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मो.मा.
प्रतिमाधारक श्रावक तो कोई होता नाहीं, अर साधु होय । पूर्छ, तब कहैं—पतिमाधारी श्रीप्रकाश
वक अवार होयं सकता नाहीं। सो।देखो, श्रावकधर्म तो कठिन अर मुनिधर्म सुगम ऐसा विरुद्ध भाषे हैं। बहुरि ग्यारमी प्रतिमाधारककै थोरा परिग्रह मुनिकै बहुतपरिग्रह बतावें, सो | संभवता बचन नाहीं। बहुरि कहैं, ए प्रतिमा तौ थोरे ही काल पालि छोड़ि दीजिए है । सो | कार्य उत्तम है, तो धर्मबुद्धि ऊंची क्रियाओं काहेकों छोर । अर नीचे कार्य हैं, तो काहेकौं ||
अंगीकार करै । यह संभव ही नाहीं। बहुरि क्रुदेव कुगुरुकों नमस्कारादि करते भी श्रावकपना । बतावै । कहें, धर्मबुद्धिकरि तो नाहीं बंद हैं, लौ किक व्यवहार है । सो सिद्धान्तविष तौ तिन
की प्रशंसा स्तवनकों भी सम्यक्त्वका अतिचार कहें अर गृहस्थनिका भला मनाव. के अर्थि । वन्दना करते भी किछु न कहें। बहुरि कहोंगे-भय लज्जा कुतुहलादिकरि बंदे हैं, तो इन | | कारणनिकरि कुशीलादि सेवतें भी पाप मति कहो। अंतरंगविणे पाप जान्या चाहिए। ऐसे
सर्व आचरनविर्षे विरुद्ध होगा। मिथ्यावसारिखे महापापकी प्रवृत्ति छुड़ावनें की तो मुख्यता | नाही, अर पवनकायकी हिंसा ठहराय उघारे मुख बोलना छुड़ावनेकी मुख्यता पाइए । सो क्रमभंग उपदेश है । बहुरि धर्मके अंग बहुत हैं, तिनविषै एक परजीवकी दया ताको मुख्य कहै हैं । ताका भी विवेक नाहीं। जलका छानना, अन्नका शोधना, सदोष वस्तुका भक्षण न करना हिंसादिकरूप व्यापार न करना, इत्यादि याके अंगनिकी तो मुख्यता नाहीं। बटुरि पाटीका २४४
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