्ञानयोगकरि दोय प्रकार प्ररूपै हैं । तहाँ प्रथम ही भक्तियोगकरि मोक्षमार्ग कहै हैं, ताका स्वरूप कहिए है, -
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तहां भक्ति निर्गुणसगुण भेदकरि दोयप्रकार कहे हैं । तहां अद्वैत परब्रह्म की भक्ति करनी सो निर्गुणभक्ति है । सो ऐसें कहैं हैं, तुम निराकार हो, निरंजन हो, मन बचन 'अगोचर हो, अपार हो, सर्वव्यापी हो, एक हो, सर्वके प्रतिपालक हो, अधमउधारक हो, सर्वके | कर्त्ताहर्त्ता हो, इत्यादि विशेषस्पनिकरि गुण गावै हैं । सो इनविषे केई तौ निराकारादि विशेषण हैं। सो अभावरूप हैं, तिनिकौं सर्वथा मानें प्रभाव ही भासे । जातें आकारादि वस्तु बिना कैसें | भासे । बहुरि केई सर्वव्यापी आदि विशेषण असंभव हैं सो तिनिका असंभवपना पूर्वे दिखाया ही है । बहुरि ऐसा कहैं— जीवबुद्धिकरि मैं तिहारा दास हौं, शास्त्रदृष्टिकरि तिहारा अंश हौं, | तत्त्वबुद्धिकरि 'तू ही मैं हूं' सो ए तीनों ही भ्रम हैं । यह भक्तिकरनहारा चेतन है कि जड़ है । तहां जो चेतन है तौ चेतना | ब्रह्मकी है कि इसही की है ? जो ब्रह्मकी है तो में दास हौं ऐसा
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मानना चेतनाही के हो है सो चेतना ब्रह्मका स्वरूप ठहस्था । अर स्वभाव स्वभावीकै तादात्म्यसंबंध है । तहां दास र स्वामीका संबंध कैसे बने ? दास स्वामीका संबंध तौ भिन्नपदार्थ होय तब ही बने । बहुरि जो यह चेतना इसीही की है तो यह अपनी चेतनाका धनी जुदा पदार्थ ठहरथा तो मैं अंश हौं वा 'जो तू है सो मैं हूं' ऐसा कहना झूठा भया । बहुरि जो भक्ति करनहारा जड़ है, तो जड़कै बुद्धिका होना असंभव है ऐसी बुद्धि कैसें भई । तातें' 'मैं दास हौं' ऐसा कहना तब ही बने है जब जुदा पदार्थ होय || घर 'तेरा में अंश हौं' ऐसा कहना बने ही नाहीं । जातै 'तू' अर । 'मैं' ऐसा तौ भिन्न होय तब ही बने । सो अंश अंशी भिन्न कैसे होंय । अंशी तो कोई जुदा वस्तु है नाहीं, अंशनिका समुदाय सो ही अंशी है । अर 'तू है सो मैं हूं' ऐसा वचन ही विरुद्ध है । एक पदार्थविषै आप भी माने अर पर भी मानै सो कैसे संभवे । तातै भ्रम छोड़ि निर्णय करना । बहुरि केई नाम ही जपै हैं । सो जाका नाम जपे ताका स्वरूप पहचाने बिना केवल नामही का जपना कैसें कार्यकारी होय । जो तू कहेगा नामहीका अतिशय है तौ जो नाम ईश्वरका है सो ही नाम किसी पापीपुरुषका धरया तहां दोऊनिका नाम उच्चारणविषै फलकी समानता होय सो कैसे बने ? तातैं स्वरूपका निर्णयकरि पीछें भक्तिकरने योग्य होय! ताकी भक्ति करनी । ऐसें निर्गुणभक्तिका स्वरूप दिखाया ।
बहुरि जहां काम क्रोधादिकरि निपजे कार्यनिका वर्णनकरि स्तुत्यादि करिए ताक
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శనివారం రాం
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|| सगुणभक्ति कहै हैं । सो तहां सगुणभक्तिविषे लौकिकश्रृंगार वर्णन जैसे नायक नायिका का || करिए तैसें ठाकुर ठकुरानी का वर्णन करें हैं। स्वकीया परकीया स्त्रीसंबंधी संयोगवियोगरूप ।। | सर्वव्यवहार तहां निरूपै हैं । बहुरि स्नान करती स्त्रीनिका वस्त्र चुरावना, दधि लूटना, स्त्रीनिकै || | पगां परना, स्त्रीनिकै भागे नाचना इत्यादि जिन कार्यनिकों करते संसारी जीव लज्जित होय । तिनि कार्यनिका करना ठहरावै हैं । सो ऐसा कार्य अतिकामपीडित भए ही बने । बहुरि युद्धादिक किए कहें सो ए क्रोधके कार्य हैं । अपनी महिमा दिखावनके अर्थि उपाय किये कहें सो । मानके कार्य हैं । अनेक छल किए कहें सो मायाके कार्य हैं। विषयसामग्री की प्राप्तिके अर्थि | यत्न किए कहें सो लोभके कार्य हैं । कुतूहलादिक किए कहें सो हास्यादिकके कार्य हैं । ऐसें । | ए सब कार्य क्रोधादिकरि युक्त भये ही बनें। याप्रकार का क्रोधादिकरि निपजे कार्यनिकों
प्रगटकरि कहैं, हम स्तुति करें हैं। सो काम क्रोधादिके कार्य ही स्तुतियोग्य भए तो निंद्य । | कौन ठहरेंगे ? जिनकी लोकविषे शास्त्रविर्षे अत्यन्त निन्दा पाईए तिनि कार्यनिका वर्णनकरि स्तुति करना तो हस्तचुगलकासा कार्य है। हमापूखें हैं कोऊ किसीका नाम तो कहै नाहीं अर ऐसे कार्यनिहीका निरूपण करि कहै कि किसीने ऐसे कार्य किए हैं, तब तुम वाकों भला जानौ, के बुरा जानो ? जो भला जानौ तौ पापी भले भए, बुरा कौन भया ? भर बुरे जानौ तो ऐसे कार्य कोई करौ सो ही बुरा भया । पक्षपात रहित न्याय करौ। जो पक्षपातकरि कहोगे
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ని సుంకానివి
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ठाकुरका ऐसा वर्णन करना भी स्तुति है तो ठाकुरने ऐसे कार्य किस अर्थि किये ? ऐसे निंद्य
कार्य करने में कहा सिद्धि भई ? कहोगे, प्रवृत्ति चलावनेके अर्थि किए, तो परस्त्री आदि सेवन || निन्यकार्यनिकी प्रवृत्ति चलावनेमें आपके वा अन्यकै कहा नफा भया ? तातें ठाकुरके ऐसे
कार्य करना संभवें नाहीं । बहुरि जो ठाकुर कार्य नाहीं किए, तुम ही कहो हो, तो जामें दोष | न था ताको दोष लगाया ताते ऐसा वर्णन करना तो निन्दा है, स्तुति नाहीं। बहुरि स्तुति | करते जिन गुणनिका वर्णन करिए तिस रूप ही परिणाम होय वा तिनहीविषै अनुराग आवै ।। सो काम क्रोधादि कार्यनिका वर्णन करतें आप भी काम क्रोधादिरूप होय अथवा कामक्रोधादिविषे अनुरागी होय, तो ऐसे भाव तो भले नाहीं । जो कहोगे, भक्त ऐसा भाव न करे हैं तो परिणाम भए बिना वर्णन कैसे किया ? अनुराग भए बिना भक्ति कैसें करी। जो ए भाव ही | भले होय तो ब्रह्मचर्यकों वा चमादिककों भले काहेकौं कहिए ? इनके तो परस्पर प्रतिपक्षीपना है। बहुरि सगुणभक्ति करने के अर्थि राम कृष्णादिककी मूर्ति भी श्रृंगारादि किए वक्रत्वादि। सहित स्त्री आदि संगलिए बनावें हैं जाकों देखते ही कामक्रोधादि भाव प्रगट होय।
भावें । बहुरि महादेव के लिंगहीका आकार बनावे हैं। देखो विटंबना, जाका नाम लिए ही | लाज आवे, जगत् जिसकौं ढक्या राखे, ताका आकार का पूजन करावे हैं। अन्य अंग कहा वाके न थे ? परंतु घनी विटंबना ऐसे ही किए प्रगट होय। बहुरि सगुणभक्तिके अर्थि नाना-
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प्रकार विषयसामग्री भेली करें तहां नाम तो ठाकुरका करें भर भाप भोगवे, भोजनादि बनावें प्रकाश
बहुरि ठाकुरकों भोग लगाया कहें पीछे आपही प्रसादकी कल्पनाकरि ताका भक्षणादि करें। । सो यहां पूछिए है, प्रथम तो ठाकुरके क्षुधा-तृषादिककी पीड़ा होयगी। जो न होय तो ऐसी || | कल्पना कैसे संभवै । भर चुपादिकरि पीड़ित होय सो व्याकुल होय तब ईश्वर दुखी भया, | और का दुःख दूरि कैसे करे । बहुरि भोजनादि सामग्री भाप तो उनकै अर्थि अर्पण करी सो || | करी पीछे प्रसाद तो ठाकुर देवे, तब होय भापहीका तो किया न होय । जैसे कोऊ राजाकी भेट करे पीछे राजा बकसे तो वाकौं प्रहण करना योग्य, भर राजा तो किछु कहे नाही, भाप। ही 'राजा मोकं बकसी', ऐसें कहि वाकों अंगीकार करें तो यह ख्याल ( खेल ) भया। तैसें ॥ । यहां भी ऐसे किए भक्ति तो भई नाहीं हास्यकरना भया । बहुरि ठाकुर भर तू दोय हो कि
एक हो। दोय हो तो ते. भेट करी पीछे ठाकुर बकसे सो ग्रहण कीजै। प्रापही काहेकौं | ग्रहण करे है । भर तू कहेगा ठाकुरकी तो मूर्ति है ताते में ही कल्पना करूंहूं तो ठाकुरके | करनेका कार्य ते. ही किया तब तू ही ठाकुर भया । बहुरि जो एक हो, तो भेट करनी प्रसाद करना झूठा भया। एक भए यह व्यवहार संभवै नाहीं, तातें भोजनासक्त पुरुषनिकरि ऐसी कल्पना करिए है । बहुरि ठाकुरकै अर्थि नृत्य गीतादि करावना, शीत ग्रीष्म वसंत भादि ऋतुनिविषै संसारिक संभवती ऐसी विपयसामग्री भेली करनी इत्यादि कार्य करें। तहां नाम
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तो ठाकुरका लेना अर इंद्रियविषय अपने पोषने । सो विषयासक्त जीवनिकरि ऐसा उपाय | | किया है । बहुरि जन्म विवाहादिककी वा सोवना जागना इत्यादिककी कल्पना तहां करें हैं।
सो जैसे लड़की गुड्डा गुड्डीका ख्याल बनायकरि कुतूहल करें तैसें यह भी कुतूहल करना है। | किछू परमार्थरूप गुण है नाहीं । बहुरि बालक ठाकुरका खांग बनाय चेष्टा दिखावें। ताकरि
अपने विषय पोर्षे भर कहें यह भी भक्ति है । इत्यादि कहा कहिए, ऐसी-ऐसी अनेक विपरी| तता सगुण भक्तिविर्षे पाईए है । ऐसें दोय प्रकार भक्तिकरि मोक्षमार्ग कहै हैं सो ताका | स्वरूप मिथ्या जानना । अव अन्यमतके ज्ञानयोगकरि मोक्षमार्गका स्वरूप दिखाइए है,--1|
एक अद्वैत सर्वव्यापी परब्रह्मकों जानना ताकौं ज्ञान कहे हैं सो ताका मिथ्यापना तो पूर्व | कह्या ही है । बहुरि भापकों सर्वथा शुद्ध ब्रह्मस्वरूप मानना, काम क्रोधादिक वाशरीरादिकको
भ्रम जानना ताकौं ज्ञान कहै हैं सो यह भ्रम है । जो आप शुद्ध है तो मोक्षका उपाय काहेकों | करै है । आप शुद्धब्रह्म ठहरथा, तब कर्तव्य कहा रह्या । बहुरि प्रत्यक्ष भोपकै काम क्रोधादिक | होते देखिए भर शरीरादिकका।संयोग देखिए है सो इनिका अभाव होगा तब होगा, वर्तमानविषे इनिका सद्भाव मानना भ्रम कैसे भया। बहुरि कहे हैं, मोक्षका उपाय करना भी भ्रम है। जैसें जेवरी तो जेवरी ही है ताकौं सर्प जाने था सो भ्रम था-भ्रम मिटे जेवरी ही है । तैसें भाप | तो ब्रह्म ही है आपकौं अशुद्ध माने था सो भ्रम था, भ्रम मिटे भाप ब्रह्म ही है । सो ऐसा
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कहना मिथ्या है। जो आप शुद्ध होय भर ताकौं अशुद्ध जाने तो भ्रम, भर भाप काम क्रोधादि सहित अशुद्ध होय रह्या ताकों अशुद्ध जानै तो भ्रम काहेका । झूठा भ्रमकरि भापकों |शुद्ध माने कहा सिद्धि है । बहुरि तू कहेगा ए काम क्रोधादिक तो मनके धर्म हैं ब्रह्म न्यारा है तो पूछिए है—मन है सो तेरा खरूप है कि नाहीं। जो है, तो काम क्रोधादि भी तेरे ही भए, अर नाहीं है तो पूछिये है जो तू ज्ञानखरूप है कि जड़ है। जो ज्ञानखरूप है तो तेरै ।। तो ज्ञान, मन वा इंद्रिय द्वारा ही होता दीखे है । इनि बिना कोई ज्ञान घतावे तो ताकों जुदा । | तेरा वरूप मानै सो भासता नाहीं । बहुरि 'मन ज्ञाने' धातुते मन शब्दनिपजै है सो मन तो
ज्ञानस्वरूप है । यह ज्ञान किसका है ताकौं बताय । सो जुदा कोऊ भास नाहीं। बहुरि जो तू | जड़ है तो ज्ञान बिना अपने स्वरूप का विचार कैसे करें है। यह बने नाहीं । बहुरि कहै है | | ब्रह्म न्यारा है सो वह न्यारा ब्रह्म तू ही है कि और है । जो तू ही है तो तेरे में ब्रह्म हों ऐसा | मानने वाला ज्ञान है सो तो मनखरूप ही है मनते जुदा नाहीं। आपा मानना आपहीविषे | होय। जाकौं न्योरा जाने तिसविषे आपा मान्या जाय नाहीं । सो मनते न्यारा ब्रह्म है तो | मनरूप ज्ञान ब्रह्मविणे आपाकाहेकौं मान है । बहुरि जो ब्रह्म और ही है तो तू ब्रह्मविषमापा | काहेको माने । तातै भ्रम छोड़ि ऐसा मानि कि जैसे स्पर्शनादि इंद्रिय तो शरीर का खरूप है सो जड़ है याकै द्वारि जो जानपनौ हो है सो आत्माका स्वरूप है। तैसें ही मन भी सूक्ष्म |
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| परमाणूनिका पुञ्ज है सो शरीरहीका अंग है। ताके द्वारि जानपना हो है वा कामक्रोधादि भाव हो हैं सो सर्वमात्मा का स्वरूप है। विशेष इतना जो जानपना तो निज स्वभाव है काम || क्रोधादिक उपाधिक भाव हे तिसकरि भात्मो अशुद्ध है । बहुरि जब कालपाय क्रोधादिक | मिटेंगे भर नानपनाकै मन इंद्रियका आधीनपना मिटैगा, तब केवलज्ञानस्वरूप प्रात्मा शुद्ध होगा। ऐसे ही बुद्धि अहंकारादिक भी जानि लेने। जाते मन भर बुद्धादिक एकार्थ हैं। अर अहंकारादिक हैं ते काम क्रोधादिकवत् उपाधिक भाव हैं । इनकों भापत भिन्न जानना भ्रम है । इनकों अपने जानि उपाधिक भावनिका प्रभाव करने का उद्यम करना योग्य है । बहुरि जिनितें इनिका प्रभाव न होय सके पर अपनी महंतता चाहें ते जीव अपने इन भावनि कौं न ठहराय स्वच्छंद प्रवते हैं। काम क्रोधादिक भावनि को बधाय विषयसामग्रीविषे वा हिंसादिकार्यनिविणे तत्पर हो हैं। बहुरि अहंकारादिकका त्यागकों भी अन्यथा माने हैं । सर्वकों परब्रह्म मानना कहीं पापा न मानना ताकौं अहंकार का त्याग बतावे सो मिथ्या है। जातें कोई पाप है कि नाहीं । जो है तो आपविर्षे आपा कैसे न मानिए, अर न है तो सको ब्रह्म कौन माने है । तातें शरीरादि परविष महबुद्धि न करनी । तहां करता न होना सौ अहंकार का त्याग है । भापविर्षे अहंबुद्धि करने का दोष नाहीं । बहुरि सर्वको समान जानना ॥ कोई विष भेद न करना ताको राग द्वेष का त्याग पता हैं सो भी मिथ्या है। जाते सर्व
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पदार्थ समान नाहीं हैं। कोई चेतन हैं कोई अचेतन हैं कोई कैसा है कोई कैसा हैं । तिनिकों समान कैसै मानिए । तातें परद्रव्यनिकौं इष्ट अनिष्ट न मानना सो रागद्वेषका त्याग है। पदार्थनिका विशेष जानने में तो किछु दोष है नाहीं । ऐसे ही अन्य मोक्षमार्ग रूप भावनिकी अन्यथा कल्पना करै हैं । बहुरि ऐसी कल्पनाकरि कुशील सेवै हैं अभक्ष्य भखै हैं वर्णादि भेद नाहीं करै हैं हीन क्रिया आचरै हैं इत्यादि विपरीतरूप प्रवत्र्ते हैं । जब कोऊ पछै तब कहै हैं; | यह तो शरीरका धर्म है अथवा जैसी प्रालब्धि है तैसें होय है अथवा जैसे ईश्वरकी इच्छा हो है तैसें हो- || है। हमको तो विकल्प न करना । सो देखो आप जानि जानि प्रबर्ते ताकों तौ शरीरका धर्म बतवै।
आप उद्यमी होय कार्य करै ताकौं प्रालब्धि कहै। आप इच्छाकरि सेवै ताकौं ईश्वरकी इच्छा बतावै । | विकल्प करै अर कहै हमकों तो विकल्प न करना । सो धर्मका आश्रय लेय विषयकषाय सेवने | तातें ऐसी झूठीयुक्ति बनावै हैं । जो अपने परिणाम किछू भी न मिलावै तो हम याका कर्त्तव्य || न माने । जैसें आप ध्यान धरै तिष्ठै अर कोऊ अपने ऊपरि वस्त्र गेरि आवै तहां पाप किछु । सुखी न भया, तहां तौ ताका कर्त्तव्य नाहीं सो सांच, भर आप वस्त्रकों अंगीकारकरि पहरै
अपनी शीतादिक वेदना मिटाय सुखी होय तहां जो अपना कर्त्तव्य न मानै सो कैसे बने । बहुरि कुशील सेवना अभक्ष्य भक्षणा इत्यादि कार्य तौ परिणाम मिले विना होते ही नाहीं । तहां अपना कर्त्तव्य कैसैं न मानिए । तातें जो काम क्रोधादिका अभाव ही भया होय तौ तहां
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किसी क्रियानिवि प्रवृत्ति संभव ही नाहीं । अर जो कामक्रोधादि पाइए है तो जैसे ए भाव थोरे होंय तैसे प्रवृति करनी । स्वच्छंद होय इनिकौं बधावना युक्त नाहीं । वहुरि केई जीव | पवनादिकका साधनकरि आपकौं ज्ञानी मानै हैं । तहां इडा पिंगला, सुषुम्ण,रूप नासिकाद्वारकरि पवन निकसै, तहां वर्णादिक भेदनितें पवनहींकों पृथ्वी तत्त्वादिकरूप कल्पना करै हैं। ताको विज्ञानकरि किछ साधनतें निमित्तका ज्ञान होय तातें जगतकों इष्ट अनिष्ट बतावै आप महंत
कहावै सो यह तो लौकिक कार्य है किछु मोक्षमार्ग नाहीं । जीवनिकों इष्ट अनिष्ट बताय उनके । राग द्वेष बधावै अर अपने मान लोभादिक निपजावै यामें कहासिद्धि है बहुरि प्राणायामादिका || साधनकरि पवनकों चढाय समाधि लगाई कहें, सो यह तो जैसे नट साधनतें हस्तादिक क्रिया । करे तैसें यहां भी साधनतें पवनकरि क्रिया करि । हस्तादिक अर पवन यह तो शरीरहीके अंग हैं । इनिके साधनतें आत्महित कैसे सधै । बहुरि तू कहेगा-तहां मनका विकल्प मिट है। सुख | उपजे है यमके वशीभूतपना न हो है सो यह मिथ्या है । जैसें निद्रावि चेतनाकी प्रवृत्ति मिटे. है तैसें पवन साधनेतें यहां चेतनाकी प्रवृत्ति मिटे है । तहां मनकों रोकि राख्या है किछू वासना तो मिटी नाहीं ॥तातें मनका विकल्प मिट्या न कहिए। भर वेतनाविना सुख कौन भोगवे है। | ताते सुख उपज्या न कहिए । अर इस साधनवाले तो इस क्षेत्रविष भए हैं तिनिविषे कोई || अमर दीखता नाहीं । अग्नी लगाए ताका मरण होता दीखें है ताते यमके वशीभूत नाहीं यह
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झूठी कल्पना है । बहुरि जहां साधनविषै किछु चेतना रहे कार तहां साधनतें शब्द सुने, ताक अनहद शब्द बतावें । सो जैसें बीणादिकके शब्द सुननेतें सुख मानना तैसें तिसके सुननेते सुख मानना है । यह तो विषय पोषण भया परमार्थ तो किछू नाही ठहरया । बहुरि | पवन के निकसने पैठने विषे 'सोह' ऐसे शब्द की कल्पनाकरि ताक 'अजपा जाप' कहे हैं । सो जैसे तीतर के शब्दविषै 'तू ही' शब्दकी कल्पना करें हैं किछू तीतर अर्थ अवधारि ऐसा शब्द कहता नाहीं । तैसें यहां 'सोहं' शब्दकी कल्पना है । किछू पवन अर्थ अवधारि ऐसा शब्द कहता नाहीं । बहुरिशब्द के जपने सुननेतें ही तौ किछू फलप्राप्ति नाहीं । अर्थ अवधारे फलप्रासि हो है । सो 'सोहं' शब्दका तो यह अर्थ है 'सो हूं हूं' यहां ऐसी अपेक्षा चाहिए है, 'सो' कौन ? तब ताका निर्णय किया चाहिए । जातैं तत् शब्दकै अर यत शब्द कैंनित्य संबंध है। ता वस्तु का निर्णयकरि ताविषै अहंबुद्धि धारने विषे 'सोहं' शब्द बने । तहां भी आपकों आप अनुभवें तहां तो 'सोहं' शब्द संभव नाहीं । परकौं अपने स्वरूप बतावनेविषै 'सोहं' शब्द संभवे | है । जैसें पुरुष आपकों आप जाने, तहां 'सो हूं हूं' ऐसा काहेकौं विचारै । कोई अन्यजीव आपक न पहचानता होय पर कोई अपना लचण न पहचानता होय, तब वाकों कहिए 'जो ऐसा है सो मैं हूं' तैसें ही यहां जानना । बहुरि केई ललाट भंवारा नासिका के अग्रभाग देखनेका | साधनकरि त्रिकुटी आदिका ध्यान भया कहि परमार्थ माने, सो नेत्रकी पूतरी फिरे मूर्तीक वस्तु
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| देखी, यामें कहा सिद्धि है । बहुरि ऐसे साधननिते किंचित् अतीत अनागतादिकका ज्ञान होय वा वचनसिद्धि होय वा पृथ्वी आकाशादिवि गमनादिककी शक्ति होय वा शरीरविर्षे आरोग्यादिक होय तौ ए तो सर्व लौकिक कार्य है। देवादिककै स्वयमेव ऐसी ही शक्ति पाइए है । इनित किछु अपना भला तो होता नाहीं, भला तो विषयकषायकी वासना मिटे होय । |
सो ए तो विषय कषाय पोषने के उपाय हैं। तातै ए सर्व साधन किछू हितकारी है नाहीं । | इनिविर्षे कष्ट बहुत है मरणादि पर्यंत होय अर हित सधै नाहीं । तातै ज्ञानी ऐसा खेद न करैहै। कषायी जीव ही ऐसे साधनविषै लागे हैं । बहुरि काहूकौं बहुत तपश्चरणादिककरि मोक्षका साधन कठिन बतावै हैं काहूकौं सुगमपने ही मोक्ष भया कहें। उद्धवादिकौं परम भक्त कहें तिनकों तौ तपका उपदेश दिया कहें अर वेश्यादिककै विना परिणाम केवल नामादिकहीत तिरना बतावे किछु थल है नाहीं। ऐसें मोक्षमार्गको अन्यथा प्ररूप हैं।
बहुरि मोक्षस्वरूपकों भी अन्यथा प्ररूप हैं । तहां मोक्ष अनेक प्रकार बतावै हें । एक तो || मोक्ष ऐसा कहै हैं -जो बैकुंठधामविषे ठाकुर ठकुरानीसहित नानाभोगविलास करें हैं तहां |
जाय प्राप्त होय अर तिनिकी टहल किया करै सो मोक्ष है । सो यह तौ विरु द्ध है । प्रथम तो ठाकुर भी संसारीवत् विषयासक्त होय रहा है । तो जैसा राजादिक हैं तैसा ही ठाकुर भया । बहुरि अन्य पासि टहल करावनी हुई तव ठाकु रकै पराधीनतापना भया । बहुरि यह मोक्षकों
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मो.मा. पाया तहां टहल किया करे तो जैसे राजाकी चाकरी करनी तेस यह भी चाकरी भई । तहां | प्रकाश
पराधीन भए सुख कैसे होय । यह भी बने नाहीं । बहुरि एक मोक्ष ऐसा कहै हैं—ईश्वर समान
आप हो है सो भी मिथ्या है । जो उनकै समान और भी जुदा हो है तो बहुत ईश्वर भए | लोकका कर्ताहत्ता कौन ठहरै । भिन्न २ इच्छा भए परस्पर विरोध होय । एक ही है तौ समानता
न भई । न्यून है ताकै नीचापनेकरि उच्चता होनेकी आकुलता रही तब सुखी कैसे होय । जैसे || छोटा रापाड़ा राजा संसारविषे हो हैं तैसें छोटा बड़ा ईश्वर भी मुक्तिविषै भया सो बने नाहीं।
बहुरि एक मोक्ष ऐसा कहै हैं जो वैकुंठविषै दीपककीसी ज्योति है। तहां ज्योतिविषै ज्योति जाय मिले है । सो यह भी मिथ्या है दीपककी ज्योति तौ मूर्तीक अचेतन है, ऐसी ज्योति तहां कैसे संभवै । बहुरि ज्योतिमें ज्योति मिले यह ज्योति रहै है कि विनसि जाय है। जो रहै. है तो ज्योति बधती जायगी। तब ज्योतिविषै हीनाधिकपना होगा । अर विनसि जाय है तो आपकी सत्ता नाश होय ऐसा कार्य उपादेय कैसैं मानिए । तातें ऐसे भी बने नाहीं । बहुरि । एक मोक्ष ऐसा कहै हैं जो आत्मा ब्रह्म ही है मायाका आवरण मिटे मुक्ति ही है । सो ।
यह भी मिथ्या है । यह मायाका आवरणसहित था तब ब्रह्मसों एक था कि जुदा था । जो # एक था तो ब्रह्म ही मायारूप भया अर जुदा था तो माया दूरि भए ब्रह्मविषै मिले है तब है याका अस्तित्व रहै है, जो रहै है तो सर्वज्ञकों तौ याका अस्तित्व जुदा भासै तब संयोग होने
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|मिल्या कहो परंतु परमार्थते तो मिल्या नाहीं । बहुरि अस्तित्व नाहीं रहै है तो आपका अभाव होना कौन चाहै तातें यह भी न बने । बहुरि एक प्रकार मोक्षका स्वरूप ऐसा भी केई कहै हैं
—जो बुधादिकका नाश भए मोक्ष हो है । सो शरीरके अंगभूत मन इंद्रिय तिनिकै आधीन | ज्ञान न रह्या । ऐसे कहना तो काम क्रोधादिक दूरि भए बने है अर तहां चेतनताका भी अभाव | भया मानिए तौ पाषाणादि समान जड़ अवस्थाकों कैसे भली मानिए । बहुरि भला साधन । किए जानपनेका अभाव होना कैसें मानिए । बहुरि लोकविष ज्ञानकी महंततातें जड़पनाकी | | महंतता नाही तातै यह भी बनै नाहीं । ऐसे ही अनेकप्रकार कल्पनाकरि मोक्षकों बतावे सो | किछू यथार्थ तो जाने नाहीं संसार अवस्थाविष कल्पनाकरि अपनी इच्छा अनुसारि बकै हैं । | या प्रकार वेदांतादि प्रतनिविषे अन्याय निरूपण करै हैं । बहुरि ऐसे ही मुसलमानोंके मतविषै अन्यथा निरूपण करिए है। जैसे वे ब्रह्मकौं सर्वव्यापी निरंजन सर्वका कर्ता हर्ता माने हैं तैसें | ए खुदाकों माने हैं । वहुरि जैसे वै अवतार भए माने है तैसें ए पैगंबर भए मानें हैं। जैसें वै | पुण्य पापका लेखा लेना यथायोग्य दंडादिक देना ठहरावै हैं तैसें ए खुदाकै ठहराधे हैं । बहुरि | जैसे वै गउ आदिको पूज्य कहै हैं, तैसें ए सूकर आदिकों कहै हैं । ए सब तिर्यंचादिक हैं। | बहुरि जैसें वै ईश्वरकी भक्तिते मुक्ति कहै हैं तैसें ए खुदाकी भक्तितें कहै हैं। बहुरि वे कहीं। दया पोर्षे कहीं हिंसापो, तैसे ए भी कहीं रहम करना पो कहीं जिबहकरना पोर्षे हैं । बहरि ।
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जैसे वे कहीं तपश्चरण करना पोष कहीं विषयसेवना पोपें तैसें ही ए भी पोर्षे हैं । वहरि जैसे वै कहीं मांस मदिरा शिकार आदिका निषेध करें, कहीं उत्तम पुरुषनिकरि तिलिका अंगीकार करना वतावें तैसें ए भी तिनिका निषेध वा अंगीकार करना बतावें हैं । ऐसें अनेकप्रकारकरि | समानता पाइए है । यद्यपि नामादिक और और हैं तथापि प्रयोजनभूत अर्थकी एकता पाईए है। बहुरि ईश्वर खुदा आदि मूलश्रद्धानको तो एकता है अर उत्तरश्रद्धानविष घने ही विशेष हैं । तहां उनके भी विपरीतरूप विषयकषाय हिंसादि पापके पोषक प्रत्यनादि प्रमाणते विरुद्ध निरूपण करें हैं । तातें मुसलमानोंका मत महाविपरीतरूप जानना । यात्रक र इस क्षेत्र कालविणे | जिनिकी प्रचुर प्रवृत्ति है ताका मि यापना दिखाया। यहां कोऊ कहै जो ए मत मिथ्या हैं तो बड़े राजादिक वा बड़े विद्यावान् इनि मतनिवि कैसे प्रवर्ते हैं, ताका समाधान,-जीवनिके मिथ्यावासना आनदित हैं सो इनिविष मिथ्यात्वहीका पोषण है वहुरि जीवनिकै विषयकवायरूप कार्यनिकी चाहि बतॆ है सो इनिमें विषयकषायरूप कार्यनिहीका पोषण है । बहुरि राजादिकोंका विद्यावानों ऐसे धर्मविषै विषयकषायरूप प्रयोजन सिद्ध होय है । बहुरि जीव तो लोकनियपनाकों | भी उलंघि वा पाप भी जानि जिन कार्यनिकों किया वाहै तिनि कार्यनिकों करतें धर्म बतावै तौ ।। | ऐसे धर्मविष कौन न लागे । ताते इनि धर्मनिकी विशेष प्रवृत्ति है। बहुरि कदाचित् तू ।। कहैगा,-इनि धर्मनिविषै विरागता दया इत्यादि भी तो कहै हैं, सो जैसें झोल दिए विना
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खोटा द्रव्य चाले नाहीं तैसें सांच मिलाए विना झूठ चाले नाहीं । परंतु सर्वके हित प्रयोजनविर्षे | विषयकवायका ही पोषण किया है। जैसे गीताविषै उपदेश देय रारी (युद्ध) करावनेका ही प्रयोजन प्रगट किया। वेदान्तविषै शुद्ध निरूपणकरि स्वछंद होनेका प्रयोजन दिखाया । ऐसें ही जानना । बहुरि यह काल तौ निकृष्ट है सो इसविर्षे तो निकृष्ट धर्महीकी प्रवृत्ति विशेष हो है। देखो, इस कालविणे मुसलमान बहुप्रधान हो गए। हिंदू घटि गए। हिंदूनिविषे और बढ़ि गए,जैनी घटि गए सो यह कालका दोष है । ऐसें यहां अवार मिथ्याधर्मकी प्रवृत्ति बहुत पाईए है । अब पंडितपनाके बलकरि कल्पितयुक्तिकरि नाना मत स्थापित भए हैं तिनिविषे जे तत्त्वादिक मानिए है तिनिका निरूपण कीजिए है। तहां सांख्यमतविषै पच्चीस तत्त्व माने हैं सो कहिए है,सत्व,रज,तमः यह तीनगुण कहै हैं । तहां-सत्कारप्रसाद हो है रजोगुणकरि चित्तकी चंचलताहो है तमोगुणकरि मूढ़ता हो है इत्यादि लक्षण कहै हैं। इनिरूप अवस्था ताका नाम प्रकृति है। बहुरि तिसते बुद्धि उपजै है याह का ।। नाम महत्तत्वहै । बहुरि तिसते अहंकार निपजे है। बहुरि तिसते सोलहमात्रा हो हैं। तहां पांच तौ । ज्ञानइंद्रियहो हैं-स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु, श्रात्र । बहुरि एक मन हो है। बहुरि पांच कर्मेंद्रिय हो हैं -चन, चरन, हस्त, गुदा, लिंग । बहुरि पांच तन्मात्रा हो है-रूप, रस,गंध, स्पर्श, शब्द । बहुरि रूपते अग्नि, रसते जल, गंधते पृथ्वा, स्पर्शते पवन, शब्दतें आकाश,ऐस भया कहै हैं। ऐसे चौईस तत्व तौ प्रकृतिस्वरूप हैं। इनित भिन्न निर्गुण कर्ता भोक्ता एक पुरुष है। ऐसे
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पचीस तत्व कहै हैं । सो ए कल्पित हैं । जाते राजसादिक गुण आश्रयविना कैसे होय । इनिका आश्रय तौ चेतनद्रव्य ही संभव है। बहुरि बुद्धि इनितै भई कहै सो बुद्धि नाम तो। ज्ञान का है। कोई ज्ञानगुणका धारी पदार्थविषै ए होते देखिए है। इनितें ज्ञान भया कैसे मानिए । कोई कहै, बुद्धि जुदी है ज्ञान जुदा है तो मन तो आगें षोडशमात्राविषै कह्या अर ज्ञान जुदा कहोगे तो बुद्धि किसका नाम ठहरेगा। बहुरि तिसते अहंकार भया कह्या, सो परवस्तुविषै 'मैं करूं हूं' ऐस माननेका नाम अहंकार है। साक्षीभूत जाननेकरि तौ अहं|कार होता नाहीं । ज्ञानकरि उपज्या कैसे कहिए है। बहुरि अहंकारकरि षोड़श मात्रा उपजी
कहीं। तिनिविषे पांच ज्ञानइंद्रिय कहीं। सो शरीरविषै नेत्रादि आकाररूप द्रव्येन्द्रिय हैं सो | तो पृथ्वी आदिवत् देखिए है। अन्य वर्णादिकके जाननेरूप भावइंद्रिय हैं सो ज्ञानरूप हैं।
अहंकारका कहा प्रयोजन है । अहंकार बुद्धि रहित कोऊ काहूंकू दीखे है। तहां अहंकारकरि निपजना कैसे संभवै । बहुरि मन कह्या, सो इंद्रियवत् ही मन है। जाते द्रव्यमन शरीररूप
है, भावमन ज्ञानरूप है । बहुरि पांच कर्मेंद्रिय कहीं, सो ए तो शरीरके अंग हैं। मूर्तीक हैं। | अहंकार अमूर्तीकतै इनिका उपजना कैसैं मानिए । बहुरि कर्मइन्द्रिय पांच ही तौ नाहीं।
शरीरके सर्व अंग कार्यकारी हैं । बहुरि वर्णन तो सर्व जीवाश्रित है, मनुष्याश्रित ही तो नाही, | तातै सू िपूंछ इत्यादि अंग भी कर्मइन्द्रिय हैं। पांचहीकी संख्या कैसे कहिए है। बहुरि
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मो.मा. प्रकाश
మందరం నిరంతరం నిరంతరంగం
स्पर्शादिक पांच तन्मात्रा कहीं, सो रूवादि किछू जुदे वस्तु नाहीं ए तो परमाणूनिसौं तन्मय गुण हैं ए जुदे कैसे निपजै । बहुरि अहंकार तौ अमूर्तक जीवका परिणाम है । तातै ए मूर्तीकगुण कैसे निपजे मानिए बहुरि इलि पांचनिने अग्नि आदि निपजे कहें, सो प्रत्यक्ष झूठ है । रूपादिक अग्नादिककै तौ सहभूत गुणगुणी संबंध है । कहने मात्र भिन्न हैं वस्तुविषै भेद नाहीं। किसी प्रकार कोऊ भिन्न होता भासै नाही, कहने मात्रकरि भेद उपाजाईए है। तातै रूपादिकरि अग्नादि कैसे उपजे मानिए। कहनेविषै भी गुणीविषै गुण हैं। गुणते गुणी निपज्या ।
कैसैं मानिए । बहुरि इनित भिन्न एक पुरुष कहै हैं, सो वाका खरूप अवक्तव्य कहि प्रत्यु|त्तर नाहीं करते । जो पूछिए कि कैसा है, कहा है, कैसे कर्ता हर्ता है, सो बतावते नाहीं । जो | बता३ तौ ताहीमें विचार किए अन्यथापनौ भासें । ऐसें सांख्यमतकरि कल्पित तत्त्व मिथ्या जानने । बहुरि पुरुषकों प्रकृतितै भिन्न जानने का नाम मोक्षमार्ग कहै हैं। सो प्रथम तौ प्रकृतिपुरुष कोई है ही नाहीं । बहुरि केवल जानेहीत तौ सिद्धि होतो नाहीं। जानिकरि रागादिक मिटाए सिद्धि होय, सो ऐसें जाने किछू रागादिक घटै नाहीं । प्रकृतिका कर्त्तव्य माने || आप अकर्ता रहै, तब काहेको आप रागादिक घटावै । तातें यह मोक्षमार्ग नाहीं है । बहारे । प्रकृति पुरुषका जुदा होना मोक्ष कहै हैं । सो पञ्चीस तत्वनिविषै चौईस तत्व तौ प्रकृतिसंबंधी | कह्या, एक पुरुष भिन्न कह्या । सो ए तौ जुदे ही हैं अर जीव कोई पदार्थ पच्चीस तत्वनिविषै
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| कह्या ही नाहीं । अर पुरुषहीकों प्रकृतिसंयोग भए जीवसंज्ञा हो है, तो पुरुष न्यारे न्यारे || प्रकृतिसहित हैं पीछे साधनकरि कोई पुरुष रहित हो हैं, ऐसा सिद्ध भया-पुरुष एक न ठहराथ । बहुरि प्रकृति पुरुषकी भूलि है, कि कोई व्यंतरीवत् जुदी ही है सो जीवकों पानि लागे है । जो याकी भूलि है, तौ प्रकृतिते इन्द्रियादिक तत्त्व उपजे कैरौं मानिए । अर जुदी है
तो वै भी एक वस्तु है सर्व कर्त्तव्य वाका ठहरथ।। पुरुषका किछु कर्त्तव्य रह्या ही नाही | काहेको उपदेश दीजिए है। ऐसें यह मोक्षमार्गपना मानना मिथ्या है। बहुरि तहां प्रत्यक्ष ||
अनुमान आगम ए तीन प्रमाण कहै हैं, सो तिनिका सत्य असत्यका निर्णय जैनके न्याय ग्रंथनितें जानना । बहुरि इस सांख्यमतविषै कोई ईश्वरकों न माने हैं। कोई एक पुरुषकों ईश्वर माने हैं। कोई शिवकों देव मानै हैं । कोई नारायणकों माने हैं । अपनी इच्छा अनुसार कल्पना करै हैं किछ निश्चय है नाहीं । बहुरि इस मतविष केई जटा धारै हैं, केई चोटी राखें । हैं, केई मुंडित हो हैं, केई काथे वस्त्र पहरें हैं इत्यादि अनेक प्रकार भेषधारि तत्वज्ञानका आश्रयकार महन्त कहावें हैं ऐसे सांख्यमतका निरूपण किया।
बहुरि शिवमतविर्षे दोय भेद हैं-नैयायिक वैशेषिक। तहां नैयायिकविषे सोलह तत्व कहै हैं । | प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, | हेवाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान । तहां प्रमाण च्यार प्रकार कहै हैं । प्रत्यक्ष, अनुमान,
ఆధాంతం నిరంకుశ నందనం 12 గంటల
ముందు
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शब्द, उपमा | बहुरि अमा अथ बुद्धि इत्यादि प्रमेय कहे हैं । बहुरि 'यह कहा है ' ताका नाम शंसय है । जाकै अर्थ प्रवृत्ति होय, सौ प्रयोजन है । जाकौं वादी प्रतिवादी मानें सो दृष्टांत है । दृष्टांतकरि जाकों ठहराईए सो सिद्धान्त है । बहुरि अनुमानके प्रतिज्ञा आदि पंचांग ते अवयव हैं । संशय दूरि भए किसी विचार ठीक होय, सो तर्क है । पीछे प्रतितिरूप जानना सों निर्णय है । आचार्य शिष्यकै पक्ष प्रतिपक्षकरि अभ्यास सो वाद है । जानने की इच्छारूप कथाविषै जो छल जाति आदि दूषण सो जल्प है । प्रतिपक्ष रहित वाद सो वितंडा है । सांचे हेतु नाहीं, ते प्रसिद्ध आदि भेद लिये हेत्वाभास हैं । छललिए वचन सो छल है । सांचे दूषण नाहीं ऐसे दूषणाभास सो जाति है । जाकरि परवादीका निग्रह होय सो निग्रहस्थान है । या प्रकार संशयादि तत्त्व कहे, सो ए कोई वस्तुस्वरूप तौ तत्त्व हैं नाहीं । ज्ञानके निर्णय करनेकौं वा वादकरि पांडित्य प्रगट करनेकों कारणभूत विचाररूप तत्र कहे, परमार्थ कार्य कैसें होय । काम क्रोधादि भावकों मेटि निराकुल होना सो कार्य है । सोतों यहां प्रयोजन किछू दिखाया ही नाहीं । पंडिताई की नाना युक्ति बनाई सो यह भी एक चातुर्य्य है, तातें ये तत्वभूत नाहीं । बहुरि कहोगे इनकों जाने बिना प्रयोजनभूत तत्वका निर्णय न करि सर्फे, तातैं ए तत्त्व कहे हैं । सो ऐसें परंपरा तौं व्याकरण वाले भी कहै हैं । व्याकरण पढ़ें अर्थ निर्णय होय, वा भोजनादिकके अधिकारी भी कहै हैं कि भोजन किए
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शरीर की स्थिरता भए तत्वनिर्णय करनेकों समर्थ होय, सो ऐसी युक्ति कार्यकारी नाहीं । बहुरि जो कहोगे, व्याकरण भोजनादिक तौ अवश्य तत्त्वज्ञानकौं कारण नाहीं, लौकिक कार्यसाधनेकौं कारण हैं । सो जैसें ए हैं तैसें ही तुम तत्त्व कहे, सो भी लौकिक कार्य साधनेकों कारण हैं । जैसें इंद्रियादिकके जाननेकौं प्रत्यक्षादि प्रमाण कहे वा स्थाणु पुरुषादिविषै संशareer free किया । सातैं जिनिकों जाने अवश्य काम क्रोधादि दूरि होंय निराकुलता उपजै, वे ही तत्व कार्यकारी हैं । बहुरि कहोंगे, जो प्रमेय तत्वविषै श्रात्मादिकका निर्णय हो है सो कार्यकारी है । सो प्रमेय तौ सर्व ही वस्तु हैं । प्रमिति का विषय नाहीं ऐसा कोई भी नाहीं, तातैं प्रमेय तत्व काहेकौं कथा । आत्मा आदि तत्व कहने थे । बहुरि आत्मादिकका भी स्वरूप अन्यथा प्ररूपण किया, सो पक्षपात रहित विचार किए भासे है। जैसें आत्माके भेद दोय कहैं हैं— परमात्मा जीवात्मा । तहां परमात्माकों सर्वका कर्त्त बताये हैं। तहां ऐसा अनुमान करें हैं जो यह जगत् कर्ताकरि निपज्या है, जाते यह कार्य है । जो कार्य है सो कर्त्तारि निपज्या है | जैसें घटादिक । सो यह अनुमानाभास है । जातैं यहां अनुमानान्तर संभव है । यह जगत् सर्व कर्त्ताकरि निपज्या नाहीं । जातै याविषै केई कार्यरूप पदार्थ भी हैं। जो कार्य है, सो कर्त्ताकरि निपज्या नाहीं । जैसें सूर्य्यबिंबांदिक । जातै अनेक पदार्थनिका समुदायरूप जगत् तिसविषै कोई पदार्थ कृत्रिम हैं सो मनुष्यादिककरि किए होंय हैं ।
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कोई अकृत्रिम हैं सो ताका कर्त्ता नाहीं। यह प्रत्यक्षादि प्रमाणके अगोचर है ताते ईश्वरकों । कर्ता मानना मिथ्या है। बहुरि जीवात्माको प्रतिशरीर भिन्न कहै हैं । सो यह सत्य है। परंतु मुक्त भए पीछ भी भिन्न ही मानना योग्य है । विशेष पूर्व कह्या ही है। ऐसे ही अन्य तत्वनिकों मिथ्या प्ररूपे हैं वहुरि प्रमाणादिकका भी स्वरूप अन्यथा कल्पै हैं, सो जैनग्रंथनितें परीक्षा किए भासै हैं । ऐसें नैयायिकमतविषै कहे तत्व कल्पित जानने ।
बहुरि वैशेषिकमतविष छह तत्व कहे हैं। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय । तहां द्रव्य नवप्रकार, पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, मन । तहां पृथ्वी जल अग्निके परमाणु भिन्न भिन्न हैं। ते परमाणू नित्य हैं । तिनिकरि कार्यरूप पृषी । हो है सो अनित्य है । सो ऐसा कहना प्रत्यनादित विरुद्ध है। ईधनरूप पृ वी आदिके पर
माा अग्निरूप होते देखिए है । अग्निके परमागा राखरूप पृथ्वी होती देखिए है । जलके परमाणु मुक्ताफल ( मोती ) रूप पृथ्वी होते देखिए है । बहुरि जो | तू कहेगा, वै परमाणु जाते रहे हैं और ही परमाणु तिनिरूप हो हैं सो प्रत्यक्षकों असत्य ठहरावै है। कोई ऐसी प्रबलयुक्ति कहै तो ऐसे ही माने, परन्तु केवल कहे ही तो ऐसें ठहरै नाहीं। जाते सब परमाणनिकी एक पुदगलरूप जाति है, सो पृथ्वी आदि। अनेक अवस्थारूप परिणम है । बहुरि इन पृथ्वी आदिकका कहीं जुदा शरीर ठहरा है, सो
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मिथ्या ही है । जातै वाका कोई प्रमाण नाहीं । अर पृथ्वी आदि तौ परमाणुपिंड हैं । इनका शरीर अन्यत्र ए अन्यत्र ऐसा संभवे नाहीं । तातैं यह मिथ्या है। बहुरि जहां पदार्थ अटक नाहीं, ऐसी जो पोलि ताकों आकाश कहैं हैं । क्षण पल आदिकों काल कहैं हैं । सो ए दो यूं ही वस्तु हैं । सत्तारूप ए पदार्थ नाहीं । पदार्थनिका क्षेत्रपरिणमनादिकका पूर्वापरविचार करने के इनकी कल्पना कीजिए है । बहुरि दिशा किछू हैं नाहीं । आकाशवि खंड कल्पनाकरि दिशा मानिए है । बहुरि आत्मा दोय प्रकार कहैं हैं, सो पूर्वै निरूपण किया ही हैं । बहुरि मन कोई जुदा पदार्थ नाहीं । भावमन तो ज्ञानरूप है, सो आत्माका स्वरूप है । द्रव्यमन पर - | माणूनिका पिंड है, सो शरीर का अंग है । ऐसें ये द्रव्य कल्पित जानने । बहुरि गुण चोईस कहै हैं— स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग, परिमाण, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्मं, प्रयत्न, संस्कार, द्वेष, स्नेह, गुरुत्व, द्रव्यत्व । सो इनिविषे स्पर्शादिक गुण तो परमाणनिविषै पाईए है । परन्तु पृथ्वीकों गंधवती ही कहनी, जलकों शीतस्पर्शवान् कहना इत्यादि मिथ्या है । जातें कोई पृथ्वीविषै गंधकी मुख्यता न भा है । कोई जल उष्ण देखिए है । इत्यादि प्रत्यक्षादितै विरुद्ध है । बहुरि शब्दकौं आकाशका गुण हैं, सो भी मिथ्या है । शब्द भांति इत्यादितै रुके है, तातै मूर्तीक है। आकाश अमूसर्वव्यापी है । भीतिविषै आकाश रहे, शब्दगुण न प्रवेशकरि सकै, यह कैसे बने | बहुरि
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संख्यादिक हैं सो वस्तुविषै तो किछु है नाहीं, अन्य पदार्थ अपेक्षा अन्य पदार्थके हीनाधिक जाननेकौं अपने ज्ञानविषै संख्यादिककी कल्पनाकरि विचार कीजिए है। बहुरि बुद्धिआदि हैं, | सो आत्मा का परिणमन है । तहां बुद्धि नाम ज्ञानका है तो आत्माका गुण है अर मनका | नाम है तौ द्रव्यनिविषे कह्या ही था, यहां गुण काहेकौं कह्या। बहुरि सुखादिक हैं, सो आत्मा| विषे कदाचित् पाईए है तातें आत्माके लक्षणभूत तो ये गुण हैं नाहीं, अव्याप्तपनेते लक्षणा| भास हैं । बहुरि स्नेहादि पुदगल परमाणुविषै पाईए है, सो स्निग्धगुरुत्व इत्यादि तौ स्पर्शन इन्द्रियकरि जानिए, तातै स्पर्शगुणविषे गर्भित भय जुदे काहेकौं कहे। बहुरि द्रव्यत्वगुण जलविषै कह्या, सो ऐसें तौ अग्निप्रादिविषै ऊर्ध्वगमनत्व आदि पाईए है। के तौ सर्व कहने। थे, के सामान्यविणे गर्मित कहने थे। ऐसैं ए गुण कहे ते भी कल्पित है। बहुरि कर्म पांच प्रकार कहें हैं-उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, गमन । सो ए तो शरीर की चेष्टा हैं। इनिकों जुदा करनेका अर्थ कहा । बहुरि एती ही चेष्टा तौ होती नहीं, चेष्टा तो धनी ही प्रकारकी हो हैं । बहुरि जुदी ही इनिकों तत्त्वसंज्ञा कही, सो के तौ जुदा पदार्थ होय तो ताकौं जुदा | तत्त्व कहना था, के काम क्रोधादि मेटनेकौं विशेष प्रयोजनभूत होय तो तत्व कहना था, सो
दोऊ ही नाहीं । अर ऐसे ही कहि देना तो पाषाणादिककी अनेक अवस्था हो हैं सो कह्या | करौ किछु साध्य नाहीं । बहुरि सामान्य दोय प्रकार है-पर, अपर । सो पर तौ सत्तारूप है
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परद्रव्यरूप है । बहुरि नित्यद्रव्यविषै प्रवृत्ति जिनिकी होय ते विशेष हैं । बहुरि अयुत| सिद्धसंम्बन्ध का नाम समवाय है । सो सामान्यादिक तो बहुतनिकों एकप्रकारकरि वा एक वस्तुविष भेदकल्पनाकरि वा भेदकल्पना अपेक्षा संबंध माननेकरि अपने विचारहीविषै हो है कोई जुदे पदार्थ तौ नाहीं । बहुरि इनिके जाने कामक्रोधादि मेटनेरूप बिशेष प्रयोजन की भी सिद्धि नाहीं, तातैं इनिकों तत्र काहे कहे । अर ऐसें ही तत्त्व कहने थे, तौ प्रमेयत्वादि वस्तु अनन्तधर्म वा संबंध धारादिक कारकनि के अनेक प्रकार वस्तुविषे संभव हैं । कै तौ सर्व कहने थे, कै प्रयोजन जानि कहने थे । तातै ए सामान्यादिक तत्त्व भी वृधा ही कहे । ऐसें वैशेषिकनिकरि कहे कल्पित तत्त्व जानने । बहुरि वैशेषिक दोय ही प्रमाण मान है— प्रत्यक्ष, अनुमान । सो इनिका सत्य असत्यका निर्णय जैनन्यायग्रंथनितें जानना ।
बहुरि नैयायिक तो कहै हैं- विषय, इन्द्रिय, बुद्धि, शरीर, सुख, दुःख, इनिका प्रभाव आत्माकी स्थिति सो मुक्ति है । अर वैशेषिक कहैं हैं— चौईस गुणनिविषै बुद्धि आदि नवगुणनिका प्रभाव सो मुक्ति है । सो यहां बुद्धिका अभाव कला सो बुद्धि नाम ज्ञानका है तौ ज्ञान का अधिकरणपना आत्मा का लक्षण कह्या था, अब ज्ञानका अभाव भए लक्षणका अभाव होते लक्ष्यका भी अभाव होय, तब आत्माकी स्थिति कैसें रही अर जो बुद्धि नाम मनका है, तौ भावमन तो ज्ञानरूप है ही, अर द्रव्यमन शरीररूप है सो मुक्त भए द्रव्यमनका संबन्ध
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छटै ही छूट। सो द्रव्यमन जड़ ताका नाम बुद्धि कैसे होय । बहुरि मनवत् ही इन्द्रिय जानने। प्रकाश
बहुरि विषयका प्रभाव होय । सो स्पर्शादि विषयनिका जानना मिटै है, तो ज्ञान काहेका नाम ठहरैगा । अर तिनि विषयनिका ही अभाव होयगा, तो लोकका अभाव होयगा। बहुरि सुख का अभाव कह्या सो सुखहीकै अर्थ उपाय कीजिए है ताका जहां अभाव होय सो उपादेय | कैसे होय । बसुरि जो आकुलतामय इन्द्रियजनित सुखका तहां अभाव भया कहें, तो यह । सत्य है। निराकुलता लक्षण अतींद्रिय सुख तौ तहां संपूर्ण संभवै है तातै सुखका अभाव
नाहीं। बहुरि शरीर दुःख द्वेषादिकका तहां अभाव कहें सो सत्य ही है । बहुरि शिवमतविषै कर्ता निर्गुण ईश्वर शिव है ताकौं देव माने हैं। सो याके स्वरूपका अन्यथापना पूर्वोक्त प्रकार जानना बहुरि यहां भस्मी, कोपिन, जटा, जनेऊ इत्यादि चिन्ह सहित भेष हो हैं सो आचारादि भेदते च्यार प्रकार हैं-शैव, पाशुपत, महाव्रती, कालमुख। सो ए रागादि सहित हैं ताते सुलिंग नाहीं । ऐसें शिवमतका निरूपण किया। अब मीमांसक मतका स्वरूप कहिए है
मीमांसक दोय प्रकार हैं-ब्रह्मवादी कर्मवादी। तहां ब्रह्मवादी तौ सर्व यह ब्रह्म है दूसरा कोऊ नाहीं ऐसा वेदान्तविर्षे अद्वैत ब्रह्मको निरूपै है । बहुरि आत्माविषै लय होना सो | मुक्ति कहै हैं। सो इनिका मिथ्यापना पूर्वे दिखाया है, सो विचारना। अर कर्मवादी क्रिया
आवार यज्ञादिक कार्यनिका कर्तव्यपना प्ररूपै हैं, सो इन क्रियानिवि रागादिकका सद्भाव
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రంగం 2010-000000
9000000000000000దాం రాం రాం రాం
| पाइए है, तातै ए कार्य किछु कार्यकारी नाहीं । बहुरि तहां 'भट्ट' अर 'प्रभाकर' करि, करी | हुई दोय पद्धति हैं । तहां भट्ट तौ छह प्रमाण माने है-प्रत्यक्ष,अनुमान, वेद, उपमा, अर्था
पत्ति, अभाव । बहुरि प्रभाकर अभावविना पांच ही प्रमाण माने है । सो इनिका सत्यासत्य| पना जैनशास्त्रनितें जानना । बहुरि तहां षट्कर्म सहित ब्रह्मसूत्रके धारक शूद्रअन्नादिकके | त्यागी, ते गृहस्थाश्रम है नाम जिनिका ऐसे भट्ट हैं । बहुरि वेदान्तविषै यज्ञोपवीत रहित विप्र
अन्नादिकके ग्राही, भागवत् है नाम जिनिका ऐसे च्यारि प्रकार हैं—कुटिचर, बहूदक, हंस, परमहंस । सो ए किछू त्यागकरि संतुष्ट भए हैं, परंतु ज्ञान श्रद्धान का मिथ्यापना अर रागादिकका सद्भाव इनिकै पाइए है। तातै ए भेष कार्यकारी नाहीं।
बहुरि यहाँ जैमिनीयमत है, सो ऐसैं कहै है,___ सर्वज्ञदेव कोई है नाहीं । वेदवचन नित्य हैं, तिनित यथार्थ निर्णय हो है । तातै पहलें | वेदपाठकरि क्रियाप्रति प्रवर्त्तना सो तौ चोदना, सोई है लक्षण जाका ऐसा धर्म ताका साधन | करना । जैसें कहै हैं "स्वःकामोऽग्निं यजेत” स्वर्गाभिलाषी अग्निकों पूजै, इत्यादि निरूपण करै हैं। यहां पूछिए है, शैव, सांख्य, नैयायिकादिक सर्व ही वेदकों मानें हैं तुम भी मानो हो । तुम्हारे अर उन सबनिकै तत्त्वादिनिरूपणविषै परस्पर विरुद्धता पाईए है सो कहा है। जो | वेदहीविषै कहीं किछु कहीं, किछु निरूपण किया है, तो वाकी प्रमाणता कैसी रही । अर जो
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मतवाले ही ऐसे निरूपण करें हैं तो तुम परस्पर झपरि निर्णयकरि एककों वेदका अनुसारी अन्यकों वेदतै पराङ्मुख ठहरावो । सो हमकों तौ यह भासै है वेदहीविषै पूर्वापर विरुद्धता | लिए निरूपण है। तिसते ताका अपनी अपनी इच्छा अनुसार अर्थ ग्रहणकरि जुदे जुदे ।
मतके अधिकारी भए हैं। सो ऐसे वेदकौं प्रमाण कैसे कीजिए। बहुरि अग्नि पूजे स्वर्ग होय. | | सो अग्नि मनुष्यतै उत्तम कैसैं मानिए प्रत्यक्षविरुद्ध है। बहुरि वह स्वर्गदाता कैसे होय । ऐसे ही अन्य वेदवचन प्रमाण विरुद्ध हैं। बहुरि वेदवि ब्रह्म कह्या है, सर्वज्ञ कैसे न मानें हैं। इत्यादि प्रकारकरि जैमिनीयमत कल्पित जानना। - अब बौद्धमतका स्वरूप कहिए है,
बौद्धमतविर्षे च्यारितत्व प्ररूपै हैं । दुःख, आयतन, समुदाय, मार्ग। तहां संसारीकै | बंधरूप सो दुःख है सो पांच प्रकार है-विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार, रूप । तहां रूपादिक।
को जानना सो विज्ञान है, सुख दुःखका अनुभवना सो वेदना है, मनका जानना सो संज्ञा है, पढ्या था ताका जानना सो संस्कार है, रूपका धारना सो रूप है। सो यहां विज्ञानादिकों | दुःख कह्या सो मिथ्या है । दुःख तो काम क्रोधादिक हैं। ज्ञान दुःख नाहीं। यह तो प्रत्यक्ष | देखिए है। कारकै ज्ञान थोरा है अर क्रोध लोभादिक बहुत हैं सो दुखी है। काहूकै ज्ञान बहुत है काम क्रोधादि स्तोक हैं वा नाही हैं सो सुखी है । तातै विज्ञानादिक दुःख नाहीं हैं।
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बहुरि आयतन बारह कहे हैं। पांच तौ इन्द्रिय अर तिनिके शब्दादिक पांच विषय, एक मन, एक धर्मायतन । सो ये आयतन किस अर्थि कहै । क्षणिक सबों कहै, इनिका कहा प्रयोजन है। बहुरि जाते रागादिकका कारण निपजै ऐसा आत्मा अर आत्मीय यह है नाम | जाका सो समुदाय है। तहां अहंरूप आत्मा अर मनरूप आत्मीय जानना, सो क्षणिक
माने इनिका भी कहने का किछ प्रयोजन नाहीं । बहुरि सर्व संस्कार चणिक हैं, ऐसी वासना | सो मार्ग है । सो प्रत्यक्ष बहुतकालस्थायी केई वस्तु अवलोकिए है। तू कहैगा एक अवस्था
न रहै है, तो यह हम भी माने हैं। सूक्ष्मपर्याय क्षणस्थायी हैं। बहुरि तिस वस्तुही का नाश | माने तो यह होता न दीसे है हम कैसे मान । बहुरि बाल वृद्धादि अवस्थाविषै एक आत्माका | | अस्तित्व भासे है। जो एक नाहीं है तो पूर्व उत्तर कार्यका एक कर्ता कैसैं माने हैं । जो तू || | कहैगा संस्कारतें हैं, तो संस्कार कौनकै है । जाकै है सो नित्य है कि क्षणिक है। नित्य है ||
तौ सर्व क्षणिक कैसे कहै है । क्षणिक है तो जाका आधार ही क्षणिक तिस संस्कार की परंपरा | कैसे कहै है । बहुरि सर्वक्षणिक भया, तब आप भी क्षणिक भया। तू ऐसी वासना को मार्ग | कहै है सो इस मार्गका फलकों आप तो पावै ही नाही काहेकौं इस मार्गविषै प्रवत्र्ते । बहुरि तेरे मतविषै निरर्थक शास्त्र काहेकों किए। उपदेश तौ किछु कर्त्तव्यकरि फलपावै तिसकै अर्थ || दीजिए है। ऐसे यह मार्ग मिथ्या है । बहुरि रागादिक ज्ञानसंतानवासनाका उच्छेद जो निरोध || २०१
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ताकों मोक्ष कहै है । सो क्षणिक भया तब मोक्ष कौनकै कहै है । अर रांगादिक का अभाव होना तो हम भी माने हैं । अर ज्ञानादिक अपने स्वरूपका अभाव भए तो आपका अभाव होय ताका उपाय करना कैसे हितकारी होय । हिताहितका विचार करनेवाला तौ ज्ञानही है। सो
आपका अभावकों ज्ञानी हित कैसैं मानें । बहुरि बौद्धमतविष दोय प्रमाण मान है-प्रत्यक्ष, अनुमान । सो इनिके सत्यासत्यका निरूपण जैन शास्त्रनितें जानना । बहुरि जो यह दोय ही प्रमाण हैं, तो इनिके शास्त्र अप्रमाण भए तिनिका निरूपण किस अर्थि किया । प्रत्यक्ष अनु- ||| मान तो जीव आप ही करि लेंगे, तुम शास्त्र काहेकौं किए । बहुरि तहां सुगतकों देव माने हैं | सो ताका स्वरूप नग्न वा विक्रियारूप स्थापै हैं सो विटंबनारूप है । बहुरि कमंडलु रक्तांबर के धारी पूर्वाहविर्षे भोजन करें इत्यादि लिंगरूप बौद्धमत के भिक्षुककौं सो क्षणिककौं भेष धरनैका कहाप्रयोजना परंतु महंतताकै अर्थि कल्पित निरूपण करना वा भेष धरना हो है । ऐसे बौद्ध हैं,ते. च्यारि प्रकार हैं-वैभाषिक,सौत्रांतिक, योगाचार, मध्यम ।तहां वैभाषिक तौ ज्ञानसहित पदार्थों माने हैं । सौत्रांतिक प्रत्यक्ष यह देखिए है सो ही है परें किछू नाहीं ऐसे मान है । योगाचारनिकै अचारसहित बुद्धि पाईए है। मध्यम हैं ते पदार्थका आश्रयविना ज्ञानहीको मान हैं । सो अपनी कल्पना करै हैं। विचार किए किछु ठिकाणाकी बात नाहीं । ऐसे बौद्धमतका निरूपण किया।
अब चार्वाक मत कहिए है,
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कोई सर्वज्ञदेव धर्म अधर्म मोक्ष है नाहीं। अर परलोक नाही वा पुण्यगपका फल नाहीं। यह इंद्रियगोचर जितना है सो ही लोक है । ऐसें चार्वाक कहें हैं । तहां वाकौं पूछिए हैसर्वज्ञदेव इस काल क्षत्रविष नाही कि सर्वदा सर्वत्र नाहीं । इस कालत्रविर्षे तो हम भी नाहीं माने हैं । अर सर्व कालत्रविष नाहीं ऐसा सर्वज्ञविना जानना किसकै भया । जो सर्व कालक्षेत्रकी जानै सो ही सर्वज्ञ अर न जाने है तो निषेध कैसे करे है। बहुरि धर्म अधर्म लोकविषे प्रसिद्ध हैं । जो ए कल्पित होय तो सर्वजन प्रसिद्ध कैसे होय । बहुरि धर्म अधर्म || रूप परणित होती देखिए है, ताकरि बर्तमानहीमें सुखी दुखी होते देखिए हैं । इनिकौं । कैसें न मानिए । अर मोक्षका होना अनुमानविणे आवै है । क्रोधादिक दोष काहकै हीन हैं काहूकै अधिक हैं सो जानिए है काइकै इनिकी नास्ति भी होती होगी । अर ज्ञानादिक गुण काहूकै हीन काहूकै अधिक भासें हैं, सो जानिए है काहूकै संपूर्ण भी होते होंयगे । ऐसें जाकै समस्तदोषनिकी हानि गुणनिकी प्राप्ति होय सो ही मोक्ष अवस्था है । बहुरि पुण्य पापका फल | भी देखिए है। कोऊ उद्यम करै तो भी दरिद्री रहै कोऊकै स्वयमेव लक्ष्मी होय । कोऊ शरीर | का यत्न करै, तो भी रोगी रहै । काहूके विनाही यत्न नीरोगता रहै । इत्यादि प्रत्यक्ष देखिए है । सो याका कारण कोई तो होगा । जो याका कारण सो ही पुण्य पाप है । बहुरि परलोक भी प्रत्यक्ष अनुमानतें भासे है। व्यंतरादिक हैं ते अवलोकिए है। मैं अमुक था सो देव
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| भया हूं । बहुरि तू कहेगा यह तो पवन हैं तातें हम तौ में हों' इत्यादि चेतनाभाव जाके
आश्रय पाईए ताहीकों आत्मा कहै हैं, सो तू वाका नाम पवन कहि परंतु पवन तो भीति | आदिकरि अटकै है प्रात्मा मूंद्या बन्द किया हुवा भी अटकै नाही, तातें पवन कैसैं मानिए ।
बहुरि जितना इंद्रियगोचर है तितना ही लोक कहै है । सो तेरी इंद्रियगोचर तो थोरेसे भी | योजनका दूरिवर्ती क्षेत्र अर थोरासा अतीत अनागत काल ऐसा क्षेत्रकालवर्ती भी पदार्थ | | नाही होय सकै । अर दूरि देशकी वा बहुतकालकी बातें परंपरातें सुनिए ही है, तातै सबका
जानना तेरै नाहीं तू इतना ही लोक कैसैं कहै है । बहुरि चार्वाकमतविषै कहै हैं । पृथ्वी | अप, तेज, वायु, आकाशमिले चेतना होय आवै है । सो मरतें पृथ्वी आदि यहां रही चेतनावान् | पदार्थ गया सो व्यंतरादि भया प्रत्यक्ष जुदे जुदे देखिए है। बहुरि एक शरीरविर्षे पृथ्वी | आदि तौ भिन्न भिन्न भासे हैं चेतना एक भासै है। जो पृथ्वी आदिकै आधार चेतना होय तो लोही उस्खासादिककै जुदी जुदी ही चेतना होय अर हस्तादिक काटे जैसें वर्णादि रहै है। तैसें चेतना भी रहै है । बहुरि अहंकार बुद्धि तौ चेतनाकै है सो पृथ्विी आदि रूप शरीर तो यहां की रह्या व्यंतरादि पयायविषे पूर्वपर्याय का अहंपना मानना देखिये हैं सो कैसे हो है। बहुरि पूर्वपर्यायका गुह्य समाचार प्रगट करै सो यह जानना किसकी साथि गया, जाकी साथि जानना मया सो ही आत्मा है । बहुरि चार्वाकमतविष खान पान भोग विलास इत्यादि
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स्वच्छंद वृत्तिका उपदेश है सो ऐसे तो जगत् खयमेव ही प्रवत्र्ते है। तहां शास्त्रादि बनाय । कहा भला होने का उपदेश दिया । बहुरि तू कहेगा तपश्चरण शील संयमादि छुड़ावनेकै अर्थि
उपदेश दिया तौ इनि कार्यनिविष तौ कषाय घटनेते आकुलता घटे है तातै यहां ही सुखी होना हो है यश आदि हो है तू इनिकौं छुड़ाय कहा भला करै है। विषयासक्त जीवनिकों | सुहावती वातै कहि, अपना वा औरनिका बुरा करने का भय नाहीं। स्वच्छन्द होय विषय | सेवन के अर्थि ऐसी झूठी युक्ति वताव है। ऐसे चार्वाकमतका निरूपण किया।
___ इस ही प्रकार अन्य अनेक मत हैं ते झूठी युक्ति बनाय विषयकषायासक्त पापी जीवनि| करि प्रगट किए हैं। तिनिका श्रद्धानादिकरि जीवनिका बुरा हो है। बहुरि एक जिनमत है| | सो ही सत्यार्थका प्ररूपक है । सर्वज्ञ वीतराग देवकरि भाषित है। तिसका श्रद्धानादिक करि
ही जीवनिका भला हो है। सो जिनमत विष जीवादि तत्त्व निरूपण किए हैं। प्रत्यक्ष, परोक्ष | दोय प्रमाण किए हैं। सर्वज्ञ वीतराग अर्हन्त देव हैं। बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह रहित निम्रन्थ
गुरु हैं । सो इनिका वर्णन इस ग्रंथविषे आगें विशेष लिखेंगे, सो जानना । यहां कोऊ कहै| तुम्हारे रागद्वेष है, तातै तुम अन्य मत का निषेधकरि अपने मतकों स्थापो हो, ताकौं | कहिए है__ यथार्थ वस्तुके प्ररूपण करनेविषै रागद्वेष नाहीं । किछू अपना प्रयोजन विचारि अन्यथा
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मोमा शकाप्र
నివాసం నిరంతరం నిరంతరం పోరాం రాం రాం రాం సంస్థలు
प्ररूपण करे, तो रागद्वेष नाम पावै । बहुरि वह कहै है जो रागद्वेषनाहीं है, तो अन्यमत बुरे, जैनमत भला, ऐसा कैसे कहो हो । साम्यभाव होय, तौ सर्वको समान जानौं, मतपक्ष काहे
कों करो हो । ताकों कहिए है—चुराकौं बुरा कहें हैं भलाकौं भला कहें हैं, यामें रागद्वेष कहा || || किया। बहुरि बुरा भलाकौं समान जानना तो अज्ञानभाव है, साम्यभाव नाहीं । बहुरि वह कहै है जो सर्व मतनिका प्रयोजन तो एक ही है, तातै सर्वकौं समान जानना । ताकों कहिए है-प्रयोजन एक ही होय तौ नानामत काहेकौं कहिए। एक मतविषै तो एक प्रयोजन लिए अनेकप्रकार व्यख्यान हो है, ताकौं जुदा मत कौन कहै है । परन्तु प्रयोजन ही भिन्न भिन्न हो है सो ही दिखाईए है—जैनमतविषै एक वीतरागभाव पोषनेका प्रयोजन है, सो कथानिविषै, | वा लोकादिका निरूपणविषै वा आचरणविषै वा तत्त्वनिविषै जहां तहां वीतरागता हीकों पुष्टता करी है । बहुरि अन्य मतनिविष सरागभाव पोषनेका प्रयोजन है। जाते कल्पित रचना तो कषायी जीव करें, सो अनेक युक्ति बनाय कषायभाव हीकों पोएँ । जैसैं अद्वैत ब्रह्मवादी सर्वकों ब्रह्म माननेकरि, अर सांख्यमती सर्व कार्य प्रकृति का मांनि आपकौं शुद्ध अकर्ता माननेकरि, अर शिवमती तत्त्व जाननेही सिद्धि होना माननेकरि, मीमांसक कषायजनित आचारणकों धर्म माननेकरि, बौद्ध क्षणिक माननेकरि, चार्वाक परलोकादि न माननेकरि विषयभोगादिरूप कषायकार्यनिविषै स्वच्छन्द होना ही पोषे हैं। यद्यपि कोई ठिकाने कोई कषाय घटावनेका भी
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निरूपण करें, तो उस छलकरि अन्य कषायकौं पोषण करैं हैं। जैसे गृहकार्य छोरि परमेश्वरका | भजन करना ठहराया, अर परमेश्वर का स्वरूप सरागी ठहराय उनकै आश्रय अपने विषय || कषाय पोर्षे हैं । बहुरि जैनधर्मविष देव गुरु धर्मादिकका स्वरूप वीतराग ही निरूपणकरि केवल | वीतरागताही कों पोषे हैं, सो यह प्रगट है । हम कहा कहें, अन्यमती भतृहरि तानें वैराग्यप्रकरणविषै ऐसा कह्या है
एको रागिषु राजते प्रियतमादेहार्द्धधारी हरो, नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासङ्गो न यस्मात्परः । दुर्वारस्मरबाणपन्नगविषव्यासक्तमुग्धो जनः,
शेषः कामविडंबितो हि विषयान् भोक्तुं न मोक्तुंक्षमः॥१॥ १वैराग्यप्रकरणमें नहीं किन्तु शृंगारप्रकरण (शतक ) में यह ६७ नं० का श्लोक है। न जाने वैराग्यप्रकरण कैसे लिख गया है। __२ रागी पुरुषों में तो षक महादेव शोभित होता है, जिसने अपनी प्रियतमा पार्वतीको आधे शरीर में धारण कर रक्खा है
और विरोगियों में जिन देव शोभित होते हैं जिनके समान स्त्रियों का संग छोड़नेबाला दूसरा कोई नहीं। शेष लोग तो दुर्निवार कामदेवके वाणरूप सवों के विषसे मूच्छित हुए हैं, जो कामकी विडम्बनासे न तो विषयोंको भलीभांति भोग ही सकते हैं और न छोड़ हीसकते हैं।
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याविषै सरागीनिविषे महादेवकौं प्रधान का अर वीतरागीनिविषै जिनदेवकौं प्रधान कया है । बहुरि सरागभाव वीतरागभावनिविषै परस्पर प्रतिपक्षीपना है, सो यह दोऊ भले
विषै एक ही हितकारी है, सो वीतराग ही हितकारी हैं जाके होते तत्काल आकुलता मिटे, स्तुतियोग्य होय ! आगामी भला होना सर्व कहें । अर सरागभाव होते तत्काल आकुलता होय, निन्दनीक होय, आगामी बुरा होना भासै, तातै जामैं वीतरागभाव का प्रयोजन ऐसा जैन मत सो ही इष्ट है । जिनमें सरागभावके प्रयोजन प्रगट किए हैं ऐसे अन्यमत अनिष्ट हैं । इनिक समान कैसे मानिए । तब वह कहै है- -यह तौ सांच, परन्तु अन्यमत की निंदा किए अन्यमती दुःख पावें, औरनिसों विरोध उपजै, तातें काहेकौं निन्दा करिए । तहां कहिए है- जो हम कषायकरि निन्दा करें वा औरनिकों दुःख उपजावैं तौ हम पापी ही हैं । अन्यमतके श्रद्धानादिककरि जीवनिकै तत्वश्रद्वान दृढ़ होय, ताकरि संसारविषै जीव दुखी होय, तातैं करुणाभावकरि यथार्थ निरूपण किया है । कोई विनादोष ही दुःख पावै, विरोध उपजावै, तो हम कहा करें। जैसें मदिराकी बात किए कलाल दुःख पावै, कुशीलकी निन्दा किए वेश्यादिक दुःख पावें, खोटा खरा पहिचाननेकी परीक्षा बतावतैं ठिग दुःख पावै, तो कहा करिए । ऐसें जो पापीनिके भयकरि धर्मोपदेश न दीजिए, तौ जीवनिका भला कैसें होय । ऐसा तो कोई उपदेश नांहीं, जा करि सर्व ही चैन पावें । बहुरि वह विरोध उपजावै, सो विरोध तौ परस्पर हो है । हम लरें नाहीं, वे आप ही उपशांत हो जायगे । हमको तो हमारे परिणा
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मौं का फल होगा । बहुरि कोऊ कहै-प्रयोजनभृत जीवादिक तत्त्वनिका अन्यथा श्रद्धान किए मिथ्यादर्शनादिक हो हैं, अन्यमतनिका श्रद्धान किए कैसे मिथ्यादर्शनादिक होय, ताका समाधान
अन्यमतनिविषै विपरीति युक्ति बताय जीवादिक तत्वनिका स्वरूप यथार्थ न भासै यह | उपाय किया है, सो किस अर्थि किया है । जीवादि तत्त्वनिका यथार्थ स्वरूप भासै, तो वीतराग| भाव भएही महंतपनौ भासै । बहुरिजे जीव वीतरागी नाही,अर अपनै महंतता चाहें, तिनि सराग | भाव होते महंतता मनावनेके अर्थि कल्पित युक्तिकरि अन्यथा निरूपण किया है । सो अद्वैतब्रह्मादिकका निरूपणकरि जीव अजीवका अर स्वच्छन्दवृत्ति पोषनेकरि आस्रव संवरादिकका
अर सकषायीवत् वाअवेतनवत् मोक्षकहनैकरि मोक्षका अयथार्थ श्रद्धानकौं पौषे हैं । जातें अन्य| मतनिका अन्यथापना प्रगट किया हैं । इनका अन्यथापना भासे, तो तत्वश्रद्धानविषै रुचिवंत होय उनकी युक्तिकरि भ्रम न उपजै । ऐसें अन्यमतनि का निरूपण किया। . . . __ अब अन्यमतनिके शास्त्रनिहीकी साक्षीकरि जिनमतकी समीचीनता वा प्राचीनता प्रगट | कीजिए है, ---- ___ बड़ा योगवाशिष्ठ छत्तीस हजार श्लोक प्रमाण, ताका प्रथम वैराग्यप्रकरण तहां अहंकार | निषेधाध्यायविष वशिष्ठ अर रामका संवादविषै ऐसा कया है,
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रामोवाच --
" नाहं रामो नमे वांछा भावेषु च न मे मनः ।
शांतिमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ १ ॥”
या विषै रामजी जिन समान होनेकी इच्छा करी, तातें रामजीतें जिनदेवका उत्तमपना प्रगट भया, अर समीचीनपना प्रगट भया । बहुरि 'दक्षिणामूर्ति - सहस्रनाम' विषै कया है, - शिवोवाच
" जैनमार्गरतो जैनो जितिक्रोधो जितामयः; ॥”
यहां भगवतका नाम जैनमार्गविषै रत अर जैन कह्या, सो यामैं जैनमार्गकी प्रधानता वा प्राचीनता प्रगट भई । बहुरि 'वैशंपायन सहस्रनाम' विषै कया है, -
“कालनेमिनिहा वीरःशूरः शौरिर्जिनेश्वरः ।”
यहां भगवानका नाम जिनेश्वर कह्या तातें जिनेश्वर भगवान् हैं । बहुरि दुर्वासा ऋषिकृत 'महिम्नस्तोत्र' विषै ऐसा कहा है, -
"तत्तदर्शनमुख्यशक्तिरिति च त्वं ब्रह्मकर्मेश्वरी ।
कर्त्तान् पुरुषो हरिश्च सविता बुद्ध: शिवस्त्वं गुरुः” ॥ १ ॥
१ अर्थात्-- मैं राम नहीं हूं, मेरी कुछ इच्छा नहीं है और भावो वा पदार्थोंमें मेरा मन नहीं है। मैं तो अपनी जिनदेव के समान आत्मामें ही शान्ति स्थापन करना चाहता हूं।
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___ यहां अरहंत तुम हो' ऐसे भगवंतकी स्तुति करी, तातें अरहंतके भगवंतपनौ प्रगट भयो। प्रकाश । बहुरि हनुमन्नाटकविषै ऐसे कया है,
१ “यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनः बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कत्तेति नैयायिकाः। अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः
सोऽयं वो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथः प्रभुः॥१॥" ____यहां छहों मतिविष ईश्वर एक कह्या, तहां अरहंतदेवकै भी ईश्वरपना प्रगट किया। यहां कोऊ कहै, जैसें यहां सर्वमति विषे एक ईश्वर कह्या तैसें तुम भी मानौ ताकौं कहिए है-तुमनें। यह कह्या है, हम तौ न कह्या । तातै तुम्हारे मतविषै अरहंतकों ईश्वरपना सिद्ध भया। हमारे | | मतिविषै भी ऐसे ही कहैं, तो हम भी शिवादिककौं ईश्वर मानें। जैसे कोई ब्यापारी सांचा रत्न | दिखावे, कोई झूठा रत्न दिखावै । तहां झूठा रत्न वाला तौ सर्व रत्नोंका समान मोल लेनेकै अर्थि समान कहै । सांचा रत्न वाला कैसे समान माने। तैसें जैनी सांचा देवादिकौं निरूपैं, अन्यमती झूठा निरूपें, तहां अन्यमती अपनी महिमांक अर्थि सर्वको समान कहैं-जैनी कैसे
१ यह हनुमन्नाटके मंगलाचरणका श्लोक है इसका अभिप्राय यह है कि, जिसको शैव लोग शिव कहकर, वेदान्ती ब्रह्म कहकर, बौद्ध बुद्धदेव कहकर, नैयायिक कर्ता कहकर, जैनी अर्हन् कहकर और मीमांसक कर्म कहकर उपासना करते हैं, वह त्रैलोक्यनाथ प्रभु तुम्हारे मनोरथोंको सफल करे।
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ECC:00-00-0000 200 నిరంతరం
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कहें । बहुरि 'रुद्रयामलतंत्र' विषै भवानीसहस्रनामविषै ऐसें कह्या है,
"कुंडासना जगद्धात्री बुद्धमाता जिनेश्वरी।
जिनमाता जिनेन्द्रा च शारदा हंसवाहिनी ॥१॥" ___ यहां भवानीके नाम जिनेश्वरी इत्यादि कहे तातें जिनका उत्तमपना प्रगट भया । बहुरि 'गणेशपुराण' विषै ऐसे कह्य है,- .
“जैनं पाशुपतं सांख्यं ।” । बहुरि व्यासकृत सूत्रविषै ऐसा कह्या है
“जैना एकस्मिन्नेव वस्तुनि उभये प्ररूपयन्ति ।” . इत्यादि तिनिके शास्त्रनिविष जैन निरूपण है, तातें जैनमतका प्राचीनपना भास है। | बहुरि भागवतका पंचमस्कंधविषै ऋषभावतारका वर्णन है । तहां इनिकों करूणामय तृष्णादिरहित ध्यानमुद्राधारी सर्वाश्रमकरि पूजित कह्या है,ताकै अनुसारि अरहंत राजा प्रवृत्तिकरी ऐसा कहै हैं । सो जैसे रामकृष्णादि अवतारनिकै अनुसार अन्यमत, तैसें ऋषभावतारके अनुसार जैनमत, ऐसे तुह्मारे मतहीकरि जैन प्रमाण भया । यहां इतना विचार और किया चहिए-कृष्णादि अवतारनिकै अनुसारि विषयकषायनिकी प्रवृत्ति हो है । भाषभावतारकै अनुसार वीतराग सम्यभाव की प्रवृति ही है। यहां दोऊ प्रवृत्ति समान माने, धर्म अधर्मका विशेष न रहै अर विशेष माने भली होय जो अंगीकार करनी। बहुरि दशावतारचरित्रविषै-"बद्ध पद्मासनं
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కాని నిర్మాణం గుండం
| यो नयनयुगमिदं न्यस्य नासाग्रदेशे” इत्यादि बुद्धावतारका स्वरूप अरहंत देव सारिखा। लिख्या है, सो ऐसा स्वरूप पूज्य है तौ अरहंतदेव पूज्य सहज ही भया। ___ बहुरि काशीखंडविर्षे दिवोदास राजा. संबोधि राज्य छुड़ायो। तहाँ नारायण तौ विनयकीर्ति जती भया, लक्ष्मी कों विनयश्री अर्जिका करी गरुड़कौं श्रावक किया, ऐसा कथन है । सो जहां संबोधन करना भया, तहां जैनी भेष बनाया । तातें जैन हितकारी प्राचीन प्रतिभासे है । बहुरि 'प्रभासपुराण' विषे ऐसा कह्या है
"भवस्य पश्चिमे भागे वामनेन तपः कृतम् । तेनैव तपसाकृष्टः शिवः प्रत्यक्षतां गतः ॥१॥" “पद्माससनसमासीनः श्याममूर्तिदिगम्बरः । नेमिनाथः शिवोथैवं नाम चक्रेऽस्य वामनः ॥ २॥"
"कलिकाले महाघोरे सर्वपापप्रणाशकः ।
_ दर्शनात्स्पर्शनादेव कोटियज्ञफलप्रदः ॥३॥" यहां वामनौं पद्मासन दिगम्बर नेमिनाथका दर्शन भया कह्या । धाहीका नाम शिव कह्या। | बहुरि ताके दर्शनादिकर्ते कोटियज्ञका फल कह्या सो ऐसा नेमिनाथका स्वरूप तो जैनी प्रत्यक्ष | माने हैं, सो प्रमाण ठहरथा । बहुरि प्रभासपुरणविषे कह्या है,
పరారంభం కానుంది.
