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________________ मो.मा. दिकके शास्त्राभ्यासकौं कुश्रुतज्ञान कह्या, बुरा दीसै भला न दीसे तोकौं विभंगज्ञान कह्या । प्रकाश सो इनको छोड़नेंकै अर्थ उपदेशकरि ऐसें कहा । तारतम्यते मिथ्यादृष्टीके सर्व ही ज्ञान के ज्ञान हैं, सम्यग्दृष्टीकै सर्व ही ज्ञान सुज्ञान हैं । ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि कहीं स्थूलकथन किया होय, ताकौं तारतम्यरूप न जानना। जैसे व्यासते तिगुणी परिधि कहिए, सूक्ष्मपर्ने किछु अधिक तिगुणी हो है। ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि कहीं मुख्यताकी अपेक्षा । व्याख्यान होय, ताकी सर्व प्रकार न जानना । जैसे मिथ्यादृष्टी सासादन गुणस्थानवालों को पापजीव कहे, असंयतादिक गुणस्थानवालौं कौं पुण्यजीव कहे, सो मुख्यपर्ने ऐसे कहे, तारतम्यते दोऊनिकै पाप पुण्य यथा संभव पाईये है। ऐसे ही अन्यत्र जानना । ऐसे ही और ।। भी नाना प्रकार पाईये है, ते यथासंभव जानने । ऐसे करणानुयोगविष व्याख्यानका विधान दिखाया। अव चरणानुयोगविर्षे किस प्रकार ब्याख्यान है, सो दिखाईए है चरणानुयोगविर्षे जैसें जीवनिके अपनी बुद्धिगोचर धर्मका आचरण होय, सो उपदेश | दिया है । तहां धर्म तो निश्चयरूप मोक्षमार्ग है, सोई है । ताकै साधनादिक उपचारतें धर्म है, सो व्यवहारनयकी प्रधानताकरि नाना प्रकार उपचारधर्मके भेदादिकका याविष निरूपण | करिए है । जाते निश्चय धर्मविषे तो किछु ग्रहण त्यांगका विकल्प नाहीं भर याकै नीचली Karaokari+Masootpropcgotastoorproofantasoniadaoracontacrorecorrachookaorrorpillariasir Bgorygoo.1000000000000HCOOMoops0MBERO-20donaldootadookGOREGA १२२
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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