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मो.मा. प्रकाश
ताका उत्तर
जैसे इस कालविणे हंसका सद्भाव कह्या है अर गम्यक्षेत्रविष हंस नाहीं दीसे हैं, तो औरनिकों तौ हंस माने जाते नाही, हंसकासा लक्षणमिले ही हंस माने जाय। तैसें इस काल-11 | विषै साधुका सद्भाव है, अर गम्यक्षेत्रविष साधु न दीसे हैं, तो औरनिकों तो साधु माने जाते
नाहीं। साधुके लक्षणभिले ही साधु माने जाय । बहुरि इनका भी अबार थोरे ही क्षेत्रविणे । | सद्भाव दीसे है, तहांत परै क्षेत्रविर्षे साधुका सद्भाव कैसैं माने। जो लक्षण मिले मानौ, तो । यहां भी ऐसे ही मानौं । अर विनालक्ष्ण मिले ही मानों, तो तहां अन्य कुलिंगी हैं तिनहीकों || । साधु मानौ। ऐसें मानैः विपरीति होय, तातै बनें नाहीं। कोऊ कहै-इस पंचमकालमें है। ऐसें भी साधुपद हो है, तो ऐसा सिद्धांतका बचन बतावौ। बिना ही सिद्धांत तुम मानो हो, | तो पापी होवोगे। ऐसे अनेक युक्तिकरि इनकै साधुपना बनें नाहीं है। अर साधुपना बिना | साधु माने गुरु माने मिथ्यादर्शन हो है। जातें भले साधुकों ही गुरु मानें सम्यग्दर्शन हो है।
बहुरि श्रावकका धर्मकी अन्यथा प्रवृत्ति करावे हैं। त्रसकी हिंसा स्थूल मृषादि होते। भी जाका किछु प्रयोजन नाहीं, ऐसा किंचित् त्याग कराय वाकौं देशव्रती भया कहैं । सौ वे त्रसघातादि जामें होय ऐसा कार्य करें । सो देशव्रत गुणस्थानविषै तौ ग्यारह अविरित कहे हैं, | तहां त्रसघात कैसे संभवै । बहुरि ग्यारह प्रतिमाभेद श्रावकके हैं, तिनविष दशमी ग्यारमी।।
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