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“रैवताद्रौ जिनो नेमियुगादिर्विमलाचले ।
ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् ॥ १॥" यहां नेमिनाथकों जिनसंज्ञा कही, ताके स्थानकों ऋषिका प्राश्रम मुक्तिका का कारण कह्या भर युगादिके स्थानौं भी ऐसा ही कह्या, ताते उत्तम पूज्य ठहरे। बहुरि 'नगरपुराण' विषै भवावताररहस्यविषै ऐसा कह्या है,
"अकारादिहकारन्तं मू‘धोरेफसंयुतम् । नादबिन्दुकलाकान्तं चन्द्रमण्डलसन्निभम् ॥ १॥ एतदवि परं तत्वं यो विजानाति तत्त्वतः ।।
संसारबन्धनं छित्वा स गच्छेत्परमा गतिम् ॥२॥ यहां 'अहं' ऐसे पदकों परमतत्व कह्या। याके जाने परमगतिकी प्राप्ति कही, सो 'मह' || पद जैनमतउक्त है । बहुरि नगरपुणविषै कह्या है,
"दशभि जित्तैर्विप्रैः यस्फलं जायते कृते।
मुनेरर्हत्सुभक्तस्य तत्फलं जायते कलो ॥१॥ | यहां कृतयुगविषे दश ब्राह्मणों को भोजन करानेका जेता फज कह्या, तेताफल कलियुगविषे अहंतभक्तमुनिके भोजन कराएका कह्या । ताते जैनी मुनि उत्तम ठहरे । बहुरि 'मनुस्मृति' विष
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సంస్థను 1000000000000000000000000000000000000000
ऐसा कह्या है,
"कुलादिवीजं सर्वेषां प्रथमो विमलवाहनः । चक्षुष्मान् यशस्वी वाभिचंद्रोऽथ प्रसेनजित् ॥ २॥ मरुदेवीच नाभिश्च भरते कुलसत्तमाः। भष्टमो मरुदेब्यां तु नाभेर्जात उरुकमः ॥ २ ॥ दर्शयन् वर्त्म बीराणां सुरासुरनमस्कृतः।
नीतित्रितयकर्ता यो युगादौ प्रथमो जिनः ॥ ३ ॥ यहां विमलवाहनादिक मनु कहे, सो जैनविष कुलकरनिके ए नाम कहे हैं भर यहां प्रथम || | जिन युगकी प्रादिविषै मार्गको दर्शक भर सुरासुरकरि पूजित कह्या, सो ऐसे ही है तो जैनमत युगकी भादिहीतें है अर प्रमाणभूत कैसें न कहिए । बहुरि प्राग्वेदविषै ऐसा कह्या है,___ “ओं त्रैलोक्यप्रतिष्ठितान् चतुर्विशतितीर्थंकरान् ऋषभाद्यावर्द्धमानान्तान् सिद्धान् शरणं प्रपद्ये |ओं पवित्रं नग्नमुपवि प्रसामहे एषां नग्ना ( नग्नये ) जातिर्येषां वीरा ।” इत्यादि
बहुरि यजुर्वेदविर्षे ऐसा कह्या है,
ओं नमो महतो प्रषभो ओं ऋषभ पक्त्रिं पुरुहूतमध्वरं यज्ञेषु नग्न परमं माहसंस्तुतं वरं शत्रु जयंतं पशुरिंद्रमाहुतिरिति स्वाहा । ओं त्रातारमिंद्र प्रषभं वदन्ति अमृतारमिन्द्रं हवे सुगतं ।
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मो.मा. प्रकाश
దంచుంటుందని ముందుంచినందంగా రండి
सुपार्श्वमिंद्र हवे शक्रमजितं तद्वर्द्धमानपुरुहूतमिंद्रमाहुरिति स्वाहा । ओं नग्न सुधीरं दिग्वाससं | ब्रह्मगर्भ सनातनं उपैमि वीरं पुरुषमहतमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् स्वाहा । ओं खस्तिन इंद्रो वृद्धश्रवा खस्तिनः पूषा विश्ववेदा स्वस्तिनस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः खस्तिनस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु। दीर्घायुस्त्वायुवमायुर्वा शुभजातायु ओं रक्ष रक्ष मरिष्टनेमिः स्वाहा । वामदेव शान्त्यर्थमनुविधीयते सोऽस्माकं अरिष्टनेमिः स्वाहा।। ___यहां जैनतीर्थंकरनिके जे नाम हैं तिनिका पूजन कह्या । बहुरि यहां यह भास्या, जो इनकै | | पी वेदचरना भई है। ऐसे अन्यमतनिकी साचितें भी जिनमतकी उत्तमता अर|प्राचीनता दृढ भई । भर जिनमतकों देखें वै मत कल्पित ही भारौं। तातें अपना हितका इच्छक होय, | सो पक्षपात छोरि सांचा जैनधर्मकौं अंगीकार करो। बहुरि अन्य मतनिविर्षे पूर्वापरविरोध | भारौं है । पहले भवतार वेदका उद्धार किया। तहां यज्ञादिकवि हिंसादिक पोषे । भर बुद्धा| वतार यज्ञका निंदक होय, हिंसादिक निषेधे। बृषभावतार वीतराग संयमका मार्ग दिखाया | कृष्णावतार/परस्त्रीरमणादि विषय कषायादिकनिका मार्ग दिखाया। सो अब यह संसारी कौनका कह्या करे, कौंनकै अनुसारि प्रवत्त, अर इन सब अवतारनिकों एक बतावै सो एक ही कदाचित् कैसैं कदाचित् कैसे कहे वा प्रवत तो याकै उनके कहनेकी वा प्रवर्त्तनेकी प्रतीति कैसैं आवै। बहुरि कही क्रोधादिकषायनिका वा विषयनिका निषेध करें, कही लरनेका वा ६|| २१६
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मो.मा. विषयादि सेवने का उपदेश दें । तहां प्रालब्धि बतावें, सो बिना क्रोधादि भए आपही लरना आदि कार्य होंय, तो यह भी मानिए सो तो होंय नाहीं । बहुरि लरना आदि कार्य होते. क्रोधादि भए मानिए तौ जुदे ही क्रोधादि कौन हैं, तिनका निषेध किया। तातै बने नाहीं, पूर्व्वा पर विरोध है । गीताविषै वीतरागता दिखाय लरने का उपदेश दिया, सो यह प्रत्यक्ष विरोध भासे है । बहुरि ऋषीश्वरादिकनिकरि श्राप दिया बतावें, सो ऐसा क्रोध किए निन्द्यपना कैसें न भया । इत्यादि जानना । बहुरि "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति" ऐसा भी कहैं अर भारतविषै ऐसा भी कहा है, -
अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् ।
दिवं गतानि राजेन्द्र अकृत्वा कुलसन्ततिम् ॥ १ ॥
यहां कुमारब्रह्मचारीनिकौं स्वर्ग गए बताए, सो; यह परस्पर विरोध है । बहुरि ऋषीश्वर भारतविषै तौ ऐसा कह्या,
मद्यमांसाशनं रात्रौ भोजनं कन्दभदणम् ।
कुर्वन्ति वृथास्तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः ॥ १ ॥ वृथा एकादशी प्रोक्ता वृथा जागरणं हरेः । वृथा च पौष्करी यात्रा कृत्स्नं चान्द्रायणं वृथा ॥२॥
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चातुर्मास्ये तु सम्प्राप्ते रात्रिभोज्यं करोति यः ।
तस्य शुद्धिर्न विद्युत चान्द्रायणशतैरपि ॥३॥ इनविर्षे मद्यमांसादिकका वा रात्रिभोजनका वा चौमासे में विशेषपर्ने रात्रिभोजनका वा || | कंदभक्षणका निषेध किया । बहुरि बड़े पुरुषनिकै मद्यमांसादिकका सेवन करना कहें, व्रतादि-|| विषै रात्रिभोजन था वा कन्दादिभक्षण था, ऐसे बिरुद्ध निरूपै हैं। ऐसे ही अनेक पूर्वापर विरुद्ध वचन अन्यमतके शास्त्रनिविर्षे हैं। सो करें कहा, कहीं तो पूर्वपरंपरा जानि विश्वास अनावनेके अर्थि यथार्थ कह्या भर कहीं विषयकषाय पोषनेके अर्थि अन्यथा कह्या। सो जहां | पूर्वापरविरोध होय, तिनका वचन प्रमाण कैसे करिए। तहां जो अन्यमतनिविर्षे क्षमा शील
संतोषादिककों पोषते वचन हैं, सो तो जैन मतविषै पाइए हैं भर विपरीत वचन हैं, सो उनके । कल्पित हैं । जिनमत अनुसार वचनका विश्वासतें उनका विपरीतवचनका श्रद्धानादिक होय |
जा, तातें अन्यमतका कोऊ अंग भला देखिकर भी तहां श्रद्धानादिक न करना । जैसें | विषमिलित भोजन हितकारी नाहीं तैसें जानना । बहुरि जो कोई उत्तमधर्मका अंग जिनमत। विर्षे न पाईए भर अन्यमतविर्षे पाईए, अथवा कोई निषिद्ध धर्मका अंग जैनमतविषै पाईए । अर अन्यत्र न पाईए, तो अन्यमतको आदरो सो सर्वथा होय नाहीं । जाते सर्वज्ञका ज्ञानते किछ
छिपा नाहीं है । तातै अन्यमतनिका श्रद्धानादिक छोरि जिनमत का दृढ़ श्रद्धानादिक करना ।
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मो.मा. बहुरि कालदोषतें कषायी जीवनिकरि जिनमतविषै भी कल्पित रचना करी है, सोही दिखाईए है,प्रकाश
श्वेतांवरमतवारे काहुने सूत्र बनाए, तिनकों गणधरके किए कहै हैं। सो उनको पूछिए । है-गणधरनें आचारांगादिक बनाए हैं सो तुम्हारे अवार पाईए है सो इतने प्रमाण लिए ही | किए थे। जो इतने प्रमाण लिए ही किए थे, तो तुम्हारे शास्त्रनिविषै आचारांगादिकनिके | पदनिका प्रमाण अठारह हजारादि कह्या है, सो तिनकी विधि मिलाय द्यो। पदका प्रमाण | कहा। जो विभक्तिका अंतकौं पद कहोगे, तो कहे प्रमाणते बहुत पद होय जायगे अर जो | प्रमाण पद कहोगे, तो तिस एक पदकै साधिक इक्यावन कोडि श्लोक हैं । सो यह तो बहुत | छोटे शास्त्र हैं, सो बने नाहीं । बहुरि आचारांगादिकतै दशवकालिकादिकका प्रमाण घाटि | कह्या है। तुम्हारे बधता है सो कैसे बनै । बहुरि कहोगे, प्राचारांगादिक बड़े थे, कालदोष | जानि तिनही मेंसों केतेक सूत्र काढ़ि यह शास्त्र बनाए हैं । तो प्रथम तो टूटकग्रंथ प्रमाण
नाहीं । बहुरि यह प्रबंध है, जो बड़ा ग्रंथ बनावै तौ वा विष सर्व वर्णन विस्तार | लिए करै अर छोटा ग्रंथ वनावै तौ तहां संक्षेपवर्णन करै, परन्तु संबंध टूटै नाहीं। अर कोई || बड़ा ग्रंथमें थोरासा कथन काढ़ि लीजिए, तो तहां संबंध मिले नाही-कथनका अनुक्रम | || टूटि जाय । सो तुम्हारे सूत्रनिविषे तो कथादिकका भी संबंध मिलता भासे है-टूटकपना न भासै || है । बहुरि अन्य कवीनितें गणधरकी तो बुद्धि अधिक होगी, ताके किए ग्रंथनिमें थोरे शब्दमें
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मो.मा. प्रकाश || बहुत अर्थ चाहिये सो तौ अन्य कवीनिकीसी भी गंभीरता नाहीं। बहुरि जो ग्रंथ बनावें, सो
| अपना नाम ऐसे धरै नांहीं, 'जो अमुक कहै हैं'। मैं कहाँ हौं' ऐसा कहै। तुम्हारे सूत्रनि| विर्षे ' हे गोतम' वा 'गोतम कहे है' ऐसे वचन हैं। सो ऐसे बचन तो तब ही संभवें, जब
और कोई कर्ता होय । तातें यह सूत्र गणधरकृत नाहीं, औरके किए हैं । गणधरका नामकरि | कल्पितरचनाकौं प्रमाण कराया चाहै हैं। सो विवेकी तो परीक्षाकरि माने, कह्या ही तो न मानें। | बहुरि वह ऐसा भी कहै हैं--जो गणधरसूत्रनिके अनुसार कोई दशपूर्वधारी भया है, ताने ए | सूत्र बनाए हैं । तहां पूछिये है--जो नए ग्रंथ बनाए थे, तो नवा नाम धरना था, अंगादिकके | नाम काहेकौं धरे। जैसे कोई बड़ा साहूकारकी कोठीका नामकरि अपना साहूकारा प्रगट करे, | तैसे यह कार्य भया। सांचेकों तो जैसे दिगंबरविष ग्रंथनिके नाम धरे भर अनुसारी पूर्वग्रंथनिका कह्या, तैसें कहना योग्य था। अंगादिकका नाम धरि गणधरदेवका भ्रम काहेकौं उप| जाया । तातें गणधरके वा पूर्वधारीके बचन नाहीं । बहुरि इन सूत्रनिविषै जो विश्वास अनाव
के अर्थि जिनमतअनुसार कथन है, सो तो सांच है ही। दिगंबर भी तैसें ही कहे हैं । बहुरि जो कल्पितरचना करी है, तामें पूर्वापरविरुद्धपनौ वा प्रत्यक्षादि प्रमाणमें विरुद्धपनौ भासे है, | सो ही दिखाईए है,
__ अन्य लिंगीके वा गृहस्थके वा स्त्री के वा चांडालादि शूद्रनिकै साक्षात् मुक्ति की प्राप्ति
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होनी माने हैं, सो बने नाहीं । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी एकता मोक्षमार्ग है । सो वे सम्यहै दर्शनका स्वरूप तो ऐसा कहै हैं,
अरहंतो महादेवो जावज्जीवं सुसाहणो गुरुणो ।
जिणपण्णत्तं तत्तं ए सम्मत्तं मए गहिएं ॥१॥ ___ सो अन्यलिंगीकै अरहंत देव, साधु गुरु, जिनप्रणीत तत्वका मानना कैसे संभवै । तब । सम्यक्त भी न होय, तो मोक्ष कैसे होय । जो कहोगे अन्तरंगके श्रद्धान होनतें सम्यक्त तिनके
हो है, सो विपरीत लिंगधारककी प्रशंसादिक किए भी सम्यक्तकों अतीचार कह्या है तो सांचा श्रद्धान भए पीछे भाप विपरीतलिंगका धारक कैसे रहें। श्रद्धान भए पीछे महाव्रतादि अंगीकार किए सम्यकचारित्र अन्यलिंगवि कैसे बने। जो अन्य लिंगविषे भी सम्यकचरित्र हो है, तो जैनलिंग अन्यलिंग समान भया। तातें अन्यलिंगीकों मोक्ष कहना मिथ्या है । बहुरि गृहस्थकों मोक्ष कहें, सो| | हिंसादिक सर्व सावयका त्याग किए सम्यकचारित्र होय, सो सर्व सावद्ययोगका त्याग किए गृहस्थ । पनौ कसै संभवै । जो कहोगे-मंतरंगका त्याग भया है, तो यहां तो तीनूं योग का त्याग करै है कायकरि त्याग कैसे भया। बहुरि बाह्यपरिग्रहादिक राखे भी महाव्रत हो है, सो महाव्रतनिविषै तो बाह्यत्याग करनेकी ही प्रतिज्ञा करिए है, त्याग किए बिना महाव्रत न होय । महाव्रत बिना छठाआदि गुणस्थान न होय सके, तो मोक्ष कैसे होय । तातै गृहस्थकों मोक्ष || २२१
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कहना मिथ्या वचन है। ___ बहुरि स्रीकों मोक्ष कहें, सो जातें सप्तमनरकगमनयोग्य पाप न होय सके, ताकरि मोक्ष ।
का कारण शुद्धभाव कैसे होय सके। जाते जाके भाव दृढ़ होय, सो ही उत्कृष्ट पाप वा धर्म || | उपजाय सके है । बहुरि स्त्रीके निशंक एकांतविष ध्यान धरना, सर्वपरिग्रहादिकका त्याग करना |
संभवे नाहीं। जो कहोगे, एकसमयविषे पुरुषवेदी वा स्त्रीवेदी वा नपुंसकवेदीकों सिद्धि होनी सिद्धांतविर्षे कही है, तातें स्त्रीकों मोक्ष मानिए है। सो यहां भाववेदी है कि द्रव्यवेदी है। || जो भाववेदी है तो हम माने ही हैं । द्रव्यवेदी है, तो पुरुषस्त्रीवेदी तो लोकवि प्रचुर दीखे । हे नपुंसक तो कोई बिरला दीखे है । एक समयविषै मोक्ष जानेवाले इतने नपुंसक केसें । संभवै । तातै द्रव्यवेद अपेक्षा कथन बनें नाहीं । बहुरि जो कहोगे, नवमगुणस्थानताई वेद कहे है, सो भी भाववेद अपेक्षा ही कथन है । द्रव्यवेदअपेक्षा होय तो चौदहवां गुणस्थानपर्यंत बेदका सदभाव संभवै । तातें स्त्रीकै मोक्षका कहना मिथ्या है।
बहुरि शूद्रनिकों मोक्ष कहें। सो चांडालादिककों गृहस्थ सन्मानादिककरि दानादिक कैसे ॥ दें, लोकविरुद्ध होय । बहुरि नीचकुलवालोंके उत्तम परिणाम न होय सकें। बहुरि नीचगोत्रकर्मका
उदय तो पंचम गुणस्थानपर्यंत ही है । ऊपरिकेगुणस्थान चढ़े बिना मोक्ष कैसे होय । जो कहोगे । संयम धारे पीछे याकै उच्चगोत्रका उदय कहिए, तो संयम धारनेकी वा न धारनेकी अपेक्षा
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से नीच उच्चगोत्रका उदय ठहरा । ऐसे होते असंयमी मनुष्य तीर्थकर क्षत्रियादिकके भी नीच-|| गोत्रका उदय ठहरै । जो उनके कुल अपेक्षा उच्चगोत्रका उदय कहोगे तो चांडालादिककै भी कुल अपेक्षा ही नीचगोत्रका उदय कहो । ताका सद्भाव तुम्हारे सूत्रनिविषै भी पंचम गुणस्थानपर्यत ही कया है । सो कल्पित कहनेमें पूर्वापरविरुद्ध होय ही होय । तातें शूद्रनिकै मोक्षका कहना मिथ्या है। | ऐसें तिनहुनें सर्वकै मोक्षकी प्राप्ति कही, सो ताका प्रयोजन यह है जो सर्वका भला मनावना मोक्षका लालच देना पर अपना कल्पितमतकी प्रवृत्ति करनी । परंतु विचार किए मिथ्या ।। भासे है। बहुरि तिनके शास्त्रनिविषै 'अछेरा' कहै हैं । सो कहें हैं-हुडावसर्पिणीके निमितते भए हैं, इनकों छेड़ने नाहीं । सो कालदोषते केई बात होय परंतु प्रमाणविरुद्ध तो न होय || जो प्रमाणविरुद्ध भी होय, तो आकाशके फूल गधेके सींग इत्यादिका होना भी बनें सो संभवै । नाहीं । तातें वे जो अछेरा कहै हैं सो प्रमाणविरुद्ध हैं। काहेते, मो कहिए है,- ...
वर्द्धमानजिन केतेककाल ब्राह्मणीके गर्भविर्षे रहि पीछे क्षत्रियाणीके गर्भविषे बधे ऐसा || कहै हैं । सो काइका गर्भ काहकै धरया प्रत्यक्ष भासे नाही, अनुमानादिकमें आवै नाहीं।। बहुरि तीर्थ करके भया कहिए, तो गर्भकल्याणक काहूकै घर भया, जन्मकल्याणक कारकै || भया । कतेक दिन रत्नवृष्ट्यिादिक काहूकै घर भई, केतेक दिन काहूकै भई । सोलह स्वप्न
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মজায়
किसीकों आए, पुत्र किसीके भया, इत्यादि असंभव भासै । बहुरि माता तो दोय भई भर पिता तो एक ब्राह्मणही रह्या । जन्मकल्याणादिविषे वाका सन्मान किया, के अन्य कल्पित पिता का किया । सो तीर्थकरके दोय पिताका कहना, महाविपरीत भासे है। सर्वोत्कृष्टपदके धारककै ऐसे बचन सुनने भी योग्य नाहीं । बहुरि तीर्थंकरकेभी ऐसी अवस्था भई, तो सर्वत्र
ही अन्यस्त्रीका गर्भ अन्यस्त्रीके धरि देना ठहरें, तो वैष्णव जैसे अनेक प्रकार पुत्र पुत्रीका | । उपजना बतावे हैं, तैसें यह कार्य भया । सो ऐसे निकृष्ट कालविर्षे तो ऐसे होय ही नाही, । तहां होना कैसे संभवै । तात यह मिथ्या है।
बहुरि मल्लितीर्थ करकौं। कन्या कहै हैं । सो मुनि देवादिककी सभा विषै स्त्रीका स्थिति करना उपदेश देना न संभवै, वा स्त्रीपर्याय हीन है सो उत्कृष्ट तीर्थ करपदधारककै न बने । बहुरि तीर्थंकरके नग्नलिंग ही कहै हैं, सो स्त्रीके नग्नपनो न संभवै । इत्यादि विचार किए
असंभव भास है। ॥ बहुरि हरिक्षेत्रका भोगभूमियांकों नरकि गया कहें । सो बंधवर्णनविषै तो भोगभूमियांके
देवगति देवायुहीका बंध कहें, नरकि कैसे भया । सिद्धांतविणे तो अनंतकालविर्षे जो बात होय, सो भी कहें । जैसें तीसरे नरक तीर्थंकर प्रकृतिका सत्व कह्या, भोगभूमियांकै नरक मायु मतिका बंध न कया, सो केवली भूलें तौ नाहीं । तातें यह मिथ्या है। ऐसें सर्व अछेरे असं
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al भव जानने । बहुरि वै कहै हैं, इनको छेड़ने नाहीं । सो झूठ कहने वाला ऐसे ही कहै । बहुरि |
|| जो कहोगे -दिगम्बरवि जैसें तीर्थंकरके पुत्री, चक्रवर्तिका मानभंग इत्यादि कार्य कालदो|पत भया कहै हैं, तैसें ए भी भए । सो ३ कार्य तो प्रमाणविरुद्ध नाहीं । अन्यके होते थे सो | | महंतनिकै भए, तातें कालदोष भया कहे हैं । गर्भहरणादि कार्य प्रत्यक्ष अनुमानादितें विरुद्ध, | तिनके होना कैसे संभवै । वहुरि अन्य भी घने ही कथन प्रमाणविरुद्ध कहे हैं। जैसे कहे हैं, सर्वार्थसिद्धिके देव मनही प्रश्न करें हैं, केवली मनहीत उत्तर दे हैं। सो सामान्य ही जीवकै मनकीवात मनःपर्ययज्ञानीविना जानि सके नाहीं। केवलीके मनकी सर्वार्थसिद्धिके देव कैसें जाने। बहुरि केवलीके भावमनका तो अभाव है, द्रव्यमन जड़ आकारमात्र है, उत्तर कौन दिया। तातें मिथ्या है। ऐसे अनेक प्रमाणविरुद्ध कथन किए हैं, तातें तिनके आगम कल्पित ही जानने।
बहुरि श्वेतांबरमतवाले देवगुरुधर्मका स्वरूप अन्यथा निरूपै हैं । तहां केवलीके क्षुधादिक || दोष कहें। सो यह देवका स्वरूप अन्यथा है । काहेते क्षुधादिक दोष होते पाकुलता होय, तब अनंतसुख कैसे बनें। बहुरि जो कहोगे, शरीरकों क्षुधा लागै है आत्मा तद्रूप न हो है, तो | क्षुधादिकका उपाय आहारादिक काहेर्को ग्रहण किया कहो हो । क्षुधादिकरि पीड़ित होय, तब ही आहार ग्रहण करै । बहुरि कहोगे, जैसे कर्मोदयतें विहार हो है, तैसें ही माहार ग्रहण हो
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है। सो बिहार तो विहायोगति उदयतें हो है, अर पीडाका उपाय नाही, अर विना इच्छा भी | || | किसी जीवकै होता देखिए है । बहुरि आहार है, सो प्रकृतिका उदयतें नाहीं क्षुधाकरि पीड़ित भए ही ग्रहण करै है । बहुरि आत्मा पवनादिककों प्रेरै तब ही निगलना हो है, तातें विहारवत् ।
आहार नाहीं । जो कहोगे-सातावेदनीयकै उदयतें आहार ग्रहण हो है, सो बने नाहीं। जो | जीव क्षुधादिकरि पीड़ित होय, पीछे आहारादिक ग्रहणतें सुख मानें ताके आहारादिक | साताके उदयतें कहिए । आहारादिक सातावेदनीयके उदयतें स्वयमेव होय । | ऐसे तो है नाहीं। जो ऐसें होय, तो सातावेदनीय का मुख्य उदय || | देवनिकै है, ते निरंतर आहार क्यों न करें । बहुरि महामुनि उपवासादि करें, तिनके | साताका भी उदय अर निरंतर भोजन करनेवालों के भसाताका भी उदय संभवै। तातें जैसे | विना इच्छा विहायोगतिके उदयते विहार संभवै, तैसें विना इच्छा केवल सातावेदनीयहीके | उदयतें आहारका ग्रहण संभवै नाहीं। बहुरि वह कहे हैं, सिद्धांतविषै केवली के क्षुधादिक ग्यारह परीषह कहे हैं, तातै तिनकै क्षुधाका सदभाव संभवे है। बहुरि पाहारादिक बिना तिनकी! उपशांतता कैसे होय, तातै तिनकै आहारादिक माने हैं। ताका समाधान,
कर्मप्रकृतीनिको उदय तीव्रमंद भेद लिए हो है। तहां अतिमंद होते, तिसका उदयजनित | कार्यकी व्यक्ततः भासे नाहीं । ताते मुख्यपन अभाव कहिए, तारतम्यविषै सद्भाव कहिए। जैसें ।।।
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नवम गुणस्थानविणे वेदादिकका उदय मंद है, तहां मैथुनादि क्रिया व्यक्त नाहीं तातै तहां ब्रह्मचर्य ही कह्या । तारतम्यविणे मैथुनादिकका सद्भाव कहिए है। तैसें केवली के असाताका उदय अतिमंद है । जातें एक एक कांडकविणे अनंतवें भाग अनुभाग रहै ऐसे बहुत अनुभागकांडकनि | करि वा गुणसंक्रमणादिककरि सत्ताविणे असा तावेदनीयका अनुभाग अत्यंतमंद भया, ताका उदयविषै क्षुधा ऐसी व्यक्त होती नाहीं,जो शरीरकों क्षीण करै । अर मोहके अभावतें |
क्षधाजनित दुःख भी नाहीं तातें क्षुधादिकका अभाव कहिए है । तारतम्यविषे । तिनका सद्भाव कहिए है । बहुरि तें कह्या-आहारादिक बिना तिनकी उपशांतता कैसे होय, सो आहारादिकरि उपशांतता होने योग्य क्षुधा लागे तो मंद उदय काहेका रहा ।। देव भोगभूमियां आदि के किंचित मंद उदय होते ही बहुत काल पीछे किंचित महार। ग्रहण होहै तो इनकै तो अतिमंद उदय भया है, ताते इनके आहार का प्रभाव संभव है। बहुरि वै कहै हैं देव भोगभूमियांका तो शरीर ही ऐसा है, जाकौं धर्नेकालापीछे थोरी भूख लागै, इनका तो शरीर कर्मभूमिका औदारिक है । तातें इनका शरीर आहार बिना देशोनकड़ि पूर्वपर्यंत उत्कृष्टपर्ने कैसेंर है, ताका समाधान
देवादिकका भी शरीर वैसा है, सो कर्म केही निमित्ततें है। यहां केवलज्ञान भए ऐसा ही कर्म उदय भया जाकरि शरीर ऐसा भया, जाकों भूख प्रगट होती ही नाहीं । जैसें केवल
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ज्ञान भए पहले केश नख बधै थे, सो बधैं (ब) नाहीं । छाया होती थी, सो होती नाहीं । शरीरविषै निगोदी थी, ताका अभाव भया । बहुत प्रकारकरि जैसे शरीरकी अवस्था अन्यथा
भई, तैसें आहारबिना भी शरीर जैसाका तैसा रहै ऐसी भी अवस्था भई । प्रत्यक्ष देखौ, औ३ रनिकों जरा व्यापै तब शरीर शिथिल होय जाय, इनका आयुका अंतपर्यंत शरीर शिथिल न
होय । तातें अन्य मनुष्यनिका शरीर पर इनका।शरीर की समानता संभवै नाहीं । बहुरि जो तू कहेगा- देवादिकके आहार ही ऐसा है, जाकरि बहुतकालकी भूख इनके भूख मिटै;काहेतें मिटी अर शरीर पुष्ट कैसे रह्या। ताकौं कहिए है-जो असाताका उदय मंद होनेते मिटी| अर समय समय परमोदारिक शरीर वर्गणाका ग्रहण हो है सो अब तो कर्म प्रहार है सो । ऐसी वर्गणाका प्रहण हो है जाकरि क्षुधादिक व्यापे नाही वा शरीर शिथिल होय नाहीं । । सिद्धांतविणे याहीकी अपेक्षा केवलीकौं आहार कह्या है । पर अन्नादिकका आहार तो शरीरकी । पुष्टताका मुख्य कारण नाहीं। प्रत्यक्ष देखो, कोऊ थोरा आहार करै शरीर पुष्ट बहुत होय, कोऊ
बहुत प्रहार करें शरीर क्षीण रहै । बहुरि पवनादि साधने वाले बहुतकालताई आहार न लें श। रीर पुष्ट रह्या करें, वा ऋद्धिधारी मुनि उपवासादि करें शरीर पुष्ट बन्या रहै सो केवलीके तौ
सर्वोत्कृष्टपमा है । उनके अन्नादिक बिना शरीर पुष्ट बना रहै, तो कहा आश्चर्य भया। वहुरि 1 केवली कैसे आहारकों जाय, कैसे जाचें । बहुरि वै प्रहारकों जाय, तव समवसरण खाली
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कैसे रहै । अथवा अन्यका ल्याय देना ठहरावोगे, सौ कौन ल्याय दे, उनके मनकी कौन जाने । मो०मा प्रकाश पूर्व उपवासादिककी प्रतीज्ञा करी थी, ताका कैसे निर्वाह होय । जीवअंतराय सर्व प्रतिभासे, के
से आहार ग्रहें इत्यादि विरुद्ध भासे है । बहुरि वह कहै है-आहार ग्रहै हैं, परंतु काहूको दीसे | नाहीं । सो आहार ग्रहणको निंद्य जान्या, तब घाका न देखना अतिशयविषै लिख्या। सो | उनकै निंद्यपना रह्या अर और न देखे हैं, तो कहा भया। ऐसे अनेक प्रकार विरुद्ध
उपजे है। | बहुरि अन्य अविवेक कहै हैं—केवलोके नीहार कहै हैं, रोगादिक भया कहै हैं, अर | कहें, काहू. तेजोलेश्या छोरी ताकरि वर्द्धमान स्वामीकै पेढुंगाका (पेचिस का) रोग भया | ताकरि बहुत बार नीहार होने लागा। सो तीर्थंकर केवलीकै भी ऐसा कर्म का उदय रह्या, । अर अतिशय न भया तो इंद्रादिकरि पूज्यपना कैसें सोभै । बहुरि नीहार कैसे करें, कहा | करें कोऊ संभवती बात नाहीं । बहुरि जैसे रागादिकरि युक्त छदमस्थक क्रिया होय, तैसे । केवलीके क्रिया ठहरावै हैं । वर्द्धमानखामी का उपदेश वि हे गौतम' ऐसा बारंबार कहना | ठहरावे हैं । सो उनकै तो अपना कालविणे सहज दिव्यध्वनि हो है, तहां सर्वौं उपदेश हो
है गौतमकों सम्बोधन कैसे बने । बहुरि केवलीकै नमस्कारादिक क्रिया ठहरावे हैं, सो अनुराग विना धंदना सम्भवै नाहीं । बहुरि गुणाधिककौं पंदना सम्भवै, सो उनसौं कोई गुणाधिक रह्या
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|| नाहीं। सो कैसे बने । बहुरि हाटिविर्षे समवसरण उतारया कहैं, सो इंद्रकृत समवसरण प्रकाश
हाटिविषै कैसे रहै ? इतनी रचना तहां कैसे समावै । बहुरि हाटिविणे काहेकौं रहै, कहा इंद्र
हाटि सारिखी रचना करनेकौं भी समर्थ नाही, जाते हाटिका आश्रय लीजिये। बहुरि कहैं, 1 केवली उपदेश देने कौं गए । सो घरि जाय उपदेश देना अतिरागता होय, सो मुनि के भी | । सम्भवै नाहीं । केवली के कैसे बनै । ऐसे ही अनेक विपरीतिता तहां प्ररूपें हैं। केवली ||
शुद्धज्ञानदर्शनमय रागादिरहित भए हैं, तिनकै अघातिनिके उदयतें सम्भवतीक्रिया कोई हो है, अर मोहादिकका अभाव भया है । तातै उपयोगमिले जो क्रिया होय सके, सो सम्भवै नाहीं । पापप्रकृतिका अनुभाग अत्यंत मंद भया है । ऐसा मंद अनुभाग अन्य कोई कै नाहीं। । ताते' अन्यजीवनिकै पापउदयतें जो क्रिया होती देखिए है, सो केवलीके न होय। ऐसे । केवली भगवान के सामान्य मनुष्य कीसी क्रिया का सद्भाव कहि देव का खरूपकौं अन्यथा
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రాం రాం కొందించిన
__ बहुरि गुरू का खरूपकों अन्यथा प्ररूपै हैं । मुनिकै वस्त्रादिक चौदह उपकरण कहै हैं। । सो हम पूछे हैं कि, मुनिकों निग्रंथ कहें अर मुनिपद लेते नवप्रकार सर्वपरिग्रह का त्यागकरि महाबत अङ्गीकार करें, सो ए वस्त्रादिक परिग्रह हैं कि नाहीं। जो हैं तो त्यागकिए पीछे काहेकौं राखें, अर नाहीं हैं, तो वस्त्रादिक गृहस्थ राखै ताकौं भी परिग्रह मति कही। सु.
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वर्णादिककों ही परिग्रह कहौ । बहुरि जो कहोगे, जैसैं क्षुधाके अर्थि आहार ग्रहण कीजिए | है, तैसे शीतउष्णादिक के अर्थि वस्त्रादिक ग्रहण कीजिए है । सो मुनिपद अङ्गीकार करते |
आहार का त्याग किया नाही, परिग्रह का त्याग किया है। वहुरि अन्नादिकका तो संग्रह । | करना परिग्रह है, भोजन करने, जाय सो परिग्रह नाहीं । अर वस्त्रादिकका संग्रह करना वा| | पहिरना सर्व परिग्रह है सो लोकविषे प्रसिद्ध है। बहुरि कहोगे शरीरकी स्थिति के अर्थि व-11
स्त्रादिक राखिए है-ममत्त्व नाहीं तातें इनकों परिग्रह न कहिए । सो श्रद्धानविणे तो जब || | सम्यग्दृष्टी भया तब ही समस्त परद्रव्यविषै ममत्वका अभाव भया । तिस अपेक्षा तौ चौथा | गुणस्थान ही परिग्रहरहित कहो । अर प्रवृत्तिविर्षे ममत्व नाहीं तो कैसैं ग्रहण करै हैं । ताते ।।
वस्त्रादिक ग्रहण धारण छूटेगा तब ही निःपरिग्रह होगा। बहुरि कहोगे-वस्त्रादिककौं कोई । | ले जाय तो क्रोध न करै वा क्षुधादिक लागै तो बैंच नाही, वा वस्त्रादिकपहरि प्रसाद करै ।।
नाहीं । परिणामनिकी स्थिरताकरि धर्म ही साधे है, तातें ममत्व नाहीं । सो बाह्य क्रोध मति | " करौ, परन्तु जाका ग्रहणविणे इष्ट बुद्धि होय, ताका वियोगविणे अनिष्टबुद्धि होय ही जाय । जो अनिष्ट बुद्धि न भई, तो बहुरि ताके अर्थि याचना काहेकौं करिए है। बहुरि बेचते नाहीं | सो धातु राखनेते अपनी हीनता जानि नाहीं बेचिए है । जैसे धनादि राखने तैसें ही वस्त्रादि राखने । लोकवि परिग्रहके चाहक जीवनिकै दोऊनिको इच्छा है । ताते चौरादिक के भया-||
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दिकके कारन दोऊ समान हैं । बहुरि परिणामनिकी स्थिरताकरि धर्मसाधनेते' ही परिग्रहपना न होय तो काहू को बहुत शीत लागे सो सोडि राखि परिणामनिकी स्थिरता करेंगा अर धर्म साधेगा तो वाकों भी निःपरिग्रह कहौ । ऐसे गृहस्थधर्म मुनिधर्मविषै विशेष कहा रहेगा। जाके परीपह सहने की शक्ति न होय, सो परिग्रह राखिधर्म साधै। ताका नाम गृहस्थधर्म, अर जाकै । परिणाम निर्मल भए परीषहकरि व्याकुल न होय सो परिग्रह न राखै अर धर्म साधे, ताका नाम मुनिधर्म, इतना विशेष है। बहुरि कहोगे, शीतादिकी परिषहकरि व्याकुल कैसे न होय सो व्याकुलता तौ | मोहके उदयके निमित्ततें है । सो मुनिके षष्ठादि गुणस्थाननिवि तीन चौकड़ी का उदय नाहीं। अर संज्वलनकै सर्वघाती स्पर्द्धकनिका उदय नाहीं । देशघाती स्पर्द्धकनिका उदय है, सो किछु । तिनका घल नाहीं । जैसे वेदक सम्यग्दृष्टीकै सम्पङ्मोहनीयका उदय है, सो सम्यक्त्वों घात न करि सके; ते सैंदेशघाती संज्वलनका उदय परिणामनिकों व्याकुल करि सकै नाहीं। मुनिकै अर
औरनिके परिणामनिकी समानता है नाहीं। और सबनिकै सर्वघातिका उदय है, इनकै देशघातीका || | उदय है । ताते औरनिकै जैसे परिणाम होय, तैसे उनकै कदाचित न होय तातें जिनके सर्वघाती। कषायनिका उदय होय, ते गृहस्थ ही रहें अर जिनकै देशघातीका उदय होय ते मुनिधर्म अंगी-18
कार करें। ताकै शीतादिककरि परिणाम व्याकुल न होय, तातें, वस्त्रादिक राखें नाहीं। बहुरि । कहोगे---जैन शास्त्रनिविषे चौदह उपकरण मुनि राखें, ऐसा कहा है । सो तुम्हारे ही शास्त्र
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निविषे कया है, दिगंबर जैनशास्त्रनिविषै तो कह्या नाहीं । तहांतौ लंगोटमात्र परिग्रह रहे भी ग्यारहीं प्रतिमाका धारक श्रावक ही कह्या । सो अब यहां विचारौ, दोऊनिमैं कल्पित वचन कौन है प्रथम तौ कल्पित रचना, कषायी होय सो करै । बहुरि कषायी होय, सोही नीचापदत्रिषै उच्चपनों प्रगट करै सो यहां दिगंबरविषे वस्त्रादि राखे धर्म होय ही नाहीं, ऐसा तौ न का परन्तु तहां श्रावकधर्म कह्या । श्वेतांबर विषै मुनिधर्म कह्या । सो यहां जानै नीची क्रिया होतें, उच्चत्व पद प्रगट किया, सो ही कषायी है । इस कल्पित कहनेकरि आपकों वस्त्रादि राखतें भी लोक मुनि मानने लगें, तातें मानकषाय पोष्या गया । अर औरनिकों सुगमक्रिया| विषै उच्चपदका होना दिखाया, तातैं घने लोक लगि गए । जे कल्पित मत भए हैं, ते ऐसे ही भए हैं। तातै श्वेतांबरमतविषे वस्त्रादि होतैं मुनिपना कया है, सो पूर्वोक्त युक्तिकरि विरुद्ध भास है । तातें ए कल्पितवचन हैं, ऐसा जानना । बहुरि कहोगे — दिगंबरविषे भी शास्त्र, पीकी आदि मुनिकै उपकरण कहे हैं, तैसें हमारे चौदह उपकरण कहे हैं।। ताका समाधान
जाकर उपकार होय, ताका नाम उपकरण है । सो यहां शीतादिककी वेदना दूर करतैं उपकरण ठहराइए, तौ सर्वपरिग्रह सामग्री उपकरण नाम पावै । सो धर्मविषै इनका कहा प्रयोजन ? ए तो पापका कारण हैं । धर्मविषै तौ धर्मका उपकारी जे होंय, तिनका नाम उपकरण है । सो शास्त्र ज्ञानिकों कारण, पीछी दयाकौं, कमण्डलु शौचकौं कारण, सोए तौ
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धर्मके उपकारी भए, वस्त्रादिक कैसें धर्मके उपकारी होय। वै तौ शरीरका सुखहीके अर्थि धारिए है। बहुरि जो शास्त्र राखि महंतता दिखावें, पीछी करि बुहारी दें, कमण्डलुकरि जलदिक पीवें वा मैल उतारें, तो शास्त्रादिक भी परिग्रह ही हैं। सो मुनि ऐसे कार्य करें नाहीं। । तातें धर्मके साधनकों परिग्रह संज्ञा नाहीं । भोगके साधनकौं परिग्रह संज्ञा हो है, ऐसा जानना
बहुरि। कहोगे-कमण्डलुतें तो शरीरही का मल दूरि करिए है सो मुनि मल दूरि करनेकी |
इच्छाकरि कमण्डलु नाहीं राखै हैं। शास्त्र बांचना आदि कार्य करें, अर मललित होंय, तौ । । तिनका अविनय होय, लोकनिंद्य होंय, तातें इस धर्मके अर्थि कमण्डलु राखिए है । ऐसें पीछी |
आदि उपकरण संभवें, वस्त्रादिककौं उपकरण संज्ञा संभवै नाहीं। काम अरतिआदि मोहका |
उदयतें विकार बाह्य प्रगट होय, अर शीतादिक सहे न जाँय, तातें विकार ढांकनेकौं, वा ॥ शीतादि घटावनेकों, वा वस्त्रादिक राखि मानके उदयतें अपनी महन्तता भी चाहें तातें, । कल्पितयुक्तिकरि उपकरण ठहराईए है । बहुरि घरघर याचनाकरि आहार ल्यावना ठहराया है।। । सो प्रथम तो यह पूछिए है, जो याचना धर्मका अंग है । कि पापका अंग है । जो धर्मका अंग ।। है, तो मांगनेवाले सब धर्मात्मा भए । अर पापका अंग है, तो मुनिकै कैसे संभवै । बहुरि जो | तू कहेगा, लोभकरि किछु धनादिक याचे, तौ पाप होय; यह तो धर्म साधन के अर्थि शरीरकी स्थिरता किया चाहै हैं । ताका समाधान,
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आहारादिककर धर्म होता नाहीं; शरीरका सुख हो है। शरीरका सुखकैर्थ अतिलोभ भए याचना करिए है । जो अति लोभ न होता, तो आप काहेकौं मांगता। वे ही देते तो देते, न देते तौ न देते बहुरि अतिलोभ भए यहां ही पाप भया, तब मुनिधर्म नष्ट भया और धर्म कहा साधैगा । अब वह कहै है— मनविषै तौ प्रहारकी इच्छा होय अर याचे नाहीं, तौ मायाकषाय भया अर याचनेमें हीनता आवै है, सो गर्वकरि याचे नाहीं, तौ मानकषाय भया । आहार लेना था, सो मांगि लिया । यामैं अतिलोभ कहा भया अर यातें मुनिधर्म | कैसें नष्ट भया, सो कहौ । ताकौं कहिए है—
जैस काढू व्यापारीकै कुमावनेकी इच्छा मंद है, सो हाटि ( दूकान ) ऊपरि तौ बैठे अर | मनविषै व्यापार करनेकी इच्छा भी है परन्तु काहूकों वस्तु लेनेदेनेरूप व्यापारकै अर्थ प्रार्थना नहीं कर है । स्वयमेव कोई आव अर अपनी विधि मिल, तौ व्यापार कर है । तौताकै लोभकी मन्दता है, माया वा मान नाहीं हैं । माया वा मानकषाय तौ तब होय, जब छलकरनेके अर्थि वा अपनी महन्तताकै आथ ऐसा स्वांग करें । सो भले व्यापारीकै ऐसा प्रयोजन नाहीं । तातें वाकै माया मान न कहिए। तैस मुनिनकै आहारादिककी इच्छा मन्द है, सो आहार लेनेकौं आप अर मनविष आहारलेने की इच्छा भी है, परन्तु आहारकै अर्थ प्राथना नाहीं करें हैं। स्वयमेव कोई दे, तो अपनी बिधि मिले आहार ले हैं । तौ उनकै लोभकीम न्दता है, माया
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वा मान नाहीं है। माया मान तो तब होय, जब छल करनेकै अर्थि वा महंतताकै अर्थि ऐसा | स्वांग करें। सो भुनिनकै ऐसे प्रयोजन हैं नाहीं। तातें इनकै माया मान नाहीं है। जो ऐसे | ही माया मान होय, तो जे मनहीकरि पाप करें बचनकायकरि न करें, तिन सबनिकै माया । || ठहरै। अर जे उच्चपदके धारक नीचवृत्ति नाहीं अंगीकार करै हैं, तिन सबनिकै मान ठहरे।। । ऐसे अनर्थ होय । बहुरि तें कह्या-"आहार मांगनेमें अतिलोभ कहा भया” सो अतिकषाय
होय, तब लोकनिंद्य कार्य अंगीकारकरिके भी मनोरथ पूर्ण किया चाहै, सो मांगना लोकनिंद्य | है, ताकौं भी अंगीकारकरि श्राहारकी इच्छा पूर्ण करनेकी चाहि भई। तातें यहां अतिलोभ | भया। बहुरि तें कह्या-"मुनिधर्म कैसे नष्ट भया,” सो मुनिधर्मविषै ऐसी तीब्रकषाय संभवै | नाहीं । बहुरि काहूका आहारदेनेका परिणाम न था, यानै वाका घरमें जाय याचना करी ।
तहां वाकै सकुचना भया वा न दिए लोकनिंद्यहोनेका भय भया। ताते वाकौं आहार दिया, | | सो वाका अंतरंग प्राण पीड़नेंतें हिंसाका सद्भाव आया । जो आप वाका घरमैं न जाते, उस
हीकै देनेका उपाय होता, तो देता । वाकै हर्ष होता। यह तौ दबायकरि कार्य करावना भया | बहुरि अपना कार्यकै अर्थि याचनारूप बचन है, सो पापरूप है। सो यहां असत्यबवन भी
भया । बहुरि वाकै देनेकी इच्छा न थी, यानें जाच्या, तब वाने अपनी इच्छातें दिया नाहीं--- सकुचिकरि दिया। तातें अदत्तग्रहण भी भया । बहुरि गृहस्थके घरमैं स्त्री जैसैं तिष्टै थी, यह
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चल्या गया। तहां ब्रह्मचर्यकी बाडिका भंग भया ।बहुरि आहार ल्याय, के तेक काल राख्या। । आहारादिक राखनेकों पात्रादिक राखे, सो परिवह भया । ऐसें पांच महाव्रतनिका भंग होनेते। मुनेधर्म नष्ट हो है ताते याचनाकरि आहार लेना मुनिकों युक्त नाहीं। बहुरि वै कहै हैंमुमिकै बाईस परीषहनिविणे याचनापरीषह कही है, सो मांगेविना तिस परीषहका सहना कैसें । | होय ? ताका समाधान____ याचना करनेका नाम याचनापरीषह नाहीं है। याचना न करनी, ताका नाम याचनापरीषह है। जाते अरति करनेका नाम अरतिपरीपह नाहीं, अरति न करनेका नाम अरतिपरीषह है तैसें जानना। जो याचना करना, परीषह ठहरै, तो रंकादि घनी याचना करै हैं, तिनकै घना धर्म होय । अर कहोगे, मान घटावनेंते याकौं परीषह कहै हैं, तो कोई कषायी कार्यके अर्थि कोई कषाय छोरे भी पापी ही होय । जैसे कोई लोभकै अर्थि अपना अपमानकों भी न गिर्ने, तौ ताकै लोभकी तीव्रता है। उस अपमान करावनेते भी महापाप हो है। अर आपकै इच्छा किछु नाहीं, कोई स्वयमेव अपमान करें है, तो वाकै महाधर्म हो है। सो यहां तो भोजनका लोभकै अर्थि याचानाकरि अपमान कराया, तातै पाप ही है, धर्म नाहीं । बहुरि वस्त्रादिकके भी अर्थि याचना करै हैं, सो वस्त्रादिक कोई धर्मका अंग नाहीं है । शरीरसुखका कारण है। तातै पूर्वोक्तप्रकार ताका निषेध जानना । अपना धर्मरूप उच्चपदको याचनाकार
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नीचा करे हैं, सो यामैं धर्मकी हीनता हो है । इत्यादि अनेकप्रकारकरि मुनिधर्मविषै याचनाआदि नहीं संभव है । सो ऐसी असंभवती क्रियाके धारक साधु गुरु कहैं हैं । तातैं गुरुका स्वरूप अन्यथा कहै हैं । बहुरि धर्मका स्वरूप अन्यथा कहैं हैं । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इनकी एकता मोक्षमार्ग है, सो ही धर्म है सो इनिका स्वरूप अन्यथा प्ररूपै हैं । सो ही कहिए है
तत्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन है, ताकी तौ प्रधानता नाहीं । आप जैसें अरहंत देव साधु गुरु दया धर्मकों निरूपै है, तिनका श्रद्धानकों सम्यग्दर्शन कहैं हैं । सो प्रथम तौ अरहंतादिकका स्वरूप अन्यथा कहैं । बहुरि इतने ही श्रद्धानतै तत्त्वश्रद्धान भए बिना सम्यक्त्व कैसें होय, तातै मिथ्या कहैं हैं । बहुरि तत्त्वनिकाश्रद्धानकों सम्यक्त्व कहैं हैं । प्रयोजनलिए तत्त्वनिको श्रद्धान नाहीं कहैं हैं । गुणस्थान मार्गणादिरूप जीवका, अणुस्कंधादिरूप जीवका, पुण्यपापके स्थाननिका, अविरतिआदि आश्रवनिका, व्रतादिरूप संवरका, तपश्चरणादिरूप निर्जराका, सिद्ध होनेके लिंगादिके भेदनिकरि मोक्षका स्वरूप जैसें उनके शास्त्रविषै कया है, तैसें सीख लीजिए । र केवलीका बचन प्रमाण है, ऐसें तत्त्वार्थश्रद्धानकरि सम्यक्त्व भया माने हैं । सो हम पूछें हैं, वेथिक जानेवाला द्रव्यलिंगी मुनिकै ऐसा श्रद्वान हो है कि नाहीं । जो हो है, तों वाक मिथ्यादृष्टी काहेकौं कहौ । अर न हो है, तो वानें तो जैनलिंग धर्मबुद्धिकर धारया है, ताकै देवादिकी प्रतीति कैसें नाहीं भई । प्रर वाकै बहुत शास्त्राभ्याप्त है, सो वान
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సంహారం చెందిందకందంబరందం నిరంతరం
जीवादिके भेद कैसे न जाने । अर अन्यमतका लवलेश भी अभिप्रायमें नाहीं ताकै अरहंतवचमकी कैसे प्रतीति नाहीं भई । तातै वाकै ऐसा श्रद्धान तौ होय, परन्तु सम्यक्त्व न भया । बहुरि नारकी भोगभूमियां तिर्यंचआदिकै ऐसा श्रद्धानहोनेका निमित्त नाहीं अर तिनकै बहुतकालपर्यंत सम्यक्त्व रहे है । ताते वाकै ऐसा श्रद्धान नाहीं हो है, तो भी सम्यक्त्व भया। सातै सम्यश्रद्धानका यह स्वरूप नाहीं । सांचा खरूप है, सो आगें वर्णन करेंगे, सो जानना । बहुरि जो उनके शास्त्रनिका अभ्यास करना, ताकौं सम्यग्ज्ञान कहै हैं । सो द्रव्यलिंगी मुनिकै शास्त्राभ्यास होते भी मिथ्याज्ञान कह्या। असंयत सम्यग्दृष्टीकै विषयादिरूप जानना ताकौं सम्य| ज्ञान कह्या। ताते यह स्वरूप नाही, सांचा स्वरूप आण कहेंगे सो जानना। बहुरि उनकरि निरूपित अणुव्रत महाव्रतादिरूप श्रावक यतीका धर्म धारनेकरि सम्यक्चारित्र भया मानै । सो प्रथम तौ व्रतादिका स्वरूप अन्यथा कहैं, सो किछु पूर्वं गुरुवर्णनविषै कह्या है । बहुरि द्रव्यलिगीकै महाव्रत होते भी सम्यक्चारित्र न हो है। अर उनका मतके अनुसारि गृहस्थादिककै महाव्रतआदि बिना अंगीकार किए भी सम्यक्चारित्र हो है, तातै यह स्वरूप नाहीं। सांचाखरूप अन्य है, सो आगे कहेंगे। यहां वह कहै हैं-द्रव्यलिंगीकै अंतरंगविर्षे पूर्वोक्त श्रद्धानादिक भए, सो वाह्य ही भए, ताते सम्यक्त्वादि न भए। ताका उत्तर-जो अंतरंग नाहीं अर बाह्य धारै, सो तौ कपटकरि धारै । सो वाकै कपट होय, तो ग्रैवेयिक कैसे जाय, नरकादि.
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मो.मा. प्रकाश विष जाय । बंध तो अंतरंग परिणामनितें होय है । सो अन्तरंग जिनधर्मरूप परिणाम
भए विना ग्रैवेयक जाना संभवैनाहीं । बहुरि व्रतादिरूप शुभोपयोगही | देवका बंध माने, अर याहीकों मोक्षमार्ग माने, सो बंधमार्ग मोक्षमार्गकों एक | किया, सो यह मिथ्या है। बहुरि व्यवहारधर्मविष अनेक विपरीति निरूपै हैं । |
निंदकौं मारने में पाप नाहीं, ऐसा कहै हैं। सो अन्यमती निंदक तीर्थंकरादिकके होते भी। । भए, तिनकों इन्द्रादिक मारे नाहीं । सो पाप न होता, तो इन्द्रादिक क्यों न मारं । बहुरि प्रति| माकै आभरणादि बनावै हैं, सो प्रतिबिंब तौ वीतरागभाव वधावनेकों कारण स्थापन किया था।
आभरणादि बनाए, अन्यमतकी मूर्तिवत् यह भी भए। इत्यादि कहां तांई कहिए, अनेक | अन्यथा निरूपण करै हैं । या प्रकारश्वेतांबरमत कल्पित जानना। यहां सम्यग्दर्शनका अन्यथा निरूपणते मिथ्यादर्शनादिकहीकौं पुष्टता हो है । ताते याका श्रद्धानादि न करना।
बहुरि इन श्वेतांबरनिविष ही ढूंढिया प्रगट भए हैं, ते आपों सांचे धर्मात्मा माने हैं, । सो भ्रम है । काहेत सो कहिए है,
केई तौ भेष धारि साधु कहावै हैं, सो उनके ग्रंथनिकै अनुसार भी ब्रत समिति गुप्तिआदिका साधन नाहीं भासै है। बहुरि मन बचन काय कृत कारित अनुमोदनाकरि सर्व सावद्ययोग त्याग करनेकी प्रतिज्ञा करें, पीछे पाल नाहीं। पालककों वा भोलाकौं वा शूद्रादिकको २४०
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मा० ही दीक्षा दें। सो ऐसे त्याग करें अर त्याग करते ही किछु विचार न करें, जो कहा त्याग
करो हो । पीछे पालें भी नाहीं अरं ताकौं सर्व साधु माने। बहुरि यह कहें,-पीछे धर्मबुद्धि | | होय जाय, तब तो याका भला हो है । सो पहले ही दीक्षा देनेवालेने प्रतिज्ञाभंग होती जाणि
प्रतिज्ञाभंग कराई, अर याने प्रतिज्ञा अंगीकारकरि भंग करी, सो यह पाप कौनकौं लाग्या ।। | पीछे धर्मात्मा होनेका निश्चय कहा। बहुरि जो साधुका धर्म अंगीकारकरि यथार्थ न पाले, | ताकौं साधु मानिए के न मानिए । जो मानिए, तो जे साधु मुनि नाम धरावै हैं, अर भ्रष्ट हैं, | तिन संबनिकों साधु मानौं। न मानिए, तौ इनकै साधुपना न रह्या । तुम जैसे आचरणतें साधु मानौ हौ, ताका भी पालना कोऊ विरला पाईए है। सबनिकों साधु काहेकौं मानौ हो यहां कोऊ कहें-हमतो जाकै यथार्थ आचरण देखेंगे, ताकौं साधु मानेंगे औरकों न मानेंगे। ताकौ पूछिए है—एकसंघविर्षे बहुत भेषी हैं। तहाँ जाकै यथार्थ आचरण मानौ हो, सो यह ||
औरनिकौं साधुमान है कि न माने है, जो माने है तो तुमतें भी अश्रद्धानी भया, ताकौं पूज्य कैसें मानौ हौं। अर न माने है, तो उनसेती साधुका व्यवहार काहेकौं वर्ते है। बहुरि आप तौ उनकों | साधु न मानें अर अपने संघविर्षे राखि औरनि पासि साधु मनाय औरनिकों अश्रद्धानी करे, || ऐसा कपट काहेकौं करै। बहुरि तुम जाकों साधु न मानोगे, तब अन्य जीवनिकौं भी ऐसा ||
ही उपदेश देवोगे इनकौं साधु मति मानौं, ऐसें धर्मपद्धतिविषै विरुद्ध होय । अर जाकों तुम
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मा.मा.|| साधु मानो हो, तिसतें भी तुम्हारा विरुद्ध भया । जाते वह वाकों साधु माने है। बहुरि तुम।
जाके यथार्थ आचरण मानौ हो, सो विचारकरि देखौ, वह भी यथार्थ मुनिधर्म नाहीं पाले | है। कोऊ कहे-अन्य भेषधारीनितें तौ घने आछे हैं-ताते हम मान हैं। सो अन्यमतीनिविषै तौ नानाप्रकार भेष संभवें, जातें तहां रागभावका निषेध नाहीं। इस जैनमतविषै तो
जैसा कह्या, तैसा ही भए साधु संज्ञा होय । यहां कोऊ कहै-शील संयमादि पाले हैं, तपश्च। रणादि करे हैं, सो जेता करें तितना ही भला है । ताका समाधान,--
यह सत्य है, धर्म थोरा भी पाल्याहुवा भला है। परन्तु प्रतिज्ञा तो बड़े धर्मकी करिए अर पालिए थोरा, तो तहां प्रतिज्ञाभंगते महापाप हो है। जैसें कोऊ उपवासकी प्रतिज्ञाकरि एक| बार भोजन करे, तो बहुतबार भोजनका संयम होते भी प्रतिज्ञाभंगतै पापी कहिए । तैसें मुनिधर्मकी प्रतिज्ञा करि कोई किंचित् धर्म न पाले, तौ वाकौं शीलसंयमादि होते भी पापी ही कहिए। अर जैसें एकंतकी ( एकासनकी ) प्रतिज्ञाकरि एकबार भोजन करें, तो धर्मात्मा ही है । तैसें अपना श्रावकपद धारि थोरा भी धर्म साधन कर, तौ धर्मात्मा ही है। यहां तो ऊंचा नाम धराय नीची क्रिया करनेते पापीपना संभव है। यथायोग्य नाम धराय धर्मक्रिया करतें तौ पापीपना होता नाहीं । जेता धर्म साधे, तेता ही भला है। यहां कोऊ कहै-पंचमकालका अंतपर्यंत चतुर्विधि संघका सद्भाव कह्या है । इनकौं साधु न मानिए, तो किसको मानिए।
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ताका उत्तर
जैसे इस कालविणे हंसका सद्भाव कह्या है अर गम्यक्षेत्रविष हंस नाहीं दीसे हैं, तो औरनिकों तौ हंस माने जाते नाही, हंसकासा लक्षणमिले ही हंस माने जाय। तैसें इस काल-11 | विषै साधुका सद्भाव है, अर गम्यक्षेत्रविष साधु न दीसे हैं, तो औरनिकों तो साधु माने जाते
नाहीं। साधुके लक्षणभिले ही साधु माने जाय । बहुरि इनका भी अबार थोरे ही क्षेत्रविणे । | सद्भाव दीसे है, तहांत परै क्षेत्रविर्षे साधुका सद्भाव कैसैं माने। जो लक्षण मिले मानौ, तो । यहां भी ऐसे ही मानौं । अर विनालक्ष्ण मिले ही मानों, तो तहां अन्य कुलिंगी हैं तिनहीकों || । साधु मानौ। ऐसें मानैः विपरीति होय, तातै बनें नाहीं। कोऊ कहै-इस पंचमकालमें है। ऐसें भी साधुपद हो है, तो ऐसा सिद्धांतका बचन बतावौ। बिना ही सिद्धांत तुम मानो हो, | तो पापी होवोगे। ऐसे अनेक युक्तिकरि इनकै साधुपना बनें नाहीं है। अर साधुपना बिना | साधु माने गुरु माने मिथ्यादर्शन हो है। जातें भले साधुकों ही गुरु मानें सम्यग्दर्शन हो है।
बहुरि श्रावकका धर्मकी अन्यथा प्रवृत्ति करावे हैं। त्रसकी हिंसा स्थूल मृषादि होते। भी जाका किछु प्रयोजन नाहीं, ऐसा किंचित् त्याग कराय वाकौं देशव्रती भया कहैं । सौ वे त्रसघातादि जामें होय ऐसा कार्य करें । सो देशव्रत गुणस्थानविषै तौ ग्यारह अविरित कहे हैं, | तहां त्रसघात कैसे संभवै । बहुरि ग्यारह प्रतिमाभेद श्रावकके हैं, तिनविष दशमी ग्यारमी।।
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प्रतिमाधारक श्रावक तो कोई होता नाहीं, अर साधु होय । पूर्छ, तब कहैं—पतिमाधारी श्रीप्रकाश
वक अवार होयं सकता नाहीं। सो।देखो, श्रावकधर्म तो कठिन अर मुनिधर्म सुगम ऐसा विरुद्ध भाषे हैं। बहुरि ग्यारमी प्रतिमाधारककै थोरा परिग्रह मुनिकै बहुतपरिग्रह बतावें, सो | संभवता बचन नाहीं। बहुरि कहैं, ए प्रतिमा तौ थोरे ही काल पालि छोड़ि दीजिए है । सो | कार्य उत्तम है, तो धर्मबुद्धि ऊंची क्रियाओं काहेकों छोर । अर नीचे कार्य हैं, तो काहेकौं ||
अंगीकार करै । यह संभव ही नाहीं। बहुरि क्रुदेव कुगुरुकों नमस्कारादि करते भी श्रावकपना । बतावै । कहें, धर्मबुद्धिकरि तो नाहीं बंद हैं, लौ किक व्यवहार है । सो सिद्धान्तविष तौ तिन
की प्रशंसा स्तवनकों भी सम्यक्त्वका अतिचार कहें अर गृहस्थनिका भला मनाव. के अर्थि । वन्दना करते भी किछु न कहें। बहुरि कहोंगे-भय लज्जा कुतुहलादिकरि बंदे हैं, तो इन | | कारणनिकरि कुशीलादि सेवतें भी पाप मति कहो। अंतरंगविणे पाप जान्या चाहिए। ऐसे
सर्व आचरनविर्षे विरुद्ध होगा। मिथ्यावसारिखे महापापकी प्रवृत्ति छुड़ावनें की तो मुख्यता | नाही, अर पवनकायकी हिंसा ठहराय उघारे मुख बोलना छुड़ावनेकी मुख्यता पाइए । सो क्रमभंग उपदेश है । बहुरि धर्मके अंग बहुत हैं, तिनविषै एक परजीवकी दया ताको मुख्य कहै हैं । ताका भी विवेक नाहीं। जलका छानना, अन्नका शोधना, सदोष वस्तुका भक्षण न करना हिंसादिकरूप व्यापार न करना, इत्यादि याके अंगनिकी तो मुख्यता नाहीं। बटुरि पाटीका २४४
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मो.मा'
बांधना, शौचादिक थोरा करना, इत्यादि कार्यनिकी मुख्यता करें हैं। सो मेलयुक्त पाटीके थूकप्रकाश
का संबन्धत जीव उपजें, तिनका तौ यत्न नाहीं अर पवनकी हिंसाका यल बतावें । सो नासि-|| | काकरि बहुत पवन निकसै, ताका तो यत्न करते ही नाहीं बहुरि जो उनके शास्त्रके अनुसारि | | बोलनेहीका यत्न किया, तो सर्वदा काहेकौं राखिए । बोलिए, तब यल कर लीजिये । बहुरि जो
कहें-भूलि जायं । तो इतनी भी याद न रहै, तो अन्य धर्मसाधन कैसे होगा । बहुरि शौचा- ||| | दिक थोरे करिए, सो संभवता शौच तो मुनि भी करै हैं। ताते गृहस्थकों अपने योग्य शौच | || करना । स्त्रीसंगमादिकरि शौच किए बिना सामायिकादि क्रियाकरनेते अविनय विक्षिप्तताधा|| दिकरि पाप उपजें। ऐसें जिनकी मुख्यता करें, तिनका भी ठिकाना नाहीं। अर केई दयाके I| अंग योग्य पाले हैं। हरितकायत्याग आदि करें, जल थोरा नाखें, इनका हम निषेध करते |
नाहीं । बहुरि इस अहिंसाका एकांत पकड़ि प्रतिमा चैत्यालयपूजनादि क्रियाका उत्थापन करै हैं। |
सो उनहीके शास्त्रानिविषै प्रतिमाआदिका निरूपण है, तार्को आग्रहकरि लोपै हैं। भगवनीसूत्र | विषै ऋद्धिंधारी मुनिका निरूपण है। तहां मेरुगिरिआदिविषे जाय “तत्थ चेययाई बंदई” ऐसा पाठ है। याका अर्थ यह-तहां चैत्यनिकों बंद है। सो चैत्य नाम प्रतिमाका प्रसिद्ध है। बहुरि वै हठकरि कहे हैं—चैत्य शब्दके ज्ञानादिक अनेक अर्थ निपजै हैं, सो अन्य अर्थ है प्रतिमाका अर्थ नाहीं। याकों पूछिए है—मेरुगिरि नंदीश्वरद्वीपविषे जाय तहां चैत्यबंदना करी, सो तहां ।। २४५
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मो०मा० प्रकाश
ज्ञानादिक की वंदना करनेका अर्थ कैसे संभवे । ज्ञानादिककों बंदना तो सवत्र संभवे । जो बंदने योग्य चैत्य तहां ही संभवै अर सर्वत्र न संभवै, ताक तहां बंदनाकरनेका विशेष संभव, सो ऐसा संभवता अर्थ प्रतिमा ही है। अर चैत्याशब्दका मुख्य अर्थ प्रतिमा ही है, सो प्रसिद्ध है। इस ही अर्थकार चैत्यालय नाम संभव है । याकौं हठकरि काहेकौं लोपिए । बहुरि नंदीश्वर द्वीपादिकविषै जाय, देवादिक पूजनादि क्रिया करे हैं, ताका व्याख्यान उनकै जहां-तहां पाईए है। बहुरि लोकविषै जहां-तहां अकृत्रिम प्रतिमाका निरूपण है । सो या रचना अनादि है । यह भोग कुतूहलादिककै अर्थ तो है नाहीं । भर इंद्रादिकनिके स्थाननिविषै निःप्रयोजन रचना संभव नाहीं । सो इंद्रादिक तिनकों देखि कहा करें हैं। कै तौ अपने मंदिरनिविषै निःप्रयोजन रचना देखि, उसतै उदासीन होते होंगे तहां दुःख होता होगा, सो संभवे नाहीं । के ठी रचना देखि विषय पोषते होंगे, सो अहंत मूर्तिकरि सम्यग्दृष्टी अपना विषय पोषै, यह भी संभव नाहीं । तातैं तहां तिनकी भक्त्यादिक ही करें हैं, यह ही संभव है । सो उनकै सूर्याभदेवका व्याख्यान है । तहां प्रतिमाजीके पूजनेका विशेष वर्णन किया है । यार्कों गोपनेके अर्थ कहे हैं, देवनिका ऐसा ही कर्त्तव्य है । सो सांच, परन्तु कर्त्तव्यका तौ फल होय ही होय । सो तहां धर्म हो है कि पाप हो है जो धर्म हो है, तौ अन्यत्र पाप होता था यहां धर्म भया । याकों औरनिकै सदृश कैसे कहिए। यह तौ योग्य कार्य भया । श्रर पाप हो है तौ तहां 'रामोत्थुणं' का पाठ पढ़ा,
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सो पापकै ठिकानें ऐसा पाठ काहेकों पढ़या । वहुरि एक विचार यहां यह आया, जो प्रकाश
णमोत्थुणं' के पाठविषै तो अरहंतकी भक्ति है । सो प्रतिमाजीकै आगें जाय यह पाठ पढ़या ताते प्रतिमाजीके आगे जो अरहंत भक्तिकी क्रिया है, सो करनी युक्त भई । बहुरि जो वह, | ऐसा कहै—देवनिकै ऐसा कार्य है मनुष्यनिकैनाहीं;जाते मनुष्यनिकै प्रतिमाआदि बनावनेविर्षे हिंसा होहै। तो उनहीके शास्त्रविषेऐसा कथन है, द्रोपदी राणीप्रतिमाजीका पूजनादिक जैसे सूर्याभदेव | किया, तैसे करते भई । तातें मनुष्यनिकै भी ऐसा कार्य कर्त्तव्य है। यहां एक यह विचार प्राया-चैत्यालय प्रतिमा बनावनेकी प्रवृत्ति न थी, तो द्रोपदी कैसे प्रतिमाका पूजन किया। बहुरि प्रवृत्ति थी,तो बनावनेवाले धर्मात्माथे कि पापी थे।जो धर्मात्मा थे तो गृहस्थनिकों ऐसा कार्य कराना
योग्य भया।अर पापी थे, तौ तहां भोगादिकका प्रयोजन तो था नाही, काहेकों बनाया। बहुरि द्रोपदी || तहां णमोत्युर्ण'का पाठ किया वा पूजनादि किया, सो कुतूहल किया कि धर्म किया। जो कुतू| हल किया, तौ महापापिनी भई । धर्मविणे कुतुहल कहा । अर धर्म किया, तो औरनिकों
भी प्रतिमाजीकी स्तुति पूजा करनी युक्त है । बहुरि वे ऐसी मिथ्यायुक्ति बनावै हैं जैसे इंद्रकी स्थापनाते इंद्रकी कार्यसिद्धि नाही,तैसें अरहंतप्रतिमाकरि कार्यसिद्धि नाहीं। सो अ
रहंत काहूकौं भक्त मानि भला करते होंय, तो ऐसे भी माने । सो तो वे भी वीतराग हैं। | यह जीव भक्तिरूप अपने भावनितें शुभफल पावै है । जैसें स्त्रीका आकाररूप काष्ठ पाषा
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प्रकाश
की मूर्ति देखि, तहां विकाररूप होय अनुराग करे, तो ताकै पापबंध होय । तैसें अरहंतका | आकाररूप धातु काष्ठ पाषाणकी मूर्ति देख, धर्म्म बुद्धित तहां अनुराग करे, तौ शुभकी प्राप्ति कैसें न होय । तहां वह कहै है, विनाप्रतिमा ही हम अरहंतविषैः अनुराग उपजावेंगे । तो उनकौं कहिए है -- आकार देखे जैसा भांव होय, तैसा परोक्ष स्मरण किएहोय नाहीं । याही तैं लोकविषै भी स्त्रीका अनुरागी स्त्रीका चित्र बनावै है । तातें प्रतिमाका अवलंबनकर विशेष भक्ति होनेते विशेष शुभकी प्राप्ति हो है । कोऊ कहै - प्रतिमाकों देखो, परंतु पूजनादिक करनेका कहा प्रयोजन है । ताका उत्तर, -
जैसे कोऊ किसी जीवका आकार बनाय, रुद्रभावनितें घात करें, तो वाकै उस जीवकी हिंसा किएकासा पाप लागे, वा कोऊ काहूका आकार बनाय द्वेषबुद्धितें वाकी बुरी अवस्था करें, तो जाका आकार बनाया, वाकी बुरी अवस्था किएकासा फल निपजै । तैसें अरहंतका | आकार बनाय रागबुद्धि पूजनादि करें, तो अरहंतके पूजनादि किएकासा शुभ फल निपजै । अतिअनुराग भए प्रत्यक्ष दर्शन न होतें आकार बनाय पूजनादि करिए है । इस धर्मानुराग तें महापुण्य उपजै है । बहुरि ऐसी कुतर्क करें हैं, – जो जाकै जिस वस्तुका त्याग होय, ताके आगे तिस वस्तुका धरना हास्य करना है । तातें बन्दनादिकरि अरहंतका पूजन युक्त माहीं । ताका समाधान,
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मुनिपद लेते ही सर्व परिग्रहका त्याग किया था, पीछे केवलज्ञान भए तीर्थंकरदेवकै मो.मा. प्रकाश
समवसरणादि बनाए, छत्र चामरादि किए, सो हास्य करी कि भक्ति करी । हास्य करी तो | | इंद्र महापापी भया, सो बनें नाहीं। भक्ति करि, तौ पूजनादिकवि भक्ति ही करिएहै । छमस्थ || | के आगे, त्याग करी वस्तुका धारना हास्य है । जाते वाकै विक्षिप्तता होय आये है। केवलीके|
वा प्रतिमाकै आगें अनुरागकरि उत्तम वस्तु धरनेका दोष नाहीं। उनकै विक्षिप्तता होती नाहीं । धर्मानुरागतें जीवका भला होय । बहुरि वह कहै हैं-प्रतिमा बनावनेविषे, चैत्यालयादि करा-|| 15 वनेविणे, पूजनादि करावनेविषै, पूजनादि करावनेवि हिंसा होय, अर धर्म अहिंसा है । तातें। हिंसाकरि धर्म माननेते महापाप हो है, तातें हम इन कार्यनिको निषेधे हैं। ताका उत्तरउनहीके शास्त्रवि ऐसा वचन है,___सुच्चा जाणइ कल्लाणं सुच्चा जाणइ पावर्ग।
उभयं पि जाणये सुच्चा जं सेयं तं समायर ॥१॥ यहां कल्याण पाप उभय ए तीन, शास्त्र सुनिकरि जाणे, ऐसा कह्या । सो उभय तौ । पाप अर कल्याण मिलें होय, ऐसा कार्यका भी होना ठहरया। तहां पूछिए है केवल धर्मत। तो उभय घाटि है ही, अर केवल पापतें उभय बुरा है कि भला है। जो बुरा है, तो यामें तो किछु कल्याणका अंश मिल्या, पापत बुरा कैसें कहिए । भला है, तो केवल पाप छोड़ि ऐसा ||
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मो.मा. प्रकाश कार्य करना ठहरया । बहुरि युक्तिकरि भी ऐसे ही संभव है। कोऊ त्यागी होय, मंदिरादिक
M नाहीं करावें है, वा सामायिकादि निरवद्य कार्यनिविर्षे प्रवर्ते है। ताों तो छोरि प्रतिमादि || || करावना पूजनादि करना उचित नाहीं। परन्तु कोई अपने रहनेकै वास्तै मंदिर आदि बनावै,।
तिसते तो चैत्यालयादि करावनेवाला हीन नाहीं। हिंसा तो भई, परंतु वाकै तौ लोभ पापानुरागकी वृद्धि भई, याकै लोभ छुट्या, धर्मानुराग भया। बहुरि कोई व्यापारादि कार्य करें, तिसते पूजनादि कार्य करना हीन नाहीं। वहां तो हिंसादि बहुत हो है, लोभादि बधै है, पापहीकी प्रवृत्ति है । यहां हिंसादिक भी किंचित् हो है, लोभादि घटै है, धर्मानुराग बधै है। ऐसे जे त्यागी न होय, अपने धनकों पापविर्षे खरचते होंय; तिनकों चैत्यालयादि करावना ।
अर निरवद्य सामायिकादि कार्यनिविणे उपयोगकों नाहीं लगाय सके, तिनकों पूजनादि करना | निषेध नाहीं । बहुरि तुम कहोगे, निरवद्य सामायिक कार्यही क्यों न करे, धर्मविर्षे काल गमावना तहां ऐसे कार्य काहेकौं करै । ताका उत्तर,
जो शरीरकरि पाप छोरें ही निरवद्यपना होय, तो ऐसे ही करें। सो तो है नाहीं । परिणामनिते' पाप छूटें निरवद्यपना हो है । सो विना अवलम्बन सामायिकादिविर्षे जाका परिणाम लागे नाहीं, सो पूजनादिकरि तहां उपयोग लगावें है। तहां नाना प्रकार आलम्बनकरि उपयोग लगि जाय है । जो तहां उपयोगकौं न लगाये, तो पापकार्यनिविष उपयोग भटकै तब बुरा होय।। २५०
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मो.मा.
प्रकाश
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तातें तहां प्रवृत्ति करनी युक्त है। बहुरि तुम कहो हो-धर्म के अर्थ हिंसा किए तो महा पाप हो है, अन्यत्र हिंसा किए थोरा पाप हो है, सो यह प्रथम तो सिद्धान्तका वचन नाहीं । अर युक्तिते भी मिले नाहीं । जातें ऐसें मानें इन्द्र जन्मकल्याणविषे बहुत जलकरि अभिषेक करै । है। समवसरणविषै देव पुष्पवृष्टि चमरढारना इत्यादि कार्य करै हैं, सो ये महापापी होंय । जो तुम कहोगे, उनका ऐसा ही व्यवहार है, तो क्रियाका फल तो भए विना रहता नाहीं । जो। पाप है, तो इंद्रादिक तो सम्यग्दृष्टी हैं, ऐसा कार्य काहेकों करें। अर धर्म है, तो काहेकौं । निषेध करो हो । बहुरि तुमकों ही पूछे हैं-तीर्थकर वंदनाकों राजादिक गए, वा साधुवंदनाकों दूरि जाईये है, सिद्धांत सुनने आदि कार्यनिकों गमनादि करिए है। तहां मार्गविषै हिंसा | भई । बहुरि साधी जिमाईये है, साधुका मरण भए ताका संस्कार करिए है, साधु होते। उत्सव करिए है, इत्यादि प्रवृत्ति अब भी दीसे है । सो यहां भी हिंसा हो है, सो ये कार्य तौ ।। धर्मही के अर्थ हैं अन्य कोई प्रयोजन नाहीं । जो यहां महापाप उपजे है, तो पूर्व ऐसे कार्य किए तिनिका निषेध करौ। अर अब भी गृहस्थ ऐसा कार्य करे हैं, तिनिका त्याग कहो।। बहुरि जो धर्म उपजै है, तो धर्म के अर्थि हिंसाविषे महापाप बताय, काहेको भ्रमावो हो। तातें ऐसैं मानना युक्त है। जैसें थोरा धन ठिगाए, बहुत धनका लाभ होय, तो वह कार्य | करना, तैसें थोरा हिंसादिक पाप भए बहुत धर्म निपजे, तो वह कार्य करना। जो थोरा
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मो.मा. प्रकाश
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धनका लोभकरि कार्य विगारे, तो मूर्ख है। तैसे थोरी हिंसाका भयतें बड़ा धर्म छोरे, तो पापी ही होय । बहुरि कोऊ बहुत धन ठिगावै, अर स्तोक धन निपजावै वा न उपजावै, तो वह मूर्ख है । तैसें बहुत हिंसादिककरि बहुत पाप उपजावै अर भक्ति आदि धर्मविर्षे स्तोक। प्रवर्ते वा न प्रवर्ते, तो वह पापी ही होय है । बहुरि जैसे विना ठिगाए ही धनका लाभ होते | ठिगावै, तो मूर्ख है । तैसें निरवय धर्मरूप उपयोग होते सावद्य धर्मविषै उपयोग लगावना है| युक्त नाहीं। ऐसे अनेक परिणामनिकरि अवस्था देखि भला होय, सौ करना। एकांतपक्ष
कार्यकारी नाहीं। बहुरि अहिंसा ही केवल धर्मका अंग नाहीं है। रागादिकनिका घटना |धर्मका मुख्य अंग है । तातें जैसैं परिणामनिवि रागादि घटे, सो कार्य करना ।
बहुरि गृहस्थनिकों अणुव्रतादिकका साधन भएविना ही सामायिक, पडिकमणो, पोसह आदि क्रियानिका मुख्य आचरन करावे हैं। सो सामायिक तौ गगद्वेषरहित साम्यभाव भए होय, पाठमात्र पढ़े वा उठना बैठना किए ही तो होता नाहीं। बहुरि कहोगे, अन्य कार्य करता, तातें तो भला है। सो सत्य, परन्तु सामायिकपाठविणे प्रतिज्ञा तौ ऐसी करे, जो मनवचनकायकरि सावद्यकों न करूंगा, न कराऊंगा अर मनविर्षे तो विकल्प हुवा ही करे। अर वचनकायविषे भी कदाचित् अन्यथा प्रवृत्ति होय, तहां प्रतिज्ञाभंग होय । सो प्रतिज्ञाभंग करने तें न करना भला । जाते प्रतिज्ञाभंगका महापाप है । बहुरि हम पूछे हैं---कोऊ प्रतिज्ञा भी
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मो.मा. प्रकाशन करे है, पर भाषापाठ पढ़े है। ताका अर्थ जानि तिसविषै उप्रयोग राखे है। भर कोऊ |
प्रतिज्ञा करे, ताकों तो नीकै पाले नाही, अर प्राकृतादिकका पाठ पढ़े, ताके अर्थका आपकौं ।
ज्ञान नहीं, विना अर्थ जाने तहां उपयोग रहे नाहीं, तब उपयोग अन्यत्र भटकै । ऐसें इन। HW दोऊनिविर्षे विशेष धर्मात्मा कौन । जो पहलेकौं कहोगे, तो ऐसा ही उपदेश क्यों न कीजिये।
| दूसरेको कहोगे, तो प्रतिज्ञाभंगका पाप न भया वा परिणामनिके अनुसार धर्मात्मापना ना । ठहरथा । पाठादिकरनेके अनुसार ठहत्या। तातें अपना उपयोग जैसे निर्मल होय, सो कार्य करना । सधै सो प्रतिज्ञा करनी । जाका अर्थ जानिए, सो पाठ पढ़ना। पद्धतिकरि नाम || धरावनेमें नफा नाहीं। बहुरि पडिकमणो नाम पूर्वदोष निराकरण करने का है। सो 'मिच्छामि | दुकडं इतना कहे ही तो दुष्कृत मिथ्या न होय; मिथ्या होने योग्य परिणाम भए दुष्कृत मिथ्या होय । तातें पाठ ही कार्यकारी नाहीं । बहुरि पडिकमणाका पाठविणे ऐसा अर्थ है, जो बारह व्रतादिकवि जो दुष्कृत लाग्यो होय, सो मिथ्या होय । सो प्रतधारे विनाही तिनका पडिकमणा करना कैसे संभवे । जाकै उपवास न होय, सो उपवासविर्षे लाग्या दोषका निराकरणपना करे, तो असंभवपना होय । तातें यह पाठ पढ़ना कौईप्रकार घने नाहीं। बहुरि । पोसहविष भी सामायिकवत् प्रतिज्ञाकरि नाहीं पाले हैं। तात पूर्वोक्त ही दोष है । बहुरि । पोसह नाम तो पर्वका है । सो पर्वके दिन भी केतायक कालपर्यंत पापक्रिया करे, पीछे पोस
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रोमा. काश
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हधारी होय । सो जेते काल बनें, तेते काल साधन करनेका तौ दोष नाहीं। परंतु पोसहका नाम करिए, सो युक्त नाहीं। संपूर्ण पर्ववियु निरवध रहें ही पोसह होय । जो थोरा भी कालतें पोसह नाम होय, तो सामायिककों भी पोसह कही, नाहीं, शास्त्रविषे प्रमाण बतावो। | जो जघन्य पोसहका इतना काल है, सो बड़ा नाम धराय लोगनिकों भ्रमावना, यह प्रयोजन | भासै है । बहुरि आखड़ी लेनेका पाठ तो और पढ़े, अंगीकार और करै । सो पाठविर्षे तौ। | “मेरै त्याग हैं ऐसा वचन हैं, तातें जो त्याग करै सो ही पाठ पढ़े, यह चाहिए । जो पाठ न आवै, तो भाषाहीतें कहै। परन्तु पद्धतिकै अर्थ यह रीति है। बहुरि प्रतिज्ञा ग्रहण करने करावनेकी मुख्यता है, अर यथाविधि पालनेकी शिथिलता है, भावनिर्मल होनेका विवेक नाहीं। आर्तपरिणामनिकरि वा लोभादिककरि भी उपवासादिक करे, तहां धर्म माने । सो फल तौ परिणामनिते हो है । इत्यादि भनेक कल्पित बातें कहे हैं, सो जैनधर्मविष संभवै नाही। | ऐसें यह जेनविर्षे श्वेतांबरमत है, सो भी देवादिकका वा तत्वनिका वा मोक्षमार्गादिकका | अन्यथा निरूपण करै है। तातें मिथ्यादर्शनादिकका पोषक है, सो त्याज्य है । सांचा जिन-11 धर्मका स्वरूप आगें कहें हैं। ताकरि मोक्षमार्गविषे प्रवर्त्तना योग्य है। तहां प्रवर्ते तुम्हारा | कल्याण होगा। इति श्रीमोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्रवि अन्यमतनिरूपक ...
पांचा अधिकार समाप्त भया ॥५॥
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मिथ्या देवादिक भजे, हो है मिथ्याभाव । तज तिनकों सांचे भजौ, यह हितहेत उपाव ॥ १ ॥
कहीं तौ मोक्षका प्रयोजन है । सो ये प्रयोजन तौ सिद्ध होंय
अर्थ — अनादितैं जीवनिकै मिथ्यादर्शनादिक भाव पाइये है, तिनकी पुष्टताको कारण कुदेव कुगुरु कुधर्म्म सेवन है । ताकात्याग भए मोक्षमार्गविषै प्रवृत्ति होय । तातें इनका निरूपण कीजिए है। तहां जे हितका कर्त्ता नाहीं भर तिनकौं भ्रमतै हितका कर्त्ता जानि सेवे, सो कुदेव है । तिनका सेवन तीनप्रकार प्रयोजनलिए करिए है । कहीं परलोकका प्रयोजन है । कहीं इसलोकका प्रयोजन है । नाहीं । किछू विशेषहानि होय । तातें तिनका सेवन मिथ्याभाव है । सो ही दिखाईये हैअन्यमतविषै जिनके सेवनतें मुक्ति होनी कही है, तिनकों केई जीव मोचकै अर्थ सेवन करें हैं, सो मोच होय नाहीं । तिनका वर्णन पूर्वै अन्यमत अधिकारविषै कला ही है । बहुरि अन्यमतविषै कहे देव, तिनकौं केई परलोकविषै सुख होय दुःख न होय, ऐसे प्रयोजन लिए सेव हैं । सो ऐसी सिधि तौ पुण्य उपजाए अर पाप न उपजाए हो है । सो आप तों पाप
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उपजावे है, अर कहै ईश्वर हमारा भला करेगा। तो तहां अन्याय ठहरथा। काहूकौं पापका प्रकाश
फल दे, काहूको न दे, ऐसा तो है नाहीं। जैसा अपना परिणाम करेगा, तैसा ही फल पावैगा । काहूका बुरा भला करनेवाला ईश्वर है नाहीं। बहुरि तिन देवनिका सेवन करते तिन देवनिका तो नाम करें, अर अन्य जीवनिकी हिंसा करें, वा भोजन नृत्यादिककरि अपनी इंद्रियनिका विषय पोषे, सो पापपरिणामनिकां फल तौलागे विना रहनेका नाहीं । हिंसा विषय कषायनिकौं सर्व पाप कहै हैं । अर पापका फल भी खोटा ही सर्व माने हैं । बहुरि कुदेवनका सेवनविणे हिंसा विषयादिकहीका अधिकार है । ताते कुदेवनके सेवन” परलोकविषै भला न हो है । बहुरि घने जीव इस पर्यायसम्बन्धी शत्रुनाशादिक वा रोगादि मिटावना धनादिककी प्राप्ति वा पुत्रादिककी प्राप्ति इत्यादि दुःख मेटनेका वा सुख पावनेका अनेक प्रयोजन लिए । कुदेवनिका सेवन करै हैं । बहुरि हनुमानादिकौं पूजे हैं। बहुरि देवीनिकों पूजे हैं। बहुरि । गणगौर सांझी आदि वनाय पूजे हैं। चौथि शीतला दिहाड़ी आदिौं पूजे हैं। बहुरि अऊत पितर व्यंतरादिकौं पूजे हैं। बहुरि सूर्य चंद्रमा शनैश्चरादि ज्योतिषीनिकों पूजे हैं। बहुरि । पीर पैगंबरादिकनिकों पूजे हैं । बहुरि गऊ घोटकादि तिर्यंचनिकों पूजे हैं। अग्नि जलादिकको । पूजे हैं। शास्त्रादिकों पूजे हैं। बहुत कहा कहिए, रोड़ी इत्यादिककों भी पूजे हैं। सो ऐसे || । कुदेवनिका सेवन मिथ्यादृष्टिते हो है। काहेत, प्रथम तो जाका सेवन करें, सो केई तो
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मो.मा.
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कल्पनामात्र ही देव हैं। सो तिनिका सेवन कार्यकारी केसें होय । बहरि केई व्यंतरादिक , | सो ए काहूका भला बुरा करनेकौं समर्थ नाहीं । जो वै ही समर्थ होय, तो वे ही कर्ता ठहरें।।
सो तो उनका किया किछू होता दीसता नाहीं। प्रसन्न होय, धनादिक देय सकें नाहीं। | द्वेषी होय बुरा कर सकते नाहीं । इहां कोऊ कहै--दुःन तो देते देखिए है, मानेते दुःख देते |
रहि जाय हैं । साका उत्तर,___ या पापका उदय होय, तब ऐसी ही उनके कुतूहल बुधि होय ताकरि चेष्टा करें।। चेष्टा करतें यह दुःखी होय । बहुरि कुतूहलते वै किछ कहें अर यह उनका कह्या न करे, तत्र यह चेष्टा करनेते रहि जाय । बहुरि याकों शिथिल जानि कुतूहल किया करें । बहुरि । जो याकै पुण्यका उदय होय, तो किछू कर सकते नाहीं। सो दिखाइये है-कोऊ जीव | उनकों पूजे नाही वा उनकी निंदा करे, तो वै भी उसते द्वेष करें। परन्तु ताकों दुःख देइ । सकें नाहीं । वा ऐसे भी कहते देखिए है, जो हमकों फलाना माने नाहीं, सो उसते हमारा
वश नाहीं । ताते व्यंतरादिक किछू करणेकों समर्थ नाहीं । याका पुण्यपापही दुःख हो है। । उनके माने पूजे उलटा रोग लागे है । किछू कार्यसिद्धि नाहीं। बहुरि ऐसा जानना-जे क-14 Iल्पित देव हैं, तिनका भी कहीं अतिशय चमत्कार होता देखिए है, सो ध्यंतरादिककरि क्रिया
हो है। कोई पूर्व पर्यायविषे इनका सेवक था, पीछे मरि व्यंतरादि भया, तहां ही कोई निमित!
