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वारणवरण
श्रावकाचार
विचार किया जावे जो चंद्रमाके समान चमकता हुआ सफेद हो, उसकी बीचकी कर्णिकापर सात अक्षरका पद " णमो अरइंताणं" ध्यावे फिर चार दिशाओंके चार पत्रोंपर " णमो सिद्धाणं" ऊपरको, फिर बगलोंमें " णमो आइरियाणं, णमो उवझायाणं", नीचे " णमोलोए सव्यसाहूणं" फिर चार विदिशाओंके पत्रोंपर सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः, सम्पचारित्राय नमः, सम्यक्तपसे नमः, इन चार पदोंको ध्यावे। पहले इन नौ पदोंको पत्तोंपर लिखा हुआ विचार ले फिर. क्रमसे एक एकको ध्यावे-एक एक पर चित्तको रोके, उस पदके अर्थको विचारे, फिर उसके भावको विचारे । जैसे " णमो अरहताणं" में अईतोंका व तीर्थकरोंका स्वरूप विचारे, विचारते हुए उनके शरीर व पुद्गल परसे चित्त हटाकर उनके शुद्धात्मापर चित्त लेजावे फिर अपने आत्मापर आजावे । मनको जमाता हुआ ध्यावे । इसी तरह "सम्यग्दर्शनाय नमः" में व्यवहारनयसे देव, शास्त्र, गुरुका व सात तत्वोंका स्वरूप विचार जावे फिर निश्चयनयसे पुगल कर्मसे भिन्न शुद्ध आत्मापर लक्ष्य दे, फिर अपनी ही आत्मापर आजावे, इस तरह धीरे २ नौ पदोंके द्वारा अपने आत्माको ही ध्यानमें लेकर शुद्ध भावना सहित ध्यावे यह पदस्थ ध्यानका एक प्रकार है।
श्लोक-पदस्थं शुद्धपद साथ, शुद्धतत्त्व प्रकाशकं।
शल्यत्रयं निरोधं च, माया मिथ्या न दिष्टते ॥१०॥ अन्वयार्थ-(पदस्थं) पदस्थ ध्यान (शुद्धपद साथ) शुद्ध पद अर्थ सहितका होता है। (शुद्धतत्व प्रकाशकं) यह शुद्ध आत्मतत्वका प्रकाशक होता है। (शल्यत्रयं निरोध च) तीन शल्य जहां नहीं होती है (माया मिथ्या न दिष्टते) वहां माया व मिथ्यात्व दृष्टिगोचर नहीं होता है।
विशेषार्थ-शुद्ध शब्द जिसका अर्थ हो ऐसे शब्द व शब्दोंके समूह रूप पदोंको विराजमान करके पदस्थ ध्यान किया जाता है । इस ध्यानका हेतु यही होता है कि शुद्ध आस्मतत्वका अनुभव होजावे । ऐसे ध्यानीके भावों में माया मिथ्या निदान ये तीन शल्य नहीं होती हैं। वह सर्व प्रकार मायाचार व मिथ्या वासनासे रहित होकर मात्र शुद्धोपयोगके लिये पदस्थ ध्यान करता है। जैसे एक कमल हृदयस्थानमें विराजमान किया जावे उसके १६ पत्र हों उनपर १६ अक्षरी मंत्र एक एक अक्षरके क्रमसे लिखा हो वह है "अहत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यो नमः" इसका ध्यान करे