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तारणतरण
श्रावकाचार
॥१८६॥
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प्रवेश करता हुआ तालुओंके छेदसे गमन करता हुआ अमृतमय जल वर्षाता हुआ नेत्रकी पलकोपर ॐ चमकता हुआ फिर मस्तकके वालोंपर आता हुआ फिर ज्योतिषचक्रके भीतर भ्रमण हुआ फिर
चन्द्रमाके पाससे निकलता हुआ, दिशाओं में संचरता हुआ, आकाशमें उछलता हुआ, मोक्ष. स्थानको स्पर्श करता हुआ ध्यावे, फिर क्रमसे लाकर उसको भौंहोंके बीच में या नाशिकाके अग्रy भागमें विराजमान करके ध्यावे । यह मंत्रराज श्री जिनेन्द्र भगवानका च उनकी शुद्ध आत्माका बोध करानेवाला है। जैसा ज्ञानार्णवमें कहा है
मंत्रमूर्ति समादाय देवदेवः स्वयं जिनः । सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः सोऽयं साक्षाद व्यवस्थितः ॥ १२ ॥
मावार्थ-यह मंत्रराज ई सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, शांत, देवाधिदेव जिनेन्द्रको स्वयं साक्षात् बतानेवाला है, इसके ध्यानके बलसे अरहंतको ध्यावे फिर अरहंतके शुद्ध आत्माको ध्यावे, उनके शरी रादिसे लक्ष्य हटा लेवे फिर अपने शुद्धात्मापर लक्ष्य देवे, इसी तरह और भी पदोंका ध्यान करे।
श्लोक-कुज्ञानं त्रि न पश्यंते, माया मिथ्या विखंडितं ।
व्यंजनं च पदार्थ च, सार्थं ज्ञानमयं ध्रुवं ॥ १७९ ॥ अन्वयार्थ (त्रि कुज्ञानं ) तीन मिथ्याज्ञान कुमति कुश्रुत व विभंग अवधि ( न पश्यंते ) जहां न ॐ दिखलाई पड़े (माया मिथ्या विखंडित) मापाचार व मिथ्यात्वका जहां खंडन होगया हो वहां (व्यंजनं च)
शब्दको ही ( पदार्थ च) व पदके अर्थको ही (सार्थ ज्ञानमयं ध्रुवं ) ज्ञानमयी अविनाशी आत्मीक पदार्थके ४ साथ ध्यावै।
विशेषार्थ-पदस्थ ध्यानके ध्याताको सम्यग्दृष्टी होना योग्य है तब ही वह ध्यान मोक्षमार्ग है व तव ही वह धर्मध्यान है। उस ध्यान करनेवाले में कुमति कुश्रुत व कुअवधि न हो और न उसमें कोई शल्य हो न मायाचार हो न मिथ्यात्व हो और न निदान भाव हो। निर्मल सरल भाव करके ध्यान किया जावे । जिस शब्दका व जिस पदका आलम्बन लिया जावै उससे जिस पदार्थका बोध हो उसको विचारा जावे । मुख्यतासे अविनाशी ज्ञानमय आत्मापर लक्ष्य रक्खा जावे। जैसे णमो. कार मंत्रका ध्यान इसप्रकार किया जाचे-एक कमल आठ पत्रोंका हृदय में या नाभिमें या मुखमें
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