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ते ऐसी बुद्धि भई, तब वह लोकविषै तिनिके सेवने की प्रवृत्ति करावनेके अर्थि कोई चम|त्कार देखि तिस कार्यविर्षे लग जाय है । जैसे जिन प्रतिमादिकका भी अतिशय होता सुनिए | वा देखिए है । सो जिनकृत नाहीं जैनी व्यंतरादिकृत हो है । तैसें कुदेवनिका कोई चमत्कार | होय, सो उनके अनुचरि व्यंतरादिकनिकरि किया हो है। बहुरि अन्यमतविषै भक्तनिकी स-1
हाय परमेश्वर करी वा प्रत्यक्ष दर्शन दिए इत्यादि कहे हैं। तहांकोई तो कल्पित बातें कहै हैं।। । कोई उनके अनुचर व्यंतरादिककरि किए कार्यनिकों परमेश्वरके किए कहै हैं । जो परमेश्वरके ।
किए होंय, तो परमेश्वर तो त्रिकालज्ञ है । सर्व प्रकार समर्थ है। भक्तों दुःख कायेकों होने || है दे। बहुरि अब हू भी देखिए है । म्लेच्छ आय भक्तनकों उपद्रव करै हैं, धर्मविध्वंस करै हैं, | मूर्तिको विघ्न करे हैं, सो परमेश्वरकों ऐसे कार्यका ज्ञान न होय, तो सर्वज्ञपनों रहे नाहीं। जाने पीछे सहाय न करे, तो भक्तवत्सलता गई वा सामर्थ्यहीन भया। बहुरि साक्षीभूत रहै | है, तो आगे भक्तनकी सहाय करी कहिए है सो झूठ है । उनकी तो एकसी वृत्ति है । बहुरि ।
जो कहोगे वैसी भक्ति नाहीं है । तो म्लेच्छनितें तो भले हैं, वा मूर्तिआदि तो उनहींकी। । स्थापन थी, तिनका विघ्न तो न होने देना था । बहुरि म्लेच्छपापीनिका उदय हो है, सो पर| मेश्वरका किया है कि नाहीं । जो परमेश्वरका किया है, तो निंदकनिकों सुखी करे, भक्तनकों दुःखी करे, तहां भक्तवत्सलपना कैसे रहा। अर परमेश्वरका किया न हो है, तो परमेश्वर ||२५८
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मो.मा. प्रकारा
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सामर्थ्यहीन भया । तातै परमेश्वरकृत कार्य नाहीं। कोई अनुचर व्यंतरादिक ही चमत्कार दिखावे है। ऐसा ही निश्चय करना । बहुरि कोऊ पूछ कि, कोई व्यंतर अपना प्रभुत्त्व कहै, वा अप्रत्यक्षकों बताय दे, कोऊ कुस्थानवासादिक वताय अपनी हीनता कहै, पूछिए सो न बतावै, भ्रमरूपवचन कहै वा औरनिकों अन्यथा परिणमावै, औरनिकों दुःख दे, इत्यादि विचि-1 त्रता फैरों है, ताका उत्तर___व्यंतरनिविर्षे प्रभुत्वकी अधिकता हीनता तो है, परन्तु जो कुस्थानविषै वासादिक बताय || का हीनता दिखावै है सो तो कुतूहलते वचन कहै है । व्यंतर बालकवत् कुतूहल किया करै । सो।
जैसे बालक कुतूहलकरि आपको हीन दिखावे,चिड़ावे,गाली सुनें,बार पाडे, (ऊंचे स्वरसे रोवे) पीछे ।। हंसने लगिजाय,तैसेंही ब्यंतर चेष्टा करै हैं।जो कुस्थानहीके वासी होय,तो उत्तमस्थानविणे आवे हैं | तहां कोंनके ल्याए आवे हैं। आपहीत आवे हैं, तो अपनी शक्ति होते कुस्थानविष काहेकों रहें । तातें इनका ठिकाना तो जहां उपजै हैं, तहां इस पृथ्वीके नीचे वा ऊपरि है सो मनोज्ञ है। कुतूहलके लिए चाहै सो कहे हैं। बहुरि जो उनकों पीड़ा होती होय, तो रोवते रोवते हँसने कैसे लगि जाय । इतना है, मंत्रादिककी अचिंत्यशक्ति है, सो कोई सांचा मंत्रके निमित्त नैमिचिक संबन्ध होय, तौ वाकै किंचित् गमनादि न होय सकै वा किंचित् दुःख उपजै वा केई प्रबल वाकौं मनें करे, तब रहि जाय । वा आप ही रहि जाय । इत्यादि मंत्रकी शक्ति है।
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परन्तु जस्तावना आदि न हो है। मंत्रवाला जलाया कहै । सो विक्रियक शरीरका जलावना आदि संभवे नाहीं । अप्रगट हो जाय सके है । बहुरि व्यंतरनिकै अवधिज्ञानं काढूकै स्तोकं चेत्रकाल जाननेका है, काहूकै बहुत है। तहां वाकै इच्छा होय अर आपके बहुत ज्ञान होय तो | अप्रत्यक्षको पूछे ताका उत्तर दे, वा आपके स्तोकज्ञान होय तो अन्य महत्ज्ञानीक पूछि आयकरि जुवाब दे । बहुरि आपके स्तोक ज्ञान होय वा इच्छा न होय, सौ पूछे ताका उत्तर न दे, ऐसा जानना । बहुरि स्तोकज्ञानवाला व्यंतरादिककै उपजता केतेक काल ही पूर्व जन्मका ज्ञान होय सकै, पीछे स्मरण मात्र रहे है । तातें तहां कोई इच्छाकर आप किछू चेष्टा करे तो करै । बहुरि पूर्व जन्मकी बातें कहै । कोऊ अन्य वार्ता पूछे, तौ अवधि तौ थोरा, विनाजाने कैसें कहै । बहुरि तोका उत्तर भाप न देय सकै, वा इच्छा न होय, तहां मान कुतूहलादिकतै उत्तर न दे, वा मूंठ बोले । ऐसा जानना । घहुरि देवनिमें ऐसी शक्ति है, जो अपने वा अन्य के शरीरकों या पुद्गलस्कंधकों इच्छा होय तैसें परिणमावे। तातैं नाना प्रकारादिरूप प्राप होय, वा अन्य नानाचरित्र दिखावे । बहुरि अन्य जीवके शरीरकों रोगादियुक्त करें । यहां इतना है—अपने शरीरकों वा अन्य पुद्गलस्कंधनिकों तौ जेती शक्ति होय तितनें ही परिणामाय सके । जातें सर्व कार्य करनेकी शक्ति नाहीं । बहुरि अन्य जीवनिके शरीरादिककों वाका पुण्य पापके अनुसार परिणमाय सकें । वाके पुण्यउदय होय, तो आप रोगादिरूप न परिणमाय
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सकै । पर पापउदय होय, तौ वाका इष्टकार्य न करि सके । ऐसें त्र्यंतरादिकनिकी शक्ति जा| ननी | यहां कोऊ कहै— इतनी जिनकी शक्ति पाईए तिनके मानने पूजनेमें दोष कहा, ताका
उत्तर -
आपके पापउदय होते सुख न देय सके, पुण्यउदय होते दुःख न देय सकै, वा तिनके पूजने कोई पुण्यबंध होय नाहीं, रागादिककी वृद्धि होते पाप ही होय है । तातै तिनिका मानना पूजना कार्यकारी नाहीं - बुरा करनेवाला है । बहुरि व्यंतरादिक मनावे हैं, पुजावे हैं, सो कुतूहलादिक करें हैं, किछू विशेष प्रयोजन नाहीं राखे हैं। जो उनको माने पूजे, तिससेती कुतूहल किया करें। जो न मानें पूजे तासु किछु न कहें। जो उनके प्रयोजन ही होय, तौ न मानने पूजनेवालेक घना दुःखी करें। सो सौ जिनके न मानने पूजनेका अवगाढ़ है, तिनिकों किछू भी कहते दीसते नाहीं । बहुरिं प्रयोजन सौ खुधादिककी पीड़ा होय तौ होय, सो उनके व्यक्त होय नाह । जो होय, तौ उनके अर्थ नैवेद्यादिक दीजिए है ताकों ग्रहण क्यों न करें, वा औरनिके जिमावने श्रादि करनेहीकों काहेकों कहें। तातै । उनके कुतूहलमात्र क्रिया है । सो आपकों उनके कुतूहलका ठिकाना भए दुःख होय, हीनता होय तातैं उनको मानना पूजना योग्य नाहीं । बहुरि कोऊ पूछे कि व्यंतर ऐसें कहै हैं - गया आदि पिंडप्रदान करो, तौ हमारी गति होय, हम बहुरि न झावें, सो कहा है। ताका उत्तर
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जीवनिके पूर्वभवका संस्कार तौ रहै ही है । व्यंतरनि पूर्वभवका स्मरणादिकतै विशेष संस्कार है । तातै पूर्वभवविष ऐसी ही वासना थी, जो गयादिकविषै पिंडप्रदानादि किए गति हो है। ताते ऐसे कार्य करनेकौं कहें हैं। मुसलमानादि मरि व्यंतर हो हैं, ते ऐसें कहै | नाहीं। वे अपने संस्काररूप ही वचन कहैं । तातै सर्व व्यंतरनिकी गति तैसें ही होती होय, | तो सब ही समान प्रार्थना करें। सो है नाहीं, ऐसा जानना। ऐसे व्यंतरादिकनिका खरूप जानना।
यहुरि सूर्य चंद्रमा ग्रहादिक ज्योतिषी हैं, तिनकों पूजे हैं सो भी भ्रम है। सूर्यादिकको भी परमेश्वरका अंश मानि पूजे हैं। सो वाकै तो एक प्रकाशका ही आधिक्य भासै है । सो प्रकाशमान् अन्य रत्नादिक भी हो हैं । अन्य कोई ऐसा लक्षण नाहीं, जाते वाकों परमेश्वरका अंश मानिए । बहुरि चंद्रमादिककों धनादिककी प्राप्तिके अर्थ पूजे हैं। सो उसके पूजने ही धन होता होय, तो सर्वदरिद्री इस कार्यकों करें। तातै ए मिथ्याभाव है। बहुरि ज्योतिषके विचारते खोटे ग्रहादिक आए, तिनिका पूजनादि करै हैं, ताकै अर्थ |दानादिक दे हैं। सो जैसे हिरणादिक खयमेव गमनादि करें हैं, पुरुषकै दाहिणे वावें आए सुख दुःख होनेका आगानी ज्ञानको कारण हो हैं; किछू सुख दुख देनेकों समर्थ नाहीं । तैसें ग्रहादिक खयमेव गमनादि करे हैं। प्राणीके यथासंभव योगको प्राप्त होते सुख दुख होनेका आगामी ज्ञानकों का
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रण हो हैं। किछू सुखदुख देनेकों समर्थ नाहीं । कोऊतो उनका पूजनादिकरें, ताकैभी इष्ट न होय, कोऊ न करै, ताके भी इष्ट होय । तातै तिनिका पूजनादि करना मिथ्याभाव है । यहां कोऊ कहे दे तो पुण्य हैं, सो भला ही है। ताका उत्तर,
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देना पुण्य है । यह तो दुःखका भयकरि वा सुखका लोभकरि दे है, सो पाप ही है । इत्यादि अनेकप्रकार करि ज्योतिषी देवनिकों पूजे हैं, सो मिथ्या है । बहुरि देवी दिहाड़ी आदि हैं, ते केई तो व्यंतरी वा ज्योतिषिणी हैं, तिनका त्वरूप मानि पूजनादि करें हैं। केई कल्पित हैं, सो तिनकी कल्पनाकरि पूजनादि करें हैं । | ऐसे व्यंतरादिकके पूजनेका निषेध किया। यहां कोऊ कहै - क्षेत्रपाल दिहाड़ी पद्मावती आदि | देवी पक्ष यक्षिणी आदि जे जिनमतकों अनुसरे हैं, तिनके पूजनादि करनेमें तौ दोष नाहीं ।
ताका उत्तर-
1
जनमत संयम धारे पूज्यपनौ हो है । सो देवनिकै संयम होता ही नाहीं । बहुरि इन सम्यक् मान पूजिए है, तो भवनत्रिक में सम्यक्त्वकी भी मुख्यता नाहीं । जो सम्यक्वकर ही पूजिए, तौ सर्वार्थसिद्धिके देव लौकांतिकदेव तिनकौं ही क्यों न पूजिए । बहुरि कहोगे -- इनके जिनभक्ति विशेष है । तो भक्तिकी विशेषता भी सौधर्म इंद्रकै है, वा सम्यदृष्टी भी है । वाक छोरि इनकों काहेकों पूजिए । बहुरि जो कहोगे, जैसे राजाकै प्रतीहारा
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मोमादिक है, तैसें तीर्थकरके क्षेत्रपालादिक हैं। सो समवसरणादिविर्षे इनका अधिकार नाहीं । यह प्रकाशझठी मानि है । घरि जैसे प्रतीहारादिकका मिलाया राजासों मिलिए, तैसें ये तीर्थकरकों
मिलावते नाहीं । वहां तो नाके भक्ति होय, सो ही तीर्थकरका दर्शनादिक करो । किछु किसी के भाधीन नाहीं । बहुरि देखो अज्ञानता, भायुधादिक लिए रौद्रखरूप जिनका तिनकी माय
गाय भक्ति करें । सो जिनमतविर्षे भीरौद्ररूप पूज्य भया, तो यह भी अन्यमतकै ही समान । । भया। तीव्र मिथ्यावभावकरि जिनमतविर्षे ऐसी विपरीत प्रवृत्तिका मानना हो है । ऐसें क्षेत्रपालादिकको भी पूजना योग्य नाहीं।।
बहुरि गऊ सर्पादि तिथंच हैं, ते प्रत्यक्ष ही भापते हीन भासे हैं। इनका तिरस्कारादिक करि सकिए है। इनकी निंद्यदशा प्रत्यक्ष देखिये है। बहुरि वृक्ष अग्नि जलादिक स्थावर हैं, ते तिर्यचनिहते अत्यन्त हीनअवस्थाको प्राप्त देखिये है । बहुरि शस्त्र दवात आदि भचेतन हैं, सो सर्वशक्तिकरि हीन प्रत्यक्ष देखिए है ! पूज्यपनेका उपचार भी संभवै नाहीं। तातें इनका पूजना महा मिथ्याभाव है । इनकों पूजे प्रत्यक्ष वा अनुमानकरि भी किछू फलप्राप्ति नाही भासे है। ताते इनकों पूजना योग्य नाहीं । या प्रकार सर्व ही कुदेवनिका पूजना मानना मिथ्या है । देखे मिथ्यालकी महिमा, लोकविषापते नीयेकौं नमतें आपकौं | निंद्य माने, भर मोहित होय रोडीपर्यंतकों पूजना भी निंद्य न माने। बहुरि लोकविषे तौ
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खाते प्रयोजन सिद्ध होता जाने, ताहीकी सेवा करें । अर मोहित होय कुदेवनितें मेरा प्रयो-|| मो.मा: प्रकाशन
अन कैसे सिद्ध होगा, ऐसा बिना विचारे ही कुदेवनिका सेवन करें । बहुरि कुदेवनिका सेवन । करते हजारों विघ्न होय, साकों तो गिने नाहीं । कोई पुण्यके उदयतें इष्टकार्य होय जाय, 1 साकों कहें, इसके सेवनतें यह कार्य भया। बहुरि कुदेवादिकका सेवन किए बिना जे इष्ट ।।
कार्य होय, तिनकों तो गिनें नाहीं, पर कोई अनिष्ट होय, ताकौ कहें, याका सेवन न किया, । साते अनिष्ट मया । इतना नाही विचारें हैं, जो इनहीकै आधीन इष्ट-अनिष्ट करना होय, तो।
जे पूजै तिनकै इष्ट होय, न पू. तिनकै अनिष्ट होय । सो तो दीसता नाहीं। जैसैं काहूकै शीतलाकों बहुत माने भी पुत्रादि मरते देखिये है । काहूकै बिना माने भी जीवते देखिये है।। सातें शीतलाका मानना किछु कार्यकारी नाहीं। ऐसे ही सर्व कुदेवनिका मानना किछु कार्यकारी नाहीं । इहां कोऊ कहे-कार्यकारी नाही, तो मति होछु, तिनके माननेते किछू बिमार
भी होता नाहीं । ताका उत्तर,॥ जो बिगार म होय, तो हम काहेकों निषेध करें । परन्तु एक तो मिथ्यात्वादि रद होने
ते मोक्षका मार्ग दुर्लभ होय जाय है । सो यह घड़ा बिगार है। बहुरि इमतें पापबंध हो है, । अर पापबंध होनेते आगामी दुःख पाइये है, यह विगार है । यहां पूछे-मिथ्यात्वादिभाव तो।
मतत्वाधानाठि भए होय हैं। पार पापबन्ध खोटे कार्य लिये होय है, सो तिनके माननेते।।२६५
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मिथ्यात्वादि कैसे होय । ताका उत्तर,
प्रथम तो परद्रव्यनिकों इष्ट अनिष्ट मानना ही मिथ्या है । जाते कोऊ द्रव्य काडूका मित्र शत्रु है नाहीं । बहुरि जो इष्ट अनिष्ट बुद्धि पाईने है, सो ताका कारण पुण्य पाप है । तातें जैसे पुण्यबन्ध होय, पापबंध न होय, सो करें । बहुरि जो पुण्यउदयका भी निश्चय न होय, केवल इष्ट अनिष्टके बाह्य कारण तिनके संयोग वा वियोगका उपाय करें । सो सौ कुदेव के मानने इष्ट अनिष्ट बुद्धि वृरि होती नाहीं । केवल वृद्धिकों प्राप्त हो है । बहुरि पुण्यबन्ध भी नाहीं होता, पापबंध हो है । बहुरि कुदेव काहूकों धनादिक देते खोसते देखे नाहीं । एं बाह्य कारण भी नाहीं । इनका मानना किस छार्थ कीजिए है । जब अत्यन्त मबुद्धि होय, जीवादिक सत्त्वनिका श्रद्धान ज्ञानका अंश भी न होय, झर रागद्वेषकी यति तीव्रता होय, तव जे कारण नाहीं तिनकों भी इष्ट अनिष्टका कारण माने । तब कुदेवनिका मानना हो है । ऐसें तीव्र मिथ्यात्वादि भए मोक्षमार्ग अति दुर्लभ हो है । श्रागें कुगुरुके भवानादिककौं निषेधिए है,
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tate faresपायादि रूप तो परिणमें मर मानादिकतें आपकों धर्मात्मा मनावें, धम्मात्मा योग्य नमस्कारादि क्रिया करावें, अथवा किंचित् धर्म्मका कोई अंग धारि षड़े धर्मात्मा कुहावें, बड़े धर्मात्मायोग्य क्रिया करावें, ऐसें धर्म्मका आश्रयकरि आपकों बड़ा मना
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, ते सर्व कुगुरु जानने । जाते धनपद्धतिविषे तो विषयकषायादि छूटें जैसा धर्मको धारे । प्रकाश
। तैसा ही अपना पद मानना योग्य है । तहां कोई तो कुलकरि आपको गुरु माने है । तिनविषे ।
केई ब्राहाणादिक तो कहे हैं, हमारा कुल ही ऊँचा है, ताते हम सर्व कुल के गुरु हैं । सो उस कुलकी उच्चता तो धर्मसाधनतें है । जो उच्चकुलविणे उपजि हीन आचरण करें, तो वाकों उच्च कैसे मानिए। जो कुलविष उपजनेही उच्चपना रहै, तो मांसभक्षणादि किए भी वाकी उच्च
हो मानौ । सो बनै नाहीं । भारतविष भी अनेक प्रकार ब्राह्मण कहे हैं। तहां “जो ब्राह्मण - होय चांडालकार्य करें, ताकौं चांडाल ब्राह्मण कहिए" ऐसा कहा है। सो कुलहीते उच्चपना || होय, तो ऐसी हीनसंज्ञा काहेकौं दई है। बहुरि वैष्णवशास्त्रनिविर्षे ऐसा भी कहै हैं-वेदव्या-1 सादिक मछली आदिकते उपजे । तहां कुलका अनुक्रम कैसे रया । धनुरि मूल उत्पत्ति तो ब्रह्मातें कहे हैं। तातै सर्वका एक कुल है, भिन्नकुल कैसे रह्या । बहुरि उच्चकुलकी स्त्रीके नीचकुलके पुरुषते अर नीचकुलकी स्त्रीकै उच्चकुलके पुरुषते संगम होते संतति होती देखिए है। तहां कुलका प्रमाण कैसे रह्या । जो कदाचित् कहोगे, ऐसें है, तो उच्च नीचकुलका विभाग काहेकों मानो हो । सो लौकिक कार्यविषै तो असत्य भी प्रवर्ति संभवै, धर्मकार्यविर्ष तो प्रसत्यता संभवे नाहीं । लाते धर्मपद्धतिविष कुलअपेक्षा महंत्रपना नाहीं संभवे है । धर्मसापानही महंतपना होय । ब्राह्मणादि कुलनिविणे महंतता है, सो धर्म प्रवृत्तिते है । सो धन
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की प्रवृत्तिको छोरि हिंसादिक पापप्रवृत्तिविषै प्रवर्तें महंतपना कैसे रहे । बहुरि कई ३ हैं जो हमारे बड़े भक्त भए हैं, वा सिद्ध भए हैं, वार्नामा भए हैं । हम उनकी संततिविषे हैं, ताते | हम गुरु हैं । सो उन घड़ेनिके बड़े तो ऐसे थे नाहीं । तिनकी संततिविषै उत्तमकार्य किए उत्तम मानो हो, तौ उत्तमपुरुषको संततिविषे जो उत्तमकार्य न करें, ताक उचम काहेकौं मानो हो । बहुरि शास्त्रनिविषै वा लोकविषे यह प्रसिदुध है। पिता शुभकार्यकरि उच्चपदको पावै, पुत्र अशुभ कार्यकरि नीचपदकों पाये । वा पिता शुभकार्यकरि नीचपदकों पावे, पुत्र शुभकार्य करि उच्चपदकों पायें । तातें बड़ेनिकी अपेक्षा महंत मानना योग्य नाहीं । ऐसें कुलकरि गुरुपना मानना मिथ्याभाव जानना । बहुरि केई पट्टकरि गुरुपनों मानें हैं। खो कोई पूर्व महंतपुरुष भया होय, ताकै पाटि जे शिष्य प्रतिशिष्य होते भाए, तहां तिनविषै तिस महंतपुरुषकैसे गुण न होय, तौ भी गुरुपों मानिए, सो ऐसें ही होय सौ उस पाटविषै कोई परस्त्रीगमनादि महापापकार्य करेगा, सो भी धर्मात्मा होमा, सुमतिकों प्राप्त होगा, सो संभवे नाहीं । श्रर वह महापापी है, तौ पाटका अधिकार कहां रह्या । जो गुरुपदयोग्य कार्य करे, सो ही गुरु है । बहुरि केई. पहेलें तो स्त्री आदिके त्यागी थे, पीछे भ्रष्ट होय विवाहादि कार्यकरि गृहस्थ भए, तिनकी संतति आपको गुरु माने है । सो भ्रष्ट भए पीछे गुरुपना कैसें रह्या । अर गृहस्थवत् ए भी भए । इतना विशेष भया, जो ए भ्रष्ट हाय गृहस्य भए । इनिकों मूल गृहस्थधर्मी गुरु कैसें मानें।
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श्री. मह
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बहुरि कई अन्य तो सर्व पापकार्य करें, एक स्त्रा पर नाहीं, इस ही अंगकरि गुरुपो हैं। सो एक भब्रह्म ही तौ पाप नाहीं, हिंसा परिग्रहादिक भी पाप हैं, तिनकौं करते धर्मात्मा गुरु कैसें मानिए। बहुरि षह धर्म्मबुद्धितें विवाहादिकका त्यागी नाहीं भया है। कोई आ| जीविका वा खज्जा आदि प्रयोजनकों लिए विवाह न करे है । जो धर्म्मबुद्धिहोती, तो हिंसादिककौं काहेक वधःवता । बहुरि जाकै धर्म्मबुद्धि नाहीं, तार्के शीलकी भी दृढ़ता रहै नहीं । धर विवाह करें नाहीं, तब परस्त्रीगमनादि महापापकों उपजावै । ऐसी क्रिया होतें गुरुपना मानना महाभ्रमबुद्धि है । बहुरि केई काढू प्रकारका भेषधारनेते गुरुपनौ माने हैं । सो भेष धारें कौन धर्म्म भया, जातै धर्मात्मा गुरु मानें। तहां केई टोपी दे हैं, केई गूदरी राखे हैं, केई चोला पहरें हैं, केई चादर ओढ़े हैं, केई लालवस्त्र राखें हैं, केई स्वेतवस्त्र राखे हैं, केई भगवां राखे हैं, केई टाट पहरे हैं, केई सृगछाला पहरें हैं, केई राख लगावे हैं, इत्यादि केई स्वांग बनावें हैं । सो जो शीत उष्णादिक सहे न जाते थे, लज्जा न छुटै थी, तो पाग, जामा इत्यादि प्रवृत्तिरूप वस्त्रादिकका त्याग काहेकों किया । उनकों छोरि ऐसे स्वांग बनावने में कौन धर्मका अंग भया । गृहस्थानिक ठिगनेकै अर्थ ऐसे भेष जानने । 'जो गृहस्थसारिसा | अपना स्वांग राखे, तो गृहस्थ कैसें ठिगावै । पर इनकों उनकरि आजीविका वा धनादिकका या मानादिकका प्रयोजन साधना, तातै तेसा स्वांग बनावे हैं । जगत भोला तिस स्वांगकों
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देखि ठिगाधे, अर धर्म भया माने, सो यह भ्रम है । सोई कह्या है,
. जह कुवि स्तारत्तोमुसिज्जमाणो विमएणए हरिसं ।
.' वह मिच्छवेसमुहिया गयं पिण मुणंति धम्मणिहिं ॥१॥ ___ याका अर्थ-जैसे कोई वेश्यासक पुरुष धनादिककों मुसावता हुवा भी हष माने है, तैसें मिथ्याभेषकरि ठिगे गए जीन ते नष्ट होता धर्म धनकों नाहीं जाने हैं। भावार्थ, यह मिथ्याभेष वाले जीवनिकी शुश्रूषा आदितें अपना धर्म धन नष्ट होय, ताका विषाद नाहीं, मिथ्याबुझधिते हर्ष करे हैं। तहां केई तो मिथ्या शास्त्रनिविष भेष निरूपण किए हैं, तिनको धारें हैं । सो उन शास्त्रनिका करणहारा पापी सुगनक्रियाते उच्चपद प्ररूपणते मेरी मानि हो । हो है, या अन्य जीव इस मार्गविषे बहुत लागें, इस अभिप्रायतें मिथ्याउपदेश दिया। ताकी परंपराकरि विचाररहित जे जीव ते इतना तो विचारें नाहीं, जो सुगमकियाते उच्चपद होना बताये हैं, सो यहां किछू दगा है। भर भ्रमकरि तिनका कह्या मार्गविषे प्रवत्र्ते हैं । बहुरि केई। शास्त्रनिविषै तो मार्म कठिन निरूपण किया, सो तो सधे नाही, अर अपना ऊँचा नाम ध.. राए बिना लोक माने नाहीं, इस अभिप्रायते यति मुनि प्राचार्य उपाध्याय साधु भट्टारक । सन्यासी योगी तपस्वी नग्न इत्यादि नाम तो ऊंचा धरावे हैं, अर इनिका माचरनिकों नाहीं
साधि सके हैं, ताते इच्छानुसार नानाभेष बनाये हैं। बहुरि केई अपनी इच्छा अनुसार ही
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मो.मा. प्रकाश
तो नवीन नाम धरावे हैं,अर इच्छा अनुसार ही भेष बनावे हैं । ऐसें अनेक भेष धारनेते गुरुपनो माने हैं, सो यह मिथ्या है। इहां कोऊ पूछे भेष तो बहुत प्रकारके दीसे, तिनविषे । सांचे झूठे भेषको फेस पहचान होय । ताका समाधान,
जिन भेषनिविपे विषयकषायका किछु खगाव नाही, ते भेष सांचे हैं। सो सांचे भेष तीन प्रकार है, अन्य सर्व भेष मिथ्या हैं । सो ही षट्पाहुउविषै कुन्दकुन्दाचार्यकरि कहा है--
__एगं जिणस्त स्वं विदियं उक्विट्ठावयाणं सतु।
___ अबरट्ठियाण तिदयं चउद्धं पुण लिंग दंसणे णस्थि ॥१॥ ___ याका अर्थ-एक तो जिनका स्वरूप निर्मय दिगंबर मुनिर्सिम, अर दूसरा उत्कृष्ट भाव
कनिका रूप दसई म्यारई प्रतिमाका धारक भावकका लिंग, भर तीसरा आर्यिकानिका रूप MB यह स्त्रीनिका लिंग, ऐसे ए तीन लिंग तो श्रद्धानपूर्वक हैं। बहुरि चोथा लिंम सम्यग्दर्शन-1
स्वरूप नाहीं है । भावार्थ, यह इन तीनलिंग विना अन्यलिंगों माने, सो प्रधानी नाही, मिथ्यादृष्टी हैं। बहुरि इन भेषनिवि केई भेषी अपने भेषकी प्रतीति करावनेके अर्थि किंचित् || धर्मका अंगकौं भी पाले हैं। जैसें खोटा रुपैया चलावनेवाला तिसविर्षे किछु रूपाका भी अंश । राखे है, सैसें धर्मका कोऊ अंग दिखाय अपना उच्चपद मनावे हैं। इहां कोऊ कहे-धर्म || साधन किया, ताका तो फल होगा । ताका उत्तर
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जैसे उपवासका नाम धराय कणमात्रका भी भक्षण करे, तो पापी है। अर एकंतका ( एकासनका ) नाम धराय किंचित् ऊन भोजन करे, तो भी धर्मात्मा है । तैसें उच्चपदवी | का नाम धराय तामें किंचित् भी अन्यथा प्रवर्चे तो महापापी है। ,अर नीची पदवीका नाम धराय, किछू भी धर्म साधन करे, तो धर्मात्मा है । तातें धर्मसाधन तो जेता घनै, सेता कीजिए । यामें किछु दोष नाहीं । परन्तु ऊँचा धर्मात्मा नाम धराय नीची क्रिया किए महापापी ही हो है । सोई षट्पाहड़विष कुन्दकुन्दाचार्यकरि कहा है
जह मायरूबसरिसो तिलतुसमिचं ण गहदि भत्थेसु ।
जइ लेइ अप्प बहुलय तत्तो पुण जाइ णिग्गोयं ॥१॥ ___ याका अर्थ-मुनिपद है, सो यथाजातरूप सदृश है । जैसा जन्म होते था, तैसा नग्न है। सो वह मुनि अर्थ जे धन वस्त्रादिक वस्तु तिनविषे तिलतुषमात्र भी ग्रहण न करै । ब। हुरि कदाचित् अल्प पा पहुस्व प्रहै, तो तिसतें निगोद जाय । सो देखो, गृहस्थपनेमें बहुत परिग्रह राखि किछु प्रमाण करे, तो भी स्वर्गमोक्षका अधिकारी हो है पर मुनिपनेमें किंचित् परिग्रह अंगीकार किए भी निगोद जानेवासा हो है। तावे ऊँचा नाम धराय नीची प्रवृत्ति युक्त नाहीं । देखो, टुंडावसर्पिणी कालविषे यह कलिकाल प्रपत्रे है। ताका दोषकरि जिन- २७२ मतविर्षे भी मुनिका स्वरूप तो ऐसा जैसा पाय अभ्यन्तर परिमहकायाय नाही, केवल अपने
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मो.मा. आत्माकों आपो अनुभक्ते शुभाशुभभावनितें उदासीन हो है । अर अब विषय कषायाशक्त ।। प्रकाशजीव मुनिपद धारें, तहां सर्वसावधका त्यागी होय पंच महाव्रतादि अंगीकार करें। बहुरि स्वेत ।
रक्तादि वस्त्रनिको ग्रहें, वा भोजनादिवि लोलुपी होय, वा अपनी अपनी पद्धति बधावनेकों उद्यमी होय, वा केई धनादिक भी राखें, वा हिंसादिक करें, नाना प्रारम्भ करें। सो स्तोक।
परिग्रह ग्रहणेका फल निगोद कह्या है, तो ऐसे पापनिका फलतौ अनन्तसंसार होय ही होय। । बहुरि लोकनिकी अज्ञानता देखो, कोई एक छोटी प्रतिज्ञा भंग करें, ताकों तो पापी कहें, अर
ऐसी घड़ी प्रतिज्ञा भंग करते देखें, तिनकों गुरु मानें, मुनिवत् तिनका सन्मानादि करें । सो || शास्त्रविष कृतकारित अनुमोदनाका फल कह्या है । तातै वैसा ही फल इनकों भी लागे हैं। मुनिपद लेनेका तो क्रम यह है-पहलें तत्वज्ञान होय, पीछे उदासीन परिणाम होय, परिषहादि सहनेकी शक्ति होय, तब वह स्वयमेव मुनि भया चाहे । तब श्रीगुरु मुनिधर्म अंगीकार करावें । यह कौन विपरीत जे तत्त्वज्ञानरहित विषयकषायास जीव तिनकों मायाकरि वा।। लोभ दिखाय मुनिपद देना,पीछे अन्यथा प्रवृत्ति करावनी;सो यह बड़ा अन्याय है । ऐसें कुगुरु का वा तिनके सेवनका निषेध किया । अब इस कथनके दृढ़करनेकों शास्त्रनिकी साक्षी दीजिए है । तहां उपदेशसिद्धांतरत्नमालाविषै ऐसा कया है,--
गुरुणो भट्टा जाया सदे थुणिऊलिति दाणाई ।
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दोषणवि अनुणिअसारा दूसमिसनयम्मि बुड्दति ॥१॥ कालदोषते गुरु जे हैं, ते भाट भए । भाटवत् शब्दकरि दातारकीस्तुतिफरिकै दानादि प्रहै हैं । सो इस दुखमा कालविर्षे दातार वा पात्र दोक ही संसारविर्षे डूबे हैं। बहुरि तहां ।।। कह्या है,
सप्पे दिठे णासइ लोओ णहि कोवि किंपि अनेई ।
जो चयइ कुगुरु सप्पं हा मूढा भणइ तं दुढें ॥२॥ ___सर्पकों देखि कोई भागे, ताकी तो लोक किछु भी कहै नाहीं । हाय हाय देखो, जो कुगुरुसर्पको छोरे, ताहि मूढ़ दुष्ट कहें, बुरा बोलें।
सप्पो इक्कं मरणं कुगुरु अर्थताइ देइ मरणाई।
तो वर सप्पं गहियं मा कुगुरुसेवणं भव ॥ १॥ अहो सर्पकरि तो एक ही बार मरण होय पर कुसुरु अनंतमरण दे है, अनन्तदार जन्म । मरण करावे है। ताते हे भद्र, सांपका ग्रहण तो भला अर कुगुरुका ग्रहण मला नाहीं । व. हुरि संघपष्टविर्षे ऐसा कह्या है,
सुरक्षामः किल कोोप रंकशिशुकः प्रयुज्य चैत्ये कचित् कृत्वा किंच व पक्षमक्षतकलिः प्राप्तस्तदाचार्यकम् ।
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मो.मर भकाश
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चित्रं चेत्यगृहे गृहीयति निजे गच्छे कुटुम्बीयति
स्वं शक्रीयति बालिशीयति बुधान् विश्वं वराकीयति ॥ याका अर्थ--देखो क्षुधाकरि कृश कोई रंकका पालक सो कहीं चैत्यालयादिविष दीक्षा धारि कोई पक्षकरि पापरहित न होतासंता प्राचार्यपदों प्राप्त भया। बहुरि वह चैत्यालयविर्षे || अपने गृहवत् प्रपर्से हैं, निजगच्छविणे कुटुम्बवत् प्रवर्ते है, आपकों इंद्रबत् महान् मान है, ज्ञानीनिकौं बालकवत अज्ञानी माने है, सर्वगृहस्थनिकों रंकवत् माने है । सो यह बड़ा आश्चर्य भया है । वहुरि 'परहिउ न च वर्द्धितो न च न च क्रीतो' इत्यादि काव्य है। जिनकरि जन्म भया नाहीं, बध्या थोरा पोल लिया नाही, देणदार भया नाही, इत्यादि कोई प्रकार सम्बन्ध नाहीं, अर गृहस्थाने मनगभवत् बहावै, जोरावरी दानादिक ले, सो हाय हाय यह जगत् राजाकरि रहित है । केणियाय पूछनेवाला नाहीं। यहां कोऊ कहै, ए तो श्वेताम्बरविरचित | उपदेश है तिनको साक्षी काहेकों दई । ताका उत्तर
जैसें नीचापुरुष जाका निषेध करे, ताका उत्तमपुरुषके तो सहज ही निषेध किया । जैसे जिनके वस्त्रादि उपकरण कहे, वे हू जाकरि निषेध करें, तो दिगम्बरधर्मविषै तो ऐसी विप-1 रीतिका सहज ही निषेध भया । बहुरि दिगम्बरग्रंथनिविषे भी इस श्रद्धानके पोषक वचन हैं। तहां श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकृत षटाविव ( दर्शनपाहुड़में ) ऐसा कहा है,
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दसणसूलो धम्मो उवइट्ठ जिणवरेहिं सिस्साणं ।
तं सोऊण सकरणे दसणहीणो ण वंदिव्यो ॥२॥ जिनवरकरि सम्यग्दर्शन है मूल जाका ऐसा धर्म उपदेश्या है। ताकी सुनकरि हे कर्णसहित हो, यह मानौ-सम्यक्त्वरहित जीव बंदनेयोग्य नाहीं । जे आप कुगुरु ते कुगुरुका श्रद्धानसहित सम्यकी कैसे होय । विना सम्यक्त अन्य धर्म भी न होय। धर्म विना बंदनेयोग्य केसे होय । बरि
जे नाई भाभट्टा णाणे भट्टा चरित्तभट्टाय ।
पर्दो मा भट्टा सेसंपि जणं विणासंति ॥८॥ जे दर्शनविकार हैं, ज्ञानविर्षे भ्रष्ट हैं, चारित्रभ्रष्ट हैं, ते जीव भ्रष्टतै भ्रष्ट हैं। और भी जीव जो उनका उपदेश मानें हैं, तिन जीवनिका नाश करें हैं-बुरा करे हैं। बहुरि
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जे दंसणेसु महा पाए पाडंति दसणधराणं ।
ते इंति लुल्लमूया वोही पुण दुल्लहा तेसि ॥१२॥ जे श्राप तो सम्यक्तते भ्रष्ट हैं, अर सम्यक्तधारकनिकों अपने पगां पड़ाया चाहै हैं, ते | लले गंगे हो हैं वा स्थावर हो हैं । बहुरि तिनकै बोधकी प्राप्ति महादुर्लभ हो है।
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मा.मा. प्रकाश
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जेवि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जगारवभएण ।
तेसिपि णत्थि वोही पावं अणुमोयमाणाणं ॥१३॥ जो जाणता हुवा भी लज्जागारव भयकरि तिनकै पगों पड़े हैं, तिनकै भी बोधी जो स-1 म्यक्त सो नाहीं है । कैसे हैं ए जीव, पापकी अनुमोदना करते हैं। पापीनिका सन्मानादि किए। तिस पापकी अनुमोदनाका फल लागे है । बहुरि ( सूत्रपाहुड़में ) कहै हैं,
जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवद लिंगस्स।
सो गरहिउ जिणवयणे परिंगहरहिमओ णिरायारो ॥१६॥ जिस लिंगकै थोरा वा बहुत परिग्रहका अंगीकार होय, सो जिनवचनविषै निदायोग्य है। परियहरहित ही अनगार हो है । बहुरि (भावपाहुड़में ) कहै हैं
धम्मम्मि णिप्पिवासो दोसावासो य इखुफुल्लसमो।
णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण ॥७१॥ जो धर्मविष निरुद्यमी है, दोषनिका घर है, इक्षुफूल समान निष्फल है, गुणका आच रणकरि रहित है, सो नग्नरूपकरि नट श्रमण है । भांडवत् भेषधारी है । सो नग्न भए भांड। का दृष्टांत संभव है । परिग्रह राखें, तो यह भी दृष्टांत बने नाहीं।
बहुरिमोदपाहुड़में कहा है
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जे पावमोहियमई लिंगं धतण जिणवरिंदाणं ।
पावं कुणंति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ॥७८॥ पापकरि मोहित भई है बुद्धि जिनकी ऐसे जे जीव जिनवरनिका लिंग धारि पाप करें हैं, ते पापमूर्ति मोक्षमार्गवि भ्रष्ट जानने । बहुरि ऐसा कहा है
जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला।
आधाकम्मम्मिरया ते चत्ता मोक्नमग्गम्मि ॥७॥ जे पंचप्रकार वस्त्रविर्षे प्रासक्त , परिग्रहके ग्रहणहारे हैं, याचनासहित हैं, अधःकर्म आदि दोपनिविषै रत हैं, ते मोक्षमार्गविषै भ्रष्ट जानने । षड्डरि कुन्दकुन्दाचार्यकृत लिंगपाहुड़ है, ताविषे मुनिलिंगधारि जो हिंसा प्रारम्भ यंत्रमंत्रादि करें हैं, ताका निषेध बहुत किया है। बहुरि गुणभद्राचार्यकृतात्मानुशासनविर्षे ऐसा कह्या है,- .
इतस्ततश्च प्रस्यन्तो विभावा यथा मृगाः ।
वनाद्वसन्त्युपग्राम कलौ कष्टं तपस्विनः ॥१७॥ कलिकालविषै तपस्वी मृगवतू इधर उधरतै भयवान् होय वनते नगरकै समीप बसे हैं, । यह महाखेदकारी कार्य भया है। यहां नगरसमीप ही रहना निषेध्या, तो नगरविषै रहना तो । निषिद्ध भया ही।
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वरं माहर्त्यमेवाद्य सपसो माविजन्मनः ।
सुस्त्रीकटाचलुण्टाकलुप्तवैराग्यसम्पदः ॥२०॥
प्रबार होनहार है अनन्तसंसार जाते ऐसे तपते गृहस्थपना ही भला है । कैसा है वह || तप प्रभात ही स्त्रीनिके कटाक्षरूपी लुटेरेनिकरि लूटी है वैराग्य संपदा जाकी ऐसा है । बहुरि | | योगीन्द्रदेवकृत परमात्माप्रकाराविर्षे ऐसा कहा है
दोहा। चिल्ला चिल्ली पुत्थयहि, तूसइ मृढ़ णिभंतु।
एयहिं लज्जइ णाणियउ, बंधहहेउ मुणंतु ॥ २१४ ॥
चेला चेली पुस्तकनिकरि मूढ़ संतुष्ट हो है । भ्रांतिरहित ऐसे ही है । बहुरि ज्ञानी इनको | बंधका कारण जानता संता इनकरि लज्जायमान हो है।
केशवि अप्पा वंचियउ, सिर लुञ्चिवि छारेण ।
सयलवि संग त परिहरिय, जिणवरलिंगधरेण ॥२१६॥ किसी जीवकरि अपना प्रात्मा ठिग्या । सो कौन, जिह जीव जिनवरका लिंम धारया अ रावकरि माथाका लोचकरि समस्तपरिग्रह छांड्या नाहीं।
जे जिलिंग धरेवि मुणि इट्ठपरिग्गह लिंति ।
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छदिकरेवि णु तेवि जिय, सो पुण छददि गिलन्ति ॥२१७॥ ____ हे जीव ! जे मुनि लिंगधारि इष्ट परिग्रहको ग्रहें हैं, ते छर्दि करि तिस ही छर्दिकू बहुरि भले हैं। भावार्थ यह निंदनीय है । इत्यादि तहां कहै हैं। ऐसे शास्त्रनिविष कुगुरूका वा तिनके आचरनका वा तिनकी सुश्रूषाका निषेध किया है, सो जानना। बहुरि जहां मुनिकै धात्रीदूतादि छीयालीस दोष आहारादिविषे कहे हैं, तहां गृहस्थनिके बालकनिकों प्रसन्न क
रना, समाचार कहना, मंत्र औषधि ज्योतिपादि कार्य घतावना इत्यादि, बहुरि किया कराया है। अनुमोद्या भोजन लेना इत्यादि क्रियाका निषेध किया है । सो अब कालदोषते इनही दोष
निकों लगाय आहारादि ग्रहै हैं । बहुरि पार्श्वस्थ कुशीलादि भ्रष्टाचारीमुनिनिका निषेध किया है, तिनहीका लक्षणनिकों धरै हैं। इतना विशेष-वे द्रव्यां तो नग्न रहे हैं, ए नानापरिग्रह राखे हैं । बहुरि तहां मुनिनिकै भ्रमरी आदि आहार लेनेकी विधि कही है। ए आसक्त होय। दातारके प्राण पीडि माहारादि प्रहै हैं । बहुरि गृहस्थधर्मविर्षे भी उचित नाही वा अन्याय लोकनिंद्य पापरूप कार्य तिनकं करते देखिए है। बहुरि जिनबिम्ब शास्त्रादिक सर्वोत्कृष्ट पूज्य तिनका तो अविनय करें हैं । बहुरि श्राप तिनसे भी महंतता राखि ऊचा बैठना आदि प्रवतिको धारे हैं । इत्यादि अनेक विपरीतिता प्रत्यक्ष भासै अर आपको मुनि माने, मूषगुणादिकके धारक कहावें । ऐसें ही अपनी महिमा करावें । बहुरि गृहस्थ भोले उनकरि प्रशंसादिक
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मो.मा. प्रकाश
करि ठिगे हुए धर्मका विचार करें नाहीं। उनकी भक्तिविष तत्पर हो हैं। सो बड़े पापकों बड़ा धर्म मानना, इस मिथ्यात्वका फल कैसे अनन्तसंसार न होय । एक जिनवचनकों अ-1 न्यथा माने महापापी होना, शास्त्रविषे कहा है। यहां तो जिनवचनकी किछु बात राखी ही। | नाहीं । इस समान और पाप कौन है। अब यहां कुयुक्तिकरि जे तिन कुगुरुनिका स्थापन है। | करे हैं, तिनका निराकरण कीजिए है। तहां वह कहै हैं, गुरूविना तो निगुरा होय, अर वैसे || | गुरु प्रवार दीसे नाहीं । ताते इनहीकों गुरु मानना । ताका उत्तर,
निगुरा तौ वाका नाम है, जो गुरु माने ही नाहीं । बहुरि जो गुरुको तो मान अर इस || क्षेत्रविषे गुरुका लक्षण नादेखि काहूकों गुरु न माने, तो इस श्रद्धानते तो निगुरा होता नाहीं।। । जैसें नास्तिक्य तो वाका नाम है, जो परमेश्वरकों माने ही नाही। (बहुरि जो परमेश्वरकों तो मानै अर इस क्षेत्रवि परमेश्वरका लक्षण न देखि. काहूको परमेश्वर न माने, तौ नास्तिक्य। होता नाहीं । तैले ही यह जानना । बहुरि वह कहै हैं, जैनशास्त्रनिविषे अबार केवलीका तौ । अभाव कया है, मुनिका तो अभाव कया नाहीं । ताका उत्तर,
ऐसा तो कह्या नाहीं, इन देशनिवि सद्भाव रहेगा । भरत क्षत्रिय कहै हैं, सो भरतबत्र तो बहुत बड़ा है । कहीं सद्भाव होगा, तातै अभाव न कया है । जो तुम रहो हो, जिसही क्षेत्रविष सद्भाव मानोगे, तो.जहां ऐसे भी मुनि न पावोगे, तहां जावोगे तब किसकों
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II गुरु मानोगे । जैसे हंसनिका सद्भाव अवार कहा है भर हंस दीसते नाही, तो और पक्षीनिकों ।। काश || तो हंसपना मान्या जाता नाहीं । तैसें मुनिनिका सद्भाव अबार कह्या है। अर मुनि दीसते |
नाहीं, तो औरनिकों तो मुनि मान्या जाय नाहीं । बहुरि वह कहै हैं, एक अक्षरका दाताकों ।। गुरु माने हैं। जे शास्त्र सिखावें वा सुनावें, तिनकौं गुरु कैसे न मानिए, ताका उत्तर,
गुरु नाम बड़ेका है । सो जिस प्रकारकी महंतता जाकै संभवै, तिस प्रकार ताकौं गुरु| संज्ञा संभवे । जैसें कुल अपेक्षा मातापिताकौं गुरुसंज्ञा है, तैसें ही विद्या पढ़ावनेवालेकों विद्या
अपेक्षा गुरुसंज्ञा है । यहां तो धर्मका अधिकार है। तातें जाकै धर्मअपेक्षा महंतता संभवे, ।। | सो ही गुरु जानना । सो धर्म नाम चारित्रका है । 'चारित्तं खलु धम्मो' ऐसा शास्त्रविर्षे कह्या ।। है । तातें चारित्रका धारकहीकों गुरुसंज्ञा है। बहुरि जैसे भूतादिकका नाम भी देव है, तथापि यहां देवका श्रद्धानविर्षे अरहंतदेवहीका ग्रहण है । तैसें औरनिका भी नाम गुरु है, तथापि
श्रद्धानविषे निर्मथहीका ग्रहण है । सो जिनधर्मविर्षे अरहंत देव निरग्रंथ गुरु ऐसा प्रसिद्ध| वचन है। यहां प्रश्न-जो निग्रंथविना और गुरु न मानिए, सो कारण कहा। ताका उत्तर
निग्रंथविना अन्य जीव सर्वप्रकारकरि महंतता नाही धरै हैं । जैसें लोभी शास्त्रव्याख्यान | । करे, तहां वह वाकौं शास्त्र सुनावनेंतें महंत भया । वह वाकों धनवस्त्रादि देनेते महंत भया । । यद्यपि वाह्य शास्त्र सुनाधनेवाला महंत रहै, तथापि अंतरंग लोभी होय, सो दाताको उच्च माने।
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मोमा प्रकाश अर दातार लोभीकों नीचा माने, ताते वाकै सर्वथा महंतता न भई । यहां कोऊ कहै, निग्रंथ
भी तो आहार ले हे ताका उत्तर
लोभी होय दातारकी सुश्रूषाकरि दीनताते आहार न ले है । तातें महंतता घटै नाहीं । जो लोभी होय, सो ही हीनता पावै है। ऐसे ही अन्य जीव जानने। तातें निग्रंध ही सर्वप्रकार महंततायुक्त हैं। बहुरि निग्रंथविना अन्य जीव सर्वप्रकार गुणवान् नाहीं। ताते गुण
निकी अपेक्षा महन्तता अर दोषनिकी अपेक्षा हीनता भासे, तब निःशंक स्तुति करी जाय। IM नाहीं। बहुरि निग्रंथविना अन्य जीव जैसा धर्म साधन करें, तैसा वा तिसते अधिका गृह
स्थ भी धर्मसाधन करि सके । तहां गुरुसंज्ञा किसकों होय । तातें बाह्यअभ्यन्तरपरिग्रहरहित निपँथमुनि हैं, सो ही गुरु हैं। यहां कोऊ कहै, ऐसे गुरु तो अवार यहां नाही, तातै जैसे | अरहन्तकी स्थापना प्रतिमा है, तैसें गुरुनिकी स्थापना ए भेषधारी हैं-ताका उत्तर
जैसे राजाकी स्थापना चित्रामादिककरि किए तो प्रतिपक्षी नाहीं। भर कोई सामान्य || मनुष्य आपकौं राजा मनावै, तो तिसका प्रतिपक्षी हो है । तैसें अरहंतादिककी पाषाणादि। विषे स्थापना बनावे, तो तिनका प्रतिपक्षी नाहीं अर कोई सामान्य मनुष्य आपकों मुनि मनावै, तो वह मुनिनिका प्रतिपक्षी भया । ऐसे ही स्थापना होती होय, तो अरहंत भी आपकों | मनायो । बहुरि उनकी स्थापना होय, तो बाह्य तो ऐसे ही भए चाहिये। वे निग्रंथ ए बहुत
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काश
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| परिग्रहके धारी, यह कैसे बनें। बहुरि कोई कहै-अब श्रावक भी तो जैसे संभवें, तैसे नाहीं । ताते' जैसे श्रावक तैसें मुनि । तोका उत्तर
श्रावकसंज्ञा तो शास्त्रविषै सर्वगृहस्थ जैनीकों है । श्रेणिक भी असंयमी था, ताको उत्तर| पुराणविष श्रावकोप्तम कह्या। बारह सभाविषेश्रावक कहे, तहां सर्व व्रतधारी न थे। जो सर्व
व्रतधारी होते, तो असंवत मनुष्यनिकी जुदी संख्या कहते, सो कही नाहीं। तातै गृहस्थ जैनी || ॥ श्रावकनाम पावे हैं । अर मुनिसंज्ञा तो निग्रंथ विना कहीं कही नाहीं । बहुरि श्रावकके तो आठ
मूलगुण कहे हैं । सो मद्य मांस मधु पंचउदंबरादि फलनिका भक्षण श्रावकनिक है नाहीं, तात।। काहू प्रकारकरि श्रावकपना तो संभवै भी है । अर मुनिके अट्ठाईस मूलगुण हैं, सो भेषीनिकै | | दीसते ही नाहीं । तातें मुनिपनी काहप्रकारकरि संभवे नाहीं । बहरि गृहस्थअवस्थाविषे तो पूर्वे ।। | जंबूकुमारादिक बहुत हिंसादिककार्य किए सुनिए है। मुनि होयकरि तौ काहूने हिंसादिक | कार्य किए नाहीं, परिग्रह राखे नाही, तातै ऐसी युक्ति कारिजकारी नाहीं । बहुरि देखो, आ| दिनाथजीकी साथ च्यारि हजार राजा दीक्षा लेय बहुरि भ्रष्ट भए, तब देव उनकों कहते भए, || | जिनलिंगी होय अन्यथा प्रवत्तॊगे तो हम दंड देंगे। जिनलिंग छोरि तुम्हारी इच्छा होय, सो । ही करो। तातें जिनलिंगी कहाय अन्यथा प्रवत्ते, तो दंड योग्य है । बंदनादियोग्य कैसे होय ।
अब बहुत कहा कहिए, जे जिनमतविष कुभेष धारें हैं, ते महापाप उपजावें हैं। अन्य जीव उ
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मो.मा.
प्रकाश
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नकी सुश्रूषा आदि करें हैं, ते भी पापी हो हैं । पद्मपुराणविषे यह कथा है-जी श्रेष्ठी धर्मामा चारण मुनिनिकों भ्रमते भ्रष्ट जानि आहार न दिया, तो प्रत्यक्ष भ्रष्ट तिनकौं दानादिक देना कैसे संभवै । यहां कोऊ कहै, हमारे अंतरंगविर्षे श्रद्धान तो सत्य है, परन्तु बाह्य लज्जादिकरि शिष्टाचार करें हैं, सो फल तो अंतरंगका होगा ? ताका उत्तर। षट्पाहुइविषै लज्जादिकरि वंदनादिकका निषेध दिखाया था, सो पूर्वै ही कह्या था। बहुरि कोऊ जोरावरी मस्तक नमाय हाथ जुड़ावै, तब तो यह संभवै, जो हमारा अंतरंग न । था। अर आपही मानादिकतै नमस्कारादि कर, तहाँ अंतरंग कैसें न कहिए । जैसें कोई अंतरंगविषे तो मांसकों बुरा जानै अर राजादिकका भला मनावनेकौं मांस भक्षण करे, तो वाकों | बती कैसे मानिए । तैसें अन्तरंगविणे तो कुगुरुसेवनकों बुरा जाने अर तिनका वा लोकनिका || | भला मनावनेकों सेवन करें, ते श्रद्धानी कैसे कहिए । ताते बाह्यत्याग किए ही अन्तरंग त्याग ।। संभव है। तात जे श्रद्धानी जीव हैं, तिनकों काहप्रकारकरि भी कुगुरुनिको सुश्रूषाआदि क-M रनी योग्य नाहीं । याप्रकार कुगुरुसेवनका निषेध किया। यहां कोऊ कहै-काहू तत्त्वश्रद्धानीकों || कुगुरुसेवनतें मिथ्यात्व कैसैं भया । ताका उत्तर___ जैसे शीलवती स्त्री परपुरुषसहित भरिवत् रमणक्रिया सर्वथा करे नाही, तैसें तत्त्वश्रद्धानी पुरुष कुगुरुसहित सुगुरुवत् नमस्कारादिक्रिया सर्वथा करै नाहीं । काहेते, यह तो जीवा- २८५
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दितत्त्वनिका श्रद्धानी भया है। तहां रागांदिकौं निषिद्ध श्रद्धै है, वीतरागभाव श्रेष्ठ माने | है, ताते तिनकै वीतरागता पाईये । वैसे ही गुरुकों उत्तम जानि नमस्कारादि करे हैं । जिनकै | रागादिक पाइए, तिनको निषिद्ध जानि नमस्कारादि कदाचित् करे नाहीं। कोऊ कहै, जैसे |
राजादिकौं करे, तैसें इनकों भी करे है । ताका उत्तर___राजादिक धर्मपद्धतिविष नाहीं । गुरूका सेवन धर्मपद्धतिविष है। सो राजादिकका | सेवन तो लोभादिकते हो है । तहां चारित्रमोहहीका उदय संभवै है । अर गुरुनिकी जायगा || कुगुरुनिकों सेए । सत्वश्रद्धानके कारण गुरू थे, तिनतें प्रतिकूली भया। सो लज्जादिकते। | जाने कारणविष विपरीतिता उपजाई, ताकै कार्यभूत तत्वश्रद्धानविषै दृढ़ता कैसे संभवै । ताते तहां दर्शनमोहका उदय संभवै है । ऐसें कुगुरुनिका निरूपण किया। अब कुधर्मका निरूपण कीजिए है
जहां हिंसादिकाय उपजे वा विषयकषायनिकी वृद्धि होय, तहां धर्म मानिए, सो कुधर्म जानना । तहां यज्ञादिकक्रियानिविणे महा हिंसादिक उपजावें, बड़े जीवनिका घात करें।
भर तहां इन्द्रियनिके विषय पोणे । तिन जीवनिविणे दुष्टबुद्धि करि रौद्रध्यानी होय तीव्रलोभते । । औरनिका चुराकर अपना कोई प्रयोजन साध्या चाहै, ऐसा कार्यकरि तहां धर्ममानें, सो कुधर्म है । बहुरि तीर्थनिविणे चा अन्यत्र स्नानादिकार्य करें, तहां बड़े छोटे घने जीवनिकी ।
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| हिंसा होय, शरीरकों चैन उपजे, तातै विषयपोषण होय, ताते कामादक बधे, कुतूहलादिकप्रकाश
रि तहां कषायभाव वधावै, बहुरि तहां धर्म मानै सो कुधर्म है । बहुरि संक्रांति, ग्रहण, व्यतीपासादिकविणे दान दे, वा खोटा ग्रहादिककै अर्थि दान दे, बहुरि पात्र जानि लोभीपुरुष|निकों दान दे, बहुरि दानविषे सुवर्ण हस्ती घोड़ा तिलआदि वस्तुनिकों दे, सो संक्रान्ति आदि। पर्व धर्मरूप नाहों । ज्योतिषी संचारादिककरि संक्रांतियादि हो है। बहुरि दुष्टप्रहादिककै अर्थ || दिया, तहां भय लोभादिकका आधिक्य भया । तातै तहां दान देनेमें धर्म नाहीं। बहुरि । लोभीपुरुष देनेयोग्य पात्र नाहीं । जाते लोभी नाना असत्ययुक्ति करि ठिगे हैं। किछू भला
करते नाहीं । भला तो लब होय, जब याका दानका सहायकरि वह धर्म साधै । सो वह तो | उलटा पापरूप प्रवर्ते । पापका सहाईका. भला कैसे होय । सो ही रयणसार शास्त्र विषे । | कह्या है--
सप्पुरिसाणं दाणं कप्पतरूणां फलाण सोहं वा॥
लोहीणं दाणं जइ विमाणसोहा सवस्स जाणेह ॥१॥ सत्पुरुषनिकों दान देना, कल्पवृक्षनिके फलनिकी शोभा समान है अर सुखदायक है। बहुरि लोभीपुरुषनिकों दान देना जो होय, सो शब जो मस्या ताका विमाण जो चक्रडोल || २८७ । ताकी शोभासमान जानहु । शोभा तो होय, परन्तु धनीको परमदुखदायक हो है। ताते लो
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काश
मा. भीपुरुषनिकों दान देनेमें धर्म नाहीं । बहुरि द्रव्य तो ऐसा दीजिए, जाकरि वाकै धर्म वधै ।।
सुधर्ण हस्तीआदि दीजिए, तिनकरि हिंसादिक उपजे वा मान लोभादिक वधै। ताकरि महापाप होय । ऐसी वस्तुनिका देनेवालाको पुण्य कैसे होय । बहुरि विषयासक्त जीव रतिदानादिकविर्षे पुण्य ठहरावै हैं । सो प्रत्यक्ष कुशीलादि पाप जहां होय, तहां पुण्य कैसे होय । अर युक्ति मिलावनेकौं कहें, जो वह स्त्री सुख पावै है। तो स्त्री तो विषयसेवन किए सुख पावे ही पावै, शीलका उपदेश काहेकौं दिया। रतिसमयविना भी वाका मनोरथ अनुसार न
प्रवर्ते दुःख पावै । सो ऐसी असत् युक्ति बनाय विषयपोषनेका उपदेश देहैं। ऐसे ही दया-- । दान वा पात्रदानविना अन्य दान देय धर्म मानना सर्व कुधर्म है।
वहुरि व्रतादिककरिके तहां हिंसादिक वा विषयादिक बधावै है । सो ब्रताद्रिक तौ तिनका घटावनेके अर्थि कीजिए है । बहुरि जहां अन्नका तो त्याग करै अर कन्दमूलादिकनिका || भक्षण करे, तहां हिंसा विशेष भई-स्वादादिकविषय विशेष भए । बहुरि दिवसविषै तौ भोजन करें नाहीं, अर रात्रिविषे करें । सो प्रत्यक्ष दिवसभोजनतें रात्रिभोजनविणे हिंसा विशेष भासे, प्रमाद विशेष होय । बहुरि ब्रतादिकरि नाना श्रृंगार बनावें कुतूहल करें जुवामादिरूप प्रवते, इत्यादि पापक्रिया करें, बहुरि ब्रतादिकका फल लौकिक इष्ट की प्राप्ति अनिष्टका नाशकों चाहें, तहां कषायनिकी तीव्रता विशेष भई । ऐसें बतादिकरि धर्म माने हैं, सो कुधर्म है। २८८
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बहुरि भक्त्यादिकाभिविप हिलादिक पार बधावें, वा गीत नृत्यादिक वा इष्ट भोजनाप्रकाशदिक वा अन्य सामग्रीनिकरि विषयनिकों पोर्षे, कुतूहल प्रमादादिरूप प्रवः। तहां पाप तौ ।।
है बहुत उपजावे, अर धर्मका किछू साधन नाहीं । तहां धर्म माने, सो सर्व कुधर्म है। बहुरि । । केई शरीरकों तौ क्लेश उपजावें अर तहां हिंसादिक निपजावें, कषायादिरूप प्रवर्त। जैसैं । पंचाग्नि. ता, सो अग्निकरि बड़े छोटे जीव जलें, हिंसादिक वधै; यामै धर्म कहा भया । वहुरि अधोमुख मूलें, ऊर्ध्वबाहु राखें, इत्यादि साधनकरि तहां क्लेश ही होय । किछू ए धनके अंग नाहीं । बहुरि पक्नसाधन करें, तहां नेती धोती आदि कार्यनिविषै जलादिककरि हिलादिक उपज, चमत्कार कोई उपजे तातै मानादिक बधै, किछू तहां धर्मसाधन नाहीं । इत्यादि। लैश करें, विषयकषाय घटावनेका कोई साधन करें नाहीं । अंतरंगविषै क्रोध मान माया लोभका अभिप्राय है, कृथा क्लेशकरि धर्म माने हैं, सो कुधर्म है। बहुरि केई इस लोकविषै। दुःख सह्या न जाय, वा परलोकविषै इष्ट की इच्छा वा अपनी पूजा बढ़ावनेकै अर्थि वा कोई। | क्रोधादिककार अपघात करें। जैसें पतिवियोगते अग्निविषे जलकरि सती कहावै है, वा हिमा| लय गले है, काशीकरोत ले है, जोदित मारी ले है, इत्यादि कार्यकरि धर्म माने हैं । सो अथघातका तो बड़ा पाप है । शरीरादिकतै अनुराग घट्या था, तो तपश्चरणादि किया होता । मरि जाणेमें कौन धर्मका अंग भया । जाते अपघात करना धर्म है। ऐसे ही अन्य भी घने |
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म.पा. प्रकाश
कुधर्मके अंग हैं। कहां ताई कहिए जहां विषय कषाय वधे, अर धर्म मानिए, सो सर्व कु-11 धर्म जानने । देखो कालका दोष, जैनधर्मविषै भी कुधर्मकी प्रवृत्ति भई। जैनमतविषै जे । धर्मपर्व कहे हैं, तहां तो विषयकषाय छोरि संयम प प्रवर्त्तना योग्य है। ताकौं तौ आदरै नाहीं।। अर व्रतादिकका नाम धराय तहां नाना श्रृंगार बनावें, वा गरिष्ठभोजनादि करें, वा कुतूहलादि। करें, वा कषायबधावनेके कार्य करें, जूवा इत्यादि महा पापरूप प्रवत्त !
बहुरि पूजनादि कार्यविषै उपदेश तो यह था,-"सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ दोषाय नालं ।” पापका अंश, बहुत पुण्यसमूहविषे दोषके अर्थ नाहीं। इस छलकरि पूजाप्रभावनादि कार्यनिविषै| रात्रिविषे दीपकादिकरि वा अनंतकायादिकका संग्रह करि वा अयत्नाचार प्रवृत्तिकरि हिंसादिकरूप पाप तो बहुत उपजावें, अर स्तुति भक्तिआदि शुभपरिणामनिविषै प्रवर्ते नाही, वा थोरे । प्रवत्त, सो टोटा घना नफा थोरा, वा नफा किछु नाहीं। ऐसा कार्यकरनेमें तौ बुरा ही दीखना होय । बहुरि जिनमंदिर तो धर्मका ठिकाना है । तहां नाना कुकथा करनी, सोवना इत्यादिक प्रमादरूप प्रवत्त, वा तहां बाग वाड़ी इत्यादि बनाय विषयकषाय पोर्षे, बहुरि लोभी पुरुषनिकों दानादिक दें, वा तिनकी असल्यस्तुतिकरि महंतपनो माने, इत्यादि प्रकारकरि विषयकषायनिकों तौ वधावें, अर धर्म माने, सो जिनधर्म तौ वीतरागभावरूप है । तिसविर्षे ऐसी प्रवृत्ति कालदोषते ही देखिए है । या प्रकार कुधर्मसेवनका निषेधकिया । अव इसविषै मिथ्यात्वभाव |
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मो.मा.
कैसै भया, सो कहिए हैप्रकाश तत्वश्रद्धानविषे प्रयोजनभूत एक यह है रागादिक छोड़ना । इस ही भावका नाम धर्म
॥ है। जो रागादिक भावनिकों बधाय धर्म मानें, तहां तत्त्वश्रद्धान कैसैं रहा । बहुरि जिनाज्ञातै प्रतिकूलही भया । बहुरि रागादिभाव तौ पाप हैं । तिनकौं धर्म मान्या, सो यह झूठश्रखान भया। तातै कुधर्म सेवनविर्षे मिथ्यात्त्वभाव है। ऐसे कुदेव कुगुरु कु शास्त्रलेवनविणे । मिथ्यात्वभावकी पुष्टता होती जानि, याका निरूपण किया। सो ही षट्पाहुविचै कह्या है--
कुच्छियदेवं धम्म कुच्छियलिंगं च बंदए जोइ ।
लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्टी हवे सो दु ॥१॥ जो लजातै भयतें बड़ाईते भी कुत्सित् देवकों वा कुत्सित् धर्मकों वा कुत्सित् लिंगकों, बंद हैं, सो मिथ्यादृष्टी हो हैं । ताते जो मिथ्यात्वका त्याग किया चाहै, सो पहले कुदेव कुगुरु कुधर्मका त्यागी होय । सम्यक्त्वके पचीस मलनिके त्यागविषै भी अमूढ़दृष्टि वा षडायतनविर्षे भी इनहींका त्याग कराया है । तातै इनका अवश्य त्याग करना । बहुरि कुदेवादिकके सेवन ते जो मिथ्यात्वभाव हो है, सो यह हिंसादिकपापनित महापाप है । याके फलते निगोद नर। कादिपर्याय पाईये है। तहां अनंतकालपर्यंत महासंकट पाईये है । सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति महा
दुर्लभ होय जाय है । सो ही षट्पाहुडविणे ( भाव पाहुड़में ) कया है
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मो.मा. प्रकाश
कुच्छियधम्मम्मि रत्रो, कुच्छियपासंडिभन्तिसंजुत्तो ।
कुच्छियतवं कुतो कुच्छिय गइभायणो होई ॥१४०॥
जो कुत्सितधर्म्मविषे रत है, कुंत्सित पाखंडीनिकी भक्तिकरि संयुक्त हैं, कुत्सित तपकों करता है, सो जीव कुत्सित जो खोटीगति तार्कों भोगनहारा हो है । सो हे भव्य हो, किंचिमात्र लोभ' वा भयतै कुदेवादिकका सेवनकरि जातें अनंतकालपर्यंत महादुःख सहना होय ऐसा मिथ्यात्वभाव करना योग्य नाहीं | जिनधर्मविषे यह त आम्नाय है । पहले बड़ा पाप छुड़ाय पीछें छोटापाप छुड़ाया । सो इस मिथ्यात्वकों सप्तव्यसनादिकत भी बड़ापापजानि पहले छुड़ाया है । तातें जे पापके फलते डरें हैं, अपने आत्माकों दुखसमुद्र में न डुबाया चाहें हैं, ते जीव इस मिथ्यात्वक अवश्य छोड़ो । निंदा प्रसंसादिकके विचारत शिथिल होना योग्य नाहीं । जाते' नीतिविषे भी ऐसा कहा है
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुत्रतु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।
व वास्तु मरणं तु युगान्तरे वा न्यायात्पथः प्रविलन्ति पदं न धीराः ॥ १ ॥
जैनिंदे हैं तो निंदो र स्तवे हैं तो स्तवो, बहुरि लक्ष्मी आबो वा जावो, बहुरि अव
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मो:मा.
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प्रकाश! ही मरण होहु या युगांतरविषै होहु परन्तु नीतिविष निपुणपुरुष न्यायमार्गते पेंड़हू चलें नाहीं।।
| ऐसा न्याय विचारि निंदाप्रशंसादिकका भयतै लोभादिकतै अन्यायरूप मिथ्यात्वप्रवृत्ति करनी । युक्त नाहीं । महो, देव गुरु धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ हैं। इनके आधार धर्म है। इनविषै || शिथिलता राखें अन्यधर्म कैसे होय तातें बहुत कहनेकरि कहा, सर्वथाप्रकार कुदेव कुगुरु कुधर्म
| का त्यागी होना योग्य है। कुदेवादिकका त्याग न किए मिथ्यात्वभाव बहुत पुष्ट हो है। अर । अबार यहां इनकी प्रवृत्ति विशेष पाईये है । ताते इनका निषेधरूप निरूपण किया है। ताकों जानि मिथ्यात्वभाव छोड़ि अपना कल्याण करो। इति मोक्षमार्गप्रकाशकनाम शास्त्रविर्षे कुदेवकुगुरुकुधर्मनिषेधषर्णनरूप
छठा अधिकार समाप्त भया ॥ ६ ॥
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दोहा। इस भवतरुको मूल इक, जानहु मिथ्याभाव ।
ताकों करि निर्मुल अब, करिए मोक्ष उपाव ॥ १॥ अर्थ, जे जीव जैनी हैं, जिन आज्ञाओं मानें हैं, अर तिनकै भी मिथ्यात्व रहै है ताका वर्णन कीजिए हैं-जाते इस मिथ्यात्वबैरीका अंश भी बुरा है, ताते सूक्ष्ममिथ्यात्व भी त्या
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मो.मा. प्रकाश
गने योग्य है । तहां जिन आगमविष निश्चय व्यवहाररूप वर्णन है । तिनविषे यथार्थका नाम | निश्चय है । उपचारका नाम व्यवहार है सो इनके स्वरूपकों न जानते अन्यथा प्रवत्त हैं, सोई कहिए है केई जीव निश्चयकों न जानते निश्चयाभासके श्रद्धानी होय आपकों मोक्षमार्गी माने हैं। अपने आत्माकों सिद्धसमान अनुभवै हैं। सो आप प्रत्यक्षसंसारी हैं । भ्रमकरि आ-18 |पों सिद्ध मानें सोई मिथ्यादृष्टी हैं । शास्त्रनिविषै जो सिद्ध समान आत्माकों कह्या है, सो द्रव्यदृष्टिकरि कह्या है, पर्याय अपेक्षा समान नाहीं हैं। जैसे राजा अर रंक मनुष्यपनेकी अपेक्षा समान हैं, राजापना रंकपनाकी अपेक्षा तो समान नाहीं। तैसें सिद्ध अर संसारी जीवत्त्वपनेकी
अपेक्षा समान हैं, सिद्ध पना संसारीपनाकी अपेक्षा तो समान नाहीं । यह जैसे सिद्ध शुद्ध हैं, । तैसे ही आपकौं शुद्ध माने । सो शुद्ध अशुद्ध अवस्था पर्याय है । इस पर्यायअपेक्षा समानता । • मानिए, सो यह मिथ्यादृष्टी है। बहुरि आपकै केवलज्ञानादिकका सद्भाव माने, सो आपकै तौ ||
क्षयोपशमरूप मतिश्रुतादि ज्ञानका सद्भाव है । क्षायिकभाव तौ कर्मका क्षय भए हो है । यह भ्रमतें कर्मका क्षय भए बिना ही क्षायिकभाव माने । सो यह मिथ्यादृष्टी है। शास्त्रनिविषै । सर्व जीवनिका केवलज्ञानस्वभाव कह्या है, सो शक्तिअपेक्षा कह्या है। सर्वजीवनिविष केवलज्ञानादिरूप होनेकी शक्ति है। वर्तमान व्यक्तता तौ व्यक्त भए ही कही। कोऊ ऐसा मान है, आत्माके प्रदेशनिविर्षे तो केवलज्ञान ही है, ऊपरि आवरणते प्रगट न हो है । सो यह भ्रम है।।
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मो.मा
जो केवलज्ञान होय, तो वजपटलादि भाड़े होते भी वस्तुकों जाने । कर्मको आड़े आए कैसे । अटकै । तातें कर्मके निमित्तते केवलज्ञानका अभाव ही है । जो याका सर्वदा सद्भाव रहै है,
तो याकों पारिणामिक भाव कहते, सो यह तौ क्षायिकभाव है। सर्वभेद जामें गर्भित ऐसा ||
चैतन्यभाव सो पारिणामिक भाव है । याकी अनेक अवस्था मतिज्ञानादिरूप वा केवलज्ञानादि || II रूप हैं, सो ए पारिणामिकभाव नाहीं । तातै केवलज्ञानका सर्वदा सद्भाव न मानना। बहुरि |
जो शास्त्रनिविर्षे सूर्यका दृष्टांत दिया है, ताका इतना ही भाव लेना, जैसें मेघपटल होते सूर्य | प्रकाश प्रगट न हो है, तैसें कर्मउदय होते केवलज्ञान न हो है । बहुरि ऐसा भाव न लेना, | जैसें सूर्यविर्षे प्रकाश रहै है, तैसें आत्माविषै केवलज्ञान रहै है । जाते दृष्टान्त सर्व प्रकार | मिले नाहीं । जैसे पुद्गलविणे वर्णगुण है, ताकी हरित पीतादि अवस्था हैं। सो वर्तमानविषै|
कोई अवस्था होते अन्य अवस्थाका अभाव ही है । तैसें आत्माविषे चैतन्य गुण है, ताकी | । मतिज्ञानादिरूप अवस्था हैं । सो वर्तमान कोई अवस्था होते अन्य अवस्था का अभाव ही | है। बहुरि कोऊ कहै कि, आवरण नाम तो वस्तुकौं आच्छादनेका है, केवलज्ञानका सद्भाव ।। नाहीं है, तो केवलज्ञानावरण काहेकौं कहो हो । ताका उत्तर| यहां शक्ति है ताकौं व्यक्त न होने दे, ताकी अपेक्षा आवरण कह्या है। जैसे देशचारित्र। का अभाव होते शक्ति घातनेकी अपेक्षा अप्रत्याख्यानावरण कह्या, तैसें जानना। बहुरि ऐसें ||२९५
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मो.मा. जानोवस्तुविषै जो परनिमित्त भाव होय, ताका नाम औपाधिकभाव है । अर परनिमिप्रकाश
तविना जो भाव होय, सो ताका नाम खभावभाव है । सो जैसे जलकै अग्निका निमित्त होते, उणपनो भयो, तहां शीतलपनाका अभाव ही है । परन्तु अग्निका निमित्त मिटे शीतलता ही।
होय जाय । तातें सदाकाल जलका स्वभाव शीतल कहिए । जातें ऐसी शक्ति सदा पाइये है। । बहुरि व्यक्त भए स्वभाव व्यक्त भया कहिए। कदाचित् व्यक्तरूप हो है । तैसें आत्माकै कर्म ।
का निमित्त होते अन्यरूप भया, तहां केवलज्ञानका अभाव ही है । परन्तु कर्मका निमित्त मिटे | . सर्वदा केवलज्ञान होय जाय । तातें सदाकाल आत्माका स्वभाव केवलज्ञान कहिए है। जाते ऐसी शक्ति सदा पाईये है । व्यक्त भए स्वभाव व्यक्त झया कहिए । बहुरि जैसे शीतलखभावकरि उष्ण जलकों शीतल मानि पानादि करे तो दाझना ही होय । तैसें केवलज्ञानस्वभावकरि अशुद्ध आत्माकों केवलज्ञानी मानि अनुभवे, तो दुःखी ही होय । ऐसें जे केवलज्ञानादिक
रूप पालाकों अनुभवें हे, ते मिथ्यादृष्टी हैं। बटुरि रागादिक भाव आपके प्रत्यक्ष होते भ्रमH करि आत्माकों रागादिरहित माने, सो पूछिए है-ए रागादिक तो होते देखिए है, ए किस।
द्रव्यके अस्तित्वविष है। जो शरीर वा कर्मपुद्गलके अस्तित्वविर्षे होय, तौ ए भाव अचेतन | वा मूर्गीक होंय । सा तो ए रागादिक प्रत्यक्ष चेतनता लिए अमूर्तीकभाव भासे हैं। ताते ए. भाव आत्माहोके हैं। सो ही समयसारके कल राविषे कया है
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मो.मा
प्रकाश
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कार्यस्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयोरज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यनुभवाभावान्न चेयं कृतिः । नेकस्याः प्रकृतेरचित्वलसनाजीवस्य कर्त्ता ततो
जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न वै पुद्गलः ॥ १॥ __यह रागादिरूप भावकर्म है, सो काहूकरि किया नाहीं है । ताते यह कार्यभूत है। बपरि जीव अर कर्मप्रकृति इन दोऊनिका भी कर्त्तव्य नाहीं । जातें ऐसें होय, तो अचेतनकर्म |
प्रकृतिकै भी तिस भावकर्मका फल सुख दुख ताकों भोगना होय, सो असंभव है । वहुरि ए। कली कर्मप्रकृतिका भी यह कर्तव्य नाहीं । जाते वाकै अचेतनपनो प्रगटहै । तातै इस रागादिकका जीव ही कर्ता है । अर सो गगादिक जीवहीका कर्म है । जातै भावकर्म तौ चेतन
का अनुसारी है, चेतना बिना न होय । अर पुद्गल ज्ञाता है नाहीं । ऐसें रागादिकभाव जीव । IN के अस्तित्वविर्षे हैं। जो रागादिक भावनिका निमित्त कर्महीको मानि आपकों रागादिकका
अकर्ता माने हैं, सो कर्त्ता तो आप अर आपकौं निरुद्यमी होय प्रमादी रहना, तातें कर्महीका || दोष ठहरावै हैं । सो यह दुखदायक भ्रम है । सोई समयसारका कलशाविषै कह्या है
रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनों शुद्भवोधविधुरान्धबुद्धयः॥
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जे जीव रागादिककी उत्पत्तिविषे परद्रव्यहीको निमित्तपनो माने हैं, ते जीव भी शुद्धशा-10 नकरि रहित हैं अंधबुद्धि जिनकी ऐसे होते ते मोहनदीकों नाहीं उतरे हैं। बहुरि समयसार का “सर्वविशुद्धि अधिकार” विषे जो, आत्माको अकर्ता माने है, अर यह कहै है-कर्म हो । जगावै सुवावै है, परघात कर्मतै हिंसा है, वेदकनेते ब्रह्म है, तातें कर्म ही कर्ता है, तिस। जैनीको सांख्यमती कह्या है । जैसें सांख्यमती आल्माकों शुद्ध मानि स्वच्छंद हो है, तैसें ही ।। यह भया । बहुरि इस श्रद्धानतें यह दोष भया, जो रागादिक अपने न जाने, आपको अकर्ता मान्या, तब रागादिक होनेका भय रह्या नाही, वा रागादिक मेटनेका उपाय रह्या नाही, तब स्वच्छंद होय खोटे कर्म बांधि अनंतसंसारविर्षे रुले है । यहां प्रश्न-जो समयसारविषै ही। ऐसा कह्या है
वर्णाद्या वा रागमोहादथो वा,
भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुन्सः । अर्थ-वर्णादिक वा रागादिकभाव हैं, ते सर्व ही इस आत्माते भिन्न हैं । बहुरि तहां ही रागादिककौं पुद्गलमय कहे हैं । बहुरि अन्य शास्त्रनिविर्षे भी रागादिकतै भिन्न आमाको | कहा है, सो कैसे है। ताका उत्तर
रागादिकभाव परद्रव्यके निमित्तते उपाधिकभाव हो हैं। अर यह जीव तिनिकों खभाव
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प्रकाश
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जानें है । जाकों स्वभाव जाने है, ताक बुरा कैसें माने, वा नाके नाशका उद्यम काहेक कर । सो यह श्रद्धान भी विपरीत है । ताके छुड़ावनेकों स्वभावकी अपेक्षा रागादिककों भिन्न कहे हैं । अर निमित्तकी मुख्यताकरि पुद्गलमय कहे हैं। जैसें वैद्य रोग मेव्या चाहे है । जो शीत का अधिकार देखे, तौ उष्ण औषधि बतावै अर आतापका आधिक्य देखे, तौ शीतल औषधि बतावे । तैलें श्रीगुरु रागादिक छुड़ाया चाहें हैं। जो रागादिक परका मानि स्वच्छंद होय, निरुद्यमी होय, ताकों उपादानकारणकी मुख्यताकरि रागादिक आत्माका है ऐसा श्रद्धान कराया । बहुरि जो रागादिक आपका स्वभाव मानि तिनिका नाशका उद्यम नाहीं ताक निमित्त कारणकी मुख्यताकरि रागादिक परभाव हैं, ऐसा श्रद्धान कराया है। विपरीत श्रद्धानते रहित भए सत्यश्रद्धान होय, तब ऐसा मानें- - ए रागादिक भाव आत्माका स्वभाव तौ नाहीं, कर्मके निमित्ततैं आत्मा के अस्तित्वविषै विभावपर्याय निपजे हैं । निमित्त मिटे इनका नाश होतैं स्वभाव भाव रहि जाय है । तातैं इनके नाशका उद्यम करना । यहां प्रश्न- जो कर्मका निमित्त ए हो हैं, तौ कर्मका उदय रहै तावत् विभाव दूरि कैर होय । ता याका उद्यम करना तौ निरर्थक है । ताका उत्तर
करे है,
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एक कार्य होनेविषै अनेक कारण चाहिए है । तिनविषै जे कारण नको तो उथम करि मिलाचे घर शत्रुद्धि पूर्वक कारण स्वयमेव मिलें - तब
बुद्धिपूर्वक होंय, तिकार्यसिद्धि होय ।
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.मा.
काश
जैसे' पुत्रहोनेका कारण बुद्धिपूर्वक तौ विवाहादिक करना है, अर अबुद्धिपूर्वक भवितव्य है । तां पुत्रार्थी विवाहादिकका तौ उद्यम करै, अर भवितव्य स्वयमेत्र होय, तब पुत्र होय । तैसें विभाव दूर करनेके कारण बुद्धिपूर्वक तौ तत्त्वविचारादिक हैं अर अबुद्धिपूर्वक मोहकर्म का उपशमादिक हैं ! सो ताका अर्थी तत्त्वविचारादिकका तौ उद्यम करे, घर मोहकर्मका उपरामादिक स्वयमेव होय, तंत्र रागादिक दृरि होंय । यहां ऐसा कहै कि - जैसे विवाहादिकभी वितव्य आधीन हैं, तैसे तत्त्वविचारादिक भी कर्मका क्षयोपशमादिककै आधीन हैं, ताते |उद्यम करना निरर्थक है । ताका उत्तर—
ज्ञानावरणका तौ क्षयोपशम तत्त्वविचारादि करने योग्य तेरै भया है । याहोतें उपयोगक यहां लगावनेका उद्यम कराइए है। असंज्ञी जीवनिकै क्षयोपशम नाहीं है, तो उनको काहेको उपदेश दीजिए है । बहुरि वह कहै है— होनहार होय, तौ तहां उपयोग लागे, बिना होनहार कैसें लागे । ताका उत्तर
जो ऐसा श्रद्धान है, तौ सर्वत्र कोई ही कायका उद्यम मति करे। तू खान पान व्यापारादिकका तो उद्यम करै, अर यहां होनहार बतावै । सो जानिए है, तेरा अनुराग यहां नाहीं । मानादिककरि ऐसी झूठी बातें बनावे है। या प्रकार जे रागादिक होतैं तिनकरि रहित मानें हैं, ते मिथ्यादृष्टी जानने ।
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बहुरि कर्म नोकर्मका सम्बन्ध होते मात्माकों निबंध माने, सो प्रत्यक्ष इनका बंधन | देखिए है । ज्ञानाधरणादिकते ज्ञानादिकका घात देखिए है । शरीरकरि ताकै अनुसार अव|स्था होती देखिए है । बन्धन कैसे नाहीं । जो बन्धन न होय, तो मोक्षमार्गी इनके नाशका | उद्यम काहेकों करें। यहां कोऊ कहै-शास्त्रनिविषे आत्माकों कर्म नोकर्मते भिन्न अवद्धस्पृष्ट कैसें कहा है । ताका उत्तर। सम्बध अनेक प्रकार हैं। तहां तादात्म्यसम्बन्धअपेक्षा आत्माकों कर्म नोकर्मते भिन्न कहा है । तहां द्रव्य पलटकरि एक नाहीं होय जाय हे अर इस ही अपेक्षा अवद्धस्पष्ट कह्या है। बहुरि निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध अपेक्षा बंधन है ही । उनके निमित्ततें आत्मा अनेक अवस्था धरै ही है। ताते सर्वथा निबंध भापकों मानमा मिथ्यादृष्टि है। यहां कोऊ कहै-हमको तो बंध मुक्तिका विकल्प करना नाही, जाते शास्त्रविणे ऐसा कह्या है
“जो बंधउ मुक्कउ मुणइ, सो बंधई ण भंति ।" | याका अर्थ-जो जीव बंध्या पर मुक्त भया माने है, सो निःसन्देह बंधे है । ताकों क
। जे जीव केवल पर्यायदृष्टि होय, बंधमुक्त अवस्थाहीकों माने हैं, द्रव्य खभावका ग्रहण | नाहीं करै हैं, तिनकों ऐसे उपदेश दिया है, जो द्रव्यखभावकों न जानता जीव बंध्या मुक्त
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मोमा.
