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________________ अर्थ विचारे फिर पांचों परमेश्वीका स्वावा इस तरह और में श्रावकाचार Rec0 फिर इसका अर्थ विचारे फिर पांचों परमेष्ठीका स्वरूप अलग २ विचार जावे फिर उनमें निश्चयनयंसे एक सुडात्माको देखे, फिर अपने शुद्ध तत्वको ध्यावे । इसी तरह और भी पदोंका ध्यान करें। ___ श्लोक-पदस्थं लोक लोकांतं, लोकालोक प्रकाशकं ।। _व्यंजनं शाश्वतं सार्थ, ॐकारं च विंदते ॥ १८१ ॥ अन्वयार्थ-(पदस्थं ) यह पदस्थ ध्यान (ॐकारं व्यंजनं सार्थ) ॐ शब्दको अर्थ सहित (लोक लोकांतं) लोकके अंततक झलकनेवाला व (लोकालोक प्रकाशकं) लोकालोकका प्रकाश करनेवाला व (शाश्वतं) अविनाशी रूप व अविनाशी पदार्थको प्रकाशक (विंदते) ध्याता है। विशेषार्थ-इस श्लोकमें ॐ के ध्यान करनेपर लक्ष्य दिया है। ॐ को प्रणव मंत्र कहते हैं। ॐ शब्दको ध्यान करनेवाला हृदयकमलके मध्यमें या नाशिकाकी नोकपर या भौहोंके मध्य में परम ॐ तेजस्वी, चंद्रमाके समान गौर वर्ण चमकता हुआ ध्यावे। जिसकी दीप्ति लोकके अंत तक सर्वत्र फैल रही है ऐसा विचारे । फिर इसका अर्थ विचारे कि इसमें अरहंत आदि पांच परमेष्ठी गभित हैं। फिर उनमें से निश्चयनयसे लोकालोक प्रकाशक एक शुद्ध आत्मतत्वको ग्रहण करले। फिर अपने आत्मापर लक्ष्य देवे। इस तरह ॐ का ध्यान करे । ॐ के द्वारा अविनाशी अपने आत्मापर आजावे। , इसी तरह अन्य पदोंका भी ध्यान करे। यह ॐ शब्द परम्परासे चला आया हुआ एक अवि. नाशी पद है। श्लोक-अंगपूर्वं च जानते, पदस्थं शाश्वतं पदं । अनृतअचेत त्यकं च, धर्मध्यानमयं ध्रुवं ॥ १८२॥ अन्वयार्थ (पदस्थं शाश्वतं पदं) पदस्थ ध्यानमें नित्य चले आए हुए पदोंको विराजमान करनेसे व ध्यान करनेसे (मंगपूर्व च जानते ) ११ अंग १४ पूर्वका ज्ञान होजाता है। परन्तु वह विचार (अनृत अचेत त्यकं च) मिथ्यात्व व अज्ञानसे शून्य हो तथा (ध्रुवं धर्मध्यानमयं ) निश्चल धर्मध्यानमई हो। विशेषार्थ-इस श्लोकमें वर्णमातृकाका ध्यान करनेका संकेत किया गया है। श्री ज्ञानार्णवके अनुसार उसकी विधि यह है कि अपनी नाभिमें १६ पत्रोंका कमल सफेद वर्णका विचार करे और ४॥१०॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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