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श्रावकाचार
येऽवाहर्न हि कालोऽयं ध्यानस्य ध्यायतामिति । तेऽईन्मतानभिज्ञत्वं ख्यापर्यत्यात्मनः स्वयं ॥ ८॥ धरणवरण
अत्रेदानी निषेति शुक्लथ्यानं मिनोत्तमाः । धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणीभ्यां प्राविवर्तिनां ॥ ८३॥ ॥१८५॥
भावार्थ-जो कोई कहते हैं कि इस कालमें ध्यान नहीं होसका वे अईतके मतके ज्ञाता नहीं है, वे अपने अज्ञानको प्रगट करते हैं। तीर्थकरोंने इस कालमें मात्र शुक्लध्यानका निषेध किया है। श्रेणीके पहले रहनेवालोंके लिये धर्मध्यान कहा गया है। मुमुक्षुको उद्यम करके धर्मध्यानका अभ्यास करना चाहिये। श्लोक-पदस्थं पद विंदंते, अर्थ सर्वार्थ शाश्वतं ।
व्यंजनं तत्वसाथ च, पदाथ तत्र संजुतं ॥ १७८॥ अन्वयार्थ-(पदस्थं) पदस्थ धर्मध्यान (पद) पदोंको (विदते) ध्यानमें लेता है। (अर्थ) उसके भावको तथा ( सर्वार्थ शाश्वतं) अविनाशी सर्व पदार्थको विचारता है। (व्यंजनं ) शब्दको (तत्वसार्थ च) तत्व और अर्थके साथ ध्याता है (तत्र ) वहां (पदार्थ संजुतं ) पदार्थका संयोग मिलाता है।
विशेषार्थ-अक्षरोंके समूहको शब्द व शब्दके समूहको पद कहते हैं। जहां पदोंको अथवा शब्दको स्थापित करके उसके ऊपर चित्त रोका जावे, उन पदोंका व शब्दोंका क्या अर्थ है उसको विचारा जावे, उस अर्थसे जिन २ अविनाशी द्रव्योंका बोध होता हो तो उनको ध्यानमें लिया जावे, उनमेंसे त्यागने योग्यको त्यागा जावे व ग्रहण करने योग्य एक आत्मीय पदार्थको ग्रहण किया जावे। पदों या शब्दोंके आलम्बनको लेकर जहां आत्माका ध्यान किया जावे वह पदस्थ ध्यान है।
श्री ज्ञानार्णवमें कहा है:
पदान्यालम्ब्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते । तत्पदस्थ मतं ध्यानं विचित्रनयपारैगः ॥ १-१९ ॥
भावार्थ-योगीजन पवित्र पदोंका आलम्बन लेकर जो ध्यान करते हैं उसको अनेक नयोंके ४ ज्ञाता आचार्योंने पदस्थ ध्यान कहा है।
जैसे मंत्रराज ई शब्द है। इसका योगी कुंभक प्राणायामसे अर्थात् पवनको व मनको स्थिर करके पहले दोनों भौंहों के बीच चमकता हुआ चन्द्रमाकी ज्योतिके समान ध्यावे फिर मुखकमल में
॥१८॥