माने, सो बंध है । बहुरि जो सर्वथा ही बंधमुक्ति न होय, तो सो जोव बंध है, ऐसा काहेको कहैं । अरबंधके नाशका मुक्त होनेका उद्यम काहेकौं करिए है । ताते द्रव्यदृष्टिकरि एकदशा है। पर्यायदृष्टिकरि अनेक अवस्था हो हैं, ऐसा मानना योग्य है। ऐसे ही अनेक प्रकारकरि । केवल निश्चयनयका अभिप्रायते विरुद्ध भधानादिक करे है। जिनवानीविषै तौ नाना नयअपेक्षा कहीं। कैसा कहि कैसा निरूपण किया है। यह अपने अभिप्रायतें निश्चयनयकी मुख्यताकरि जो कथन किया होय, ताहीको प्रहिकरि मिथ्यादृष्टिकों धारे है । बहुरि जिनवानी| विष तौ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी एकता भए मोक्षमार्ग कह्या है। सो याकै सम्यग्दर्शन ज्ञानविषे सप्ततत्त्वनिका श्रद्धान वा जानना भया चाहिए । सो तिनका विचार नाहीं। अर चारित्रविषे रागादिक दूरि किया चाहिए, ताका उद्यम नाहीं। एक अपने आत्माकों शुद्ध अनुभवना इसहीको मोक्षमार्ग मानि सन्तुष्ट भया है । ताका अभ्यास करनेकों अंतरंगविणे , | ऐसा चितवन किया चाहै है-में सिद्धसमान शुद्ध हों, केवलज्ञानादि सहित हों, द्रव्यकर्म नो
कर्म रहित हों, परमानन्दमय हों, जन्ममरणादि दुःख मेरै नाही, इत्यादि चितवन करे है। |सो यहां पूछिए है-यह चितवन जो द्रव्यदृष्टि करि करो हो, तो द्रव्य तौ शुद्ध अशुद्ध सर्वपर्यायनिका समुदाय है । तुम शुद्ध ही अनुभव काहेकों करौ हो । अर पर्यायदृष्टिकरि करो हो, तो तुम्हारे तो वर्तमान अशुद्ध पर्याय है । तुम आपाकों शुद्ध कैसे मानो हो । बहुरि जो शक्ति
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अपेक्षा शुद्ध मानो हो, तो में ऐसा होनेयोग्य हौं, ऐसा मानौ । ऐसें काहेको मानों हो । तातें
आपकों शुद्ध रूप चितवन करना भ्रम है। काहेत-तुम आपकों सिद्ध समान मान्या, तो यह | संसार अवस्था कौनकी है । अर तुम्हारे केवल ज्ञानादिक हैं, तो ये मतिज्ञानादिक कौनके हैं। घर द्रव्यकर्म नोकरहित हो, तो ज्ञानादिककी व्यक्तता क्यों नहीं। परमानन्दमय हो, तो अब कर्त्तव्य कहा रहा। जन्म मरणादि दुःख ही नाही, तो दुखी कैसे होत हो । तातै अन्य अवस्थाविषै अन्य अवस्था मानना भ्रम है। यहां कोऊ कहै-शास्त्रविणे शुद्ध चितवन करनेका उपदेश काहेको दिया है । ताका उत्तर____एक तो द्रव्यअपेक्षा शुद्धपना है, एक पर्याय अपेक्षा शुद्ध पना है। तहां द्रव्यअपेक्षा तौ । परद्रव्यते भिन्नपनौ वा अपने भावनित अभिन्नपनौ ताका नाम शुद्ध पना है । अर पर्याय अपेक्षााउपाधिकभावनिका अभाव होना, ताका नाम शुद्धपना है । सो शुद्धचितवनविष द्रव्य | अपेक्षा शुद्धपना ग्रहण किया है । सोई समयसारव्याख्याविर्षे कह्या है
___ एष एवाशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिधीयते ।
याका अर्थ-जो आत्मा प्रमत्त अप्रमत नाहीं है । सो यह ही समस्त परद्रव्यनिके भावनितै भिन्नपनेकरि सेया हुवा शुद्ध ऐसा कहिए है । बहुरि तहां ही ऐसा कह्या
__ समस्तकारकचक्रप्रक्रियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुद्धः।
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याका
अर्थ- -समस्त ही कर्त्ता कर्म आदि कारकनिका समूहकी प्रक्रिया पारंगत ऐसी | जो निर्मल अनुभूति जो अभेदज्ञान तन्मात्र है, तातें शुद्ध है । तातें ऐसें शुद्ध शब्दका अर्थ जानना । बहुरि ऐसें ही केवलशब्दका अर्थ जानना । जो परभावतें भिन्न निःकेवलपही ताका नाम केवल है । ऐसें ही अन्य यथाथ अर्थ अवधारना । पर्यायअपेक्षा शुद्धधपनो मानें, त्रा केवली आप मानें महाविपरीति होय । तातें आपकों द्रव्यपर्यायरूप अवलोकना । द्रव्यकरि सामान्यस्वरूप अबलोकना, पर्यायकरि अवस्थाविशेष अवधारना । ऐसें ही चितवन किए सम्यग्दृष्टी हो है । जाते सांचा अवलोके बिना सम्यग्दृष्टी कैसे नाम पावै । बहुरि मोचमार्गविषै तो रागादिक मेटनेका श्रद्धधान ज्ञान आचरण करना है । सो तौ विचार ही नाहीं । आपका शुद्ध अनुभवतें ही आपकों सम्यग्दृष्टी मानि अन्य सर्व साधनिका निषेध करे है, शास्त्राभ्यास करना निरर्थक बतावे है, द्रव्यादिकका गुणस्थान मागंणा त्रिलोकादिका विचारक विकल्प ठहरा है, तपश्चरण करना वृथा क्लेश करना माने है, व्रताविकका करना बंधन में परना ठहरावे है, पूजना इत्यादि सर्वकार्यनिकों शुभास्त्रवं जानि हेय प्ररूपै है, इत्यादि सर्व सानिक उठाय प्रमादी होय परिणमै है । सो शास्त्राभ्यास निरर्थक होय, तौ मुनिनकै भीतो ध्यान अध्ययन दोय ही कार्य मुख्य हैं । ध्यानविषै उपयोग न लागे, तव अध्ययनहीबिषै उपयोगकूं लगावे हैं, अन्य ठिकाना बीचमें उपयोग लगावने योग्य है नाहीं । बहुरि
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मो.मा. शास्त्रकार तत्वनिका विशेष जाननेते सम्पादन ज्ञान निर्मल होय है। बहुरि तहां यावत् || प्रकाश उपयोग रहै, तावत् कषाय मंद रहै । बहुरि आगामी वीतरागभावनिकी वृद्धि होय । ऐसे का
यको निरर्थक कैसें.मानिए । बहुरि वह कहै—जो जिनशास्त्रविर्षे अध्यात्मउपदेश है, तिनिका ।।। अभ्यास करना, अन्य शास्त्रनिका अभ्यासकरि किछु सिद्धि नाहीं । ताकौं कहिए है__जो तेरे सांची दृष्टि भई है, तो सर्व ही जैनशास्त्र कार्यकारी हैं। तहां भी मुख्यपने अ। ध्यात्मशास्त्रनिविषे तो आत्मस्वरूपका मुख्य कथन है। सां सम्यग्दृष्टी भए आलस्वरूपका तो । निर्णय होय चुकै, तब तो ज्ञानकी निर्मलताकै अर्थ वा उपयोगकों मंदकषायरूप राखनेके || । अर्थि अन्य. शास्त्रनिका अभ्यास मुख्य चाहिए । अर आत्मखरूपका निर्णय भया है, ताका | N स्पष्ट राखनेके आर्थ अध्यात्मशास्त्रनिका भी अभ्यास चाहिए । परंतु अन्य शास्त्रनिविषै अ। रुचि न चाहिए । जाकै अन्यशास्त्रनिकी अरुचि है, ताके अध्यात्मकी रुचि सांची नाहीं । जैसे जाके विषयासक्तपना होय, सो विषयासत पुरुषनिकी कथा भी रुचितें सुने, वा विषयके विशेष । कौं भी जाने, वा विषयके आचरननिवि जो साधन होय, ताकौं भी हितरूप जाने, वा विषय का स्वरूपको भी पहिचानै । तैसें जाकै आत्मरुचि भई होय, सो आत्मरुचिके धारक तीर्थकरादिक तिनका पुराण भी जाने, बहुरि आत्माके विशेष जाननका गुणस्थानादिककों भी जाने, बहुरि आत्माचरणावि जे वतादिक साधन हैं, तिनकों भी हितरूप माने, बहुरि आत्माकेख-३०५
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रूपकों भी पहिचाने । ताते च्यारयो ही अनुयोग कार्यकारी हैं । बहुरि तिनका नीका ज्ञान होनेके अर्थि शब्दन्यायशास्त्रादिक भी जानना चाहिए । सो अपनी शक्तिके अनुसार थोरा वा बहुत अभ्यासकरना योग्य है । बहुरि वह कहै है, “पद्मनन्दिपच्चीसी” विष ऐसा कहा हैजो आत्मखरूपते निकसि बाह्य शास्त्रनिविष बुद्धि विवरै है, सो वह बुद्धि व्यभिचारिणी है। ताका उत्तर
यह सत्य कह्या है । बुद्धि तो आत्माकी है, ताकों छोरि परद्रव्य शास्त्रनिविणे अनुरागिणी || भई, ताकों व्यभिचारिणी ही कहिए। परंतु जैसे स्त्री शीलवती है, तो योग्य ही है। अर न || रया जाय, तो उत्तमपुरुषकों छोड़ि चांडालादिकका सेवन किए तो अत्यन्त निंदनीक होय । तैसें बुद्धि आत्मखरूपविषे प्रवर्ते, तो योग्य ही है । भर न रह्या जाय, तो प्रशस्त शास्त्रादि | | परद्रव्यकौं छोरि अप्रशस्त विषयादिविर्षे लगे तो महानिंदनीक ही होय। सो मुनिनिके भी । | बहुत काल स्वरूपविषै बुधि रहै नाहीं, तो तेरी कैसे रह्या करै । ताते शास्त्राभ्यासविष बुद्धि ||
लगावना युक्त है। बहुरि जो द्रव्यादिकका वा गुणस्थानादिकका विचारको विकल्प ठहरावै । 1. है, सो विकल्प तो है, परंतु निर्विकल्प उपयोग न रहै, तब इन विकल्पनिकों न करे तो अन्य
विकल्प होय, ते बहुत रागादिगर्भित होय हैं। बहुरि निर्विकल्पदशा सदा रहै नाहीं। जाते। छद्मस्थका उपयोग एकरूप उत्कृष्ट रहै, तो अंतर्मुहुर्त रहै। बहुरि तू कहेगा-में आत्मखरूपही
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मो.मा. प्रकाश
का चितवन अनेक प्रकार किया करूँगा, सो सामान्य चिंतवनविषै तो अनेक प्रकार बनें नाहीं। अर विशेष करेगा, तब द्रव्य गुण पर्याय गुणस्थान मार्गणा शुद्ध अशद्ध अवस्था इत्यादि। विचार होयगा । बहुरि केवल आत्मज्ञानही तो मोक्षमार्ग होय नाहीं। सप्ततत्वनिका श्रद्धान। ज्ञान भए, वा रागादिक दूरि किए मोक्षमार्ग होगा । सो सप्ततत्त्वनिका विशेष जाननेकों जीव अजीवके विशेष वा कर्मके आस्रव बंधादिकका विशेष अवश्य जानना योग्य है, जाते सम्य-| ग्दर्शन ज्ञानकी प्राप्ति होय । बहुरि तहां पीछे रागादिक दूरि करनेसों जे रागादिक वधावनेके
कारण तिनको छोड़ि जे रागादिक घटावनेके कारण होय, तहां उपयोगकों लगावना सो द्रव्या| दिकका वा गुणस्थानादिकका विचार रागादिक घटावनेकों कारण है । इनविर्षे कोई रागादिक ।
का निमित्त नाही, ताते सम्यग्दृष्टी भए पीछे भी यहां ही उपयोग लमावना। बहुरि वह कहै। है-रागादि मिटावनेकों कारण होय तिनविर्षे तो उपयोग लगावना, परंतु त्रिलोकवी जीवनि । की गति आदि विचार करना, वा कर्मका बंध उदयसत्तादिकका घणा विशेष जानना, वा त्रिलोकका आकार प्रमाणादिक जानना इत्यादि विचार कौन कार्यकारी है। ताका उत्तर--
- इनकों भी विचारतें रागादिक बधते नाहीं। जाते ए ज्ञेय याकै इष्ट अनिष्टरूप हैं नाही ताते वर्तमान रागादिककों कारण नाहीं । बहुरि इनको विशेष जाने तत्त्वज्ञान निर्मल होय,
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.मा. प्रकाश
तते आगामी रागादिक घटाक्नेकों ही कारण हैं। तति कार्यकारी हैं। बहुरि 'वर' कहै हैस्वर्ग नरकादिकों जानें तहां राग द्वेष हो है। ताका समाधान
ज्ञानीकै तौ ऐसी बुद्धि होय नाही, अज्ञानीकै होय । जहां पाप छोड़ि पुण्यकार्यविषै लागै, तहां किछू रागादि घंटे ही है । बहुरि वह कहै है-शास्त्रवियः ऐसा उपदेना है, प्रयोजनभूतः।। थोरा ही जानना कार्यकारी है। ताते विकला कहिको कीजिए ताका उत्तर--
जे जीव अन्य बहुत जाने, भर प्रयोजन भूतो न जाने, अथवा जिनको बहुत जाननेकी शक्ति नाही, तिनको यह उपदेश दिया है। बहुरि जाकी बहुत जाननेको शक्ति होय, ताको तो यह कया नाहीं जो बहुत जाने बुरा होगा। जैता बहुत जानेगा, तेता ही प्रयोजनभूत जा-1 निना निर्मल होगा। जाते शास्त्राविषे ऐसा कया है
सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेपो बलवान् भवेत् । याका अर्थ यह सामान्य शास्त्र विशेष बलवान् है । विशेषही नीकै निर्णय हो है। ताते विशेष जानना योग्य है । बहुरि वह तपश्चरणको वृथाश ठहरावै है। सो मोक्षमार्ग भाए तो संसारी जोवर्माते उलटो परणति चाहिए । संसारी जीवनोकै इष्ट अनिष्ट सामग्री रागद्वेप हो है, याके रागद्वेष न चाहिए । तहां राग छोड़नेके अर्थि इष्ट सामग्री भोजनादिकका त्यागी हो है । अर द्वेष छोड़नेके अर्थि अनिष्टसामग्री अनशनादिकौं अंगीकार करे है।
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मो.मा.|| खाधीनपने ऐसा साधन होय, तौ पराधीन इष्ट अनिष्ट सामग्री मिले भी राग द्वेष न होय ।। प्रकाश सो चाहिए तो ऐंसें, रै अनशनादिकते द्वेष भयो । तातें ताको क्लेश ठहरावे है। जब यह
क्लेश भया, तब भोजन करना स्वयमेव ही सुख ठहरयो । तहां राग आया, सो ऐसी परिणति ।। तो संसारीनिके पाईएं ही है । तें मोक्षमार्गी होय, कहा किया। बहुरि जो तू कहेगा, केई। सम्यग्दृष्टी भी तपश्चरण नाहीं करे हैं। ताका उत्तर--
यह कारणविशेषते तप न होय संके है। परन्तु श्रद्धानविषै तौ सपकों भला जाने है। ताके साधनका उद्यम राखे है । तेरै तो श्रद्धान यह तप करना क्लेश है ! बहुरि तपका तेरै । उद्यम नाहीं । ताते तेरै सम्यग्दृष्टि कैसे होय । बहुरि वह कहै है-शास्त्रविषे ऐसा कह्या है, तप आदिक क्लेश कर है, तो करो ज्ञानेविना सिद्धि नाहीं। ताका उत्तर
जेजीव तत्त्वज्ञानते तो पराङ्मुख हैं और तपहीत मोक्ष माने हैं, तिनकों ऐसा उपदेश दिया है । तत्वज्ञानविमा केवल तपहीतै मोक्ष न होय । बहुरि तत्वज्ञान भए रागादिक मेटने से के अर्थि तपकरनेका तो 'निषेध है माहीं । जो निषेप होय, तो गणधरादिक तप काहेकौं करें। | तातें अपनी शक्तिअनुसार तप करमा योग्य है। बहरि वह तपादिककों बंधन मान है । सो
स्वच्छन्दवृत्ति तो भज्ञानअवस्थाहीविर्ष थी। शाम पाएं तो परिणसिकौं रोके ही है। बधुरि । Hतिस परिणति रोकनेके अर्थि घाय हिंसादिक कारणनिका त्यागी भवस्य भया चाहिए। बहुरि ।
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वह कहै है हमारे परिणाम तो शुद्ध हैं वाह्य त्याग न किया, तो न किया । ताका उत्तर
जे ए हिंसादिकार्य तेरे परिणामबिना खयमेव होते होंय, तो हम ऐसैं माने। अर तू अपना परिणामकरि कार्य करे, तहां तेरे परिणाम शुद्ध कैसे कहिए। विषयसेवनादि क्रिया | | वा प्रमादगमनादि क्रिया परिणामविना कैसे होय । सो क्रिया तो आप उद्यमी होय तू करै,
अर तहां हिंसादिक होय ताकों तू गिनै नाहीं, परिणाम शुद्ध माने । सो ऐसें माने तो तेरे | परिणाम अशुद्ध ही रहेंगे। बहुरि वह कहै है-परिणामनिको रोकै ह ए बाह्य हिंसादिक घटाईए । परंतु प्रतिज्ञाकरनेमें बंध हो है, ताते प्रतिज्ञारूप व्रत नाहीं अंगीकार करना ताका | समाधान
जिस कार्यके करनेकी आशा रहै, ताकी प्रतिज्ञा न लीजिए है। अर आशा रहे तिसते। राग रहे है । तिस रागभावतें बिना कार्य किए भी अविरतिका बंध हुवा करें । तातै प्रतिज्ञा अवश्य करनी युक्त है । बहुरि कार्यकरनेकों बंधन भए बिना परिणाम कैसे रुकेंगे। प्रयोजन पड़े तद्रूपपरिणाम होंय ही होंय । वा विना प्रयोजन पड़ें भी ताकी आशा रहै। ताते प्रतिज्ञा करनी ही युक्त है । बहुरि वह कहै है—न जानिए कैसा उदय आवे, पीछे प्रतिज्ञाभंग होय तौ महापाप लागे । तातै प्रारब्ध अनुसार कार्य बनें, सो बनौ, प्रतिज्ञाका विकल्प न करना। ताका समाधान
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प्रकाश
प्रतिज्ञा हस करतें जाका निर्वाह होता न जाने, तिस प्रतिज्ञाकों तो करें नाहीं। प्रतिज्ञा लेते ही यह अभिप्राय रहे, प्रयोजन पड़े छोड़ि द्योंगा वह प्रतिज्ञा-कौन कार्यकारी भई।
अर प्रतिज्ञा ग्रहण करते तो यह परिणाम है, मरणांत भए भी न छोड़ोंगा ऐसी प्रतिज्ञाकरनी || ! युक्त ही है। बिना प्रतिज्ञा किए अविरत सम्बन्धी बंध मिटे नाहीं । बहुरि आगामी उदयकरि ।।
प्रतिज्ञा न लीजिए सो उदयकों विचारें सर्व ही कर्त्तव्यका नाश होय । जैसें आपको पचता। जाने, तितना भोजन करे । कदाचित् काहूकै भोजनतें अजीर्ण भया होय, तिस भयतें भोजन ! छांडे तो मरण ही होय । तेसैं आपके निर्वाह होता जाने, तितनी प्रतिज्ञा करे। कदाचित् |,
काहूके प्रतिज्ञातें भ्रष्टपना भया होय, तो तिस भयते प्रतिज्ञा करनी छांई तो असंयम ही होय। । तातै वनै सो प्रतिज्ञा लेनी युक्त है। बहुरि प्रारब्ध अनुसार तो कार्य बने ही है, तू उद्यमी || । होय भोजनादि काहेकों करे है । जो तहां उद्यम करें है, तो त्याग करनेका भी उद्यम करना | युक्त ही है । जब प्रतिमावत् तेरी दशा होय जायगी, तब हम प्रारब्ध ही मानेगे-तेरा कर्त्त
व्य न मानेंगे। तात काहेकों खच्छन्द होनेकी युक्ति बनावै है। बने सो प्रतिज्ञाकरि व्रत धारना योग्य है । बहुरि वह पूजनादि कार्यनिकौं शुभास्त्रव जान हेय माने है । सो यह सत्य है। परंतु जो इन कार्यनिकों छोड़ि शुद्धोपयोगरूप होय तो भले ही है ।अर विषय कषायरूप, अशुभरूप प्रवत्ते, तो अपना बुरा ही किया। शुभोपयोगते स्वर्गादि होय वा भली वासनाते||३११
मार
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मो.मा. प्रकाश
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वा भला निमित्तते कर्मका स्थिति अनुभाग घटि. जाय, तो सम्यक्तादिककी भी प्राप्ति होय जाय । बहुरि अराभोपयोगते नरक निगोदादि होय, या बुरी वासनाते वा बुरा निमित्तते कर्मका. स्थिति अनुभाग बधि जाय, तो सम्यक्तादिक महा दुर्लभ होय जाय । बहुरि शुभोपयोगहीत. कषाय मन्द हो है। अशुभोपयोग तीव्र हो है। सो मंदकषायका कारण छोरि तीनकषायका. कारण तो, ऐसा है, जैसे कड़वी वस्तु न खानी अर विष खोना । सो यह अज्ञानता है । बहुरि वह.कहै. है-शास्त्रविषे शुभ अशुभकों समान कह्या है, ताते हमको तौ। | विशेष जानना युक्त नाहीं। ताका समाधान
जे जीव शुभोपयोगकों मोचका कारण मानि उपादेय माने हैं, शुद्धोपयोगकों नाहीं पहिचाने हैं, तिनकों शुभ अशुभ दोऊनिकों अशुद्धताकी अपेक्षा वा बंधकारणकी अपेक्षा स-|| मान दिखाईये है । बहुरि शुभ अशुभनिको परस्पर विचार कीजिए, तो शुभभावनिकै विषै | कषायमन्द हो है, तातें बंध हीन हो है । अशुभभावनिवि कषायतीव हो है, तातें बंध बहुत |
हो है । ऐसें विचार किए अशुभकी अपेक्षा सिद्धांतविष शुभको भला भी कहिए । जैसे रोग | तो थोरा वा बहुत बुरा ही है। परंतु बहुत रोगकी अपेक्षा थोरा रोगकू भला भी कहिए । तात।
शुभोपयोग नाही होय, तब अशुभते छुटि शुभविषे प्रवर्तना युक्त है। शुभकों छोरि प्रशुभविषे ।। ३१२ प्रवर्तनाः युक्त नाहीं । बहुरि, वह कहै है जो कामादिक वा क्षुधादिक मिटावनेकौं अशुभरूप
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प्रवृत्ति तो भए विना रहती नाही, पर शुभप्रवृत्ति चाहिकरि करनी परे है । ज्ञानीके चाहि चाप्रा. राहिए नाहीं । तातें शुभका उद्यम नाहीं करना । ताका समाधान
शुभप्रवृत्तिविषे उपयोग लागनेकरि वा ताके निमित्तते विरागता वधनेकरि कामादिक हीन हो हैं । भर चुधादिकवि भी संकलेश थोरा हो है । तातें शुभोपयोगका अभ्यास करना।। । उद्यम किए भी जो कामादिक वा क्षुधादिक रहै, तौ ताकै अर्थि जैसें थोरा पाप लागै, सो।।
करना । बहुरि शुभोपयोगकों छोड़ि निःशंक पापरूप प्रवर्त्तना तो युक्त नाहीं । बहुरि तू कहै | । है-ज्ञानीकै चाहि नाहीं अर शुभोपयोग चाहि किए होय, सो जैसे पुरुष किंचिंमात्र भी अ-11
पना धन दिया बाहै नाही, परंतु जहां बहुत द्रव्य जाता जाने, तहां चाहिकरि स्तोक द्रव्य देनेका उपाय करें है । तैसें ज्ञानी किंचिंमात्र भी कषायरूप कार्य किया चाहै नाहीं । परंतु जहां बहुत कषायरूप अशुभकार्य होता जाने, तहां चाहिकरि स्तोक कषायरूप शुभकार्य करने ।
का उद्यम करै । ऐसें यह बात सिद्ध मई-जहां शुद्धोपयोग होता जाने, तहां तो शुभकार्यका । निषेध ही है भर जहां अशुभोपयोग होता जाने, तहां शुभकर्को उपायकरि अंगीकार करना युक्त।
है। या प्रकार अनेक व्यवहारकार्यकों उथापि स्वच्छंदपनाको स्थापै है, ताका निषेध कियाअव । तिस ही केवल निश्चयावलंबी जीवको प्रकृति दिखाइए है___एक शुद्धात्माकों जाने ज्ञानी होय है-अन्य किछु चाहिए नारी. ऐसा जानि कबहू ए
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मो.मा.
#कांत तिष्टकरि ध्यानमुद्रा धारिमें सर्वकर्मउपाधिरहित सिद्धसमान आत्मा हों, इत्यादि विचार प्रकाश ॥ करि संतुष्ट हो है । सो ए विशेषण केसैं संभवें। असंभव हैं, ऐसा विचार नाही अथवा अ
चल अखंडित अनुपम आदि विशेषणनिकरि आत्माकों ध्यावै हैं, सो ए विशेषण अन्य द्रव्य| निविषै भी संभवै हैं । बहुरि ए विशेषण किस अपेक्षा हैं, सो विचार नाहीं । बहुरि कदाचित् ।। सूता बैव्या जिस तिस अवस्थाविषै ऐसा विचार राखि आपकों ज्ञानी मानै है । बहुरि ज्ञानीके
आश्रव बंध नाहीं, ऐसा आगमविर्षे कह्या है । ताते कदाचित् विषयकषायरूप हो है। तहां ।। | बंध होनेका भय नाहीं है । स्वच्छंद भया रागादिकरूप प्रवर्ते है । सो आपा परको जाननेका | तो चिन्ह वैराग्यभाव है, सो समयसारविर्षे कह्या है
सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः । याका अर्थ यह सम्यग्दृष्टीके निश्चयों ज्ञानवैराग्यशक्ति होय । बहुरि कह्या है
सम्यग्दृष्टिः खयमयमहं जातु बन्धो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोप्याचरन्तु । आलम्ब्यन्तां समितिपरतां ते यतोद्यापि पापाः
आत्मानामावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वशून्याः॥१॥ याका अर्थ-स्वयमेव यह में सम्यग्दृष्टी हो, मेरे कदाचित बंध नाहीं, ऐसे ऊंचा फुला
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भो.मा. प्रकाश
| या है मुख जिन. ऐसे रागी वैराग्यक्तिरहित भी आचरण करे हैं, तो करौ, बहुरि पंचसमि| तिकी सावधानीकों अवलंबे हैं, तो अवलंबी, ज्ञानशक्ति बिना अजहू पापी ही हैं। ए दोऊ |
आल्मा अनात्माका ज्ञानरहितपनाते सम्यक्वरहित ही हैं। - बहुरि पूछिए है-परकों पर जान्या, तो परद्रव्य विर्षे रागादि करनेका कहा प्रयोजन रह्या । तहां वह कहै है-मोहके उदयते रागादि हो हैं । पूर्व भरतादि ज्ञानी भए, तिनकै भी | विषयकषायरूप कार्य भया सुनिए है । ताका उत्तर__ज्ञानीके भी मोहके उदयते रागादिक हो हैं यह सत्य, परंतु बुद्धिपूर्वक रागादिक होते नाहीं । सो विशेष वर्णन आगे करेंगे । बहुरि जाकै रागादि होनेका किछु विषाद नाहीं, तिनके । नाशका उपाय नाही, ताकै रागादिक बुरे हैं ऐसा श्रद्धान भी नाहीं संभव है । ऐसे श्रद्धानबिना सम्यग्दृष्टी कैसे होय । जीवाजीवादि तत्त्वनिके श्रद्धान करनेका प्रयोजन तो इतना ही | । श्रद्धान है । बहुरि भरतादि सम्यग्दृष्टीनिकै विषय कषायनिकी प्रवृत्ति जैसे हो है, सो भी । विशेष आगें कहेंगे । तू उनका उदाहरणकरि खच्छन्द होगा, तो तेर तीव्र पास्त्रव बंध होगा। सो ही कह्या है
मग्नाः ज्ञाननयैषिणोपि यदि ते खछन्दमन्दोद्यमाः । याका अर्थ यह ज्ञाननयके अवलोकनहारे भी जे स्वछन्द मन्दउद्यमी हो हैं, ते संसार
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मो.मा प्रकाय विष बुड़े । और भी तहां "ज्ञानिनः कर्म न जातु कर्तुमुचितं” इत्यादि कलशाविष वा "त
थापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनः” इत्यादि कलशाविषे खछन्द होना निषेध्या है। विना चाहि जो कार्य होय, सो कर्मबन्धका कारण नाहीं । अभिप्रायतें कर्ता होय करै अर ज्ञाता रहै, यह तो बनें नाहीं, इत्यादि निरूपण किया है । ताते रागादिक बुरे अहितकारी जानि तिनका नाशके अर्थ उद्यम राखना । तहां अनुक्रमविर्षे पहले तीव्ररागादि छोड़नेके अनेक अ-1 शुभ कार्य छोड़ि शुभकार्यविषे लाग ना, पीछे मन्दरागादि भी छोड़नेके अर्थ शुभकों छोड़ि शुद्धोपयोगरूप होना । बहुरि केई जीव व्यापारादि कार्य वा स्त्रीसेवनादि कार्यनिकों भी घटावे हैं। बहुरि शुभकों हेय जानि शास्त्राभ्यासादि कार्यनिवि नाहीं प्रवत्तें हैं । वीतरागभावरूप शुद्धो
पयोगकों प्राप्त भए नाही, ते जीव अर्थ काम धर्म मोक्षरूप पुरुषार्थ ते रहित होतेसते आ। लसी निरुद्यमी हो हैं । तिनकी निंदा पंचास्तिकायकी व्याख्याविषै कीनी है। तिनकों दृष्टान्त दिया है जैसे बहुत खीर खांड़ खाय पुरुष आलसी हो है, वा जैसें वृक्ष निरुद्यमी हैं, तैसे ते जीव भालसी निरुद्यमी भए हैं। अब इनको पूछिए है-तुम बाह्य तो शुभ अशुभ कार्य-10 निकों घटाया, परंतु उपयोग तो आलम्बनबिना रहता नाही, सो तुम्हारा उपयोग कहां रहै। है, सो कहो । जो वह कहे-मात्माका चितवन करें हैं, तो शास्त्रादिकरि अनेक प्रकारका आत्माका विचारकों तो तुम विकल ठहराया पर कोई विशेषण मारमाके जाननेमें बहुत काल
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बागे नाही, बारम्बार एकरूप चितवनविषे छद्मस्थका उपयोग खावता नाहीं । मणधरादिकका | भी उपयोग ऐसें न रहिसके, ताते तेहू शास्त्रादि कार्यनिविषे प्रवत्त हैं । सेरा उपयोग गणधरादिकतें भी शुद्ध भया कैसें मानिए । ताते तेरा कहना प्रमाण नाहीं । जैसे कोऊव्यापारादि
विष निरुद्यमी होय ठाला जैसे तैसें काल गमावे, तैसें तू धर्मविष निरुयमी होय प्रमादी । म यों ही काल गभावे है । कबहू किछु चितवनसा करे, कबहू बातें वनावे, कबहू भोजनादि ||
करै, अपना उपयोग निर्मल करनेकौं शास्त्राभ्यास तपश्चरण भक्तिमादि कार्यनिविषे प्रवर्त्तता नाहीं। सुनासा होय प्रमादी होनेका नाम शुद्धोपयोग ठहराय, तहां क्लेश थोरा होनेते जैसे कोई भालसी होय पस्था रहने में सुख माने, तैसें मानन्द माने है । अथवा जैसे सुपनेविषे । मापकों राजा मानि सुखी होय, तैसें भापकों भ्रमते सिद्ध समान शुद्ध मानि भाप ही मा: नन्दित हो है । अथवा जैसे कहीं रति मानि सुखी हो है, तैसें किछु विचार करनेविषे रति मानि सुखी होय, ताको अनुभवजनित भानन्द कहै है । वहरि जैसे कहीं भरति मानि उदास । होय, तैसें व्यापारादिक पुत्रादिककों खेदका कारण जानि तिनते उदास रहे है, ताको वैरा
ग्य माने है। सो ऐसा ज्ञान वैराग्य तो कषायगर्मित है। जो वीतरागरूप उदासीन दशा। विष निराकुखता होय, सो सांचा आनंद ज्ञान वैराग्य ज्ञानी जीवनिकै चारित्रमोहकी हीनता |
भए प्रगट हो है । बहुरि वह व्यापारादि ले छोड़ि यथेष्ट भोजनादिकरि सुखी दुवा प्रवर्ते है
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आपकों तहाँ कषायरहित मानें है, सो ऐसे आनन्दरूप भए तौ रौद्रध्यान हो है । जहाँ सुखसामग्री छोड़ि दुखसामग्रीका संयोग भए संक्लेश न होय, रागद्वेष न उपजे, तहां निःकषायभाव हो है । ऐसें भ्रमरूप तिनकी प्रवृत्ति पाईये हैं। या प्रकार जे जीव केवल निश्चयाभासके अवखम्बी हैं, ते मिथ्यादृष्टी जानने । जैसें वेदांती वा सांख्यमतवाले जीवकेवल शछात्माके श्रद्वानी हैं, तैसें ए भी जानने । जाते श्रद्धानकी समानताकरि उनका उपदेश इनको इष्ट लागे है. इनका उपदेश उनको इष्ट लागे है। बहुरि तिन जीवनिकै ऐसा श्रद्धान है जो केवल। शुद्धामाका चितवनते तो संवर निर्जरा हो है, वा मुक्तात्माका सुत्रका अंश तहां प्रगट हो है। पहुरि जीवके गुणस्थानादि अशुद्ध भावनिका वा भाप बिना अन्य जीव पुद्गलादिकका चितवन किए मानव बंध हो है । तातै अन्य विचारतें पराङ्मुख रहे हैं। सो यह भी सत्य ! श्रद्धान नाहीं । जाते शुद्ध स्वद्रव्यका चिंतश्न करो, वा अन्य चितवन करौ । जो वीतरागता || लिए भाव होय, तो तहां संवर निजरा ही है , और जहां रागादिरूप भाव होय, तहां आस्रव ।। बंध है । जो परद्रव्यके जाननेहति भास्रव बंध होय तो केवली तो समस्त परद्रव्यकों जाने हैं, तिनके भी मानव बंध होय । बहुरि वह कहे है-जो छद्मस्थकै परद्रव्य चितवन होते आस्रव बंध हो है । सो भी नाही, जाते शुक्रध्यानविर्षे भी मुनिनिकै छहों द्रव्यनिका द्रव्यगुणपर्याय- ३१८ निका चितवन होना निरूपण किया है वा अवधिमनःपर्यायादिवि परद्रव्यके जाननेकी विशे
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मो.माः प्रकाश
षता हो है । बहुरि चौथा गुणस्थानविषे कोई अपने स्वरूपका चितवन करें है, ताके भी आ-11 लव बंध अधिक है, वा गुणश्रेणी निजंग नाही है । पंचम षष्ठम गुणस्थानविर्षे माहार विहारादि क्रिया होते परद्रव्य चितवनते भी प्रास्रव बंध थोरा हो है वा गुणश्रेणी निर्जरा हुवा करें है । वाते खद्रव्य परद्रव्यका चितवनतें निर्जरा बंध नाहीं। रागादिक घटे निर्जरा है, रागादिक भए बंध है । ताकों रागादिकके खरूपका यथार्थ ज्ञान नाहीं, तातै अन्यथा माने है। तहां वह पूछे है कि, ऐसे है तो निर्विकल्पदशाविषे नपप्रमाण निपादिकका वा दर्शन ज्ञानादिकका भी विकल्पकरनेका निषेध किया है, सों कैसें है ताका उत्तर
जे जीव इनही विकल्पनिविषै लगि रहे हैं, अभेदरूप एक आपाकों नाहीं अनुभव हैं, तिनों ऐसा उपदेश दिया है, जो ए सर्व विकल्प वस्तुका निश्चयकरनेकों कारन हैं। वस्तुका निश्चय भए इनका प्रयोजन किछू रहता नाहीं। ताते इन विकल्पनिकों भी छोड़ि अभेदरूप एक श्रात्माका अनुभव करना। इनके विचाररूप विकल्पनिहीविष फैसि रहना योग्य
नाहीं । बहुरि वस्तुका निश्चय भए पी ऐसा नाहीं, जो सामान्यरूप खद्रव्यहीका चितवन । रह्या करें । खद्रव्यका वा परद्रव्यका सामान्यरूप वा विशेषरूप जानना होय, परंतु वीतरागता लिए होय, तिसहीका नाम निर्विकल्पदशा है । तहां वह पूछे है-यहा तो बहुत विकल्प भए, निर्विकल्पदशा से संभवे । ताका उत्तर
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निर्विचार होनेका नाम निर्विकल्प नाहीं है। ताते छनस्थकै जानना विचार लिए है। ताका प्रभाव माने ज्ञानका प्रभाव होय, तव जड़पना भया। सो |आत्माकै होता नाहीं। ताते विचार तो रहै । बहुरि नो कहिए, एक सामान्यका ही विचार रहता है, विशेषका नाहीं । तो सामान्यका विचार तो बहुतकाल रहता नाही वा विशेषकी अपेक्षा विना सामान्यका खरूप भासता नाहीं । बहुरि कहिए-आपहीका विचार रहता है, परका नाही, तो परविर्षे परबुद्धि | भए बिना भापविणे निजबुद्धि कैसे आवे । तहां वह कहै है, समयसारविषे ऐसा कह्या है
भावये दविज्ञानमिदमाच्छन्नधारया।
सावद्धचायन्परं धुत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठिते ॥ १॥ - याका अर्थ-यह भेदविज्ञान तावत् निरंतर भावना, यावत् परतें छूटे ज्ञान है सो ज्ञान| विषे स्थिति होय । ताते भेदविज्ञान छूटे परका नानना मिटि जाय है। केवल आपहीकों आप जान्या करें है। . सो यहां तो यह कह्या है-पूर्वे पापा परकों एक जानै था, पीछे जुदा जाननेकों-भेदविज्ञानकों तावत् भावना ही योग्य है, यावत् ज्ञान पररूपकौं भिन्न जानि अपने ज्ञानस्वरूपही विषे निश्चित होय । पीछे भेदविज्ञान करनेका प्रयोजन रह्या नाहीं। स्वयमेव परकों पररूप | भापकों आपरूप जान्या करे है । ऐसा नाहीं, जो परद्रव्यका मानना ही मिटि बाय है । आते
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परद्रव्यका जानना वा स्वदव्यका विशेष जाननेका नाम विकल्प नाहीं है । तो कैसे है, सो कहिए है-राग द्वेषके वशते किसी ज्ञेयके जाननेविषे उपयोग लगावना । ऐसें बारंबार उपयोगकौं भ्रमावना, ताका नाम विकल्प है। बहुरि जहां वीतराग होय जाकौं जानें है, ताको यथार्थ नाने है । अन्य अन्य ज्ञेयके जाननेके अर्थि उपयोगकों नाहीं भ्रमावे है। तहां निर्विकल्पदशा जाननी । यहां कोऊ कहै-छमस्थका उपयोग तौ नाना शेयविषे भ्रमे ही भ्रमै। तहां निर्विकल्पता कैसे संभव है । ताका उत्तर. जेतै काल एक जाननेरूप रहै, तेतै निर्विकल्प नाम पावै । सिद्धांतविष ध्यानका लक्षण ऐसा ही किया है “एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ।' एकका मुख्य चिंतवन होय अर अन्य चिंता सके, ताका नाम ध्यान है। सर्वार्थसिद्धि सूत्रांकी टीकाविषै यह विशेष कह्या है जो सर्व चिंता रुकनेका नाम ध्यान होय, तो अचेतनपनो होय जाय । बहुरि ऐसी भी विविक्षा है-जो संतानअपेक्षा नाना शेयका भी जानना होय । परंतु यावत् वीतरागता रहै, गगादिक- | करि आप उपयोगकौं भ्रमावै नाहीं, तावत् निर्विकल्पदशा कहिए है । बहुरि वह कहै-ऐसे है, तौ परद्रव्यतै छुड़ाय स्वरूपविषे उपयोग लगावनेका उपदेश काहेकों दिया है। ताका || समाधान
जो शुभ अशुभ भावनिकों कारण परद्रव्य हैं, तिनविष उपयोग लगे जिनकै राग द्वेष |३२१
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मो.मा. प्रकाश
होय वे है, अर स्वरूपचितवन करे तो राग द्वेष घटे है, ऐसे नीचली अवस्थावारे जीवनिकों पूर्वोक्त उपदेश है । जैसे कोऊ स्त्री, विकारभावकरि काहूकै घर जाय थी, ताक मनें करी-परघर मति जाय, घरमें बैठि रहो । बहुरि जो स्त्री निर्विकार भावकरि काहूकै घर जाय, यथायोग्य प्रवर्तें, तो किछु दोष है नाहीं । तैसें उपयोगरूप परणति रागद्वेषभावकरि परद्रव्यनिविषै प्रवर्तें थी, ताक मनें करी - परद्रव्यनिविषै मति प्रवर्ते, स्वरूपविषै मग्न रहौ । बहुरि जो उपयोगरूप परणति वीतरागभावकरि परद्रव्यकों जानि यथायोग्य प्रवर्ते, तौ किछू दोष है नाहीं । बहुरि वह कहै है — ऐसे है, तो महामुनि परिग्रहादिक चितवनका त्याग काहेको करें हैं । ताका
समाधान
जैसे विकाररहित स्त्री कुशीलके कारण परघरनिका त्याग करें, तैसें वीतरागपरणति राग द्वेषके कारण परद्रव्यनिका त्याग करें है । बहुरि जे व्यभिचारके कारण नाहीं, ऐसे परघर जानेका त्याग हैं नाहीं । तैसें जे राग द्वेगके कारण नाहीं, ऐसे परद्रव्य जाननेका त्याग है नाहीं । बहुरि वह कहै है - जो जैसें स्त्री, प्रयोजन जानि पितादिककै घर जाय तौ जात्रो, बिना प्रयोजन जिस तिसकै घर जाना तौ योग्य नाहीं । तैसें परपतिकों प्रयोजन जानि सप्ततत्वनि का विचार करना । बिना प्रयोजन गुणस्थानादिकका विचार करना योग्य नाहीं । ताका
समाधान
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प्रकाश
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जैसें स्त्री प्रयोजन जानि पितादिक वा मित्रादिककै भी घर जाय, तैसें परगति तत्वनिका विशेष जाननेकों कारण गुणस्थानादिक कादिककों भी जानै । बहुरि यहां ऐसा जानना-जैसे शीलवती स्त्री उद्यमकरि तौ विटपुरुषनिकै स्थान न जाय, अर परवश जाना बनि । जाय, तौ तहां कुशील न सेवे, तो स्त्री शीलवती ही है । तैसें वीतरागपरणति उपायकरि तौ। रागादिकके कारण परद्रव्यनिविष न लागै । जो स्वयमेव तिनका जानना होय जाय, अर तहां रागादि न करें तो परणति शुद्ध ही है । तैसें स्त्री आदिकी परीषह मुनिनकै होय, तिनकों जाने ही नाहीं, अपने स्वरूपहीका जानना रहे है, ऐसा मानना मिथ्या है। उनकौं जानै तौ है, परंतु रागादिक नाहीं करें है। या प्रकार परद्रव्यनिकौं जानतें भी वीतरागभाव हो है, ऐसा भद्धान करना । बहुरि वह कहै है-ऐसे कैसे कह्या है, जो आत्माका श्रद्धान ज्ञान
आचरण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र है। ताका समाधान| अनादिः परद्रव्यविषे आपको श्रद्धान ज्ञान आचरण था,ताकौं छुड़ावनेकौं यह उपदेशहै।।
आपहीविषे आपका श्रद्धान ज्ञान आचरण भए परद्रव्यविषैरागद्वेषादिपरणति का श्रद्धान व ज्ञान वा आचरण मिटि जाय, तब सम्यग्दर्शनादि हो है। जो परद्रव्यका परद्रव्यरूप श्रदधानादि करनेते सम्यग्दर्शनादि न होते होंथ, तो केवलीके भी तिनका अभाव होय। जहां परद्रव्यकों बुरा जानना, निजद्रव्यों भला जानना, तहां तौ राग द्वेष सहज.ही भया। तहां
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आपकों आपरूप परकों पररूप यथार्थ जान्या करे, तेसें ही श्रद्धानादिरूप प्रवर्त्ते, तब ही सम्यग्दर्शनादि हो है । ऐसें जानना । तातें बहुत कहा कहिए, जैसें रागादि मिटावनेका श्रद्धधान होय, सो ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । बहुरि जैसे रागादि मिटावनेका जानना होय, | सो ही जानना सम्यग्ज्ञान है । बहुरि जैसें रागादि मिटें, सो ही आचरण सम्यक्चारित्र है । ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है । या प्रकार निश्चयनयको आभास लिए एकांतपक्षके धारी जैनाभास तिनकै मिथ्यात्वका निरूपण किया ।
अब व्यवहाराभास पक्षके जैनाभासनिकै मिथ्यात्वका निरूपण कीजिए है-जिनश्रागमविषै जहां व्यवहारकी मुख्यताकरि उपदेश है, ताक मानि बाह्यसाधनादिकहीका श्रद्धानादिक करे है, तिनके सर्व धर्मके अंग अन्यथारूप होय मिथ्याभावकौं प्राप्त होंय हैं। यहां ऐसा जानि लेना - व्यवहारधर्मकी प्रवृत्तितै पुण्यबंध होय है, तातें पापप्रवृत्ति अपेक्षा तौ याका निषेध है। नाहीं । परंतु इहां जो जीव व्यवहार प्रवृत्तिहीकरि सन्तुष्ट होइ, सांचा मोक्षमार्गविषै उद्यमी न होय है, ताक मोक्षमार्गविषे सन्मुख करनेकौं तिस शुभरूप मिथ्याप्रवृत्तिका भी निषेधरूप निरूपण कीजिए है। जो यहु कथन कीजिए है, ताकौं सुनि जो शुभप्रवृत्ति छोड़ि अशुभविषै प्रवृत्ति करोगे, तौ तुम्हारा बुरा होगा, और जो यथार्थ श्रद्धाबकरि मोक्षमार्गविषै प्रवृत्त होवोगे, तो तुम्हारा भला होगा । जैसे कोऊ रोगी निर्गुण औषधिका निषेध सुत्नि औषधि साधन
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मो.मा. प्रकाश
छोडि कुपथ्य करेगा, तो मरेगा, वैद्यका कछू दोष है नाहीं । तैसें ही कोउ संसारी पुण्यरूप धर्मका निषेध सुनि धर्मसाधन छोड़ि विषय कषायरूप प्रक्र्सेगा, तो वह ही नरकादिविषै दुःख | पावेगा । उपदेश दाताका तो दोष नाहीं । उपदेश देनेवालेका अभिप्राय श्रय श्रद्धानादि छुड़ाय मोचमार्गचिषै लगावनेका जानना । सो ऐसा अभिप्रायते इहां निरूपण कीजिए है । इहां कोई जीव तो सक्रमकरि ही जैनी हैं, जैनधर्मका स्वरूप जानते नाहीं । परन्तु कुलविषै जैसी प्रवृत्ति चली झाई, तैलें प्रध हैं। सो जैसे अन्यमती अपने कुलधर्मविषै प्रवृत्ते हैं, तैसें ही यहु प्रवृत्तै हैं । जो कुलकमही धर्म होय, तौ मुसलमान आदि सर्व ही धर्मात्मा होंइ । जैनधर्मका विशेष कक्षा रह्या । सोई का है
लोयम्मि रायणीई गायं या कुलकम्म कश्यावि । किं पुरा तिलोयपहुणो जिदा मादिगारम्मि ॥१॥
लोकविषै यह राजनीति है - कदाचित् कुलक्रमकरि न्याय नाहीं होय है । जाका कुल चोर होय, ताकोरकरि पकरै, तौ वाका कुतक्रम जानि छोड़े नाहीं, दंड ही दे । तौ त्रिलोकप्रभु जिनेन्द्र देवके धर्मका अधिकारविषै कहा कुलक्रम अनुसारि न्याय संभवे । बहुरि जो पिता दरिद्री होय आप धनवान् होय, तहां तौ कुलक्रम विचारि आप दरिद्री रहता ही नाहीं । धर्मविषै कुता कहा प्रयोजन है । बहुरि पिता नरकि नाथ, पुत्र मोच जाय । तहां
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कुलक्रम कैसे रह्या । जो कुल ऊपरि दृष्टि होय, तौ पुत्र भी नरकगामी होय । तातै धर्मविष किछू कुलकमका प्रयोजन नाहीं । शास्त्रनिका अर्थ विचारि जो कालदोषते जिनधर्मविषे भी पापी पुरुषनिकर कुदेव कुगुरु कुधर्म सेवनादिरूप वा विषयकषायपोषणादिरूप विपरीत प्रवृत्ति चलाई होइ, ताका त्याग करि जिनयाज्ञा अनुसारि प्रवर्तना योग्य है । इहां कोऊ क परंपरा छोड़ि नवीन मार्गविषै प्रवर्तना योग्य नाहीं । ताकौं कहिए है—
जो अपनी बुद्धिकर नवीन मार्ग प्रवर्त्ते, तो थुक्त नाहीं । जो परंपरा अनादिनिधन जैनधर्मका स्वरूप शास्त्रनि विषै लिख्या है, ताकी प्रवृत्ति मेटि पापीपुरुषां अन्यथा प्रवृत्ति चलाई, तो ताक परंपरायमार्ग कैसे कहिए। बहुरि ताक छोड़ि पुरातन जैनशास्त्रनिविषै जैसा धर्म विख्या था, तैसे प्रवर्ते, तो ताकों नवीन मार्ग कैसें कहिए । बहुरि जो कुलविषै जैसे जिनदेवकी आज्ञा है, तैसें ही धर्मकी प्रवृत्ति है, तो आपको भी तैसें ही प्रवर्तना योग्य है । परंतु ताका कुलाचरण जानना, धर्म जानि ताके स्वरूप फलादिकका निश्चय करि अंगीकार करनाः । जो सांचा भी धर्मको कुलाचार जनि प्रवर्ते है, तौ तांकों धर्मात्मा न कहिए । जातै सर्व कुलके उस आचरणको छोड़ें, तो आप भी छोड़ि दे । बहुरि जो वह आचरण करे है, सो कुल का भयकरि करे है । किछु धर्मबुद्धि तैं माहीं करै है । तातैं वह धर्मात्मा नाहीं । ऐसे विवा - हादि कुलसम्बन्धी कार्यनिविषे तो कुलक्रमका विचार करना और धर्मसम्बन्धी कार्यविषै कुलका
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विचार न करना । जैसे धर्ममार्ग सांचा है, सैसे प्रवर्तना योग्य है। बहुरि कोई आज्ञा अनुसारि जैनी हैं । जैसे शास्त्रविष आज्ञा है, तैसें माने हैं । परन्तु आज्ञाकी परीक्षा करें नाहीं।। सो आज्ञा ही मानना धर्म होय, तो सर्व मतवारे अपने २ शास्त्रकी आज्ञामानि धर्मात्मा होइ।। ताते परीक्षाकरि जिनवचनको सत्यपनो पहिचानि जिन आज्ञा माननी योग्य है। बिना परीक्षा किए सत्य असत्यका निर्णय कैसे होय । और बिना निर्णय किए जैसे अन्यमती अपने २ || शास्त्रनिकी आज्ञा माने हैं, तैसे याने जैनशास्त्रकी आज्ञा मानी। यह तो पक्षकरि आज्ञा मानना है । कोउ कहै-शास्त्रविर्षे दश प्रकार सम्यक्त्वविषै आज्ञासम्यक्त्व कह्या है, वा आज्ञाविचयधर्मध्यानका भेद कह्या है, वा निःशंकितअंगविषै जिनवचनविषै संशय करना निषेच्या है, सो कैसे है । ताका समाधान
शास्त्रविषे केई कथन तो ऐसे हैं, जिनका प्रत्यक्ष अनुमान करि सकिए है। बहुरि । केई कथन ऐसे हैं, जो प्रत्यक्ष अनुमानादिगोचर नाहीं । सातै आज्ञाहीकरि प्रमाण होय है। तहां नाना शास्त्रनिविषै जो कथन समान होय, तिनको तो परीक्षा करनेका प्रयोजन ही नाही। बहुरि जो कथन परस्परविरुद्ध होइ, तिनिविषै जो कथन प्रत्यक्ष अनुमानादिगोचर होय, तिनकी तो परीक्षा करनी । तहां जिन शास्त्रके कथनकी प्रमाणता ठहरे, तिनि शास्त्रविषै जो प्रत्यक्ष अनुमानगोचर नाहीं, ऐसे कथन किए होंय, तिनकी भी प्रमाणता करनी । बहुरि जिन |
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शास्त्रनिके कथनकी प्रमाणता न ठहरै, तिनके सर्व ह कथनकी अप्रमाणता माननी । इहां | कोऊ कहै-परीक्षा किए कोई कथन कोई शास्त्रविर्षे प्रमाण भासे, कोई कथन कोई शास्त्रविषै । | अप्रमाण भासे तो कहा करिये । ताका समाधान___ जो आप्तके भासे शास्त्र हैं, तिनिविषे कोई ही कथन प्रमाणविरुद्ध न होइ । जाते के तौ। जानपना ही न होइ, के राग द्वेष होय, ते असत्य कहें । सो आप्त ऐसा होय नाहीं, तातै परीक्षा नीकी नाहीं कीनी है, बातें भ्रम है। बहुरि वह कहै है-छद्मस्थकै अन्यथा परीक्षा होय जाय, तो कहा करै । ताका समाधान___सांची झूठी दोऊ वस्तुनिकों मीड़े अर प्रमाद छोडि परीक्षा किए तो सांची ही परीक्षा होइ । जहां पक्षपातकरि नीके परीक्षा न करे, तहां ही अन्यथा परीक्षा होय है। बहुरि वह कहै है, जो शास्त्रनिविषे परस्पर विरुद्ध कथन तो घनो,-कौन २ को परीक्षा करिए। ताका समाधान
मोक्षमार्गविषै देव गुरु धर्म वा जीवादि तत्व बो बंधमोक्षमार्ग प्रयोजनभूत हैं, सो इनकी परीक्षा करि लेनी । जिन शास्त्रनिविणे ए सांचे कहे, तिनकी सर्व आज्ञा माननी । जिविनषै। ए अन्यथा प्ररूपे, लिनकी आज्ञा न माननी। जैसे लोकविणे जो पुरुष प्रयोजनभूत कार्यनिवि कुठ न बोले, लो प्रयोजनरहितविप केसे झूठ बोबैगा । तैसें जिन शास्त्रनिविर्षे प्रयो
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जनभूत देवादिक खरूप अन्यथा न कह्या, तिनिविर्षे प्रयोजन रहित द्वीप समुद्रादिकका । प्रकाश कथन अन्यथा कैसे होगा। जाते देवादिकका कथन अन्यथा किए वक्ताके विषय कषाय
| पोखे जांय हैं । इहां प्रश्न-जो देवादिकका कथन तो अन्यथा विषयकषायतें किया, तिनही शास्त्रनिविषै अन्य कथन अन्यथा काहेकौं किया। ताका समाधान
___ जो एक ही कथन अन्यथा कहै, वाका अन्यथापना शीघ्र ही प्रगट होय जाइ। जुदी। पद्धती ठहरै नाहीं । तातै घने कथन अन्यथा करनेते जुर्दा पद्धति ठहरे। तहां तुच्छबुद्धी ।
भ्रममें पडिजाय-यह भी मत है । तातै प्रयोजनभूतका अन्यथापनाका भेलनेके अर्थि अप्र। योजनभूत भी अन्यथा कथन घने किए। बहुरि प्रतीति अनावनेके अर्थि कोई २ सांचा भी । कथन किया। परंतु स्यामा होय, सो भ्रममें परै माहीं। प्रयोजनभूत कथनकी परीक्षाकरि जहां सांच भासे, तिस मतकी सर्व आज्ञा माने, सो परीक्षा किए जैनमत ही सांचा भाले है।
जाते याका वक्ता सर्वज्ञ वीतराग है, सो झूठा काहेकौं कहै । ऐसें जिन शाज्ञा माने, सो । । सांचा श्रद्धान होइ, ताका नाम आज्ञासम्यक्त्व है । बहुरि जहां एकाग्र चिन्तवन होय, ताका || नाम आज्ञाविचय धर्मध्यान हैं। जो ऐसे न मानिए शर विना परीक्षा किए आज्ञा माने । सम्यक्त्व वा धर्मध्यान होय जाय, तो द्रव्यलिंगी आशा मानि मुनि भया, श्राज्ञाअनुसार साधनकरि प्रवेयिक पर्यंत प्राप्त होय, ताकै मिथ्याटष्टिपना कैसे रह्या । ताते किछु परीक्षा- ३२६
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मोमा. करि आज्ञा माने ही सम्यक्त्व वा धर्मध्यान होय है । लोकवि भी कोई प्रकार परीक्षा किए।
ही पुरुषकी प्रतीति कीजिए है । बहुरि तें कह्या-जिनवचनविष संशय करनेते सम्यक्त्वको शंका नाम दोष होय; सो 'न नानिए यह कैसे हैं' ऐसा मानि निर्णय न कीजिए तो तहां |शंका नाम दोष होय । बहुरि जहां निर्णय करनेको विचार करते ही सम्यक्त्वको दोष लागै,
तो अष्टसहस्रीविषै आज्ञाप्रधानतें परीक्षाप्रधानको उत्तम काहेकौं कह्या । पृच्छना आदि खा। ध्यायके अंग कैसे कहे । प्रमाण नयतें पदार्थनिका निर्णय करनेका उपदेश काहेकौं दिया ।
ताते परीक्षाकरि आज्ञा मानवी योग्य है । बहुरि केई पापी पुरुषां अपना कल्पित कथन किया है पर तिनकों जिनवचन ठहरांवे हैं, तिमकों जैनमतका शास्त्र नानि प्रमाण न करना। तहां भी प्रमाणादिकतें परीक्षाकरि वा परस्पर शास्त्रनते विधि मिलाय वो ऐसे संभव है कि नाही, II ऐसा विचारकरि विरुद्ध अर्थको मिथ्या ही जानना । जैसे ठिग आप पत्र लिखि तामें लिख-|| | नवारेका नाम किसी साहूकारका धस्था, नामके भ्रमते धनको ठिगावे, तौ दरिद्री ही होय ।।। तैसें पापी आप ग्रंथादि बनाय, तहां कर्ताका नाम जिन गणधर आचार्यनिका धरया, तिस नामके भ्रमते झंठा श्रद्धान करै, तो मिथ्यादृष्टी ही होय । वहुरि यह कहै है-गोम्मरसार विषै ऐसा कहा है-सम्यग्दृष्टी जीव अज्ञानगुरुकै निमित्ततै झूठा भी श्रद्धान करे, तो माज्ञा माननेते सम्यग्दृष्टी होय है । सो यह कथन कैसे किया है । ताका उत्तर-जो प्रत्यक्ष अनुमा-11
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मो.मा. नादिगोचर नाही, सुक्ष्मपर्ने ते जिनका निर्णय न होइ सके, तिनकी अपेक्षा यह कथन है। प्रकाश
।। मूलभूत देव गुरु धर्मादि वा तत्वादिकका अन्यथा श्रद्धान भए, तो सर्वथा सम्यक्त्व रहै नाही,
यहु निश्चय करना । तातें बिना परीक्षा किएँ केवल आज्ञाहीकरि जैनी हैं, ते भी मिथ्यादृष्टी जानने । बहुरि केई परीक्षा भी करि जेनी होय हैं, परंतु मूल परीक्षा नाहीं करें हैं। दया शील तप संयमादि क्रियानिकरि वा पूजा प्रभावनादि कार्यनिकरि वा अतिशय चमत्कारादिकरि वा जिनधर्मते इष्ट प्राप्ति होनेकरि जिनमतकों उत्तम जानि प्रीतवंत होय जैनी होय हैं। अन्यमतविर्षे हुए कार्य तो होय हैं, सातें इन लक्षणनिविष प्रतिव्याप्ति पाइए है। कोऊ कहै-जैसे जिनधर्मविषे ए कार्य हैं, तैसें अन्यमतविर्षे न पाइए हैं। ताते प्रतिव्याप्ति नाहीं। ताका समाधान
यह तो सत्य है, ऐसें ही है। परंतु जैसे तू दयादिक माने है तैसें तो वे भी निरूपै हैं। परजीवनिकी रक्षाकों दया तू कहै; सोही वे कहे हैं। ऐसे ही अन्य जानने।। ___बहुरि वह कहे है उनके ठीक नाहीं । कबहूँ दया प्ररूमैं कबहूं हिंसा प्ररूपें । ताका. उत्तर-तहां दयादिकका अंशमात्र तो आया । ताते प्रतिव्याप्तिपना इनि लक्षणनिकरि पान इए है । इनिकरि सांची परीक्षा होय नाहीं। तो कैरों होय । जिनधर्मविषै सम्बन्द नचारित्र मोक्षमार्ग कह्या है । सही सांचे देवादिकका वा जीवादिकका श्रद्धान किए सम्यक्त्व होय,
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मो:मा. वा तिनिकौं जाने सम्यग्ज्ञान होइ, वा सांचा रागादिक मिटै सम्यक्चारित्र होइ, सो इनिका प्रकाश वरूप जैसे जिनमतविषै निरूपण किया है, तैसें कहीं निरूपण किया नाहीं। वा जैनीविना
अन्यमती ऐसा कार्य करि सकते नाहीं । तातै यहु जिनमतका सांचा लना है। इस लक्ष- | Nणको पहचानि जे परीक्षा करें, तेई श्रद्धानी हैं । इस विना अन्य प्रकारकरि परीक्षा करै हैं, ते । मिथ्यादृष्टी ही रहै हैं।
बहुरि केई संगतिकरि जैनधर्म धारे हैं। कोई महान् पुरुषको जिनधर्मविषै प्रवर्तता देखि | आप भी प्रवत्र्ते हैं । केई देखा देखी जिनधर्मकी शुद्ध वा अशुद्ध क्रियानिविषै प्रवत्र्ते हैं । इत्यादि अनेकप्रकारके जीव आप विचारकरि जिनधर्मका रहस्य नाही पहिचानै हैं अर जैनी । नाम धरावै हैं, ते सर्व मिथ्यादृष्टी ही जानने । इतना तौ है, जिनमतविषै पापकी प्रवृत्ति विशेष नाहीं होय सके है अर पुण्यके निमित्त घने हैं । अर सांचा मोक्षमार्गके भी कारण तहां बनि । रहे हैं। तात जे कुलादिकरि भी जैनी हैं, ते भी औरनितें तो भले ही हैं। बहुरि जे जीव
कपटकरि आजीवकाके अर्थि वा बड़ाईके अर्थि वा किछु विषकषायसम्बन्धी प्रयोजनविचार । जैनी हो हैं, ते पापी ही हैं । अति तीवकषाय भए ऐसी बुद्धि आवै है । उनका सुलझना भी
कठिन है । जैनधर्म तो संसारका नोशिके अर्थि सेवै है । ताकरि जो संसारके प्रयोजन साध्या |चाहै, सो बड़ा अन्याय करें है । ताते ते तो मिथ्यादृष्टि हैं ही।
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.. इहां कोऊ कहै-हिंसादिककरि जिन कार्यनिकों करिए, ते कार्य धर्मसाधनकरि सिद्ध
२९ का कीजिए, तो बुरा कहा भया । दोऊ प्रयोजन सधै ताकौं कहिए है-पापकार्य अर धर्मकार्य का एक साधन किए पाप.ही होय। जैसे कोऊ धर्मका साधन चैत्यालय बनाय, निसहीको । स्त्रीसेवनादि पापनिका भी साधन कर, तो पाप ही होइ । हिंसादिककरि भोगादिकके अर्थि जुदा मंदिर बनावै, तो बनावौ.। परन्तु चैत्यालयविषै भोगादि करना युक्त नाहीं। तैसें धर्मका साधन पूजा शास्त्रादि कार्य हैं, तिनिहीकों आजीविका आदि पापका भी साधन करे, तो पापी ही होय । हिंसादिकरि आजीविकादिकके अर्थि व्यापारादि करे, तो करौ । परन्तु पूजादि कार्यनिविषै तो आजीविका आदिका प्रयोजन विचारना युक्त नाहीं । इहां प्रश्न-जो ऐसे है तो मुनि भी धर्मसाधि परघर भोजन करें हैं वा साधर्मी साधर्मीका उपकार करें करावें हैं, सो कैसे बने । ताका उत्तर
जो आप किछु आजीविका आदिका प्रयोजन विचारि धर्म नाहीं साधै है, आपकौं धर्मास्मा जानि केई स्वयमेव भोजन उपकारादि करै है, तो किछु दोष है नाहीं। बहुरि जो आपही भोजनादिकका प्रयोजन विचारि धर्म साधे है, तो पापी है ही। जे विरागी होय मुनिपनो अंगीकार करें हैं, तिनिकै भोजनादिकका प्रयोजन नाहीं। शरीरकी स्थितिके अर्थि स्वयमेव भोजनादिक कोई दे तो लें, नाही तो समता राखें। संकलेशरूप होय नाहीं । बहरि आप हितकै ३३३
।
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मो.मा.||| अर्थि धर्म साधे हैं । उपकार करावनेका अभिप्राय नाहीं है । आपकै जाका त्याग नाहीं, ऐसा प्रकाश
|| उपकार करावें। कोई साधर्मी खयमेव उपकार करे, तो करौ अर न करै तो आपकै किछु || संकल्लेश होता नाहीं । सो ऐसें तो योग्य है। अर आप ही आजीविका आदिका प्रयोजन । विचारि बाह्य धर्मका साधन करे, तहां भोजनादिक उपकार कोई न करे, तहां संक्लेश करे, | याचना करे, उपाय करे, वा धर्मसाधनविर्षे शिथिल होय जाय, सो पापी ही जानना। ऐसे | संसारीक प्रयोजन लिए धर्म साधै हे, ते पापी भी हैं अर मिथ्यादृष्टी हैं ही। याप्रकार जिन|| मतवाले भी मिथ्यादृष्टि जानने । अब इनके धर्मका साधन कैसे पाइये है, सो विशेष दिखा
।
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+Mao+0196/000000000000128GokaookGookaa00-8000000000000106003016/001061001300-00180G00180106fol
॥ तहां जीव कुलप्रवृत्तिकरि वा देख्यां देखी लोभादिकका अभिप्रायकरि धर्म साधे हैं, ति
निकै तो धर्मदृष्टि नाहीं । जो भक्ति करे है तो चित्त तो कहीं है, दृष्टि फिरया करै है। अर । मुखते पाठादि करै है वा नमस्कारादि करे है । परन्तु यह ठीक नाही में कौन हौं, किसकी ।
स्तुति करूँ हूँ, किस प्रयोजनके अर्थि स्तुति करौं हों; पाठवि कहा अर्थ है, सो किछू ठीक
नाही बहुरि कदाचित् कुदेवादिककी भी सेवा करने लगि जाय । तहां सुदेव गुरुशास्त्रादिविर्षे | । विशेष पहिचाने नाहीं। बहुरि जो दान दे है, तो पात्र अपात्रका विचाररहित जैसे अपनी
प्रशंसा होय, तेसैं दान दे है । बहुरि तप करे हैं, तो भूखा रहनेकरि महंतपनो होय सो कार्य ३३४
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|| करै है। परिणामिनकी पहिचान नाहीं । बहुरि प्रतादिक धारे है, तहां बाह्यक्रिया ऊपरि दृष्टि
है, सो भी कोई सांची क्रिया करें है, कोई झूठी करे है । अर अंतरङ्ग रानादिक भाव पाइये है, तिनिका विचार ही नाहीं। वा बाह्य भी रागादि पोषनेका साधन करै है। बहुरि पूजा प्रभावना आदि कार्य करे है । तहां जैसे लोकबिषे बड़ाई होय वा विषय-कषाय पोषे जाय, तैसें कार्य करे है । बहुरि वहुत हिंसादिक निपजावै है। सो ए कार्य तौ अपना वा अन्य | जीवनिका परिणाम सुधारनेके भर्थि कहे हैं। बहुरि तहां किंचित् हिंसादिक भी निपजै है, तौ थोरा अपराध होय गुण बहुत होय, सो कार्य करना कह्या है । सो परिणामनिकी पहचानि । नाहीं । अर यहां अपराध केता लागे है, गुण केता हो है, सो नफा टोटाका ज्ञान नाही, वा विधि अविधिका ज्ञान नाहीं । बहुरि शास्त्राभ्यास करै है । तहां पद्धतिरूप प्रवते है। जो वाँचे।
है, तो औरनिकों सुनाय दे है । जो पढ़े है, तो आप पढ़ि जाय है। सुनै है, तो कहै है सो । सुनि ले है । नो शास्त्राभ्यासका प्रयोजन है, ताकौं आप नाही अवधारे है। इत्यादि धर्म
कार्यनिका धर्मकों नाहीं पहिचाने । केई तो कुलविषै जैसे बड़े प्रवर्ते, तैसें हमकों भी करना, अथवा और करें हैं, तेसैं हमकों भी करना, वा ऐसे किए हमारा लोभादिककी सिद्धि होगी। इत्यादि विचार लिए अभूतार्थ धर्मों साधे हैं। बहुरि केई जीव ऐसे हैं, जिनके किछु तौ कुलादिरूप बुद्धि है, किछु धर्मबुद्धि भी है, तातै पूर्वेक्तप्रकार भी धर्मका साधन करें हैं पर
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कि आगें कहिए है, तिस प्रकार अपने परिणामनिकों भी सुधारे हैं । मिश्रपनो पाईये है। ॥ बहुरि केई धर्मबुद्धिकरि धर्म साधे हैं, परन्तु निश्चयधर्मकों न जाने हैं। तातै अभृतार्थ
धर्मों साधै हैं । तहां व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकों मोक्षमार्ग जानि तिनिका साधन करै हैं । तहां शास्त्रवि देव गुरु धर्मकी प्रतीति लिए सम्यक्त्व होना कह्या है। ऐसी आज्ञा मानि अरहंत देव निग्रंथ गुरु जैनशास्त्र विना औरनिकों नमस्कारादि करनेका त्याग | किया है । परन्तु तिनका गुण अवगुणकी परीक्षा नाहीं करें। हे । अथवा परीक्षा भी करें, तो तत्त्वज्ञानटूर्वक सांची परीक्षा नाहीं करें हैं । बाह्यलक्षणनिकरि परीक्षा करें हैं। ऐसे प्रतीतिकरि ।
सुदेव गुरु शास्त्रनिकी भक्ति विष प्रवत्र्ते हैं । तहां अरहंत देव है, सो इंद्रादिकरि पूज्य है, अनेक । अतिशयसहित है, क्षुधादिदोषरहित है, शरीरकी सुन्दरताको धरै है, स्त्रीसंगमादि रहित है,
दिव्यध्वनिकरि उपदेश दे है, केवलज्ञानकरि लोकालोक जाने है, काम क्रोधादिक नष्ट किए | है इत्यादि विशेषण कहै है । तहां इनविषै केई विशेषण पुद्गलके आश्रय हैं, केई जीवके
आश्रय हैं । तिनकों भिन्न भिन्न नाही पहिचान है। जैसें असमाननातीय मनुष्यादि पर्यायनिवि भिन्न न नानि मिथ्यादृष्टि धरै है, तैसें यह असमान जातीय अरहंतपर्यायविष जीव पुद्गलके विशेषणनिको भिन्न न जानि मिथ्यादृष्टिता धरै है । बहुरि जो बाह्य विशेषण है. तिनकों तो जानि तिनकरि अरहंतदेवको महन्तपनो विशेष माने है । अर जे जीवके विशेषण । ३३६
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हैं, तिनकों यथावत् न जानि तिनकरि अरहंतदेवको महंतपनो आज्ञा अनुसार माने है। अथवा अन्यथा माने है । जातै यथावत् जीवका विशेषण जाने मिथ्यादृष्टी रहै नाहीं । बहुरि तिन अरहंतनिकौं स्वर्गमोक्षका दाता दीनदयाल अधमउधारक पतितपावन माने है । सो अन्यनती कर्तृत्वबुद्धि ईश्वरकों जैसें माने है, तैसें यह अरहन्त कों माने है । ऐसा नाहीं जाने है - फल तो अपने परिणामनिका लागे है, अरहंतनिकों निमित्त माने हैं, तातै उपचारकरि वै विशेषण संभव हैं। अपने परिणाम शुद्ध भए विना अरहंत हू स्वर्गमोनादिका दाता नाहीं । बहुरि अरहंतादिकके नामादिकतैं श्वानादिक स्वर्ग पाया । तहां नामादिकका ही अतिशय माने हैं । विना परिणाम नाम लेनेवालों के भी स्वर्गकी प्राप्ति न होय, तो सुननेवालेकै कैसें होय । श्वानादिककै नाम सुनने के निमित्त मंदकषायरूप भाव भए हैं । तिनका फल स्वर्ग भया है । उपचारकरि नामहीकी मुख्यता करी है । बहुरि अरहंतादिकके नाम पूजनादिकतैं अनिष्ट सामग्रीका नाश इष्ट सामग्रीकी प्राप्ति मानि रोगादि मेटनेके अर्थ वा धनादिकी प्राप्तिके
नाम ले है वा पूजनादि करे है । सो इष्ट अनिष्टके तो कारण पूर्वकर्मका उदय है । अरहन्ततौ कर्त्ता है नाहीं । अरहंतादिककी भक्तिरूप शुभोपयोग परिणामनितें पूर्व पापका संक्रमणादिक होय जाय है । ततै उपचारकरि अनिष्टका नाशकों इष्टकी प्राप्तिकों कारण थरहन्तादिककी भक्ति कहिए है । अर जो जीव पहले ही संसारी प्रयोजन लिए भक्ति करै, ताकै
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मोमाः | तो पापहीका अभिप्राय रह्या । कांक्षारूप भाव भए तिनकरि पूर्वपापका संक्रमणादि कैसे होय।।। प्रकाश
बहुरि तिनका कार्यसिद्ध न भया । बहुरि केई जीव भक्तिकों मुक्तिका कारण जानि तहां अति अनुरागी होय प्रवत्तें हैं । सो अन्यमती जैसें भक्तिते मुक्ति माने हैं, तैसे याकै भी श्रद्धान || | भया । सो भक्ति तौ रागरूप है । राग बंध है । तातें मोक्षका कारण नाहीं। जब रागका | उदय आवे, तब भक्ति न करे, तो पापानुराग होय । ताते अशुभ राग छोड़नेकौं ज्ञानी भक्ति विषै प्रवर्ते हैं । वा मोक्षमार्गकों बाह्य निमित्तमात्र भी जाने हैं। परन्तु यहां ही उपादेयपना मानि सन्तुष्ट न हो हैं। शुद्धोपयोगका उद्यमी रहे हैं। सोही पंचास्तिकायव्याख्याविर्षे कह्या है
इयं भक्तिः केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति ।
तीव्ररागद्वेषविनोदार्थमस्थानरागनिषेधार्थ क्वचित् ज्ञानिनोपि भवति ॥ याका अर्थ यह भक्ति केवलभक्ति ही है प्रधात जाकै ऐसा अज्ञानीजीवकै हो है। बहरि तीव्र रागज्वर मेटनेके अर्थ वा कुठिकानें रागनिषेधनेके अर्थि कदाचित् ज्ञानीक भी हो है। तहां वह पूछ है-ऐसें है, तो ज्ञानीत अज्ञानीके भक्तिकी विशेषता होती होगी। ताका || उत्तर
यथार्थपनेकी अपेक्षा तो ज्ञानीकै सांची भक्ति है-अज्ञानीके नाहीं है । अर रागभावकी
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मो.मा. । अपेक्षा अज्ञानीके श्रद्धानविष भी मुक्तिकारण जाननेते अति अनुराग है। ज्ञानीके श्रद्धानविपे || प्रकाश
शुभबंधकारण जाननेते तैसा अनुराग नाहीं है । बाह्य कदाचित् ज्ञानीकै अनुराग घना ही है, | कदाचित् अज्ञानीके हो है ऐसा जानना । ऐसें देवभक्तिका स्वरूप दिखाया । अब गुरुभक्ति || वाकै कैसैं हो है, सो कहिए है
केई जीव आज्ञानुसारी हैं । ते तो ए जैनके साधु हैं, हमारे गुरु हैं, ताते इनकी भक्ति | करनी, ऐसे विचारि तिनकी भक्ति करे हैं । बहुरि केई जीव परीक्षा भी करै हैं ! तहां ए मुनि दया पाले है, शील पालें है, धनादि नाही राखे हैं, उपवासादि तप करै हैं, क्षुधादि परीषह सहै हैं, किसीसौं क्रोधादि नाहीं करें हैं, उपदेश देय औरनिकों धर्मविष लगावै हैं, इत्यादि गुण विचारि तिनविषै भक्तिभाव करे हैं । सो ऐसे गुण तो परमहंसादिक परमती हैं, तिनविर्षे
वा जैनी मिथ्यादृष्टीनिवि भी पाईए । तातें इनविषै अतिव्याप्तपनो है। इनकरि सांची परीक्षा * होय नाहीं । बहुरि जिन गुणनिकों विचारै है, तिनविषै केई जीवाश्रित हैं, केई पुद्गलाश्रित
है, तिनका विशेष न जानना, असमानजातीय मुनिपर्यायविषै एकत्व बुद्धि तें मिथ्यादृष्टि ही।
रहै है । बहुरि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी एकतारूप मोक्षमार्ग सोई मुनिनका सांचा लक्षण है। | ताको पहिचान नाहीं। जाते यह पहिचानि भए मिथ्यादृष्टी रहता नाहीं । ऐसें मुनिनका सांचा
खरूप ही न जाने, तो सांची भक्ति कैसे होय । पुण्यबंधकौं कारणभूत शुभक्रियारूप गुणनिकों । ३३६
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मो.मा.
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पहचानि तिनकी सेवाते अपना भला होना जानि तिनविर्ष अनुरागी होय भक्ति करे है । ऐसा ।। गुरुभक्तिका स्वरूप कह्या । अब शास्त्रभक्तिका खरूप कहिए है
केई जीव तो यह केवली भगवानको वानी है, तातै केवलीके पूज्यपनाते यह भी पूज्य है, ऐसा जानि भक्ति करै हैं । बहुरि केई ऐसें परीक्षा करें हैं-इन शास्त्रनिवि विरागता दया क्षमा शील संतोषादिकका निरूपण है, तातै उत्कृष्ट हैं, ऐसा जानि भक्ति करें हैं। सो ऐसा कथन तो अन्य शास्त्र वेदान्तादिक तिनविष भी पाईए है। बहुरि इन शास्त्रनिविषै त्रिलोकादिकका गंभीर निरूपण है । तातै उत्कृष्टता जानि भक्ति करे हैं । सो यहां अनुमाना| दिकका तो प्रवेश नाहीं। यहां अनेकांतरूप सांचा जीवादितत्त्वनिका निरूपण है । अर सांचा रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग दिखाया है । ताकरि जैनशास्त्रनिको उत्कृष्टता है। ताकों नाहीं पहिचान है। आते यह पहचानि भए मिथ्या ष्टि रहे नाहीं । ऐसे शास्त्रभक्ति का स्वरूप कह्या। ___ या प्रकार याकै देव गुरु शास्त्रकी प्रतीति भई, तातै व्यवहारसम्यक्त्व भया माने है । परन्तु उनका सांचाखरूप भास्या नाहीं । तातै प्रतीति भी सांची भई नाहों । सांची प्रतीतिविना सम्यक्तकी प्राप्ति नाहीं। तातै मिथ्यादृष्टी रहै है। बहुरि शास्त्रविषै “तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्” ऐसा वचन कह्या है । तातें जैसे शास्त्रनिविष जीवादि तत्त्व लिखे हैं, तैसे आप सीखि ने है। तहां हो उपयोग लगावे है । औरनिकों उपदेश दे है, परन्तु तिनका भाव
సంతసంప్రందం నిరంతరం నిరంతరం
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मो.मा. प्रकाश " भासता नाहीं । अर यहां तिस वस्तुका भावहीका नाम तत्व कह्या। सो भाव भासे विना| ॥ तत्वार्थश्रद्धान कैसे होय । भावभासना कहा, सो कहिए है
_ जैसे कोऊ पुरुष चतुर होनेके अर्थि शास्त्रकरि स्वर ग्राम मूर्छना रागनिका स्वरूप ताल | तानके भेद तिनको सीखे है । परन्तु स्वरादिकका खरूप नाही पहिचान है। स्वरूपपहिचानि । भये बिना अन्य स्वरादिककों अन्य स्वरादिकरूप माने है । वा सत्य भी मान है, तो निर्णय करि नाहीं माने है । ताते वाकै चतुरपनो होय नाहीं। तैसें कोऊ जीव सम्यक्ती होनेकै । अर्थि शास्त्रकरि जीवादि तत्वनिका स्वरूपों सीखे है । परंतु तिनका खरूपको नाहीं पहिचान है। स्वरूप पहिचाने विना अन्य तत्वनिकौं अन्य तत्वरूप मानि ले है। वा सत्य भी मान है, तो निर्णयकरि नाहीं माने है । ताते वाकै सम्यक्त्व होय नाहीं। बहुरि जैसें कोई शास्त्रादि पढ़या है, वा न पढ़या है, जो खरादिकका स्वरूपको पहिचान है, तो वह चतुर ही है। तैसें शास्त्र पढ़या है वा न पढ़या है, जो जीवादिकका स्वरूप पहिचाने है, तो वह सम्य
दृष्टी ही है। जैसें हिरण रागादिकका नाम न जाने है, अर ताका स्वरूपको पहिचान है । | तेसै तुच्छबुद्धि जीवादिकका नाम न जाने है, पर तिनका स्वरूपको पहिचान है। यह मैं || हूँ, यह पर है, ए भाष बुरे हैं, ए भले हैं, ऐसे स्वरूप पहिचान ताका नाम भावभासना है। शिवभूति मुनि जीवादिकका नाम न जाने था, मर “तुषमाषभिन्न” ऐसा घोखने लागा, सो ३३१
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मो.मा মাখ
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यह सिद्धांतका शब्द था नाहीं । परन्तु आपापरका भावरूप ध्यान किया, तातें केवली भया । अर ग्यारह अंगका पाठी जीवादितत्त्वनिका विशेषभेद जाने, परन्तु भासे नाही, तातै मिथ्या-1 दृष्टी ही रहै है । अब याकै तत्वश्रद्धान किस प्रकार हो है, सो कहिए है
जिनशास्त्रनिविष कहे जीवके त्रस स्थावरादिरूप वा गुणस्थान मार्गणादिरूप भेदनिको । जाने है अर जीवके पुद्गलादि भेदनिकों वा तिनके वर्णादि विशेष तिनकों जाने है । परन्तु । अध्यात्मशास्त्रनिविष भेदविज्ञानको कारणभूत वा वीतरागदशा होनेकौं कारणभूत जैसे निरूपण | किया है, तैसें न जाने है। बहुरि किसी प्रसंगते तैसें भी जानना होय, तो शास्त्र अनुसार जानि ले है। परंतु आपों आप जानि परका अंश भी न मिलावना अर आपका अंश भी। परविष न मिलावना, ऐसा सांचा श्रद्धान नाहीं करै है। जैसे अन्य मिथ्यादृष्टी निर्धारविना ।। पर्यायबुद्धिकरि जानपनाविर्षे वा वर्णादिवि अहंबुद्धि धारे हैं, तैसें यह भी आत्माश्रित ज्ञानादिविषे वा शरीराश्रित उपदेश उपवासादि क्रियानिविर्षे आपो माने है। बहुरि शास्त्रकै अनु|सार कबहू सांची बात भी बनावे, परन्तु अंतरंग निर्धाररूप श्रद्धान नाहीं। ताते जैसे मत
वाला माताकों माता भी कहै, तो स्याना नाहीं । तैसें याकौं सम्यक्ती न कहिए । बहुरि जैसे | कोई औरहीकी बातें करता होय, तैसें आत्माका कथन करे । परन्तु यह आत्मा में हूं, ऐसा | भाव नाहीं भासे । बहुरि जैसे कोई औरकू औरतें भिन्न बतावता होय, तैसें आत्मा शरीरको
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मो.सा. भिन्नता प्ररूपै। परंतु में इस शरीरादिकतें भिन्न हूं, ऐसा भाव भासे नाहीं। बहुरि पर्यायप्रकाश
| विषे जीव पुद्गलकै परस्पर निमित्तते अनेक क्रिया हो हैं, तिनकों दोय द्रव्यका मिलापकरि निपजी जाने । यह जीवकी क्रिया है, ताका पुदमल निमित्त है, यह पुद्गलकी क्रिया है, ताका || जीव निमित्त है, ऐसा भिन्न भिन्न भाव भासे नाहीं। इत्यादि भाव भासे बिना जीव अजीवका सांचा श्रद्धानी न कहिए । तातै जीव अजीव जाननेका तौ यह ही प्रयोजन था, सो भया नाहीं। बहुरि आश्रवतत्वविष जे हिंसादिरूप पापास्रव हैं, तिनकों हेय जाने है । अहिंसादि| रूप पुण्यास्रव है, तिनको उपादेय माने है । सो ए तो दोऊ ही कर्मबंधके कारण इनविषै ।। | उपादेयपना मानना सोई मिथ्यादृष्टि है । सोई समयसारका बंधाधिकारविषे कह्या है--
सर्व जीवनिकै जीवन मरण सुख दुःख अपने कर्मके निमित्त तैं हो है। जहां अन्य। जीव अन्य जीवकै इन कार्यनिका कर्ता होय, सोई मिथ्याध्यवसाय बंधका कारण है। तहां अन्य जीवको जिवावनेका वा सुखी करनेका अध्यवसाय होय, सो तौ पुण्यबंधका कारण है,। |अर मारनेका वा दुःखी करनेका अध्यवसाय होय सो पापबन्धका कारण है । ऐसें अहिंसावत् । | सत्यादिक तौ पुण्यबन्धको कारण हैं, अर हिंसावत् असत्यादिक पापबन्धों कारण हैं। ए | सर्व मिथ्याध्यवसाय हैं, ते त्याज्य हैं । तातै हिंसादिवत् आर्हतादिकको भी बंधका कारण | जानि हेय ही मानना । हिंसाविर्षे मारनेकी बुद्धि होय, सो वाका आयु पूरा हुवा विना मरै
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मो.मा. नाहीं । अपनी द्वेषपरणतिकरि आप ही पाप बांधे है । अहिंसाविर्षे स्क्षाकरनेकी बुद्धि होय, सो
वाका आयु अवशेषविना जीवे नाहीं, अपनी प्रशस्त रागपरणतिकरि आप ही पुण्य बांधे है ।। ऐसे ए दोऊ होय हैं । जहां वीतराग होय दृष्टा ज्ञाता प्रवत्ते, तहां निबंध है । सो उपादेय है। सो ऐसी दशा न होय, तावत् प्रशस्त रागरूप प्रवत्र्तों। परन्नु श्रद्धान तो ऐसा राखो-यह । भी बंधका कारण है-हेय है। श्रद्धानविष याकौं मोक्षमार्ग जाने मिथ्या दृष्टी ही है। । बहुरि मिथ्यात्व अविरत कषाय योग ए आस्रवके भेद हैं, तिनकों वाह्यरूप तो माने, अ-01 |न्तरङ्ग इन भावनिकी जातिको पहिचाने नाहीं। तहां अन्य देवादिकसेवनेरूप गृहीतमिथ्या| त्वको मिथ्यात्व जाने, अर अनादि अगृहीतमिथ्यात्व है, ताकौं न पहिचाने । बहुरि बाह्य त्रस ||
स्थावरकी हिंसा बा इन्द्रिय मनके विषयनिविष प्रवृत्ति ताको अविरत जानै । हिंसाविर्षे प्र। मादपरणति मूल है, अर विषयसेवनविषै अभिलाष मूल है, ताकों न अवलोकै । बहुरि बाह्य ।।
क्रोधादि करना, ताों कषाय जाने, अभिप्रायविषे रागद्वेष रहै, ताकों न पहिचानै । वहुरि बाह्य । चेष्टा होय, तार्को योग जाने, शक्तिभूत योगनिकों न जाने ऐसें आस्रवनिका स्वरूप अन्यथा |
जाने । बहुरि राग द्वेष मोहरूप जे आस्रववभाव हैं, तिनका तो नाश करनेकी चिंता नाही।
अर बाह्यक्रिया वा बाह्य निमित्त मेटनेका उपाय राखे, सो तिनके मेंटे आश्रय मिटता नाहीं।। | द्रव्यलिंगीमुनि अन्य देवादिककी सेना न करै हैं, हिंसा वा विषयनिविष न प्रवर्ते हैं, क्रोधादि ।
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मो.मा. प्रकाश
न करें हैं, मन वचन कायकों रोकें है; तो भी बाके मिथ्यासादि च्यारों आसूव पाईए हैं । बहुरि कपटकर भी ए कार्य न करें हैं। कपटकरि करें तो चैवेयकपयत कैसे पहुं वै । तातें जो अंतरंग अभिप्रायविषै मिथ्यात्वादिरूप रागादिभाव हैं, सोई आसूव हैं । ताक न पहिचा, तातें या सूक्तत्वका भी सत्य श्रद्धान नाहीं । बहुरि बंधतत्वविषै जे अशुभ भावनिकरि नरकादिरूप पापका बंध होय, तार्कों तौ बुरा जानै अर शुभभावनिरूप पुण्यका बंध होय, ताको भला जाने । सो सर्व ही जीवनिकें दुखसामग्रीविषै द्वेष सुखसामग्रीविषै राग पाईये, सोही याकै राग द्वेष करनेका श्रद्धान भया । जैसा इस पर्यायसम्बन्धी सुखदुखसामग्रीविष राग द्वेष करना, तैसा ही आगामी पर्यायसम्बन्धी सुखदुख सामग्रीविषै राग द्वेष करना । बहुरि शुभ अशुभ भावनिकरि पुण्यपापका विशेष तो अधाति कर्मनिविषै हो है । सो श्रघातिकर्म श्रा त्माके के घातक नाहीं । बहुरि शुभ अशुभ भावनिविषै घातिकर्मनिका तौ निरन्तरबन्ध | होय । ते सर्व पापरूप ही हैं । ऋर तेई आत्मगुणके घातक हैं । तातै अशुद्ध भावनिकरि कर्म्मबंध होय, तिसविषै भला बुरा जानना सोई. मिथ्या श्रद्धान है । सो ऐसे श्रद्धानतै बंधका भी याकै सत्यश्नधान नाहीं । बहुरि संवरतत्वविषै अहिंसादिरूप शुभासून भाव तिनकों संवर जाने है । सो एक कारण पुण्यबन्ध भी मार्ने र संबर भी माने, सो बने नाहीं । यहां प्रश्न - जो मुनिनिकै एकै काल ए भाव हो हैं । तहां उनके बन्ध भी हो है अर संवर
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मो.मा. निर्जरा भी हो है, सो कैसे है। ताका समाधानप्रकाश
. वह भाव मिश्ररूप है । किछु वीतराग भया है, किछू सराग भया है । जे अंश वीतराग ॥ भए तिनकरि संवर है ही भर जे अंश सराग रहे, तिनकरि बंध है। सो एकभावतें तो दो || । कार्य वनै परन्तु एक प्रशस्तरागहीते पुण्यासव भी मानना अर संवरनिर्जरा भी मानना सो
भ्रम है । मिश्रभावविष भी यह सरागतो है, यह विरागता है, ऐसी पहचानि सम्यग्दृष्टीहीके होय । ताते अवशेष सराग ताों हेय श्रदहै है । मिथ्यादृष्टीकै ऐसी पहचानि नाहीं। ताते सराग भावविष संवरका भ्रमफरि प्रशस्त रागरूप कार्यनिकों उपादेय श्रद है । बहुरि सिद्धांतविषे गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीषह-जय चारित्र इनकरि संवर हो है, ऐसा कह्या है । सो | | इनको भी यथार्थ न श्रद है है । केसें, सो कहिए है
बाह्य मन वचन कायकी चेष्टा मेटे, पापचिंतवन न करे, मौन धरै, गमनादि न करे, सो | गुप्ति माने है । सो यहां तो मनविषे भक्तिआदिरूप प्रशस्तरागादि नानाविकल्प हो हैं, वचन || कायकी चेष्टा आप रोकि राखे है, तहां शुभप्रवृत्ति है, अर प्रवृत्तिविर्षे गुप्तिपनो बने नाहीं । ताते ।। वीतरागभाव भए, जहां मन वचनकायकी चेष्टा न होय, सो ही सांची गुप्ति है । बहुरि परजीवनिकी रक्षाकै अर्थ यत्नाचारप्रवृत्ति ताकौं समिति मान है। सो हिंसाके परिणामनितें तो पाप हो है, भर रक्षाके परिणामनितें संवर कहोगे, तो पुण्यबन्धका कारण कौन ठहरेगा।।।।३४६
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मो.मा.
प्रकाश
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बहुरि एषणासमितिविषै दोष टार्ले है। तहां रचाका प्रयोजन है नाहीं । तातै रचाही अर्थ समिति नाहीं है । तौ समिति कैसे हो है — मुनिनकै किंचित् राग भए गमनादिक्रिया हो है। तहां तिन क्रियानिविषै अति आसता के अभाव प्रमादरूप प्रवृत्ति न हो है । बहुरि और जीवनिकों दुखी कर अपना गमनादि प्रयोजन न साधै है । तातें स्वयमेव ही दया पलै है । ऐसें सांची समिति है । बहुरि बंधादिकके भयतै वा स्वर्गमोचकी चाहिते क्रोधादि न करें है, सो यहां क्रोधादिकरनेका अभिप्राय तौ गया नाहीं । जैसे कोई राजादिकका भयतें वा महंत|पनाका लोभतै परस्त्री न सेवै है, तौ बाक त्यागी न कहिए। तैसें ही यह कोधादिका त्यागी. नाहीं । तौ कैसें त्यागी होय । पदार्थ अनिष्ट इष्ट भासैं क्रोधादि हो हैं। जब तत्त्वज्ञानके अभ्यासतें कोई इष्ट अनिष्ट न भासै, तब स्वयमेव ही क्रोधादिक न उपजै, तब सांचा धर्म हो है । बहुरि अनित्यादि चितवनते शरीरादिककों बुरा जानि हितकारी न जानि तिनतें उदास होना ताका नाम अनुप्रेक्षा कहै हैं । सो यह तो जैसे कोऊ मित्र था, तब उसतै राग था, पीछे बाका अवगुण देखि उदासीन भया, तैसें शरीरादिकतैं राग था पीछे अनित्यत्वादि - वगुण अवलोकि उदासीन भया । सो ऐसी उदासीनता तौ द्वेषरूप है। जहां जैसा अपना वा शरीरादिकका स्वभाव है, तैसा पहचानि भ्रमकौं मेटि भला जानि राग न करना, बुरा जानि | द्वेष न करना, ऐसी सांची उदासीनताकै अर्थि यथार्थ नित्यत्वादिकका चितवन सो ही सांची
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मो.मा.
अनुप्रेक्षा है । बहुरि क्षु धादिक भए तिनके नाशका उपाय न करना, बाकों परीषह सहना । प्रकाश । कहै हैं । सो उपाय तो न किया, अर अंतरंग क्षुधादि अनिष्ठ सामग्री मिले दुखी भया, रति
आदिका कारण मिले सुखी भया, सो तो दुखसुखरूप परिणाम है, सोई आर्तध्यान रौद्रध्यान है। ऐसे भावनितें संवर कैसे होय । तातै दुखका कारण मिले दुखी न होय, सुखका कारण मिले सुखी न होय, ज्ञेयरूपकरि तिनका जाननहारा ही रहै, सोई सांची परीषहका सहना है। बहुरि हिंसादि सावद्य योगका त्यागकौं चारित्र माने हैं। तहां महावतादिरूप शुभयोगकौं उपादेयपने करि ग्रहण माने है । सो तत्वार्थसूत्रविषै प्रास्त्रवपदार्थका निरूपण करते महाबत अणुबत भी प्रास्त्रवरूप कहे हैं । ए उपादेय कैसे होय, । अर आस्रव तौ बंधका साधक है, चारित्र मोक्षका साधक है । तातै महाव्रतादिरूप प्रास्रवभावनिकै चारित्रपनो संभवै नाहीं।। सकल कषायरहित जो उदासीनभाव ताहीका नाम चारित्र है। जो चारित्रमोहके देशघाती स्पर्द्धकनिके उदयतै महामंद प्रशस्त राग हो है, सो चारित्रका मल है। याकौं छूटता न जानि याका त्याग न करै है । सावद्ययोग ही त्याग करै है। परंतु जैसे कोई पुरुष कंदमूलादि। बहुत दोषीक हरितकायका त्याग करै है, अर कई हरितकायनिकों भखै है । परन्तु ताकौं धर्म न माने है । तैसें मुनि हिंसादि तीनकषायरूप भावनिका त्याग करे है, अर केई मंदकषाय-11 रूप. महावतादिकों पाले है। परंतु ताकों मोक्षमार्ग म माने है। यहां प्रश्न-जो ऐसे है,
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मो.मा. प्रकाश
तौ चारित्रके तेरह भेदनिविषै महाबलादि कैलें कहे हैं। ताका समाधान'
यह व्यवहारचारित्र कला है । व्यवहार नाम उपचारका है । सो महाव्रतादिक भए ही वीतरागचारित्र हो है । ऐसा सम्बन्ध जानि महात्रतादिविषै चारित्रका उपचार किया है । निश्चयकरि निःकषायभाव है, सो ही सांचा चारित्र है । या प्रकार संवरका कारणनिकों अन्यथा | जानता सन्ता सांचा श्रद्धानी न हो है । बहुरि यह अनशनादि तपतैं निर्जरा माने है । सो केवल बाह्यतप ही लौ किए निर्जरा होय नाहीं । बाह्यतप तो शुद्धोपयोग बधावने के अर्थ की| जिए है। शुद्धोपयोग निर्जराका कारण है । तातै उपचारकरि तपकों भी निर्जराका कारण कया है । जो बाह्य दुख सहना ही निर्जराका कारण होय, तौ तियंत्रादि भी भूख तुषादि सह | हैं | तब वह कहें है - स्वाधीनपर्ने धर्मबुद्धितै उपवासादिरूप तप करै, ताकै निर्जरा हो है ।
ताका समाधान -
धर्मबुद्धि बाह्य उपवासादिक तो किए, बहुरि तहां उपयोग अशुभ शुभ शुद्धरूप जैसे परिणमै तैसें परिणमो । घने उपवासादि किए घनी निर्जरा होय, थोरे किए थोरी निर्जरा होय । जो ऐसें नियम ठहरै तौ उपवासादिक ही मुख्य निर्जराका कारण ठहरै । सो तौ बने नाहीं । परिणाम दुष्ट भए उपवासादिकतैं निर्जरा होनी कैसे संभत्रै । बहुरि जो कहिए- जैसा अशुभ शुभ शुद्धरूप उपयोग परिणमै ताके अनुसार बंधनिर्जरा है । तो उपवा
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मो.मा. सादि तर मुख्य निर्जराका कारण कैसे रह्या । अशुभ शुभ परिणाम बंधके कारण ठहरे, शुद्ध प्रकाश
परिणाम निर्जराके कारण ठहरे। यहां प्रश्न-जो तत्वार्थसूत्रविषै “तपसा निर्जरा च” ऐसा I कैसे कया है । ताका समाधान
शास्त्रविर्षे “इच्छानिरोधस्तपः” ऐसा कया है । इच्छाका रोकना ताका नाम तप है । सो | शुभ अशुभ इच्छा मिटे उपयोग शुद्ध होय, तहां निर्जरा हो है । तातै तपकरि निर्जरा कही ।। है । यहां कोऊ कहै, आहारादिरूप अशुभकी तौ इच्छा दूरि भए ही तप होय। परंतु उपवा| सादिकांवा प्रायश्चित्तादि शुभकार्य हैं, तिनकी इच्छा तो रहै। ताका समाधान__ज्ञानी जननिके उपवासादिककी इच्छा नाहीं है। एक शुद्धोपयोगकी इच्छा है ।। | उपवासादि किए शुद्धोपयोग बधै है, तातें उपवासादि करे हैं। बहुरि जो उपवासादिकतें | शरीरकी वा परिणामनिकी शिथिलताकरि शुद्धोपयोग शिथिल होता जानै, तहां आहारादिक यह हैं । जो उपवासादिकही सिद्धि होय, तो अजितनाथादिक तेईस तीर्थकर दीक्षा लेय दोय उपवास ही कैसे धरते । उनकी तौ शक्ति भी बहुत थी। परंतु जैसे परिणाम भए तैसें बाह्यसाधनकरि एक वीतराग शुद्धोपयोगका अभ्यास किया। यहां प्रश्न-जो ऐसे है, तो | अनशनादिककों तपसंज्ञा कैसे भई । ताका समाधान
इनकों बाह्यतप कहै हैं । सो बाह्यका अर्थ यह है, जो बाह्य औरनिकों दोखे, यह तापसी ३५०
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प्रकाश
भो.मा.|| है। बहुरि आप तो फल जैसा अन्तरंग परिणाम होगा, तैसा ही पावेगा । जातें परिणाम-||
शून्य शरीरकी क्रिया फलदाता नाहीं । बहुरि यहां प्रश्न-जो शास्त्रविर्षे तो अकामनिर्जरा कही है। तहां विना चाहि भूख तृषादि सहे निर्जरा हो है। तो उपवासादिकरि कष्ट सहे कैसे निर्जरा न होय । ताका समाधान
अकामनिर्जराविर्षे भी बाह्य निमित्त तो विना चाहि भूख तृषाका सहना भया है । अर तहां मन्दकषायरूप भाव होय, तो पापकी निर्जरा होय, देवादि पुण्यका बंध होय । भर जो | तीनकषाय भए भी कष्ट सहे पुण्यबंध होय, तो सर्व तिर्यंचादिक देव ही होंय । सो बने | नाहीं । तैसें ही चाहिकरि उपवासादि किए तहां भूख तृषादि कष्ट सहिए है । सो यह बाह्यनिमित्त है ।यहां जैसा परिणाम होय, तैसा फल पावै है । जैसे अन्नों प्राण कह्या । ऐसें । बाह्यसाधन भए अन्तरंगतपकी वृद्धि हो है । ताते उपचारकरि इनकौं तप कहे हैं । जो बाह्य । तप तो करें भर अन्तरंगतप न होय, तो उपचारतें भी वाकों तपसंज्ञा नहीं। सोई कह्या है
कषायविषयाहारो त्यागो पत्र विधीयते ।
उपवासः स विज्ञेय शेषं लंघनकं विदुः॥ __जहां कषाय विषय आहारका त्याग कीजिए, सो उपवास जानना । शेषकों लंघन श्रीगुरु कहै हैं । यहां कहेगा, जो ऐसे है, तो हम उपवासादि न करेंगे। ताकों कहिए है
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मो.मा. प्रकाश
उपदेश तौ ऊँचा चढ़नेकौं दीजिए है। तू उलटा नीचा पड़ेगा, तौ हम कहा करेंगे । जो तू मानादिक उपवासादि करे है, तौ करि वा मति करें, किछू सिद्धि नाहीं । अर जो धर्मबुधितै आहारादिकका अनुराग छोड़े है, तो जेता राग छूव्या तेता ही छूट्या । परन्तु इसहीकों तप जानि इसतें निर्जरा मानि संतुष्ट मति होहु । बहुरि अन्तरंग तपनिविषै प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, त्याग, ध्यानरूप जो क्रिया ताविषै बाह्यप्रवर्त्तन सो तौ बाह्य तपवत् ही जानना । जैसें अनशनादि बाह्यक्रिया हैं, तैसें ए भी बाह्यक्रिया हैं। तातैं प्रायश्चित्तादि बाह्यसाधन अन्तरंगतप नाहीं हैं । ऐसा ब्राह्म प्रवर्त्तन होते, जो अन्तरंग परिणामनकी शुद्धता होम, तहां तो निर्जरा ही है, बंध नाहीं हो है । अर स्तोक शुद्धताका भी अंश रहे, तो जेती शुद्धता भई ताकरि तो निर्जरा है । अर जेता शुभभाव है ताकरि बंध है । ऐसा मिश्रभाव युगपत् हो है, तहां बंध वा निर्जरा दोऊ हो हैं। यहां कोऊ कहै, शुभभाव पापकी निर्जरा हो है, पुण्यका बन्ध हो है, शुद्धधभावनितें दोऊनिकी निर्जरा हो है, ऐसा क्यों न कही ताका उत्तर
Harihar स्थितिका तो घटना सर्व ही प्रकृतीनिका होय । तहां पुण्यपापका विशेष है ही नाहीं । घर अनुभागका घटना पुण्यप्रकृतीनि का शुद्धधोपयोगर्तें भी होता नाहीं । ऊपर ऊपरि पुण्य प्रकृतीतिकै अनुभागका तीव्रउदय हो है, अर पापम कृतिके परमाणु पलटि शुभ
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मो.मा.
प्रकाश
प्रकृतिरूप होय ऐसा संक्रमण शुभ शुद्ध दोऊ भाव होते होय । तातै पूर्वोक्त नियम संभवें || | नाहीं। विशुद्धताहीकै अनुसार नियम संभव है । देखो, चतुर्थगुणस्थानवाला शास्त्राभ्यास
आत्मचिंतवनादि कार्य करे, तहां भी निर्जरा नाहीं, बंध भी घना होय । बहुरि पंचमगुणस्थानवाला उपवासादि वा प्रायश्चितादि तप करै, तिस कालविर्ष भी वाकै निर्जरा थोरी, अर छठागुणस्थानवाला आहार विहारादि क्रिया करे, तिस कालविणे भी वाकै निर्जरा घनी। उसते।। भी बंध थोरा होय । तातें बाह्म प्रवृत्तिके अनुसार निर्जरा नाहीं है। अन्तरंग कषांयशक्ति घटें विशुद्धता भए निर्जरा हो है । सो इसका प्रकटखरूप आगें निरूपण करेंगे, तहां जानना।।।। ऐसें अनशनादि क्रियाकौं तपसंज्ञा उपचारतें जाननी । याहीतें इनको व्यवहार तप कया है। | व्यवहार उपचारका ऐक अर्थ है ! बहुरि ऐसा साधनते जो वीतरागभावरूप विशुद्धता होय, ||
सो सांचा तप निर्जराका कारण जानना । यहां दृष्टांत-जैसे धनकौं वा अन्नकों प्राण कह्या ।। | सो धनते अन्न ल्याय भक्षण किए प्राण पोषे जांय, तातै धन अन्नकों प्राण कह्यां। कोई | इंद्रियादिक प्राणनिकों न जाने, अर इनहीकों प्राण जानि संग्रह करे, तो मरण ही पावें। तैसें अनशनादिकौं वा प्रायश्चित्तादिकों तप कह्या, सो अनशनादि साधनते प्रायश्चित्तादिरूप प्रवर्ते बीतरागभावरूप सत्य तप पोख्या जाय । ताते उपचारकरि अनशनादिकों वा प्रायश्चितादिकों तप कहा। कोई वीतरागभावरूप तपकों न जानै अर इनहीकों तप जानि संग्रह करें,
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तौ संसारहीमें भ्रमै । बहुत कहा, इतना समझि लेना-निश्चय धर्म तौ वीतरागभाव है । अन्य | नाना विशेष बाह्यसाधन अपेक्षा उपचार किए हैं, तिनको व्यवहारमात्र धर्म संज्ञा जाननी।। इस रहस्यकौं न जाने, तातें वाकै निर्जराका भी सांचा श्रद्धान नाहों है।
बहुरि सिद्ध होना ताकौं मोक्ष.मान है। बहुरि जन्म जरा मरण रोग क्लेशादि दुखदूरि । भए अनन्तज्ञानकरि लोकालोकका जानना भया, त्रिलोकपूज्यपना भया, इत्यादि रूपकरि । ताकी महिमा जाने है । सो सर्व जीवनिकै दुख दूर करनेकी वा ज्ञेय जाननेकी वा पूज्य होने की चाहि है । इनहीकै अर्थ मोक्षकी चाहि कीनी, तौ याकै और जीवनिका श्रधानतें कहा विशेषता भई । बहुरि याकै ऐसा भी अभिप्राय है-स्वर्गविषै सुख है, तातें अनंतगुणा मोक्षविष सुख है । सो इस गुणकारविषै स्वर्ग मोक्ष सुखकी एक जाति जाने है। तहां वर्गविषै।
तौ विषयादि सामग्रीजनित सुख हो है, ताकी जाति याकौं भास है अर मोक्ष विषै विषयादि | | सामग्री है नाहीं, सो वहांका सुखकी जाति याकौं भासै तौ नाही, परंतु वर्ग तैं भी उत्तम मोक्ष कौं महापुरुष कहै हैं, तातें यह भी उत्तम ही माने है। जैसे कोऊ गानका स्वरूप न पहिचाने, परंतु सर्व सभाके सराहें, तातें आप भी सराहे है। तैसें यह मोक्ष को उत्तम माने । है। यहां वह कहै है-शास्त्रविषै भी तो इंद्रादिकतै अनन्तगुणा सुख सिद्धनिकै प्ररूप हैं। ताका उत्तर
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जैसे तीर्थंकरके शरीरकी प्रभाकों सूर्यप्रभाते कोठ्या गुणी कही । तहां तिनकी एक जाति प्रकाश नाहीं। परन्तु लोकवि सूर्यप्रभाकी महिमा है, तातें भी बहुत महिमा जनावनेकों उपमालंकार
कीजिए है । तैसें सिद्धसुखकों इंद्रादिसुखनै अनन्तगुणा कह्या । तहां तिनकी एकजाति नाही । परन्तु लोकविष इंद्रादिसुख की महिमा है, तातें भी बहुत महिमा जनावनेकों उपमालंकार की
जिए है । बहुरि प्रश्न-जो सिद्धसुख अर इन्द्रादिसुख की एकजाति वह जाने है, ऐसा निश्चय | । तुम कैसे किया। ताका समाधान
जिस धर्मसाधनका फल स्वर्ग मान है, तिस धर्मसाधनहीका फल मोक्ष मान है। कोई जीव इन्द्रादिपद पावै, कोई मोक्ष पावे, तहां तिन दोऊनिकै एकजाति धर्मका फल भया माने। ऐसा तो माने, जो जाकै साधन थोरा हो है, सो इंद्रादिपद पावै है, जाके संपूर्ण साधन होय, सो मोन पावै है । परन्तु तहां धर्मकी जाति एक जाने है । सो जो कारणको एक जाति जाने, ताको कार्यकी भी एक जातिका श्रद्धान अवश्य होय । जाते कारण विशेष भए ही कार्य। विशेष हो है । तातै हम यह निश्चय किया, वाकै अभिप्रायविष इंद्रादिसुख अर सिद्धसुख की जातिका एक जातिका श्रद्धान है । बहुरि कर्मनिमित्ततें आत्माकै औपाधिक भाव थे, तिनका अभाव होते शुद्धखभावरूप केवल आत्मा आप भया । जैसें परमाणु स्कंधते बिछुरे शुद्ध । हो हैं, तैसें यह कर्मादिकतै भिन्न भए शुद्ध हो है । विशेष इतना-वह दोऊ अवस्थाविषै ।
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दुखी सुखी नाही, आत्मा अशद्ध अवस्थाविषे दुखी था, अब ताके अभाव होनेते निराकुललक्षण अनंतसुखकी प्राप्ति भई । बहुरि इन्द्रादिकनिकै जो सुख है, सो कषाय भावनिकरि ।
आकुलतारूप है । सो वह परमार्थ से दुखी ही है । ताते वाको याकी एक जाति नाहीं । बहुरि स्वर्गसुखका कारण प्रशस्तराग है, मोक्षसुखका कारण वीतरागभाव है, तातै कारणविषै भी। विशेष है । सो ऐसा भाव याौं भारी नाहीं। तातें मोक्षका भी याकै सांचा श्रद्धान नाही! है। या प्रकार याकै सांचा तत्वश्रद्धान नाहीं है । पाहं तें समयसारविषै कह्या है-"अभव्यकै तत्त्वश्रद्धान भए भी मिथ्यादर्शन ही रहै है।” वा प्रवचनसारविर्षे कह्या है "आत्मज्ञानशून्य तत्वार्थश्रधान कार्यकारी नाहीं ।” बहुरि यह व्यवहारदृष्टिकरि सम्यग्दर्शनके आठ अंग कहे | हैं, तिनकों पाले है । पचीस दोष कहे हैं, तिनको टाले है । संवेगादिक गुण कहे हैं, तिनकों। धारै है । परन्तु जैसे बीज बोए विना खेतकी सावधानी किए भी अन्न होता नाही, तेरौं सांचा तत्वश्रधान भए विना सम्यक्त होता नाहीं। सो पंचास्तिकायव्याख्याविषै जहां अन्तविषे व्यवहाराभासवालेका वर्णन किया, तहां ऐसा ही कथन किया है। या प्रकार याकै सन्यग्दर्शनके अर्थि साधन करते भी सम्यग्दर्शन न हो है। ___ अब यह सम्यग्ज्ञानके अर्थि शास्त्रविषे शास्त्रभ्यास किए सम्यग्ज्ञान होना कया है, ताते ।। जे शास्त्राभ्यासविषै तत्पर रहे हैं, तहां सीखना सिखावना यादि करना वांचना पढ़ना आदि
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मो.मा. क्रियाविषे तो उपयोगौं रमावे है। परंतु वाकै प्रयोजन ऊपरि दृष्टि नाहीं है। इस उपदेशविर्षे
। मुझकों कारिजकारी कह्या, सो अभिप्राय नाहीं। आप शास्त्राभ्यासकरि औरनिकों उपदेश । देनेका अभिप्राय राखै है । घने जीव उपदेश माने तहां संतुष्ट हो है। सो ज्ञानाभ्यास तौ आपकै अर्थ कीजिए है और प्रसंग पाय परका भी भला करे। बहुरि कोई उपदेश न सुने, तौ ।। मति सुनौ, आप काहेकौं विषाद कीजिए । शास्त्रार्थका भाव जानि आपका भला करना । ब
हुरि शास्त्राभ्यासविषे भी केई तो व्याकरण न्याय काव्य आदि शास्त्रनिकों बहुत अभ्यासे । हैं। सो ए तो लोकविर्षे पंडितता प्रगट करनेके कारण हैं । इनविष आत्महितनिरूपण तो है ||
नाहीं । इनको तौ प्रयोजन इतना ही है । अपनी बुद्धि बहुत होय, तो थोरा बहुत इनका अ। भ्यासकरि पीछे आत्महितके साधक शास्त्र तिनका अभ्यास करना । जो बुद्धि थोरी होय, तो
आत्महितके साधक सुगम शास्त्र तिनहीका अभ्यास करै । ऐसा न करना, जो व्याकरणादिकका ही अभ्यास करते करते आयु पूरा हो जाय, अर तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति न बने । यहाँ। कोऊ कहै--ऐसे हैं तो व्याकरणादिकका अभ्यास न करना । ताको
कहिए है--तिनका अभ्यासविना महान् ग्रंथनिका अर्थ खुले नाहीं। तासे। । तिनका भी अभ्यास करना योग्य है । बहुरि यहां प्रश्न-महान् ग्रंथ ऐसे क्यों किए, जिनका
अर्थ व्याकरणादिः विना न खुले। भाषाकरि सुगम रूप हितोपदेश क्यों न लिख्या। उनकै ||३५७
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मो.मा. में किछ प्रयोजन तो था नाहीं । ताका समाधानकाश
। भाषाविषै भी प्राकृत संस्कृतादिकके ही शब्द हैं । परंतु अपभ्रंश लिए हैं। बहुरि देशनिविषै भाषा अन्य अन्य प्रकार है । सो महंत पुरुष शास्त्रनिविषै अपभ्रंश शब्द कैसे लिखें। बालक तोतला बोलै, तो बड़े तो न बोलें । बहुरि एकदेशकी भाषारूप शास्त्र दूसरे देशविर्षे जाय, तो तहां ताका अर्थ कैसे भासे । न्यायविना लक्षण परीक्षा आदि यथावत् न होय सके। | इत्यादि वचनद्वारि वस्तुका स्वरूपनिर्णय व्याकरणा दे विना नीकै न होता जानि तिनकी आम्नाय अनुसार कथन किया । भाषाविषे भी तिनको थोरी बहुत आम्नाय आप ही उपदेश | होय सके है । तिनकी बहुत आम्नायतै नीकै निर्णय होय सके है । बहुरि जो कहोगे-ऐसे है, तौ अब भाषारूप ग्रंथ काहेकों बनाईए है । तःका समाधान
___ कालदोषते जीवनिकी मंदबुद्धि जानि केई जीवनिकै जेता ज्ञान होगा, तेता ही होगा, | ऐसा अभिप्राय विवारि भाषाग्रंथ कीजिए है । सो जे जीव व्याकरणादिकका अभ्यास न करि सके, तिनकों ऐसे ग्रंथनिकरि ही अभ्यास करना । बहुरि जे जीव शब्दनिकी नाना युक्ति लिए। अर्थ करनेकों ही व्याकरण अवगाहै हैं, वादादिको महंत होनेको न्याय अवगाहै हैं, चतुरपना प्रगट करनेके अर्थि काव्य अवगाहै हैं, इत्यादि लौकिक प्रयोजन लिए। इनका अभ्यास कर है, ते धर्मात्मा नाहीं । वनै जेता थोरा बहुत अभ्यास इनका क रि आत्महितकै अर्थि ३५८
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मो.मा. तत्वादिकका निर्णय करें हैं, सोई धर्मात्मा पंडित जानना । बहुरि कोई जीव पुण्य पापादिक प्रकाश फलके निरूपक पुराणादि शास्त्र वा पुण्य पापक्रियाके निरूपक आचारादि शास्त्र वा गुण-1
स्थान मार्गणा कर्मप्रकृति त्रिलोकादिकके निरूपक करणानुयोगके शास्त्र तिनका अभ्यास करै । हैं। सो जो इनका प्रयोजन आप न विचारे, तब तो सूवाकासा ही पढ़ना भया । बहुरि जो | इनका प्रयोजन विचारै है, तहां पापकों बुरा जानना, पुण्यकों भला जानना, गुणस्थानादिकका खरूप जानि लेना, इनका अभ्यास करेंगे तितना हमारा भला है इत्यादि प्रयोजन विचारया,
सो इसते इतना तो होगा-नरकादिका छेद स्वर्गादिकी प्राप्ति, परन्तु मोक्षमार्गकी तो प्राप्ति A होय नाहीं पहले सांचा तत्वज्ञान होय, तहां पीछे पुण्यपापका फलकों संसार जाने, शुद्धोप
योग मोक्ष माने, गुणस्थानादिरूप जीवका व्यवहार निरूपण जाने, इत्यादि जैसाका तैसा श्रद्धान करता संता इनका अभ्यास करे, तो सम्यग्ज्ञान होय । सो तत्वज्ञानकों कारण अध्या| मरूप द्रव्यानुयोगके शास्त्र हैं । बहुरि केई जीव तिन शास्त्रनिका भी अभ्यास करें है । परंतु जहां जैसे लिख्या है, तैसें आप निर्णयकरि आपकों आपरूप, परको पररूप, आस्रवादिकको आस्रवादिरूप न श्रद्धान करै हैं । मुखते तो यथावत् निरूपण ऐसा भी करें, जाके उपदेशते ।।
और जीव सम्यग्दृष्टी होय जाय । परंतु जैसें लड़का स्त्रीका खांगकरि ऐसा गान करे, जाकौं। I सुनते अन्य पुरुष स्त्री कामरूप होय जाय । परंतु वह जैसे सीख्या तैसें कहै है, वाकौं
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किछु भाव भासे नाही, ताते आप कामासक्त न हो है । तैसें यह जैसे लिख्या, तैसें उपदश दे, परंतु आप अनुभव नाहीं करै है । जो आपके श्रद्धान भया होता, तो और तत्वका अंश और तत्वविष न मिलावता, सो याकै थल नाहीं, ताते सम्यग्ज्ञान होता नाहीं। ऐसे यह || ग्यारह अंगपर्यंत पढ़े, तो भी सिद्धि होती नाहीं । सो सनयसारादिवि मिथ्यादृष्टीकै ग्यारह अङ्गका ज्ञान होना लिख्या है। यहां कोऊ कहै-ज्ञान तौ इतना हो है, परंतु जैसैं अभव्यसेनके श्रद्धानरहित ज्ञान भया, तैसैं हो है । ताका समाधान
वह तो पापी था, जाकै हिंसादिकी प्रवृत्तिका भय नाहीं । परंतु जो जीव ग्रैवेयिकादिविषे जाय है, ताकै ऐसा ज्ञान हो है, सो तौ श्रद्धानरहित नाहीं । वाके तो ऐसा ही श्रद्धान। है, ए ग्रंथ सांचे हैं परन्तु तत्वश्रद्धान सांचा न भया । समयसारविर्षे एक ही जीवकै धर्म1 का श्रद्धान एकादशांगका ज्ञान महाव्रतोदिकका पालना लिख्या है। प्रवचनसारविषे ऐसा लि
ख्या है—आगमज्ञान ऐसा भया जाकरि सर्वपदार्थनिको हस्तामलकवत् जाने है। यह भी जाने है इनका जाननहारा में हूं। परन्तु में ज्ञानस्वरूप हौं ऐसा ओपकों परद्रव्यतै भिन्न केवल चैतन्यद्रव्य नाही अनुभवै है । तातें आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान भी। कार्यकारी नाहीं। या प्रकार सम्यग्ज्ञानके अर्थ जैनशास्त्रनिका अभ्यास करें है, तो भी याकै सम्यग्ज्ञान नाहीं।
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ఆవిరించిందని వారుంచి మంచి రంగు రంగుల
రంకు మంచి
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बहुरि इनिकै सम्यक् चारित्रके अर्थ कैसे प्रवृत्ति है, सो कहिए है – बाह्यक्रियाऊपर तौ इनके दृष्टि है, र परिणाम सुधरने बिगरनेका विचार नाहीं । जो परिणामनिका भी विचार होय, तो जैसा अपना परिणाम होता दीसै, तिनहीकै ऊपरि दृष्टि रहे है । परन्तु उन परिणामनि की परंपरा विचारें अभिप्रायविषै जो वासना है, ताक न विचारे है । र फल लागे है, सो अभिप्राय वासना है, ताका फल लागे है । सो इसका विशेष व्याख्यान आगे करेंगे । तहां स्वरूप नीके भागा। ऐसी पहिचानि विना वाह्य आचरणका ही उद्यम है। तहां केई जीव तो कुलक्रमकरि वा देखादेखी वा क्रोध, मान, माया, लोभादिकतैं आचरण आचरे हैं । सो इनके तौ धर्मबुद्धिही नाहीं । सम्यक्चारित्र काहे होय । ए जीव कोई तौ भोले हैं वा कवायी हैं, सो अज्ञानभाव कषाय होतैं सम्यक्चारित्र होता नाहीं । बहुरि केई जीव ऐसा मान हैं, जो जाननेमें कहा है, घर माननेमें कहा है, किछू करेगा तौ फल लागेगा । ऐसें विचारि व्रत तप आदि क्रियाहीका उद्यमी रहें हैं अर तत्त्वज्ञानका उपाय न करें हैं । सो तत्वज्ञान विना महात्रतादिका आचरण भी मिथ्याचारित्र ही नाम पावे है । अर तत्वज्ञान भए किछू भी व्रतादिक नाहीं है, तो भी असंयत सम्यग्दृष्टी नाम पावै है । तातें पहलें तत्वज्ञान का उपाय करना, पीछे कषाय घटावनेकौं बाह्य साधन करना । सो ही योगींद्र देवकृत श्रावकोचारविषै कथा है-
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____ "दसणभूमिह बाहिरा, जिय वयरुक्ख ण होति ।” याका अर्थ यह सम्यग्दर्शनभूमिका विना हे जीव ! तरूपी वृक्ष न होय । भावार्थजिन जीवनिकै तत्वज्ञान नाही ते यथार्थ आचरण न आचरै हैं। सोई विशेष दिखा
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केई जीव पहले तो बड़ी प्रतिज्ञा धरि बैठे अर अंतरंगविषै कषायवासना मिटी नाहीं।। तब जैसे तैसे प्रतिज्ञा पूरी किया चाहैं, तहां तिस प्रतिज्ञाकरि परिणाम दुखी होय हैं। जैसे बहुत उपवासकरि बैठे, पीछे पीड़ाते दुखी हुवा रोगीवत् काल गमावै, धर्मसाधन न करै । सो पहले ही सधती जानिए तितनी ही प्रतिज्ञा क्यों न लीजिए । दुखी होनेमें आर्तध्यान होय, ताका फल भला कैसे लागेगा । अथवा उस प्रतिज्ञाका दुख सह्या न जाय, तब ताकी एवज विषयपोषनेकौं अन्य उपाय करै । जैसें तृषा लागै, तब पानी तो न पीवै अर अन्य शीतल उपचार अनेक प्रकार करै । वा घृत तौ छोड़े, अर अन्य स्निग्धवस्तुकौं उपायकरि भखै । ऐसे ही अन्य जानना । लो परीषह न सह्या जाय था, विषयवासना न छूटै थी, तो ऐसी प्रतिज्ञा काहेकौं करी । सुगमविषय छोड़ि विषमविषयनिका उपाय करना पड़े, ऐसा कार्य काहेको । कीजिए । यहां तो उलटा रागभाव तीन हो है । अथवा प्रतिज्ञाविषै दुख होय, तब परिणाम | ३६२ लगाक्नेकौं कोई आलम्बन विचारै । जैसे उपवासकरि पीछे कीड़ा करें । केई पापी जुषा
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आदि कुविसनविर्षे लगे हैं। अथवा सोय रह्या चाहें। यह जानें, किसी प्रकारकरि काल पूरा करना । ऐसे ही अन्य प्रतिज्ञाविषे जानना । अथवा केई पापी ऐसे भी हैं, पहले प्रतिज्ञा | करें पीछे तिसतै दुखी होय,तब प्रतिज्ञा छोड़ दें। प्रतिज्ञा लेना छोड़नातिनकै ख्याल मात्र है।
सो प्रतिज्ञा भंग करने का महापार है। इस तौ प्रतिज्ञा न लेनी ही भली है । या प्रकार पहले तो निर्विचार होय; प्रतिज्ञा करें, पीछे ऐसी इच्छा होय।सो जैनधर्मविष प्रतिज्ञा न लेनेका | दंड तो है नाहीं । जैन धर्मविपै तो यह उपदेश है,पहले तो तत्वज्ञानी होय । पीछे जाका त्याग करे, ताकादोष पहिचाने । त्याग किए गुण होय,ताकौं जाने। बहुरि अपने परिणामनिकाठीक करै । वर्त्तमान परिणामनिहीकै भरोसै प्रतिज्ञा न करि बैठे आगामी निर्वाह होता जाने, तौ प्रतिज्ञा करें। बहुरि । शरीरकी शक्ति वा द्रव्यक्षेत्र काल भावादिकका विचार करै । ऐसें विचारें पीछे प्रतिज्ञा करनी, सो भी ऐसी करनी जिस प्रतिज्ञातै निरादरपना न होय,परिणाम चढ़ते रहें। ऐसी जैनधर्मको आम्नाय । है। यहां कोऊ कहै, चांडालादिकोंने प्रतिज्ञा करी, तिनकै इतना विचार कहां हो है ।। ताका समाधान
मरणपर्यंत कष्ट होय, तो होहु परंतु प्रतिज्ञा न छोड़नी, ऐसा विचारकरि प्रतिज्ञा करें ।। हैं। प्रतिज्ञावि निरादरपना नाहीं । अर सम्यग्दृष्टी प्रतिज्ञा करै है, सो तत्वज्ञानादिपूर्वक ही करे है । बहुरि जिनके अंतरंग विरक्तता न भई अर बाह्य प्रतिज्ञो धरै हैं, ते प्रतिज्ञाके पहलें ।। ३६३
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मो.मा.1 वा पीछे जाकी प्रतिज्ञा करें, ताविषै अति आसक्त होय लागे हैं । जैसे उपवासके धारने पारने ।
भोजनविष अतिलोभी होय गरिष्ठादि भोजन करें, शीघ्रता घनी करें । सो जैसे जलकों । मंदि, राख्या था, छुव्या तब ही बहुत प्रवाह चलने लागा। तैसें प्रतिज्ञाकरि विषयप्रवृत्ति मंदि, । अन्तरंग आसक्तता बंधती गई । प्रतिज्ञा पूरी होते ही अत्यन्त विषयप्रवृत्ति होनै लागी । सो
प्रतिज्ञाका कालविधै विषयवासना मिटी नाहीं । आगे पीछे तिसकी एवज अधिकारागकिया, तो फल तो रागभाव मिटे होगा । तातै जेती विरक्तता भई होय, तितनी ही प्रतिज्ञा करनी । महामुनि भी थोरी प्रतिज्ञा करें पीछे पाहारादिवि उछटि करें । अर बड़ी प्रतिज्ञा करै हैं, सो अपनी शक्ति देखि कर हैं । जैसें परिणाम चढ़ते रहैं, लो करै हैं । प्रमाद भी न होय | अर बाजता भी न उपजै । ऐसी प्रवृत्ति कारिजकारी जाननी। बहुरि जिनके धर्मऊपरि दृष्टि | नाही, ते कबहू तो बड़ा धर्म आचरै, कवह अधिक स्वच्छन्द होय प्रवत्त । जैसें कोई धर्मपर्वविषे तो । बहुत उपवासादि करै, कोई धर्मपर्वविषै बारंबार भोजनादि करै सो धर्मबुद्धि होय, तौ सर्व धर्मपर्वनिविष यथायोग्य संयमादि धरै । बहुरि कबहू तो कोई धर्मकार्यनिविर्षे बहुत धन खरचै, कबहूँ। कोई धर्मकार्य आनि प्राप्त भया होय, तो भी तहां थोरा भी धन न खरचै । सो धर्मबुद्धि होय, तो
यथाशक्ति यथायोग्य सर्व ही धर्मकार्यनिविषै धन खरच्या करें। ऐसे ही अन्य जानना। बहुरि || । जिनके सांचा धर्मसाधन नाही, ते कोई क्रिया तो बहुत बड़ी अङ्गीकार करें अर कोई हीन
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मो.मा. क्रिया किया करें जैसे धनादिकका तो त्याग किया, अर चोखा भोजन चोखा वस्त्र इत्यादि प्रकाश विषयनिविर्षे विशेष प्रवः । बहुरि कोई जामा पहरना, स्त्रीसेवन करना, इत्यादि कार्यनिका
तो त्यागकरि धर्मात्मापना प्रकट करें, अर पीछे खोटे व्यापारादि कार्य करें। तहां लोकनिंद्य पापक्रियाविषै प्रवत्त । ऐसे ही कोई क्रिया अति ऊँची, कोई क्रिया अति नीची करें। तहां लोकनिंद्य होय, धर्मको हास्य करावें । देखो अमुक धर्मात्मा ऐसे कार्य करे हैं । जैसें कोई पुरुष । एक वस्त्र तो अति उत्तम पहरे, एक वस्त्र अति हीन पहरै, तो हास्य ही होय । तेसैं यह हास्य पावै हैं । सांचा धर्मकी तो यह आम्नाय है, जेता अपना रागादि दूरि भया होय, ताकै अनुसार जिस पदविषे जो धर्मक्रिया संभवै, सो सर्व अङ्गीकार करे । जो थोरा रागादि मिव्या होय, तो नीचा ही पदविणे प्रवत्त । परंतु ऊँचा पद धराय, नीची क्रिया न करै। यहां प्रश्न-जो स्त्रीसेवनादिकका त्याग ऊपरिकी प्रतिमाविषै कह्या है, सो नीचली अवस्थावाला तिनका त्याग करै कि न करै । ताका समाधान
सर्वथा तिनका त्याग नीचली अवस्थावाला कर सकता नाहीं । कोई दोष लागै है, तातें। ऊपरिकी प्रतिमाविषै त्याग कया है। नीचली अवस्थाविषै जिस प्रकार त्याग संभवै, तैसा, नीचली अवस्थावाला भी करै। परंतु जिस नीचली अवस्थाविषै जो कार्य संभवे नाही, ताका करना तो कषायभावनिहीत हो है । जैसे कोऊ सप्तव्यसन सेवे, वस्त्रीका त्याग करे, तो कैसें । ३६५
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वनै । यद्यपि स्वस्त्रीका त्याग करना धर्म है, तथापि पहले सतव्यसनका त्याग होय, तब ही खस्त्रीका त्याग करना योग्य है। ऐसे ही अन्य जानने । बहुरि सर्व प्रकार धर्मकों न जाने, ऐसा जीव कोई धर्नका अङ्गको मुख्यकरि अन्य धर्मनिकौं गौण करे है । जैसें केई जीव दया । धर्मको मुख्यकरि पूजा प्रभावनादि कार्यकौं उथापै हैं, केई पूजा प्रभावनादि धर्मकौं मुख्यकरि । हिंसादिकका भय न राखें हैं, केई तपकी मुख्यताकरि आर्तध्यानादिकरिके भी उपवासादि करें। बो आपकों तपस्वी मानि निःशंक क्रोधादि करें, केई दानको मुख्यताकरि बहुत पाप करके। भी धन उपजाय दान दे हैं, केई आरंभत्यागकी मुख्यताकरि याचना करने लगि जांय हैं, केई । जीव हिंसा मुख्य करि स्नानशौचादि नाहीं करै हैं वा लौकिक कार्य आएँ धर्म छोड़ि तहां लागि जाना इत्यादि करे हैं । इत्यादि प्रकारकरि कोई धर्मको मुख्यकरि अन्य धर्मकों न गिर्ने । हे, वा वाकै आसरे पाप आचरै हैं। सो जैसैं अविवेकी व्यापारीकों काहू व्यापारके नफेके अर्थि अन्य प्रकारकरि घना टोटा होय है, तैसें यह कार्य भया । सो जैसे विवेकी व्यापारीका प्रयोजन नफा है, सर्व विचारकरि जैसे नफा घना होय तैसे करै। तैसें ज्ञानीका प्रयोजन वीतरागभाव है । सर्व विचारकरि जैसें वीतरागभाव घना होय, तैसें करै । जाते मूलधर्म वीतराग-1 भाव है । याही प्रकार अविवेकी जीव अन्यथा धर्म अङ्गीकार कर हैं, तिनकै तौ सम्यक्चारित्र का आभास भी न होय । बहुरि केई जीव अणुव्रत महाव्रतादिरूप यथार्थ आचरण करे हैं।
రాంతం రాం రాం రంగంలో
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बहुरि आचरणकै अनुसार ही परिणाम हैं। कोई माया लोभादिकका अभिप्राय नाहीं है । इ| नकों धर्म जानि मोक्षकै अर्थि इनका साधन करें हैं। कोई स्वर्गादिक भोगनिकी इच्छा न राखें, | परंतु तत्त्वज्ञान पहलै न भया तातें आप तो जानै मोक्षका साधन करों हौं, अर मोक्षका सा-1
धन जो है, ताकौं जाने भी नाहीं । केवल खर्गादिकहीका साधन करें । सो मिश्रीकौं अमृत | जानि भखै हैं, अमृतका गुण तो न होय । आपकी प्रतीतिकै अनुसार नफा फल होता नाहीं।। | फल जैसा साधन कर, तैसा ही लागें है। शास्त्रविषै ऐसा कह्या है-चारित्रविषै 'सम्यक' पद है, सो अज्ञानपूर्वक प्राचरणकी निवृत्तिकै अर्थि है । तातै पहले तत्वज्ञान होय, तहां पीछे । चारित्र होय, सोसम्यकचारित्र नाम पावै है । जैसे कोई खेतीवाला बीज तो बोवे नाहों अर अ-18 न्य साधन कर, तौ अन्नप्राप्ति कैसे होय । घास फूस ही होय । तैसें अज्ञानी तत्त्वज्ञानका तो
अभ्यास करे नाही, अर अन्य साधन कर, तौ मोक्षप्राप्ति कैसे होय देवपदादिक ही होय । | तहां केई जीव तो ऐसे हैं, तत्वादिकका नीकै नाम भी न जाने, केवल ब्रतादिकवि ही प्रवः । हैं । केई जीव ऐसे हैं, पूर्वोक्तप्रकार सम्यग्दर्शन ज्ञानका अयथार्थ साधनकरि व्रतादिविषै प्रवर्स हैं । सो यद्यपि व्रतादिक यथार्थ आचरें तथापि यथार्थ श्रद्धान ज्ञानबिना सर्व आचरण मिथ्याचारित्र ही है । सोही समयसारका कलशाविषे कहा है
क्लिश्यन्तां खयमेव दुर्धरतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः ।
అని అంటే రంగు 60000000000000000000ను
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भो.मा. प्रकाश
क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपो भारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं
ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तं क्षमन्ते न हि ॥ १ ॥ याका अर्थ-मोनत परांमुख ऐसे अतिदुस्तर पंचाग्नि तपनादि कार्य तिनकरि आप ही ||| क्लेश करे है, तो करौ । बहुरि अन्य केई जीव महाव्रत अर तपका भारकरि चिरकालपर्यंत क्षीण। होते क्लेश करे हैं, तो करौ । परंतु यह साक्षात् मोक्षस्वरूप सर्वरोगरहित जो पद आपै आप अनुभवमें आवै, ऐसा ज्ञान स्वभाव सो तौ ज्ञानगुणविना अन्य कोई भी प्रकारकरि पावनेकौं । समर्थ नाहीं है । बहुरि पंचास्तिकायविषै जहां अन्तविणे व्यवहाराभासवालोंका कथन किया है, तहां तेरहप्रकार चारित्र होते भी ताका मोक्षमार्गविषै निषेध किया है । बहुरि प्रवचनसारविषै आत्मज्ञानशून्य संयमभाव अकार्यकारी कह्या है । बहुरि इनहीं ग्रंथनिविर्षे वा अन्य परमात्माप्रकाशादि शास्त्रनिविषै इस प्रयोजन लिए जहां तहां निरूपण है। तातें पहले तत्वज्ञान भए ही आचरण कार्यकारी है। यहां कोऊ जानैगा, बाह्य तौ अणुव्रत महाव्रतादि साधे है, अन्तगंग परिणाम नाहीं, वा स्वर्गादिककी वांछाकरि साधै है, सो ऐसे साधे तो पापबन्ध होय । द्रव्यलिंगी मुनि ऊपरिमें ग्रेवेयकपर्यंत जाय है । परावर्तनिविणे इकतीससागर पर्यंत देवायुकी प्राप्ति अनन्त बार होनी लिखी है। सो ऐसे ऊँचेपद तो तब ही पावे, जब अन्तरङ्ग परिणामपूर्वक
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मो.मा.
प्रकाश
महाव्रत पाले, महामन्दकवायी होय, इसले के परलोकका भोगादिकफी चाहि न होय, केवल धर्मबुद्धि मोचाभिलाषी हुवा साधन साधे । तातै द्रव्यलिंगीकै स्थूल तौ अन्यथापनो है नाहीं, सूक्ष्म अन्यथापन है, सो सम्यग्दृष्टीकों भासे है । अब इनके धर्मसाधन कैसें है, अर तामैं अन्यथापनो कैसे है, सो कहिए है
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प्रथम तौ संसारविषै नरकादिकका दुख जानि खर्गादिविषै भी जन्म मरणादिका दुख जानि संसारत उदास होय, मोनकों चाहे है । सो इन दुखनिकों तौ दुख सब ही जाने हैं । इन्द्र अहमिंद्रादिक विषयानुरागतै इन्द्रियजनित सुख भोगवे हैं, ताक भी दुख जानि निराकुल सुखअवस्थाकों प्रहवानि मोब जाने हैं, सोई सम्यग्दृष्टि जानना । बहुरि विषयसुखादिक का फल नरकादिक है, शरीर सुचि विनाशीक है, पोषनेयोग्य नाहीं, कुटुम्बादिक स्वार्थ के सगे हैं, इत्यादि परद्रव्यनिका दोष विचारि तिनका तो त्याग करें है । प्रतादिकका फल स्वर्गमोक्ष है, तपश्चरखादि पवित्रफलके दाता है, तिनकरि शरीर सोखने योग्य है, देव गुरु शास्त्रादि हितकारी हैं, इत्यादि परद्रव्यनिका गुरु विश्वारि तिनहीका अंगीकार करे है । इत्यादि प्रकारकरि कोई परद्रव्यकों बुरा जानि श्रमिष्ट श्रद है है । कोई परद्रव्यकों भला जानि इष्ट है है, सो परद्रव्यष्टि अनिष्टरूप श्रद्धान को मिथ्या है । बहुरि इसही श्रद्धानते या उदासी - मता भी द्वेषरूप हो है । जातै कटुकों कुरा जानना, ताहीका नाम द्वेष है । कोऊ कहैगा ।
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कारा
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सम्यग्दृष्टी भी तो बुरा जानि परद्रव्यको त्यागें है। ताका समाधान____ सम्यग्दृष्टी परद्रव्यनिकों बुरा न जाने है । अपना रागभावकों बुरा जाने है । आप सग-11 गभावकों छोरै, तात ताका कारणका भी त्याग हो है । वस्तु विचारें कोई परद्रव्य तो भला।। | बुरा है नाहीं । कोऊ कहेगा, निमित्तमात्र तो है । ताका उत्तर
परद्रव्य जोरावरी तो क्योंई विगारता नाहीं। अपने भाव बिगरै तब वह भी बाह्यनिमित्त । है । बहुरि वाका मिमित्तविना भी भाव बिगरै हैं । तातै नियमरूप निमित्त भी नाहीं। ऐसे परद्रव्यका तो दोष देखना मिथ्याभाव है । रागादिभाव ही बुरे हैं। सो याकै ऐसी समझि नाहीं । यह परद्रव्यनिका दोष देखि तिनविषै द्वेषरूप उदासीनता करै है। सांची उदासीनता | | तौ वाका नाम है, जो कोई ही परद्रव्यका गुण वा दोष न भास, तात काहूकौं बुरा भला न
जाने । आपकों आप जाने , परकौं पर जानें, परतै किछू भी प्रयोजन मेरा नाहीं, ऐसा मानि | साक्षीभूत रहै । सो ऐसी उदासीनता ज्ञानीही कै होय । बहुरि यह उदासीन होय शास्त्रविषै व्यवहारचारित्र अणुव्रत महाव्रतरूप कह्या है, ताको अंगीकार करै है, एकदेश वा सर्वदेश | | हिंसादिपापकों छाई है, तिनकी जायगा अहिंसादि पुण्यरूप कार्यनिविषै प्रवत्र्ते है। बहुरि जैसे पर्यायाश्रित पापकार्यनिविषै कर्त्तापना माने था तैसें ही अब पर्यायाश्रित पुण्यकार्यनिविषै। कर्त्तापना अपना मानने लगा, ऐसें पर्यायाश्रित कार्यनिविणे अहंबुद्धि माननेकी समानता भई। ३७०
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मो.मा. प्रकाश
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जैसें में जीव मारों हौं, में परिग्रहधारी हौं, इत्यादिरूप मानि थी, तैरोंही में जीवनिकी रक्षा करौं हों, में नग्न परिग्रहरहित हों, ऐसी मानि भई । सो पर्यायाश्रित कार्यविषे अहंबुद्धि है, सो ही मिथ्यादृष्टि है । सोई समयसारविषै कह्या है--
ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसावृताः ।
सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोपि मुमुक्षुतां ॥१॥ याका अर्थ-जे जीव मिथ्याअंधकारव्याप्त होत संतै आपकों पर्यायाश्रित क्रियाका कर्ता। |मान हैं, ते जीव मोक्षाभिलाषी हैं, तोऊ तिनकै जैसे अन्यमती सामान्य मनुष्यनिकै मोक्ष न
होय तैसे मोक्ष न हो है । जाते कर्त्तापनाका श्रद्धानकी समानता है । बहुरि ऐसे आप कर्ता | होय श्रावकधर्म वा मुनिधर्मकी क्रियाविणै मन वचन कायको प्रवृत्ति निरंतर राखे है। जैसे उन | क्रियानिविषै भंग न होय, तैसें प्रवतॆ है। सो ऐसे भावतौ सरागहैं । चारित्र है, सो वीतरागभाव रूप है। तातै ऐसे साधनों मोक्षमार्ग मानना मिथ्याधुद्धि है । यहां प्रश्न-जो सराग
वीतराग भेदकरि दोयप्रकार चारित्र कह्या है, सो कैसें है । ताका उत्तर--- । जैसें तंदुल दोय प्रकार हैं-एक तुषरहित हैं,एक तुषसहित हैं । तहां ऐसा जानना-तुष ।
है सो तंदुलका स्वरूप नाहीं । तंदुलविषै दोष है । पर कोई स्याना तुषसहित वंदुलका संग्रह करै था, ताकौं देखि कोई भोला तुषनिहीको तंदुल मानि संग्रह करे, तो वृथा खेदखिन्न ही ३७१
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मो. माहोय । तैसें चास्त्रि दोग्य प्रकार है-एक सराग है एक वीतराग है। तहां ऐसा जानना राग प्रकाश है, सो चारित्रका स्वरूप नाहीं । चारित्रविषै दोष है । मर केई ज्ञानी प्रशस्तरागसहित चारित्र
धारे हे । तिनकों देखि कोई अज्ञानी प्रशस्तरागहीकों चारित्र मानि संग्रह करे, तो वृ-14
था खेदखिन्न ही होय । यहां कोऊ कहैगा-पापक्रिया करसै तीघ्ररागादिक होते थे, अब इन | क्रियानिकों करते मंदराग भयो । तातै जेताअंश रागभाव घट्या तितना अंशां तो चारित्र कहौ । जेता अंश राग रह्या, तेता अंश राग कहौ । ऐसें याकै सरागचारित्र संभव है । ताका समाधान. जो तत्त्वज्ञानपूर्वक ऐसे होय, तो कहो ही जैसे ही है । तत्त्वज्ञानविना उत्कृष्ट आचरण | होते भी असंयम ही नान पावै है ।जाते रागभाव करनेका अभिप्राय नाहीं मिटे है। सोई । दिखाईए है
द्रव्यलिंगी मुनि राज्यादिककों छोड़ि निर्यथ हो है,अठाईस मूलगुणनिको पाले है, उग्रोग्र अनशनादि घनातपकर है, नुधादिक बाईस परीषहसहै है,शरीरका खंडरभएभी व्यत्र न हो | है,बतभंगके कारण अनेक मिलें,तौभी दृढ़ रहै है, कोईसेती क्रोध न करै है, ऐसासाधनकामानन | करै है । ऐसे सधानविषै।कोई कपटाई नाहीं है,इससाधनकरि इसलोकपरलोकके विषयसुखकों न चाहै है । ऐसी याकी दशा भई है । जो ऐसी दशान होय, तो अवेयकपर्यंत कैसे पहुंचे।
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मो.मा.
IN परंतु याकौं मिथ्यादृष्टी असंयमी ही शास्त्रविषे कह्या । सो ताका कारण यह है- याकै तत्यप्रकाश निका श्रद्धान ज्ञान सांचा भया नहीं। पूर्व वर्णन किया, वैसे तत्वनिका श्रद्धान भान भया
है। तिस ही अभिप्रायते सर्व साधन कर है । सो इन साधनिका अभिप्रायकी परंपराको वि. चारें कषायनिका अभिप्राय आवै है । सो कैसे, सो सुबहु___ यह पापके कारण रागादिकों तो हेय जानि छोर है, परन्तु पुण्यका कारण प्रशस्तरागों उपादेय मानै है । ताके वधनेका उपाय करें है। सो प्रशस्तराग भी तो कषाय है। कषायकों उपादेय मान्या, तब कषाय करनेका ही श्रद्धान रह्या । अप्रशस्त परद्रव्यनिसौं द्वेष-|| करि प्रशस्त परद्रव्यनिविषे राग करनेका अभिप्राय भया। किछु परद्रव्यनिविषे साम्यभाव-11 रूप अभिप्राय न भया । यहां प्रश्न-जो सम्यम्दृष्टी भी तौ प्रशस्तरागका उपाय राव है। ताका उत्तर
जैसे काहूकै बहुत दंड होताथा, सोवह थोरा दंड देनेका उपाय राखै है । अर थोरा दंड दिये हर्ष भी माने है । परंतु श्रद्धानविणे दंड देना, अनिष्ट ही मासै है । वैसे सम्यदृष्टीकै पापरूप बहुत कषाय होता था, सो यह पुण्यरूप थोरा कषायकरनेका उपाय सखे है । अर थोरा कपाय भए हर्ष भी मान्ने है । परंतु श्रद्धानवि कषायकों हेय ही मानै है । बहुरि जैसे कोऊ कुमाईका कारण जानि व्यापारादिकका उपाय राखै है । उपाय बनि आए हर्ष मम्मे है ।
పండం-10000000000000000000నిజాం నిరంఘం నిండా
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| तैसें द्रव्यलिंगी मोक्षका कारण जानि प्रशस्तरागका उपाय राखै है। उपाय बनि आए हर्ष | काय माने है । ऐसें प्रशस्तरागका उपायवि वा हर्षविष समानता होते भी सम्यग्दृष्टी कै तौ दंड
समान मिथ्यादृष्टीकै व्यापारसमान श्रद्धान पाइए है । तातें अभिप्रायविषै विशेष भया । बहुरियाकै परीषह तपश्चरणादिकके निमित्सतै दुख होय, ताका इलाज तौ न करै है, परंतु दुख ! | । वैदै है । सोदुखका बेदना कषायहा है । जहांवीतरागताहो है,तहांतो जैसें अन्य ज्ञेयकों जाने है | | तैसेही दुखकाकारण ज्ञेयकौंजान है । सोऐसी दशायाकी न हो है । बहुरि उनकौंसहै है, सोभी | कषायका अभिप्रायरूप विचारतें सहै है । सोविचार ऐसाहो है—जो परवेशपर्ने नरकादिगति- | | विषे बहुत दुख सहे, ये परीषहादिकका दुख तो थोरा है । याकों स्ववश सहें स्वर्ग मोक्षसुख
की प्राति हो है । जो इनकों न सहिए अर विषयसुख सेईए,तो तो नरकादिककी प्राप्ति हो है,। तहां बहुतदुख होगा । इत्यादि विचारविर्षे परीषहनि विषै अनिष्टबुद्धि रहैहै। केवल नरकादिकके | भयतै वा सुखके लोभते तिनकों सहै है । सो ए सर्व कषायभाव ही हैं । बहुरि ऐसा विचार || हो है-जे कर्म वांधे, ते भोगेविना छूटते नाहीं । तातै मौकों सहने आए । सो ऐसे विचारतें कर्मफल चेतनारूप प्रवर्ते है । बहुरि पर्यायदृष्टिते जो परीषहादिकरूप अवस्था हो है, ताकौं । आपके भई माने है । द्रव्यदृष्टितै अपनी वा शरीरादिककी अवस्थाकौं भिन्न न पहिचाने है ।। ऐसे ही नानाप्रकार व्यवहार विचारते परीषहादिक सहै है । बहुरि याने राज्यादि विषयसा- ३७४
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मग्रीका त्याग किया है, वा इष्ट भोजनादिकका त्याग किया करे है । सो जैसें कोऊ दाहज्व| रवाला वायु होनेके भयते शीतलवस्तु सेवनका त्याग करै है, परंतु यावत् शीतल बस्तुका | सेवन रुचे, तावत् वाकै दाहका अभाव न कहिये । तैसें रागसहित जीव नरकादिकके भयते ।। | विषयसेवनका त्याग करै है, परंतु यावत् विषयसेवन रुचे, तावत् रागका अभाव न कहिए।
वहुरि जैसे अमृतका आखादी देवकों अन्य भोजन स्वयमेव न रुचै, तैसैं स्वरसका आस्वाद| करि विषयसेवनकी रुचि याकै न हो है । या प्रकार फलादिककी अपेक्षा परीषहसहनादिकौं । | सुखका कारण जानै है । अर विषयसेवनादिकों दुखका कारण जानै है । बहुरि तत्कालविषै। परीषह सहनादिकतै दुख होना माने है । विषयसेवनादिकतै सुख माने है। बहुरि जिनते सुख दुख होना मानिए, तिनविणे इष्ट अनिष्ट वृद्धिराग द्वेषरूप अभिप्रायका अभाव होय।। नाहीं । बहुरि जहां रागद्वेष हैं, तहां चारित्र होय नाहीं । तातें यह द्रव्यलिंगी विषयसेवन | | छोरि तपश्चरणादि करे है, तथापि असंयमी है । सिद्धांतविष असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टीते।
भी याकों हीन कह्या है । तातै उनकै चौथा पांचवाँ गुणस्थान है, याकै पहला ही गुणस्थान ।। है, यहां कोऊ कहै-असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टीकै कषायनि
की प्रवृत्ति विशेष है, अर द्रव्यलिंगी मुनिकै थोरी है, याते असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टी तौ | सोलहवां स्वर्गपर्यंत ही जाय अर द्रव्यलिंगी ऊपरिमें अवेयकपर्यंत जाय । तातै भावलिंगी ||३७५
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सुनित तो द्रव्यलिंगीकों हीन कहो, असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टी याकों हीन कैसे कहि
ए । ताका समाधान
असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टिकै कषायनिकों प्रवृत्ति तो है, परन्तु श्रद्धानविषै किसी ही कषायके करनेका अभिप्राय नाहीं । बहुरि द्र्ध्यलिंगीकै शुभकपतय करनेका अभिप्राय पाईए है | श्रद्धानविषै तिनकों भले जाने है । तातै' श्रद्धानअपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टीतैं भी याकै अधिक कषाय है । बहुरि द्रव्यलिंगीकै योगनिकी प्रवृत्ति शुभ्ररूप घनी हो है । अर अघातिकर्मनिविषे पुण्य पापबंधका विशेष शुभ अशुभ योगनिकै अनुसार है । तातै उपरिम ग्रैवेयकपर्यंत पहुंचे हैं, सो किछू कार्यकारी नाहीं । जातै श्रघातिया कर्म श्रात्मगुणके घातक ना ह्रीं । इनके उदयतें ऊंचे नीवेपद पाए तो कहा भया । ए तौ बाह्य संयोगमात्र संसारदश के स्वांग हैं। आप तो आत्मा है, तातै' श्रात्मगुणके घातक ए कर्म हैं तिनका हीनपना कार्यकारी है । सो घातिया कम्पनिका बंध बाह्य प्रवृत्ति के अनुसार नाहीं । अंतरंग कषायशक्तिकै अनुसार है । याही द्रव्यलिंगीत असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टिकै घातिकर्मनिका बंध थोरा है । द्रव्यलिंगीकै तौ सर्व घातिकर्मनिका बंध बहुत स्थिति अनुभाग लिए होय । अर असंत देश संयत सम्यग्दृष्टिकै मियाल अमंतानुबंधी आदि कर्मनिका तो बंध है ही नाहीं । अवशेषनिका बंध ह है, सो स्तोक स्थिति अनुभाग लिए हो है । बहुरि द्रव्यलिंगीकै कदाचित्
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गुणश्रेणीनिर्जरा न होय, सम्यग्दृष्टिकै कदाचित् हो है। देशसकलसंयम भए निरंतर हो । है। याहीते यह मोक्षमार्ग भया है । ताते द्रब्यलिंगी मुनि असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टीसे हीन कह्या है । सो समयसारबिषे द्रब्यलिंगी मुनिका हीनपना गाथा वा टीका कलशानिवि
प्रगट किया है। बहुरि पंचास्तिकायकी टीकाविषै जहां केवल व्यवहारावलंबीका कथन किया है, तहां व्यवहार पंचाचार होते भी ताका हीनपना ही प्रगट किया है । बहुरि प्रवचन| सारविषे संसारतत्व द्रब्यलिंगीकों कया । बहुरि परमात्माप्रकाशादि अन्य शास्त्रनिविषै भी। इस व्याख्यानको स्पष्ट किया है। वहरि द्रव्यालेंगीकै जो जप तप शील संयमादि क्रिया हैं, तिनकों भी अकार्यकारी इन शास्त्रनिविषै जहां दिखाये हैं, सो तहां देखि लेना । यहां ग्रंथ वधनेके भय नाही लिखिए है । ऐसें केवल व्यवहाराभासके अवलंबी मिथ्यादृष्टी तिनका निरूपण किया।
अब निश्चय व्यवहार दोऊ नयनिके आभासकौं अवलंबै हैं, ऐसे मिथ्यादृष्टी तिनिका निरूपण कीजिए है
जे जीव ऐसा माने हैं-जिनमतविषै निश्चय व्यवहार दोय नय कहे हैं, ताते हमकौं तिनि दोऊनिका अङ्गीकार करना । ऐसें विचारि जैसे केवल निश्चयाभासके अवलंबोनिका कथन किया था, तैसें तो निश्चयका अङ्गीकार करै हैं अर जैसें केवल व्यवहार भासके अवलंबीनिका
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मो.मा प्रकाश
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कथन किया था, तैसे व्यवहारका अङ्गीकार कर हैं। यद्यपि ऐसे अङ्गीकार करनेविर्षे दोऊ । नयनिवि परस्पर विरोध है, तथापि करें कहा, सांचा तो दोऊ नयनिका खरूप भास्या नाही, ||
अर जिनमतविर्षे दोय नय कहे, तिनिविर्षे काहूकों छोड़ी भी जाती नाहीं। तातै भ्रम लिए । | दोऊनिका साधन साधै हैं, ते भी जीव मिथ्यादृष्टी जानने ।
अब इनिकी प्रवृत्तिका विशेष दिखाईए है-अन्तरंगविर्षे आप तो निर्धार करि यथावत् ।। निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गको पहिचान्या नाहीं। जिनआज्ञा मानि निश्चय व्यवहाररूप मोक्षमार्ग दोय प्रकार माने है । सो मोक्षमार्ग दोय माहीं । मोक्षमार्गका निरूपण दोय प्रकार है। | जहां सांचा मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपण सो निश्चय मोक्षमार्ग है । अर जहां जो मोच
मार्ग तो है नाहीं, परन्तु मोक्ष मार्गका निमित्त है, बा सहचारी है, ताको उपचारकरि मोक्षमार्ग | | कहिए, सो व्यवहार मोक्षमार्ग है । जाते निश्चय व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है। सांचा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार, तातै निरूपण अपेक्षा दोय प्रकार मोक्षमार्ग जानना। एक निश्चयमोक्षमार्ग है, एक व्यवहारमोक्षमार्ग है। ऐसें दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है । बहुरि निश्चय व्यवहार दोऊनिळू उपादेय माने हैं, सो भी भ्रम है। जाते निश्चय व्यवहारका स्वरूप तौ परस्पर विरोध लिए है । जाते समयसारविर्षे ऐसा कह्या है
“व्यवहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिऊरण सुद्धणओ।"
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मो.मा. प्रकाश
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సంపందించిన 1000-00
याका अर्थ-व्यवहार अभूतार्थ है। सत्य स्वरूपकों न निरूपै है। किसी अपेक्षा उपचारकरि अन्यथा निरूपै है । बहुरि शुद्ध नय जो निश्चय है, सो भूतार्थ है। जैसा वस्तुका 1
खरूप है, तैसा निरूप है। ऐसे इनि दोनिका खरूप तो विरुद्धता लिए है। बहुरि तू ऐसें | | माने है, जो सिद्धसमान शुद्ध आत्माका अनुभवन सो निश्चय अर व्रत शील संयमादिरूप | प्रवृत्ति सो व्यवहार, सो ऐसा तेरै मानना ठीक नाहीं । जाते कोईद्रव्यभावका नाम निश्चय कोईका नाम व्यवहार, ऐसे है नाहीं । एक ही द्रव्य के भावकों तिस वरूप ही निरूपण करना, सो निश्चय नय है । उपचास्करि तिस द्रब्यके भावकों अन्य द्रव्यके भावस्वरूप निरूपण करना, सो व्यवहार है । जैसें माटीके घड़े कों माटीका घड़ा निरूपिए सो निश्चय, अर घृलसंयोगका उपचारकरि वाकौं ही घृतका घड़ा कहिए, सो ब्यवहार । ऐसे ही अन्यत्र जानना । ताते तू किसीको निश्चय माने, किसीको ब्यवहार माने, सो भ्रम है । बहुरि तेरे मानने विषै भी निश्चय व्यवहारकै परस्पर विरोध आया। जो तू आपकों सिद्ध मान शुद्ध माने है, तो ब्रतादिक काहेकौं करै है । जो व्रतादिकका साधनकरि सिद्ध भया चाहै है, तो वर्तमानविर्षे शुद्ध| आत्माका अनुभवन मिथ्या भया । ऐसें दोऊ नयनिकै परस्पर विरोध है । तातै दोऊ नयनि-11
का उपादेयपना बने नाहीं । यहां प्रश्न-जो समयसारादिविर्षे शुद्ध आत्माका अनुभवकों || निश्चय कम है । व्रत तप संयमादिकको व्यवहार कहा है, तैसे ही हम माने हैं । ताका ३७६
- Galodgo పురుం వంపులకు వైనంపస్తుంచుంచుంచి
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मो.मा. प्रकाश
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समाधान
... शुद्ध आत्माका अनुभव सांचा मोक्षमार्ग है । ताते वाकों निश्चय करा । यहां खभाव। अभिन्न परभाव भिन्न ऐसा शुद्धशब्दका अर्थ जानमा। संसारीकों सिद्ध मानना, ऐसा |
भ्रमरूप अर्थ शुद्धशब्दका न जनना । बहुरि व्रत तप आदि मोक्षमार्ग है नाहीं, निमित्ता-1 दिककी अपेक्षा उपचारतें इनकों मोक्षमार्ग कहिए है, तातै इनकों ब्यवहार कह्या । ऐसे भूतार्थ अभूतार्थ मोक्षमार्गपनाकार इनकों निश्चय ब्यवहार कहे हैं । सो ऐसे ही मानना ।। बहुरि ए दोऊ ही सांचे मोक्षमार्ग हैं । इन दोऊनिकों उपादेय मानना, सो तो मिथ्या|| बुद्धि ही है । तहां वह कहै है-श्रद्धान तो निश्चयका राखै हैं, अर प्रवृत्ति ब्यवहाररूप
राखे हैं, ऐसे हम दोऊनिकों अंगीकार करै हैं । सो भी वन नाहीं । जातें निश्चयका निश्चयरूप व्यवहारका व्यवहाररूप श्रद्धान करना युक्त है । एक ही नयका श्रद्धान भए । एकांतमिथ्यात्य हो है । बहुरि प्रवृत्तिविर्षे नयका प्रयोजन ही नाहीं । प्रवृत्ति तो द्रब्यकी। परणति है । तहां जिस द्रब्यकी परणति होय, ताकौं तिसहीकी प्ररूपिए सो निश्चयनय । अर तिसहीको अन्य द्रब्यको प्ररूपिए, सो ब्यवहारनय; ऐसे अभिप्राय अनुसार प्ररूपणते तिस प्रवृत्तिविषै दोऊ नय बनें हैं । किछू प्रवृत्ति ही तो नयरूप है नाहीं । तात या प्रकार भी दोऊ नयका ग्रहण मानना मिथ्या है । तो कहा करिए, सो कहिए है—निश्चयनयकरि । ३८
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मोजो निरूपण किया होय, ताों तो सत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान अङ्गीकार करना अर व्यवहारप्रकाशं नयकरि जो निरूपण किया होय, ताकौं असत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान छोड़ना। सो ही || । समयसारविषै कह्या है
सर्वत्राध्यवसायमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै-~स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः । सम्यग्निश्चयमेकमेव परमं निष्कम्प्यमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् ॥१॥ याका अर्थ-जाते सर्व ही हिंसादि वा अहिंसादिविषै अध्यवसाय हैं सो समस्त ही छोड़ना, ऐसा जिनदेवनिकरि कह्या है । तातै' में ऐसें मानौ हौं, जो पराश्रित व्यवहार है, सो।। सर्व ही छुड़ाया है । सन्तपुरुष एक निश्चयहीकों भलै प्रकार निश्चयपनै अंगीकारकरि शुद्धज्ञानघनरूप निजमहिमावि स्थिति क्यों न करें हैं। भावार्थ-यहां व्यवहारका तौ त्याग कराया, तातै निश्चयकौं अङ्गीकारकरि निजमहिमारूप प्रवर्तना युक्त है । बहुरि षट्पाहुविर्षे कह्या है--
. जो सुत्तो ववहारे सो जोई जागदे सकज्जम्मि। जो जागादि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ॥१॥
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याका अर्थ -- जो व्यवहारविषै सुता है, सो जोगी अपने कार्यविषै जागे है । बहुरि जो व्यवहारविषै जागे है, सो अपने कार्यविषै सूता है । तातैं व्यवहारनयको श्रद्धान छोड़ि निशचयनयका श्रद्धान करना योग्य है । व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यकौं वा तिनके भावनिकों वा कारण कार्यादिककों काहूकों काहूविषै मिलाय निरूपण करे है । सो ऐसे ही श्रद्धानतें मिथ्यात्व है । तातै याका त्याग करना । बहुरि निश्चयनय तिनहीकों यथावत् निरूपै है, काहूकों | काहूविषे न मिलावे है । ऐसे ही श्रद्धानतैं सम्यक्त हो है । तातें याका श्रदान करना। यहां प्रश्न -जो ऐसें है, तौ जिनमार्गविषै दोऊ नयनिका ग्रहण करना कया है, सो कैसें ताका
समाधान
जिनमार्गविषै कहीं तो निश्चयनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है ताकौं तौ 'सत्यार्थ ऐसें ही है' ऐसा जानना । बहुरि कहीं व्यवहारनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है, ताक 'ऐसें है नाहीं - निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है' ऐसा जानना । इस प्रकार जाननेका नाम ही दोऊ नयनिका ग्रहण है । बहुरि दोऊ नयनिके व्याख्यानकों समान सत्यार्थ जानि ऐसें भी है, ऐसे भी है, ऐसा भ्रमरूप प्रवर्त्तनेकरि तौ दोऊ नयनिका ग्रहण करना कला है नाहीं । ब| हुरिप्रश्न - जो व्यवहारनय असत्यार्थ है, तौ याका उपदेश जिनमार्गविषै काहेकौं दिया- एक निश्चयनयहीका विरूपण करना था । ताका समाधान -:
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मो.मा. ऐसा ही तर्क समयसारविषै किया है । तहां यह उसर दिया है
जह णवि सकमणज्जो अमज्जभासं विणा उगाहेउँ ।
तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसमसकं ॥१॥ । याका अर्थ-जैसे अनार्य जो म्लेछ सो ताहि म्लेछभाषा विना अर्थ ग्रहण करावनेकों।। । समर्थ न हूजे । तैसे व्यवहार विना परमार्थका उपदेश अशक्य है । तातै व्यवहारका उपदेश । है । बहुरि इसही सूत्रकी व्याख्याविषै ऐसा कह्या है—व्यवहारनयो नानुसतव्यः। यह निश्
चयके अंगीकार करावनेकों व्यवहारकरि उपदेश दीजिए है । बहुरि व्यवहारनय है, सो अंगीकार करने योग्य नाहीं। यहां प्रश्न-व्यवहार विना निश्चयका उपदेश कैसे न होय । बहुरि । व्यवहारनय कैसे अंगीकार करना, सो कहो । ताका समाधान
निश्चयनयकरि तौ आत्मा परद्रव्यतै भिन्न खभावनितें अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु है ।। ताका जे न पहिचान, तिनकों ऐसे ही कह्या करिए तो वह समझ नाहीं। तब उनकौं व्यवहारनयकरि शरीरादिक परद्रव्यनिकी सापेक्षकरि नर नारक पृथ्वीकायादिरूप जीवके विशेष किए । तव मनुष्य जीव है, नारकी जीव है, इत्यादि प्रकार लिए वाकै जीवकी पहचानि भई। अथवा अभेदवस्तुविषै भेद उपजाय ज्ञानदर्शनादि गुणपर्यायरूप जीवके विशेष किए, तब जाननेवाला जीव है, देखनेवाला जीव है, इत्यादि प्रकार लिए वाकै जीवको पहिचानि भई। ब-३८३
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मो.मा. हुरि निश्चयकरि वीतरागभाव मोक्षमार्ग है । ताकौं जे न पहिचानें, ताकों ऐसे ही कह्या कप्रकाश
रिए, तो वह समझे नाहीं । तब उनको व्यवहारनयकरि तत्वश्रद्धानज्ञानपूर्वक परद्रव्यका नि-11 मित्त मेटनेकी सापेक्षकारे व्रत शील संयमादिकरूप वीतरागभावके विशेष दिखाए, तब वाकै वीतरागभावकी पहचानि भई । याही प्रकार अन्यत्र भी व्यवहारविना निश्चयका उपदेशका न होना जानना । वहुरि यहां व्यवहारकरि नर नारकादिपर्यायहीकों जीव कह्या, सो पर्यायही कौं जीव न मानि लेना। पर्याय तो जीव पुद्गलका संयोगरूप है। तहां निश्चयकरि जीवद्रव्य जुदा है, ताहीकों जीव मानना । जीवका संयोग शरीरादिकौं भी उपचारकरि जीव कह्या, सो कहने मात्र ही है। परमार्थ ते शरीरादिक जीव होते नाहीं। ऐसा ही श्रद्धान करना। बहुरि अभेदआत्माविषै ज्ञानदर्शनादि भेद किए, सो तिनकों भेदरूप ही न मानि लेने। भेद
तो समझावनेके अर्थ हैं । निश्चयकरि आत्मा अभेद ही है । तिसहीकों जीववस्तु मानना । * संज्ञा संख्यादिकरि भेद कहे, सो कहने मात्र ही हैं । परमार्थतें जुदे जुदे हैं नाहीं । ऐसा ही
श्रद्धान करना । बहुरि परद्रव्यका निमित्त मेटनेकीअपेक्षा व्रत शील संयमादिकों मोक्षमार्ग कहा। | सो इनहीकों मोक्षमार्ग न मानि लेना । जातै परद्रव्यका ग्रहण त्याग आत्माकै होय, तौ - | त्मा परद्रव्यका कर्ता हर्ता होय । सो कोई द्रव्य कोई द्रब्यकै आधीन है नाहीं । तातें आत्मा | अपने भावरागादिक हैं, तिनों छोड़ि वीतराग हो है । सो निश्चयकरि वीतरागभाव ही मोक्ष
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కంచి విందాం రాం నిరంతరాయం నింపులు
मार्ग है। वीतराग भावनिक अर प्रस्तादिकनिकै कदाचित् कार्यकारणपनो है । तातें व्रतादि-11 ककों मोनमार्ग कहे, सो कहने मान ही हैं । परमार्थ बाह्यक्रिया मोक्षमार्ग नाहीं, ऐसा ही श्रद्धान करना । ऐसे ही अन्यत्र भी ब्यबहारनयका अंगीकार करना जानि लेमा । यहां ।। प्रश्न--जो व्यवहारनय परकों उपदेशविणे ही कार्यकारी है कि, अपना भी प्रयोजन साधे है । ताका समाधान__आप भी यावत् निश्चयनयकरि प्ररूपित वस्तुको म पहिचामै, तावत् व्यवहारमार्गकवर वस्तुका निश्चय करै । ताते नीचली दशाविषै आपको भी व्यवहारनय कार्यकारी है । परंतु व्यवहारको उपचार मात्र मानि वाकै द्वारि वस्तुका ठीक करै, तो कार्यकारी होय । बहुरि जो | निश्चयवत् व्यवहार भी सत्यभूत मानि वस्तु ऐसे ही है, ऐसा श्रद्धान करे, तो उलटा अकार्यकारी होय जाय । सो ही पुरुषर्थसिदध्युपायविषे कह्या है
अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशग्रन्स्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥ ६॥ माणषक एव सिंहो यथा अवस्थनवगीतसिंहस्य। ..
व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्वनिश्चयज्ञस्यः ॥ ७॥ इनका अर्थ-मुनिराज अज्ञार्मा के सामभमानमोक्कों असल्यार्थ जो व्यवहारमा लाकौं अपदेशो ।
-నంగా నిరంతరం
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మంత్రం అనుమానాలను
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हैं। जो केवल व्यवहारहीकों जाने है, ताकौं उपदेश ही देना योग्य नाहीं है। बहुरि जैसे जो |सांचा सिंहकों न जाने, ताकै बिलाव ही सिंह है, तैसें जो निश्चयकौं न जाने, ताकै व्यवहार
ही निश्चयपणाकों प्राप्त हो है। यहां कोई निर्विचार पुरुष ऐसें कहै—तुम ब्यवहारको अ| सत्यार्थ हेय कहो हो, तो हम व्रत शील संयमादिका व्यवहार कार्य काहेकौं करें-सर्व |
छोड़ि देवेंगे। ताकौं कहिए है-किछु व्रतशील संयमादिकका नाम ब्यवहार नाहीं है ।। | इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है, सो छोड़ि दे। बहुरि ऐसा श्रद्धानकरि जो इनकौं तो | बाह्य सहकारी जानि उपचारतै मोक्षमार्ग कह्या है । ए तो परद्रब्याश्रित हैं । बहुरि सांचा | मोक्षमार्ग वीतरागभाव है, सो स्वद्रब्याश्रित है । ऐसे ब्यवहारकौं असत्यार्थ हेय जानना । ब्रतादिकको छोड़नेते तो व्यवहारका हेयपना होता है नाहीं । बहुरि हम पूछे हैं-व्रतादिक| कौं छोड़ि कहा करेगा । जो हिंसादिरूप प्रवत्तेगा, तौ तहां तो मोक्षमार्गका उपचार भी | संभवै नाहीं । तहां प्रवननेते कहा भला होयगा, नरकादिक पावैगा । तातें ऐसे करना
तौ निर्विचारपना है। वहुरि व्रतादिकरूप परणति मेटि केवल वीतराग उदासीन भावरूप होना बने, तौ भले ही है । सो नीचली दशाविषै होय सके नाहीं । तातै प्रतादिसाधन छोड़ि स्वच्छंद होना योग्य नाहीं । या प्रकार श्रद्धानवियु निश्चयकों, प्रवृत्तिविषै व्यवहारको उपादेय मानना, सो भी मिथ्याभाव ही है।
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बहुरि यह जीव दोऊ नयनिका अंगीकार करने के प्रथिं कदाचित् आपको शुद्ध सिद्ध| समान रागादिरहित केवलज्ञानादिसहित श्रात्मा अनुभव है, ध्यानमुद्रा धारि ऐसे विचारविषै लागे है । सो ऐसा आप नाहीं, परंतु भ्रमकरि मैं ऐसा ही हों, ऐसा मानि संतुष्ट हो है । कदाचित् वचनद्वारि निरूपण ऐसा ही करे है । सो निश्चय तौ यथावत् वस्तुकों प्ररूपै, प्रत्यक्ष जैसा आप नाहीं तैसा आपको मानना, सो निश्वय नाम कैसे पाये । जैसें केवल निश्चयाभासवाला जीव के पूर्व अयथार्थपना कया था, तैसें ही याके जानना । अथवा यह ऐसें मानै | हैं, जो इस नयकरि आत्मा ऐसा है, इस नयकरि ऐसा है, सो आत्मा तो जैसा है तैसा है ही, तिविषै नयकरि निरूपण करनेका जो अभिप्राय है, ताकौं न पहिचान है । जैसें आत्मा निश्चयकरि तौ सिद्धसमान केवलज्ञाना देसहित द्रव्यकर्म-नोकर्म-भावकर्मरहित है, व्यवहारनयकरि संसारी मतिज्ञानादिसहित वा द्रव्य कर्म- नोकर्म-भावकर्मसहित है, ऐसा माने है । सो एक आत्माके ऐसे दोय स्वरूप तौ होंय नाहीं । जिस भावहीका सहितपना तिस भावहीका रहितपना एकवस्तुविषै कैसे संभवे । तातैं ऐसा मानना भ्रम है । तौ कैसे है - जैसे राजा रंक मनुष्य की अपेक्षा समान हैं, तैसें सिद्ध संसारी जीवत्वपनेकी अपेक्षा समान कहे हैं । | केवलज्ञानादि अपेक्षा समानता मानिए, सो है नाहीं । संसारीकै निश्चयकरि मतिज्ञानादिक ही हैं। सिद्धकै केवलज्ञान है । इतना विशेष है— संसारीकै मतिज्ञानादिक कर्मका निमित्ततै
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है, तातै स्वभावअपेक्षा संसारीकै केवलज्ञानको शक्ति कहिए, तो दोष नाहीं । जैसे किमनुयके राजा होनेकी शक्ति पाईथे, तैसें यह शक्ति जाममी । बहुरि द्रब्यकर्म नोकर्म पुद्गलकरि निपजे हैं, तातै निश्चयकरि संसारीकै भी इनका भिन्नपना है। परंतु सिद्धवत् इनका कारण H! कार्यसंबंध भी न माने, तौ भ्रम ही है । बहुरि भावकर्म आत्माका भाव है, सो निश्चयकरि।।
आत्माहीका है। कर्मके निमित्तत हो है, तातै व्यवहारकरि कर्मका कहिए है । बहुरि सिद्धबत् संसारीके भी रागादिक न मानना, कर्महीका मानना यह भी भ्रम ही है। याही प्रकारकरि नयकरि एक ही वस्तुकों एकभावअपेक्षा वैसा भी मानना, वैसा भी मानना, सो तौ मिथ्याबुद्धि है । बहुरि जुदे भावनिकी अपेक्षा नयनिकी प्ररूपणा है, ऐसे मानि यथासंभव वस्तु। को मानना सो सांचा श्रद्धान है । तातै मिथ्यादृष्टी अनेकांतरूप वस्तुकों माने, परंतु यथार्थ भावकों पहिचानि मानि सके नाहीं, ऐसा जानना ।
बहुरि इस जीवकै ब्रत शील संयमादिकका अंगीकार पाईए है, सो ब्यवहारकरि 'ए भी मोक्षके कारण हैं, ऐसा मानि तिनको उपादेय माने है। सो जैसें केवल व्यवहारावलम्बी | जीवकै पूर्व अयथार्थपना कह्या था, तैसें ही याकै भी अयथार्थपना जानना। बहुरि यह ऐसे। भी मानें है---जो यथायोग्य व्रतादि क्रिया तो करनी योग्य है, परंतु इनविणे ममत्व न करना। सो जाका. आप कर्ता ह्येय तिसविर्षे ममत्व केसें न करिए । भर आप कर्ता न है, तो मुझको ||३८८
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करनी योग्य है, ऐसा भाव कैसे किया । अर जो कर्ता है, तो वह अपना कर्म भया, तब कर्ताकर्मसंबंध स्वयमेव ही भया । सो ऐसी मामि तौ भ्रम है । तो कैसे है बाह्य व्रतादिक हैं, सो तो शरीरादि परद्रव्यकै आश्रय हैं। परद्रव्यका आप कर्ता है नाहीं । ताते तिसविर्षे । || कर्तृत्वबुद्धि भी न करनी । अर तहां ममत्व भी म करना । बहुरि प्रतादिकविणे ग्रहण त्याग
रूप अपना शुभोपयोग होय, सो अपने आश्रय है । ताका आप कर्ता है, ताते तिसविषै Mi कर्तृत्वबुद्धि भी माननी । अर तहां ममत्व भी करना । बहुरि इस शुभोपयोगको बंधका ही
कारण जानना, मोक्षका कारण म जानना । जातें बंध अर मोचक तौ प्रतिपक्षीपना है। तातें एक ही भाव पुण्यबंधकों भी कारण होय, अर मोक्षकों भी कारण होय, ऐसा मानना भ्रम है । तातें व्रत अव्रत दोऊ विकल्परहित जहाँ परद्रब्यके ग्रहण त्यागका किछु प्रयोजन नाहीं, ऐसा उदासीन वीतराग शुद्धोपयोग सोई मोक्षमार्ग है । बहुरि नीचली दशाविषै केई जीवनिकै शुभोपयोग अर शुद्धोपयोगका युक्तर्पना पाईए है । तातें उपचारकरि व्रतादिक शुभोपयोगकों मोक्षमार्ग कह्या है । वस्तुविचारतें शुभोपयोग मोक्षका घातक |
ही है । जाते मोक्षों कारण सोई मोक्षका घातक है, ऐसा श्रद्धान करना ।।। । बहुरि शुद्धोपयोगहीको उपादेय मानि ताका उपाय करना । शुभोपयोग अशुभोपयोगों हेय
नानि तिनके त्यामका उपाय करना । जहां शुभोपयोग न होय सके, तहाँ अशुभोपयोगकों
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मो.मा. छोड़ि शुभहीविषे प्रवर्त्तना । जाते शुभोपयोगते अशुभोपयोगविणे अशुद्धताकी अधिकता है। प्रकाश
बहुरि शुद्धोपयोग होय, तब तो परद्रव्यका साक्षीभूत ही रहे है । तहां तो किछू परद्रव्यका प्रयोजन ही नाहीं । बहुरि शुभोपयोग होय, तहां बाह्य व्रतादिककी प्रवृत्ति होय, अर अशुभोपयोग होय, तहां बाह्य अत्रतादिककी प्रवृत्ति होय । जाते अशुभोपयोगकै अर परद्रव्यकी प्रवृत्तिकै निमित नैमित्तिक संबंध पाईए है । बहुरि. पहलै अशुभोपयोग छुटि शुभोपयोग होय, पीछे शुभोपयोग छूटि शुद्धोपयोग होय । ऐसी क्रमपरिपाटी है । बहुरि केई ऐसैं मानें । कि शुभोपयोग है, सो शुद्धोपयोगकौं कारण है । सो जैसें अशुभोपयोग छुटि शुभोपयोग
हो है, तैसें शुभोपयोग टि शुद्धोपयोग हो है । ऐसे ही कार्य कारणपना होय, तौ शुभोपयो। गका कारण अशुभोपयोग ठहरै । अथवा द्रव्यलिंगीकै शभोपयोग तो उत्कृष्ट हो है, शुद्धो
पयोग होता ही नाहीं । तातै परमार्थतै इनकै कारणकार्यपना है नाहीं । जैसे रोगीके बहुत रोग था, पीछे स्तोक रोग भया, तो वह स्तोक रोग तो निरोग होनेका कारण है नाहीं । इतना है स्तोक रोग रहें निरोग होनेका उपाय करै, तो होय जाय । बहुरि जो स्तोक रोगहीको भला जानि ताका राखनेका यत्न करे, तो निरोग केसे होय । तैसें कषापीके तीव्रकषायरूप अशुभोपयोग था, पीछे मंदकषायरूप शुभोपयोग भया, तो वह शुभोपयोग तो निःकषाय शद्धोपयोग होनेको कारण है नाहीं । इतना है-शुभोपयोग भए शुद्धोपयोगका यत्न करे,
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मो.मा.|| तो होय जाय । वहुरि जो शुभोपयोगहीकी भला जानि ताका साधन किया करे, तो शखोप्रकाश || पयोग कैसे होय । तातै मिथ्यादृष्टीका शभोपयोग तो शुद्धोपयोगको कारण है नाहीं । सम्य
| दृष्टीकै शभोपयोग भए निकट शुद्धोपयोग प्राप्ति होय, ऐसा मुख्यपनाकरि कहीं शुभोपयोग| को शुद्धोपयोगका कारण भी कहिए है । ऐसा जानना । बहुरि यह जीव आपों निश्चय व्य|वहाररूप मोक्षमार्गका साधक मानै है । तहां पूर्वोक्त प्रकार आत्माकों शुद्ध मान्या, | | सो तो सम्यग्दर्शन भया । तैसें ही जान्या सो सम्यग्ज्ञान भया । तैसें ही विचारविर्षे | प्रवा सो सम्यक्चारित्र भया । ऐसे तो आपकै निश्चय रत्नत्रय भया माने । सो में प्रत्यक्ष | अशुद्ध सो शुद्ध कैसैं मानौं जानौं विचारों हों, इत्यादि विवेकरहित भ्रमतें संतुष्ट हो है ।। बहुरि अरहंतादि विना अन्य देवादिककों नःमान. है, वा जैनशास्त्र अनुसार जीवादिकके। भेद सीख लिए हैं, तिनहीकों माने है औरकों न माने, सो तो सम्यग्दर्शन भया । बहुरि । जैनशास्त्रनिका अभ्यासविषै बहुत प्रवत्ते है, सो सम्यग्ज्ञान भया । बहुरि व्रतादिरूप क्रियानिविषै प्रवत्र्त है; सो सम्यक्चारित्र भया । ऐसें आपके व्यवहार रत्नत्रय भया. माने। सो || व्यवहार तो उपचारका नाम है । सो उपचार भी तो तब बनै, जब सत्यभूत निश्चय रत्नत्रयका | | कारणादिक होय । जैसें निश्चय रत्नत्रय सधै, तेसैं इनकौं साधे, तो व्यवहारपनो भी संभवै।। सो याकै तौ सत्यभूत रत्नत्रयकी पहचानि ही भई नाहीं । यह ऐसे कैसे साधि सके ।
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आज्ञाअनुसारी हुवा देख्यांदेखी साधन कौ है । तात याकै निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग न भया । आगें निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गका निरूपण करेंगे, ताका साधन भए ही मोक्षमार्ग होगा। ऐसे यह जीव निश्चयाभासकौं जाने माने है। परन्तु व्यवहार साधनकौं भी भला | जानै है, तातै खच्छंद होय अशुभरूप न प्रवत् है । व्रतादिक शुभोपयोगरूप प्रक्र्ते है, ताते
अतिम अवेयक पर्यंत पदको पावै है । बहुरि जो निश्चयाभासकी प्रबलताते अशुभरूप प्रवृत्ति होय जाय, तो कुगतिविष भी गमन होय परिणामनिकै अनुसार फल पावै है । परंतु संसारका ही भोक्ता रहै है । सांचा मोक्षमर्ग पाए बिना सिद्धपदकौं न पा है । ऐसें निश्चयाभास व्यवहाराभास दोऊनिके अपलंबी मिथ्यादृष्टी तिनिका निरूपण किया।
अब सम्यक्त्वके सन्मुख से मिथ्यादृष्टी तिनका निरूपण कीजिए है
कोई मंदकषायादिकका कारण पाय ज्ञानोवरणादि कर्मनिका क्षयोपशम भया, ताते | तत्त्वविचार करनेकी शक्ति भई । अर मोह मंद भयो । तात तत्त्वादिविचारविषै उद्यम भया । बहुरि बाह्यनिमित्त देव गुरु शास्त्रादिकका भया, तिनकरि सांचा उपदेशका लाभ भया। तहां अपने प्रयोजमभूत मोक्षमार्गका, वा देवगुरुधर्मादिकका वा जीवादि तत्त्वमिका, वा या परका, वा आपको अहितकारी हितकारी भावमिका, इत्यादिकका उपदेशते सावधान होय, ऐसा विचार किया-अहो मुझको तो इस बातनिकी खपरि माहीं, में भ्रमतें भूलि पर्याय-1||३६२
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भो.मा.
| हीविषे तन्मय भया । सो इस पर्यायकी तो थोरे ही कालकी स्थिति है । बहुरि यहां मोको ।
| सर्व निमित्त मिले हैं। ताते मोकौं इस बातनिका ठीक करना । जाते इनविषे तो मेरा ही प्रकाश
प्रयोजन भासे है। ऐसे विचार जो उपदेश सुन्या ताका निर्धार करनेका उद्यम किया । तहां । उदेश, लवण, निर्देश, परीक्षा द्वारकरि तिनका निर्धार होय । ताते पहले तो तिनके नाम
सीखे, बहुरि तिनके लक्षण जाने, बहुरि ऐसे संभव है कि नाहीं, ऐसा विचारलिये परीक्षा # करने लगे । तहां नाम सीख लेना अर लक्षण आनि लेना ये दोऊ तो उपदेशकै अनुसार।
हो है । जैसे उपदेश दिया तैसें याद करि लेना । बहुरि परीक्षाकरनेविषै अपना विवेक चाहिये है । सो विवेककरि एकांत अपना उपयोगवि विचारै-जैसे उपदेश दिया तैसे ही है कि अन्यथा है । तहां अनुमानादि प्रमाणिकरि ठीक करे, वा उपदेश तो ऐसे है अर, | ऐसें न मानिए तो ऐसे होय । सो इनविष प्रबल युक्ति कौन है अर निर्बल युक्ति कौन है । | जो प्रवल भासे, ताको सांचा जाने । बहुरि जो उपदेशते अन्यथा सांच भासै वा संदेह | रहै निार न होय, तो बहुरि विशेष ज्ञानी होम तिनकों पूछ । बहुरि वह उत्तर दे, वाकौं । विचारै । ऐसे ही यावत् निर्धार न होय, तावत् प्रश्न उत्तर करे। अथवा समान बुद्धि के धारक होय, तिनकों आपकै जैसा विचार भया होय तैसा कहै । प्रश्न उत्तर परस्पर चर्चा करै । बहुरि जो प्रश्नोत्तरविषै निरूपण भया होय, ताकौं एकांतविणे विचारै । याही प्रकार
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अपने अंतरंगविषे जैसे उपदेश दिया था, तैसें ही निर्णय होय भाव न भासे, तावत् ऐसे ही उद्यम किया करै । वहुरि अन्यमतीनिकरि कल्पित तत्त्वनिका उपदेश दिया है, ताकरि | जैन उपदेश अन्यथा भासे, सन्देह होय, तो भी पूर्वोक्त प्रकारकरि उद्यम करै ऐसे उद्यम | किए जैसे जिनदेवका उपदेश है, तैसे ही सांच है । मुझकों भी ऐसे ही भासे है, ऐसा । निर्णय होय। जाते जिनदेव अन्यथावादी हैं नाहीं। यहां कोऊ कहै जिनदेव अन्यथावादीनाहीं हैं,
तो जैसे उनका उपदेश है, तैसें श्रद्धान करि लीजिए, परीक्षा काहेकौं कीजिए,ताका समाधान। परीक्षा किए विना यह तो माननाहोय,जो जिनदेव ऐसें कह्याहै, सो सत्य है। परंतुउनका || | भाव आपको भासे नाहीं । बहुरि भाव भासे विना निर्मल श्रद्धान न होय । जाकी काहूका। वचनहीकरि प्रतीति करिए, ताकी अन्यका वचनकरि अन्यथाभी प्रतीति होय जाय, तो शक्तिमपेक्षा। वचनकरि कीन्हीं प्रतीति अप्रतीतिवत् है । बहुरि जाका भाव भास्या होय, ताकौं अनेक प्रकारकरि भी अन्यथा न माने । तातै भाव भासें प्रतीत होय सोई सांची प्रतीत है। बहुरि | जो कहोगे, पुरुषप्रमाणते वचन प्रमाणकीजिए है, तो पुरुषकी भी प्रमाणता खयमेव न होय। वाके केई वचननिकी परीक्षा पहले कर लीजिए, तब पुरुषकी प्रमाणता होय। यहां प्रश्नउपदेश तो अनेक प्रकार, किसकिसकी परीक्षा करिए, ताका समाधान
उपदेशविप केई उपादेय केई हेय तत्व निरूपिए है। तहां उपादेय हेय तत्त्वनिकी तो
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मो.मा प्रकाश
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परीक्षा कर लेनी । जाते इनविषै अन्यथाम्नों भए अपना बुरा हो है । उपादेयकों हेय मानि | ले, तो बुरा होय, हेयकों उपादेय मानि ले, तो बुरा होय । बहुरि जो कहोगे, आप परीक्षा न करी, अर जिनवचनहीतै उपादेयकों उपादेय जाने, हेयकों हेय जाने, तो कैसे बुरा होय । ताका समाधान.. अर्थका भाव भासे विना वचनका अभिप्राय न पहिचाने । यह तो मानि ले, जो में जिन-1 वचन अनुसार मानों ही परंतु भाव भाले बिना अन्यथापनो होय जाय। लोकविर्षे भी किंकरकौं किसी कार्यको भेजिए, सो वह उस कार्यका भाव जानै, तो कार्यको सुधार, जो भाव न भासे, तो कहीं चूकि ही जाय । तातै भाव भासनेके अर्थि हेय उपादेय तत्वनिकी परीक्षा अवश्य करनी । बहुरि वह कहे है जो परीक्षा अन्यथा होय जाय, तो कहा करिए। ताका
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समाधान--
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जिनबचन अर अपनी परीचा इनकी समानता होय, तब तो जानिए सत्य परीक्षा भई।। यावत् ऐसे न होय तावत् जैसे कोई लेखा करै है, ताकी विधि न मिले तावत् अपनी चूककों ।। है । तैसे यह अपनी परीक्षाविषै विचार किया करै । बहुरि सो ज्ञेयतत्व हैं, तिनकी परीक्षाः होय सके, खौ परीक्षा करै । नाहीं, यह अनुमान करें, जो हेय उपादेय तत्व ही अन्यथा म कहै, तो ज्ञेयतत्व अन्यथा किस अर्थ कहें । जैसे कोऊ प्रयोजनरूप कार्यनिविषे झूठ न बोच्चै,
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मोमाः । सो अप्रयोजनविर्षे झूठ काहेकों बोले । तातें ज्ञेयतत्वनिका परीक्षाकरि भी वा आज्ञाकरि स्वप्रकाश
रूप जानिए । तिनका यथार्थ स्वरूप न भासे, तो भी दोष नाहीं । याहीसे जैनशास्त्रनिविषे तत्वादिकका निरूपण किया, तहां तो हेतुयुक्ति आदिकरि जैसें याकै अनुमानादिकरि प्रतीति ।। आवै, तैसें कथन किया। बहुरि त्रिलोक गुणस्थान मार्गणा पुराणादिकका कथन आज्ञा अनुसार किया । तातें हेयोपादेय तत्वनिकी परीक्षा करनी योग्य है। तहां जीवादिक द्रब्य वा । तत्व तिनको पहचानना । बहुरि त्यागने योग्य मिथ्यात्व रागादिक अर ग्रहणे योग्य सम्यग्द-/
र्शनादिक तिनका स्वरूप पहचानना। बहुरि निमित्त नैमित्तादिक जैसे हैं, तैसें पहचानना ।। ॥ इत्यादि मोक्षमार्गविषै जिनके जाने प्रवृत्ति होय, तिनकों अवश्य जाननै । सो इनकी तो
परीक्षा करनी । सामान्यपर्ने हेतुयुक्तिकरि इनकौं जानने, वा प्रमाण नयनिकरि जानने, वा निर्देश खाम्यत्वादिकरि, वा सत् संख्यादिकरि इनका विशेष जानना । जैसी बुद्धि होय जैसा निमित्त वने, तैसें इनकों सामान्य विशेषरूप पहचाननै । बहुरि इस जाननैका उपकारी गुणस्थानमार्गणादिक वा पुराणादिक वा व्रतादिक क्रियादिकका भी जानना योग्य है । यहां परीक्षा होय सके, तिनकी परीक्षा करनी, न होय सकै ताका आज्ञा अनुसारि जानपना करना । ऐसें इस जाननेके अर्थ कबहू आपही विचार करें है, कबहू शास्त्र बांचे है, कबहू सुने है, कबहू अभ्यास करें है, कबहू प्रश्नोत्तर फरे है । इत्यादिरूप प्रवर्ते है । अपना
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मो.मा.
कार्य करनेका जाके हर्ष बहुत है, तातें अंतरंग प्रतीते ताका समाधान करें । या प्रकार सा-1 प्रकाश धनकरते यावत् सांचा तत्वश्रद्धान न होय, 'यह ऐसे ही है, ऐसी प्रतीति लिए जीवादि त
स्वनिका स्वरूप आपकों न भासै, जैसे पर्यायविर्षे अहंबुद्धि है, तैसें केवल आत्मविषे अहंबुद्धि IM न आवै, हित अहितरूप अपने भाव न पहिचान, तावत् सम्यक्त के सन्मुख मिथ्यादृष्टी है।
यह जीव थोरे ही कालमें सम्यक्तकौं प्राप्त होगा। इस ही भवमें वा अन्य पर्यायविषै सम्यक्त । को पावैगा । इस भवमें अभ्यासकरि परलोकविषै तिर्यचादिगतिविष भी जाय-तौ तहां संस्कारके बलते देव गुरु शास्त्रका निमित्तबिना भी सम्यक्त होय जाय । जाते ऐसे अभ्यासके। बलते मिथ्यात्वकर्मका अनुभाग हीन हो है । जहां वाका उदय न होय, तहां ही सम्यक्त होय || जाय । मूलकारण यह ही है । देवादिकका तौ बाह्य निमित्त है, सो मुख्यताकरि तो इनके निमित्तहीतै सम्यक्त हो है । तारतम्यते पूर्व अभ्यास संस्कारते वर्तमान इनका निमित्त न होय, तो भी सम्यक्त होय सके है । सिद्धांतविणे ऐसा सूत्र कहा है-...
- "तन्निसर्गादधिगमाद्वा" - यह सो सम्यग्दर्शन निसर्ग वा अधिगमत हो है। तहां देवादिक बाह्य निमित्त विना होय, सो निसर्ग ते भया कहिये । देवादिकका निमित्त होय, सो अधिगम भया कहिए । देखो तत्वविचारकी महिमा, तत्वविचाररहित देवादिककी प्रतीति करें, बहुत. शास्त्र अभ्यासे, प्रता-1||३९७
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मो.मा.
प्रकाश
दिक तपश्चरणादि करे, ताकै तौ सम्यक्त होनेका अधिकार नाहीं। अर तत्त्वविचारवाला इन विना भी सम्यक्तका अधिकारी हो है । बहुरि कोई जीवके तत्वविचारकै होने पहले किसी का. | रण पाय देवादिककी प्रतीति होय, वा व्रत तपका अंगीकार होय, पीछ तत्वविचार करे। प. रंतु सम्यक्तका अधिकारी तत्वविचार भए ही हो है । बहुरि काहूकै तत्वविचार भए पीछे तत्वप्रतीति न होनेते सम्यक्त तो न भयो । अर व्यवहारधर्मकी प्रतीति रुचि होय गई तातें देवादिककी। प्रतीति करें है, वा व्रत तपकों अंगीकार करै है। काहुकै देवादिककी प्रतीति पर सम्यक्त युग-11 पत् होय, अर व्रत तप सम्यक्तकी साथि भी होय, वा न भी होय, देवादिककी प्रतीतिका तौ। नियम है । इस विना सम्यक्त न होय। ब्रतादिकका नियम है नाहीं। घने जीव तो पहले।
सम्यक्त होय पीछे ही ब्रतादिकौं धारे हैं। काहूकै युगपत् भी होय जाय है । ऐसें यह तत्व-11 | विचारवाला जीव सम्यक्तका अधिकारी है। परंतु याकै सम्यक्त होय ही होय, ऐसा नियम | नाहीं। जाते शास्त्रविष सम्यक्त होनेते पहले पंचलब्धिका होना कह्या है----क्षयोपशम, वि-12
शद्धि, देशना, प्रायोग्य, करण । तहां जिसकों होतसंत तत्त्वविचार होय सकै, ऐसा ज्ञानावर| णादि कर्मनिका क्षयोपशम होय । उदयकालकों प्राप्त सर्वघाती स्पर्द्धकनिके निषेकनिका उदय
का अभाव सो क्षय, अर अनागतकालविष उदय आवने योग्य तिनहीका सत्तारूप रहना सो उपशम, ऐसी देशघाती स्पर्द्धकनिका उदय सहित कर्मनिकी अवस्था ताका नाम क्षयोपशम है। ताकी प्राप्ति सो चयोपशमलब्धि है । बहुरि मोहका मंद उदय श्रावनेते मंदकषायरूप
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प्रकाश
मो.मा. भाव होय, तहां तत्वविचार होय सके, सो विशुद्धलब्धि है । बहुरि जिनदेवका उपदेश्या तत्व
का धारण होय, विचार होय, सो देशनालन्धि है । जहां नरकादिविषै उपदेशका निमित्त न । होय, तहां पूर्वसंस्कारते होय । बहुरि कर्मनिकी पूर्वसत्ता घटकरि अन्तःकोटाकोटी सागर प्र.
माण रहि जाय, अर नवीनबंध अंत:कोटाकोटी प्रमाण ताकै संख्यातवें भागमात्र होय, | सो भी तिस लब्धिकालते लगाय क्रमते घटता होय, केतीक पापप्रकृतिनिका बंध क्रमते मि-11 टता जाय, इत्यादि योग्य अवस्थाका होना, सो प्रायोग्यलब्धि है । सो ए च्यारों लब्धि भव्य || वा अभव्यकै होय हैं, इन च्यारलब्धि भए पीछे सम्यक्त होय तो होय, न होय तो नहीं भी। होय । ऐसें लब्धिलारविर्षे कया है। ताते तिस तत्वविचारवालाकै सम्यक्त होने का नियम
नाहीं । जेसे काहूको हितकी शिक्षा दई, ताकौं वह जानि विचार करे, यह सीख दई सो। । कैसे है। पीछे विचारतां वाकै ऐसे ही है, ऐसी प्रतीति होय जाय । अथवा अन्यथा विचार | होय, वा अन्य विचारविषे लागि तिस सीखका निर्धार न करे, तो प्रतीत नाहीं भी होय । तैसे। श्रीगुरां तत्वोपदेश दिया, तार्को जानि विचार करे, यह उपदेश दिया, सो केसे है। पीछे विचार करनेते वाकै ‘ऐसें ही हैं' ऐसी प्रतीति होय जाय। अथवा अन्यथा विचार होय, वा अन्य विचारविषै लागि तिस उपदेशका निर्धार न करे, तो प्रतीति नाहीं होय । ऐसा नियम || है । याका उद्यम तो तत्वविचारका करने मात्र ही है । बहुरि पांचई करणलब्धि भए सम्यक्त
-RAHIROWEBARODY ORRNORF EXP0260020200.00
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मो.माप्रकाश
होय ही होय, ऐसा नियम है । सो जाकै पूर्व कही थीं च्यारि लब्धि ते तो भई होय अर अ. तर्मुहूर्त पीछे जाकै सम्यक्त होनो होय, तिसही जीवके करणलब्धि हो है । सो इस करणलः ।। ब्धिवालाकै बुद्धिपूर्वक तौ इतना ही उद्यम हो है-जिस तत्वविचारविर्षे उपयोगकों तद्रूप होय । लगायें, ताकरि समय समय परिणाम निर्मल होते जाय हैं । जैसें काहूकै सीखका विचार ऐसा निर्मल होने लग्या, जाकरि याकै शीघ्र ही ताकी प्रतीति होय जासी। तैसें तत्वउपदेश ऐसा निर्मल होने लग्या, जाकरि याकै शीघ्र ही ताका श्रद्धान होसी। बहुरि इन परिणामनिका, | तारतम्य केवलज्ञानकरि देख्या, ताकरि निरूपण करणानुयोगविर्षे किया है । सो इस करणलब्धिके तीन भेद हैं-अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण । इनका विशेष व्याख्यान तो लब्धिलार शास्त्रवि किया है, तिसतें जानना । यहां संक्षेपसों कहिए है
त्रिकालवी सर्घ करणलब्धिवाले जीव तिनके परिणामनिकी अपेक्षा ए तीन नाम हैं। | तहां करण नाम तो परिणामका है । बहुरि जहां पहले पिछले समयनिके परिणाम समान | होय, सो अधःकरण है । जैसे कोई जीवका परिणाम तिस करणके पहिले समय स्तोक विशुद्धता लिए भए, पीछे समय समय अनंतगुणी विशुद्धताकरि वधते भए । बहुरि वाकै जैसे द्वितीय तृतीयादि सनयनिविषे परिणाम होय, तैसें केई अन्य जीवनिकै प्रथम समयविर्षे हो। होथ । ताके तिसते समय समय अनंती विशुद्धताकरि पधते. होय । ऐसें अधःप्रवृत्तकरण । १००
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मो.म. जानना । बहुरि जिसविर्षे पहले पिछले समयनिके परिणाम समान न होय, अपूर्व ही होय, |
बहुरि जैसे यहां अधःकरणवत् पहले समय होय तैसें कोई ही जीवकै द्वितीयादि समयनिविषै । न होंय बधते ही होय । तिस करणके परिणाम जैसें जिन जीवनिकै करणका पहला समय । ही होय, तिन अनेक जीवनिकै परस्पर परिणाम समान भी होंय, अर अधिक हीन विशुद्धता || लिए भी होय । परन्तु यहां इतना विशेष भया, जो इसकी उत्कृष्टताते भी द्वितीयादि समयवालेका जघन्य परिणाम भी अनंतगुणी विशुद्धता लिए ही होय । ऐसे ही जिनकौं करण ||
मांडे द्वितीयादि समय भया होय, तिनकै तिस समयबालोंके तो परस्पर परिणाम समान वा । असमान होय । परंतु ऊपरले समयवालोंकै तिस समय समान सर्वथा न होंय अपूर्व ही होय, |
ऐसें अपूर्वकरण जानना । बहुरि जिसविषै समान समयवर्ती जीवनिकै परिणाम समान ही | होय, निवृत्ति कहिए परस्पर भेद ताकरि रहित होय । जैसे तिस करणका पहलै समयविषे | सर्वजीवनिका परस्परसमानही होय,ऐसे ही द्वितीयादि समयनिविष समानता परस्पर जाननी।बहुरि प्रथमादि समयवालोंते द्वितीयादिसमयवालोंकै अनंतगुणी विशुद्धतालिएं होंय,ऐसें अनिवृत्तिकरण | जानना । ऐसें ए तीन करण जानने । तहां पहले अंतर्मुहर्त कालपर्यंत अधःकरण होय, तहां च्यारि आवश्यक हो हैं । समय समय अनंतगुणी विशुद्धता होय, बहुरि एक अंतर्मुहूर्त्तकरि नवीनबंधकी स्थिति घटती होय सो स्थिति बंधापसरण होय, बहुरि समय समय प्रशस्त
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प्रकाश
मो.मा.
। प्रकृतिनिका अनंत गुणा अनुभाव बधै, बहुरि समय समय अप्रशस्त प्रकृतिनिका अनुभाग-1 । बंध अनंत भाग होय, ऐसे च्यारि आवश्यक होंय । तहां पीछे अपूर्वकरण होय । ताका काल अधःकरणके कालकै संख्यातवें भाग है । तावि ए आवश्यक और होंय । एक एक अंतर्मुहूर्त्तकरि सत्तामृत पूर्वकर्मकी स्थिति थी, ताों घटावै सो स्थितिकांडक घात होय ।। बहुरि तिसत स्तोक एक एक अंतर्मुहूर्त्तकरि पूर्वकर्मका अनुभागौं घटावै, सो अनुभागकां-|| डक घात होय । बहुरि गुणश्रेणिका कालविष क्रमतें असंख्यातगुणा प्रमाण लिए कर्म निजरने योग्य करिए, सो गुणश्रेणीनिर्जरा होय । बहुरि गुणसंक्रमण यहां नाहीं हो है । अन्यत्र
अपूर्वकरण हो है, तहां हो है । ऐसें अपूर्वकरण भए पीछे अनिवृत्तिकरण होय । ताका । काल अपूर्वकरणकै भी संख्यातर्फे भाग है । तिसविणे पूर्वोक्त आवश्यक सहित केता काल
गए पीछे अनिवृत्तिकरण करे है । अनिवृत्तिकरणके काल पी. उदय आवने योग्य ऐसे मि। थ्यात्वकर्म मुहूर्त्तमात्र निषेकनिका अभाव करें है, तिन परिणामनिकों अन्य स्थितिरूप परिण
मावै है । बहुरि अंतःकरणकरि पीछे उपशमकरण करै है। अंतःकरणकरि अभावरूप किए निषेकनिके ऊपरि जो मिथ्यात्वके निषेक तिनकों उदय आवनेकौं अयोग्य करे है ।
इत्यादिक क्रियाकरि अनिवृत्तिकरणका अंतसमयकै अनंतर जिन निषेकनिका । अभाव किया था, · तिनका उदयकाल आया, तब निषेकनि विना ||४०२
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भो.मा. प्रकाश
उदय कौनका भावे । तातै मिथ्यात्वको उदय न होनेते प्रथमोपशम सम्यक्तकी प्राप्ति हो | है | अनादि मिथ्यादृष्टीकै सम्यक्तमोहनीय मिश्रमोहनीयकी सत्ता नाहीं है । तातें एक मिथ्यास्वकर्महीको उपशमाय उपशमसम्यग्दृष्टी हो है । बहुरि कोई जीव सम्यक्त पाय पीछें भ्रष्ट हो है, ताकी भी दशा अनादि मिथ्यादृष्टीकी सी ही होय जाय है । यहां प्रश्न - जो परीक्षाकरि तत्वान किया था, ताका अभाव कैसे होय । ताका समाधान
जै किसी पुरुष शिक्षा दई, ताकी परीक्षाकरि वाकै 'ऐसेही है' ऐसी प्रतीतिभी आईथी, पीछे अन्यथा कोई प्रकारकरि विचारभया, तातैं उसशिक्षाविषै संदेहभया । 'ऐसे हैं कि ऐसे हैं' अथवा 'न जानों कैसे है' अथवा तिसशिक्षाको झूठजानि तिसतै विपरीत भई । तबवाकै प्रतीत न भई तब वाकै तिस शिक्षाकी प्रतीतिका अभाव होय, अथवा पूर्वै तौ अन्यथा प्रतीति थी ही, बीचिमें शिक्षाका विचारतें यथार्थ प्रतीति भई थी, बहुरि तिस शिक्षाका विचार किए बहुतकाल होय गया, तब ताक भूलि जैसें पूर्वै अन्यथा प्रतीत थी, तैसें ही स्वमेव होय गई । तब |तिस शिक्षाकी प्रतीतिका अभाव होय जाय । अथवा यथार्थ प्रतीति पहलें तौ कीन्हीं, पीछे न तौ किछू अन्यथा विचार किया, न बहुत काल भया । परंतु तैसा ही कर्म उदयतें होनहार के अनुसार स्वयमेवही तिस प्रतीतिका अभाव होय, अन्यथापना भया । ऐसें अनेक प्रकार तिस शिक्षाकी यथार्थ प्रतीतिका अभाव हो है । तैसें जीवकै जिनदेवका तत्त्वादिरूप उपदेश
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मो.मा. प्रकाश
भया, ताकी परीक्षाकरि वाकै 'ऐसे' ही है' ऐसा श्रद्धान भया, पीछे पूर्व जैसे कहे तैसें अनेक | प्रकार तिस पदार्थश्रद्धानका अभाव हो है । सो यह कथन स्थूलपर्ने दिखाया है । तारतम्यकरि केवलज्ञानविषे भारी है— इस समय श्रद्धान है कि इस समय नाहीं हैं । जातें यहां मूल कारण मिथ्यात्वकर्म है । ताका उदय होय, तबतौ अन्य विचारादिक कारणमिलौ वा मति | मिलौ । स्वयमेवसम्यक्द्धानका भावहो है । बहुरि ताकाउदय न होयं, तब अन्यकारणमिलो वा मति मिलो स्वयमेव सम्यक् श्रद्धान होयजाय है । सोऐसें अंतरंग समयसंबन्धी सूक्ष्म दशाका | जानना छद्मस्थ होतानाहीं । तातैं अपनी मिथ्यासम्यक्रूप अवस्थाका तारतम्यंयाक निश्चय होय सकै नाहीं । केवलज्ञानविषै भासै हैं । तिस अपेक्षा गुणस्थाननिकी पलटनि शास्त्रविषै कही है। या प्रकार जो सम्यक्ततै भ्रष्ट होय, सो सादि मिथ्यादृष्टी कहिए । ताकै भी बहुरि सम्यक्तकी प्राप्ति विषै पूर्वोक्त पांच लब्धि हो हैं । विशेष इतना यहां कोई जीवकै दर्शनमोहकी तीन प्रकृतिकीसत्ता हो है । सो तिनकौं उषशमाय प्रथमोपशमसम्यक्ती हो है । अथवा काह सम्यक्तमोहनीयका उदय आवे है, दोय प्रकृतिनिका उदय न हो है, सो क्षयोपशमसम्यक्ती हो है । थाकै गुणश्रेणी आदि क्रिया न हो है । वा अनिवृत्तिकरण न हो है । बहुरि काहू के मिश्रमोहनीयका उदय श्रवे है, दोय प्रकृतिनिका उदय न हो है । सो मिश्र गुणस्थानक प्रात हो है । याकै करण न हो है । ऐसें सादिमिथ्यादृष्टीकै मिथ्यात्व छूटै दशा हो है । चायिकस
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म्यक्तकों वेदकसम्यकदृष्टीही पावे है । ताते याका कथन यहां न किया है । ऐसें सादि मिप्रकाश
थ्यादृष्टीका जघन्य तो मध्य अंतर्मुहर्त्तमात्र उत्कृष्ट किंचिदून अर्द्धपुदगल परिवर्तनमात्र काल जानना। देखो, परिणामनिकी विचित्रता कोई जीव तो ग्यारवें गुणस्थान यथाख्यातचारित्र पाय बहुरि मिथ्यादृष्टी होय, किंचित् ऊन अर्द्धपुद्गल परिवर्तन कालपर्यंत संसारमें रुलै, अर कोई नित्य निगोदमैंसौं निकसि मनुष्य होय, मिथ्यात्व छूटे पीछे अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान पावै । ऐसें जानि अपने परिणाम बिगड़नेको भय राखना । अर तिनके सुधारनेका उपाय करना । बहुरि इस सादिमिथ्यादृष्टीकै थोरे काल मिथ्यात्वका उदय रहै, तो बाह्य जैनीपना |
माही नष्ट हो है । वा तत्त्वनिका अश्रद्धान व्यक्त न हो है । वा विना विचार किए ही वा । स्तोक विचारहीते बहुरि सम्यक्तकी प्राप्ति होय जाय है । बहुरि बहुत काल मिथ्यात्वका उदय
रहै, तो जैसी अनादि मिथ्यादृष्टीकी दशा तैसी याकी दशा हो है । गृहीत मिथ्यात्वकों भी
गृहै है । निगोदादिविषै भी रुलै है । याका किछु प्रमाण नाहीं । बहुरि कोई जीव सम्यक्तते। ॥ भ्रष्ट होय सासादन हो है । सो तहां जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह भावली प्रमाण काल ||
रहै है, सो याका परिणामकी दशा वचनकरि कहनेमें आवती नाहीं । सूक्ष्ममात्र काल कोई जातिके केवलज्ञानगम्य परिणाम हो हैं । तहां अनंतानुबंधीका तो उदय हो है, मिथ्यात्वका उदय न हो है । सो आगम प्रमाणते याका स्वरूप जानना । बहुरि कोई जीव सम्यक्तते नष्ट ४०
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प्रकाश
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होय, मिश्रगुणस्थानको प्राप्त हो है । तहां मिश्रमोहिनीयका उदय हो है । याका काल मध्य अंतर्मुहर्तमात्र है । सो याका भी काल थोरा है, सो याकै भी परिणाम केवलज्ञानगम्य हैं। यहां इतना भास है जैसे काहूकौं सीख दई, तिसकौं वह किछु सत्य किंछु असत्य एकै । काल मान । तैसें तत्त्वनिका श्रद्धान अश्रद्धान एकै काल होय, सो मिदंशा है। कैई कहै | हैं-हमकों तो जिनदेव वा अन्य देव सर्व ही बंदने योग्य हैं । इत्यादि मिश्रश्रद्धानकों मिश्रगुणस्थान कहै हैं, सो नाहीं । यह तो प्रत्यक्ष मिथ्यात्वदशा है । व्यवहाररूप देवादिकका | श्रद्धान भए भी मिथ्यात्व रहै है, तो याकै तौ देव कुदेवका किछु ठीक ही नाहीं। याकै तौ
यह विनयमिथ्यात्व प्रगट है । ऐसें जानना । ऐसें सम्यक्तके सन्मुख मिथ्यादृष्टीनिका कथन । |किया । प्रसंग पाय अन्य भी कथन किया है । या प्रकार जैनमतवाले मिथ्यादृष्टीनिका खरूप निरूपण किया। यहां नानाप्रकार मिथ्यादृष्टीनिका कथन किया है, ताका प्रयोजन यह जान
ना, जो इन प्रकारनिकों पहचानि आपविष ऐसा दोष होय, तौ ताकौं दूरिकरि सम्यकश्रद्धानी। | होना । औरनिहीकै ऐसे दोष देखि कषायी न होना । जाते अपना भला बुरा तो अपने
परिणामनिते हो है । औरनिकों रुचिवान् देखे, तो कछु उपदेश देय तिनका भी भला | करै । जाते अपने परिणाम सुधारनेका उपाय करना योग्य है । सर्वप्रकारके मिथ्यात्वभाव छोड़ि सम्यग्दृष्टी होना योग्य है । जाते संसारका मुल मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व समान अन्य १०६
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मो.मा. प्रकाश
पाप नाहीं है । एक मिथ्यात्व अर ताके साथ अनंतानुबंधीका अभाव भए इकतालीस प्रवतिनिका तो बंध ही मिट जाय । स्थिति अन्तकोटाकोटी सागरकी रह जाय । अनुभाग थोरा ही रह जाय । शीघ्र ही मोक्षपदकों पावै । बहुरि मिथ्यात्वका सद्भाव रहें अन्य अनेक || | उपाय किए भी मोक्ष न होय । ताते जिस तिस उपायकरि सर्व प्रकार मिथ्यात्वका नाशः | करना योग्य है। इति मोक्षमार्गप्रकाशनाम शास्त्रवि जैनमतवाले मिथ्यादृष्टीनिका निरूपण जामें
ऐसा सातवाँ अधिकार सम्पूर्ण भया ॥ ७॥
•BIOMEGENROOO0120100500000000000000000000000000000000000106leokMOHIRONOMETRokay
. अथ मिथ्यादृष्टी जीवनिकों मोक्षमार्गका उपदेश देय तिनको उपकार करना यह ही। उत्तम उपकार है । तीर्थंकर गणधरादिक भी ऐसा ही उपाय करें हैं। ताते इस शास्त्रविणे भी उनहीका उपदेशकै अनुसारि उपदेश दीजिए है। तहां उपदेशका स्वरूप जाननेके अर्थ | किछु ब्याख्यान कीजिए है । जातें उपदेशकौं यथावत् न पहिचाने, तौ अन्यथा मानि विपरीत
प्रवत्ते, तातें उपदेशका खरूप कहिए है| जिनमतविष उपदेश च्यारअनुयोगका दिया है । सो प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग द्रव्यानुयोग ए च्यार अनुयोग हैं। तहां तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि महान् पुरुषनिके च
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गे.मा
काश
रित्र जिसविषै निरूपण किए होय, सो प्रथमानुयोग है । बहुरि गुणस्थान मार्गणादिकरूप जीवका वा कर्मनिका वा त्रिलोकादिका जाविषै निरूपण होय, सो करणानुयोग है। बहुरि गृहस्थ मुनिके धर्म आचरण करनेका जाविर्षे निरूपण होय, सो चरणानुयोग है । बहुरि षट् द्रव्य सप्त तत्वादिकका वा स्वपरभेद विज्ञानादिकका जाविषै निरूपण होय, सो द्रव्यानुयोग है। अब | इनका प्रयोजन कहिये है
प्रथमानुयोगविणे तो संसारकी विचित्रता, पुण्य पापका फल, महंतपुरुषनिकी प्रवृत्ति इ. त्यादि निरूपणकरि जीवनिकों धर्मविषे लगाए हैं । जे जीव तुच्छबुद्धि होंय, ते भी तिसकरि धर्मसन्मुख हो हैं । जाते वै जीव सूक्ष्मनिरूपणको पहिचानें नाहीं। लौकिक वार्तानिकों जाने।। । तहां तिनका उपयोग लागे । बहुरि प्रथमानुयोगविषै लौकिक प्रवृत्तिरूप निरूपण होय, ताकों
ते नीकें समझि जांय । बहुरि लोकविषै तौ राजादिककी कथानिविषै पापका वा पुण्यका पोAषण है, तहां महंत पुरुष राजादिक तिनकी कथा सुनै हैं । परन्तु प्रयोजन जहां तहां पापकों
छांडि धर्मविषै लगावनेका प्रगट कहै हैं । ताते ते जीव कथानिके लालचकरि तौ तिनकों बांचे | सुनें, पीछे पापकों बुरा धर्मकों भला जानि धर्मविषै रुचिवन्त हो हैं । ऐसें तुच्छ बुद्धीनिके स| मझावनेकों यह अनुयोगते 'प्रथम' कहिए 'अव्युत्पन्न मिथ्यादृष्टी' तिनके अर्थ जो अनुयोग सो प्रथमानुयोग है । ऐसा अर्थ गोमसारको टीकाविषे किया है। बहुरि जिन जीवनिकेत
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मो.मा. प्रकाश
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त्त्वज्ञान भया होय, पीछे इस प्रथमानुयोगकों वां, सुमें, तो तिनों यह तिनका उदाहरणरूप भासै है । जैसे जीव अनादिनिधन है, शरीरादिक संयोगी पदार्थ हैं, ऐसें यह जाने था। बहुरि पुराणविषै जीवनिके भवांतर निरूपण किए, ते तिस जाननेके उदाहरण भए। बहुरि शुभ अशुभ शुद्धोपयोगकों जानै था, वा तिनके फलकौं आनें था। बहुरि पुराणनिविषै तिन उपयोगनिकी प्रवृत्ति अर तिनका फल जीवनिकै भया, सो निरूपण किया। लो ही तिस जाननेका उदाहरण भया । ऐसें ही अन्य जानना । यहां उदाहरणका अर्थ यह जो जैसे जाने । था, तैसें ही कोई जीवकै अवस्था भई, तातै तिस जाननेकी साखि भई । बहुरि जैसे कोई सुभट है, सो सुभटनिकी प्रशंसा अर कायरनिकी निंदा जाविषै होय, ऐसी कोई पुराण पुरुषनिकी कथासुननेकरि सुभटपनाविषै अति उत्साहवान् हो है, तैसै धर्मात्मा है, सो धर्मीनिकी प्रशंसा अर पापीनिकी निंदा जाविषै होय, ऐसे कोई पुराण पुरुषनिकी कथा सुनभेकरि अतिउसाहवान् हो है । ऐसें यह प्रथमानुयोगका प्रयोजन जानना। ... बहुरि करणानुयोगविषै जीवनिकी वा कर्मनिकी विशेषता वा त्रिलोकादिककी रचना निरूपणकरि जीवनिकौं धर्मविषै लगाए हैं । जे जीव धर्मविषै उपयोग लगाया चाहैं, ते जीवनिका गुणस्थान मार्गणाआदि विशेष अर कर्मनिका कारण अवस्था फल कौन कौनकै कैसे कैसे पाइये, इत्यादि विशेष अर त्रिलोकविर्षे नरक स्वर्गादिकके ठिकाने पहचानि पापतै विमुख होय धर्म-111४०
माजगायकmonasamaALNERABADRMANAS Pato00000000000000000ooki.dfool/000000000000000000000000000000000000४
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मो.मा. विषे लागे हैं। बहरि ऐसे विचारविषे उपयोग समि जाय, तव पापप्रवृत्ति छटि खयमेव तत्काप्रकाशल धर्म उपजे है । तिस अभ्यासकरि तत्वज्ञानकी प्राप्ति हो है । बहुरि ऐसा सूक्ष्म यथार्थ क
थन जिनमतविधै ही है, अन्यत्र नाहीं, ऐसे महिमा जानि जिनमतका श्रद्धानी हो है। बहुरि । जे जीव तत्वज्ञानी होय इस करणानुयोगको अभ्यासे हैं, तिनकों यह तिसका विशेषणरूप भासै है । जो जीवादिक तत्व आप जानै है, तिनहीके विशेष करणानुयोगविषै किए हैं। तहां। | केई विशेषण तो यथावत् निश्चयरूप हैं, केई उपचार लिए ब्यवहाररूप हैं। केई द्रब्य क्षेत्र | काल भावादिकका खरूप प्रमाणादिरूप हैं, केई निमित्त आश्रयादि अपेक्षा लिए हैं । इत्यादि अनेक प्रकारके विशेषण निरूपण किए हैं, तिनकों जैसाका तैसा मानता, तिस करणानुयोग कौं अभ्यासे है । इस अभ्यासतें तत्वज्ञान निर्मल हो है । जैसे कोऊ यह तो जानै था, यह | रत्न है। परंतु उस रत्नके विशेष घने जाने निर्मल रत्नका पारखी होय, तैसें तत्वनिकों जाने | था, ए जीवादिक हे, परंतु तिन तत्वनिके घने विशेष जाने, तौ निर्मल तत्वज्ञान होय । तत्व| ज्ञान निर्मल भए आप ही विशेष धर्मात्मा हो है । बहुरि अन्य ठिकाने उपयोगकौं लगाईए, | तो रागादिककी वृद्धि होय, छद्मस्थका एकाग्र निरन्तर उपयोग रहै नाहीं। तातें ज्ञानी इस करणानुयोगका अभ्यासविषै उपयोगको लगावें हैं। तिसकरि केवलज्ञानकरि देखे पदार्थनि का जानपना याके हो है । प्रत्यक्ष अप्रत्यक्षहीका भेद है । भासनेविषे विरुद्ध है नाहीं। ऐसें ||४१०
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प्रो.मा.
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यह करणानुयोगका प्रयोजन जानना । 'करना' कहिए गणितकार्यकौं कारण 'सूत्र' तिनका जाविषै 'अनुयोग' अधिकार होय, सो करणानुयोग है । इसविषे गणितवर्णनकी मुख्यता है, ऐसा जानना ।
बहुरि चरनुयोगविषै नानाप्रकार धर्मके साधन निरूपणकरि जीवनिकों धर्मविषै लगाईये है । जे जीव हित अहितकों जानें नाहीं, हिंसादि कषाय कार्यनिविषै तत्पर होय रहे हैं, तिनकों जैसे वै पापकार्बनिकों छोड़ि धर्मकार्यविषै लागें, तैसें उपदेश दिया। ताकौं जिनधर्म आचरण करनेकों सन्मुख भए, ते जीव गृहस्थधर्मका विधान सुनि आप जैसा धर्म सधै, तैसा धर्मसाधनविधै लागे हैं । ऐसें साधनतै कषाय मंद हो है । ताके फलतें इतना तो हो है, जो बु. गतिविषै दु.ख न पांवे अर सुगतिविषै सुख पावे । बहुरि ऐसे साधनतैं जिनमत का निमित्त बन्या रहे । तहां तवज्ञानकी प्राप्ति होनी होय, तौ होय जावै । बहुरि जीवतत्वके | ज्ञानी होयकरि चरणानुयोगको अभ्यासे हैं, तिनकों ए सर्व आचरण अपने वीतरागभावके छा नुसारी भाते हैं । एकोदेश वा सर्वदेश वीतरागता भए ऐसी श्रावकदशा ऐसी मुनिदशा हो है । जातैं इनके निमित्त नैमित्तिकपनो पाईए हैं । ऐसें जानि श्रावक मुनिधर्मके विशेष पहचानि जैसा अपना वीतरागभाव भया होय, तैसा अपने योग्य धर्मकों साधे है। तहां जेता अंशां वीतरागता हो है, तार्कों कार्यकारी जाने है, जेता अंशां राग रहे है, ताक हेय जाने है ।
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संपूर्ण वीतरागताको परमधर्म माने है। ऐसें चरणानुयोगका प्रयोजन हैं।
बहुरि द्रव्यानुयोगविर्षे द्रव्यनिका वा तत्त्वनिका निरूपणकरि जीवनिकों धर्मविषै लगाईए है। जे जीवादिक द्रव्यनिकौं पहिचानें नाहीं, आपा परकों भिन्न जाने नाही, तिनकों हेतु दृष्टांत युक्तिकरि वा प्रमाणनयादिककरि तिनका स्वरूप ऐसे दिखाया, जैसें याकै प्रतीति। होय जाय । ताके अभ्यासतें अनादि अज्ञानतादूरि होय, अन्यमत कल्पित तत्वादिक झूठ भासे, तब जिनमतकी प्रतीति होय । अर उनके भावका अभ्यास राखै, तो शीघ्र ही तत्वज्ञानकी प्राप्ति होय, जाय । बहुरि जिनकै तत्त्वज्ञान भया होय, ते जीव द्रव्यानुयोगकों अभ्यासैं । तिनकों अपने श्रद्धानके अनुसार सो सर्व कथन प्रतिभासे है। जैसे काहूनें किसी विद्याकों सीख लई । परंतु जो ताका अभ्यास किया करै तो वह यादि रहै, न करै तौ भूलि। जाय । तैसें याकै तत्त्वज्ञान भया, परंतु जो द्रव्यानुयोगका अभ्यास किया करै, तो वह तत्त्वज्ञान रहै, न करै तौ भूलि जाय । अथवा संक्षेपपर्ने तत्त्वज्ञान भया था, सो नानायुक्ति हेतु दृष्टांतादिककरि स्पष्ट होय जाय, तो तिसविर्षे शिथिलता न होय सके । बहुरि इस अभ्यासते रागादि घटनेते शीघ मोक्ष सधै । ऐसें द्रव्यानुयोगका प्रयोजन जानना।
अब इन अनुयोगनिविषै किस प्रकार व्याख्यान है, सो कहिए हैप्रथमानुयोगविर्षे जे मूलकथा हैं, ते तो जैसी हैं तैसी ही निरूपित हैं । पर तिनविषे
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प्रसंग पाय व्याख्यान हो है, सो कोई तो जैसाका तैसा हो है, कोई ग्रंथकर्ताका विचारकै अप्रकाश
नुसार होय, परंतु प्रयोजन अन्यथा न हो है। _____ ताका उदाहरण-जैसें तीर्थंकर देवनिके कल्याणकनिविषे इंद्र आया, यह कथा तो सत्य है । बहुरि इंद्र स्तुति करी, ताका ब्याख्यान किया, सो इंद्र तो और ही प्रकार स्तुति कीनी थी, अर यहां ग्रंथकर्ता और ही प्रकार स्तुति कीनी लिखी । परंतु स्तुतिरूप प्रयोजन अन्यथा न भया । बहुरि परस्पर किनिहूकै वचनालाप भया । तहां उनके और प्रकार अक्षर
निकसे थे, यहां ग्रंथकर्ता अन्य प्रकार कहे । परंतु प्रयोजन एक ही दिखावै है । वहुरि नगर | 1 वन संग्रामादिकका नामादिक तौ यथावत् ही लिखे, अर वर्णन हीनाधिक भी प्रयोजनकों |
पोषता निरूपै है । इत्यादि ऐसे ही जानना । बहुरि प्रसंगरूप कथा भी ग्रंथकर्ता अपना विचा1 र अनुसार कहै । जैसें धर्मपरीक्षाविषे मूर्खनिकी कथा लिखी, सो ए ही कथा मनोवेग कही थी, ऐसा नियम नाहीं। परंतु मूर्खपनाकों ही पोषती कोई वार्ता कही, ऐसा अभिप्राय पोषे है । ऐसें ही अन्यत्र जानना । यहां कोऊ कहै-अयथार्थ कहना तो. जैन शास्त्रनिविर्षे संभव नाहीं । ताका उत्तर
___ अन्यथा तो वाका नाम है, जो प्रयोजन औरका और प्रगट करै । जैसे काहकों । कह्या-तू पेसें कहियो, वान वे ही अक्षर. तो. न कहे, परंतु तिसही प्रयोजन लिए कह्या ।
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प्रकाश
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ताको मिथ्यावादी न कहिए । ऐसें जानना-जो जैसाका तैसा लिखनेकी संप्रदाय होय, तो । काहूनै गहुत प्रकार वैराग्य चिंसवन किया था, ताका वर्णन सब लिखे ग्रंथ बधि जाय, भर | | किछु न लिखे, तो भाव भासे नाहीं । तातै वैराग्यकै ठिकानें थोरा बहुत अपना विचारकै ।
अनुसार वेराग्य पोषता ही कथन करै सराग पोषता न करै । तहां प्रयोजन अन्यथा न भया, | ताते याकों अयथार्थ न कहिए । ऐसें ही अन्यत्र जानना । बहुरि प्रथमानुयोगविषे जाकी | मुख्यता' होय, ताकों ही पोषे हैं। जैसे काहने उपवास किया, ताका तो फल स्तोक था बहुरि ।
बाके अयधर्म परिणतिकी विशेषता भई, तातें विशेष उच्चपदकी प्राति भई । तहां तिसकों | उपवासको फल निरूपण करें । ऐसे ही अन्यत्र जानना । बहुरि जैसे काहनें शीलहीकी प्रतिज्ञा दृढ़ राखी, वा नमस्कार मंत्र स्मरण किया, वा अन्यधर्म साधन किया, ताकै कष्ट दूरि भए अतिशय प्रगट भए, तहां तिनहीका तैसा फल न भया अर अन्य कोई कर्म | | उदयतै वैसे कार्य भए तो भी तिनको तिन शीलादिकका ही फल निरूपण करै । ऐसें ही।। | कोई पारकार्य किया, ताके तिसहीका तो तैसा फल न भया भर अन्य कर्म उदयतें नीचगति को प्राप्त भया, वा कष्टादिक भए, ताको तिस ही पापका फल निरूपण करे । इत्यादि। ऐसे ही जानना । यहां कोऊ कहै-ऐसा झूठा फल दिखावना तो योग्य नाहीं । ऐसे कथनको प्रमाण कैसे कीजिए । ताका समाधान
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जे अज्ञानी जीव बहुत फल दिखाए बिना धर्मविणे न लागें, वा पापते न डरें, तिनका || भला करनेके अर्थ ऐसे वर्णन करिए है । बहुरि झूठ तो तब होय, जवधर्मका फलकों पापका फल बनावें, पापका फलकों धर्मको फल बतावै । सो तो है नाहीं। जैसें दश पुरुष मिलि | कोई कार्य करें, तहां उपचारकरि एक पुरुष भी किया कहिए, तो दोष नाहीं। अथवा जाके पितादिक. कोई कार्य किया होय, तार्को एक जाति अपेक्षा उपचारकरि पुत्रादिक किया कहिए, तो दोष नाहीं। तैसें बहुत शुभ वा अशुभकार्यनिका फल भया, ताकौं उपचारकरि एक | शुभ वा अशुभकार्यका फल कहिए, तो दोष नाहीं । अथवा और शुभ वा अशुभकार्यका फल | भया होय, ताको एकजाति अपेक्षा उपचारकरि कोई और ही शुभ वा अशुभकार्यका फल कहिए, तो दोष नाहीं । उपदेशविर्षे कहीं व्यवहार वर्णन है, कहीं निश्चय वर्णन है। यहां उपचाररूप व्यवहार वर्णन किया है, ऐसें याकों प्रमाण कीजिए है। याकों तारतम्य न मानि, | लेना ! तारतम्य करणानुयोगविष निरूपण किया है, सो जानना । बहुरि प्रथमानुयोगविषै 1 उपचाररूप कोई धर्मका अङ्ग भए सम्पूर्ण धर्म भया कहिए है । जैसें जीवनिकै शंका कांक्षादिक न भए, तिनकै सम्यक्त भया कहिए । सो एक कोई कार्य विषे शंका कांक्षा न किए ही | तो सम्यक्त न होय, सम्यक्त तो तत्वश्रद्धान भए हो है । परंतु निश्चय सम्यक्तका तो व्यवहारविषे उपचार किया, बहुरि व्यवहार सम्यक्तका कोई एक अंग विषय संपूर्स व्यवहार स
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ग्यतका उपचार किया, ऐसें उपचारकरि सम्यक्त भया कहिए। बहुरि कोई जैनशास्त्रका एक अंग जाने सम्यग्ज्ञान भया कहिए है, सो संशयादिरहित तत्वज्ञान भए सम्यग्ज्ञान होय, परंतु पूर्ववत् उपचारकारे कहिए। वहुरि कोई भला आचरण भए सम्यक्चारित्र भया कहिए है। तहां | जाने जैनधर्म अंगीकार किया होय, या कोई छोटी मोटी प्रतिज्ञा गृही होय, ताको श्रावक कहिए, सौ श्रावक तौ पंचमगुणस्थानवर्ती भए हो हैं । परंतु पूर्ववत् उपचारकरि याकौं श्रावक कया है । उत्तरपुराणविष श्रेणिककों श्रावकोत्तम कह्या, सो वह तो असंयत था । परन्तु जैनी था, ताते कह्या । ऐसे ही अन्यत्र जानना । वहुरि जो सम्यक्तरहित मुनिलिंग धारे, वा कोई द्रव्यां भी अतीचार लगावता होय, ताकी मुनि कहिए । सो मुनि तौ षष्ठादि गुणस्थान- | वर्ती भए हो है । परंतु पूर्ववत् उपचारकरि मुनि कह्या है । समवसरणसभावि मुनिनिकी | संख्या कही, तहां सर्व ही भावलिंगी मुनि न थे, परंतु मुनिलिंग धारनेते सबनिकौं मुनि | कहे । ऐसे ही सर्वत्र जानना । बहुरि प्रथमानुयोगविणे कोई धर्मबुद्धितै अनुचित कार्य करे, | ताकी भी प्रशंसा करिए है । जैसे विणुकुमार मुनिनिका उपसर्ग दुरि किया, सो धर्नानुरा
गते किया, परंतु मुनिपद छोडि यह कार्य करना योग्य न था। जाते ऐसा कार्य तो | गृहस्थधर्मविषै संभवै अर गृहस्थधर्मते मुनिधर्म ऊंचा है । सो ऊंचा धर्मकों छोड़ि नीचा धर्म अंगीकार किया, सो अयोग्य है । परंतु वात्सल्य अंगको प्रधानताकरि विष्णुकुमारजीकी
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प्रशंसाकरि इस छलकरि औरनिकों ऊंचा धर्म छोड़ि नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नाहीं । बहुरि जैसे गुवालियानें मुनिकों अग्निकरि तपाया, सो करुणातें यह कार्य किया। परंतु आया उपसर्गकी तो दूरि करें सहजअवस्थाविर्षे जो शीतादिककी परीषह होय है, तिसकों । दूर भए रति मान लेनेका कारण हो है, सो तिने रति करनी नाहीं, ताते उलटा उपसर्ग होय । यातै विवेकी तिनकै उपचार करते नाहीं। गुवालिया अविवेकी था, करुणाकरि यह | कार्य किया, ताते वाकी प्रशंसा करी । औरकौं धर्मपद्धतिविर्षे जो विरुद्ध होय, सो कार्य करना योग्य नाहीं । बहुरि जैसें वज्रकरण राजा सिंहोदर राजाको नम्या नाहीं, मुद्रिकाविषै । प्रतिमा राखी, सो बड़े बड़े सम्यग्दृष्टी राजादिकों नमें, याका दोष नाहीं, अर मुद्रिकाविषै ।। प्रतिमा राखनेमें अविनय होय, यथावत् विधितै ऐसी प्रतिमा न होय, ताते इस कार्यविषै| दोष है । परंतु वाकै ऐसा ज्ञान न था, धर्मानुरागते मैं यौरको नमों नाहीं, ऐसी बुद्धि भई, ताते वाकी प्रशंसा करी । इस छलकरि औरनिकों ऐसे कार्य करने युक्त नाहीं । बहुरि केई पुरुषोंने पुत्रादिककी प्राप्तिके अर्थ वा रोग कष्टादि दूरि करनेके अर्थ चैत्यालय पूजनादि कार्य । |किए, नमस्कार मंत्र स्मरण किया। सो ऐसे किए तो निकांक्षित गुणका अभाव होय निदानबंधनामा आर्तध्यान होय । पापहीका प्रयोजन अंतरंगविष है, तातै पापहीका बंध || ४१७ होय । परंतु मोहित होयकार भी बहुत पापबंधका कारण कुदेवादिकका तो पूजनादि न ।
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काश
किया, इतना गुण ग्रहणकर वाकी प्रशंसा करिए है । इस छलकर औरनिकों लौकिक कार्यनिके अर्थ धर्मसाधन करना युक्त नाहीं । ऐसें ही अन्यत्र जानना । ऐसें ही प्रथमानुयोगविषै अन्य कथन भी होय, तार्कों यथासंभव जानि भ्रमरूप न होना ।
करणानुयोगविषै किस प्रकार व्याख्यान है, सो कहिए है - जैसें केवलज्ञानकरि जान्या तैसें करणानुयोगविषै व्याख्यान है । बहुरि केवलज्ञानकरि तौ बहुत जान्या, परंतु जीवकों | कार्यकारी जीव कर्मादिकका वा त्रिलोकादिकका ही याविषै निरूपण हो है । बहुरि तिनका भी स्वरूप सर्व निरूपण न होय सकै, तातै वचनगोचर होय छद्मस्थके ज्ञानविषै उनका कि भाव भास, तैसें संकोचन करि निरूपण करिए है ।
यहां उदाहरण — जीवके भावनिकी अपेक्षा गुणस्थानक कहे, ते भाव अनन्त स्वरूप लिए वचनगोचर नाहीं । तहां बहुत भावनिकी एक जातिकरि चौदह गुणस्थान कहे । बहुरि जीव जानने के अनेक प्रकार हैं । तहां मुख्य चौदह मार्गणाका निरूपण किया । बहुरि कर्मपरमाणू अनन्तप्रकार शक्तियुक्त हैं, तिनंविषै बहुतनिकी एक जाति करि आठ वा एकसौ अड़तालीस प्रकृति कहीं । बहुरि त्रिलोकविषै अनेक रचना हैं, तहां मुख्य केतीक रचना निरूपण करिए है । बहुरि प्रमाणके अनन्त भेद तहां संख्यातादि तीन भेद वा इनके इकईस भेद निरूपण किए, ऐसें ही अन्यत्र जानना । बहुरि करणानुयोगविषै यद्यपि वस्तुके द्रव्य क्षेत्र काल भावा
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मो.मा. दिक अखंडित हैं, तथापि छद्मस्थकों हीनाधिक ज्ञान होनेके अर्थ प्रदेश समय अविभागप्रतिप्रकाश
॥ च्छेदादिककी कल्पनाकरि तिनका प्रमाण निरूपिए है । बहुरि एक वस्तुविर्षे जुदे-जुदे गुण
निका वा पर्यायनिका भेदकरि निरूपण कीजिए है। बहुरि जीव पुद्गलादिक यद्यपि भिन्न । भिन्न हैं, तथापि सम्बन्धादिककरि वा द्रव्यकरि निपज्या गति जाति आदि भेद तिनकों एक
जीवके निरूपे हैं, इत्यादि व्यवहार नयको प्रधानता लिए व्याख्यान जानना । जाते व्यवहार | विना विशेष जानि सके नाहीं। बहुरि कहीं निश्चयवर्णन भी पाईए है । जैसें जीवादिक द्रव्य- 11 निका प्रमाण निरूपण किया, सो जुदे जुदे इतने ही द्रव्य हैं । सो यथासंभव जानि लेना ।। बहुरि करणानुयोगविषै कथन है, ते केई तो छश्नस्थकै प्रत्यक्ष अनुमानादिगोचर होंय, बहुरि जे न होंय तिनकों आज्ञा प्रमाणकरि ही मानने । जैसे जीव पुद्गलके स्थूल बहुतकालस्थायी मनुष्यादि पर्याय वा घटादि पर्याय निरूपण किए, तिनका तो प्रत्यक्ष अनुमानादि होय सकै, बहुरि समय समयप्रति सूक्ष्म परिणमन अपेक्षा ज्ञानादिकके वा स्निग्ध सूक्ष्मादिकके अंश निरूपण किए, ते आज्ञाहीते प्रमाण हो हैं। ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि करणानुयोगविणे
छद्मस्थनिकी प्रवृत्तिकै अनुसार वर्णन नाहीं । केवलज्ञानगम्य पदार्थनिका निरूपण है। जैसे 1 केई जीव तौ द्रव्यादिकका विचार करें हैं, वा व्रतादिक पाले हैं, परंतु अन्तरंग सम्यक्त चारि
त्रशक्ति नाही, ताते उनको मिथ्यादृष्टि, अवती कहिए है । बहुरि केई जीव द्रव्यादिकका का
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प्रकाश
मो.मा.वतादिकका विचार रहित हैं, अन्य कार्यनिविषे प्रवत्त हैं, वा निद्रादिकरि निर्विचार होय रहे।
हैं, परंतु उनके सम्यक्तादि शक्तिका सद्भाव है, ताते उनको सम्यक्ती वा व्रती कहिए है। ब-11 । हुरि कोई जीवके कषायनिकी प्रवृत्ति तो धनी है, अर वाकै अन्तरंग कषायशक्ति थोरी है, तो
वाकों मंदकषाई कहिए है । अर कोई जीवकै कषायनिकी प्रवृत्ति तो थोरी है, अर वाकै अन्तरंग कषायशक्ति घनी है, तो वाकों तीब्रकषायी कहिए है । जैसें व्यन्तरादिक देव कषायनितें नगरनाशादि कार्यकरें, तो भी तिनकै थोरी कषायशक्तिते पीतलेश्या कही । बहुरि एकेंद्रियादि जीव कषायकार्य करते दीखें नाही, तिनकै घनीशक्तिते कृष्णादि लेश्या कहीं। बहुरि सर्वार्थसिद्धि के देव कषायरूप थोरे प्रवर्ते, तिनकै बहुत कषायशक्तिते असंयम कह्या, अर पंचम । गुणस्थानी व्यापार अब्रह्मादि कषायकार्यरूप बहुत प्रवर्ते, ताकै मंदकषायशक्तितै देशसंयम| कह्या । ऐसे ही अन्यत्र जानना । बहुरि कोई जीवकै मन वचन कायकी चेष्टा थोरी होती दीसे, ।। तो भी कर्माकर्षण शक्तिकी अपेक्षा बहुत योग कहा । काहुके चेष्टा बहुत दीखें, तो भी शक्ति की हीनताः स्तोकयोग कह्या । जैसें केवली गमनादिक्रियारहित भया, तहां भी ताके योग बहुत कह्या । बेंद्रियादिक जीव गमनादि करें हैं, तो भी तिनके योग स्तोक कहे, ऐसे ही अन्यत्र जानना । बहुरि कहीं जाकी व्यक्त तो किछु न भासे, तो भी सूक्ष्मशक्तिके सद्भावतें ताका तहां अस्तित्व कह्या । जैसें मुनिकै अब्रह्मकार्य किछू नाहीं, तो भी नवम गुणस्थानपर्यंत
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मो.मा.11 मेथुनसंज्ञा कही । महमिंद्रनिके दुखका कारण व्यक्त नाही, तो भी कदाचित् असाताका उ. | प्रकाश
। दय कह्या । नारकीनिकै सुखका कारण व्यक्त नाहीं, तो भी कदाचित् साताका उदय कहा ।।
ऐसे ही अन्यत्र जानना । बहुरि करणानुयोग सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादिक धर्मका निरूपण || | कर्मप्रकृतीनिका उपशमादिककी अपेक्षा लिए सूक्ष्मशक्ति जैसें पाईए तेसै गुणस्थानादिविषै ।। | निरूपण करे है, वा सम्यग्दर्शनादिकके विषयभूत जीवादिक तिनकाभी निरूपण सूक्ष्मभेदादि लिए करें है। यहां कोई करणानुयोगकै अनुसारि आप उद्यम करे, तो होय सकै नाहीं। करणानुयोगविर्षे तो यथार्थ पदार्थ जनावनेका मुख्य प्रयोजन है । आचरण करावनेकी मुख्यता नाहीं । तातै यह तो चरणानुयोगके अनुसार प्रवत्ते, तिसत जो कार्य होना होय सो खय| मेव ही हो है । जैसे आप कर्मनिका उपशमादि किया चाहै, तो कैसे होय । आप तो तत्वादिकका निश्चय करनेका उद्यम करे, तातै स्वयमेव ही उपशमादिक सम्यक्त होय। ऐसे ही । अन्यत्र जानना । एक अन्तर्मुहूर्तविणे ग्यारवां गणस्थानसौं पड़ि क्रमते मिथ्यादृष्टी होय बहुरि । चदिकरि केवलज्ञान उपजावै । सो ऐसे सम्यक्तादिकके सूक्ष्मभाव बुद्धिगोचर आवते नाही, ताते करणानुयोगकै अनुसारि जैसाका तैसा जानि तो ले, अर प्रवृत्ति बुद्धिगोचर जैसे भला || | होय, तैसें करै । बहुरि करणानुयोगविर्षे भी कहीं उपदेशकी मुख्यता लिए व्याख्यान हो है, ताको सर्वथा तैसें ही न मानना । जैसे हिंसादिकका उपायकों कुमतिज्ञान कह्या, अन्य मता-||४२१
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मो.मा. दिकके शास्त्राभ्यासकौं कुश्रुतज्ञान कह्या, बुरा दीसै भला न दीसे तोकौं विभंगज्ञान कह्या । प्रकाश सो इनको छोड़नेंकै अर्थ उपदेशकरि ऐसें कहा । तारतम्यते मिथ्यादृष्टीके सर्व ही ज्ञान के
ज्ञान हैं, सम्यग्दृष्टीकै सर्व ही ज्ञान सुज्ञान हैं । ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि कहीं स्थूलकथन किया होय, ताकौं तारतम्यरूप न जानना। जैसे व्यासते तिगुणी परिधि कहिए, सूक्ष्मपर्ने किछु अधिक तिगुणी हो है। ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि कहीं मुख्यताकी अपेक्षा । व्याख्यान होय, ताकी सर्व प्रकार न जानना । जैसे मिथ्यादृष्टी सासादन गुणस्थानवालों को पापजीव कहे, असंयतादिक गुणस्थानवालौं कौं पुण्यजीव कहे, सो मुख्यपर्ने ऐसे कहे, तारतम्यते दोऊनिकै पाप पुण्य यथा संभव पाईये है। ऐसे ही अन्यत्र जानना । ऐसे ही और ।। भी नाना प्रकार पाईये है, ते यथासंभव जानने । ऐसे करणानुयोगविष व्याख्यानका विधान दिखाया।
अव चरणानुयोगविर्षे किस प्रकार ब्याख्यान है, सो दिखाईए है
चरणानुयोगविर्षे जैसें जीवनिके अपनी बुद्धिगोचर धर्मका आचरण होय, सो उपदेश | दिया है । तहां धर्म तो निश्चयरूप मोक्षमार्ग है, सोई है । ताकै साधनादिक उपचारतें धर्म है, सो व्यवहारनयकी प्रधानताकरि नाना प्रकार उपचारधर्मके भेदादिकका याविष निरूपण | करिए है । जाते निश्चय धर्मविषे तो किछु ग्रहण त्यांगका विकल्प नाहीं भर याकै नीचली
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अवस्थाविर्षे विकल्प छूटता नाही, ताते इस जीवकों धर्मविरोधी कार्यनिकों छुड़ावनेका धर्म| साधनादि कार्यनिके ग्रहण करावनेका उपदेश याविर्षे है । सो उपदेश दोय प्रकार करिए है।।
एक तो ब्यवहारहीका उपदेश दीजिये है, एक निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश दीजिये है। | तहां जिन जीवनिकै निश्चयका ज्ञान नाहीं है, वा उपदेश दिए भी होता न दीसै, ऐसे मिथ्यादृष्टी जीव किछु धर्मकों सन्मुख भए तिनको व्यवहारहीका उपदेश दीजिए है। बहुरि जिन | जीवनिकै निश्चय व्यवहारका ज्ञान है, वा उपदेश दिए तिनका ज्ञान होता दीसै है, ऐसे सम्यग्दृष्टी जीव वा सम्यक्तकौं सन्मुख मिथ्यादृष्टी जीव तिनकौं निश्चयसहित ब्यवहारका उप| देश दीजिए है । जाते श्रीगुरु सर्व जीवनिके उपकारी हैं । सो असंज्ञी जीव तौ उपदेश | ग्रहणे योग्य नाही, तिनका तो उपकार इतना ही किया और जीवनिकों तिनकी दयाका | उपदेश दिया । बहुरि जे जीव कर्मप्रबलताते निश्चयमार्गकों प्राप्त होय सकें नाहीं, तिनका | इतना ही उपकार किया, जो उनको ब्यवहार धर्मका उपदेश देय कुगतिके दुःखनिका कारण पापकार्य छुड़ाय सुगतिके इंद्रियनिके सुखका कारण पुण्यकार्य तिसविर्षे लगाया । जेता दुख मिट्या, तेता ही उपकार भया । बहुरि पापीकै तौ पापवासना ही रहै, अर कुगतिविषै। जाय तहां धर्मका निमित्त नाहीं । तातै परंपराय दुखहीकों पावौ करे। अर पुण्यवानकै धर्मवासना रहै अर सुगति विषै जाय, तहां धर्मके निमित्त पाईए, ताः परंपराय सुखकों पावै ।।२३
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प्रकाश
मो.मा. अथवा कर्मशक्ति हीन होय जाय, तो मोक्षमार्गौं भी प्राप्त होय जाय । ताते व्यवहार
। उपदेशकरि पापते छुड़ाय पुण्यकार्यनिविषे लगाईए है । बहुरि जे जीव मोक्षमार्गकों प्राप्त ।
भए वा प्राप्त होने योग्य हैं, तिनका ऐसा उपकार किया जो उनकों निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश देय मोक्षमार्गविषै प्रवर्ताए । श्रीगुरु तो सर्वका ऐसा ही उपकार करें । परंतु जिन जीवनिका ऐसा उपकार न बनें, तो श्रीगुरु कहा करें। जैसा बन्या तैसा ही उपकार किया । ताते दोय प्रकार उपदेश दीजिये है। तहां व्यवहारविषै तो बाह्य क्रियानिहीकी प्रधानता || है। तिनका तौ उपदेशनै जीव पापक्रिया छोड़ि पुण्यक्रियानिविर्षे प्रवर्ते । तहां क्रियानिकै अनुसार परिणाम भी तीवकषाय छोड़ि किछु मंदकषायी होय जांय । सो मुख्यपर्ने तो ऐसे | है । बहुरि काहूकें न होय, तो मति होहु । श्रीगुरु तो परिणाम सुधारनेके अर्थ बाह्यक्रियानि
कौं उपदेशै हैं । बहुरि निश्चयसहित व्यवहारका उपदेशविौ परिणामनिहींकी प्रधानता है। | ताका उपदेशते तत्वज्ञानका अभ्यासकरि वा वैराग्य भावनाकरि परिणाम सुधारे, तहां परि| णामकै अनुसार बाह्यक्रिया भी सुधरि जाय । परिणाम सुधरे वाह्यक्रिया भी सुधरे ही सुधरै । तात श्रीगुरु परिणाम सुधारनेकों मुख्य उपदेशैं हैं । ऐसें दोय प्रकार उपदेशविर्षे व्यवहा-|| रहीका उपदेश होय । तहां सम्यग्दर्शनके अर्थ अरहंत देव, निग्रंथ गुरु, दया धर्मकों ही मा- ४२४ नना । बहुरि जीवादिक तत्वनिका व्यवहारस्वरूप कह्या है, ताका श्रद्धान करना, शंकादि प..
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मो.मा. चीस दोष न लगावने, निःशंकिताद्रिक अंग अथवा संवेगादिक गुण पालने, इत्यादिक उपदेश प्रकाश
दीजिए है । बहुरि सम्यग्ज्ञानके अर्थ जिनमतके शास्त्रनिका अभ्यास करना, अर्थ व्यंजनादि अंगनिका साधन करना, इत्यादि उपदेश दीजिए है । बहुरि सम्यक्चारित्रकै अर्थ एकोदेश। सबोंदेश हिंसादि पापनिका त्याग करना, व्रतादि अंगनिकों पालने इत्यादि उपदेश दीजिए। है। बहुरि कोई जीवकों विशेष धर्नका साधन न होता जानि, एक श्राखडी आदिकका ही | उपदेश दीजिए है । जैसे भीलकों कागलाका मांस छुड़ाया, गुवालियाकों नमस्कार मंत्र जपनेका उपदेश दिया, गृहस्थकों चैत्यालय पूजा प्रभावनादि कार्यका उपदेश दिया, इत्यादि |
जैसा जीव होय, ताकौं तैसा उपदेश दीजिए है । बहुरि जहां निश्चयसहित व्यवहारका उप# देस होय, तहां सम्यग्दर्शनके अर्थ यथार्थ तत्वनिका श्रद्धान कराईये है। तिनका जो निHश्चय स्वरूप है, सो भूतार्थ है। व्यवहारस्वरूप है, सो उपचार है । ऐसा श्रद्धान लिए वा
खपरका भेदविज्ञानकरि परद्रव्यनिषै रागादि छोड़नेका प्रयोजन लिए तिन तत्वनिका श्रद्धान करनेका उपदेश दीजिए है । ऐसे श्रद्धानतै अरहंतादिविना अन्य देवादिक झूठ भासे, तब स्वयमेव तिनका मानना छूट है, ताका भी निरूपण करिए है । बहुरि सम्यग्ज्ञानके अर्थ संशयादिरहित तिनही तस्वनिका तैसे ही जाननेका उपदेश दीजिए है, तिस जाननेकों कारण । जिनशास्त्रनिको अभ्यास है । ताते तिस प्रयोजनकै अर्थ जिनशास्त्रनिका भी अभ्यास स्वय- ४२५
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मेव हो है, ताका निरूपण करिए है । बहुरि सम्यक्चारित्रके अर्थ रागादि दूरि करनेका उपदेश दीजिए है। तहां एकदेश वा सर्वदेश वीतरागादिकका अभाव भए तिनके निमित्त होती जे एकदेश सर्वदेश पापक्रिया, तातै छुटै है। बहुरि मंदरागते श्रावकमुनिनिकै व्रतनि । की प्रवृत्ति हो है । बहुरि मंदरागादिकनिका भी अभाव भएं शुद्धोपयोगकी प्रवृत्ति हो है, ताका निरूपण करिए है । वहुरि यथार्थ श्रद्धान लिए सम्यग्दृष्टीनिकै जैसे यथार्थ कोई आखड़ी हो है, वा भक्ति हो है, वा पूजा प्रभावनादि कार्य हो है, वा ध्यानादिक हो है, तिनका उपदेश दीजिए है । जैसा जिनमतविषे सांचा परंपराय मार्ग है, तैसा उपदेश दीजिए है। । ऐसे दोय प्रकार उपदेश चरणानुयोगविषे जानना ।
बहुरि चरणानुयोगवि तीनकषायनिका कार्य छुड़ाय मंदकयायरूप कार्य करनेका उपदेन दीजिए है । यद्यपि कयाय करना बुरा ही है, तथापि सर्वकषाय न छूटते जानि जेता काप घटे वितना ही भला होगा, ऐसा प्रयोजन तहां जानना । जैसे जिनि जीवनिकै आरंभादि करनेकी वा संदिरादि बनावरेकी वा विषय सेवनेकी वा क्रोधादि करनेकी इच्छा सर्वथा दूरि न होती जाने, तिनको पूजा प्रभावनादिक करनेका वा चैत्यालयादि बनावनेका वा जिनदेवादिककै आगे शोभादिक नृत्य गानादिकरनेका वा धर्मात्मा पुरुषनिकी सहायादि। करनेका उपदेश दीजिये है। जातै इनविष परंपराय कषायनिका पोषण न हो है । पापका
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मोम || निविर्षे परंपराय कायपोषणा हो है, ता. पापकार्यनितें छुड़ाय इन कार्यनिविषे लगाईए।
है । बहुरि थोरा बहुत जेता छूटता जाने, तितना पापकार्य छुड़ाय सम्यक्त वा अणुव्रतादि | पालनेका तिनकों उपदेश दीजिए है। बहुरि जिन जीवनिकै सर्वथा आरंभादिककी इच्छा दूरि । भई, तिनकों पूर्वोक्त पूजनादिक कार्य वा सर्व पापकार्य छुड़ाय महावतादि कार्यनिका उपदेश दीजिए है। बहरि जिनके किंचित् रागादिक छूटता न जाने, तिनकों दया धर्मोपदेश प्रतिक मणादि कार्य करनेका उपदेश दीजिए है। जहां सर्वराग दूरि होय, तहां किछु करनेका कार्य ही रह्या नाहीं । तातै तिनकों किछू उपदेश ही नाहीं । ऐसा कम जानना।
बहुरि चरणानुयोगविणे कषायी जीवनिकों कषाय उपजायकरि भी पापकों छुड़ाईए है, अर धर्मविष लगाईए है। जैसे पापका फल नरकादिकके दुख दिखाय तिनकों भय कषाय । उपजाय पापकार्य छुड़ाईए है। बहुरि पुण्यका फल स्वर्गादिकके सुख दिखाय तिनकों लोभकषाय उपजाय धर्मकार्यनिविषै लगाईए है। बहुरि यह जीव इंद्रियविषय शरीर पुत्र धनादिक के अनुरागतै पाप करै है, धर्म पराङ्मुख रहै है, तातै इन्द्रियविषयनिकौं मरण कलेशादिकके कारण दिखावनेकरि तिनविषे अरतिकथाय कराईये है । शरीरादिककों अशुचि दिखावनेकरि तहां जुगुप्साकषाय कराईए है, पुत्रादिककों धनादिकके ग्राहक दिखाय तहां द्वेष कराईए है, वहुरि धनादिककों मरण कलेशादिकका कारण दिखाय, तहां अनिष्टचुद्धि कराईए है । इत्या
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दि उपाय विषयादिविषै तीव्रराग दूरि होनेकार तिनकै पापक्रिया छूटि धर्मविषै प्रवृत्ति हो | है । बहुरि नामस्मरण स्तुतिकरण पूजा दान शीलादिकत इस लोकविषै दरिद्रकष्ट दूर हो है, पुत्र धनादिककी प्राप्ति हो है, ऐसें निरूपणकरि तिनकै लोभ उपजाय तिन धर्म कार्यनिविषैलगाईए है । ऐसें ही अन्य उदाहण जानने। यहां प्रश्न - जो कोई कषाय छुड़ाय कोई कषाय करावनेका प्रयोजन कहा ? ताका समाधान --
जैसे रोग तो शीतांग भी हैं अर ज्वर भी है। परंतु कोईके शीतांगते मरण होता जाने, सहां वैद्य है सो वाकै ज्वर होनेका उपाय करै । ज्वर भए पीछे वाकै जीवनेकी आशा होय, तब पीछे ज्वरके भी मेटनेका उपाय करें । तैसें कषाय तौ सर्व ही हेय हैं, परन्तु कोई जीवनकै कषायति पापकार्य होता जानै, तहां श्रीगुरु हैं सो उनकै पुण्यकार्यकों कारणभूत कषाय होनेका उपाय करें, पीछे वाके सांची धर्मबुद्धि जाने, तब पीछे तिस कंषाय मेटनेका उपाय करें, ऐसा प्रयोजन जानना । बहुरि चरणानुयोगविषै जैसे जीवं पापकों छोड़ि धर्मविषैल, तैसे अभिप्राय लिये अनेक युक्तिकरि वर्णन करिए हैं । तहां लौकिक दृष्टान्त युक्तिकरि न्यायपद्धतिके द्वारा समझाइए है । बहुरि कहीं अन्यमत के भी उदाहरणादि दीजिए है । जैसे सूक्तमुक्तावलीविषै लक्ष्मीकौं कमलवासिनी कही, वा समुद्रविषै विष और लक्ष्मी उपजै हैं, तिस अपेक्षा विषकी भगिनी कही । ऐसें ही अन्यत्र कहिए हैं। तहाँ कोई
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उदाहरण झूठे हू हैं, परन्तु सांच प्रयोजनकों पोष हैं । तहाँ दोष नाहीं । यहाँ कोऊ क है, कूंठका तौ दोष लागे है । ताका समाधान - जो मूंठ है और सांचे प्रयोजनक पोषै है, तो उसको झूठ न कहिए हैं और जो सांचे भी हैं और झूठे प्रयोजनकों पोष तो वह झूठ ही हैं । ऐसें अलंकारयुक्त नामादिकविषै वचन अपेक्षा झूट सांच नाहीं, प्रयोजन अपेक्षा ठसांच है। जैसें तुच्छशोभासहित नगरीको इंद्रपुरीकै समान कहिए है, सो झूठ है। परंतु शोभाका प्रयोजनकों पोषै है, तातैं झूठ नाहीं । बहुरि “इस नगरीविषै छत्रहीकै दंड है अन्यत्र नाहीं" ऐसा कह्या, सो कूं है । अन्यत्र भी दंड देना पाईए है, परंतु तहां श्रन्यायवान् थोरे हैं न्यायवानकों ढंड न दीजिए हैं, ऐसा प्रयोजनकों पोषै है, तातै झूठ नाहीं । बहुरि बृहस्पति का नाम 'सुरगुरु' लिखें वा मंगलका नाम 'कुज' लिखें, सो ऐसे नाम अन्यमत अपेक्षा हैं । इनका अक्षरार्थ है, सो झूठा है । परंतु वह नाम तिस पदार्थकों प्रगट करे है, तातै झूठा नाहीं । ऐसें अन्य मतादिकके उदाहरणादि दीजिए हैं, सो झूठ हैं, परंतु उदाहरणादिकका तौ श्रद्धान करावना है नाहीं, श्रद्धान तौ प्रयोजनका करावना है, सो प्रयोजन सांचा है, दोष है नाहीं । बहुरि चरणानुयोगविषै छद्मस्थकी बुद्धिगोचर स्थूलपनाकी |पेक्षा लोकप्रवृत्तिकी मुख्यता लिए उपदेश दीजिए है । बहुरि केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मपनाकी अपेक्षा न दीजिए है । जातै तिसका आचरण न होय सकै है । और यहां आचरण करावने
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का प्रयोजन है । जैसे अणुव्रतीकै त्रसहिंसाका त्याग कह्या, अर वाकै स्त्रीसेवनादि कार्यविर्षे असहिंसा हो है। यह भी जाने है-जिनवानी विषे यहां त्रस कहे हैं। परंतु याकै त्रस मारनेका । अभिप्राय नाही, अर लोकवि जाका नाम त्रसघात है, ताकों करै नाहीं । तातै तिस अपेक्षा । | वाकै त्रसहिंसा का त्याग है। बहुरि मुनिकै स्थावरहिंसाका भी त्याग कह्या, सो मुनि पृथ्वी जलादिविषै गमनादि करै हैं, तहां सर्वथा त्रसका भी अभाव नाहीं। जाते त्रसजीवकी भी । अवगाहना ऐसी छोटी हो है, जो दृष्टिगोचर न होवे । अर तिनकी स्थिति पृथ्वी जलादि विषै। ही है, सो मुनि जिनवानीत जाने हैं, वा कदाचित् अवधिज्ञानादिकार भी जाने हैं। परंतु याकै प्रमादतै स्थावर त्रसहिंसाका अभिप्राय नाहीं । बहुरि लोकविषै भूमि खोदना अप्रासुक जलते क्रिया करनी इत्यादि प्रवृत्तिका नाम स्थावरहिंसा है, अर स्थूल त्रसनिके पीड़नेका। नाम त्रसहिंसा है, ताकी न करै । तातें मुनिकै सर्वथा हिंसाका त्याग कहिए है । बहुरि ऐसे। ही अनृत स्तेय अब्रह्म परिग्रहका त्याग कह्या । अर केवलज्ञानका जाननेकी अपेक्षा असत्यवचनयोग वारवां गुणस्थान पर्यंत कह्या । अदत्त कर्मपरमाणु आदि परद्रव्यका ग्रहण तेरवां | गुणस्थान पर्यंत है। वेदका उदय नवमगुणस्थानपर्यंत है । अंतरंगपरिग्रह दशमगुणस्थानपर्यंत है। वाह्यपरिग्रह समवसरणादि केवलीके भी हो है। परंतु प्रमादतै पापरूप अभिप्राय नाही, अर लोकप्रवृत्तिविर्षे तिन क्रियानिकरि यह झूठ बोले है, चोरी करै है, कुशील सेवे है, परिग्रह
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राखे है, ऐसा नाम पावें, वे क्रिया इनके हैं नाहीं । तातै अनृतादिकका इनके त्याग कहिये है । बहुरि जैसें मुनिके मूलगुगनिविषै पंचइंद्रियनिके विषयका त्याग कया । सो जानना इंद्रियनि का मिटै नाहीं, अर विषयनिविषै रागद्वेष सर्वथा दूरि भया होय, तौ यथाख्यात चारित्र होय , सो भया नाहीं । परंतु स्थूलपर्ने विषयइच्छाका अभाव भया र बाह्य विषय सामग्री मिलने की प्रवृत्ति दूरि भई, तातै याकै इंद्रियविषैका त्याग कया । ऐसें ही अन्यत्र जानना । बहुरि व्रती जीव त्याग वा आचरण करै है, सो चरणानुयोगकी पद्धति अनुसारि वा लोकप्रवृसिके अनुसार करें है । जैसे काढूनें प्रसहिंसाका त्याग किया है, तहां चरणानुयोगविषै वा लोकविषै जाको सहिंसा कहिये है, ताका त्याग किया, केवलज्ञानकरि जो त्रस देखिए है, तिनका त्याग बने नाहीं । तहां त्रसहिंसाका त्याग किया, तिसरूप मनका विकल्प न करना मनकरि त्याग है, वचन न बोलना सो वचनकरि त्याग है, कायकरि न प्रवर्त्तना, सो कायकरित्याग है । ऐसें अन्य त्याग वा ग्रहण हो है, सो ऐसी पद्धति लिए ही हो है, ऐसा जानना । यहां प्रश्न – जो करणानुयोगविषै केवलज्ञान अपेक्षा तारतम्य कथन है, तहां छठे | गुणस्थानवालेकै सर्वथा बारह अविरतिनिका अभाव कला, सो कैसे कया । ताका उत्तरअविरति भी योगकषायविषै गर्भित थे, परंतु तहां भी चरणानुयोग अपेक्षा त्यागका अभाव तिसहीका नाम अविरति कया है । तातैं वहां तिनका अभाव है । मनश्च विरतिका
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अभाव कह्या, सो मुनिकै मनके विकल्प हो हैं, परंतु स्वेच्छचारी मनका पापरूप प्रवृत्तिका अभावतें मनअविरतिका अभाव कह्या, ऐसा जानना । बहुरि चरणानुयोगविणे व्यवहार
लोकप्रवृत्ति अपेक्षा ही नामादिक कहिए है । जैसें सम्यक्तीको पात्र कह्या, मिथ्यातीको। | अपात्र कह्या । सो यहां जाकै जिनदेवादिकका श्रद्धान पाईए, सो तौ सम्यक्ती, जाकै तिनका ।
श्रद्धान नाहीं, सो मिथ्याती जानना । जातै दान देना चरणानुयोगविषे कह्या है, सो चरणानुयोगहीको अपेक्षा सम्यक्त मिथ्यात्व ग्रहण करिए है । करणानुयोग अपेक्षा सम्यक्त मिथ्यात्व ग्रहें वो ही जीव ग्यारवें गुणस्थान अर वो ही अंतर्मुहूर्त में पहिले गुणस्थान आवै, तहां
दातार पात्र अपात्रका कैसे निर्णय करि सके । बहुरि द्रध्यानुयोग अपेक्षा सम्यक्त मिथ्यात्व । ग्रहें मुनि संघविर्षे द्रव्यलिंगी भी हैं, भावलिंगी भी हैं । सो प्रथम तो तिनका ठीक होना | कठिन है । जाते बाह्यप्रवृत्ति समान है । अर जो कदाचित् सम्यक्तीकों कोई चिहकरि ठीक पड़े अर वह वाकी भक्ति न करे, तब औरनिकै संशय होय, जो याकी भक्ति क्यों न करी । ऐसे वाका मिथ्यादृष्टीपना प्रगट होय, तब संघविर्षे विरोष उपजै । तातै यहां व्यवहार सम्यक्त मिथ्यात्वकी अपेक्षा कथन जाननें । यहां कोई प्रश्न करे--सम्यक्ती तो द्रव्यलिंगीकौं आप हीनगुणयुक्त माने है, ताकी भक्ति कैसे करे । ताका समाधान- व्यवहारधर्मका साधन द्रव्यलिंगीले बहुत है भर भक्ति करनी सो भी व्यवहार ही है ।
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सातै जैसे कोई धनवान् होय, परन्तु जो कुलविषै बड़ा होय ताक कुल अपेक्षा बड़ा जानि ताका सत्कार करें, तैसें आप सम्यक्कगुणसहित है, परंतु जो व्यवहारधर्मविषै प्रधान होय, ताक व्यवहारधर्मं अपेक्षा गुणाधिक मानि ताकी भक्ति करै है । ऐसा जानना । बहुरि ऐसें ही जो जीव बहुत उपवासादि करें, ताक़ तपखी कहिए है । यद्यपि जो कोई ध्यान अध्ययनादि विशेष करें है, सो उत्कृष्ट तपस्वी है । तथापि चरणानुयोगविषै बाह्यतपहीकी प्रधानता है । तातैं तिसहीकों तपस्वी कहिए है । याही प्रकार अन्य नामादिक जाननें । ऐसें ही अन्य अनेक प्रकार लिए चरणानुयोगविषै व्याख्यानका विधान जानना ।
अब द्रव्यानुयोगविषै कहिए है
जीवनिकै जीवादि द्रव्यनिका यथार्थ श्रद्धान जैसे होय, तैसें विशेष युक्ति हेतु दृष्टान्तादिकका यहां निरूपण कीजिए है । जातै याविषै यथार्थ श्रद्धान करावनेका प्रयोजन है । तहां यद्यपि जीवादि वस्तु अभेद हैं, तथापि तिनविषै भेदकल्पनाकरि व्यवहारतै द्रव्य गुण पर्यायादिकका भेद निरूपण कीजिए है । सो भी युक्त है । बहुरि प्रतीति धनावनेकै अर्थ अनेक युक्तिरि उपदेश दीजिये है, अथवा प्रमाणनयकरि उपदेश दीजिए हैं, बहुरि वस्तुका अनुमान प्रत्यभिज्ञानादिक करनेकों हेतु दृष्टांततादिक दीजिए हैं । ऐसें तहाँ वस्तुकी प्रतीति करावनेका उपदेश दीजिए है । बहुरि यहाँ मोक्षमार्गका श्रद्धान करावनेकै अर्थ
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है। जीवादि तत्वनिका विशेष युक्ति दृष्टांतादिकरि निरूपण कीजिए है। तहां खपरभेदविज्ञानाप्रकाश
दिक जैसे होय, तैसें जीव अजीवका निर्णय कीजिए है । बहुरि वीतरागभाव जैसे होय, तैसें श्रास्रवादिकका स्वरूप दिखाईए है । बहुरि तहां मुख्यपर्ने ज्ञान वैराग्यकों कारण आत्मानुभवनादिक ताकी महिमा गाईए है। वहुरि द्रव्यानुयोगविषै निश्चय अध्यात्म उपदेशकी | प्रधानता होय, तहां व्यवहारधर्मका भी निषेध कीजिए है । जे जीव आत्मानुभवनके उपायको न करे हैं, अर वाह्य क्रियाकांडविषे मग्न हैं, तिनकों तहांते उदासकरि आत्मानुभवनादिविषै लगावनेकौं व्रत शील संयमादिकका हीनपना प्रगट कीजिए है । तहां ऐसा न जानि लेना, जो इनकों छोड़ि पापविषे लगना । जाते तिस उपदेशका प्रयोजन अशुभविषै लगावनेका नाहीं है । शुद्धोपयोगविष लगावनेकों शुभोपयोगका निषेध कीजिए है । यहां कोऊ कहै कि-अध्यात्मशास्त्रनिविषै पुण्य पाप समान कहे हैं, तातें शुद्धोपयोग होय तौ भला ही है, न होय तो पुण्यविषै लगो वा पापविषे लगो। ताका उत्तर। जैसे शूद्रजातिअपेक्षा जाट चांडाल समान कहे, परंतु चांडालते जाट किछु उत्तम है। यह अस्पृश्य है, वह स्पृश्य है । तैसें बंधकारण अपेक्षा पुण्य पाप समान हैं, परंतु पापते । पुण्य किछु भला है। वह तीनकषायरूप है, यह मंदकषायरूप है। तातै पुण्य छोड़ि पापविषे लगना युक्त नाहीं, ऐसा जानना । बहुरि जे जीव जिनविम्बभक्त्यादि कार्यनिविणे ही || ४३४
ఆంధ్ర-gov-00 అని నిరంతరం పై రాం రాంంంంంందుకు ఆనంట్లో అందం
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मग्न हैं, तिनकौं अात्मश्रन्द्रानादि करावनेकों “देहविर्षे देव है, देहुरावि नाहीं” इत्यादि उ. |पदेश दीजिए है। तहां ऐसा न जानि लेना, जो भक्ति छुड़ाय भोजनादिकतै आपको सुखी करना । जाते तिस उपदेशका प्रयोजन ऐसा नाहीं है। ऐसे हो अन्य व्यवहारका निषेध । तहां किया होय, ताकौं जानि प्रमादी न होना । ऐसा जानना,-जे केवल व्यवहारविषै ही , | मग्न हैं, तिनकों निश्चयरुचि करावनेकै अर्थ व्यवहारकों हीन दिखाया है। बहुरि तिन ही। |शास्त्रनिविषै सम्यग्दृष्टीके विषय भोगादिककों बंधकारण न कह्या, निर्जराका कारण कह्या।
सो यहां भोगनिका उपादेयपना न जानि लेना। तहां सम्यादृष्टीकी महिमा दिखाबनेकौं जे तीब्रबंधके कारण भोगादिक प्रसिद्ध थे, तिन भोगादिकौं होतसत भी श्रद्धानशक्तिके | बलते मंदबंध होने लगा, ताकौं तो गिन्या नाहीं अर तिसही वलतै निर्जरा विशेष होने | लगी, तातै उपचारतै भोगनिकों भी बंधका कारण न कह्या, निर्जराका कारण कह्या । विचार किए भोग निर्जराके कारण होय, तौ तिनकौं छोड़ि सम्यग्दृष्टी मुनिपदका ग्रहण, काहेकौं करै । यहां इस कथनका इतना ही प्रयोजन है-देखो, सम्यत्वकी महिमा जाके बलतै भोग भी अपने गुणकौं न करि सके हैं । या प्रकार और भी कथन होय, तौ ताका यथार्थपना जानि लेना । बहुरि द्रव्यानुयोगविषे भी चरणानुयोगवत् ग्रहण त्याग करवानेका प्रयोजन है । तातें छद्मस्थके बुद्धिगोचर परिणामनिकी अपेक्षा ही तहां कथन कीजिए है।
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इतना विशेष है, जो चरणानुयोगविर्षे तो बाधक्रियाको मुख्यताकरि वर्णन करिए है, अर द्रव्यानुयोगविषे आत्मपरिणामनिकी मुख्यताकरि निरूपण कीजिए है-करणानुयोगवत् सूक्ष्मवर्णन न कीजिए है । ताके उदाहरण कहिए है____उपयोगके शुभ अशुभ शुद्ध ऐसे तीन भेद कहे । तहां धर्मानुरागरूपं परिणाम सो |शुभोपयोग, पापानुगग वा द्वेषरूप परिणाम सो अशुभोपयोग, अर रागद्वेषरहित परिणाम सो
शुद्धोपयोग, ऐसे कह्या । सो इस छद्मस्थके परिणामनिकी अपेक्षा यह कथन है । करणीनु| योगविषै कषायशक्ति गुणस्थानादिविषे संक्रश विशुद्ध परिणाम निरूपणं किया है, सो विवक्षा यहां नाहीं है । करणानुयोगविर्षे तो रागादिरहित शुद्धोपयोग, यथाख्यातचारित्र भए होय, सो मोहका नाश भए स्वयमेव होगा । नीचली अवस्थावाला शुद्धोपयोग साधन केसे करें । अर द्रव्यानुयोगविर्षे शुद्धोपयोग करनेहीका मुख्य उपदेश है, तातै यहां छनस्थ जिस कालविष बुद्धिगोचर भक्ति आदि वा हिंसा आदि कार्यरूप परिणामनिकों छुड़ाय आत्मानुभवनादि कार्यनिविषे प्रवत्ते, तिस काल ताको शुद्धोपयोगी कहिए । यद्यपि यहां केवलज्ञानगोचर सूक्ष्म | रागादिक हैं, तथापि ताकी विवक्षा यहां न कही, अपनी बुद्धिगोचर रागादिक छोड़ि तिस। अपेक्षा याकौं शुद्धोपयोगी कह्या है । ऐसे ही स्वपरश्रद्धानादिक भए सम्यक्तादिक कहे, सो| बुद्धिगोचर अपेक्षा निरूपण है। सूक्ष्म भावनिकी अपेक्षा गुणस्थानादिविष सम्यक्तादिकका
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निरूपण करणानुयोगवि पाईए है। ऐसे ही अन्यत्र जाननें । ताते द्रव्यानुयोगके कथनकी करणानुयोगते विधि मिलाया चाहिए, सो कहीं तो मिले कहीं न मिले । जैसे यथाख्यातचारित्र भए, तो दोऊ अपेक्षा शुद्धोपयोग है, बहुरि नीचली दशाविष द्रव्यानुयोग अपेक्षा तो कदाचित् शुद्धोपयोग होय अर करणानुयोग अपेक्षा सदा काल कषायअंशके सद्भावतें शुद्धोपयोग नाहीं । ऐसें ही अन्य कथन जानि लेना । बहुरि ,व्यानुयोगवि परमतविषे ।। कहे तत्त्वादिक तिनकों असत्य दिखावनेके अर्थ तिनका निषेध कीजिए है, तहां द्वेषबुद्धि न जाननी । तिनको असत्य दिखाय सत्य श्रद्धान करावनेका प्रयोजन जानना । ऐसे ही और ।। भी अनेक प्रकारकरि द्रव्यामुयोगविर्षे व्याख्यानका विधान किया है। या प्रकार च्यारों अनुयोगके व्याख्यानका विधान कह्या, सो कोई ग्रंथविषै एक अनुयोगकी, कोई विर्षे दोयकी कोई विषे तीनकी, कोई विषे च्यारोंकी प्रधानता लिए व्याख्यान हो है । सो जहां जैसा संभब, तहां तैसा समझ लेना।
अब इन अनुयोगनिविष कैसी पद्धतिकी मुख्यता पाईए है, सो कहिए
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प्रथमानुयोगविषै तो अलंकारशास्त्रनिकी वा काव्यादि शास्त्रनिकी पद्धति मुख्य है ।। जाते अलंकारादित मन रंजायमान होय । सूभी बात कहें ऐसा उपयोग लागे नाहीं, जैसा । ४३७
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| अलंकारादि युक्तिसहित कथनते उपयोग लागै । बहुरि परोक्ष वातकों किछू अधिकताकरि निरूपण करिए, तो वाका स्वरूप नीकें भासै । बहुरि करणानुयोगविणे गणित आदि शास्त्र| निको पद्धति मुख्य है । जाते तहां द्रव्य क्षेत्र काल भावका प्रमाणादिक निरूपण कीजिए है । सो गणित ग्रंथनिकी आम्नयत ताका सुगम जानपना हो है । बहुरि चरणानुयोगविर्षे सुभाषित नीतिशास्त्रनिकी पद्धति मुख्य है । जाते यहां अचरण करावना है, सो लोकप्रवृत्तिके अनुसार नीतिमार्ग दिखाए वह आचरन करै । बहुरि द्रव्यानुयोगविर्षे न्यायशास्त्रनिकी | पद्धति सुख्य है । जाते यहां निर्णय करनका प्रयोजन है अर न्यायशास्त्रनिविषै निर्णय कर| नेका मार्ग दिखाया है। ऐसें इन अनुयोगनिविष पद्धति मुख्य है। और भी अनेक | | पद्धति लिए व्याख्यान इनविषै पाईए है । यहां कोऊ कहै-अलंकार गणित नीति न्यायका तो ज्ञान पंडिततनिके होय, तुच्छबुद्धि समझें नाहीं, ताते सूधा कथन क्यों न किया। | ताका उत्तर1. शास्त्र है सो मुख्यते पंडित अर चतुरनिके अभ्यास करने योग्य है । सो अलंकारादि | आम्नाय लिएं कथन होय, तो तिनका मन लागे । बहुरि जे तुच्छत्रुद्धि हैं, तिनकों पंडित | समझाय दें। अर जे न समझि सके, तौ तिनकों मुखतें सूधा ही कथन कहें । परंतु ग्रंथ|निमें सूधा कथन लिखें विशेषबुद्धि तिनका अभ्यासविषे न प्रवत्त । तातें अलंकारादि आम्नाय ||४३८
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लिए कथन कीजिए है । ऐसें इन च्यारि अनुयोगनिका निरूपण किया । बहुरि जनमतविषै घने शास्त्र तौ इन च्यारौ अनुयोगनिविषे गर्भित हैं । बहुरि व्याकरण न्याय छंद कोषादिक शास्त्र वा वैद्यक ज्योतिष वा मंत्रादि शास्त्र भी जिनमतविषै पाईए है । तिनका कहा प्रयोजन है, सो सुनहु -
व्याकरण न्यायायादिकका अभ्यास भए अनुयोगरूप शास्त्रनिका अभ्यास होय सकै है । तातें व्याकरणादिक शास्त्र कहे हैं । कोऊ कहै, - भाषारूप सूधा निरूपण करते तौ व्याकरणादिकका कहा प्रयोजन था । ताका उत्तर
भाषा तौ अपभ्रंशरूप अशुद्ध वाणी है। देश देशविषै और और है सो महंतपुरुष शास्त्रनिवि ऐसी रचना कैसे करें । बहुरि व्याकरण न्यायादिककरि जैसा यथार्थ सूक्ष्म अर्थ निरूपण हो है, तैसा सूधी भाषाविषै होय सकै नाहीं । तातैं व्याकरणादि आम्नायकरि वर्णन किया है । सो अपनी बुद्धिअनुसार थोरा बहुत इनका अभ्यासकरि अनुयोगरूप प्रयोजनभूत शास्त्रनिका अभ्यास करना । बहुरि वैद्यकादि चमत्कारतें जिनमतकी प्रभावना होय वा औषधादिकतें उपकार भी बने, अथवा जे जीव लौकिक कार्यचिषै अनुरक्त हैं, ते वैद्यकादिक चमत्कारतें जैनी होय पीछे सांचा धर्म पाय अपना कल्याण करें । इत्यादि प्रयोजन लिए वैद्यकादि शास्त्र कहे हैं। यहां इतना है—ए भी जिनशास्त्र है, ऐसा जानि इनका अभ्यास
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विषे बहुत लगना नाहीं । जो बहुत बुद्धि” इनका सहज मानना होय, अर इनकौं जाने।
आपके रागादिक विकार वधते न जाने, तो इनका भी जानना होहु । अनुयोग शास्त्रवत् ए शास्त्र बहुत कार्यकारी नाहीं। तातें इनका अभ्यासका विशेष उद्यम करना युक्त || नाहीं। यहां प्रश्न-जो ऐसे है, तो गणधरादिक इनकी रचना काहेकों करी । ताका
అనంచిన ఉంగరం ప్రారంభం
కానుందాం అనురాగం
- पूर्वोक्त किंचित्प्रयोजन जानिइनकी रचना करी । जैसे बहुत धनवान् कदाचित्स्तोककार्यकारी वस्तुका भी संचय करै । बहुरि थोरा धनवान् उन वस्तुनिका संचय करें, तों धन तो तहां लगि जाय, बहुतकार्यकारी वस्तुका संग्रह काहत करै । तैसें बहुत बुद्धिमान् गणधरादिक कथंचित् स्तोककार्यकारी वैद्यकादि शास्त्रनिका भी संचय करें । थोरा बुद्धिमान् उनका || अभ्यासविर्षे लागै, तो बुद्धि ती तहां लगि जाय, भर उत्कत्कृष्ट कार्यकारी शास्त्रनिका । अभ्यास कैसे करै । बहुरि जैसे मंदरागी तौ पुराणादिविषे श्रृंगारादि निरूपण करे, तो भी । विकारी न होय । तीबरागी तैसें श्रृंगारादिनिरूपे, तो पाप ही बांधे । तैसें मंदरागी गणधरादिक हैं, ते वैद्यकादि शास्त्र निरूपैं, तो भी विकारी न होय, अर तीनरागी तिनका अभ्यास| विषै लगि जाय, तो रागादिक वधाय पापकर्मकों बांधे। ऐसें जानना । या प्रकार जैनमतके | उपदेशका स्वरूप जानना ।
- అందులోని సింపులు
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sa इनविषै दोषकल्पना कोई करें है, ताका निराकरण करिए है ---- कोई जीव कहै है - प्रथमानुयोग विषे श्रृंगारादिकका वा संग्रामादिकक बहुत कथन करें, तिनके निमित्त रागादिक बधि जाय, तातैं ऐसा कथन न करना था । ऐसा कथन सुनना नाहीं । ताकौं कहिए है — कथा कहनी होय, तब तौ सर्व ही अवस्थाका कथन किया चाहिए | बहुरि जो अलंकारादिकरि बधाय कथन करें हैं, सो पंडितनिके वचन युक्ति लिएं ही निकसैं । अर जो तू कहेगा, संबंध मिलावनेंकों सामान्य कथन किया होता, वधाय करि कथन काकौं किया । ताका उत्तर
जो परोक्षकथनकों बधाय कहे बिना वाका स्वरूप भासै नाहीं । बहुरि पहले तो भोग संग्रामादि ऐसें किए, पीछे सर्वका त्यागकर मुनि भए, इत्यादि चमत्कार तब ही भासे, जब वधाय कथन कीजिए । बहुरि तू कहै है, ताके निमित्ततें रागादिक बधि जांय, सो जैसे कोऊ चैत्यालय बनावै, सो वाका तौ प्रयोजन तहां धर्मकार्य करावनेका है। अर कोई पापी तहां पापकार्य करै, तौ चैत्यालय बनावनेवालाका तौ दोष नाहीं । तैसें श्रीगुरु पुराणादिविषै श्रृंगारादि वर्णन किए, तहां उनका प्रयोजन रागादि करावनेका तौ है नाहीं--धर्मविषैलगावनेका प्रयोजन है । अरकोई पापी धर्म न करे, अर रागादिक ही वधात्रे, तौ श्रीगुरुका कहा दोन है । बहुरि जो तू कहै - जो रागादिककका निमित्त होय, सो कथन ही न
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करना था। ताका उत्तर--- .
सरागी जीवनिका मन केवल वैराग्यकथानविषे लागे नाही, तातें जैसे बालकों बतासाकै आश्रय औषधि दीजिए, तैसे सरागीको भोगादिकथनकै आश्रय धर्मविर्षे रुचि। कराईए है । बहुरि तू कहेगा--ऐसे है, तो विरामी पुरुषनिकों तो ऐसे ग्रंथनिका अभ्यास | करना युक्त नाहीं । ताका उत्तर--
जिनकै अंतरंगविषै रागभाव नाही, तिनके श्रृंगारादि कथन सुनें रागादि उपजे हो नाहीं । यह जानै, ऐसे ही यहां कथन करनेको पद्धति है। बहुरि तू कहैगा-जिनकै श्रृंगारादि कथन सुनें रागादि होय आवै, तिनकों तो वैता कथन सुनना योग्य नाहीं।। ताका उत्तर
जहां धनहीका तो प्रयोजन अर जहां तहां धर्मको पोषै, ऐसे जैनपुराणादिक तिनविर्षे प्रसंग पाय श्रृंगारादिकका कथन किया, ताको सुने भी जो बहुत रागी भया, तो वह अन्यत्र। कहां विरागी होगा, पुराण सुनना छोड़ि और कार्य भी ऐसा ही करेगा, जहां बहुत रागादि होय । ताते वाकै भी पुराण सुनें थोरा बहुत धर्मबुद्धि होय तो होय और कार्यनितें यह कार्य भला ही है। बहुरि कोई कहै-प्रथमानुयोगविषै अन्य जीवनिको कहानी है, वाने
ना कहा प्रयोजन सधै है । ताको कहिर है
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समसामान्य
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• जैसे कामी पुरुषनिकी कथा सुनें आपके भी कामका प्रेम बधे हैं, तैसें धर्मात्मा पुरुषनिकी प्रकाश कथा सुनें आपके धर्मकी प्रीति विशेष बधे है । तातें प्रथमानुयोग का अभ्यास करना योग्य है । बहुरि केई जीव कहें हैं—करणानुयोग विषे गुणस्थान मार्गणादिकका वा कर्मप्रकृतिनिका कथन किया, वा त्रिलोकादिकका कथन किया, सो तिनकों जानि लिया 'यह ऐसें है' 'यह ऐसें हैं' वामें अपना कार्य कहा सिद्ध भया । के सौ भक्ति करिए, के व्रत दानादि करिए, कै आत्मानुभवन करिए, इनतें अपना भला होय । ताकौं कहिए है
परमेश्वर तौ वीरताग हैं । भक्ति किएं प्रसन्न होयकरि किछू करते नाहीं । भक्ति करते मंदकपाय हो है, ताका स्वयमेव उत्तम फल हो है । सो करणानुयोगकै अभ्यासविषै तिसतें भी अधिक मंद कषाय होय सके है, तातै याका फल उत्तम हो है । बहुरि बतदानादिक तौ कषाय घटावनेके बाह्य निमित्तका साधन है, कार चरणानुयोगका अभ्यास किएं तहां उपयोग लगि जाय, तब रागादिक दूरि होंय, सो यह अंतरंग निमित्तका साधन है । तातें यह विशेष कार्यकारी है । व्रतादिक धारि अध्ययनादि कीजिए है । बहुरि आत्मानुभव सर्वोत्तम कार्य है । परंतु सामान्य अनुभवविषै उपयोग भै नाहीं, पर न भै तब अन्य विकल्प होय । तहां करणानुयोगका अभ्यास होय, तौ तिस विचारविषै उपयोगको लगावें । यह विचार. वर्त्तमान भी रागादिक घटावे है । अर आगामी रागादिक घटावनेका कारण है । तातै यहां
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उपयोग लगावना । जीव कर्मादिकके नाना प्रकार भेद जानें, तिनविर्षे रागादिकरनेका प्रयोजन नाहीं, तातै रागादि बधै नाहीं । वीतराग होनेका प्रयोजन जहां तहां प्रगट है, तातै रांगादि । | मिटावनेर्को कारण है। यहां कोऊ कहै-कोई तो कथन ऐसा ही है, परंतु द्वीप समुद्रादिकके। योजनादि निरूपे, तिनमें कहा सिद्धि है । ताका उत्तर
तिनकों जानें किछ तिनविष इष्ट अनिष्ट बुद्धि न होय, तातें पूर्वोक्त सिद्धि हो है। बहुरि वह कहै है, ऐसे है, तो जिसते किछू प्रयोजन नाहीं, ऐसा पाषाणादिकों भी। जानें तहां इष्ट अनिष्टपनो न मानिए है, सो भी कार्यकारी श्या । ताका उत्तर____ सरागी जीव रागादि प्रयोजनविना काहूकों जाननेका उद्यम न करै । जो स्वयमेव उनका। जानना होय, तो अंतरंग रागादिकका अभिप्रायके बशकरि तहांते उपयोगकों छड़ाया ही चाहै है । यहाँ उद्यमकरि द्वीप समुद्रादिकौं जाने है, तहां उपयोग लगावै है । सो रागादि, घटें ऐसा कार्य होय । बहुरि पाषाणादिकविणे ईने लोकका कोई प्रयोजन भासि जाय, तों रागादिक होय आवै । अर द्वीपादिकविष इस लोक सम्बन्धी कार्य किछु नाहीं । ताते रागादिकका कारण नाहीं । जो स्वर्गादिककी रचना सुनि तहां राग होय, तो परलोकसंबंधी होय ।। ताका कारण पुण्यकौं जाने, तब पाप छोड़ि पुण्यविषै प्रवर्ड । इतना ही नफा होय । बहुरि द्वीपादिकके जाने यथावत् रचना भासे, त, अन्यमतादिकका कह्या झूठ भासे, सत्य श्रद्धानी
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| होय । बहुरि यथावत् रचना जान करि भ्रम मिटें उपयोगकी निर्मलता।होय, तातै यह। अभ्यास कार्यकारी है । बहुरि केई कहै हैं—करणानुयोगविष कठिनता धनी, तातें ताका अभ्यासविष खेद होय । ताकौं कहिए है
जो वस्तु शीघ्र जानने में आवे, तहां उपयोग उलझे नाही, अर जानी वस्तुको वारंवार जाननेका उत्साह होय नाहीं, तब पापकार्यनिविष उपयोग लगि जाय । तातें अपनी बुद्धि । अनुसार कठिनताकरि भी जाका अभ्यास होता जाने, ताका अभ्यास करना । अर जाका | अभ्यास होय ही सकै नाही, ताका कैसे करें । बहुरि तू कहै है-खेद होय, सो प्रमादी रहने में तो धर्म है नाही । प्रमादतें सुखिया रहिए, तहां तो पाप होय । तातै धर्मकै अर्थ उद्यम
करना ही मुक्त है । या विचार करणानुयोगका अभ्यास करना। , a बहुरि केई जीव कहै हैं—चरणानुयोगविष बाह्य व्रतादि साधनका उपदेश है, सो इनतें #किछ सिद्धि नाहीं । अपने परिणाम निर्मल चाहिए, बाह्य चाहो जैसे प्रवत्तौ । ताते या उप-11
देशते पराङ्मुख रहे हैं । तिनकों कहिए है-मात्मपरिणामनिकै और बाह्य प्रवृत्तिकै निमित्त । नैमित्तिक सम्बन्ध है । क्योंकि छद्मस्थके क्रिया परिणामपूर्वक हो है । कदाचित् विना परिणाम || है कोई क्रिया हो है, सो परवशते हो है । अपने उद्यमकरि कार्य करिए अर कहिए परिणाम इसरूप नाहीं है, सो यह भ्रम है । अथवा बाह्य पदार्थनिका आश्रय पाय परिणाम होय सके । ४१५
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हैं । तातै परिणाम मेटनेकै अर्थ बाह्यवस्तुका निषेध करना समयसारादिविषै कया है । इस ही वास्तै रागादिभाव घटे बाह्य ऐसे अनुकमतें श्रावक मुनिधर्म होय हैं । अथवा ऐसें श्रावक मुनिधर्म अंगीकार किएं पंचम षष्टम गुणस्थाननिविषे रागादि घटावनेरूप परिणामनिकी प्राप्ति होय है । ऐसा निरूपण चरणानुयोगविषै किया । बहुरि जो वाह्य संयमतें किछू सिद्धि न होय, सौ सर्वार्थसिद्धिके वासी देव सम्यग्दृष्टी बहुतज्ञानी तिनकै तौ चौथा गुणस्थान होय, अर गृहस्थ श्रात्रक मनुष्यकै पंचम गुणस्थान होय, सो कारण कहा । बहुरि तौर्थंकरादिक गृहस्थपद छोड़ि काहेको सयम ग्रहें । तातें यह नियम है -- बाह्य संयम साधनविना परिणाम निर्मल न होय सके हैं। तातै वाह्य साधनका विधान जाननेकौं चरणानुयोगका अभ्यास अवश्य किया चाहिए ।
बहुरि केई जीव कहें -- जो द्रव्यानुयोगविषै व्रतसंयमादि व्यवहारधर्मका हीनपना प्रगट किया है । सम्यग्दृष्टीके विषय भोगादिककौं निर्जराका कारण कया है । इत्यादि कथन सुनि जीव हैं, सो स्वच्छन्द होय पुण्य छोड़ि पापविषै प्रवतेंगे, तातै इनका बांचना सुनना युक्त नाहीं । ताकौं कहिए है— जैसें गर्दभ मिश्री खाएं मरै, तो मनुष्य तौ मिश्री खाना न छोड़ें । तैसें विपरीतबुद्धि अध्यात्मग्रंथ सुनि स्वच्छन्द होय, तौ विवेकी तौ अध्यात्मग्रंथनिका अभ्यास न छोड़े। इतना करें -जाक़ों स्वच्छंद होता जाने, ताकों जैसे वह स्वच्छंद न होय तैसें उपदेश दे ।
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वहुरि अध्यात्मग्रंथनिविष भी स्वच्छंद होनेका जहां तहां निषेध कीजिए है. ताते जो नीके। | तिनको सुनै, सो तो स्वच्छंद होता नाहीं । भर एक बात सुनि अपने अभिप्रायते कोऊ
स्वच्छंद होय, तो ग्रंथका तो दोष है नाहीं, उस जीवहींका दोष है । बहुरि जो झूठा | दोषकी कल्पनाकरि अध्यात्मशास्त्रका बांचना सुनना निषेधिये तो मोक्षमार्गका मूल | उपदेश तौ तहां ही है। ताका निवेध किएं मोदमार्गका निषेध होय । जैसें मेघवर्षा भए
वहुत जीवनिका कल्याण होय, अर काहकै उलटा टोटा पड़े तो तिसकी मुख्यताकरि मेघका | तो निषेध न करना । तैसें सभाविषै अध्यात्म उपदेश भएं बहुत जीवनिकों मोनमार्गकी
प्राप्ति होय अर काइके उलटा पाप प्रवत्त, तौ तिसकी मुख्यताकरि अध्यात्मशास्त्रनिका | तो निषेध न करना । बहुरि अध्यात्मग्रंथनिते' कोऊ खच्छंद होय, सो तो पहले भी मिथ्या| दृष्टी था, अब भी मियादृष्टी ही रह्या । इतना ही टोटा पड़े, जो सुगति न होय कुगति | होय । अर अध्यात्म उपदेश नहीं भएं बहुत जीवनिकै मोक्षमार्गकी प्राप्तिका अभाव होय,
सो यामें घने जीवनिका घना बुरा होय । तातें अध्यात्म उपदेशका निषेध न करना। बहुरि कोऊ कहै है-जो द्रव्यानुयोगरूप अध्यात्म उपदेश है, सो उत्कृष्ट है । सो ऊंची दशाकों प्रात होंय, तिनको कार्यकारी है, नीचली दशावालोकों तो व्रत संयमादिकका ही | उपदेश देना योग्य है । ताको कहिए है-जिनमतविर्षे तो यह परिपाटी हैं, जो पहले। ४४७
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सम्यक्त होय पीछे व्रत होय । सो सम्यक्त स्वपरका श्रद्धान भए होय, अर सो श्रद्धान द्रव्यानुयोगका अभ्यास किए होय । तातें पहले द्रव्यानुयोगकै अनुसार श्रद्धानकरि सम्यदृष्टी होय, पीछे चरणानुयोगकै अनुसार व्रतादिक धारि व्रती होय । ऐसें मुख्यपने तो नीचली दशाविषे ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है, गौणपनै जाकों मोक्षमार्गकी प्राप्ति होती || न जानिए, ताकों पहले कोई व्रतादिकका उपदेश दीजिए है । जाते ऊंची दयावालोंकों अध्यात्म उपदेश अभ्यास योग्य है, ऐसा जानि नीचलीदशावालोंकों तहांते। पराङ्मुख होना योग्य नाहीं । बहुरि जो कहोगे, ऊंचा उपदेशका स्वरूप नीचली दशावालोंकौं भासै नाहीं। ताका उत्तर--
और तो अनेक प्रकार चतुराई जा. अर यहां मुर्खपना प्रगट कीजिए, सो युक्त नाहीं । अभ्यास किएं स्वरूप नीके' भास है । अपनी बुद्धि अनुसार थोरा बहुत भासे, परंतु सर्वथा निरुद्यमी होनेकों पोषिए, सो तौ जिनमार्गका द्वेषी होना है। बहुरि जो कहोगे, अबार काम निकृष्ट है, तातें उत्कृष्ट अध्यात्मका उपदेशकी मुख्यता न करी । ताकौं कहिए । है, अबार काल साक्षात् मोक्ष होनेकी अपेक्षा निकृष्ट है, आत्मानुभवनादिककरि सम्यक्तादिकका होना अबार मनैं नाहीं । ताते' आरजानुभवनादिककै अर्थ द्रव्यानुयोगका अवश्य अभ्यास करना । सोई पाहुइविष ( मोक्षपाडुङमें ) कह्या है
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अजवि तिरयणसुद्धा अप्पाज्झाऊण जंति सुरलोये।
लोयंते देवत्तं तच्छ चुया णिब्बुदिं जंति ॥ ७७॥ याका अर्थ-अबहू त्रिकरणकरि शुद्ध जीव आत्माकों ध्यायकरि स्वर्गलोकवि प्राप्त हो हैं, वा लोकांतिकविषै देवपणो पावै हैं । तहांते च्युत होय मोक्ष जाय हैं । तातें इस | कालविषे भी द्रव्यानुयोगका उपदेश मुख्य चाहिए । बहुरि काई कहै है-द्रव्यानुयोगविषै। | अध्यात्मशास्त्र हैं, तहां खपरभेद विज्ञानादिकका उपदेश दिया, सो तो कार्यकारी भी।
घना और समझिमें भी शीघ्र आवै । परंतु द्रव्यगुणपर्यायादिकका वा अन्यमतके कहे तत्त्वादिकका निराकरणकरि कथन किया, सो तिनका अभ्यासते विकल्प विशेष होय । बहुत प्रयास किए जाननेमें आवै । तातें इनका अभ्यास न करना । तिनकौं कहिए।
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सम्म
सामान्य जाननेते विशेष जानना बलवान् है । ज्यों ज्यौं विशेष जाने त्यों त्यों वस्तुखभाव निर्मल भासे, श्रद्धान दृढ़ होय, रागादि घटे, तातै तिस अभ्या-1 सविर्षे प्रवर्त्तना योग्य है । ऐसें च्यास्यों अनुयोगनिविर्षे दोषकल्पनाकरि अभ्यासते पराङ्-1।
मुख होना योग्य नाहीं।
बहुरि ब्याकरण न्यायादिक शास्त्र हैं, तिनका भी थोरा बहुत अभ्यास करना । जात
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मो.मा.।। इनका ज्ञानविना बड़े शास्त्रनिका अर्थ भासे नाहीं । बहुरि वस्तुका भी स्वरूप इनकी पद्धति प्रकाश || जाने जैसा भासे, तैसा भाषादिककरि भासे नाहीं । ताते परंपरा कार्यकारी जानि इनका
भी अभ्यास करना । परंतु इनहीविषै फसि न जाना । किछु इनका अभ्यासकरि प्रयोजनभृत शास्त्रनिका अभ्यासविषै प्रवर्तना । बहुरि वैद्यकादि शास्त्र हैं, तिनतें मोक्षमार्गविणे किछु । प्रयोजन ही नाहीं । तातें कोई ब्यवहार धर्मका अभिप्रायतें बिनाखेद इनका अभ्यास होय। M] जाय, तो उपकारादि करना, पापरूप न प्रवर्त्तना । अर इनका अभ्यास न होय।।
तो मति होहु, विगार किछू नाहीं। ऐसें जिनमतके शास्त्र निर्दोष जानि तिनका उपदेश मानना । । अब शास्त्रनिविणे अपेक्षादिककों न जाने परस्पर विरोध भासे, नाका निराकरण की-10 जिए है । प्रथमादि अनुयोगनिकी आम्नायकै अनुसारि जहां जैसे कथन किया होय, तहाँ।
से जानि लेना अर अनुयोगका कथनतें अन्यथा आनि संदेह न करना। वैसे कहीं तौ निर्मल । सम्यग्दृष्टीहीके शंका कांक्षा विचिकित्साका प्रभाव कह्या, कहीं भयका आठवां गुणस्थान पर्यंत,
लोभका दशमा पर्यंत, जुगुप्साका आठवां पर्यंत उदय कह्या । तहां विरुद्ध न जानना । श्रद्धा-11 नपूर्वक तीब शंकादिकका सम्यग्दृष्टीके अभाव भया, अथवा मुख्यपर्ने सम्यग्दृष्टी शंकादि न करै, तिस अपेक्षा चरणानुयोगविषे शंकादिकका सम्यग्दृष्टीके अभाव कसा । बहुरि सूक्ष्मशक्ति ।
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मो.मा. अपेक्षा भयादिकका उदय अष्टमादि गुणस्थान पर्यंत पाईए हैं। तातकरणानुयोगविर्षे तहां प्रकाश पर्यंत तिनका सद्भाव कह्याः। ऐसे ही अन्यत्र जानना । पूर्व अनुयोगनिका उपदेशविधानविषे ।
कई उदाहरण कहे हैं, ते जानने, अथवा अपनी बुद्धिते समझि लेना । बहुरि एक ही अनुयोगविर्षे विविनाके वशते अनेकरूप कथन करिए है । जैसें करणानुयोगविषे प्रमादनिका सप्तम | गुणस्थानविषै प्रभाव कह्या, तहां कषाय प्रमादके भेद कहे । बहुरि तहां ही कषायादिकका । सद्भाव दशमदि गुणस्थान पर्यंत कह्या, तहां विरुद्ध न जानना । जातें यहां प्रमादनिविषे तो। जे शुभ अशुभ भावनिका अभिप्राय लिएं कषायादिक होय, तिनका ग्रहण है । सो सप्तम | गुणस्थानविय ऐसा अभिप्राय दूरि भया, तातै तिनका तहां अभाव कह्या । बहुरि सूक्ष्मादि
भावनिकी अपेक्षा तिनहीका दशमादि गुणस्थान पर्यंत सद्भाव कह्या है । बहुरि चरणानुयोग| विषै चोरी परस्त्री आदि सप्तव्यसनका त्याग प्रथम प्रतिमावि कह्या, बहुरि तहां ही तिनका।। । त्याग द्वितीय प्रतिमाविषे कह्या । तहां विरुद्ध न जानना । जाते सप्तव्यसनविषै तो चोरी
आदि कार्य ऐसें ग्रहे हैं, जिनकरि दंडादिक पावे, लोकविर्षे अतिनिंदा होय । बहुरि प्रतनिविर्षे । |चोरी आदि त्याग करनेयोग्य ऐसे कहे हैं, जे गृहस्थधर्मविर्षे विरुद्ध होय, वा किंचित् लोकनिय | होय । ऐसा अर्थ जानना । ऐसें ही अन्यत्र जानना । बहुरि नाना भावनिकी सापेक्षते एक है। ही भावकों अन्य अन्य प्रकार निरूपण कीजिए है। जैसे कहीं तौ महात्रतादिक चारित्रके। १५१
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प्रकाश
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मो.मा. भेद कहे, कहीं महावतादि होते भी द्रव्यलिंगीकौं असंयमी कह्या, तहां विरुद्ध न जानना ।
जाते सम्यग्ज्ञानसहित महावतादिक तौ चारित्र है, अर अज्ञानपूर्वक व्रतादिक भएं भी असंयमी ही है । बहुरि जैसे पंच मिथ्यात्वनिविषे भी विनय कह्या, अर बारह प्रकार तपनिविष भी विनय कह्या, तहां बिरुद्ध न जानना । जाते विनय करने योग्य नाही, तिनको भी | विनयकरि धर्म मानना, सो तो विनय मिथ्यात्व है अर धर्मपद्धतिकरि जे विनय करने योग्य | हैं, तिनका यथायोग्य विनय करना, सो विनय तप है । बहुरि जैसे कहीं तो अभिमानकी ।। । निंदा करी, कहीं प्रशंसा करी, तहां विरुद्ध न जानना । जाते मानकषायतें आपकों ऊंचा । | मनावनेकै अर्थ विनयादि न करें, सो अभिमान तौं निंद्य ही है, अर निर्लोभपनाते दीनता ।।
आदि न करै, सो अभिमान प्रशंसा योग्य है । बहुरि जैसे कहीं चतुराईकी निंदा करी, कहीं।। प्रशंसा करी, तहां विरुद्ध न जानना । जाते मायाकषायतै काहका ठिगनेक अर्थ चतुराई है। | कीजिए, सो तो निंद्य ही है अर विवेक लिएं यथासंभव कार्य करनेविषै जो चतुराई होय, सो | श्लाघ्य ही है । ऐसे ही अन्यत्र जानना । बहुरि एक ही भावकी कहीं तो उसतें उत्कृष्टभावकी
अपेक्षाकरि निंदा करी होय, अर कहीं तिसते हीनभावकी अपेक्षाकरि प्रशंसा करी होय, तहां । विरुद्ध न जानना । जैसे किसी शुभक्रियाको जहां निंदा करी होय, तहां तो तिसते उंची || शुभक्रिया वा शुद्धभाव तिनकी अपेक्षा जाननी, भर जहां प्रशंसा करी होय, तहां तिसते |
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मा.
प्रकाश
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नीची क्रिया वा अशुभदिया तिनकी अपेक्षा जाननी । ऐसे ही अन्यत्र जानना । बहुरि ऐसे ही काहू जीवकी उंचे जीवकी अपेक्षा निंदा करी होय, तहां सर्वथा निंदा न जाननी । काहूकी ।। नीचे जीवकी अपेक्षा प्रशंसा करी होय, तो सर्वथा प्रशंसा न जाननी । यथासंभव वाका गुण दोष जानि लैना । ऐसे ही अन्य व्याख्यान जिस अपेक्षा लिएं किया होय, तिस अपेक्षा । वाका अर्थ समझना । बहुरि एक ही शब्दका कहीं तो कोई अर्थ हो है, कहीं कोई अर्थ हो है, तहां प्रकरण पहिचानि पाका संभवता अर्थ जानना । जैसे मोक्षमार्गविष सम्यग्दर्शन कह्या । तहां दर्शन शब्दका अर्थ श्रद्धान है, अर उपयोगवर्णनविषै दर्शन शब्द का अर्थ सामान्य
ग्रहण मात्र है, अर इन्द्रियवर्णनविष दर्शन शब्द का अर्थ नेत्रकरि देखने मात्र है। बहुरि । जैसे सूक्ष्मवादरका अर्थ वस्तुनिका प्रमाणादिक कथनविर्षे छोटा प्रमाण लिएं होय, ताका नाम सूक्ष्म अर बड़ा प्रमाण लिएं होय, ताका नाम वादर, ऐसा अर्थ होय । अर पुद्गलस्कधादिका कथनविणे इंद्रियगम्य न होय, सो सूक्ष्म, इंद्रियगम्य होय सो वादर, ऐसा अर्थ है।। जीवादिकका कथनविषे ऋद्धि आदिका निमित्तविना स्वयमेव रुकै नाही, ताका नाम सूक्ष्म, रुकै।। ताका नाम वादर, ऐसा अर्थ है । वस्त्रादिक कथनविषे महीनताका नाम सूक्ष्म, मोटाका नाम बादर, ऐसा अर्थ है । करणानुयोगके कथनविर्षे पुद्गलस्कंधके निमित्तते रुकै नाही,
नाही, ताकनाम सूक्ष्म है अर रुक जाय ताका नाम वावर है । बहुरि प्रत्यक्ष शब्दका अर्थ लोक- ४५३
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.मा. काश
| व्यवहारविर्षे तौ इंद्रियनिकरि जाननेका नाम प्रत्यन है, प्रमाणभेदन्निविषै स्पष्ट ब्यवहार प्रतिभासकानाम प्रत्यक्ष है, आत्मानुभवनादिविष आपविषै अवस्था होय,, ताका नाम प्रत्यक्ष है। बहुरि जैसे मिथ्यादृष्टीकै अज्ञान कह्या, तहां सर्वथा ज्ञानका अभाव न जानना, सम्यग्ज्ञानके अभावते अज्ञान कह्या । बहुरि जैसे उदीरणा शब्द का अर्थ जहां देवादिककै उदीरणा न कही, | तहां तौ अन्य निमित्तत्तें मरण होय, ताका नाम उदीरणा है । अर दश करणनिका कथनविर्षे । उदीरणा करण देवायुकै भी कह्या। तहां तो ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य उदयावलीविर्षे दीजिए, | ताका नाम उदीरणा है। ऐसे ही अन्यत्र यथासंभव अर्थ जानना। बहुरि एक ही शब्द का पूर्व | । शब्द जोड़ें अनेक प्रकार अर्थ हो है । ॥ उस ही शब्दके अनेक अर्थ हैं । तहां जैसा
संभवे, तैसा अर्थ जानना । जैसें जीते' ताका नाम 'जिन" है । परंतु धर्मपद्धतिविषे कर्म| शत्रुको जीते, ताका नाम 'जिन' जानना। यहां कर्मशत्रु शब्द की पूर्व जोड़ें जो अर्थ होय, | सो ग्रहण किया अन्य न किया। बहुरि जैसे 'प्राण धारें' ताका नाम 'जीव' है। जहां । जीवन मरणका व्यवहार अपेक्षा कथन होय, तहां तो इन्द्रियादि प्राण धारे, सो जीव हैं। बहुरि द्रव्यादिकका निश्चय अपेक्षा निरूपण होय, तहां चैतन्यप्राणको धारै, सो जीव है ।। बहुरि जैसे समय शब्द के अनेक अर्थ हैं । तझं मात्माका नाम समय है, सर्व पदार्थनिका नाम समय है, कालका नाम समय है, समयमात्र कालका नाम समय है, शास्त्रका नाम
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प्रकाश
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समय है, मतका नाम समय है। ऐसे अनेक अर्थनिविषे जैसा जहां संभवे, तैसा तहां अर्थ || जान लेना । बहुरि कहीं तो अर्थ अपेक्षा नामादिक कहिए है, कहीं रुदिनपेक्षा नामादिक कहिए। है। जहां रूढ़िअपेक्षा नाम लिख्या होय, तहां वाका शब्दार्थ न ग्रहण करना । वाका रूदिरूप । अर्थ होय, सो ही ग्रहण करना । जैसे सम्यक्तादिककौं धर्म कह्या। तहां तो यह जीवकों उत्तम-1 स्थानविष धार है, ताते याका नाम सार्थक है । बहुरि धर्मद्रव्यका नाम धर्म कह्या, तहां। रूढ़ि नाम है । याका अक्षरार्थ न ग्रहणा । इस नाम धारक एक वस्तु है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना । ऐसें ही अन्यत्र जानना । बहुरि कहीं जो शब्दका अर्थ होता हो, सो तौ न ग्रहण | करना अर जहाँ जो प्रयोजगभूत अर्थ होय, सो ग्रहण करना । जैसे कही किसीका || अभाव कह्या होय, अर तहां किंचित् सद्भाव पाईए, तौ तहां सर्वथा अभाव न ग्रहण करना । किंचित् सद्भावकों न गिणि प्रभाव कहा है, ऐसा अर्थ जानना । सम्यग्दृष्टीकै रागा-| दिकका अभाव कह्या, तहां एसैं अर्थ जानना । बहुरि नोकषायका अर्थ तो यह,-'कषायका । विषेध' सो तो अर्थ न ग्रहण करना, पर यहां क्रोधादि सारिखे ए कषाय नाही, किंचित् कषाय हैं, तातै नोकषाय हैं। ऐसा अर्थ ग्रहण करना । ऐसें ही अन्यत्र जानना । बहुरि जैसे कहीं। कोई युक्तिकरि कथन किया होय, तहां प्रयोजन ग्रहण करना । समयसारका कलशाविषे यह कह्या-“धोबीका दृष्टान्तवत् परभावका त्यागकी दृष्टि यावत् प्रवृत्तिको न प्राप्त भई, तावत् यह।। ४५५
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मो.मा.
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प्रकाश
अनुभूति प्रगट भई" । सो यहां यह प्रयोजन है-परभावका त्याग होते ही अनुभूति प्रगट हो । है। लोकविर्षे काहूको श्रावते ही कोई कार्य भया होय, तहां ऐसे कहिए,-"जो यह आया ही। नाही, अर यह कार्य होय गया।" ऐसा ही यहां प्रयोजन ग्रहण करना । ऐसें ही अन्यत्र जानना । वहुरि जैसे प्रमाणादिक किछु कह्या होय, सोई तहां न मानि लेना, तहां प्रयोजन होय सो जानना । ज्ञानार्णवविषै ऐसा कह्या है-"अवार दोय तीन सत्पुरुष हैं।” सो नियमतें इतने ही नाहीं । यहां 'थोरे हैं' ऐसा प्रयोजन जानना । ऐसे ही अन्यत्र जानना । इस ही। रीति लिएं और भी अनेक प्रकार शब्ट्रनिके अर्थ हो हैं, तिनकों यथासंभव जानने । विपरीत अर्थ न जानना । बहुरि जो उपदेश होय, ताकौं यथार्थ पहिचानि जो अपने योग्य उपदेश होय, ताका अंगीकार करना । जैसे वैद्यकशास्त्रनिविषे अनेक औषदि कही हैं, तिनकों जाने, अर ग्रहण तिसहीका करै, जाकरि अपना रोग दूरि होय । आपके शीतका रोग होय, तो उष्ण || औषधिका ही ग्रहण करे, शीतल औषधिका ग्रहण न करै । यह भौरनिकों कार्यकारी है, ऐसा ।। जानै । तैसें जैनशास्त्रनिविषै अनेक उपदेश हैं तिनकौं जाने, अर ग्रहण तिसहीका करे, जाकरि अपना विकार दूरि होय । आपके जो विकार होय, ताका निषेध करनहारा उपदेशकों * दुःप्रशावललुप्तवस्तुनिचया विज्ञानशून्याशयाः विद्यन्ते प्रतिमन्दिरं निजनिजस्वार्थोद्यता देहिनः। आनन्दामृतसिन्धुशीकरच निर्धाप्य जन्मज्वरं ये मुक्तर्षद तुषीक्षणपपस्ते सन्ति वित्रा यदि ॥२४॥ [शानार्णव, पृष्ठ-]
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प्रो.मा.
अफारा
ग्रह, तिसका पोषक उपदेशकों न ग्रहै । यह उपदेश औरनिकों कार्यकारी है, ऐसा जाने । यहां उदाहरण कहिए है - जैसे शास्त्रविषै कहीं निश्श्रयपोषक उपदेश है, कहीं व्यवहारपोषक उपदेश है। तहां आपके व्यवहारका आधिक्य होय, तौ निश्चयपोषक उपदेशका ग्रहण करि यथावत् प्रवर्ते, अर आपके निश्चयका अधिदय होय, तो व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् । बहुरि पूर्वे तो व्यवहारश्रद्धानतै श्रमज्ञान्तै भ्रष्ट होय रह्या था, पीछे व्यव हारउपदेशही की मुख्यताकरि आत्मज्ञानका उद्दम न करें, अथवा पूर्वे तो निश्चयश्रद्धान वैराग्यतै भ्रष्ट होय स्वच्छ द होय रह्या था, पीछे निश्चय उपदेशही की मुख्यताकरि विषयकषाय पोषै । ऐसे विपरीत उपदेश हें बुरा ही होय । बहुरि जैसें श्रात्मानुशासन विषै ऐसा कला - "जो 'तू गुणवान् होष, दोष क्यों छ.ग. वे है। दोषवान् होना था, तो दोषमय ही क्यों न भया ।" सो जो जीव आप तो गुणवान् होय अर कोई दोष लगता होय, तहां दोष दूर करने के अर्थ तिस उपदेश को अंगीकार करना । बहुरि आप तौ दोषवान् होय, अर इस उपदेशका ग्रहणकरि गुणवान् पुरुषनिकों नीचा दिखावै, तो बुरा ही होय । सर्व दोषमय होते तो किंचित् दोषरूप होना बुरा नाहीं है । तातै तुम तो भला है । बहुरि यहां यह
१ हे चन्द्रमः किमिति नानभूरत्वं तद्वान् भोः किमिति तन्मय एा नाभूः । किं
नाम तव घोषयन्त्या स्वर्भानु न तथा सनिनादयः ॥ १४१ ॥
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मो.मा. रण-जैसे पाप मेटनेक अर्थ प्रतिक्रमणादि धर्मकार्य कहे, बहुरि आत्मानुभव होते प्रतिक्रमप्रकाश
णादिकका विकल्प करै, तो उलटा विकार बधै, याहीते समयसारविषै प्रतिक्रमणादिकौं विष किया है । यहुरि जैसे अवतीके करने योग्य प्रभावनादि धर्मकार्य कहे, तिनकों प्रती होयकरि 12 करे, तो पाप ही बांधे । व्यापारादि आरंभ छोड़ि चैत्यालयादि कार्यनिका अधिकारी होय, सो 1 कैसे बने । ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि जैसे पाकादिक औषधि पुष्टकारी हैं, परन्तु | ६. ज्वरवान् ग्रहण करें, तो महादोष उपजे । तैसें ऊंचा धर्म बहुत भला है, परंतु अपने विकार-18
भाव दूरि न होय,अर ऊंचा धर्म ग्रहै, तौ महादोष उपजै । यहां उदाहरण-जै अपना अशुभविकार न छट्या, अर निर्विकल्पं देश की अंगीकार करें, तो उलटा विकार वधै । जैसें ध्यापारादि करनेका विकार तो न छुट्या अर त्यागकाभेषरूप धर्म अंगीकार करें, तो महादोष उपजे। बहुरि जैसे भोजनादि विषयनिविषै आसक्त होय अर आरंभत्यागादि धर्मकों अंगीकार करे, तो घुराई ही होय । ऐसे ही अन्यत्र जानना । याही प्रकार और भी सांचा विचारते उपदेशकों यथार्थ जानि अंगीकार करना । बहुरि विस्तार कहांताई करिए । अपनैं सम्पज्ञान भए श्रापहीकों यथार्थ भासै । उपदेश तो वचनात्मक है । बहुरे वचनकरि अनेक अर्थ युगपत् कहे जाते हैं नाहीं । ताते उपदेश तो एक ही अर्भकी मुख्यता लिएं हो है । बहुरि जिस अर्थका जहां वर्णन है, तहां तिसह की मुख्यता है । दूसरे अर्थकी तहां ही मुख्यता करें, तो दोऊ उपदेश दृढ़ न
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मो.मा होय । ताते उपदेशविर्षे एक अर्थको मुड़ करें। परंतु सर्व जिनमतका चिंह स्थाद्वाद है। प्रकाश
सो 'स्यात्' पदका अर्थ 'कथंचित्' है । ताते उपदेश होय ताको सर्वथा न जानि लेना। उप-10 देशका अर्थकों जानि तहां इतना विचार करना, यह उपदेश किस प्रकार है,किस प्रयोजन लिएं है, किस जीवको कार्यकारी है । इत्यादि विचार करि तिस अर्थका ग्रहण करे, पीछे अपनी दशाविषे जो उपदेश जैसे आपको कार्यकारी होय, तिसको तेसे आप अंगीकार करें । अर जो उपदेश आनने योग्य ही होय, तौ ताकी यथार्थ नानि ले । ऐसें उपदेशकी फलको
पावे । यहां कोई कहे--जो तुच्छबुद्धि इतना विचार न करि सके, सो कहा करै । Hताका उत्तरम जैसे व्यापारी अपनी बुद्धि के अनुसार जिसमें समझ, सो थोरा वा बहुत व्यापार
को। परंतु नफा टोटाका ज्ञान तो अवश्य चाहिए। तैसे विवेकी अपनी बुद्धिके अनुसारि । जिप्समें समझे, सो थोरा वा बहुत उपदेशकों है, परंतु मुझकी यह कार्यकारी है, यह कार्यकारी नाही, इतना तो ज्ञान अवश्य चाहिए । सो कार्य तो इसना है-यथार्य श्रद्धानज्ञानकरि रागादि घटावना । सो यह कार्य अपने सधे, सोई उपदेशका प्रयोजन । है । विशेष ज्ञान न होय, तो प्रयोजनकों, तो भूले नाहीं । यह तो सावधानी अवश्य । चाहेए । जिसमें अपना हितकी - हानि होय, ते उपदेशका अर्थ समझाना
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मा.मा. योग्य नाहीं । या प्रकार स्याद्वाददृष्टि लिएं जैमशास्त्रनिका अभ्यास किएँ अपना कल्याप्रकाश हो
- यहां कोई प्रश्न करे-जहां अन्य अन्य प्रकार न संभवे, तहां तो स्याद्वाद संभवे । बहुरि एक ही प्रकारकरि शास्त्रनिविणे विरुद्ध भास, तहां कहा करिए । जैसें प्रथमानुयोग
विर्षे एक तीर्थकरकी साथि हजारों मुक्ति गए बताए, करणानुयोगविर्षे छह महीना आठस: मयविषै छसै पाठ जीव मुक्ति जाय, ऐसा नियम किया । प्रथमानुयोगविर्षे ऐसा कथन
किया-देव देवांगना उपजि पीछे मरि साथि ही मनुष्यादि पर्यायविषे उपजे । करणा
नुयोगविष देवका सागरों प्रमाण देवांगनाका पल्यों प्रमाण आयु कह्या । इत्यादि विधि । कैसे मिले। ताका उत्तर
करणानुयोगविणे कथन है, सो तो तारतम्य लिएं है । अन्य अनुयोगनिविणे कथन | प्रयोजन अनुसारि है । तातें करणानुयोगका कथन तो जैसे किया है, तैसें ही है । औरनिका कथनकी जैसे विधि मिले, तैसें मिलाय लेनी । हजारों मुनि तीर्थंकरकी साथि मुक्ति। गए बताए, तहां यह जानना-एक ही काल इतने मुक्ति गए नाहीं ! जहां तीर्थकर गमनादि क्रिया मेटि स्थिर भए, तहां तिनकी साथ इतने मुनि तिष्ठे, बहुरि मुक्ति आगे पीछे गए । ऐसें प्रथमानुयोम करणानुयोगका विरोध दूरि हो है । बहुरि देव देवांगना साथि
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मोमा.
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उपजे, पीछे देवांगना चयकरि बीचमें अन्य पर्याय धरै, तिनका प्रयोजन न जानि कथन किया। पीछे वह साथि मनुष्य पर्यायविष उपजे, ऐसे विधि मिलाएं विरोध दूरि हो है । ऐसें ही अन्यत्र विधि मिलाय लेनी । बहुरि प्रश्न--जो ऐसे कथननिविर्षे भा कोई प्रकार विधि निलै । परंतु कहीं नेनिनाथ खामीका सौरीपुरविषे कही द्वारावतीविषे जन्म कह्या, | रामचंद्रादिककी कथा अन्य अन्य प्रकार लिखी। एकेन्द्रियादिकों कहीं सासादन गुणस्थान लिख्या, कहीं न लिख्या, इत्यादि इन कथननिकी विधि कैसे मिले । ताका उत्तर
ऐसे विरोध लिएं कथन कालदोषते भए हैं। इस कालविणे प्रत्यक्ष ज्ञानी वा बहुश्रुत|निका तो अभाव भया, अर स्तोकबुद्धि ग्रंथ करनेके अधिकारी भए। तिनके भ्रमतें कोई अर्थ अन्यथा भासे, ताकौं तैसें लिखें, अथवा इस कालविर्षे कई जैनमतविष भी कषायी भए हैं, सो तिनने कोई कारण पाय अन्यथा कथन लिख्या है । ऐसें अन्यथा कथन भया, ताते जैन शास्त्रनिविणे विरोध भासने लागा। सो जहां विरोध भासे, तहां इतना करना कि, इस कथन करनेवाले बहुत प्रमाणीक हैं कि, इस कथन करनेवाले बहुत प्रमाणीक हैं । ऐसा विचारकरि बड़े आचार्यादिकनिका कह्या कथन प्रमाण करना । बहुरि जिनमतके | बहुत शास्त्र हैं, तिनहीकी आम्नाय मिलावनी । जो परंपराआम्नायतें मिले, सो कथन प्रमाण करना । ऐसें विचार किएं भी सत्य असत्यका निर्णय न होय स+, तो जैसें केवलीकों भास्या
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, तेलें प्रमाण है, ऐसे मान लेना । जाते देवादिकका वा तत्वनिका निर्धार भए विना तो मोबमार्ग होय न हो । तिनिका तो निर्धार भी होय सकै है, सो कोई इनिका स्वरूप विरुद्ध कहै, तो आपहीकों भासि जाय । बहुरि अन्य कथनका निर्धार न होय, वा संशयादि रहै, वा अन्यथा जानपना होय जाय, अर केवल का कह्या प्रमाण है, ऐसा श्रद्धान रहै, तो | मोबनार्ग वेषै विन नाही, ऐता जानना । इहां कोई तर्क करे-जैसैं नाना प्रकार कथन जिनमतविषे कया, तैसें अन्यमन वे भी कथन पाईए है, सो तुम्हारे मतके कथनका तो तुमे तिस जिस प्रकार स्थापन किया, अन्यमतविष ऐसे कथनकों तुम दोष लगावो हो, सो यह तुम्हारै रागद्वेष है । ताका समाधान
कथन तो नाना प्रकार होय और प्रयोजन एकही हौं पोष, तो कोई दोष है नाहीं। |अर कहीं कोई प्रयोजन पोष, कहीं कोई प्रयोजन पोषे, तो दोष ही है । सो जिनमतविष | तो एक प्रयोजन रागादि मेटनेका है, सो कहीं बहुत रांगादि छुड़ाय थोरा रागादि कराबनेका प्रयोजन पोया है, कहों सर्व रागादि छावनेका प्रयोजन पोप्या है। परंतु रागादि | बधावनेका प्रयोजन कहीं भी नाहीं । तातै जिनमतका कथन सर्व निर्दोष है । अर अत्यमतविषे कहीं रागादि मिटावनेके प्रयोजन लिएं कथन करें, कहीं रागादि बधाधनेका प्रयोमन लिएं कथन करें । ऐसे ही और भी प्रयोजनकी विरुद्धता लिए कयन करें हैं । ताते
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अम्मत का कथन सदोष है । लोकविषै भी एक प्रयोजनको पोपते नाना वचन कहै, ताक प्रमाणीक कहिए है। अर प्रयोजन और और पोपती बात करें, ताक बाघला कहिए है । बहुरि जिनमतविषै नाना प्रकार कथन हैं, सो जुदी जुदी अपेक्षा लिए है, तहां दोष नाहीं । अन्यमतविषे एक ही अपेक्षा लिए अन्य कथन करें, तहां दोष है । जैसें जिनदेवके वीतरागभाव हैं, अर समवसरणादि विभूति पाइए है, तहां विरोध नाहीं । समवसरणादि विभूतिकी रचना इंद्रादिक करे हैं, इनके तिसविषै रागादिक नाहीं, तातै दोऊ बातें संभव हैं । अर अन्यमतिविषै ईश्वरकों साक्षीभूत वीतराग भी कहैं, अर तिसहीकर किए काम क्रोधादि भाव निरूपण करें, सो एक ही आत्मा के वीतरागपनौ अर काम क्रोधादि भाव कैसें संभवें । ऐसें ही अन्य जानना । बहुरि कालदोषतैं जिनमतविषै एक ही प्रकारकरि कोई कथन विरुद्ध लिख्या है, सो यह तुच्छ बुद्धीनिकी भूलि है, किछू मतविषै दोष नाहीं । सो भी जिनमतका अतिशय इतना है कि, प्रमाणविरुद्ध कोई कथन कर सकै नाहीं । कहीं सौरीपुरविषै कहीं द्वारावतीविषै नेमिनाथ स्वामीका जनम लिख्या है, सो कोठे ही होहु, परंतु नगरविषै जनम होना प्रमाणविरुद्ध नाहीं । अब भी होता दीसैं है ।
" बहुरि अन्यमतविषै सर्वज्ञादि यथार्थ ज्ञानीके किए ग्रंथ बतावें, बहुरि तिनिविषै परस्पर बिरुद्ध भासे । कहीं तौ बालब्रह्मचारीकी प्रशंसा करें, कहीं कहें " पुत्रविना गति ही होय नाहीं" सो दोऊ सांचा कैसे होय । सो ऐसे कथन तहां बहुत पाइए हैं । बहुरि प्रमाणविरुद्ध कथन तिनविषै पाइए है। जैसे वीर्य मुखविषै पड़नेते मछलीकै पुत्र हूवो, सो ऐसें अवार
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मो.मा. प्रकाश
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काहकै होना दीसे नाहीं । अनुमानतें मिले नाहीं । सो ऐसे भी कथन बहुत पाइए है। यहां सर्वज्ञादिककी भूलि मानिए, सो तो कैसे भूलै । अर विरुद्ध कथन मानने में आवै नाहीं। तातै तिनिके मतविषै दोष ठहराइए है । ऐसा जानि एक जिनमतका ही उपदेश ग्रहण करने योग्य है। तहां प्रथमानयोगादिकका अभ्यास करना। तहां पहिले याका अभ्यास करना, पीछे याका करना, ऐसा नियम नाहीं। अपने परिणामनिकी अवस्था देखि जिसके अभ्यासतें अपने धर्मविषै प्रवृत्ति होय, तिसहीका अभ्यास करना । अथवा कदाचित् किसी शास्त्रका अभ्यास करे, कदाचित् किसी शास्त्रका अभ्यास करै । बहुरि जैसे रोजनामाविषै तौ | अनेक रकम जहां तहां लिखी है, तिनकों खातेमें ठीक खतावै, तो लैना दैनाका निश्चय होय । तैसे शास्त्रनिविषै तौ अनेक प्रकारका उपदेश जहां तहां दिया है, ताकौं सम्यग्ज्ञानविषै यथार्थ प्रयोजन लिएं पहिचान, तौ हित अहितका निश्चय होय । तातै स्यात्पदकी सापेक्ष लिएं सम्यग्ज्ञानकरि जे जीव जिनवचनविषै रमै हैं, ते जीव शीघ्र ही शुद्ध आत्मस्वरूपों प्राप्त हो हैं । मोक्षमार्गविर्ष पहिला उपाय आगमज्ञान कह्या है। आगमज्ञान बिना और धर्मका साधन होय सकै नाहीं । तातें तुमकौं भी यथार्थबुद्धिकरि आगम अभ्यास करना । तुम्हारा कल्याण होगा। इति श्रीमोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्रमध्ये उपदेशखरूप प्रतिपादक नामा
आठवां अधिकार पूरण भया ।
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मो.मा.
. अथ मोक्षमार्गका स्वरूप कहिए हैप्रकाश
दोहा। शिवउपाय करतें प्रथम, कारन मंगलरूप ।
विघनविनाशक सुखकरन, नौं शुद्ध शिबभूप ॥ १ ॥ पहिले मोचमार्गके प्रतिपक्षी मिथ्यादर्शनादिक तिनिका खरूप दिखाया । तिनिकों ।। तो दुःखरूप दुःखका कारन जानि हेय मानि तिनिका त्याग करना । बहुरि बीचमें उपदेशका स्वरूप दिखाया । ताको जानि उपदेशको यथार्थ समझना । अब मोक्षके मारग सम्यग्दर्शनादिक तिनिका स्वरूप दिखाइए है । इनिकों सुखरूप सुखका कारण जानि उपादेय मानि | अंगीकार करना । जाते आत्माका हित मोक्ष ही है । तिसहीका उपाय आत्माकों कर्तव्य | है। तातें इसहीका उपदेश इहां दीजिए है । तहां आत्माका हित मोक्ष ही है और नाहीं । ऐसा निश्चय कैसे होय, सो कहिए है-- ___आत्माके नाना प्रकार गुणपर्यायरूप अवस्था पाइए है । तिनविषै और तो कोई अव
स्था होहू, किछू आत्माका विगाड़ सुधार नाहीं। एक दुखसुखअवस्थातें बिगाड़ सुधार है। । सो इहां किछू हेतु दृष्टांत चाहिए नाहीं । प्रत्यक्ष ऐसे ही प्रतिभास है । लोकविर्षे जेते |
आत्मा हैं, तिनिकै एक उपाय यह पाइए है-दुख न होय सुख ही होय । बहुरि अन्य उपाय ||१६७
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मो.मा.|| जेते करें हैं, सेते एक इस ही प्रयोजन लिएं करें हैं, दूसरा प्रयोजन नाहीं । जिनके निमित्तते ।। प्रकाश | 1 दुख होता जाने, तिनिकों दूरकरनेका उपाय करै । अर जिनके निमित्ततें सुख होता जाने,
तिनिके होनेका उपाय करै है। बहुरि संकोच विस्तार आदिक अवस्था भी आत्माके हो हैं, वा अनेक परद्रव्यका भी संयोग मिले है। परंतु जिनते सुख दुख होता न जाने, तिनके दूर करनेको वा होनेका कुछ भी उपाय कोऊ करै नाहीं । सो इहां आत्मद्रव्यका । ऐसा हो स्वभाव जानना । और तो सर्व अवस्थाकों सहि सके, एक दुखकों सह सकता। नाहीं । परवरा दुख होय तो यह कहा करे, ताको भोगवै, परन्तु स्ववशपनै तौ किंचित भी। । दुःखकों न सहै । अर संकोच विस्तारादि अवस्था जैसो होय, तेसी होय, तिसकों खव
शपने भी भोगवे, सो खभावविषै तर्क नाहीं । आत्माका ऐसा ही खभाव जानना । देखो, दुःखी होय तब सूता चाहै, सो सोवनेमें ज्ञानादिक मंद हो जाय हैं, परन्तु जड़सारिखा
भी होयं दुखकों दूर किया चाहै है, वा मूत्रा चाहै । सो मरनेमें अपना नाश मान है, | परन्तु अपना अस्तित्व खोकर भी दुःख दूर किया चाहै है । ताते एक दुखरूप पर्यायका अभाव करना ही थाका कर्तव्य है । बहुरि दुःख न होय, सो ही सुख है । सो यह भी प्रत्यक्ष भासे है। बाह्य कोई सामग्रीका संयोग मिलें जाके अंतरंगविणे आकुलता है, सो दुखी ही है। जाकै आकुलता नाहीं, सो सुखी है । बहुरि माकुलता हो है, सो रागादिक
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मो.मा. प्रकाश
कपायभाव भएं हो है। जाते रागादि भावनिकरि यह तो द्रव्यनकों और भांति परिणमाया ।। चाहै, अर वै द्रव्य और भांति परिणमें, तब याकै आकुलता होय । तहां के तो आपके | रागादिक दूर होंय, के आप चाहै तैसें ही सर्वद्रव्य परिणमें तौ आकुलता मिटै । सो सर्व द्रव्य तो याकै आधीम नाहीं । कदाचित् कोई द्रव्य जैसी याकी इच्छा होय, तैसें ही परिणमें, | तो भी याकी सर्वथा आकुलता दुरि न होय । सर्व कार्य याक चाह्या ही होय, अन्यथा न होय, तब यह निराकुल रहै । सो यह तो होय ही सके नाही । जातें कोई द्रब्यका परिणमन कोई द्रब्यके आधीन नाहीं । तातै अपने रागादि भाव दूरि भएं निराकुलता होय, सो] | । यह कार्य बनि सके है । जाते रागादिक भाव आत्माका स्वभाव भाव तो है नाहीं । उपाधिक | भाव हैं, परनिमित्ततें भएं हैं, सो निमित्त मोहकर्मका उदय है । ताका अभाव भएं सर्व | रागादिक विलय होय जांय, तब आकुलताका नाश भएं दुख दूरि होय, सुखकी प्राप्ति होय । तातै मोहकर्मका नाश हितकारी है । बहुरि तिस आकुलताको सहकारी कारण ज्ञानावर- | णादिकका उदय है । ज्ञानावरण दर्शनावरणके उदयतै ज्ञानदर्शन संपूर्ण न प्रगटै है, ताते | याकै देखने जाननेकी आकुलता होय, अथवा यथार्थ संपूर्ण वस्तुका स्वभाव न जाने, तब रामादिरूप होय प्रवर्ते, तहां आकुलता होय । बहुरि अंतरंगके उदयते इच्छानुसार दानादि कार्य न बने, तब आकुलता होय । इनका उदय है, सो मोहका उदय होते आकुलताको || ४६६
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.मा.
काश
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सहकारी कारण है । मोहके उदयका नाश भएं इनिका बल नाहीं । अंतर्मुहूर्त्तकरि भापो |
आप नाशकौं प्राप्ति होंय । परंतु सहकारी कारण भी दूरि होइ जाय, तव प्रगटरूप निराकुल । दशा भासे । तहां केवलज्ञानी भगवान् अनंतसुखरूप दशाकों आम कहिए । बहुरि अघाति कर्मनिका उदयके निमित्त शरीरादिकका संयोग हो है, सो मोहकर्मका उदय होते। शरीरादिकका संयोग आकुलताकौं बाह्य सहकारी कारण है । अंतरंग मोहका उदयते रागा-| दिक होय भर बाह्य अघाति कर्मनिके उदयते रागादिककौं कारण शरीरादिकका संयोय होय, तब आकुलता उपजै है । बहुरि मोहका उदय नाश भए भी अघातिकर्मका उदय रहै है, सो किछू भी आकुलता उपजाय सकै नाहीं । परंतु पूर्व आकुलताका सहकारि कारण | था, तातै अघाति कर्मनिका भी नाश आत्माकों इष्ट ही है । सो केवलीकै इनिके होते किछ दुख नाहीं । तातै इनका नाशका उद्यम भी नाही परंतु मोहका नाश भए ए कर्म आ | आप थोरे ही कालमें सर्व नाशकों प्राप्त होय जाप हैं । ऐसें सर्व कर्मका नाश होना | आत्माका हित है । बहुरि सर्व कर्मका नाशहीका नाम मोक्ष है । तातें आत्माका हित एक मोक्ष ही है-और किछु नाहीं, ऐसा निश्चय करना । इहां कोऊ कहै-संसार दशाविषै पुण्यकर्मका उदय होते भी जीव सुखी हो है, तातें केवल मोक्ष ही हित है, ऐसा काहेको कहिए । ताका समाधान-.
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1. संसारदशाविषै सुख तो सर्वथा है ही नाही, दुख ही है । परंतु काहूकै कबहू बहुत दुख प्रकाश || हो है, काहूकै कबहू थोरा दुख हो है । सो पूर्व बहुत दुख था, वा अन्य जीवनिकै बहुत दुख
पाइए है, तिस अपेक्षा थोरे दुखवालेकौं सुखी कहिए । बहुरि तिस ही अभिप्रायतै थोरे | दुखवाला आपकौं सुखी माने है । परमार्थतें सुख है नाहीं । बहुरि जो थोरा भी दुख सदा | काल रहे है, तो वाकों भी हित ठहराइए, सो भी नाहीं । थोरे काल ही पुण्यका उदय रहै,M तहां थोरा दु - हो है, पीछे बहुत दुख हो जाय । तातें संसार अवस्था हितरूप नाहीं । जैसें || काहूकै विषम ज्वर है, ताकै कबहू असाता बहुत हो है, कबहू थोरी हो है । थोरी असाता || होय, तब वह भापकों नीका माने । लोक भी कहें-नीका है । परंतु परमार्थतें यावत् ज्वरका || सद्भाव है, तावत् नीका नाहीं है । तैसें संसारीकै मोहका उदय है । ताके कबहू भाकुलता, बहुत हो है, कबहू थोरी हो है । थोरी आकुलता होय, तब वह आपकों सुखी माने, लोक भी। कहें-सुखी है । परमार्थ यावत् मोहका सद्भाव हैं, तावत् सुखी नाहीं । बहुरि संसार दशाविषै भी आकुलता घटे सुखी नाम पावै है । आकुलता बधे दुखी नाम पावै है । किछू बाह्य । सामग्रीत सुख दुख नाहीं। जैसें काहू दरिद्रीकै किंचित् धनकी प्राप्ति भई । तहां किछु | आकुलता घटनेते वाकों सुखी कहिए अर वह भी आपकौं सुखी माने । बहुरि काहू बहुत | धनवान्कै किंचित् धनकी हानि भई, तहां किछू आकुलता बधनेते वाकौं दुखी कहिए । अर ४७१
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| वह भी आपकों दुखी माने है । ऐसे ही सर्वत्र जानना । बहुरि आकुलता घटना बधना भी बाह्य सामग्रीके अनुसार नाहीं । कषाय भावनिकै घटने वधनेके अनुसार है । जैसे काहूके थोरा धन है अर वाकै संतोष है, तो वाकै भाकुलता थोरी है । बहुरि काहूकै बहुत धन है, अर वाकै तृष्णा है, तो वाके आकुलता घनी है । बहुारे काहकों काहूनै बहुत बुरा कह्या, अर वाकै थोरा क्रोध न भया, तो आकुलता न हो है । अर थोरी बातें कहे ही क्रोध होय आवै,। | तो वाकै अकुलता घनी हो है । बहुरि जैसें गऊकै बछड़े किछु भी प्रयोजन नाहीं । परंतु ।। | मोह बहुत, ताते वाकी रक्षा करनेकी बहुत आकुलता हो है । बहुरि सुभटकै शरीरादिकते ।। | घने कार्य सधै हैं, परंतु रणविषे मानादिककरि शरीरादिकतें मोह घटि जाय, तब मरनेकी भी थोरी आकुलता हो है । तातें ऐसा जानना-संसार अवस्थाविर्षे भी आकुलता. घटने. वधने-11 हीते सुखदुख मानिए है । बहुरि आकुलताका घटना बधना रागादि कषाय घटने बधनेके || अनुसार है। बहुरि परद्रव्यरूप बाह्य सामग्रीके अनुसार सुख दुख नाहीं। कषाय याकै ।। इच्छा उपजै, अर याकी इच्छा अनुसारि बाह्य सामग्री मिले, तब याका किछू कषाय उपश| मने पाकुलता घटै, तब सुख मान । अर इच्छानुसार सामग्री न मिले, तव कषाय वधनेते
आकुलता बधे, तब दख माने । सो है तो ऐसे, अर यह जाने-मोकू परद्रव्यके निमित्तते 1] सुख दुख हो है । सो ऐसा जानमा भ्रम ही है । ताते' इहां ऐसा विचार करना, जो संसार ४७२
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अवस्थाविर्षे किंचित् कषाय घटें सुख मानिए, ताको हित जानिए, तो जहां सर्वथा कषाय || दूर भएं वा कषायके कारण दूरि भएं परम निराकुलता होने करि अनंत सुख पाइए, ऐसी मोनमवस्थाकों कैसें हित न मानिए । बहुरि संसार अवस्थाविर्षे उच्च पदकों पावै, तो भी के तौ विषयसामग्री मिलावनेकी आकुलता होय, के विषयसेवनकी आकुलता होय, कै और कोई ।। क्रोधादि कषातै इच्छा उपजे, ताकौं पूरण करनेकी आकुलता होय, कदाचित् सर्वथा निराकुल होय सकै नाहीं । अभिप्रायविषे तो अनेकप्रकार आचलता बनी ही रहै । अर बाह्य कोई आकुलता मेटनेके उपाय करे, सो प्रथम तो कार्य सिद्ध होय नाहीं । अर जो भवितव्य योगते यह कार्य सिद्ध होय जाय, तो सत्काल और आकुनता मेटनेका उपायविषै लागे । ऐसें आकु| लता मेटनकी आकुलता निरंतर रह्या करै । जो ऐसी आकुलता न रहै, तो नये नये विषय| सेवनादि कार्यनिविर्षे काहेकों प्रवर्ते है । तातै संसार अवस्थाविषे पुण्यका उदयते इंद्र । अहमिंद्रादि पदको पावै, तो भी निराकुलता न होय, दुःखी ही रहै । ताते' संसारअवस्था | हितकारी नाहीं।
बहुरि मोक्ष अवस्थाविषै कोई प्रकारकी आकुलता रहीं नाहीं, तातै आकुलता मेटनेका । | उपाय करनेका भी प्रयोजन नाहीं । सदा काल शांतरसकरि सुखी रहे है । तातै मोक्षअवस्था हो हितकारी है । पूर्व भी संसार अवस्थाका दुखका अर मोच अवस्थाका सुखका विशेष ४७३
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मो.मा. A वर्णन किया है, सो इसही प्रयोजनके अर्थि किया है। तार्को भी विचारि मोक्षका उपाय ।। প্রামা करना । सर्व उपदेशका तात्पर्य इतना है । इहां प्रश्न-जो मोक्षका उपाय काललब्धि आए
भवितव्यानुसारि बने है, कि मोहादिकका उपशमादि भए बने है, अथवा अपने पुरुषार्थ उद्यम किए वनै है, सो कहो । जो पहिले दोय कारण मिले बने है, तो हमकों उपदेश काहेको दीजिए है । अर पुरुषार्थ बने है, तो उपदेश सर्व सुने, तिनविर्षे कोई उपाय कर सके, कोई न करि सकै, सो कारण कहा। ताका समाधान____ एक कार्य होनेविषे अनेक कारण मिले हैं । सो मोक्षका उपाय बने है, तहां तो पूर्वोक्त तीनों ही कारण मिले हैं । अर न बने है, तहां तीनों ही कारण न मिले हैं। पूर्वोक्त तीन कारण कहे, तिनविषै काललब्धि वा होनहार तौ किछु वस्तु नाहीं । जिस कालविर्षे कार्य वनै,
सोई काललब्धि और जो कार्य भया सोई होनहार । बहुरि कर्मका उपशमादिक है, सो पुद्गलकी । शक्ति है । ताका आत्मा कर्ता हर्त्ता नाहीं। बहुरि पुरुषार्थत उद्यम करिए है, सो यह आत्माका
कार्य है । तातें आत्माको पुरुषार्थकरि उद्यम करनेका उपदेश दीजिए है । तहां यह आत्मा जिस कारणनै कार्यसिद्धि अवश्य होय, तिसकारणरूप उद्यम करे, तहां तों अन्य कारण
मिले ही मिलें, अर कार्यकी भी सिद्धि होय ही होय। बहुरि जिस कारणते कार्यसिद्धिहोय, ॥अथवा नाहीं भी होय, जिस कारणरूप उद्यम करै, तहां अन्य कारण मिलें तो कर्यसिद्धि होय,
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न मिले तो सिद्धि न होय । सो जिनमतविषै जो मोक्षका. उपाय कह्या है, सो इसते मोक्ष होय हो होय । तातें जो जीव पुरुषार्थकरि जिनेश्वरका उपदेश अनुसार मोनका उपाय करें। है, ताके काललब्धि वा होनहार भी भया । अर कर्मका उपशमादि भया है, तो यह ऐसा ।। | उपाय करै है । तातै जो पुरुषार्थकरि मोक्षका उपाय करै है, ताकै सर्व कारण मिले हैं, ऐसा निश्चय करना । अर वाकै अवश्य मोक्षकी प्राप्ति हो है । बहुरि जो जीव पुरुषार्थकरि मोक्षका
उपाय न करे, ताकै काललब्धि होनहार भी नाहीं । अर कर्मका उपशमादि न भया है, तो भी यह उपाय न करे है । तातै जो पुरुषार्थकरि मोक्षका उपाय न करें है, ताके कोई कारण मिले नाह', ऐसा निश्चय करना । अर वाकै मोक्ष की प्राप्ति न हो है । बहुरि तू कहै हैउपदेश तो सर्व सुने हैं, कोई मोक्षका उपाय कर सकै, कोई न करि सके सो कारण कहा । | सो कारण यह है कि जो उपदेश सुनिकरि पुरुषार्थ करै है, सो वो मोक्षका उपाय करि सके है अर पुरुषार्थ न करै, सो मोक्षका उपाय न कर सके है। उपदेश तो शिक्षामात्र है, फल जैसा पुरुषार्थ करै तैसा लागे । बहुरि प्रश्न-जो द्रव्यलिंगी मुनि मोक्षके अर्थि गृहस्थपनौ छोड़ि तपश्चरणादि करै हैं, तहां पुरुषार्थ तो किया कार्य सिद्ध न भया, ताते पुरुषार्थ । किएं तो किछू सिद्धि नाहीं । ताका समाधान,-.
अन्यथा पुरुषार्थकरि फल चाहै, तो कैसें सिद्धि होय । तपश्चरणादि ब्यवहार साधनविष ४७५
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अनुरागी होय प्रवर्त्ते, ताका फल शास्त्रविषै तौ शुभबंध कया है, अर यह तिसतें मोक्ष चाह है, तो कैसें सिद्धि होय । यह तौ भ्रम है । बहुरि प्रश्न- जो भ्रमका भी तौ कारण कर्म ही है, पुरुषार्थ कहा करें। ताका उत्तर
सांचा उपदेशतै' निर्णय किएं भ्रम दूरि हो है । सो ऐसा पुरुषार्थ न करें है, तिसहीतें भ्रम रहे हैं । निर्णय करनेका पुरुषार्थ करे, तौ भ्रमका कारण मोहकर्म ताकों भी उपशमादि होय, तब भ्रम दूर हो जाय । जातै निर्णय करतां परिणामनिकी विशुद्धता हीय, तिसत मोहका स्थिति अनुभाग घटे हैं । बहुरि प्रश्न - जो निर्णय करनेविषै उपयोग म लगाव है, ताका भी तौ कारण कर्म हैं। तांका समाधान,
एकेंद्रियादिककै विचार करनेकी शक्ति नाहीं, तिनकै तो कर्महीका कारण है । या तो ज्ञानावरणादिकका क्षयोपशमतें निर्णय करनेकी शक्ति प्रगट भई है। जहां उपयोग लगावे, तिसहीका निर्णय होय सकै है । परंतु यह अन्य निर्णय करनेविषै उपयोग लगावै, यहां उपयोग न लगावे । सो यह तौ याहीका दोष है, कर्मका तौ किछू प्रयोजन नाहीं । बहुरि प्रश्न – जो सम्यक्त्वचारित्रका तौ घातक मोह है । ताका अभाव भए विना मोक्षका उपाय कैसे बने । ताका समाधान --
तत्वनिर्णय करनेविषै उपयोग न लागावै, सो तो याहीका दोष हैं । बहुरि पुरुषार्थकरि
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मो.मा. प्रकाश
అంత ఉంచి న
200 సం తన అందం
న 20 -1000000 అందం తనింకు లంక
तत्त्वनिर्णयविषे उपयोग लगावै, तब स्वयमेव ही मोहका अभाव भएं सम्यक्त्वादिरूप मोक्षके उपायका पुरुषार्थ बने है। सो मुख्यपनै तौ तत्वनिर्णयविष उपयोग लगावनेका पुरुषार्थ | करना । बहुरि उपदेश भी दीजिए है, सो इस ही पुरुषार्थ कराबनेके अर्थि दीजिए है। बहुरि इस पुरुषार्थते मोक्षके उपायका पुरषार्थ आपहीते सिद्ध होयगा । अर तत्वनिर्णय करनेविषे कोई कर्मका दोष है नाहीं । अर तू आप तो महंत रह्या चाहै, पर अपना दोष कर्मादिककै लगावे, सौ जिनआज्ञा मानें तो ऐसी अनीति संभवे नाहीं । तोको विषय कषा-1 । यरूप ही रहना है, ताते झूठ बोल है। मोक्षकी सांची अभिलाषा होय, तो ऐसी युक्ति काहेकों बनाये । संसारके कार्यनिविष अपना पुरुषार्थते सिद्ध न होती जाने, तो भी पुरुषा-1 र्थकरि उद्यम किया करे, यहां पुरुषार्थ खोइ बैठे । सो जानिए है, मोक्षकों देखादेखी उत्कृष्ट कहै है । याका खरूप पहचानि ताको हितरूप न जाने है। हित जानि जाका उद्यम बने,
सो न करे, यह असंभव है । इहां प्रश्न-जो तुम कहा सो सत्य, परन्तु द्रव्य-॥ । कर्मके उदयते भावकर्म होय, भावकर्म द्रव्यकर्मका बंध होय, बहुरि ताके उदयते।
भावकर्म होय, ऐसे ही अनादित परंपराय है, तब मोच का उपाय कैसे हो सके। साका समाधान,--
कर्मका बंध वा उदय सदाकाल समान ही हुवा करे, तो ऐसा ही है । परंतु परिणाम
నుంచి నింపునిస్తుందని పంచి పంది :
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मो.मा. निके निमित्तते पूर्व बंधे कर्मका भी उत्कर्षण अकर्षण संक्रमणादि होते तिनकी शक्ति हीन সক্ষাঙ্ক
अधिक हो है । कर्मउदयके निमित्तकरि तिनका उदय भी तीन मंद हो है । तिनके निमित्तते नवीन बंध भी तीन मंद हो है । तातें संसारी जीवनिकै कबहू ज्ञानादिक घने प्रगट हो || है, कबहू थोरे प्रगट हो हैं। कबहू रागादि मंद हो है, कबहू तीव्र हो है । ऐसे ही पलटनि । हूवा करे है । तहां कदाचित् संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त पर्याय पाया, तब मनकरि विचार करनेकी । शक्ति भई । बहुरि याकै कबहू तीन रागादिक होय, कबहू मंद होय । तहां रागादिकका | तीव्र उदय होते तो विषयकषायदिकके कार्यानिविणे ही प्रवृति होय । बहुरि रागादिकका | मंद उदय होते बाह्य उपदेशादिकका निमित्त बने अर आप पुरुषार्थकरि तिन उपदेशादि-11 कविणे उपयोगकौं लगावै, तो धर्मकार्यविषे प्रवृत्ति होय । अर निमित्त बने, वा आप पुरुषार्थ । न करे, कोई अन्य कार्यनिविषे प्रवत्ते, परंतु मंदरागादि लिएं प्रवचें, ऐसे अवसरविणे उपदेश | कार्यकारी है । विचारशक्तिरहित एकेद्रियादिक हैं, तिनिकै तौ उपदेश समझनेका ज्ञान ही। नाही। अर तीव्ररागादिसहित नीवनका उपदेशविर्षे उपयोग लागै नाहीं। ताते जो जीव । विचारशक्तिसहित होंय, अर जिनके रागादि मंद होय, तिनकों उपदेशका निमित्तते धर्मकी प्राप्ति होय जाय, तो ताका भला होय । बहुरि इस ही अवसरविर्षे पुरुषार्थ कार्यकारी है। एकेद्रियादिक तो धर्मकार्य करनेकों समर्थ ही नाही, केसे पुरुषार्थ करें । अर तीनकषायी ७८
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मो मा. এজাহ
पुरुषार्थ करे, सो पापहीको करे, धर्म कार्यका पुरुषार्थ होय सके नाहीं । तातै विचारशक्ति| सहित होय, अर जिसकै रागादिक मंद होंय, सो जीव पुरुषार्थकरि उपदेशादिकके निमित्ततें। तत्त्वनिर्णयादिविषै उपयोग लगावे, तो याका उपयोग तहां लागै, तब याका भला होय । जो इस अवसरविणे भी तत्त्वनिर्णय करनेका पुरापार्थ न करे, प्रमादत काल गमावै । के तौ। मंदरागादि लिएं विषयकषायनिके कार्यानिहीविष प्रवत्ते, के व्यवहार धर्मकार्यनिविषे प्रवत्र्ते, तब अवसर तो जाता रहै, संसारविष ही भ्रमण होय । बहुरि इस अवसरविषे जे जीव पुरुषार्थकरि तत्त्वनिर्णयकरनेविष उपयोग लगावनेका अभ्यास राखें, तिनिकै विशुद्धता बधै, ताकरि कर्मनकी शक्ति हीन होय । कितेक कालविणे आपोआप दर्शनमोहका उपशम होय, | तब या तत्वनिविणे यथावत् प्रतीति आवै । सो याका तो कर्तव्य तत्त्वनिर्णयका अभ्यास ही है। इसहीते दर्शनमोहका उपशम तो स्वयमेव ही होय । याम जीवका कर्तव्य किछ नाहीं । बहुरि ताकों होते जीवकै स्वयमेव सम्यग्दर्शन होय । बहुरि सम्यग्दर्शन होते श्रद्धान तो यह भया-में आत्मा हों, मुझको रागादिक न करने । परन्तु चारित्रमोहके उदयते रागादिक हो हैं । तहां तीत्र उदय होय, तब तो विषयादिविषै प्रवर्ते है, अर मंद उदय होय, तब अपने पुरुषार्थते धर्मकार्यनिविर्षे वा वैराग्यादिभावनाविषै उपयोगकर्को लगावै है । ताके निमित्ततें चारित्रमोह मंद होता जाय । ऐसें होते देशचारित्र वा सकलचारित्र
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मो.सा.
प्रकाश
अंगीकार करनेका पुरुषार्थ प्रगट होय । बहुरि चारित्रको धारि अपना पुरुषार्थकरि धर्मविषे परिणतिकों बधावै, तहां विशुद्धताकरि कर्मकी हीन शक्ति होय, तातै त्रिशुद्धता बधै, त.करि अधिक कर्मी शक्ति होन होय । ऐसें क्रमतें मोहका नारा करै, तब सर्वथा परिणाम विशुद्ध होंय, तिनकरि ज्ञानावरणादिका नाश होंय, तब केवलज्ञान प्रगट होय । तहां पीछे विना उपाय अघातिया कर्मका नाराकरि शुद्ध सिद्धपदकों पावै । ऐसें उपदेशका तौ निमित्त बने,
र अपन पुरुषार्थ करै, तौ कर्मका नारा होय । बहुरि जब कर्मका उदय तीव्र होय, तब पुरुषार्थ न होय सके है । ऊपरले गुणस्थाननितें भी गिर जाय है । तहां तौ जैसा होनहार तैसा ही होय । परंतु जहां मंद उदय होय, अर पुरुषार्थ होय, सकै, तहां तौ प्रमादी न होना- सावधान होय अपना कार्य करना । जैसैं कोऊ पुरुष नदीका प्रवाहविषै पड़ा है है। तहां पानीका जोर होय, तब तौ कका पुरुषार्थ किछू नाहीं । उपदेश भी कार्यकारी नाहीं । और पानीका जोर थोरा होय, तब तो पुरुषार्थकरि निकसना चाहै, तौ निकसि वै । तिसहीकों निक सनेको शिक्षा दीजिए है। और न निकसै तौ होलै २ बहै, पीछे पानीका जोर भएं ह्याचल्या जाय । तैसें ही यह जीरसंसारविषै भ्रमै है । तहां कर्मनिका तीव्र उदय होय, तत्र तो याका पुरुशार्थ किछू नाहीं । ताक उपदेश भी कुछ कार्यकारी नाहीं । र कर्मका मंद उदय होय, तत्र पुरुषार्थकरि मोक्षमार्गविधै प्रवत्तै तौ मोक्ष पावे । तिसहीकों मोक्षमार्गका
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मो.मा.
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వివరాలు ఇలాంటి వాతం 2010
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उपदेश दीजिए है । पर कह मोक्षमार्गविष न प्रवर्ते, तो किंचित् विशुद्धता पाय पीछे तीन उदय पाएं निगोदादि पर्यायको पावै । तातै अवसर चूकना योग्य नाहीं । अब सर्व प्रकार
अवसर आया है, ऐसा अवसर पावना कठिन है। तातै श्रीगुरु दयाल होय मोक्षमार्गको | उपदेरों, तिसविषै भव्य जीवनिकों प्रवृत्ति करनी ।
अब मोक्षमार्गका स्वरूप कहिए हैं
जिनके निमित्तते आत्मा अशुद्ध दशाकों धारि दुखी भया, ऐसे जो मोहादिक कर्म तिनिका सर्वथा नाश होते केवल आत्माकी जो सर्व प्रकार शुद्ध अवस्थाका होना, सो मोक्ष। है । ताका जो उपाय-कारण, सो मोक्षमार्ग जानना। सो कारण तो अनेक प्रकार हो हैं। | कोई कारण तो ऐसे हो हैं, जाके भएं विना तो कार्य न होय, अर जाके भएं कार्य होय वा न भी होय । जैसें नुनि लिंग धारे विना तो मोक्ष न होय, परंतु मुनिलिंग धारे मोक्ष होय | भी, अर नाहीं भी होय । बहुरि कई कारण ऐसे हैं, जो मुख्यपने तो जाके भएं कार्य होय, अर काहूके विना भएं भी कार्य सिद्ध होय । जैसे अनशनादि बाह्य तपका साधन किए | मुख्यपनै मोक्ष पाइए है, परंतु भरतादिकके बाह्य तप किए बिना ही मोक्ष की प्राप्ति भई । बहुरि कैई कारण ऐसे हैं; जाके भए कार्य सिद्ध होय ही होय, और जाके न भए कार्य सिद्धि सर्वथा न होय । जैसें सम्यग्दर्शत ज्ञान चारित्रकी एकता भए तौ मोक्ष होय ही |||१८१
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मो.मा
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होय, अर तिनके न भए सर्वथा मोक्ष न होय । ऐसें ए कारण कहे, तिनविर्षे अतिशयकरि || नियमते मोक्षका साधक जो सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रका एकीभाव, सो मोक्षमार्ग जानना। इनि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चास्त्रिनिविषै एक भी न होय, लो मोक्षमार्ग न होय ।। सोई तत्त्वार्थसूत्रविर्षे कह्या है
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोलमार्गः ॥१॥ इस सूत्रको टीकाविर्षे का है-जो यहां मोक्षमार्गः ऐसा एक वचन कह्या है, || ताका अर्थ यह है-जो तीनों मिले एक मोक्षमार्ग है । जुदे जुदे तीन मार्ग नाहीं है । | यहां प्रश्न-जो असंयत सम्यग्दृष्टिकै तौ चारित्र नाही, वाकै मोक्षमार्ग भया है कि न भया । है । ताका समाधान
मोक्षमार्ग वाकै होसी, यह तो नियम भया। तातें उपचारते वाकै मोक्षमार्ग भया भी। कहिए । परमार्थते सम्यक्चारित्र भए ही मोक्षमार्ग हो है । जैसे कोई पुरुषकै किसी नगर चालनेका निश्चय भया। ताते वाकै व्यवहारतें ऐसा भी कहिए जो “यह तिस नगरौं चल्या है। परमार्थते मार्गविषे गमन किएं ही चलना होसी । तैसे असंयत सम्यम्दृष्टीके वीतरागभावरूप मोक्षमार्गका श्रद्धान भया, ताते वार्को उपचारतें मोक्षमार्गी कहिए, परमार्थहैं बीतरागभावरूप परिणमै ही मोक्षमार्ग होसी । बहुरि प्रवचनसारविष भी तीनोंकी एका- ४८२
సుందంగా ఉందని నిరంతరంగంగంగంగం 00010
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मो.मा. प्रता भए ही मोक्षमार्ग कहा है। ताते यह जानना-तत्त्वश्चद्धान विना तो रागादि घटाए | प्रकाश मोक्षमार्ग नाहीं अर रागादि घटाए विना तत्वश्रद्धानज्ञानतें भी मोक्षमार्ग न्यहीं । बीनौं ।
| मिले साक्षात् मोक्षमार्ग हो है। ___अब इनका निर्देश अर लक्षण निर्देश अर परीक्षाद्वारा निरूपण कीजिए है। ती | “सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है," ऐसा नाम मात्र कथन सो तो 'निर्देश जानना । बहुरि अतिव्याप्ति अव्याप्ति असंभवपनाकरि रहित होय, जाकरि इनको पहचानिये,
सो लक्षण' जानना। ताका जो निर्देश कहिए, निरूपण सो ‘लक्षण निर्देश जानना । तहाँ । | जाको पहचानना होय, ताका नाम लक्ष्य है । उस विनाऔरका नाम अलक्ष्य है । सो लक्ष्य ।। या अलक्ष्य दोऊविषै पाइए, ऐसा लक्षण जहां कहिए तहां अतिब्यातिपनी जानना । जैसें ॥ आत्माका लक्षण 'अमूर्तत्व' कल्ला । सो अमूर्तत्व लक्षण है, सो लक्ष्य जो है आत्मा तिसविरे भी पाइए है अर अलक्ष्य जो हैं आकाशादिक तिनविषै भी पाइए । ता यह 'अत्रिव्या लक्षण है । याकरि आत्मा पहचानें आकाशादिक भी आत्मा होय जाय, यह दोष लागे । । बहुरि जो कोई वक्ष्यविर्षे त्यो होय अर कोईविषै न होय, ऐसा लक्ष्यका एकदेशविषै पाइए,
ऐसा लक्षण जहां कहिए, तहां अध्याप्तिपना जानना। जैसे--आत्माका लक्षण केवलज्ञान | कहिए, सो केवलज्ञान कोई यात्माविधै त पाइए, कोईविध न पाइए, ताते यह 'अव्या
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लक्षण है । याकरि आत्मा पहचान, स्तोकज्ञानी आत्मा न होय, यह दोष लागे । बहरि जो | लक्ष्यविर्षे पाइए ही नाहीं, ऐसा लक्षण जहां कहिए, तहां असंभवपणा नानना । जैसें मा | त्माका लक्षण जड़पना कहिए । सो प्रत्यक्षादि प्रमाणकर यह विरुद्ध है ताते यह असंभव, लनल है । याकरि आत्मा माने पुद्गलादिक भी आत्मा होय जाय । अर आत्मा है; सो अनात्मा होय जाय, यह दोष लागें । ऐसें अंतिव्याप्त अव्याप्त असंभवी लक्षण होय, सो लक्षणाभास है । बहुरि लक्ष्यविषे सर्वत्र पाइए, अर अलक्ष्यविषै कहीं न पाइए, सो सांचा लक्षण है । जैसैं आत्माका लक्षण चैतन्य है । सो यह लक्षण सर्व ही आत्माविषै तो पाइए है, अनात्माविषै कहीं न पाइए । तातै यह सांचा लक्षण है । याकरि आमा मानें आत्मा अनात्माका यथार्थ ज्ञान होये, किछू दोर्षे लागे नाहीं । ऐमें लक्षणका स्वरूप उदाहरणमात्र कह्या। ॥ अव सम्यग्दर्शनादिकका सांचा लक्षण कहिए है, विपरीताभिनिवेशरहित जीवादि ।
तत्त्वार्थश्रद्धान सो सम्यग्दर्शनका लक्षण है । जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्बरा, मोक्ष, ए सात तत्वार्थ हैं। इनका जो श्रद्धान ऐसे ही है अन्यथा नाहीं ऐसा प्रतीति भाव, सो खत्वार्थश्रद्धान है । बहुरि विपरीताभिनिवेश जो अन्यथा अभिप्राय ताकेरि रहित सो सम्यग्दर्शन है । यहाँ विपरीताभिनिवेशका निराकरणके अर्थि 'सम्यक' पद कह्या है । जाते
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सो प्रकाश
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सम्यक् ऐसा शब्द प्रशंसावाचक है । सो श्रद्धानविर्षे विपरीताभिनिवेशका प्रभाव भए हो । प्रशंसा संभव है, ऐसा जानना । यहां प्रश्न-जो 'तत्व' अर 'अर्थ' ए दोय पद कहे, तिनिका | प्रयोजन कहा ताका समाधान,--
तब' शब्द है सो ‘यत् शब्दकी अपेक्षा लिए है । तातें जाका प्रकरम होय, सो तत् । || कहिए, अर जाका जो भाव कहिए खरूप सो तत्त्व जानना । जाते तस्य भावस्तत्वं' ऐसा ।।
तत्त्व शब्दका समास होय है । बहुरि जो जाननेमें आवै ऐसा 'द्रव्य' वा 'गुण, पर्याय' ताका नाम अर्थ है । बहुरि 'तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थः' तत्व कहिए अपना स्वरूप, ताकरि सहित पदार्थ || तिनिका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है । यहां जो 'तत्वश्रद्धान' ही कहते, तौ जाका यह भाव । | ( तत्व ) है, ताका श्रद्धान विना केवल भावहीका श्रद्धान कार्यकारी नाहीं । बहुरि जो 'अर्थश्रद्धान' ही कहते, तो भावका श्रद्धान विना पदार्थका श्रद्धान भी कार्यकारी नाही । जैसें । कोई के ज्ञान दर्शनादिक वा वर्णादिकका तौ श्रद्धान होय-यह जानपना है, यह श्वेतवर्ण है, | इत्यादि । परंतु ज्ञान दर्शन आत्माका खभाव है, सो में आत्मा हौं । बहुरि वर्णादि पुद्गलका | स्वभाव है । पुल मोते भिन्न जुदा पदार्थ है । ऐसा पदार्थका श्रद्धान न होय, तो भावका श्रद्धान मात्र कार्यकारी नाहीं । बहुरि जैसे में आत्मा हों' ऐसे श्रद्धान किया, परंतु आत्माका खरूप जैसा है, वैसा श्रद्धान न किया । नौ भावका श्रद्धान विना पदार्थका भी श्रद्धान
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प्रकाश
मो.मा.कार्यकारी नाहीं । लाते तत्वकाअर्थका श्रद्धान हो है, सो ही कार्यकारी है । अथवा जीवादि
को तत्व संज्ञा भी है, अर्थ संज्ञा भी है ताते 'तत्वमेवार्थस्तत्वार्थः' जो तत्व सो ही अर्थ, तिनका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है । इस अर्थकरि कहीं तत्वश्रद्धानकों सम्यग्दर्शन कहै, का | कहीं पदार्थश्रद्धानकों सम्यग्दर्शन कहै, तहां विरोध न जानमा । ऐसें 'तत्व' और 'अर्थ' दोय | पद कहनेका प्रयोजन है। यहां प्रश्न-जो तत्वार्थ तौ अनंते हैं । ते सामान्य अपेक्षाकरि जीव अजीवविषै सब गर्भित भए, ताते दोय ही कहने थे । आस्रवादिक तौ जीव अंजीवहीके विशेष हैं इनको जुदा जुदा कहनेका प्रयोजन कहा । ताका समाधान
जो यहां पदार्थश्रद्धानका ही प्रयोजन होता, तो सामान्यकरि वा विशेषकर जैसे पदानिका जानना होय, तैसें ही कथन करते । सो तो यहां प्रयोजन है नाहीं। यहां तौ मोक्षका प्रयोजन है । सो जिन सामान्य चा विशेष भावनिका श्रद्धान किए मोक्ष होय, अर जिनका श्रद्धान किए विना मोक्ष न होय, तिनहीका यहां निरूपण किया । सो जीव अजीव ए दोय | तो बहुव द्रव्यनकी एक जाति अपेक्षा सामान्यरूप तस्त्र कहे । सोए दोय जाति जानें बीवके आपापरका श्रद्धान होय । तब परतें भिन्न आपकौं जाने, अपना हितके अर्थि मोक्षका उपाय करे, अर आपतै भिन्न परकौं जाने, तब परद्रव्यतै उदासीन होय रागादिक त्यानि मोक्षमार्ग-1 विषे प्रवर्ते । ता इन दोऊ जातिका श्रद्धान भए ही मोन होय । अर दोऊ जाति जाने
రాం రాం రాం రాంనరంతంరం రాంరాం రాంచందరం రాతం
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मो.मा.
। विना थापापरका श्रद्धान न होय, तब पर्याय बुद्धिते संसारीक प्रयोजनही का उपाय करै ।। प्रकाश
परद्रव्यविषे रागद्वेषरूप होय प्रवर्ते, तब मोक्षमार्गविषे कैसें प्रवत्र्ते । ताते इन दोय जातीनिका श्रद्धान न भए मोक्ष न होय । ऐसें ए दोय तो सामान्य तत्व अवश्य श्रद्धान करने योग्य | कहे । बहुरि आस्रवादिक पांच कहे, ते जीव पुद्गलके पर्याय हैं । तातै ए विशेषरूप तत्व हैं। सो इन पांच पर्यायनिकौं जानें मोक्षका उपाय करनेका श्रद्धान होय । तहां मोक्षको पहिचान, ।। तो ताको हित मानि ताका उपाय करै । तातै मोक्षका श्रद्धान करना । बहुरि मोक्षका उपाय | संवर निर्जराहै । सोइनको पहिचान तो जैसे संवरनिर्जरा होय,तेसै प्रवीतात संवर निर्जराका | श्रद्धान करना । बहुरि संबर मिर्जरा तो अभाव लक्षण लिए है, सो जिनका अभाव किया
चाहिए, तिनको पहचानना चाहिए । जैसे क्रोधका अभाव भए क्षमा होय । सो क्रोधों पह|चाने, तो ताका अभाव करि क्षमा रूप प्रवत्त । तैसे ही आस्रवका अभाव भए संवर होय अर बंधका एकदेश अभाव भए निर्जरा होय । सो आस्रव बंधकौं पहिचान, सौ तिनिका । नाशकरि संघर निर्जरारूप प्रवत् । ताते आस्रव बंधका श्रद्धान करना । ऐसें इनि पांच पी-| यनिका श्रद्धान भए ही मोक्षमार्ग होय । इनिकों न पहचाने, तौ मोक्षकी पहचान विना ताका उपाय काहेकौं करै । संकर निर्जराकी पहचान विना तिनिविष कैसे प्रवत्त । आस्रव बंधका पहचान विना तिनिकरि नाश कैसे करै । ऐसें इन पांच पर्यायनिका श्रद्धान न भए मोक्ष न ४८७
ఈ నిరంతరం నందు రాం రాం రాం రాం
అనంతపురం నుంచి అందంవలన నిండా
రాం నరాని నిందింపులు
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मो मा. प्रकाश
జరం ఈ విధంగా 1000
होय । या प्रकार यद्यपि तत्वार्थ अनंते हैं, तिनिका सामान्य विशेषकरि अनेक प्रकार प्ररूपण । होय । परंतु यहां मोक्षका प्रयोजन है, तातै दोय तो जातिअपेक्षा सामान्य तत्व अर पांच पर्यायरूप विशेष तत्व मिलाय सात ही तत्व कहे । इनिका यथार्थ श्रद्धानके आधीन मोक्षमार्ग है । इनि विना औरनिका श्रद्धान होहु वा मति होहु, वा अन्यथा श्रद्धान होहु, किसीके आधीन मोक्षमार्ग नाहीं । ऐसा जानना । बहुरि कहीं पुण्य पाप सहित नव पदार्थ कहे हैं। मो पुण्य पाप आस्रवादिकके ही विशेष हैं । तातै साततत्वविषे गर्भित भए । अथवा पुण्यपापका श्रद्धान भए पुण्यकों मोक्षमार्ग न माने, वा स्वच्छंद होय पापरूप न प्रवत्र्ते, तातै मोक्षमार्गविष इनिका श्रद्धान भी उपकारी जानि दोय तत्व विशेष मिलाय नव तल कहे । वा समय
सारादिविषै इनकों नव तत्व भी कहे हैं । बहुरि प्रश्न-इनिका श्रद्धान सम्यग्दर्शन कह्या, | सो दर्शन तो सामान्य अवलोकन मात्र अर अद्धान प्रतीति मात्र, इनिकै एकार्थपनो कैसे | संभवै । ताका उत्तर| प्रकरणके वशते धातुका अर्थ अन्यथा होय है । सो यहां प्रकरण मोक्षमार्गका है, तिसविष 'दर्शन' शब्द का अर्थ सामान्य अवलोकन मात्र ग्रहण न करना । जातें चक्षु अचक्षु । दर्शनकरि सामान्य अवलोकन सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टिके समान होय है । कुछ याकरि मोक्षमा की प्रवृत्ति होती नाहीं । बहुरि श्रद्धान हो है, सो सम्यग्दृष्टीहीकै हो है । याकरि मोक्षमा- ४८८
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मो.मा. प्रकाश
అర్థం కానించింది.
దాంతం వంశనిని విరామం తరం అఫ్
र्गकी प्रवृत्ति हो है । तातै 'दर्शन' शब्दका अर्थ भी यहां श्रद्धान मात्र ही ग्रहण करना। बहुरि प्रश्न-यहां विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान करना कह्या, सो प्रयोजन कहा । ताका समाधान___ अभिनिवेशनाम अभिप्रायका है । सो जैसा तत्वार्थश्रद्धानका अभिप्राय है, तैसा न होय अन्यथा अभिप्राय होय, ताका नाम विपरीताभिनिवेश है । सो तत्वार्थश्रद्धान करनेका अभि-10 प्राय केवल तिनिका निश्चय करना मात्रही नाहीं है । तहां अभिप्राय ऐसाहै-जीव अजीवकों पहचानि आपकों वा परकों जैसाका तैसा मानै । बहुरि आस्रवकौं पहचानि ताकौं हेय माने । बहुरि बंधकों पहचानि ताकौं अहित मानै । वहुरि संवरकों पहचानि ताकौं उपादेय माने । बहुरि निर्जराको पहचानि ताको हितका कारण माने । बहुरि मोक्षकों पहचानि ताकौं अपना परमहित मानै। ऐसे तत्वार्थश्रद्धानका अभिप्राय है । तिसतै उलटा अभिप्रायका नाम विप
रीताभिनिवेश है । सो सांचा तत्वार्थश्रद्धान भए याका अभाव होय । तातै तत्वार्थश्रद्धान | है, सो विपरीताभिनिवेशरहित है । ऐसा यहां कह्या है । अथवा काहूकै अभ्यास मात्र तत्वार्थ
श्रद्धान हो है। परंतु अभिप्रायविषै विपरीतपनो नहीं छूटे है । कोई प्रकारकरि पूर्वोक्त अभिप्रायते अन्यथा अभिप्राय अंतरंगविषै पाइए है, तो वाकै सम्यग्दर्शन न होय । जैसे द्रव्यलिंगी मुनि जिनवचनते तत्वनिकी प्रतीति करै। परंतु शरीराश्रित क्रियानिविष अहंकार वा पुण्या
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प्रकाश
मो.मा. स्रवविष उपादेयपना आदि विपरीत अभिप्राय मिथ्यादृष्टीही रहै है । तातें जो तत्वार्थश्रद्धान। || विपरीताभिनिवेशरहित है, सोई सम्यग्दर्शन है । ऐसें विपरीताभिनिवेषरहित जीवादि तत्वनिका ||
श्रद्धानपना तौ सम्यग्दर्शनका लक्षण है । सम्यग्दर्शन लक्ष्य है सोई तत्वार्थसूत्रविषै कह्या । है,–'तत्वार्थश्रद्धानें सम्यग्दर्शनम्' ॥२॥ तत्वार्थनिका श्रद्धान सोइ सम्यग्दर्शन है । बहुरि । | सर्वार्थसिद्धि नामा सूत्रनिकी टीका है, तिसविर्षे तत्वादिक पदनिका अर्थ प्रगट लिख्या है, वा सात ही तत्व कैसे कहे सो प्रयोजन लिख्या है, ताके अनुसारनै इहाँ किछू कथन किया है, ऐसा जानना। बहुरि पुरुषार्थसिद्ध्युपायके विषै ऐसे ही कह्या है
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् ।
'श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ॥ २२ ॥ याका अर्थ-विपरीताभिनिवेशकरि रहित जीवअजीव आदि तत्त्वार्थनिका श्रद्धान | सदाकाल करना योग्य है । सो यह श्रद्धान आत्माका स्वरूप है । दर्शनमोह उपाधि दूर भए प्रगट हो है, तातें आत्माका स्वभाव है । चतुर्थादि गुणस्थानविर्षे प्रगट हो है । पीछे सिद्ध | अवस्थाविर्षे भी सदा काल याका सद्भाव रहे है, ऐसा जानना । यहां प्रश्न उपजे है-जो, | तियंचादि तुच्छज्ञानी केई जीव सात तस्वनिका नाम भी न जानि सके, तिनिकै भी सम्यग्द
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मो.मा. प्रकाश
र्शनकी प्राप्ति शास्त्रविर्षे कहीं है । तासे तत्वार्थश्रद्धानपना तुम सम्यक्त्वका लक्षण कह्या, तिसविर्षे अव्याप्तिदृषण लागे हैं। ताका समाधान,- .
जीव अजीवादिकका नामादिक जानौ वा मति जानौं, वा अन्यथा जानौ, उनका स्वरूप यथार्थ पहचानि श्रद्धान किए सम्यक्त्व हो है। तहाँ कोई सामान्यपने स्वरूप पहचानि श्रद्धान । करें, कोई विशेषपने स्वरूप पहचानि श्रद्धान करै । तातें तुच्छज्ञानी तिर्यंचादिक सम्यग्दृष्टी हैं, सो जीवादिकका नाम भी न जाने हैं, तथापि उनका सामान्यपने स्वरूप पहचानि श्रद्धान करे || हैं। ताते उनकौं सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो है। जैसे कोई तिर्यंच अपना का औरनिका नामादिक तौ नाहीं जाने,परंतु आपहीविषै आपोमाने है।तैसें तुच्छज्ञानी जीव अजीवकानाम न जाने,परंतु ज्ञानादिकखरूप आत्मा है, तिसविषे आपो मान है ।अर जो शरीरादिक हैं,तिनकों पर मान है। ऐसा श्रद्धान वाकै हो है सोही जीव अजीवका श्रद्धानहै। बहुरिजैसैंसोई तिर्यच सुखादिकका नामादिक न जाने है, तथापि सुख अवस्थाको पहचानि ताकेअर्थि आगामी दुःखका कारणको पहि-1 चानि ताका त्यागकों कियाचाहै है । बहुरि जो दुःखकाकारण बनिरह्या हैं,ताके अभावकाउपाय करै है । तातै तुच्छज्ञानी मोक्षादिकका नाम न जाने,तथापि सर्वथा सुखरूप मोक्ष अवस्थाकों श्रद्धान करि ताके अर्थिं आगामी बंधका कारण रागादिक आस्रव ताके त्यागरूप संवरको । किया चाहै है । बहुरि जो संसारदुःखका कारण है, ताकी शुद्धभावकरि निर्जरा किया चाहै ४६१
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मो.मा. है। ऐसे प्रास्रवादिकका वाकै श्रद्धान है । या प्रकार वाकै भी सप्ततत्वका श्रद्धान पाइए है। प्रकाश जो ऐसा श्रद्धान न होय, तौ रागादि त्यागि शुद्ध भाव करनेकी चाह न होय । सोई कहिए।
है-जो जीवकी जाति न जाने, आपापरकों न पहेचाने, तौ परविर्षे रागादिक कैसें न करें। 1 रागादिककौं न पहचाने, तो तिनका त्याग कैसे किया चाहै । सो रागादिक ही आस्रव हैं ।
रागादिकका फल बुरा न जाने, तौ काहेकौं रागादिक छोड्या चाहै। सो रागादिकका फलं सोई बंध है। बहुरि रागादिक रहित परिणामको पहिचान है, तो तिसरूप हुवा चाहै है । सो रागादिकरहित परिणामका ही नाम संवर है । बहुरि पूर्वं संसार अवस्थाका कारण कर्म है, ताकी हानिकों पहिचान है, तो ताकै अर्थि तपश्चरणादिकरि शुद्धभाव किया चाहै हैं। सो| पूर्व संसारअवस्थाका कारण कर्म है, ताकी हानि सोई निर्जरा है। बहुरि संसार अवस्थाका अभावकों न पहिचाने, तौ संवर निर्जरारूप काहेकौं प्रवत्तै । संसार अवस्थाका अभाव सो ही मोक्ष है । तातै सातौं तत्त्वनिका श्रद्धानं भए ही रागादिक छोड़ि शुद्ध भाव होनेकी इच्छा | उपजै है । जो इनिविषै एक भी तत्त्वका श्रधान न होय, तो ऐसी चाह न उपजै। बहुरि || | ऐसी चाह तुच्छज्ञानी तिर्यंचादि सम्यग्दृष्टीकै होय ही है, ताते वाकै सप्ततत्वनिका अंधान | पाइए है । ऐसा निश्चय करना । ज्ञानावरणका क्षयोपशम थोरा होते विशेषपनै तत्वनिका | ज्ञान न होवे, तथापि दर्शनमोहका उपशमादिकतै सामान्यपने तत्वश्रदुधानको शक्ति प्रगट
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हो है । ऐसें इस लक्षणविर्षे अव्याप्ति दूषण नाहीं है । बरि प्रश्न-जिसकालविषै सम्यग्दृष्टी || प्रकाश विषयकषायनिके कार्यनिविषै प्रवर्ते है, तिसकालविर्षे सप्त तत्वनिका विचार ही नाही, तहाँ ।
श्रद्धान कैसे संभवे । अर सम्यक्त्व रहै ही है, तात तिस लक्षणविषे अव्याप्ति दूषण आवै । है। ताका समाधान,
विचार है, सो तो उपयोगके आधीन हैं। जहां उपयोग लागे, तिसहीका विचार है। बहुरि श्रद्धान है, सो प्रतीतिरूप है। तातै अन्य ज्ञेयका विचार होते वा सोवना आदि। | क्रिया होते तत्वनिका विचार नाही, तथापि तिनकी प्रतीति बनी रहै है, नष्ट न हो है । ताते ।। वाकै सम्यक्त्वका सद्भाव हैं । जैसे कोई रोगी पुरुषकै ऐसी प्रतीति है-में मनुष्य हौं, तिथंच |
नहीं हौं । मेरे इस कारणते रोगभया है । सो अब कारण मेटि रोगकौं घटाय निरोग होना। # बहुरि वो ही मनुष्य प्रश्न विचारादिरूप प्रवत्त है, तब वाकै ऐसा विचार न हो है ।। परन्तु |
श्रद्धान ऐसे ही रह्या करै हैं । तैसें इस आत्माकै ऐसी प्रतीति है में आत्मा हों, घुगलादि । नहीं हों, मेरे आस्रवतें बंध भया है, सो अब संघरकार निर्जरा करि मोक्षरूप होना । बहुरि || सोई आत्मा अन्य विचारादिरूप प्रवते है, तब वाकै ऐसा विचार न हो है । परन्तु श्रद्धान । | ऐसा ही रह्या करें है । बहुरि प्रश्न-जो ऐसा श्रद्धान रहै है, तो बंध होनेके कारणनिविषै। केसे प्रवत्र्ते हैं । ताका उत्तर
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मो.मा.
जैसें कोइ मनुष्य कोई कारणके वशते रोग बधनेके कारणनिविर्षे भी प्रवः । व्यापारा-1 प्रकाशदिक कार्य वा क्रोधादिक कार्य करे है, तथापि तिम श्रद्धानका वाकै नाश न हो है । तैसें
सो ही आत्मा कर्म उदय निमित्तके वशते बंध होनेके कारणनिवि भी प्रवत्त है । विषयसेवनादि कार्य वा क्रोधादि कार्य करै है, तथापि तिस श्रद्धानका वाकै नाश न हो है। याका विशेष निर्णय आगें करेंगे । ऐसा सप्ततत्वका विचार न होते भी श्रद्धानका सद्भाव | पाइए है । तातें तहां अव्याप्तिपना नहीं है । बहुरि प्रश्न-ऊंची दशाविषे जहां निर्विकल्प
आत्मानुभव हो है, तहां तो सप्त तत्त्वादिकका विकल्प भी निषेध किया है । सो सम्यक्त्वक | लक्षणका निषेध करना, कैसे संभवे । अर तहां निषेध संभव है, तो अव्याप्ति दूषण पाया। | ताका उत्तर--
नीचली दशाविणे सप्त तत्वनिके विकल्पनिविषै उपयोग लगाया, ताकरि प्रतीतिकौं दृढ़ | कीन्हीं, अर विषयादिकतै उपयोग छुड़ाय रागादि.घटाया, बहुरि कार्य सिद्ध भए कारणनिका | भी निषेध कीजिए है । तातें जहां प्रतीति भी दृढ़ भई अर रागादिक दूर भए, तहां उपयोग भ्रमावनेका खेद काहेकौं करिये । तातें तहां तिनि विकल्पनिका निषेध किया है । बहुरि सम्यक्त्वका लक्षण तो प्रतीति ही है । सो प्रतीतिका तो निषेध न किया। जो प्रतीति छुड़ाई होया, वो इस लक्षणका निषेध किया कहिए । सो तो हैं नाहीं । स्ो तो तत्वनिकी
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సందరూం
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मो.मा. प्रतीति तहां भी बनी रहे है । ताते यहां अव्याप्तिपना नाहीं है । वहुरि प्रश्न-जो छद्मस्थकै । प्रकाश
तो प्रतीति अप्रतीति कहना संभवै है, तातें तहां सप्त तत्वनिकी प्रतीति सम्यक्त्वका लक्षण कह्या सो हम मान्या, परंतु केवली सिद्ध भगवानकै तौ सर्वका जानपना समान रूप है । तहां सप्ततत्वनिकी प्रतीति कहना, संभवे नाहीं। अर तिनके सम्यक्त्व गुण पाइए ही है, ताते | तहां तिस लक्षणका अब्याप्तिपना आया । साका समाधान
जैसे छद्मस्थके श्रुतज्ञानके अनुसार प्रतीति पाइए है, तैसें केवली सिद्धभगवानके 1 केवलज्ञानके अनुसार ही प्रतीति पाइए है । जो सप्त तत्वनिका स्वरूप पहिले ठीक किया था, |
सो ही केवलज्ञानकरि जान्या। तहां प्रतीतिको परम अवगाढ़पनो भयो । याहीत परमअवगाढ सम्यक्त्व कह्या । जो पूर्व श्रद्धान किया था, ताकों झूठ जान्या होता, तों तहां अप्रतीति होती । सो तो जैसा सप्त तत्वनिका श्रद्धान छद्मस्थके भया था, तैसा ही केवली सिद्धभगवानके पाइए है । तातै ज्ञानादिककी हीनता अधिकता होते भी तिर्यंचादिक वा केवली सिद्ध भगवानकै सम्यक्त्व गुण समान ही कह्या । बहुरि पूर्व अवस्थाविर्षे यह माने था, संवर निर्जराकरि मोक्षका उपाय करना । पीछे मुक्ति अवस्था भए ऐसें मानने लगै, जो संवर निर्जराकरि हमारे मोक्ष भई । बहुरि पूर्वं ज्ञानकी हीनताकरि जीवादिकके थोड़े विशेष | जाने था, पीछे केवलज्ञान भए तिनके सर्व विशेष जानै । परन्त मूलभूत जीवादिकके
* 6- 1000 మంద కాండ సందరాంపత్తం 100 గుండాలని ఆకు
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प्रकाश
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स्वरूपका श्रद्धान जैसा छद्मस्थके पाइए है, तैसा ही केवलीके पाइए है । बहुरि यद्यपि केवली सिद्ध भगवान् अन्यपदार्थनिकों भी प्रतीति लिए जाने हैं, तथापि ते पदार्थ प्रयोजनभूत नहीं । तैं सम्यक्त्वगुणविषै सप्त तत्त्वनिहीका श्रद्धान ग्रहण किया है । केवली सिद्धभगवान् रागादिरूप न परिणमें हैं। संसार अवस्थाकों न चाहें हैं । सो यह इस श्रद्धानका बल जानना । बहुरि प्रश्न – जो सम्यग्दर्शन तो मोक्षमार्ग कह्या था, मोदविषै याका सद्भाव कैसे कहिए है । ताका उत्तर- कोई कारण ऐसा भी हो है, जो कार्य सिद्ध भए भी नष्ट न हो है । जैसे काढू वृक्षकै कोई एक शाखाकरि अनेक शाखायुक्त अवस्था भई, तिसकों होते वह एक शाखा नष्ट न हो है । तैसें काहू आत्माकै सम्यक्त्व गुणकरि अनेकगुणयुक्त मुक्त अवस्था भई, ताकों हो सम्यक्त्व गुण नष्ट न हो है । ऐसें केवली सिद्धभगवान के भी तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण ही सम्यक्त्व पाइए है । तातैं तहां अव्याप्तिपनौ नाहीं है । बहुरि प्रश्न – मिथ्यादृष्टी के भी तत्त्वश्रद्धान हो है, ऐसा शास्त्रविषै निरूपण है । प्रवचनसारविषै आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान कार्यकारी का है । तातैं सम्यक्वका लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान कया है, तिसविषै प्रतिव्याप्ति दूषण लागे है । ताका समाधान,
मिथ्यादृष्टीकै जो तत्त्वश्रद्धान कया है, सो नामनिक्षेपकरि कया है । जामैं तत्त्वश्रद्धानका गुण नाहीं, अर व्यवहारविषै जाका नाम तत्त्वश्रद्धान कहिए, सो मिथ्यादृष्टीकै हो है । अथवा
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प्रांग मद्रव्यनिक्षेपकरि हो है । तत्त्वार्थश्रद्धानके प्रतिपादक शास्त्रनिकों अभ्यास है, तिनिका स्वरूप निश्चय करनेविषै उपयोग नाहीं लगावै है, ऐसा जानना । बहुरि यहां सम्यक्त्वका लक्षण तत्वार्थश्रद्धान कला है, सो भावनिक्षेपकरि कला है । सो गुणसहित सांचा तत्त्वार्थश्रद्धान मिथ्यादृष्टीके कदाचित् न होय । बहुरि आत्मज्ञानशून्य तत्वार्थश्रद्धान कया है । तहां भी सोई अर्थ जानना | सांचा जीव अजीवादिकका जाकै श्रद्धान होय, ताकै आत्मज्ञान कैसें न होय । होय ही होय । ऐसें कोई मिथ्यादृष्टीकै सांचा तत्वार्थश्रद्धान सर्वथा न पाइए है, तातै ति लक्षणविषै प्रतिव्याप्ति दूषण न लागे है ।
बहुरि जो यह तत्वार्थश्रद्धान लक्षण कह्या, सो असंभवी भी नाहीं है । जातै सम्यक्त्वका प्रतिपक्षी मिथ्यात्व ही है । याका लक्षण इससे विपरीतता लिए है । ऐसें अव्याप्ति अतिव्याप्ति संभवीपनाकरि रहित सर्व सम्यग्दृष्टीनिविषै तौ पाइए, अर कोई मिथ्यादृष्टीविषै न पाइए, | ऐसा सम्यग्दर्शनका सांचा लक्षण तत्वार्थश्रद्धान है। बहुरि प्रश्न उपजे है - जो वहां सातों तत्वनिके श्रद्धानका नियम कहो हो, सो बनै नाहीं । जाते कहीं, परतें भिन्न आपका श्रद्धानही सम्यक्त्व क हैं । समयसार विषै "एकत्वे नियतस्य' इत्यादि कलशा लिखा है, तिसविषै
(१) एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् । सम्यग्नमेतदेव नियमादात्मा च तावानयम् तन्मुक्कानवतत्व सन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः ॥ ६ ॥
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ऐसा कहा है, जो इसका आत्माका परद्रव्यतै भित्र अवलोकन सो ही नियमतें सम्यग्दर्शन है । तातै नव तत्वनिकी संततिको छोड़ हमारे यह एक आत्मा ही होहु । बहुरि कहीं एक आत्मा निश्चयही सम्यक्त्व कहैं हैं । पुरुषार्थसिद्ध्युपायविषै "दर्शनमात्मविनिश्चितः' ऐसा पद है। सोयाका यह ही अर्थ है । तातै जीव अंजीवहीका वा केवल जीवहीका श्रद्धान भए भी सम्यक्त्व हो है । सातौं तत्त्वनिका श्रद्धानका नियम होता, तौ ऐसा काहेकौं लिखते । ताका समाधान,
परतें भिन्न आपका श्रद्धान हो है, सो आस्रवादिकका श्रद्धानकरि रहित हो है कि सहित हो है । जो रहित हो है, तौ मोक्षका श्रद्धान बिना किस प्रयोजनके अर्थ ऐसा उपाय कर है। संवर निर्जराका श्रद्धान बिना रागादिकरहित होय स्वरूपविषै उपयोग लगावनेका काहेक उद्यम राखे है । आस्रव बंधका श्रद्धान बिना पूर्व अवस्थाकों छोड़े है । तातै अवादिकका श्रद्धानरहित आपापरका श्रद्धान करना संभवै नाहीं । बहुरि जो आस्रवादिकका श्रद्धानसहित हो है, तो स्वयमेव सातों तत्त्वनिके श्रद्धानका नियम भया । बहुरि केवल आत्माका निश्चय है, सो परका पररूप श्रद्धान भए बिना आत्माका श्रद्धान न होय, तातैं अजीवका श्रद्धान भए ही जीवका श्रद्धान होय । बहुरि पूर्ववत् श्रस्त्रवादिकका भी श्रद्धान होय ही होय ।
( १ ) दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते शेधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति वन्धः ॥ २१६ ॥
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मा.मा. प्रकाश
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I तातें यां भी सातों तत्त्वनिके ही श्रद्धानका नियम जानना । बहुरि प्रास्त्रवादिकका श्रद्धान
बिना आपापरका श्रद्धान' वा केवल आत्माका श्रद्धान सांचा होता नाहीं । जाते आत्मा द्रव्य है, सो तो शुद्ध अशुद्ध पर्याय लिए हैं। जैसे तंतु अवलोकन विना पटका अबलोकन न होय, तैसें शुद्ध अशुद्ध पर्याय पहचाने बिना आत्मद्रव्यका श्रद्धान' न होय । सो शुद्ध अशुद्ध, अवन स्थाकी पहचानि आत्रवादिककी पहचानते हो हैं। बहार आस्रवादिकका श्रद्धान विना
आपापरका श्रद्धान वा केवल आत्माका श्रद्धान कार्यकारी भी नाहीं । जाते श्रद्धान करो वा | मति करो, आप है सो आप ही है, पर है सो पर ही है । बहुरि आस्रवादिकका श्रद्धान होय, | तौ आस्रवबंधका अभावकरि संवर निर्जरारूप उपायतें मोक्षपदकों पावै । बहुरि जो आपापरका भी श्रद्धान कराइए है, सो तिस ही प्रयोजनके अर्थि कराइए है । तातें आस्रवादिकका श्रद्धा | नसहित आपापरका जानना का आपका जानना कार्यकारी हैं। यहां प्रश्न जो ऐसे है, तौ ।। |शास्त्रनिविषै आपापरका श्रद्धान वा केवल आस्माका श्रद्धानहीकौं सम्यक्त्व कह्या, वा कार्यकारी || कह्या । बहुरि नव तत्त्वकी संतति छोडि हमारे एक आत्मा ही होहु, ऐसा कह्या । सो. कैसे। कह्या,-ताका समाधान,
जाका सांचा आपापरका श्रद्धान वा आत्माका श्रद्धान होय, ताकै सातौँ तत्त्वनिका श्रद्धान होय ही होय । बहुरि जाकै सांचा सात तत्वनिका श्रद्धान होय, ताके आपापरका वा
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प्रकाश
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आत्माका श्रद्धान होय ही होय । ऐसा परस्पर अविनाभावीपना जानि आपापरका श्रद्धानकों ll वा आत्मश्रद्धान होनेकों सम्यक्त्व कह्या है । बहुरि इस छलकरि कोई सामान्यपने आपापरकों || जानि वा आत्माकों जानि कृतकृत्यपनौ माने, तौ वाकै भ्रम है। जाते ऐसा कह्या है-'निर्वि |शेषो हि सामान्यो भवेत्खरविषाणवत्' याका अर्थ यह, जो विशेषरहित सामान्य है सो गधेके | सींगकी समान है । ताते प्रयोजनभूत आस्रवादिक विशेषमिसहित आपापरका वा आत्माका || श्रद्धान करना योग्य है । अथवा सातौं तत्त्वार्थनिका श्रद्धानकरि रागादिक मेटनेके अर्थ परद्रव्यनिकों भिन्न भाव है, वा अपने आत्माहीकों भावै है। ताकै प्रयोजनकी सिद्धि हो है । तातें मुख्यताकरि भेदविज्ञानकों वा आत्मज्ञानकों कार्यकारी कह्याहै । बहुरि तत्वार्थश्रद्धान किए बिना || सर्व जानना कार्यकारी नाहीं । जाते प्रयोजन तौ रागादिक मेटनेका है । सो आस्रवादिकका श्रद्धानविना यह प्रयोजन भासे नाहीं। तब केवल जाननेहीते मानकों वधावै, रागादिक छोड़ें। नाहीं, तब वाका कार्य कैसे सिद्ध होय । बहुरि नवतत्वसंततिका छोड़ना कह्या है। सो पूर्वे नवतत्वके विचार करि सम्यग्दर्शन भया, पीछे निर्विकल्पदशा होनेके अर्थि नवतत्वनिका भी | | | विकल्प छोड़नेकी चाहि करी । बहुरि जाक. पहले ही नवतत्वनिका विचार नाही, ताके तिस || विकल्प छोड़नेका कहा प्रयोजन है । अन्य अनेक विकल्प आपकै पाइए है, तिनहीका त्याग करौ । ऐसें आपापरका श्रद्धानविषे वा आत्मश्रधानविष सप्ततत्वनिका श्रद्धानकी सापेक्षा
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पाइप है । तातें तत्वार्थश्रधान सम्यक्त्वका लक्षण है । बहुरि प्रश्न -- जो कहीं शास्त्रनिविषै अरहंतदेव निर्बंथ गुरु हिंसारहित धर्मका श्रद्धधानकों सम्यक्त्व का है, सो कैसें है । ताका
समाधान,—
अरहंत देवादिका श्रद्धान होने वा कुदेवादिकका श्रद्धान दूर होनेकरि गृहीत मिथ्यात्वका अभाव हो है । तिस अपेक्षा याकौं सम्यक्त्वी कया है । सर्वथा सम्यक्त्वका लक्षण यह नाहीं । जातै द्रव्यलिंगी मुनि आदि व्यवहार धर्मके धारक मिथ्यादृष्टी तिनिकै भी ऐसा श्रद्धान हो है । अथवा जैसे अणुव्रत महाव्रत होतें देशचारित्र सकलचारित्र होय, कान होय । परंतु अणुव्रत भए बिना देशचारित्र कदाचित् न होय अर महात्रत धारे बिना सकलचारित्र कदाचित् न होय । तातें इनि व्रतनिकों अन्वयरूप कारण जानि कारणविषै कार्यका उपचारकरि इन्कौं चारित्र कह्या । तैसें अरहंत देवादिकका श्रद्धान होते, म्यक्त्व होय वा न होय । परंतु अरहंतादिकका श्रद्धान भए बिना तत्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्व कदाचित होय । तातैं अरहंतादिकके श्रद्धानको अन्वयरूप कारण जानि कारणविषै कार्यका उपचारकरि इस श्रद्धानकों सम्यक्त्व का है। याही याका नाम व्यवहारसम्यक्त्व हैं । अथवा जाकै तत्त्वार्थश्रद्धान होय, ताकै सांचा अहंतादिकके स्वरूपका श्रद्धान होय ही | होय । तत्रार्थ श्रद्धा विना पचकरि अरहंतादिकका श्रद्धान करें, परंतु यथावत् स्वरूपकी
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पहचानलिये श्रद्धान होय नाहीं । बहुरि जाकै सांचा अहंतादिकके स्वरूपका श्रद्धान होय, ताकै तत्त्वार्थ श्रद्धान होय ही होय । जातें अरहंतादिकका स्वरूप पहचानें जीव अजीव
|
वादिककी पहचान हो है । ऐसें इनकों परस्पर अविनाभावी जानि, कहीं अरहंतादिकके श्रद्धानौं सम्यक्त्व का है। यहां प्रश्न --जो नारकादिक जीवनिकै देवकुदेवादिकका व्यवहार नाहीं, अर तिनिके सम्यक्त्व पाइए है, तातै सम्यक्त्व होतैं अरहंतादिकका श्रद्धान होय ही होय, ऐसा नियम संभवै नाहीं । ताका समाधान,
सप्त तत्स्वनिका श्रद्धानविषै अरहंतादिकका श्रद्धान गर्भित है । जाते तत्त्वश्रद्धानविषै: मोक्ष तत्त्वको सर्वोत्कृष्ट माने है । सो मोचतत्त्व तो अरहंत सिद्धका लक्षण है । जो लक्षणकों उत्कृष्ट मार्ने, सो ताकै लक्ष्यको उत्कृष्ट माने ही माने । तातै उनको भी सर्वोत्कृष्ट मान्या औरकौं न मान्या सो ही देवका श्रद्धान भया । बहुरि मोक्षका कारण संवर निर्जरा है, तातें इनको भी उत्कृष्ट माने है । सो संवर निर्जराके धारक मुख्यपनै मुनि हैं । तातें मुनिकों उत्तम मार्के हैं और न माने हैं, सोई गुस्का श्रद्धान भया । और रागादिकरहित भावका नाम अहिंसा है, ताहीको उपादेय माने है औरकों न माने है सोई धर्मका श्रद्धान भया । ऐसे तत्त्वार्थश्रद्धाविषै अरहंतदेवादिकका भी श्रद्धान गर्भित हैं. अथवा तिस निमित्ततै इनके तत्वार्थ श्रद्धान हो है, तिप्तः निमित्त अरहंतदेवादिकका भी श्रद्धान हो है । तातें:
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मो.मा. सम्यक्त्वविष देवादिकके श्रद्धानका नियम है । बहुरि प्रश्न-जो केई जीव अरहंतादिकका
। श्रद्धान करें हैं, तिनके गुण पहचान हैं, अर उनके तत्वश्रद्धानरूप सम्यक्त्व न हो है ।
ताते ज के सांचा अरहंतादिकका श्रद्धान होय, ताकै तत्वश्रद्धान होय ही होय, ऐसा नियम संभवे नाहीं। ताका समाधान,___ तत्वश्रद्धान विना अरहंतादिकके छियालीसआदि गुण जाने, है, सो पयाश्रित गुण || जानना भी न हो है । जाते जीव अजीवकी जाति पहचाने बिना अरहंतादिकके आत्माश्रित गुणनिकों वा शरीराश्रित गुणनिकों भिन्न भिन्न न जानै । जो जानै, तो अपने आत्माकों परद्रव्यत्वे भिन्न कैसें न माने। तातै प्रवचनसारविष ऐसा कह्या है,--
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपन्जयत्तेहिं ।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥१॥ याका अर्थ--यह जो अरहंतकों द्रव्यत्व गुणत्व पर्यायत्वकरि जाने है, सो आत्माकों जाने है । ताका मोह विलयको प्राप्त हो है । तातें जाकै जीवादिक तत्वनिका श्रद्धान नाही, ताकै अरहंतादिकका भी सांचाश्रद्धान नाहीं । बहुरि मोचादिक तत्वनिका श्रद्धानबिना अरहंतादिकका माहा:म्य यथार्थ न जाने। लौकिक अतिशयादिककरि अरहंतका तपश्चरणादिकरि गुणका अर परजीवनिकी अहिंसादिकरि धर्मकी महिमा जाने, सो ये पर्यायाश्रत भाव हैं। बहुरि आत्माश्र
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मो.मा.
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स भावनिकरिअरहंतादिकका स्वरूप तत्वश्रद्धान भए ही जानिए है ।" तातै जाकै सांचा अरहंतादिकका श्रद्धान होय, ताकै तत्वश्रद्धान होय ही होय, ऐसा नियम जानना । या प्रकार सम्यक्त्वका लक्षण निर्देश किया। यहां प्रश्न --जो सांचा तत्वार्थदुधान वा आपापरका श्रद्धान वा आत्मश्रद्धान वा देवधर्मगुरुका श्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण का । बहुरि इन सर्व लक्षनिकी परस्पर एकता भी दिखाई, सो जानी । परंतु अन्य अन्य प्रकार लक्षण करनेका प्रयोजन कहा, ताका उत्तर—
ये चार लक्षण कहे, तिनविषै सांची दृष्टिकरि एक लक्षण ग्रहण किए चारों लक्षणोंका ग्रहण हो है । तथापि मुख्य प्रयोजन जुदा जुदा विचारि अन्य अन्य प्रकार लक्षण कहे हैं। जहां तत्वार्थश्रद्धान लक्षण कया है, तहां तौ यह प्रयोजन है जो इन तत्वनिको पहिचान, तो | यथार्थ वस्तुके स्वरूप वा अपने हित अहितका श्रद्धधान करे तब मोक्षमार्ग विषै प्रवर्ते । बहुरि जहां आप परका भिन्न श्रधान लक्षण कह्या है, तहां तत्वार्थश्रद्धानका प्रयोजन जाकर सिद्ध होय, तिस श्रधानको मुख्य लक्षण कया है । जीव अजीवके श्रद्धधानका प्रयोजन आपापरका | भिन्न श्रद्धधान करना है । बहुरि आश्रवादिकके श्रद्धधानका प्रयोजन रागादि छोड़ना है । सो आपापरका भिन्न श्रद्धधान भए परद्रव्यविषै रागादि न करनेका श्रद्धान हो है । ऐसे तत्वार्थश्रदधानका प्रयोजन आपापरकेभिन्न श्रद्धानतै सिद्ध होना जानि इस लक्षणकों कहा है ।
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मो मा बहुरि जहां आत्मश्रद्धान लक्षण कह्या है, तहां अपापरका भिन्नश्रद्धानका प्रयोजन इतना प्रकाश ही है-आपको आप जानना । आपकों आप जाने परका भी विकल्प कार्यकारी नाहीं ।
ऐसा मूलभूत प्रयोजनकी प्रधानता जानि आत्मश्रद्धानको मुख्य लक्षण कह्या है । बहुरि जहां
देवगुरुधर्मका श्रद्धान लक्षण कह्या है, तहां बाह्य साधनकी प्रधानता करी है । जाते अरहंत। देवादिकका श्रद्धान सांचा तत्वार्थप्रधानको कारण है । अर कुदेवादिकका श्रद्धान कल्पित
अतत्वश्रद्धानका कारण है । सो बाह्य कारणकी प्रधानताकरि कुदेवादिकका श्रद्धान न ! करावनेके अर्थि देवगुरुधर्मका श्रद्धानकों मुख्य लक्षण कह्या है । ऐसें जुदे जुदे प्रयोजननिक|रि मुख्यता करि जुदे जुदे लक्षण कहे हैं। इहां प्रश्न—जो ए चार लक्षण कहे, तिनविणे । । यह जीव किस लक्षणकों अंगीकार करै । ताका समाधान,--
मिथ्यात्वकर्मका उपशमादि होते विपरीताभिनिवेशका अभाव हो है। तहां च्या ।। लक्षण युगपत् पाइए है। बहुरि विचार अपेक्षा मुख्यपने तत्वार्थनिको विचार है । के आपा
परका भेद विज्ञान करै है। के आत्मस्वरूपहीको संभारे है। के देवादिकका खरूप विचारै । ॥ है । ऐसें ज्ञानविषै तो नाना प्रकार विचार होय, परंतु श्रद्धानविणे सर्वत्र परस्पर सापेक्षपनो | पाइए है । तत्त्वविचार करे है, तो भेदविज्ञानादिकका अभिप्राय लिए करें है । ऐसें ही अन्य-IN त्र भी परस्पर सापेक्षपणौ है । तातें सम्यग्दृष्टीकै श्रद्धानविषै च्या” ही लक्षणनिका अंगी-५०५
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मो.मा.IN कार है । बहरि जाकै मिथ्यात्वको उदय हैं, ताके विरीताभिनिवेश पाइए है । ताकै ए लक्षप्रकाश
ण आभास मात्र होय, सांचे न होय । जिनमत जीवादिकतत्वनिकों माने, औरकों न मान, तिनके नाम भेदादिकौं सीखे हैं, ऐसे तत्वार्थश्रद्धान होय है । परंतु तिनका यथार्थ । भावका श्रद्धान न होय । बहुरि आपापरका भिन्नपनीकी बातें करै, अर वस्त्रादिकवि परबु|द्धिकौं चिंतवन करै परन्तु जैसें पर्यायविर्षे अहंबुद्धि है, पर वस्त्रादिकवि परबुद्धि है, तैसें ।।
आत्माविर्षे अहंबुद्धि शरीरविषै परबुद्धि न हो है । बहुरि आत्माकों जिनवचनानुसार वितवे, परन्तु प्रतीतिरूप आपकौं आप श्रद्धान न करे है । बहुरि अरहंतादिक विना और कुदेवादिककौं न मान है। परन्तु तिनके स्वरूपको यथार्थ पहचानि श्रद्धान न करें है। ऐसे ए। लक्षणाभास मिथ्यादृष्टीके हो हैं । इनवि] कोई होय, कोई न होय । यहां इनकै भिन्नपनी भी। न संभवै है । बहरि इन लक्षणाभासनिविर्षे इतना विशेष है-जो पहिले तो देवादिकका। श्रद्धान होय, पीछे तत्वनिका विचार होय, पीछे आपापरका चितवन करे, पीछे केवल आत्माको चितवै । इस अनुक्रमतें साधन करें, तो परंपराय सांचा मोक्षमार्गकों पाय कोई जीव सिद्धपदकों भी पावै । बहुरि इस अनुक्रमका उल्लंघन करें, वाकै देवादिक माननेका कछु, ठीक नाहीं । अर बुद्धिकी तीव्रतातें तत्त्वातत्वविचारादिविर्षे प्रवर्ते हैं। तातें आपको ज्ञानी। जाने है । अथवा तत्त्वविचारविषे भी उपयोग न लगा है । भर आपापरका भेदविज्ञानी हुवा
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विचारे है । अथवा आपापरका भी ठीक न करे है पर आपकौं प्रात्मज्ञानी माने हैं। सो सर्व चतुराईकी बातें हैं। मानादिक कपायनिके साधन हैं । किछ भी कार्यकारी नाहीं । ताते जो जीव अपना भला करया गहै, तिसकौं यथावत् सांचा श्रद्धानः दर्शनकी प्राप्ति न होय, तावत् इनकौं भी अनुक्रमते अंगीकार करना । सो ही कहिए है---- ___पहले तो आज्ञादिककरि वा कोई परीक्षाकरि कुदेवादिकका मानना छोड़ि अरहंतदेवादिकका श्रद्धान करना । जाते ऐसा श्रद्धान भए गृहीतमिथ्यात्वका तो अभाव हो है । बहुरि | मोक्षमार्गके विघ्न करनहारे कुदेवादिकका निमित्त दूर हो है । मोक्षमार्गका सहाई. अरहंतदे
वादिकका निमित्त मिले है, तातै पहिले देवादिकका श्रद्धान करना । बहुरि पीछे जिनमतविषै कहे जीवादिक तत्वनिका विचार करना । नाम लक्षणादिक सीखने । जाते इस अभ्यासते तत्वार्थश्रद्धानकी प्राप्ति होय । पीछे आपापरका भिन्नपना जैमै भासे तैसें विचार किया करै । जाते इस अभ्यासतै भेदविज्ञान होय । बहुरि पीछे आपविष आपो माननेके अर्थि
खरूपका विचार किया करै । जाते इस अभ्यासते आत्मानुभवकी प्राप्ति हो है । बहुरि ऐसे है अनुमतें इनकौं अंगीकार करि पीछे इनहीविषे कबडू देवादिकका विचारविषे, कबहू तत्ववि
चारविषै, कबहू आपापरका विचारविषे, कबहू आत्मविचारविषे उपयोग लगावै । ऐसे अभ्यास ते दर्शनमोह मंद होता जाय, तब कदाचित सांचे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो है। जाते ऐसा
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नियम तो है नाहीं । कोई जीवकै कोई विपरीत कारण प्रबल बीनिमें होय जाय, तौ सन्यग्द-1 र्शनकी प्राप्ति नाहीं भी होय । परंतु मुख्यपने घने जीवनिकै तो इस ही अनुक्रमते कार्यसिद्धि || हो है । ताते इनकों ऐसे ही अंगीकार करना । जैसे पुत्रका प्रर्थी विवाहादि कारणनिकों मिलावै, पीछे घने पुरुषनिकै तौ पुत्रकी प्राप्ति होय ही है। काइकै न होय, तो नाही भी होय ।। परंतु याकों तो उपाय करना ही। तैसें सम्यक्त्वका अर्थी इन कारणनिकों मिलावे, पीछे । घने जीवनिकै तौ सम्यक्त्वकी प्राप्ति होइ ही है । काहूकै न होय, तौ नाहीं भी होय । परंतु । याकों तौ जाते कार्य बने, सोई उपाय करना । ऐसें सम्यक्त्वका लक्षण निर्देश किया। यहां ।। प्रश्न-जो सम्यक्त्वके लक्षण तो अनेक प्रकार कहे, तिनविर्षे तुम तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणों || मुख्य कह्या, सो कारण कहा । ताका समाधान,
तुच्छबुद्धीनको अन्य लक्षणनिविषे प्रयोजन प्रगट भासे नाही, वा भ्रम उपजै । अर इस तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणविर्षे प्रगट प्रयोजन भासे है, किछू भ्रम उपजै नाहीं। ताते इस लक्षण को मुख्य किया है । सोई दिखाइए है-देवगुरुधर्मका श्रद्धानविणे तुच्छबुद्धीनिकों यह भासै
अरहंतदेवादिककों मानना, औरकों न मानना । इतना ही सम्यक्त्व है। तहां जीव अजीवका A बंधमोक्षके कारणकार्यका स्वरूप न भासै, तब मोक्षमार्ग प्रयोजनकी सिद्धि न होय । वा जी-11 वादिकका श्रद्धान भए विना इस ही श्रद्धानविणे संतुष्ट होय आपकौं सम्यक्त्वी माने। एक
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कुदेवादिकते द्वेष तौ राखे, अन्य रागादि छोड़नेका उद्यम न करे, ऐसा भ्रम उपजै। बहुरि आपापरका श्रद्धानविर्षे तुच्छबुद्धीनकों यह भासै कि, आपापरका ही जानना कार्यकारी है। इसते ही सम्यक्त्व हो है। तहां आस्रवादिकका खरूप न भासे। तब मोक्षमार्ग प्रयोजनकी || सिद्धि न होय । वा आस्त्रवादिक श्रद्धान भए बिना इतना ही जाननेविर्षे संतुष्ट होय, आपकों || सम्यक्ती मान स्वच्छंद होय रागादि छोड़नेका उद्यम न करै । ऐसा भ्रम उपजै । बहुरि आत्मश्रद्धान लक्षणविषै तुच्छबुद्धीनिकों यह भासै कि, आत्माहीका विचार कार्यकारी है। इसहीत सम्यक्त्व हो हैं । तहां जीव अजीवादिकका विशेष वा आस्रवादिकका स्वरूप न भासे, तब मोक्षमार्ग प्रयोजनकी सिद्धि न होय । वा जीवादिकका विशेष वा आस्रवादिकके स्वरूपका श्रद्धान भए बिना इतने ही विचारते आपकौं सम्यक्ती मानि स्वच्छन्द होय रागादि छोड़नेका उद्यम न करे है । याके ऐसा भ्रम उपजे है । ऐसा जान इन लक्षणनिकों मुख्य न किए । बहुरि तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणविष जीव अजीवादिकका वा आस्रवादिकका श्रद्धान होयं । तहां || सर्वका स्वरूप नीके भासे, तब मोक्षमार्गका प्रयोजनकी सिद्धि होय । बहुरि इस श्रद्धानके भए सम्यक्त होय । परंतु यह संतुष्ट न हो है । आत्रवादिकका श्रद्धान होनेते रागादि छोड़ मोक्षका उद्यम राखे है। याके भ्रम न उपजे है । ताते तत्वार्थश्रदधान लक्षणको मुख्य किया है। अथवा तत्वार्थ श्रद्धान लक्षणविषै तो देवादिकका श्रद्धान वा आपापरकाश्रद्धान वा आत्म-11
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श्रद्धान गर्भित हो है। सो तो तुच्छबुद्धीनिकों भी भासे । बहुरि अन्य खचणगतिविषे तत्त्वार्थश्रद्धानका गर्भितपनी विशेष बुद्धिमान होंग, तिनहींकों भासे । तुच्छ बुद्धीनिकों न भासे । तातें तत्वार्थ प्रधान लक्षणों मुख्य किया है । अथवा मिथ्यादृष्टीके आभास मात्र ए होय। तां तत्वार्थनिका विचार तो शीघ्रपनै विपरीताभिनिवेश दूर करनेकौं कारण हो है। अन्य लक्षण शीघ्र कारण नाहीं होंय । वा किरीताभिनिवेशका भी कारण होय जाय । ताते यहां सर्व प्रकार प्रसिद्ध जानि विपरीताभिनिवेश रहित जीवादि तस्त्रार्थनिका श्रद्धान सो ही सम्वक्त्वका लक्षण है, ऐसा निर्देश किया। ऐसे लक्षणनिर्देशका निरूपण किया । ऐसा लक्षण जिस आत्माका स्वभावविषै पाइये है। सो. ही। सम्यक्त्वी जानना।
अब इस सम्यक्त्वके भेद दिखाइए है, तहां प्रथम निश्चय व्यवहारका भेद दिखाइये। है,-विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धानरूप आत्मपरिणाम सो तो निश्चय सम्यक्त्व है। जाते यह ! सत्यार्थ सम्यक्त्वका स्वरूप है । सत्यार्थहीका नाम निश्चय है । बहुरि विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धानको कारणभूत श्रधान सो व्यवहार सम्यक्त्व है । जाते कारणविष कार्यका उपचार किया है । सो उपचारहीका नाम ब्यवहार है। तहां सम्यग्दृष्टी जीवकै देवगुरुधर्मादिकका सांचा. श्रद्धान है. । तिसही निमित्तते याके श्रद्धानविर्षे विपरीताभिनिवेशका अभाव
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मो.मा.1 है । सो यहां विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान सो तो निश्चय सम्यक्त्व है, अर
देवगुरुधर्मादिकका श्रद्धान है, सो व्यवहार सम्यक्त्व है । ऐसें एक ही कालविर्षे दोऊ कालविषै दोऊ सम्यक्त्व पाइए है । बहुरि मिथ्यादृष्टी जीवकै देवगुरुधर्मादिकका श्रद्धान आभास मात्र हो है । अर याकै श्रद्धानविषे विपरीताभिनिवेशका अभाव न हो है। जाते। यहां निश्चय सम्यक्त्व तो है नाहीं, अर व्यवहार सम्यक्त्व भी आभासमानहै । जाते याकै देवगुरुधर्मादिकका श्रद्धान है, सो विपरीताभिनिवेशके अभावकों साक्षात् कारण भया नाहीं।। कारण भए विना उपचार संभवे नाही,। तातें साक्षात् कारण अपेक्षा व्यवहार सम्यक्त्व भी यान संभव है। अथवा याकै देवगुरुधर्मादिककाश्रद्धान नियमरूप हो है । सो विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धानकों परंपरा कारणभूत है । यद्यपि नियमरूप कारण नाही, तथापि मुख्यपने कारण हैं। बहुरि कारणविर्षे कार्यका उपचार संभव है । तातें मुख्यरूप परंपरा कारण अपेक्षा मिथ्यादृष्टीके भी व्यवहार सम्यक्त्व कहिए है । यहां प्रश्न-जो केई शास्त्रनिविषे देवगुरुधर्मका। श्रद्धानकौं वा तत्वश्रद्धानकों तौ व्यवहार सम्यक्त्व । कह्या है, अर आपापरका श्रद्धानकौं वा । केवल आत्माके श्रद्धानकों निश्चय सम्यक्त्व कह्या है 'सो कैसे हैं, । ताका समाधान,___ देवगुरुधर्मका श्रद्धानविणे प्रवृत्तिको मुख्यता है। जो प्रवृत्तिविषे भरहंतादिकों देवादिक माने, औरकों न मानें, सो देवादिकका श्रद्धानी कहिए हैं। अर तत्त्वश्रद्धानविर्षे तिनके । ५११
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विचारकी मुख्यता है । जो ज्ञानविषै जीवादितत्त्वनिक विचारै, ताकौ तत्वश्रद्धानी कहिए । ऐसें मुख्यता पाइए है। सो ए दोऊ काहू जीवके सम्यक्त्वको कारण तौ होंय, परन्तु इनका सद्भाव मिथ्यादृष्टीकै भी संभवे है । ताते इनको व्यवहार सम्यक्त्व कला है । बहुरि आपपरका श्रद्धानविषै वा आत्मश्रद्धानविषै बिपरीताभिनिवेशरहितपना की मुख्यता है । जो आपापरका भेदविज्ञान करै वा अपने आत्माको अनुभवे, ताकै मुख्यपनै विपरीताभिनिवेश न होय । तातै भेदविज्ञानीकौं वा आत्मज्ञानीको सम्यग्दृष्टी कहिए है । ऐसें मुख्यताकरि आपापरका श्रद्धान वा आत्मश्रद्धान सम्यग्दृष्टीहीके पाइए है । तातैं इनको निश्चय सम्यक्त्व का, सो ऐसा कथन मुख्यताकी अपेक्षा है । तारतम्यपनै ए च्यारों आभास मात्र मिथ्यादृष्टीकै होंय, सांचे सम्यग्दृष्टीकै होंय, । तहां आभासमात्र हैं, सो नियम विना परंपरा कारण हैं । अर ए सांचे हैं, सो नियमरूप साक्षात् कारण हैं । तातैं इनको व्यवहाररूप कहिए । इनके निमित्ततैं जो विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान भया, सो निश्चय सम्यक्त्व है, ऐसा जानना । बहुरि प्रश्न - - केई शास्त्रनिविषै लिखें हैं- - आत्मा है, सो ही निश्चय सम्यक्त्व है, और सर्व व्यवहार है। सो कैसे है । ताका समाधान, -
विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान भया, सो आत्माहीका स्वरूप है । तहां अभेदबुद्धिकर आत्मा र सम्यक्त्वविषै भिन्नता नाहीं । तातें निश्चयकरि आत्माहीकों सम्यक्त्व कह्या 1
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और सर्व सम्यक्त्व तौ निमित्तमात्र हैं। वा भेदकल्पना किए आत्मा अर सम्यक्त्वकै भिन्नता | कहिए है । तातें और सर्व व्यवहार कह्या । ऐसें जानना । या प्रकार निश्चय सम्यक्त्व अर व्यवहार सम्यक्त्वकरि सम्यक्त्वके दोय भेद हो हैं । अर अन्य निमित्तादिककी अपेक्षा आज्ञासम्यक्त्वादि सम्यक्त्वके दश भेद कहे हैं, सो आत्मानुशासनविर्षे कहा है,
आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशाप्सूत्रबीजसंक्षेपात् ।।
_ विस्ताराभ्यां भवमवगाढ़परमावगाढ़े च ॥ ११ ॥ याका अर्थ-जिनआज्ञाते तत्वश्रद्धान भया होय, सो आज्ञा सम्यक्त्व है। यहां इतना जानना-"मोकौं जिनआज्ञा प्रमाण है" इतना ही श्रद्धान सम्यक्त्व नाहीं है । आज्ञा मानना ।। तौ कारणभूत है। याहीते यहां आज्ञात उपज्या कह्या है। तातै पूर्व जिनआज्ञा माननेते पीछे जो || तत्वश्रद्धान भया, सो आज्ञासम्यक्त्व है। ऐसही निर्ग्रन्थमार्गके अवलोकन तत्वश्रद्धान भया होय, सोमार्ग सम्यक्त्व है।बहुरि उत्कृष्ट पुरुष तीर्थकरादिक तिनके पुराणनिका उपदेशजो उपज्या स-। म्यग्ज्ञान ताकरि उत्पन्न आगमसमुद्रविर्षे प्रवीणपुरुषनिकरि उपदेश आदितै भई जो उपदेशकदृष्टि सो उपदेशसम्यक्त्वहै।मुनिके आचरणकाविधानको प्रतिपादनकरता जो आचारसूत्र नाहि | सुनकरिश्रद्धानकरना जो होय,सो सूत्रदृष्टि मलेप्रकार कहीं है। यह सूत्रसम्यक्त्वहै। बहुरि बीज जे गणितज्ञानको कारण तिनकरि अनुपमा दर्शनमोहका उपशभके चलते दुष्कर है जाननेकी
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गति जाकी, ऐसा पदार्थनिका समूह ताकी भई है उपलब्धि श्रद्धानरूप परणति जाकै, ऐसा ।। | करणानुयोगका ज्ञानी भया, ताके बीजदृष्टी हो है । यह बीजसम्यक्त्व जानना । बहुरि पदार्थनिकों संक्षेपपनेते जानकरि जो श्रद्धान भया, सो भली संक्षेपदृष्टि है। यह संक्षेपसम्यक्त जानना । जो द्वादशांगवानीकों सुन कीन्हीं जो रुचि श्रद्धान, ताहि विस्तारदृष्टी हे भव्य तू।। | जानि । यह विस्तारसम्यक्त्व है । बहुरि जैनशास्त्रके वचनविना कोई अर्थका निमित्ततै भई ।।
सो अर्थदृष्टी है । यह अर्थसम्यक्त्व जानना । बहुरि अंग पर अंगबाह्यसहित जैनशास्त्र ।। | ताकौं अवगाह करि जो निपजी, सो अवगाढ़दृष्टि है । यह अवगाढ़सम्यक्त्व जानना । ऐसें ।।
आठ भेद तो कारण अपेक्षा किए हैं । बहुरि श्रुतकेवलीके जो तन्वश्रद्धान है, ताको अवगाढ़सम्यक्त्व कहिए हैं केवलज्ञानीके जो तत्वश्रद्धान है, ताकौं परमावगाढसम्यक्त्व कहिप है। ऐसें टोय भेद ज्ञानका सहकारीपनाकी अपेक्षा किए हैं । या प्रकार दशभेद सम्यक्त्वके किए। तहां सर्वत्र सम्यक्त्वका स्वरूप तत्वार्थ श्रद्धान ही जानना । बहुरि सम्यक्त्वके तीन भेद किए हैं । १ औपशमिक, २ क्षायोपशमिक, ३ क्षायिक । ए तीन भेद दर्शनमोहकी अपेक्षा किए हैं। तहां उपशमसम्यक्त्वके दोय भेद हैं । एक प्रथमोपशम सम्यक्त्व, दूसरा द्विती- | | योपशम सम्यक्स्व । तहां मिथ्यात्वगुणस्थानविणे करणकरि दर्शनमोहकों उपशमाय सम्यक्त्व उपजै, ताकौं प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहिए है। तहां इतना विशेष है-अनादि मिथ्यादृष्टीके ।। ५१४
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तो एक मिथ्यात्वप्रकृतिहींका उपशम होय हैं। जाते. याकै मिश्रमोहिनी अर सम्यक्त्वमोहिनीकी सत्ता है नाहीं। जब जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होय, तिस सम्यक्त्वके कालविषै मिथ्यात्वके परमाणनिकों मिश्रमोहिनीरूप वा सम्यक्त्वमोहिनीरूप परिणमात्रै है, तब तीन प्रकृतीनकी सत्ता हो है । तातै अनादि मिथ्यादृष्टीकै एक मिथ्यात्वप्रकृतिको ही सत्ता है। ति- | सहीका उपशम हो है । बहुरि सादिमिथ्यादृष्टीकै कारकै तीन प्रकृतीनिकी सत्ता है, काहूकै ।। एकहीकी सत्ता है । जाकै सम्यक्त्वकालविषै तीनकी सत्ता भई थी, सो सत्ता पाइए ताके तीनकी सत्ता है । अर जाकै मिश्रमोहिनी सम्यक्त्वमोहिनीकी उद्वेलना होय गई होय, उनके परमाणु मिथ्यात्वरूप परिणम गए होय, ताकै एक मिथ्यात्वकी सत्ता है । तातै सादि मिथ्यादृष्टीकै तीन प्रकृतीनिका वा एक प्रकृतीका उपशम हो है । उपशमकहा ? सो कहिएहैं-अनिवृत्तिकरणविर्षे किया अंतरकरणविधानते जे सम्यक्त्वकालविणे उदय आवनेयोग्य निषेक थे, तिनिका तो अभाव किया, तिनिके परमाणु अन्यकालविषै. उदय भावने- 1 योग्य निषेकरूप किए । बहुरि अनिवृत्तकरणहीवियु किया उपशमविधानते जे तिसकालविष उदय आवनेयोग्य निषेक, ते उदीरणारूप होय इस कालविषै उदय न आ सके, ऐसे किए । ऐसें जहां सत्ता तौ पाइए, अर उदय न. पाइए, ताका नाम उपशम है । सो यह मिथ्यात्वतै भया प्रथमोपशम सम्यक्त्व, सो चतुर्थादि सप्तमगुणस्थानपर्यंत पाइए 1.
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है। बहुरि उपशम श्रेणीकों सन्मुख होते ससगुणस्थानविषै क्षयोपशमसम्यवत्वतें जो उपशम प्रकाशा
सम्यक्त्व होय, ताका नाम द्वितीयोपशमसम्यक्त्व है। यहां करणकरि तीन ही प्रकृतीनिका उपशम हो है । जाते यात तीनहीकी सत्ता पाइए यहां भी अंतःकरणविधानते वा उपशमविधानते तिनिके उदयका अभाव करै है । सो ही उपशम है । सो यह द्वितीयोपशम सम्य
क्व सप्तमादि ग्यारवां गुणस्थानपर्यंत हो है। पड़ता हुवा कोई छठे पांचवें चौथै गुणस्थान | भी रहै है, ऐसा जानना । ऐसें उपशम सम्यक्त्व दोय प्रकार है । सो यह सम्यक्त्व वर्तमानकालविषै क्षायिकवत् निर्मल है। याका प्रतिपक्षी कर्मकी सत्ता पाइए है, तातै अन्तर्मुहूर्त कालमात्र यह सम्यक्त्व रहै है । पीछे दर्शनमोहका उदय आवै है, ऐसा जानना । ऐसैं उपशम सम्यक्त्वका स्वरूप कह्या । बहुरि जहां दर्शनमोहकी तीन प्रकृतिनिविषै सम्यक्तवमोहनीका उदय पाइए है,ऐसी दशा जहां होय, सो क्षयोपशम है । जाते समल तत्वार्थ श्रद्धान होय, सो क्षयोपशम सम्यक्त है । अन्य दोय प्रकारका उदय न होय, तहां क्षयोपशम सम्यक्त्व हो है, सो उपशम सम्यक्त्वका काल पूर्ण भए यह सम्यक्त्व हो है । वा सादि | मिथ्यादृष्टीकै मिथ्यात्वगुणस्थानते वा मिश्रगुणस्थामतें भी याकी प्राप्ति हो है । क्षयोपशम || कहा-सो कहिए है,
दर्शनमोहकी तीन प्रकृतीनिविषै जो मिथ्यात्वका अनुभाग है, ताके अनंत भाग || ५१६
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मो.मा. मिश्रमोहिनीका है । ताके अनंतवै भाग सम्यकत्वमोहिनीका है। सो इनविष सम्यक्त्वमोहिनी
प्रकृति देशघातिक है । याका उदय होते भी सम्यक्त्वका घात न होय । किंचित् मलीनता करे, मूलघात न कर सके। ताहीका नाम देशघाति है । सो जहां मिथ्यात्व वा मिश्रमिथ्यास्वका वर्तमानकालविवे उदय भावनेयोग्य निषेक तिनका उदय हुए बिना ही निर्जरा होना, सो तो क्षय जानना । और इनहीका आगामिकालविष उदय आवने योग्य निषेकनिकी सत्ता पाइए है, सो ही उपशम है । और सम्यक्त्वमोहिनीका उदय पाइए है, ऐसी दशा जहां होय | सो क्षयोपशम है ताते समलतत्त्वार्थश्रद्धान होय, सो क्षयोपशम सम्यक्त्व है। यहां जो मल लागै है, ताका तारतम्य स्वरूप तो केवली जानें है, उदाहरण दिखाने के अर्थि चलमलिनअगाढ़पना कह्या है । तहां व्यवहारमात्र देवादिककी प्रतीति लौ होय, परंतु अरहंतदेवाद्विवि.। पै यह मेरा है, यह अन्यका है, इत्यादि भाव सो चलपना है । शंकादि मल लागै है, सो मलिनपना है । यह शांतिनाथ शांतिका कर्ता है, इत्यादि भाव सो अगाढ़पना है । सो ऐसा । उदाहरण व्यवहारमात्र दिखाए । परंतु नियमरूप नाहीं । क्षयोपशम सम्यक्त्वविषै जो नियमरूप कोई मल लागै है, सो केवली जाने है । इतना जानना-याके तत्वार्थश्रद्धानविषे कोई।। प्रकार करि समलपनो हो है । तातें यह सम्यक्त्व निर्मल नाहीं है। इस क्षयोपशम सम्यक्त्वका एक ही प्रकार है । याविषै कछु भेद नाहीं है। इतना विशेष है-जो क्षायिक सम्य-111५१७
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నిరంతరం సంచలన కాండం ఇది వరంగంలో
क्त्वकों सन्मुख होते, अंतर्मुहर्त्तकाल मात्र जहां मिथ्यात्वकी प्रकृतिका लोप करै है, तहां दोय : ही प्रकृतीनिकी सत्ता रहै है। पीछे मिश्रमोहिनीका भी क्षय करे है। तहां सम्यक्त्वमोहिनी | की ही सत्ता रहै है । पीछे सम्यक्त्वमोहिनीकी कांडकघातादि क्रिया न करे है । तहां कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टी नाम पावै है, ऐसा जानना । बहुरि इस क्षयोपशमसम्यक्त्वहीका नाम वेदकसम्यक्त्व है । जहां मिथ्यात्वमिश्रमोहिनीकी मुख्यता करि कहिए, तहां क्षयोपशमसम्यक्त्व | नाम पावै है । सम्यक्त्व मोहिनीकी मुख्यताकरि कहिए, तहां वेदक नाम पावै है । सो कहने ! मात्र दोय नाम हैं, स्वरूपविर्षे भेद है नाहीं । बहुरि यह क्षयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थादि सप्तम गुणस्थान पर्यंत पाइए है । ऐसें क्षयोपशम सम्यक्त्वका स्वरूप कह्या। ___बहुरि तीनों प्रकृतीनिके सर्वथा सर्व निषेकनिका नाश भए अत्यंत निर्मल तत्वार्थश्रद्धान | होय, सो क्षायिक सम्यक्त्व है । सो चतुर्थादि चार गुणस्थानविषे कहीं क्षायोपशम सम्यग्दृष्टी ।। के याकी प्राप्ति हो है । कैसे हो है, सो कहिए है—प्रथम तीन करणकरि मिथ्यात्वके परमाणूनिकों मिश्रमोहिनीरूप परिणमावै वा सम्यक्त्व मोहिनीरूप परिणमावे, वा निर्जरा करे, ऐसें मिथ्यात्वकी सत्ता नाश करै । बहुरि मिश्र आदि मोहिनीके परमाणूनिकों सम्यक्त्वमोहिनीरूप परिणमावै वा निर्जरा करे, ऐसे मिश्रमोहिनीका नाश करै । बहुरि सम्यक्त्वमोहिनीका निषेक उदय आय खिरे, वाकी बहुत स्थिति होय, तौ ताकौं स्थितिकांडादिकरि घटावै । जहां ||५१८
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»-30
प्रकाश
నుంచి
60 వంటి
मो.मा. अंतर्मुहूर्त्तस्थिति रहै, तब कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टी होय। बहुरि अनुक्रमते इन निषेकनिका
नाश करि क्षायिक सम्यग्दृष्टी हो है । सो यह प्रतिपक्षी कर्मके प्रभावते' निर्मल है, वा मिथ्यात्वरूप रज ताके अभावते वीतराग है । याका नाश न होय । जहांत उपजै, तहांते सिद्ध | अवस्था पर्यंत याका सद्भाव है । ऐसें क्षायिक सम्यक्त्वका स्वरूप कह्या। ऐसे तीन भेद सम्यक्त्व के कहै । बहुरि अनन्तानुबन्धी कषाय होते सम्यक्त्वकी दोय अवस्था हो हैं। के तो अप्रशस्त उपशम हो है, के विसंयोजन हो है । तहां जो करणकरि उपशम विधानते उपशम
हो है, ताका नाम प्रशस्त उपशम है । उदयका अभाव ताका नाम अप्रशस्त उपशम है । सो| 1 अनन्तानुबन्धीका प्रशस्त तो उपशम होय नाही, अन्य मोहकी प्रकृतिनका हो है। बटुरि इ-17 | सका अप्रशस्त उपशम हो है । बहुरि जो तीन करणकरि · अनन्तानुबन्धीनिके परमास्यूनिकों || अन्य चारित्रमोहिनीकी प्रकृतिरूप परिणमाई, तिसका सत्ता नाश करिए, ताका नाम विसंयोजन है । जो इनविषै प्रथमोपशन सम्यक्त्ववियु तो अनन्तानुबंधीका अप्रशस्त उपशम ही है। बहुरि द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति पहिले अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन भए ही होय, ऐसा नियम कोई आचार्य लिखे हैं । कोई नियम नाहीं लिखे हैं । बहुरे क्षयोपशम सम्यक्त्व | विष कोई जीवकै अप्रशस्त उपशम हो है, वा कोईकै विसंयोजन हो है । बहुरि क्षायक सम्य| क्त्व है, सो पहलै अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन भए ही हो है, ऐसा जानना। यहां यह वि
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చిత్రం
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1000 మందు రంగు తన
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॥ शेष है-जो उपशम क्षायोपशम सम्यक्त्वीकै अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनते सत्ता नाश भया ।
था । बहुरि वह मिथ्यात्वविर्षे आये, तो अनन्तानुबन्धीका बंधको अर तहां वाकी सत्ताका सद्भाव हो है । बहुरि क्षायिकसम्यग्दृष्टी मिथ्यात्वविषै आवै नाहीं । ताते वाकै अनन्तानुबन्धी की सत्ता कदाचित् न होय । यहां प्रश्न--जो अनन्तानुबन्धी तो चारित्रमोहकी प्रकृति है। सो सर्व निमित्त चारित्रहीकों घाते है । याकरि सम्यक्त्व घात फैसे संभधै। ताका समाधान___अनंतानुबंधीके उदयते क्रोधादिकरूप परिणाम हो है । कुछ प्रतत्त्वश्रद्धान होता नाहीं।। 1 तातै अनन्तानुबंधी चारित्रहीकों घाते है। सम्यक्त्वकों नाहीं पाते है । सो परमार्थते है तौ |
ऐसे ही परंतु अनंतानुबंधीके उदयतै जैसे क्रोधादिक ही हैं, तैसें क्रोधादिक सम्यक्त्व होते। न होय । ऐसा निमित्त नैमित्तकपना पाइए है । जैसें प्रसपनाकी घातक तो स्थावरप्रकृति ही है । परन्तु सपना होते एकेन्द्रिय जाति प्रकृतिका भी उदय न होय, ताते उपचारकरि । एकेन्द्रिय प्रकृतिकों भी असपनाकी घातक कहिए,तौ दोष नाहीं । तैसें सम्यक्त्वका घातक तो दर्शनमोह है। परंतु सम्यक्त्व होते अनंतानुबंधी कपायनिका भी उदय न होय, तातै उपचा-1 रकरि अनंतानुबंधीकै भी सम्यक्त्वका घातकषना कहिए, तो दोष नाहीं । बहुरि यहां प्रश्न-जो
अनंतानुबंधी चारित्रकों घाते है, तो याकै गए किछू चारित्र भया । असंयत गुणस्थानविषै 1 असंयम काहेकौं कहो हो । ताका समाधान-..
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अनंतानुबंधी आदि भेद हैं, ते तीन मंदकषायकी अपेक्षा नाहीं हैं । जाते मिथ्यादृष्टीके तीवकषाय होते वा मंदकषाय होते अनंतानुबंधी' आदि च्यारोंका उदय युगपत् हो है। तहां
च्या के उत्कृष्ट स्पर्द्धक समान कहे हैं । इतना विशेष है-जो अनंतानुबंधीके साथ जैसा तीव्र | उदय अप्रत्याख्यानादिकका होय, तैसा ताके गए न होय । ऐसे ही अप्रत्याख्यानकी साथ
प्रत्याख्यान संज्वलनका उदय होय, तैसा ताके गए न होय । बहुरि जैसा प्रत्याख्यानकी साथि | संज्वलनका उदय होय, तैसा केवल संज्वलन उदय न होय । तातै अनंतानुबंधीके गए किछु कषायनिकी मंदता तो हो है, परंतु ऐसी मंदता न होय जाकरि कोई चारित्र नाम पावै । जाते कषायनिके असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं । तिनविणे सर्वत्र पूर्वस्थानते उत्तरस्थानविर्षे मंदता पाइए । परंतु व्यवहारकरि तिनि स्थाननिविर्षे तीन मर्यादा करी । आदिके बहुत स्थान |तो असंयमरूप कहे, पीछ केतेक देशसंयमरूप कहे, पीछे कतेक सकलसंयमरूप कहे । तिनविर्षे प्रथम गुणस्थानतें लगाय चतुर्थ गुणस्थान पर्यंत जे कषायके स्थान हो हैं, सर्व असंयम
हीके हो हैं । तातै कषायनिकी मंदता होते भी चारित्र नाम न पावे हैं। यद्यपि परमार्थते | कषायका घटना चारित्रका अंश है, तथापि व्यवहारतें जहां ऐसा कषायनिका घटना होय, |जाकरि श्रावकधर्म वा मुनिधर्मका अंगीकार होय तहां ही चारित्र नाम पावै है । सो असंयमविर्षे ऐसे कषाय घटें नाहीं । तातें यहां असंयम कहा है। कषायनिका अधिक हीनपना | होते भी जैसे प्रमत्तादिगुणस्थाननिविषै सर्वत्र सकलसंयम ही नाम पावै हैं, तैसें मिथ्यात्वादि | ५२१
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मो.मा.
प्रकाश
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असंयतपर्यंत गुणस्थाननिविष असंयम नाम पावै है । सर्वत्र असंयमकी समानता न जाननी । बहुरि यहां प्रश्न-जो अनंतानुबंधी सम्यक्तवकों न घाते है, तो याकै उदय होते स्म्यक्त्वत। भ्रष्ट होय सासादन गुणस्थानकौं कैसे पावै है । ताको समाधान,| जैसे कोई मनुष्यकै मनुष्यपर्याय नाशकाकारण तीव्ररोग प्रगट भयाहोय, ताकौं मनुष्यपर्या-12
यका छोड़नहारा कहिए । बहुरि मनुष्यपना दूर भए देवादिपर्याय होय, सो तो रोग अवस्था| विषै न भया । वहां तौ मनुष्यहीका आयु है । तैसें सम्यक्तवीकै सम्यक्त्वका नाशका कारण अनंतानुबंधीका उदय प्रगट भया, ताकौं सम्यक्त्वका विरोधक सासादन कह्या । बहुरि सम्यत्वका अभाव भए मिथ्यात्व होप सो तो सासादनविषै न भया। यहां उपशमसम्बकत्वका ही काल है, ऐसा जानना । ऐसें अनंतानुबंधी चतुष्कको सम्यक्त्व होते अवस्था हो हैं। ताते। | सातप्रकृतिनिकै उपशमादिकतें भी सम्यक्त्वकी प्राप्ति कहिए है । बहुरि प्रश्न-सम्यमत्वमार्गणाके छह भेद किए हैं, सो केरौं हैं । ताका समाधान
सम्यक्त्वके तो भेद तीन ही हैं । बहुरि सम्यक्तवका अभावरूव मिथ्यात्व है । दोऊनिका मिश्रभाव सो मिश्र है । सम्यक्त्वका घातकभाव सो सासादन है । ऐसें सम्यक्त्व मार्गणाकरि जीवका विचार किए छह भेद कहै हैं । यहां कोई कहै कि, सम्यक्त्वतें भ्रष्ट होय मिथ्यात्वविषे आया होय, ताकौं मिथ्यात्वसम्यक्स्व कहिए । सो यह असत्य है। जाते अभव्यकै भी तिसका सद्भाव पाइए है । बहुरि मिथ्यात्वसम्यक्त्व कहना ही अशुद्र है । जैसे संगममार्गणा-५२२
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मो.मा.
॥ | विर्षे असंयम कह्या, भव्यमार्गणाविषे अभव्य कह्या. तैसे ही सम्यक्त्वमार्गणाविर्ष मिथ्यात्व प्रकाश कह्या है । मिथ्यात्वौं सम्यक्त्वका भेद न जानना । सम्यक्त्व अपेक्षा विचार करते केई जी
| वनिकै सम्यक्त्वका अभाव ही मिथ्यात्व पाइए है। ऐसा अर्थ प्रकट करनेके अर्थि सम्य॥ क्त्वमार्गणाविषै मिथ्यात्व कह्या है । ऐसें ही सासादन मिश्र भी सम्बक्त्वके भेद नाहीं हैं। | सम्यक्त्व के भेद तीन ही हैं, ऐसा जानना। यहां कर्मके उपशमादिकतै उपशमादिक सम्य| क्त्व कहे, सो कर्मका उपशमादिक याका किया होता नाहीं। यह तो तत्वश्रद्धान करनेका | उद्यम करै, ताके निमित्तते स्वयमेव कर्मका उपशमादिक हो है। तब याकै तत्वश्रद्धानकी प्राप्ति हो है। ऐसा जानना। याप्रकार सम्यक्स्वके भेद जानने। ऐसें सम्यग्दर्शनका स्वरूप कह्या।
बहुरि सम्यग्दर्शनके आठ अंग कहे हैं । निःशांकित्व, निःकांक्षित्व, निर्विचिकित्सित्व, | अमूढदृष्टित्व, उपबृंहण, स्थितिकरण, प्रभावना, वात्सल्य । तहां भयका अभाव अथवा तत्त्व|| निविषै संशयका अभाव, सो निश्शांकित्व है। बहुरि परद्रव्यादिविषै रागरूप बांछाका अभाव, । सो निःकांक्षित्व है । बहुरि परद्रव्यादिविष द्वेषरूप ग्लानिका अभाव सो निर्विचिकित्सित्व है। बहुरि तत्वनिविष देवादिकविर्षे अन्यथा प्रतीतिरूप मोहका अभाव, सो अमूढदृष्टित्व है । बहुरि आत्मधर्म वा जिनधर्मका बधावना, ताका नाम उपबृंहण है । इसही अंगका नाम उपगृहन भी कहिए है । तहां धर्मात्मा जीवनिका दोष ढांकना, ऐसा ताका अर्थ जानना ।
बहुरि अपने खभावविषै वा जिनधर्मविषै आपकौं वा परकों स्थापन करना, सो स्थितिकरण || * | अंग है । बहुरि अपने खरूपकी का जिनधर्मकी महिमा प्रगट करनी, सो प्रभावना है । बहुरि ।। ५२३
సంవత్సరం నుంచి 100000000000000కు పంపంగ్
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मो.मा.
प्रकाश
स्वरूपविषै वा जिनधर्मविषै वा धर्मात्मा जीवनिविषै प्रीतिभाव सो वात्सल्य है । ऐसें ए आठ श्रग जानने । जैसें मनुष्यशरीरके हस्तपादादिक अङ्ग हैं, तैसें ए सम्यक्त्वके अद्ध हैं । यहां प्रश्न -- जो केई सम्यक्त्वी जीवनिकै भी भय इच्छा ग्लानि आदि पाइए है, अर केई मिथ्यादृष्टीके न पाइए है । तातें निःशंकितादि श्रङ्ग सम्यक्त्वके कैसे कहो हो ।
ताका समाधान,
जैसें मनुष्य शरीर के हस्तपादादि अंग कहिये है । तहां कोई मनुष्य ऐसा भी होय है, जाकै हस्तपादादिविषे कोई अंग न होय । तहां याकै मनुष्यशरीर तौ कहिये है, परंतु तिनि अंगनि बिना वह शोभायमान सकल कार्यकारी न होय । तैसें सक्यक्त्वके निःशंकितादि अंग कहिए है। तहां कोई सम्यक्ती ऐसा भी होय, जाकै निःशंकितादिविषै कोई अंग न होय ॥ ताकै सम्यक्त्व तौ कहिए । परंतु तिनिका छांगनिबिना यह निर्मल सकल कार्यकारी न होय । बहुरि जैस बांदरेकै भी हस्तपादादि अंग हो हैं । परंतु जैसे मनुष्यकै होय, तैसें न हो हैं । तैसें मिथ्यादृष्टीनिकै भी व्यवहाररूप निःशंकितादिक अंग हो हैं । परन्तु जैसें । निश्चयकी सापेक्षा लिए सम्यक्त्वीकै होय, तैसें न हो हैं । बहुरि सम्यक्त्वविषै पचीस |मल कहे हैं, - -आठ शंकादिक, आठ मद, तीन मूढ़ता, षट् अनायतन, सो ए सम्यक्त्वी के न होंय । कदाचित् काहूकै मल लागें सम्यक्त्वका नाश न हो है, तहां सम्यक्त्व मलिन ही हो है, ऐसा जानना ।
* इति मोक्षमार्ग प्रकाशक समांत ।
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